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________________ १०० जैन श्रमण संघ का इतिहास INDIAnumorom AMIRIDATANDROIRAMID-olt}DAINumb>MRIDDHINDI 10 THIHINDIMINIDINDORI INDINI onlil हरजी ऋषि से दौलतरामजी म० का सम्प्रदाय, तेरा पंथ ॐ अनोपचन्दजी म० का सम्प्रदाय और और हुक्मीचंद स्वामी भीखणजी इस संप्रदाय के श्राद्य प्रवत्त क जी म० का सम्प्रदाय निकला। हैं। आपने पहले स्थानकवासी जैन संप्रदाय के इस तरह वर्तमान स्थानक वासी बत्तीस सम्प्रदाय रघनाथजी महाराज के संप्रदाय में दीक्षा धारण की लवजी ऋषि, धर्मदासजी धर्मसिंहजी, जीवराजजी थी। आठ वर्ष के पश्चात् दयादान संबन्धी दृष्टिकोण और हरजी ऋषि की परंपरा का विस्तार हैं । ये सब और आचार विचार संबन्धी विचार विभिन्नता के महापुरुष बड़े क्रिया पात्र और प्रभावक हुए। इससे कारण आपने अलग संप्रदाय स्थापित किया। स्थानकवासी संप्रदाय का अच्छा विस्तार हुआ। इस पन्थ के प्रथम प्राचार्य भितु ( भीखणजी) स्थानकवासी संप्रदाय ३२ आगमों को ही प्रमाण का जन्म संवत् १७८३ में मारवाड़ के कण्ठालिया भूत मानता है। ग्यारह अंग, बारह उपांग, उत्तरा- ग्राम में हुआ था। आपके पिताजी का नाम साहूबल्लू ध्ययन, दशर्वकालिक, नन्दी, अनुयोग, दशाश्रुत, जी और माता का नाम दीपा बाई था। आप ओसवंश व्यवहार, वृहत्कल्प, निशीथ और आवश्यक । ये के सखलेचा गोत्र में उत्पन्न हुए थे। आपने संवत् स्थानकवासी संप्रदाय के द्वारा मान्य आगम ग्रन्थ है। १८०८ में तत्कालीन स्थानकवासी संप्रदाय में रघुनाथ इस संप्रदाय के साधु-साध्वियों का आचार विचार जी म० के पास दीक्षा धारण की। आपकी प्रतिभा उच्चकोटि का समझा जाता है । क्रिया की उग्रता की मोदी समय में अपने ग्रामों का ओर इस संप्रदाय का विशेष लक्ष्य रहा है और इससे अध्ययन कर लिया। आठ वर्ष के पश्चात् आपके ही इसका विस्तार हुआ है। दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया और तेरह साधुओं के श्री व० स्थ० जैन श्रमण संघ की स्थापना साथ आप अलग हो गये। सं० १८१६ में आपने __अखिल भारत वर्षीय स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस अलग संप्रदाय स्थापित किया। कहा जाता है कि के अथक परिश्रम से स्थानकवासी संप्रदाय के समस्त तेरह साध और तेरह अलग पौषध करते हुए श्रावकों सनुदाय सादडा (मारवाड़) में हुए बृहत् साधु समलन को लक्ष्य में रख कर किसी ने इसका नाम तेरह पन्थ के अवसर पर एक होकर एक हो आचार्य, एक व्यवस्था और एक समाचारी के झंडे नीचे ससंगठित रख दिया। "हे प्रभो! यह तेरा पन्य है" इस भाव हो गये है। को लक्ष्य में रख कर प्राचार्य भिक्ष जी ने वही नाम ___यह महान क्रान्ति वैशाख शुक्ला ३ ( अक्षय अपना लिया। तृतीया ) सं० २००६ को सादड़ी (मारवाड़) में हुई। आचार्य भितु ने उग्र क्रियाकाण्ड को अपनाया और और उसके कारण जनता को प्रभावित करना आरंभ मुनिगण-श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ" के एक्य सूत्र में. आबद्ध हैं। इस महान संघ के किया । आद्य संप्रदाय संस्थापक को अनेक प्रकार की धर्तमान स्वरूप का विस्तृत वर्णन "वर्तमान मुनि बाधाओं का सामना करना होता है । भिक्षुजी ने भी मण्डल' शीर्षक विभाग के अगले पृष्ठों में करेंगे। दृढ़ता से काम लिया। वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। कवासी स ज के अधिकांश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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