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________________ २१४ जैन श्रमण संघ का इतिहास दरवाजे के बाहर रेल दादावाडी में बड़े समारोह पूर्वक घोषित की गई और 'ज्ञानश्रीजी' नाम स्थापन किया दाह संस्कार किया गया। गया। चिर स्मृति हेतु इसी स्थान पर रेल दादावाडी में आपने अल्प समय में ही व्याकरण, न्याय, काव्य "श्री सुवर्ण समाधि मन्दिर" स्थापित किया गया। कोष अलंकार छन्द एवं जीव विचार नवतत्व संग्रहणी यान भी उस महान् विभति की स्मृति सबको कर्मग्रन्थ तथा जैनागमों में प्रवीणता प्राप्त करली। परम आह्वादित बनाती हुई श्रद्धावनत बनाती है। संयम पालन में एकनिष्ठता, गुरुजनों के प्रति अन्य आप श्री की पट्टघर सुयोग्या शांत स्वभावी श्री भक्ति, एवं समानवयस्काओं के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार ज्ञानश्रीजी म० संघ संचालन कर रही हैं और अनेक तथा लघुजनों के ऊपर वात्सल्यभाव आदि गुणों के शिष्य प्रशिष्य परिवार जैन शासन की शोभा बढ़ा कारण आपके सभी का व्यवहार बड़ा प्रेमपूर्ण रहा है। मेरे ऊपर भी आपश्री का ही अनन्त उपकार था। २१ वर्ष की अवस्था में तो अग्रगण्या बना कर है। जिसे मैं जन्म जन्मान्तर में भी ऋण नहीं हो आपका अलग चातुमास करने भेज दिया आपको अलग चातुर्मास करने भेज दिया गया था। सकती । सश्रद्धा भव २ में आपके ही शरण में स्थान मापने ४० वर्ष तक भारत के विभिन्न प्रान्तों इच्छती हुई उस भव्य आत्मा को अनन्तबार वन्दना मारवाड़, मेवाड़, मालवा, गुजरात, काठियावाड यूपी. करती हूँ। लेखिका-विचक्षण श्रीजी आदि में विहार करके जैन जनता को जागृत करते हुये शत्रुजय, गिरनार, आबू तारगा खम्भात धुलेगा प्रवर्तिनीजी श्री ज्ञानश्रीजी महाराज मॉडवगढ़ मकसी हस्तिनापुर सौरीपुर आदि तीर्थों की यात्राएं की हैं। कई स्थानों पर ज्ञान प्रचारक श्री जैन खरतरगच्छ नभोमणि श्रीमत्सुखसागरजी संस्थाओं की स्थापना करवाई है। संघ निकलवाये महाराज की समुदाय की प्रसिद्ध साध्वीश्रेष्ठा प्रवर्तिनी हैं। वि. सं. १६६४ की साल से शारीरिक अस्वस्थता जी श्रीमती पुण्यश्रीजी महाराज की साध्वी समुदाय और अशक्तता के कारण आप जयपुर में ही विराजती की वतमान प्रवर्तिनीजी श्रीमती ज्ञानश्रीजी महोदया । पज्या प्रवतिनीजी स्वर्गीया सवर्ण श्रीजी का जन्म फलौदी (मारवाड़) में सं.१९४२ की कार्तिक महाराज साहबा ने सर्वसम्मति से १६८८ में कृष्णा त्रयोदशी को हुआ। गृहस्थावस्था में आपका श्रीमती पुण्यश्रीजी म. सा. के साध्वी समुदाय शुभ नाम गीताकुमारी था। का भार आपको देदिया था । उसी वर्ष वसन्त पंचमी आपका विवाह भी तत्कालीन रिवाज के अनुसार को पूज्यप्रवर वीरपुत्र प्रानन्दसागरजी महाराज सा० ६ वर्ष की बाल्यवय में ही फलौदी निवासी श्रीयुत ने मेड़ता सिटी में आपश्री को प्रवर्तिनीपद प्रदान विशनचन्दजी वैद के सुपुत्र श्रीयुत भीखमचन्दजी के किया था। तब से प्रापही समुदाय की अधिष्ठात्री साय कर दिया गया । देव की लीला । एक वर्ष में ही हैं। शताधिक साध्वियों का संचालन आप कुशलता आप विधवा होगई। आबाल ब्रह्मचारिणी साध्वी पूर्वक कर रही हैं । आपका विशेष समय मौन व जाप रत्न श्रीमती रत्नश्रीजी म. सा. की वैराग्यरस मय में ही व्यतीत होता है। देशना से आपकी हृदय भूमि में वैराग्य का बीजारो आपकी जीवनचर्या अनुकरणीय है पण होगया। उक्त श्रीमतीजी अपनी गुरुवर्या श्रीमती पुण्यश्रीजी म.सा. के साथ फलोधी में पधारी हुई थीं। आपके द्वारा ११ शिष्याएं प्रवर्जित हुई जिनमें विरागिनी गीताबाई की दीक्षा अन्य सात विरा- से श्री उपयोग श्रीजी, शितला श्रीजी, जीवन श्रीजी गिनियों के साथ फलौदी में ही गणाधीश श्रीमद सज्जन श्रीजी जिनेन्द्र श्रीजी तथा स्वयंप्रभ श्रीजी भगवानसागरजी म.सा., तपस्वीवर श्रीमान छगन विधमान हैं। सागरजी म० सा० तथा श्रीमान त्रैलोक्यसागरजी म० आपश्री के जयपुर में विराजने से धर्म कार्य सा० आदि की अध्यक्षता में विक्रम संवत १६५५ की त्याग तपस्या पूजा प्रतिष्ठाए उपधान व्रतग्रहण उद्यापन पौष शुक्ला सप्तमो को शुभ मुहूर्त में समारोह पूर्वक आदि होते ही रहते हैं। होगई। आप श्रीमती पुण्यश्रीजी म. सा० की शिष्या लेखिका-श्री विचक्षण श्रीजी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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