SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास m eanibaultipsOMHIDDIEID-C12:0 DAILDERHILD GITAliSIDDHIND-COMMERIMEner. 0 PID OTIINIIIDOHDINDIAN HIDADITIHARIDAIHIDAIHIDILDAR - - ५ स्वयंभवस्वामी-आपका जन्म राजगृही के स्वप्न का यह अनिष्ट फल सुन कर महाराजा और ब्राह्मण कुल में हुआ था। अपने समय के बड़े चन्द्रगुप्त को यह संसार क्षणभंगा प्रकांड पंडित गिने जाते थे। प्रभव स्वामी से प्रति- उन्हाने अचार्य श्री के पास दीक्षा अंगीकार करली। बोधित हो जैन मुनि बने और जैन शासन की अपूर्ण वाद आचार्य भद्रबाहू स्वामीने चन्द्र गुप्ताहि १२००० सेवा की। जैनागम "देश वैकालिक सूत्र" की रचना मुनियों को संग ले दक्षिण में कर्नाटक की और श्राप ही ने की थी। विहार कर दिया। भद्र बाहु स्वामी का स्वर्गवास भी दक्षिण में ही हुआ। श्री चन्द्रगुप्त मुनि एक पर्वत ५ यशोमद्र स्वामी तथा संभूति विजयजी पर घोर तपस्या लीन रहे, अतः इस पर्वत का नाम वीर निर्वाण संवत् ६८ में श्री यशोभद्र आचार्य पद __ चन्द्र गिरी पहाड़ हो गया। पर प्रतिष्ठित हुए। वीर निर्वाण सं १०८ में श्री श्री भद्रबाहू स्वामी के दक्षिण भारत की ओर संभूति विजयजी ने दीक्षा ली। प्रस्थान करने से उत्तर भारत के जन संघ को बड़ा दोनों ही तत्कालीन संघ के आचार्य माने गये दुःख हुआ हुआ और उन्हें वापस लौटा लाने के अनेक ६ भद्र बाह स्वामी अनेक प्रयत्न किये गये । पर जब सब प्रयत्न अस. वीर निसं० १३६ के बाद आचार्ययशोभद्रस्वामी के फल हहे तब श्री स्थूलि भद्रजी को आचार्य पर प्रदान पास आप दीक्षित हुए। आप चतुर्दश पूर्व धर एवं कर उन्हें १४ पूर्व का ज्ञान प्रान करने हेतु प्राचार्य अन्तिम श्रुत केवली थे। आपने अपनी साहित्य सेवा भद्र बाहु स्वामी के पास भेजा गया। आपने भी द्वारा जैन शासन की जो महान् प्रभावना की है वह बड़ी तन्मयता से ज्ञानाभ्यास किया। एक बार आपने 'रूप परावर्तिनी' विद्या का परीक्षण करने के सदा काल अमर एवं चिरस्मरणीय रहेगी। लिये सिंह का रूप बनाया। आरका सिंह रूप देख आपने अनेक नियुक्तियां एवं उनसग स्तात्र सब मुनि भयभीत हो गये । जब आ० भद्रबाहु स्वामी बादि अध्यात्म ज्ञान विषयक ग्रन्थों को रचनाएं की। ने यह घटना सुनी तो बड़े खिम्न हुए और इस आप गृहस्थाश्रम में ४५ वर्ष तक रहे और ७० वर्ष प्रकार विद्या का दुरुपयाग न हा सके यह साच आगे तक गुरू सेवा में रह चौदह पूर्ण का ज्ञान प्राप्त पढ़ाने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार १४ में से किया। चौदह वर्ष तक संघ के एक मात्र प्राचार्य १० १० पूर्व का विच्छेद हो गया। ७ श्री स्थलिभद्रजी १५ से महाराजा चन्द्रगुप्त ने पौषध किया था आप नन्द वन्श के राजा के महामन्त्री उस दिन रात को रात्री में स्वप्न में एक बारह फण- शकडाल के ज्येष्ठ पुत्र थे । वीर निर्वाण सं० १५६ घारी सर्प देखा। भद्रबाहु स्वामी ने इसका फल में दीक्षा हुई। ससारावस्था में समस्त कुटुम्ब को बताते हुए १२ वर्ष के एक भयंकर दुष्काल पड़ने की छोड़ कर कोशा नामक वेश्या के घर रहे थे। उनके बात बताई जो सत्य सिद्ध हुई। पिता की मृत्यु के बाद राजा ने इन्हें मंत्री बनाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy