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________________ जैन श्रमण संध का इतिहास HAREnywssile-CMAMINET W OMANCERTIWANS-CONGRUISTORIMARDCORIAN><Mongowroomswapsow.com प्रारंभ होता है उससे पूर्ण भी जैनधर्म विधमान था। जैनागमों में किया गया है-मिसे समझने पर जैन इतिहासकाल की परिधि चार पाँच हमार वर्ण के धर्म को सृष्टि प्रवाह के अनुसार ही अनादि अनन्त भीतर ही सीमित है। उससे बहुत बहुत पहिले भी मानने में कोई शंका ही शेष वही रह जायगी। जैनधर्म का मास्तित्व था यह अब सप्रमाण सिद्ध स्थान संकोच से हम अभी उस भागमिक हो चुका है। विवेचना में न जाकर माधुनिक इतिहास कारों द्वारा सच तो यह है कि जैसे पष्टि का प्रवाह अनादि किये गये धन्वेषण अभिमतो से प्रकट होने वाली अनन्त है । उसी प्रकार जैनधर्म का न कोई भादि जैनधर्म की प्राचीनता पर ही किंचित प्रकाश सालना है और न कोई अन्त। चाहेंगे। जैन इतिहास कालप्रवाह के अनुसार अपने जैनधर्म वेदधर्म से भी प्राचीन है धर्म का कभी उदयकाल तो कभी हासकाल मानवा वैदिक धर्म के प्राचीन प्रन्धों से यह सिद्ध है। इस विकास और हासकाल को जैनधर्म को होता है कि उस समय भी जैनधर्म का अस्तित्व था। उत्पत्ति या विनाश नहीं कहा जासकता। वेदधर्म के सर्वामान्य प्रन्थ रामायण और महाभारत में जैन परिभाषा में धर्म का पुनरुद्धार कर तीर्थ भी जैनधर्म का उल्लेख पाया जाता है। रामचन्द्र के स्थापन करने वाले को तीर्थ कर कहा जाता है। कुल पुरोहित वशिष्ट जी के बनाये हुए योगवशिष्ट प्रत्येक तीर्थ कर का काल जैनधर्म का उदयकाल है। प्रन्थ में ऐसा उल्लेख है :एक तीर्थ कर के समय से दूसरे तीर्थ कर के जन्म नाहरामोनमे बाज्छा भावेषु च न मे मनः । से पहिले तक जैन धर्म उदितावस्था में आकर पूर्ण शान्तिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा । विकास प्राप्त करते हुए अस्तावस्था को प्राप्त होता भावार्थ:- रामचन्द्रजी कहते है कि मैं राम है और दूसरे तीर्थकर उसका पुनः अभ्युत्थान करते नहीं हूँ, मुझे किसी पदार्थ की इच्छा नहीं है; में जिनदेव के समान अपनी आत्मा में ही शान्ति इस दृष्टि से वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थ कर स्थापित करना चाहता हूं। भगवान ऋषभ देव से लगाकर तेइसवें तीर्थ कर इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि रामचन्द्र जी के भगवान पाहांनाथ और अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर समय में जैनधर्म और जेनतीर्थङ्कर का अस्तित्व भगवान महावीर स्वामी जैनधर्म के मूल संस्थापक था। जैनधर्मानुसार वीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत नहीं प्रत्युत् हासावस्था को प्राप्त करते जैनधर्म को स्वामी के समय में रामचन्द्रजी का होना सिद्ध है । नवजीवन प्रदान कर नवीन थरूप संगठन के महाभारत के आदि पर्ग के तृतीय अध्याय में २३ संस्थापक युगावतारी महा पुरुष थे। और २६ में श्लोक में एक जैन मुनि का उल्लेख है। ऐसी अनन्तानन्त चौषिसियाँ होना जैनागम शान्ति पर्ण ( मोक्ष धर्म अध्याय २३६ श्लोक ६ ) में मानते हैं और उनके नामादि पूर्ण उन्लेख भी जैनों के सुप्रसिद्ध सप्तभंगी नय का वर्णन है । Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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