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________________ १२८ जैन श्रमण संघ का इतिहास INDon:R eempouPPINDAININNERambore EOIRIDDHINANDEDIT IHINDohammadpunlid INDIANRAKTIMADI आज तक भी मान्य है। इस प्रकार स्थानकवासी जो यति लौंकागच्छ की गादी पर थे। वीरजी वोरा सम्प्रदाय के वर्तमान स्वरूप के मूल प्रणेता पूज्य श्री उनके भक्त थे। लवजी ने इन्हीं के पास रह शास्त्राजीवराजजी म० को मान लिया जाय तो अनुपयुक्त भ्यास किया और सं० १६६२ में इन्हीं के पास दीक्षा न होगा। धारण की । इनको भी यति पन के शिक्षिलाचार से पूज्य श्री धर्म सिंहजी घृणा होगई और सं० १६६४ में यतिवर्ग से अलग आपका जन्म सौराष्ट्र के जाम नगर में दशा श्री होकर २ साथियों के माथ दीक्षा धारण की तथा यति माली श्रावक जिन दास के घर शिवादेवी जी कुक्षी पन के समस्त परिग्रहों का त्याग किया। यति वर्ग से हुआ । पूज्य श्री धर्मसिंहजी महाराज भी प्रश्ल द्वारा रचित षणयंत्र से प्रभावित होकर वीरजी क्रातिकर्ता एवं साहसी धर्म प्रचारक सिद्ध हुए हैं। वोरा भी इनसे क्रुद्ध होगये और खंभात के नवाब को गुरु की परीक्षा में सफल होने के लिये अहमदा- पत्र लिखकर इन्हें कैद करादिया पर कैदखाने में भी बाद की एक ऐसी मस्जिद में एक रात भर अकेले इनकी शुद्ध क्रियाए एवं धर्माचरण देखकर जेलर ने ध्यान मग्न रहे, जहाँ किसी प्रत का निवास स्थान बेगम सा० द्वारा नबाब से कहलाकर इन्हें जेल से माना जाता था और जो कोई इस मस्जिद में रात मुक्त कराया और भी अनेक कष्ट चैत्यवासियों भर रह जाता सवेरे उसका शव ही निकलता ऐसा द्वारा तथा यति वर्ग द्वारा इन्हें झेलने पड़े। माना जाता था। परन्तु धर्मवीर धर्मनिह जी महाराज लवजी ऋषिजी की परम्परा बड़ी विशाल है । इस परीक्षा में सफल रहे । कहते हैं यक्ष आपका भक्त पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज बन गया और भविष्य में किसी को न सताने की आपका जन्म अहमदाबाद के पास 'सरखेज' प्रतिज्ञा की । ऐसी किंवदन्ती है । यह घटना वि० सं० ग्राम के संघपति जीवन लाल कालीदासजी भावसार १६६२ की है। की धर्मपत्निी हीराबाई की कुक्षि से चैत्र शुक्ला ११ कुछ भी हो आप गुजरात में महामान्य बने। सं० १७०१ में हुआ । लौकागच्छ के यति तेजसिंहजी भाज आपके २४ वे पाट पर पूज्य श्री ईश्वरललजी के पास धार्मिक ज्ञान लिया। एक समय 'एकलपात्रिया' महाराज हैं और आज तक इस सम्प्रदाय की एक पंथ के अगुवा श्री कल्याणजी भाई सरखेज आये । ही श्रंखला अविच्छिन्न रूप से चली आरही है। सामाशिय नये वर्ष में ही पूज्य श्री लवजी ऋषिजी महाराज इस पंथ से इनकी श्रद्धा हटगई और सं० १७१६ में आपके पिता का देहावसान इनके बाल्यकाल में स्वतः शुद्ध दीक्षा ग्रहण की। धर्मसिंहजी म. के प्रति ही होगया था अतः माता फूनाबाई के साथ नाना इनका अटूट स्नेह था। एक बार एक घर से इन्हें वीरजी वोरा के साथ खंभात में इनका लालन पालन रोटी के बदले राख बहराई गई इम पर धर्मसिंहजी हुा । ये बड़े कुशाग्र बुद्धि थे। सात वर्ष की आयु में ने कहा-जिस प्रकार बिना राख के कोई घर नहीं ही सामायिक प्रतिक्रमण कंठस्थ थे। उस समय वज्रांग होता वैसे बिना तुम्हारे अनुयायी के कोई घर खाली Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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