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________________ जैन श्रमण सौरभ पंडित रत्न श्री विमल मुनिजी महाराज प्रसिद्ध वक्ता, व्याख्यान वाचस्पति, पण्डित श्री विमल मुनिजी महाराज का जन्म सारस्वत ब्राह्मण ऋपाल गोत्र के पण्डित श्री देवराज जी के घर माता श्री गंगादेवीजी की कुक्षी से सं० १६८१ भाद्र पद कृष्ण सप्तमी को मालेर कोटला स्टेट के कुप-कलां नाम के गांव में हुआ। माता पिता ने आपका नाम ब्रजबिहारीलाल रक्खा । 'होनहार बिर्वान के चिकने चिकने पात' । घर में हर प्रकार की सुख-सुविधा थी । परन्तु संसार के मधुर भोग इन्हें अपनी ओर आकृष्ट न कर सके, मोह का दृढ़ पाश इनको न बांध सका । फल-स्वरूप बालक ब्रजबिहारीलालने संसार को निस्सार तथा मिथ्या जान कर १५ वर्ष की आयु में संसार को त्याग कर माघ शुक्ला ३ सं० १६६६ में आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज की आम्नाय में महातपस्वी श्री जगदीश चन्द्रजी महाराज के पास दीक्षा प्रहण की। आप सदा प्रसन्न रहते हैं । चित्त के शान्त हैं । निर्भीक हैं, सरल से सरल भाषा में गूढ़तम दार्शनिक सिद्धान्तों को जनता के सन्मुख रखने की आप में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १६६ 1 अद्वितीय क्षमता है । इन्हीं गुणों के कारण जन-हृदय के सम्राट् बन गये । वर्ष आप का एक चौमासा कश्मीर राज्य में कुछ पहिले हुआ। कश्मीर राज्य में जैन-मत का प्रचार अल्प है। यहां के निवासियों की निष्ठा अधिकतर हिंसा में है। मुनिजी की वाणी में चमत्कार था वहां के निवासियों पर अधिकाधिक प्रभाव पड़ा । महाराजजी के अहिंसा, शान्ति, तप त्याग के मधुर भाषण सुनकर सदरे- रियासत युवराज करणसिंह, जम्मू-कश्मीर राज्य के मुख्य मन्त्री बख्शी गुलाब मुहम्मद तथा मन्त्री मण्डल के अन्य सदस्य आपके अनुरागी बने । बख्शीजी ने चालीस हजार रुपये की भूमि स्थानक के लिये दी और एक लाख रुपया जैन बिरादरी ने दिया और जम्मू में एक भव्य स्थानक बना । इसी तरह ऊधमपुर में जहां जैनियों का पहिले एक भी घर नहीं था, महाराज श्री की प्रेरणा से जैनियों का एक नया क्षेत्र बना, और वहां भी एक भव्य स्थानक बना । १६५७ ई० में महाराज श्री ने पंजाब की नई राजधानी चंडीगढ़ में जैन सिद्धान्तों का प्रथम बार प्रचार किया और इसका प्रभाव वहां की जनता में पर्याप्त मात्रा में पड़ा । १६५१ ई० में महाराज श्री का चौमासा फगवाड़ा में था। मुनिजी के प्रभावशाली व्याख्यानों से आकृष्ट होकर जनता अधिक से अधिक संख्या में इनके व्याख्यानों में आने लगी । इस पर वहां के कुछ स्वार्थी धर्मान्ध चिड़ गये । और उन्होंने प्राण पण से महाराज श्री के विरुद्ध षड्यन्त्र किये। धन देकर बाहर से प्रचारक बुलाए गये। बड़ी २ सभाएं की गई । महाराज श्री को मारने की धमकी भी दी गई। पर मुनिजी के हृदय में दृढ़ शान्ति बनी रही। आप मधुर शब्दों में वहां की जनता को आश्वासन देते रहे। मधुर परिणाम यह हुआ कि चार मास के www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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