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________________ १२ जैन श्रमण संघका इतिहास RR A IMADHUTODAIADAOUONMDCITHULDATI.GADATIAAMHUDAIHAGHID-ONLIND OTHULITD-Our WALA ISHAAMRAJHIDjuRALIDAuto-gul नागपुराण में इस प्रकार उस्लेख है: अवतार वतखाकर उनका विस्तृत वर्णन किया गया अकारादि हकारान्तं मूर्धाधोरेफ संयुतम् । है । भागवत पुराण में यह लिखा है कि मष्टि की नादबिन्दुकलाकान्तं चन्द्रमण्डल सन्निभम् ॥ आदि में बम्ह ने स्वयंम्भू मनु और सत्यरूपा को एतिहेवि परं तत्वं यो विजानाति तत्वतः। उत्पन्न किया । रिषभदेव इनसे पांचवीं पीढ़ी में हुए । संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत परमां गतिम् ॥ इन्हीं रिषभदेव ने जैन धर्म का प्रचार किया। अर्थात्-जिसका प्रथम अक्षर 'अ' और अन्तिम इस पर से यदि हम यह अनुमान करें कि प्रथम जैन अक्षरहा है, जिसके ऊपर आधारेफ तथा चन्द्रबिन्दु तीर्थ कर रिषभदेव मानव जाति के आदि मुरू थे तो विराज मान है ऐसे "अह" को जो सच्चे रूप में हमारा विश्वास है कि इस कथन में कोई अत्युक्ति जान लेता है, वह संसार के बंधन को काटकर मास नहीं होगी। को प्राप्त करता है। दुनियाँ के अधिकांश विद्वानों की मान्यता है बहुमान्य मनुस्मृति में मनु ने कहा है: कि आधुनिक उपलब्ध सभी ग्रन्थों में वेद सबसे मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमाः। प्राचीन हैं। अतएव अब वेदों के आधार पर यह अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभे जति उरुक्रमः ॥ सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि बेदों की उत्पचि के दर्शयन् वर्म वीराणां सुरासुरनमस्कृतः ।। समय जैनधर्म विद्यमान था। मैदानुयायियों की नीतित्रितयकी यो युगादौ प्रथमो जिनः॥ मान्यता है कि नेद ईश्वर प्रणीत हैं। यद्यपि यह भावार्थ-इस भारतवर्ष में 'नाभिराय' नाम के मान्यता केवल श्रद्धा गम्य ही है । तदपि इससे यह कुलकर हुए। उन नाभिराय के मरुदेवी के उदर से सिद्ध होता है कि सष्टि के प्रारंभ से ही जैव धर्म मोक्ष मार्ग को दिखाने वाले, सुर-असुर द्वारा पूजित, प्रचलित था क्योंकि रिग्वेद, यजुर्वेद सामयद सीन नीतियों के विधाता प्रथम जिनेश्वर अर्थात् और अथर्ववेद के अनेक मन्त्रों में जैन तीर्थंकरों के रिषभनाथ सत् युग के प्रारम्भ में हुए। नामों का उल्लेख पाया जाता है । ___ रिषभ' शब्द के सम्बन्ध में शंका को अबकाश रिग्वेद में कहा है:ही नहीं है । वाचसति कोष में रिषभदेष' का अर्थ श्रादित्या त्वमसि श्रादित्यसद् असीद अस्त 'जिनदेव' किया है। और शब्दार्थ चिन्तामणि में भादद्या वृषभो तरिक्ष अमिमीते वारिमाणं । पृथिव्याः 'भगवदवतारयेदे आदिजिने-अर्थात् भगवान का आसीत् विश्वा भुवनानि समाडिवश्व तानि वरुणस्य अवतार और प्रथम जिनेश्वर किया गया है। व्रतानि | ३० । अ० ३। पुसणों के उक्त अवतरणों से यह स्पष्ट हो जाता अर्थात्-तू अखण्ड पृथ्वी मण्डल का सार त्वचा है कि पुराण काल के पहले जैनधर्म था। इसके अति- स्वरूप है, पथवीतल का भूषण है, दिव्यज्ञान के द्वारा रिक्त भागवत के पांचवे स्कन्ध के चौथे पांचवे और आकाश को नापता है, ऐसे हे वृषभनाथ सम्राट ! छठे अध्याय में प्रथम तीर्थ कर रिषभदेव को पाठवां इस संसार में जगरक्षक व्रतों का प्रचार करो। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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