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________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास BARAMMIDARIDEUDAMDATANDIDAI IIHINDAGIRUIDAIDAMAD THIIND OTHIMID-IINDI DID ORIDDHI HIDDHIDAIHIDIIIII के कथनानुसार चन्द्रगुप्त ने राजपाट छोड़कर अन्त स्थापना नहीं की। उन्होंने भगवान पाश्वनाथ के में मुनि दीक्षा धारण कर ली थी और भद्र बाहु शासन में जो विकारी तत्व प्रविष्ट हो गये थे उन्हें स्वामी के साथ मैसूर चला गया था। वहां श्रवण दूर कर उसका संशोधन किया । पार्श्वनाथ के साधु. बेलगोल की गुफा में ही उसका देहोत्सर्ग हुआ। साध्वी विविध वर्ण के वस्त्र रख सकते थे जब चन्द्रगुप्त बिन्दुसार और उसके बाद अशोक भी जैन- भगवान महावीर ने अपने साधु-साध्वियों के लिए धर्म के साथ गाढ सम्पर्क रखने वाले राजा हुए हैं। श्वेत वस्त्र रखने की ही आज्ञा प्रदान की। सचेलसम्राट अशोक का जैनधर्म के साथ सम्बन्ध था इस अचेल का यह भेद उत्तराध्ययन सूत्र के केशि-गौतम विषयक प्रमाणों में किसी तरह का विवाद नहीं है। संवाद से प्रकट होता है। चतुर्याम-पंचयाम और अशोक ने अपने उत्तर जीवन में बौद्ध धर्म सचेल-अचेल के भेद से ही भगवान पाश्वनाथ और को विशेषतया स्वीकार कर लिया था रादपि जैनधर्म । भगवान महावीर की परम्परा में नगण्यसा भेद था। इसके अतिरिक्त भौर कोई महत्त्वपूण भेद नहीं था के साथ उसका व्यमहार ठीक-ठीक बना रहा। इस इसलिए ये दोनों परम्पराएँ भगवान महावीर के तरह मगध की राजपरम्परा में भगवान महावीर का शासन के रूप में एक हो गई। धर्म दीर्घकाल तक चलता रहा। भगवान महावीर में उपदेश प्रदान करने की भगवान महावीर ने केवल ज्ञान प्राप्त करने के जैसी अनुपम कुशलता थी बैसी ही अपने अनुयायियों पश्चात् तीर्थ की स्थापना की। अपने उपदेशों के की व्यवस्था करने की भी अद्वितीय क्षमता थी। प्रोफेसर ग्लास्नाप ने भगवान की संघ-वस्था की प्रभाव से उनके तीर्थ में साधु, साध्वी, श्रावक और प्रशसा करते हुए लिखा है किःश्राविकाओं की उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। भगवान महावीर के धर्म में साधु-संघ और श्रावकपाश्वनाथ ने अपने संघ के साधुनों के लिए संघ के बीच जो निकट का सम्बन्ध बना रहा उसके ब्रह्मचर्य पालन की आज्ञा दी थी परन्त उसे अलग फलस्वरूप ही जैन धर्म भारतवर्ष में आज तक ब्रत न मान कर अपरिग्रह व्रत में ही सम्मिलित कर टिका रहा है । दूसरे जिन धर्मों में ऐसा सम्बन्ध नहीं था वे गंगा भूमि में बहुत लम्बे समय तक नहीं टिक लिया था परन्तु धीरे-धीरे परिग्रह का अर्थ संकृचित सके।" महावीर में याजना और व्यवस्था करने होता गया। अब परिग्रह से धन, धान्य, जमीन की अद्भुत शक्ति थी। इस श.क्त के कारण इन्होंने आदि ही समझे जाने लगे। भगवान महावीर के अपने शिष्यों के लिए जो संघ के नियम बन.ये समय में कई दाम्भिक परिणामक ऐसा भी प्रतिपादन अब भी चल रहे हैं। महावीर के समय में स्थापित करने लगे थे कि स्त्री-सेवन में कोई दोष नहीं है। साधु-संघों में सब जैन साधुओं को व्यवस्थित नियमन में रखने का बल अब भी विद्यमान है, ऐसा इस तरह की परिस्थिति में भगवान महावीर ने चतु. जब हम देखते हैं तो काल-बल जिस पर जरा भी र्याम धर्म के स्थान में पंचयाम मय धर्म का उपदेश असर नहीं कर सकता ऐसा स्वरूप पाश्वनाथ के किया और पाँचवा ब्रह्मचर्य महाव्रत बताया। साधु संघ को देनेवाले इस महापुरुप को देख कर भगवान महावीर ने नवीन सम्प्रदाय या मत की आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जा सकता है।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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