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________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य ६३ ___इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जो मुझे बाद में पराल का समय ईस्वी मन पूर्वी २४०० वप यतनाया है। जित करेगा उसका मैं शिष्य बन जाऊँगा। बाद में इस सिद्ध होता है कि पाणिनि रिषि आज संचार वादियों को पराजित करते २ ये वृद्धवादि नामक हजार तीन सौ पचास वर्ष पूर्व हुए हैं । जैनाचार्य से माग में ही मिले और उन्हें बाद करने शाकटायन इससे भी प्राधीन है। इसका नाम की चुनौती दी । अाचाय ने कहा-सभ्य के बिना हार. या'क के निरुक्त में भी जाना है। य याक पाणिनि जीत का निणय कौन करेगा ? अपनी अहंकारमय से कई शताब्दियों पहले हुए हैं। रानचन्द्र घोष ने वाग्मिता के कारण उन्होंने वहाँ जो ग्वाले थे उन्हें अपने 'पीप इन्टु दी वैदिक एज' नामक ग्रन्थ में सभ्य मान लिया। वृद्धवादी ने कहा-अच्छा बोला। लिखा है कि 'यास्क कृति निरुक को हम बहुत तब सिद्धसेन ने सस्कृत में बोलना शुरू किया। ग्वाले प्राचीन समझते है। यह ग्रन्थ वेदों को छोड़कर कुछ न समझे। इसके बाद वृद्धवादी ने अपभ्रंश संस्कृत के सबसे प्राचीन साहित्य से सबन्ध रखता भाषा में देशीभाषा में सभ्यों के अनुकूल उपदेश है। इस बात से यही सिद्ध होता है कि जैनधर्म का दिया। ग्वालों ने वृद्धवादी की विजय घोषित कर अस्तित्व यास्क के समय से भी बहुत पहले था। दी। इसके बाद राजा की सभा में भी वाद हुआ शाकटायन का नाम रिग्वेद की प्रति :शाखाओं में उसमें भी सिद्धसेन पराजित हो गये। फलतः वे और यजुर्वेद में भी आता है। वृद्धवादी के शिष्य बन गये । दीक्षा के बाद उनका शाकटायन जैन थे, इस बात का प्रमाण हूँढने नाम कुमुदचन्द रक्खा किन्तु वे सिद्धसेन दिवाकर के लिए अन्यन्त्र जाने की आवश्यकता नहीं। उनका के नाम से ही प्रसिद्ध हुए। रचित व्याकरण ही इस बात को सिद्ध करता है। वे अपने व्याकरण के बाद के अन्त में लिखते हैं:आर्य शाकटायनाचार्य "महा श्रमण संघाधि पतः श्रत केवलि देशीयाचार्यस्य शाकटायन एक जेन वैयाकरण थे। ये आचार्य शाकाटायस्य कृतौ'। उक्त लेख में आये हुए महा किस काल में हुए इसका प्रमाणिक कोइ उल्लेख नहीं मणसंघ' और श्रुत केवलि शब्द जैनों के पारिभाषिक नहीं मिलता, तदपि यह निविवाद है कि ये प्राचार्य घरेलू शब्दई । इनसे निर्विाद सिद्ध होता है कि प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि से बहुत प्राचीन है । इसका शाकटायन जैन थे। इस गत से यह भी सिद्ध हो कारण यह है कि पानि रिसंप अष्टाध्यायी में जाता है कि पाणिनि और याक के पहले भी जैन "व्योलघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य" इत्यादि सूत्रों में धर्म विद्यमान था। इस प्रकार शाकटानाचर्य का शाकटायन का नामोल्लेख रिया है जो शाकटायन समय ई० सन चार हजार तीन सौ ठहरता है। को पाणिनि से प्राचीनता को प्रमाणित करता है। भदवाह द्वितीय अब विचारना है कि पाणिनि का समय कौनसा है ? इनका नमय विक्रम की पांवव! या छठी शताब्दी इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने महर्षि पाणिनि है। इन्होंने आगमों पर नियुक्तियों की रचना की है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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