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________________ ५४ जैन श्रमण संघ का इतिहास IDIOINDIPAHIDDIAMIDANDANdIIIFRIDAII.HIDCOHII.INDINDORIIID IN OND-dilijulifll silt||10 THIREDIIID आप बड़े विद्वान लेखक थे। आपके नीति धर्म, "प्राचार्यसूरि सम्राट" बनाये गये। “शान्ति पशु कथानक तथा योग आदि विषयों पर करीब २० ग्रन्थों औषधालय' लींबड़ी नरेश तथा मिसेज ओगिल्वी की रचना की है। की संरक्षता में चलता रहा था आपको उदयपुर तथा वि० सं० १६८५ में वडाली में चातुर्मास पूर्ण कर नेपाल राजवंशीय डेपुटेशन ने अपनी गवर्नमेंट की आप तारंगाजी पधारे । यहाँ गुफा में ध्यानावस्था में ओर से "नेपाल राज गुरु' की पदवी से अलंकृत रहते समय सर्दी के तेज प्रकोप से आप व्याधिग्रस्त किया। कई उच्च अंग्रेज व भारत के अनेकों राजा बने । अहमदाबाद में अनेका उपाचार कराये गये पर महाराजा आपके अनन्य भक्त थे। आपके प्रभाव से सब असफल रहे । श्रावण वदी ५ को आप स्वर्गवासी लगभग सौ राजाओं और जागीरदारों ने अपने राज्य में पशु बलिदान की कर प्रथा बन्द की थी। श्री विजय शान्ति सूरीश्वरजी श्री विजयदान सूरीश्वरजी श्री प्राचार्य विजयशान्ति सूरिश्वरजी-अपने श्री आचये विजयदान सूरिश्वरजी-आपका जन्म प्रखर तेज, योगाग्यास एवं अपूर्व शांति के कारण आप विक्रमी सं० १६१४ की कार्तिक सुदी १४ के दिन वर्तमान समय में न केवल भारत के जैन समाज में झीजुवाड़ा नामक स्थान में दस्सा श्रीमाली जातीय प्रत्युत ईसाई, वैष्णव आदि अन्य धर्मावलम्बियों में जुठाभाई नामक गृहस्थ के गृह में हुआ, और आपका परम पूजनीय आचार्य माने जाते थे। आपका जन्म नाम दीपचन्द भाई रक्खा गया। सं० १६४६ को मणादर गांव में संवत् १६४५ को माघ सुदी ५ को मगसर सुदी ५ के दिन गोधा मुकाम पर आत्मारामजा हुआ। आपने मुनि धर्म विजयजी तथा तीर्थविजयजी महाराज के शिष्य वीरविजयजी महाराज से आपने से शिक्षा ग्रहण कर संवत् १६६१ की माघ सुदी २ दीक्षा ग्रहण का, एवं आपका नाम दानविजयजी रक्खा को मुनि तीर्थविजयजी से दीक्षा ग्रहण की। सोलह गया । आपके जैनागम तथा जैन सिद्धान्त की अपूर्व वर्षों तक मालवा आदि प्रान्तों में भ्रमण कर संवत् जानकारी को महिमा सुनकर बड़ौदा नरेश ने सम्मान १९७७ में आप बाबू पधारे । सं० १६६० की वैशाख पूर्वक आपको अपने नगर में आमंत्रित किया । संवत् बदी ११ पर बामनवाड़जी में पोरवाल सम्मेलन के १६६२ की मगसर सुदी ११ तथा पूर्णिमा के दिन समय १५ हजार जैन जनता ने आपको 'जीवदया आपको क्रमशः गणीपद तथा पन्यास पद प्रान हुआ प्रतिपालक योग लन्धि सम्पन्न राजराजेश्वर" पदवी और सं० १६८१ की मगसर सुदी ५ के दिन श्रीमान् अर्पण कर अपनी भक्ति प्रकट की। यह पद अत्यंत विजय कमलसूरिजी ने आपको छाणी गांव में आचार्य कठिनता पूर्वक जनता के सत्याग्रह करने पर आपने पद प्रदान किया, और तब से आप "विजयदान स्वीकार किया। इसके कुछ ही समय बाद “वीर. सुरिश्वरजी महाराज" के नाम से विख्यात् है। नेत्रों वाटिका" में आपका जैन जनता ने "जगत-गुरु" पद के तेज की न्यूनता होने पर भी आप अनेकों ग्रन्थों से अलंकृत किया । इसी साल मगसर महीने में आप के पठन पठनादि कार्यों में हमेशा संलग्न रहते थे। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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