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________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास UIDAIMIRIDHIOIDAONLIBAmbimump CID Olilip DINNIND DIHDIRED CIIIA HIDDIHIN|D QUANTITIHINDI. HIDDIm इतिहास की मामग्री भरी पड़ी है। पाश्चात्य विद्वानों मुसलमान शासकों के समय में भी जैनविद्वानों ने इन गंथों को विश्वसनीय माना है। गुजरात के की सरस्वती आराधना का क्रम यथावत् चलता रहा। इतिहास के लिए तो यह एक आधार भूत गूथ गिना इस सतरहवीं शताब्दी में और इसकी पूर्ववर्ती जा सकता है। शताब्दियों में भी जैनमुनियों ने अपनी प्रतिभा से मुसलिम शासकों पर भी अपना अभिट प्रभाव डाला। ___ इसी प्रकार सुधाकलश, सोमतिलक, गजशेखर अतः इस काल में भी उनकी साहित्याराधना का प्रवाह सरि, रत्नशेखर, जयशेखर सरि, नेरूतुग आ द बड़े अमोघ रूप से प्रवाहित होता रहा । गुजराती साहित्य विद्वान साहित्यकार हुए हैं जिनकी कृतियाँ क्रमशः के विकास में जैनमुनियों का असाधारण योग रहा संगीत, दर्शन, प्रबन्ध, कोष, चरित्र विषयक कई है यह सब गुजराती साहित्यवेत्ता स्वीकारर करते हैं । गंथ रचे हैं । स्थानाभाव से विशेष परिचय नहीं दे विजयसरिजी-आप जगद् गुरु हीर विजयसूरि के पा रहे हैं। पट्टधर हैं। आपने योगशास्त्र के प्रथम श्लोक के इस शताब्दी में देवसुन्दरसरि महाप्रभाविक ५०० अथे किये हैं। आपके पट्टधर विजयदेव सूर आचार्य हुए इन्होंने अनेक ताडपत्रीय प्रतियों को कागज पर लिख वाया । इनके अनेक विद्वान् शिष्य विजयदेवसरि-आप प्रखर शास्त्रार्थ कर्ता एवं मत्र शास्त्र ज्ञाता हुए हैं। हीर विजय सूरिः-सतरहवीं शताब्दी के मुख्य ॐ अानन्दघनजो के प्रभावकपुरुष जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि हुए जिन्होंने अध्यात्मयोगी श्री दधनजी इनकी मुख्य प्रवृत्ति अकबर बादशाह पर गहरी छाप डाली। इनके विद्वान् अध्यात्म की ओर थी पहले ये लाभानन्द नाम के शिष्य भानुचन्द्र उपाध्याय तत् शिष्य सिद्धिचन्द्र उपाध्याय, आदि ने साहित्यरच..। के द्वारा संस्कृत श्वेताबर मुनि के रूप में थे बाद में अध्यात्मगांगी साहित्य की समृद्धि की। पुरुष आनन्दघन के नाम से विख्यात हुए । इन्होंने अपनी आध्यात्मिता की झांकी स्वनिर्मित चौबीपियों श्री धर्मसागर उपाध्याय, विजयदेवसूरि, ब्रह्ममुनि, में प्रतिबिम्बित की है। इनकी चौबीसियों में जा चन्द्रकीर्ति, हेमविजय, पद्मसागर, ममयसुन्द, गुण- आध्यात्मिक भाव हैं वे अन्यत्र दुर्लभ है । इनके विनय, शांतिचन्द्र गणि, भानुचन्द उपाध्याय, अनेक पद 'अानन्दघन बहोत्तरी' में दिये गये हैं सिद्धिचंद्र उप ध्याय रत्नचंद्र, साधुसु दर, महजकीर्ति उनमें आध्यात्मिक रुपक, अन्तर्योति का श्राविर्भाव, गणि, विनयविजय उपाध्याय, वादचंद्र सूरि, भट्टारक प्ररणामय भावना और भक्तिका उल्नास व्याप्त होता शुभचं, हर्षकीर्ति आदि अनेक ग्रंथकर्ताओं ने इस हुआ दिखाई देता है। आनन्दधन जी जैनधर्म की शताब्दी के साहित्य श्री को समृद्ध बनाया। भव्य विभूति हैं। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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