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________________ ADOCIA महा प्रभाविक जेनाचाय MICALICO DOT HOOK OMNIS COMING काचार और स्वयंभ स्तोत्र की रचना की है। इन ग्रन्थ रत्नों को देखने से इनकी अनुपम प्रतिभा का परिचय मिलता है । ये स्याद्वाद के प्रतिष्ठायक आचार्य है । अनेक युक्तियों के द्वारा इन्होंने अन्यवादियों के सिद्धांतों का खण्डन कर अनेकान्त का युक्तिपूर्वक मंडन किया है। इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति आप्तमीमांसा है । ये जैनधर्म और जैनसाहित्य के उज्जवल रत्न है । आचार्य हरिभद्र सूरि-आचार्य हरिभद्रसूरि जैन धर्मं के इतिहास और साहित्य में एक नवीन युग के पुरस्कर्त्ता हैं । ये एक प्रचल धर्मोद्धारक भी थे । इनके समय में चैत्यवास की जड़ खूब गहरी जम चुकी थी । जनमुनियों का शुद्ध आचार शिथिल हो गया था उस स्थिति में सुधार करने के लिये ही हरिभद्रसूरि जैसे महाप्रभावशाली आचार्य का प्रादुर्भाव हुआ । शिथिलाचार के विरुद्ध इन आचार्य ने तीत्र आन्दोलन किया जैनमाहित्य को समृद्ध बनाने में इनका उल्लेखनीय योग रहा है । संस्कृत और प्राकृत भाषा में तत्वज्ञान, दर्शनशास्त्र कथासाहित्य, और विविध विषयक तलस्पर्शी विवेचन करने वाले न केवल दो चार प्रन्थ हो लिखे किन्तु १४४४ प्रकरणों के कर्त्ता के रूप में आपकी सर्वविभूत प्रसिद्ध है । इन प्राचार्य की अनेक साहित्यिक कृतियाँ है । इस विल मंथराशि पर से इसके निर्माता की बहुश्रुतता, सागर वर गम्भीर विद्वत्ता और सर्वतोमुखा प्रतिभा का सरल परिचय मिलता है। आगमों के गूढ़ से गूढ़ विषयों का भावद्घाटन करने वाली टीकाएँ आध्यात्मिक विवेचन करने वाले प्रकरण, योग सबधी नवीन प्ररूपण और विस्तृत दार्शनिक चर्चाओं के साथ अनेकान्त का विवेषन, इनके प्रकाण्ड पाण्डत्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ६७ पर्याप्त हैं। का परिचय कराने के लिए हरिभद्र सरि महान् सिद्धान्तकार और दार्शनिक विचारक तो थे ही परन्तु श्र ेष्ठ कथाकार और कवि भी थे । 'समराइच्च कहा' से इनकी कथाशैली और काव्य कल्पना का सुन्दर परिचय मिलता है । C आचार्य हरिभद्र जैनयोगसाहित्य के युग-प्रवत्त क हैं । इनके पहले जैनशास्त्र में योग सम्बन्धी वर्णन चवदह गुणस्थान, ध्यान, दृष्टि आदि के रूप में था परन्तु आचार्य हरिभद्र ने इसे नवीन और लाक्षणिकशैली से दूसरे ही रूप में प्रस्तुत किया । इनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगशतक और षोडशक प्रन्थ इस बात के प्रमाण हैं । पातंजल योग सूत्र में वर्णित प्रक्रिया के साथ इन्होंने जैनयोग की तुलना भी की है। 'योग दृष्टि समुच्चय' में आठ दृष्टियों का किया गया वर्णन समस्त यांग साहित्य में एक नवीन दिशा है। आचार्य श्री के योग विषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरूचि और योग विषयक व्यापक बुद्धि के उत्कृष्ट नमूने हैं ! पं० सुखलालजी ने योग दर्शन पर निबंध लिखते हुए उक्त प्रकार से भाव प्रकट किये है। कलंक -- हरिभद्र के समकालीन दिगम्बर परम्परा में कलंक नामक महा विद्वान नैयायिक हुए। इन्होंने इस शताब्दी में मुख्यतया जैनप्रमाण शास्त्र को पल्लवित किया । "दिग्नाग के समय से बौद्ध और बौद्ध तर प्रमाण शास्त्र में जो संघर्ष चला उसके फलस्वरूप प्रकलंक ने स्वतंत्र जैनहांष्ट से अपने पूर्वाचार्यों को परम्परा का ध्यान रखते हुए जैनप्रमाणशास्त्र का व्यवस्थित निर्माण सौर 'स्थापन किया" । इनके बनाये हुए ग्रन्थ इस प्रकार है-- अष्ठशतो, www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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