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________________ १०४ जैन श्रमण संघ का इतिहास unloPIHARIDDINGllip-TIAHI12THuni<TITDAINicollID STORITAUTISoil IND-TITIN HID Kolitilip PIP24N DIIPRIDTHNID PAWANI]> <THILIND COINT (४) देवसंघ-इसके नेता देव थे। हैं तथा भारती करते हैं। तेरापन्थी भट्टारकों को उक्त चार संघों में से अनेक संघ निकले जो नहींमानते हैं, क्षेत्रपालादि की मूर्ति नहीं रखते, केशर उस संघ के नेता के नाम से विख्यात हुए । यह मूल का अर्चन नहीं करते, फूस नहीं चढ़ाते, भारती नहीं संघ की शाखायें हैं । इसके अतिरिक्त अन्य नवीन उतारते। तेरहवीं शताब्दी में हुए वसन्त कीर्ति से संघ इस प्रकार हैं:--१ द्रविड संघ-पूज्यपाद के शिष्य बीसपन्थ की स्थापना हुई और तेरहपन्थ की स्थापना वनन्दी ने विक्रम संवत ५२६ में मथुरा में इसकी पं० बनारसीदासजी के द्वारा हुई है । तेरह पन्थ और स्थापना की थी। अमुक फल भक्ष्य है या नहीं इस बीस पन्थ में प्रतिमा पूजन की विधि में मुख्यतया विषय पर विवाद होने से यह भेद पड़ा। कहा जाता भेद है । इसके अतिरिक्त ई० सम् १४४८-१५१५ में है कि यह संघ व्यापार करवाकर जीवन निर्वाह तारणत्वामी ने तारणपन्थ की स्थापना की। यह पन्थ करने को वैध मानता था। मूर्ति पूजा का विरोधी है परन्तु अपने संस्थापक के (२) यापनीय संघ ( मोप्य सघ):-यह संघ ग्रन्थों को वेदी पर रखकर पूजा करता है। इसके दिगंबर होते हुए भी स्त्री मुक्ति और केवली कवलाहार बाद गुमानपन्थ और तोता पन्थ भी स्थापित हुए | को स्वीकार करता है। ब्रह्मचारी क्षुल्लक ( एक लंगोट और एक वस्त्र रखने (३) काष्ठासंघ यह संघ श्वेताबंर दिगबर का वाले ) और एलक ( लंगोट मात्र रखने वाले ) मध्यस्थ था । इस शाखा का राष्ट्र कूट आदि वंशों के ये तीन दिगबंर मुनि होने के पहले की श्रेणियां हैं। राजाओं ने बहुत सन्मान किया था। विक्रम की श्वेताम्बर सम्प्रदाय आठवीं सदी में हरिभद्रसूरी ने ललित विस्तरा में ___ भगवान महावीर की सचेलक (श्वेतवस्त्र धारण) इसका सन्मानपूर्वक उल्लेख किया है। काष्ठासंघी व मूर्ति पूजा की परंपरा इसका मूलाधार है । इसके बाल पिच्छ रखते हैं। इसकी स्थापाना वि० सं०४५३ अन्तर्गत अनेक गण, गच्छ आदि अवान्तर भेद हैं । विनेयसेन के शिष्य कुमार सेन ने की थी। ___ कल्पसूत्र में भी अनेक कुल, गण और शाखाओं का (४) माथुरसंघ-संवत् ७४३ में रामसेन ने मथुरा उल्लेख मिलता है। मथुरा से प्राप्त हुए लेखों में भी में इसकी स्थापाना की थी। इस संघ वाले पिच्छी ऐसे गण कुल और शाखाओं के भेदों का उल्लेख है। नहीं रखते हैं । उक्त संघों में से आजकल कोई खास कहा जाता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अब तक संघ नहीं रहे। कितने गण या गच्छ हुए यह निश्चित नहीं कहा जा आजकेल दिगंबर सम्प्रदाय में महत्वपूर्ण दो पन्थ सकता है। है। एक बीस पन्थ और दूसरा तेरह पन्थ । वीस वीर निर्वाण संवत् ८८२ में जैन श्रमणों में पन्थी भट्टारकों ( यति ) को मानते हैं अपने देवालय शिथिलता आ जाने के कारण शिथिल आचार विचार में क्षेत्रपाल आदि की प्रतिमा रखते हैं, केशर का के पोषक चैत्यवासी अलग हुए। वे चैत्यों और मठों अर्चन करते हैं, नैवेद्य रखते हैं, रात्रि को भेंट चढ़ाते में रहने लगे। निनमन्दिर और पौषधशालाएँ बनवाने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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