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________________ जैन धर्म की विशिष्ठता BHIMA NDAUNSOUNMIUMKUMHRDaascomullistinguND HAIND THIPULD HIDDIMILSAHEBISHNIDINAMINOHI जैन घर्ग ने जगत् पर एक महान् उपकार किया है। प्राणी चाहे कितना ही पतित से पतित क्यों न रहा अन्यथा यह जगत् दार्शनिकों के भुल भुलैया में ही हो-अपने को समस्त पापों से उन्मुक्त बना कर स्वयं भटकता फिरता। पावन बनकर परमात्म स्वरूप को प्राप्त करता है। ___ साहित्य और कला के क्षेत्र में तो जैन धर्म का यही कारण है कि जैन सिद्धांत न केवल भारत में भारतीय इतिहास में सर्वोपरि स्थान मान लिया जाय बल्कि समस्त संसार में प्रियकारी बने हैं। तो उपयुक्त ही होगा। ___ जमनी के विद्वान् प्रो० हेल्मुथ फॉन ग्नानाप्य ने ___ जैन धर्म विश्व धर्म है । जैन धर्म की अनेका 'जैनधर्म' नामक अपने प्रन्थ में लिखा है कि:नेक विशेषताओं में सबसे बड़ी विशेषता यह भी रही ___ जैन अपने धर्म का प्रचार भारत में याकर बसे है कि उसके अनुयायी होने के लिये किसी भी तरह हुए शकादि म्लेच्छों में भी करते थे, यह बात फा कोई बन्धन नहीं। 'कालकम्पार्य' की कथा से स्पष्ट है । कहा तो यह भी जाता है कि सम्राट अकबर भी जेनी होगया था। जैन धर्म के सिद्धान्त परम् उदार व्यापक और बाज भी जैन संघ में मुसलमानों को स्थान दिया सर्वजन हिताय एवं सर्गजन सुखाय हैं। यहाँ जाता है । इस प्रसंग में बुल्हर सा० ने लिखा था कि संकीर्णता को कोई स्थान नहीं । बम्हण हो या शुद्र, अहमदाबाद में जैनों ने मुसलमानों को जैनी बनाने स्त्री हो या पुरुष, राजा हो या रंक, बूढ़ा हो या बच्चा को प्रसंग वार्ता नसे कही थी। जैनी उसे अपने धर्म जैन धर्म के प्रांगण में किसी के प्रप्ति कोई भेद भाव की विजय मानते थे। भारत की सीमा के बाहर के नहीं। प्राणी मात्र उसका उपासक बनकर अपनी प्रदेशों में भी जैन उपदेशकों ने धर्म प्रचार के प्रयत्न भारमोन्नति करने का समान अधिकार रखता है यह किये थे। चीनी-यांत्री हेनसांग (६२८-६४५ ई.) का जैन धर्म की स्पष्ट उद्घोषणा है। जैन सिद्धांत के दिगम्बर जैन साधु कियापिसी (कपिश) में मिले थेउपदेशकों को जैन शास्त्रों की स्पष्ट हिदायत है कि उनका उल्लेख उसके यात्रा विवरण में है। हरिभद्रा. ___"जहाँ तुच्छरस करथइ तहां पुण्णस्स कत्थइ, जहाँ चाय के शिष्य हंस परमहंस के विषय में यह कहा पुण्णरस कत्थइ तहाँ तुच्छस्स कथइ । अर्थात्-जैन जाता है कि धर्म प्रचार के लिये तिब्बत (भोट) में धर्म का उपदेष्टा साधक जिस अनासक्त भाव से गये और वहां बौद्ध के हाथों से मारे गये थे। रंक को उपदेश देता है उसी अनासक्त भाव से चक्रप्रनबेडल सा० ने कुच की हकीकत का अनुवाद वर्ती का भी उपदेश देता है। अर्थात् उसकी दृष्टि किया है वहाँ जैनधर्म के प्रचार की पुष्टि होती है। में कोई भेद भाव नहीं। प्रत्येक जाति वर्ग वर्ण, का महावीर के धर्मानुयायी उपदेशों में इतनी प्रकार व्यक्ति और पतित से पतित जन भी उसका आश्रय की भावना थी कि वे समद पार भी जा पहँचते थे । लेकर अपना कल्याण कर सकता है। इससे स्पष्ट है ऐसी घहत सी कथाएं मिलती है जिनसे विदित होता कि जैन धर्म मानव मात्र का धर्म है । वह पतित है कि जैन धर्मोपदेशको ने दूर दूर के द्वीपों के पावन है। इसकी छत्र छाया में आश्रय पानेवाला अधिवासियों को जनधर्म में दीक्षित किया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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