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________________ ।। गणमात्धुएं समणस्स भगवश्री महावीरम्स । जैन श्रमण संघ का इतिहास जैन धर्म की विशिष्ठता विश्व शांति और विश्व प्रेम पर आधारित विजेता है। उन्होंने प्रथल प्रात्य बल द्वारा राग, जैन धर्म विश्व को एक महान देन है। विश्व प्रांगण द्वेष, क्रोध, मान माया, लोभ आषि समस्त अन्तरंग में अहिंसा प्रधान संस्कृति द्वारा शांति और सुख का आत्म शत्रुओं पर विजय प्रान कर उच्चतम पद प्राप्त संचार करने का सर्वोपरि श्रेय यदि किसी को है तो किया है। ऐसे महान विजेताओं का धर्म ही "जैन वह जैन धर्म को ही है। धर्म" है। ___ धर्म के नाम पर प्रचलित पाखंड और अन्ध- इन महान् आत्म-विजेता जिनेश्वर देवों के श्रद्धा के अन्धकार में भटकते विश्व को धर्म का सामने सबसे बड़ी समस्या थी "जगत् के दुःखों का असली स्वरूप और मार्ग बताने की धार्मिक क्रान्ति निवारणा करना"। जगत्को दुःखों से बचाने के लिये करना जैन धर्म प्रचारकों की एक महान विशिष्ठता "अात्म शक्ति" पर अवलम्बित रहने का उन्होंने उपदेश दिया। उन्होंने फरमाया कि "प्रास्मा में जैनसिद्धान्त का मूल आधार बायार है। असन्त शक्ति है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुश के मद् प्राचार और सद् विवेक पर हो उसका विशेष द्वारा हो 'परमात्मा' बन सकता है। उसे किसी दूसरे पापह है। पर अवलम्बित रहने की आवश्यकता नहीं । इसका लक्ष्य बिन्दु इस रश्यमान भौतिक जगत जैनधर्म का यह स्वावलम्बनमय सिद्धान्त मनुष्य तक ही सीमित नहीं वरन् विराट अन्तर्जगत की में एक अपूर्व धात्म ज्योति, परम शक्ति जागृत सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करना है। बाह्य किया कांडों करता है और उसे साहसी बनाता है। प्रत्येक प्राणी का इसमे कोई महत्व नहीं-वह तो विशुद्ध प्राध्यात्मिक की आत्मा अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त उन्नति का उपदेशक है। जैन धर्म केवल ऐहिक बल विर्य मादि महान् गुणों से परिपूरित है-केवल सुखों में ही संतुष्ठि महीं मानता प्रत्युत पारलौकिक उनको प्रकाशित करने को आवश्यकता है । इन गुणों कल्याण से ही उसका विशेष सम्बन्ध है। "आरम को प्रकाशित करने के लिये अपना आत्मिक विकास जीत" बनना ही सच्चे जैनत्व का सफल परिक्षण है। करना चाहिये। इस धर्म के बाद्य उपदेशक 'जिन' है। 'जिन' जैनधर्म का कथन है:का अर्थ है-महान विजेता। विजेसा का अर्थ है "अप्पा कत्ता विकत्ताय 'प्रारम विजेता'। जिनेश्वर देव परम आध्यात्मिक दुहणयोसुहागय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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