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________________ महा प्रभाविष्ठ जैनाचार्य WIDGID ON NII: - 20:00 • है । शक लोगों कुछ समय राज्य कर बाल मित्र और भानुमित्र को राजा बनाकर चल दिये। दोनों परम जैन धर्म भक्त हुए हैं तत्पश्चात् कालिकाचार्य दक्षिण में विचरने लगे । प्रतिष्ठानपुर के राजा के आग्रह से संवत्सरी चतुर्थी की करने का आपने विधान किया । प्रथा आज भी श्वेताम्बर समाज मान रहा है । पंजाब के 'भावड़ा गच्छ' के प्रवर्तक भी आप ही थे । ये खपटाचार्य आप कालिकालिकाचार्य के भाणेज बलमित्र भानुमित्र के समय भरूच में हुए थे । शास्त्रार्थ में बौद्धों को पराजित कर अश्वाबोध तीर्थ जैनियों के अधिकार में दिलाया। गुडशारखपुर में यक्ष का उपदत्र शान्त किया । और बौद्धमति राजा वृद्ध कर को जैन बनाया। इन्हीं दिनों पाटलीपुत्र के शुग वंशी राजा दाहददेव भूति ने हुक्म निकाला था कि जो भी जैन साधुओं को मानेगा और उन्हें नमस्कार करेगा उसे प्राण दंड दिया जायगा | जैन संघ भयभीत हा उठा। ऐसे संकट काल के समय खपटाचार्य पाटलीपुत्र पचारे और राजा को सदबोध प्रदान कर जेन मोनुयायी बनाया । . आपके 'उपाध्याय महेन्द्रसूरि, नामक शिष्य भी बड़े प्रतापी हुए । परमप्रभाविक आचार्य पादलिप्तसूरि ने आपके पास विद्याध्ययन किया था । श्रार्य खपटाचाय र निः ४५० में स्वर्ग सिवारे | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat इस प्रकार युग प्रधान कालिकाचार्य अपने समय के एक प्रबल राज्य एवं धार्मिक क्रान्ति कर्त्ता रहे हैं। आपका वोर नि० सं० ४६० में स्वर्गवास हुआ । आ० विमल सूरि- आपने वि० सं० ६० में 'पद्म 'चरित्र' की रचना की । आ० इन्द्र दिन्न – आप आर्य सुहस्ति और सुप्रतिपट्टवर थ | आर्य दिन आपके पट्टधर हुए । बद्ध महा प्रभाविक जैनाचार्य ६१ के आचार्य आर्यदिन के पट्टधर आर्य सिंहगिरी तथा आर्य सिंहगिरी के पट्टधर आर्य वज्रसेन हुए । भिन्न २ पट्टावलियों में आपका स्थान भिन्न २ संख्यक पट्टधर के रूप में है । आचार्य पादलिप्तसूर कालकाचार्य की शिष्य परम्परा में आप आर्य नागहस्ति के शिष्य थे। आप महान विद्यासिद्ध और प्रतापी आचार्य हुए हैं। आपके द्वारा पाटलीपुत्र के राजा मुखंड, मानखेट के राजा कृष्णराज प्रतिबोधित हुए। कृष्णराज की राज सभा में आचार्य श्री का बड़ा सन्मान था । भरुच में ब्राह्मलों द्वारा जैनियों के विरुद्ध उठाये गये पड़यंत्र को आपने दबाया । प्रतिष्ठान पुर का राजा सातवाहन भी आपका परम भक्त शिष्य था । आपके गृहस्थ शिष्य महायोगी नागार्जुन ने आचार्य श्री के नाम से शत्रुंजय की तलेटी में पादलितपुर बसाया जो वर्तमान में पालीताणा कहा जाता है। आचार्य श्री ने तरगलाला, निर्वाण कलिका, प्रश्न प्रकाश आदि प्रन्थ लिखे । शत्रुंजय पर अनशन कर स्वर्ग सिधारे । www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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