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________________ जैन धर्म की प्राचीनता THIS ISHID ATUND DEITHSAIDATERIAL UIDAINID RIHITIVATITH HIST! ThHI: AHIDAMI HIDARY LEOINDAHIC refore it is of great importauce for the study of इसी विश्वकोष के तीसरे भाग में ४४३ वें प० philosophical thought and religious life in पर लिखा है:-भागवतोक्त २२ अवतारों में रिषभ ancient India. अष्ठम हैं। इन्होंने भारतवर्षाधिपति नाभिराजा के अर्थात्-अन्त में मुझे अपना दृढ़ निश्चय व्यक्त औरस और मरुदेवी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया करने दीजिये कि जैनधर्म एक मौलिक धर्म है । यह था। भागवत में लिखा है कि जन्म लेते ही रिषभसब धर्मों से सर्वथा अलग और स्वतंत्र धर्म है। नाथ के अंगों में सब भगवान के लक्षण झलकते थे। इसलिए प्राचीन भारत वर्ष के तत्वज्ञान और धर्मिक (३) श्रीमान महोपाध्याय डा. सतीशचन्द्र विद्या जीवन के अभ्यास के लिए यह बहुत ही महत्वका भूषण, एम० ए० पी एच०, एफ० आई० पार एस' ___ सिद्धान्त महोदधि, प्रिंसिपल संस्कृत कालेज कलकत्ता जेकोबी साहब के उक्त वक्तव्य से यह सिद्ध हो ने अपने भाषण में कहा थाःजाता है कि जैनधर्म बौद्धधर्न की शाखा नहीं है “जैनमत तब से प्रचलित हुआ है जब से संसार 'इतना ही नहीं, किसी भी धर्म की शाखा नहीं है। में सृष्टि का प्रारम्भ हुआ है। मुझे इसमें किसी वह एक मौलिक, स्वतन्त्र और प्राचीन धर्म है।" प्रकार का उन नहीं है कि जैनदर्शन वेदान्तादि __ जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए दर्शनों से पूर्वाका है" पाश्चात्य और पौर्वात्य पुरातत्वविदों और इतिहास (४) लोकमान्य तिलक ने अपने 'केशरी' पत्र कारों ने जो अभिप्राय व्यक्त किये हैं उनका दिग्दर्शन में १३ दिसम्बर १६४ को लिखा है किःकराना अप्रासंगिक नहीं होगा। "महावीर स्वामी जैनधर्म को पुनः प्रकाश में (१) काशी निवासी स्व. स्वामी राममिश्रा- लाये । इस बात को आज करीन २४०० वर्ष व्यतीत शास्त्री ने अपने व्याख्यान में कहा था:- हो चुके हैं । बौद्ध धर्म की स्थापना के पहले जैनधर्म “जैनधर्म उतना ही प्राचीन है जितना कि यह फैल रहा था, यह बातें विश्वास करने योग्य हैं । संसार है।" चौबीस तीर्घ करों में महावीर स्वामी अन्तिम (२) प्राचीन इतिहास के सुप्रसिद्ध आचार्य तीर्थ कर थे। प्राच्य विद्या महार्णव नगेन्द्रनाथ वसु ने अपने हिन्दी इससे भो जैनधर्म को प्राचीनता जानी विश्व कोष के प्रथम भाग में ६४ ३५० पर लिखा जाती है। (५) स्वामी विरूपाक्ष वीयर धर्मभूषण, मेदतीर्थ "रिषभदेव ने ही संभवतः लिपि विद्या के लिए विद्यानिधि, एम. ए., प्रोफेसर सस्कृव कालिज, लिपि कौशल का उद्भावन किया था।...रिषभदेव इन्दौर, 'चित्रमय जगन्' में लिखते हैं। ने ही संभवतः वात्मविद्या शिक्षा की उपयोगी बाह्मी “ई-द्वेष के कारण धर्म प्रचार को रोकने लिपि प्रचार किया। हो न हो, इसलिए वह अष्टम वाली विपत्ति के रहते हुए भी जैनशासन कभी पराअवतार बनाये जाकर परिचित हुए। जित न होकर सर्वत्र विजयी होता रहा है। अर्हन Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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