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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जोनिअन भयावसावायानाकर
Dictionary of Technical Terms of Jainism
(हिन्दी संस्करण)
जाणत्या पर संचरणे न थातीत्यामरस न प्रत्यक्ते अनुपयोगऽपीत्यर्थ
च।
काभेन जोजवरजीष्टि से किया गया है।
नाक्षा औरलळ्यहर के आधार पर होने वाला ज्ञान। पण जग याणक्खर, वजण-वखा।
वकालखण्डनीयाथरआरकाय काय कालः कर्तव्यावसस्तविपरीतोऽकात आव
वहकिनसको
ग
णनाकारता
अमीण बनाने वाली यागज विभूति दूसरा का शिलान।
खाने पर वह क्षीण हो जाती है। परस्परोपग्रहो जीवानामहाभरण्ययभक्तवत किन खयभक्तं न याति
आसेवा होने पर दिया जाने वागतात कारखानदानसकाकीकरण प्रयकारवनाशैली के आधार पर किया।
पानिमा गाथा लोक नेक आदिवासदृश पानी की बहुलता ।
वाचनाप्रमुख : गणाधिपति तुलसी प्रणेतात. आचार्य महाप्रज्ञ
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
Dictionary of Technical Terms of Jainism
(हिन्दी संस्करण)
परस्परोपाहो जीवानाम्
वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी
प्रणेता आचार्य महाप्रज्ञ
मुख्य सम्पादक युवाचार्य महाश्रमण
सम्पादक मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा
जैन विश्व भारती एवं जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय
लाडनूं (राज.) ३४१३०६
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प्रकाशक: जैन विश्व भारती
एवं
जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय लाडनूं 341306 (राजस्थान) Website : http://www.jvbi.ac.in EPABX : +91-1581-222110,224332 E-mail: office@jvbi.ac.in
© जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं
ISBN: 978-81-89667-09-2
संस्करण : 2009
पृष्ठ : 15+346
मूल्य : 995/
$45
पुस्तक प्राप्ति स्थल : जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय लाडनूं 341306 (राजस्थान)
पारस प्रकाशन, निशा पोल, जावेरी वाड, रिलीफ रोड़, अहमदाबाद-380 002 फोन : (079) 25356909
हिन्दी ग्रंथ कार्यालय 9, हीरा बाग, सी. पी. टैंक, मुम्बई - 400004 फोन : 09820896128, 022-23826739 E-mail : manishymodi@gmail.com
मुद्रक : कला भारती, नवीन शाहदरा. दिल्ली-110032
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अन्तस्तोष
आचार्य तुलसी ने आगम-सम्पादन के गुरुतर कार्य का प्रकल्प और संकल्प किया। उनके वाचना प्रमुखत्व में कार्य का शुभारम्भ हुआ। उसकी धारा अविच्छिन्न रूप से चल रही है। आलोचनात्मक और तुलनात्मक भाष्य के साथ आगम-सम्पादन हो रहा है इसलिए यह कार्य समय-सापेक्ष है। मैं अन्तस्तोष का अनुभव कर रहा हूं कि अनेक साधु-साध्वियां अन्त:प्रेरणा से इस कार्य में प्रवृत्त हैं। मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है
मुख्य सम्पादक - युवाचार्य महाश्रमण सम्पादक - मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा अंग्रेजी अनुवाद - प्रो. मुनि महेन्द्रकुमार
सम्पादन सहयोगी - साध्वी सिद्धप्रज्ञा संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिनने गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने।
आचार्य महाप्रज्ञ
med attematona
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प्रकाशकीय
___ गणाधिपति तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ के आध्यात्मिक निदेशन में संस्थापित हमारे संस्थान उनके स्वप्नों को साकार करने की दिशा में उत्तरोत्तर गतिशील हैं। इसी गतिमत्ता की एक निष्पत्ति है-जैन पारिभाषिक शब्दकोश का प्रकाशन।
भारतीय विद्याओं के अध्ययन (Indological Studies) के क्षेत्र में सबसे बड़ी कठिनाई है-ऐसे पारिभाषिक कोश-साहित्य की स्वल्पता, जिसके आधार पर विद्वान् एवं विद्यार्थी अध्ययन एवं शोध-कार्य को सुचारू रूप से आगे बढ़ा सकें। हमें प्रसन्नता हो रही है कि आचार्य महाप्रज्ञ जैसे महान् भारतीयविद्याविद् मनीषी संत द्वारा प्रणीत "जैन पारिभाषिक शब्दकोश" जैन विद्या के क्षेत्र में अध्ययनरत एवं शोधरत विद्वानों एवं विद्यार्थियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधार ग्रन्थ बनेगा।
इस महान् अवदान के लिए हम श्रद्धेय आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के चरणों में अपनी विनम्र श्रद्धा अर्पित करते हैं।
इस शब्दकोश के निर्माण में अनेक साधुओं, साध्वियों एवं समणियों ने जो महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है उसके लिए उन सबके प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
सुरेन्द्र चोरड़िया
अध्यक्ष जैन विश्व भारती
डॉ. समणी मंगलप्रज्ञा
कुलपति जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय
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भूमिका
कमल का सार कमलकोश में होता है और धन का संग्रह भी कोश में होता है। प्रकृति के इस नियम के आधार पर शब्द-शास्त्रियों और तत्त्ववेत्ताओं ने कोश-निर्माण की कल्पना की होगी। विशाल ग्रंथ का सार कोश में मिल जाता है।
जैन साहित्य में कोशों की समृद्ध परंपरा रही है। जैन पारिभाषिक शब्दकोश से पहले जैन आगम और साहित्य पर अनेक कोश निर्मित हो चुके हैं
अभिधान राजेन्द्र कोश' (सात भाग) अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश(चार भाग) आगमसद्दकोसो कथाकोषप्रकरण जिनरत्नकोश जैन उद्धरण कोश (भाग १) जैन क्रिया कोश जैन लक्षणावली (तीन भाग) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (चार भाग) नानार्थोदयसागरकोश पाइअसद्दमहण्णवो भगवान महावीर हिन्दी अंग्रेजी जैन शब्दकोश१२ रत्नत्रय पारिभाषिक शब्दकोश सचित्र अर्धमागधी कोश An Encyclopaedia of Jainismu Encyclopaedia of Jainismo Dictionary of Prakrit Proper Names जैन योग पारिभाषिक शब्दकोश८ क्रिया कोश पुद्गल कोश२० वर्धमान कोश योग कोश लेश्या कोश
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश/भूमिका
प्रस्तुत कोश से पूर्व आगमों पर आधारित अनेक कोशों का निर्माण किया जा चुका है। आगमों पर आधारित कोश-साहित्य१. एकार्थक कोश२४ २. निरुक्त कोश२५ ३. देशीशब्द कोशः ४. आगम वनस्पति कोश ५. आगम प्राणी कोश ६. आगम वाद्य कोश ७. आगम शब्दकोश ८. श्री भिक्षु आगम विषय कोश खण्ड-१
९. श्री भिक्षु आगम विषय कोश खण्ड-२ जैन पारिभाषिक कोश की अपेक्षा
आचार्य तुलसी के वाचनाप्रमुखत्व में हमने उज्जैन में विक्रम संवत् २०१२ को आगम-सम्पादन का कार्य शुरू किया। सम्पादन के साथ आगमों के विषयीकरण की कल्पना की गई। इस कार्य का दायित्व मोहनलालजी बांठिया ने लिया। वह कार्य कोलकाता में श्रीचंद चोरड़िया के द्वारा सम्पादित हो रहा है।
आगमों के अध्ययन का क्षेत्र बढ़ा और उनके अंग्रेजी अनुवाद की अपेक्षा हुई। प्रोफेसर नथमल टाटिया और मुनि महेन्द्रकुमारजी ने आगमों के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य शुरू किया। उस कार्य में पारिभाषिक शब्दों के अनुवाद की समस्या रही पर दोनों ही जैन दर्शन के अध्येता रहे इसलिए समस्या का समाधान होता गया। जैन आगम तथा जैन साहित्य का अंग्रेजी अनुवाद जैन तत्त्व विद्या और जैन दर्शन को न जानने वाले विद्वानों से कराने का प्रसंग आया। उस समय पारिभाषिक शब्दों के अनुवाद की समस्या उभर कर सामने आई।
विक्रम संवत् २०५३ (सन् १९९६), जैन विश्व भारती, लाडनूं में गुरुदेव तुलसी का चातुर्मासिक प्रवास। मैं, प्रोफेसर टाटिया और साध्वी विश्रुतविभा-हम सब गुरुदेव की सन्निधि में बैठे। चिन्तन के पश्चात् जैन पारिभाषिक शब्दकोश को अंग्रेजी भाषा में तैयार करने का निर्णय लिया गया।
चिंतन, निर्णय और क्रियान्विति-यह गुरुदेव की कार्यशैली का सूत्र था। चिंतन के पश्चात् निर्णय हुआ और निर्णय क्रियान्विति में बदल गया और जैन पारिभाषिक शब्दकोश आकार लेने लगा। प्रोफेसर डॉ. टाटिया और साध्वी विश्रुतविभा दोनों कार्य में संलग्न हो गए। मैं परिभाषा लिखाता और डॉ. टाटिया अंग्रेजी में अनुवाद करते। कुछ दिनों के बाद दोनों का कार्य गुरुदेव ने देखा और इतनी प्रसन्नता प्रकट की, लगा कि कोई चिर संजोया सपना मूर्त बन रहा है। चतुर्मास के बाद डॉ. टाटिया के स्वास्थ्य की अनुकूलता नहीं रही और हमारी भी लाडनूं से यात्रा शुरु हो गई। कोश-निर्माण का कार्य स्थगित हो गया। वि. सं. २०५४ (सन् १९९७) में गणाधिपति गुरुदेव का स्वर्गवास हो
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश/भूमिका
गया। कोश के कार्य में एक अवरोध आ गया।
सन् १९९९ में दिल्ली चातुर्मासिक प्रवास में हमने कोश के अवरुद्ध कार्य को प्रारम्भ करने का चिन्तन किया किन्तु कोश के उपयुक्त सामग्री के अभाव में चिन्तन को क्रियान्वित नहीं किया जा सका। सन् २००० में हमने लाडनूं में चातुर्मासिक प्रवास किया। वहां जैन विश्व भारती में उपयुक्त सामग्री उपलब्ध हो गई। कोश के कार्य को प्रारम्भ करने का नए सिरे से संकल्प किया।
____ गुरुदेव की इच्छा थी कि कोश का निर्माण अंग्रेजी भाषा में हो। किन्तु डॉ. टाटिया का स्वर्गवास हो चुका था इसलिए कोश को हिन्दी में संपादित करने का संकल्प किया। एक बहुत ही महत्त्व का प्रसंग बना कि युवाचार्य महाश्रमण इस कार्य के साथ निष्ठा के साथ जुड़ गए । कोश का कार्य आगे बढ़ा । सन् २००१ के बीदासर चातुर्मासिक प्रवास के बाद पुनः अहिंसा यात्रा शुरु हो गई। उस दौरान कार्य कभी तेज व कभी धीमी गति से चला।
सन् २००५ रतनगढ़ प्रवास में साध्वी विश्रुतविभा के सुझाव पर चिन्तन हुआ और यह निर्णय किया कि कोश हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में होना चाहिए। अंग्रेजी अनुवाद का दायित्व मुनि महेन्द्रकुमारजी को दिया गया। उन्होंने निष्ठा अरै तत्परता के साथ इस कार्य को संपादित किया।
हम कभी तेज गति से चले और कभी चीटी की चाल चले। प्रसन्नता है कि हम लक्ष्य तक पहुंच गए और कोश का कार्य संपन्न हो गया। कोश निर्माण : व्यापक दृष्टिकोण
प्रस्तुत कोश में प्रयुक्त ग्रन्थसूची से यह स्पष्ट हो रहा है कि इसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर–दोनों परम्पराओं के मौलिक श्रुत का बिना किसी पक्षपात उपयोग किया गया है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग समवायांग, भगवती, उपासकदशा, प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना, औपपातिक, निशीथ, कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, आवश्यक आदि आगम-श्रुत तथा इन पर लिखित व्याख्या ग्रन्थ-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति आदि श्वेताम्बर परम्परा के मौलिक ग्रन्थ जहां एक ओर आधार बने हैं वहीं दूसरी ओर षट्खण्डागम, समयसार, गोम्मटसार, आलाप पद्धति, बृहद्र्व्यसंग्रह, ज्ञानार्णव आदि तथा इन पर लिखित व्याख्या ग्रन्थ (धवला एवं अन्य टीकाएं) भी उसी रूप में आधार बने हैं। तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके व्याख्या-ग्रन्थ स्वोपज्ञ भाष्य, भाष्यानुसारिणी टीका, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि का प्रयोग प्रचुर रूप में हुआ है। प्रवचनसारोद्धार, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि अनेक उत्तरकालीन प्राचीन ग्रन्थों तथा जैनसिद्धान्तदीपिका, मनोनुशासनम् आदि अर्वाचीन ग्रन्थों का यथेष्ट उपयोग हुआ है। जैन न्याय ग्रन्थों में सन्मतितर्क, प्रमाण मीमांसा, नयचक्र, आप्तमीमांसा, स्याद्वादमंजरी, भिक्षुन्यायकर्णिका आदि प्रमुख कृतियां यत्र-तत्र सर्वत्र प्रयोग में आई हैं। विस्तृत जानकारी हेतु ‘प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची' द्रष्टव्य है।
जैन दर्शन आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी दर्शन है।३२ उसमें अस्तित्व का तात्त्विक वर्णन और तात्त्विक मीमांसा की गई है। तत्त्वमीमांसा के लिए प्रयुक्त शब्द लौकिक व्यवहार में प्रयुक्त होने वाले शब्दों में भिन्न हैं और रहस्यपूर्ण अर्थ वाले हैं। उनको समझने के लिए पारिभाषिक शब्दकोश का निर्माण किया गया है।
brary.org
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश/भूमिका
आत्मा की स्वीकृति अनेक दर्शनों में है। लोकवाद और कर्मवाद का सिद्धान्त भी उन्हें मान्य है किन्तु आत्मा, लोक और कर्म के विषय में जितनी सूक्ष्म स्तरीय मीमांसा और जितने पक्षों पर विचार जैन आचार्यों ने किया है उतना अन्यत्र प्राप्य नहीं है। क्रियावाद का विषय सर्वथा स्वतन्त्र जैसा प्रतीत हो रहा है। इस दृष्टि से जैन पारिभाषिक शब्दकोश के निर्माण की सार्थकता स्वत: सिद्ध है। परिभाषा : विवेचन और विश्लेषण
__ पूर्वज आचार्यों ने आगम-साहित्य और आगमतुल्य ग्रन्थों के अध्ययन के लिए अनेक विधाओं में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि की रचना की है। उससे परिभाषा को समझने की सुविधा प्राप्त हुई है। एक शब्द पर अनेक व्याख्याकारों ने अनेक प्रकार की परिभाषाएं की हैं। इससे कहीं-कहीं सुविधा और कहीं-कहीं जटिलता भी हुई है। इसे जैन लक्षणावली के अध्ययन से जाना जा सकता है। कहीं-कहीं हमने परिभाषा की यथार्थता के लिए व्याख्या-- ग्रन्थों से भिन्न ग्रन्थों का उपयोग किया है। उदाहरण के लिए 'स्थूल' शब्द की परिभाषा को प्रस्तुत किया जा सकता है। अणुव्रत के साथ 'स्थूल' शब्द का अर्थ 'बड़ा' नहीं है।
अभयदेवसूरि ने उपासकदशा की वृत्ति में स्थूल का तात्पर्याथत्तर्स किया है। हरिभद्रसूरि ने भी आवश्यक की वृत्ति में स्थूल का अर्थ बड़ा किया है। किन्तु वास्तव में स्थूल शब्द का प्रयोग देश-अपूर्ण अथवा असर्व के रूप में किया गया है। उमास्वाति ने अणुव्रत और महाव्रत के लिए कमश: देश और सर्व शब्द का प्रयोग किया है ।२५ श्रावक देश का प्रत्याख्यान करता है, देश का प्रत्याख्यान नहीं करता। इस उद्धरण से स्थूल शब्द का प्रयोग 'देश' के अर्थ में है, इस तथ्य की पुष्टि भगवती सूत्र से होती है।२६
पाप की परिभाषा प्राचीन ग्रन्थों में मिलती है किन्तु पापस्थान' शब्द की परिभाषा हमने जयाचार्य साहित्य से ली है।३७
प्रविधि
१. परिभाषा के विषय में हमारा दृष्टिकोण यह है कि परिभाषा के निर्माण का अधिकार प्राचीन विद्वानों की तरह आज के विद्वानों का भी हो सकता है। इस चिन्तन के आधार पर हमने अनेक स्थलों पर नई परिभाषाओं का
सृजन किया है।
२. ऐसे पारिभाषिक कोशों के प्रणयन में यह अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि परस्पर सम्बद्ध शब्दों के 'अन्योन्यसंदर्भ' (cross reference) का उल्लेख किया जाए जिससे पाठक स्पष्टता से पुनः शब्दों को हृदयङ्गम कर सके। इस दृष्टि से जहां-जहां आवश्यक लगा, वहां-वहां उस शब्द के नीचे (द्र....) द्वारा अन्योन्य संदर्भ का उल्लेख कर दिया गया है।
३. चित्रों के द्वारा जहां प्रस्तुत व्याख्या को सरलता से समझाया जा सकता है, वहां चित्र भी साथ में या अन्त में दिए गए हैं।
४. पारिभाषिक शब्दकोश के निर्माण की कार्यसूची में पहला स्थान शब्द-चयन का है। शब्दों के चयन का
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश/भूमिका
प्रारम्भिक कार्य मैंने किया। तत्पश्चात् इस कार्य में अनेक व्यक्तियों की सहभगिता रही है। प्रस्तुत कोश में लगभग ३६३२ शब्द हैं। समीक्षा
समीक्षा के बिना ग्रन्थ की सर्वाङ्गीणता नहीं होगी। समीक्षा के लिए आवश्यक है पुनरीक्षा और वीक्षा। पुनरीक्षा, वीक्षा और शब्द संचयन में युवाचार्य महाश्रमण ने अत्यधिक श्रम किया, यह कहना पर्याप्त नहीं होगा। किन्तु जिस सूक्ष्मेक्षिका से निरीक्षण किया, वह इस कार्य की विशदता और सफलता का सेतुबंध बना। धर्मसंघ के दायित्व और अनेक कार्य-कलापों का सम्यक् निर्वाह करते हुए जो समय का नियोजन किया, वह उल्लेखनीय है।
साध्वी विश्रुतविभा ने जिस निष्ठा से इस कार्य का संयोजन किया, उसकी धृति का उदहारण है। उसकी तत्परता कभी-कभी हमारी निश्चिन्तता के लिए चुनौती बन जाती थी। परिभाषा के आधारसूत्रों को खोजने में उसका मति-कौशल और कार्य-कौशल प्रस्फुट हो रहा है।
प्रस्तुत कोश को व्यवस्थित आकार देने में साध्वीश्री सिद्धप्रज्ञा का योगदान बहुत उपयोगी रहा। उन्होंने प्रूफ निरीक्षण में सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। एक दुर्बल शरीर वाले व्यक्ति का यदि मनोबल प्रबल हो तो वह बहुत कार्यकारी बन सकता है।
संपादन कार्य में साध्वी जयविभा, समणी मुदितप्रज्ञा, समणी उज्ज्वलप्रज्ञा, समणी विनीतप्रज्ञा, समणी चारित्रप्रज्ञा, समणी शारदाप्रज्ञा आदि समणियों की सहभागिता रही, वह बहुत मूल्यवान् है। अंग्रेजी अनुवाद
प्रस्तुत कोश का अंग्रेजी अनुवाद मुनि महेन्द्रकुमारकुमारजी ने किया। वे हमारे धर्मसंघ के मनीषी संत हैं। जैनदर्शन, पाश्चात्य दर्शन और चिन्तन तथा अनेक भाषाओं के विज्ञाता है। उनकी श्रमनिष्ठा भी अपूर्व है। अंग्रेजी के प्रूफ-संशोधन में साध्वी वंदनाश्री एवं मुनि अभिजितकुमार ने भी निष्ठा के साथ श्रम किया है। संपूर्ति
मुझे प्रसन्नता है कि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में निर्मित जैन पारिभाषिक शब्दकोश गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी की आन्तरिक अभीप्सा का मूर्त रूप बन रहा है। इस कार्य में जिनका योग रहा, उन सभी साधुसाध्वियों और समणियों के लिए शुभाशंसा है कि वे जैन दर्शन के बहुआयामी विकास में निरंतर अपनी निष्ठा का अर्ध्य चढ़ाते रहे।
२५ दिसम्बर २००८
आचार्य महाप्रज्ञ
१. अभिधानराजेन्द्र कोश-विजय राजेन्द्र सूरि, लोगोस प्रेस, नई दिल्ली, प्रथम सन् १९१३, द्वितीय सन् १९१०, सप्तम्
सन् १९३४ वि. सं. १९६७, १९३१ २. अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोष-आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वर सं. गणी कंचनसागर, मुनि प्रमोदसागर, सेठ देवचन्द
लालभाई जैन, पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, सन् १९५४, वि. सं. २०१०, १९६९ उराभण, १९७४
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश/भूमिका
३. आगमसद्दकोसो-मुनि दीपरत्नसागर, आगमआराधना केन्द्र, शीतलनाथ सोसायटी, अहमदाबाद (भाग १), वि.सं. २०५७,
सन् २००१ ४. कथाकोषप्रकरण-श्री जिनेश्वरसूरि, सं. आचार्य, जिनविजय मुनि, सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन बंबई,
वि.स.२००५, सन् १९४९ ५. जिनरत्नकोष-भाग-१, भण्डारकार आरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट ६. जैन उद्धरण कोश-भाग-१, डा. कमलेशकुमार जैन, भोगीलाल लहेरचन्द भारतीय संस्कृति संस्थान, दिल्ली एवं मोतीलाल
बनारसीदास पब्लिशर्स दिल्ली, सन् २००३ ७. जैनक्रिया कोश-पं. प्रवर दौलतरामजी जिनवाणी प्रचारक कार्यालय रचना, सं. १७९५ ८. जैनलक्षणावली-बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, वि.स. २०३०, सन् १९७३, १७७९ ९. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-क्ष. जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, वि.स. २०२६, सन् १९७०, चतुर्थ संस्करण १९९३ १०. नानार्थोदयसागर कोश-जैनाचार्य श्री घासीलालजी महाराज-आचार्य श्री घासीलालजी महाराज, साहित्य प्रकाशन
समिति, इन्दौर, वि. सं. २०४५, आषाढ, सन्-जुलाई १९८८ ११. पाइअसद्दमहण्णवो-पं. हरगोविन्द टी. शेठ, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, द्वितीय संस्करण १९६३ १२. भगवान महावीर हिन्दी अंग्रेजी जैनशब्दकोश-आर्यिका श्री चन्दनमतीजी माताजी (संकलन एवं वाचना), दिगम्बर जैन
त्रिलोक शोधसंस्थान , हस्तिनापुर (मेरठ), सन् २००४ १३. रत्नत्रय पारिभाषिक शब्द कोश-गणिनी आर्यिका श्री विशुद्धमतीजी १४. सचित्र अर्धमागधी कोश-श्री रत्नचन्दजी महाराज, केशरीचन्दभण्डारी, इन्दौर, सन् १९२३
१५. Encyclopaedia of Jainism--P. C. Nahar, KC Ghosh, Satguru Publication, A Division of
Indian Books Centre, Delhi, Ist Ed. 1917, Reprint 1996 १६. Encyclopaedia of Jainism--Nagendra Kr. Singh--Indo European Jain Research Foundation, __Delhi, Ist Ed. 2001 १७. Dictionary of Prakrit Proper Names--Mohanlal Banarasi Dass Mehta, K. Rishabh Chandra, __Edited by Dalsukh Malvania, L. D. Institute of Indology, 1970 १८. जैन योग पारिभाषिक शब्द कोश-मुनि राकेशकुमार, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९९१ १९. क्रिया कोश-(संपादक) मोहनलाल बांठिया. श्रीचन्द्र चोरडिया, जैन दर्शन समिति, कलकत्ता, सन १९६९ २०. पदगल कोश-(संपादक) मोहनलाल बांठिया, श्रीचन्द्र चोरडिया, जैन दर्शन समिति, कलकत्ता, सन् १९९९ २१. वर्धमान जीवन-कोश-(संपादक) मोहनलाल बांठिया, श्रीचन्द्र चोरडिया, जैन दर्शन समिति, कलकत्ता, सन् १९८०, १९८४ २२. योग कोश-प्रथम खण्ड, १९९३, द्वितीय, खण्ड १९९६ २३. लेश्या कोश-संपादक-बांठिया, चोरडिया, प्रकाशक मोहनलाल बांठिया, कलकत्ता, सन् १९६६ २४. एकार्थक कोश-वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी, प्रधान संपादक युवाचार्य महाप्रज्ञ, संपादिका समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व
भारती, लाडनूं, सन् १९८३
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश/भूमिका
२५. निरुक्त कोश-वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी, प्रधान संपादक युवाचार्य महाप्रज्ञ, संपादिका साध्वी सिद्धप्रज्ञा, साध्वी
निर्वाणश्री, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८४ २६. देशी शब्दकोश-वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी, प्रधान संपादक युवाचार्य महाप्रज्ञ, संपादक मुनि दुलहराज, जैन विश्व
भारती, सन् १९८८ २७. जैन आगम वनस्पति कोश-वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी, प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ, संपादक मुनि श्री चन्द्र
कमल, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९९६ २८. जैन आगम प्राणी कोश-वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी, प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ, संपादक-मुनि वीरेन्द्रकुमार,
सन् १९९९ २९. जैन आगम वाद्य कोश-वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी, प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ, संपादक-मुनि वीरेन्द्रकुमार,
मुनि जयकुमार, सन् २००४ ३०. आगम शब्द कोश (भाग-१)-वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी, संपादक युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती,
लाडनूं, वि. सं. २०३७, सन् १९८० ३१. श्री भिक्षु आगम विषय कोश-भाग-१, सन् १९९६, श्री भिक्षु आगम विषय कोश २, सन् २००५, वाचना प्रमुख
गणाधिपति तुलसी, प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ, संपादिका साध्वी विमलप्रज्ञा, साध्वी सिद्धप्रज्ञा, जैन विश्व भारती
संस्थान, (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं, (राज.) ३२. आयारो १/५। ३३. उपासकवृत्ति पत्र ५-'थूलगं' ति त्रसविषयम्। ३४. आवहा वृ २ पृ २१९-स्थूला: द्वीन्द्रियादयः... । ३५. तत्त्वार्थसूत्र ७/२ -देशसर्वतोऽणुमहती। ३६. भग १/३६३-देसं उवरमइ, देसं णो उवरमद। ३७. झीणी चरचा, ढाल २२।
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संकेत सूची
अचि
अभिधान चिन्तामणि
आवहावृ २
आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, भाग-२
अधवृ
आवृ
अनध
अनु
उचू
अनुचू
उनि
आचारांग वृत्ति उत्तराध्ययन (उत्तरज्झयणाणि) उत्तराध्ययन चूर्णि उत्तराध्ययन नियुक्ति उपासकदशा (उवासगदसाओ, अंगसुत्ताणि भाग-३) उपासकदशा वृत्ति
अनुमवृ
उपा
अनगार धर्मामृत स्वोपज्ञ वृत्ति अनगारधर्मामृत अनुयोगद्वार (अणुओगदाराई) अनुयोगद्वार चूर्णि अनुयोगद्वार भलधारीया वृत्ति अनुयोगद्वार हारिभद्रीया वृत्ति अन्तकृद्दशा (अंतगडदसाओ, अंगसुत्ताणि भाग-३) अन्ययोग व्यवच्छेदिका अमितगतिश्रावकाचार आचारांग (आयारो)
अनुहावृ
अन्त
उपावृ
उपास
उपासकाध्ययन
अन्ययो
उशावृ
अमिश्रा
उसुवृ ओनि
आ
आचू
आचारांग चूर्णि
ओनिवृ
उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य वृत्ति उत्तराध्ययन सुखबोधा वृत्ति ओघनियुक्ति ओघनियुक्ति वृत्ति ओघनियुक्ति भाष्य ओघनियुक्ति भाष्य वृत्ति औपपातिक (ओवइयं, उवंगसुत्ताणि खंड-१)
ओभा
आचूला आनि
ओभावृ
आभा
औप
आप
आव
आयारचूला आचारांग नियुक्ति आचारांगभाष्यम् आलाप पद्धति आवश्यक (आवस्सयं, नवसुत्ताणि) आवश्यक चूर्णि, भाग-१ आवश्यक चूर्णि, भाग-२ आवश्यक नियुक्ति आवश्यक परिशिष्ट (आवस्सयं,
औपव
औपपातिक वृत्ति
आवचू १
आवचू २
का
कल्प (कप्पो, नवसुत्ताणि) कार्तिकेयानुप्रेक्षा (कत्तियाणुवेक्खा) कर्मग्रंथ
आवनि
का
आव परि
कप्र
कर्मप्रकृति
नवसुत्ताणि)
कप्रा
कषाय प्राभृत (कषाय पाहुड)
आवभा
आवश्यकभाष्य
गोक
गोम्मटसार कर्मकाण्ड
आवमवृ
गोजी
गोम्मटसार जीवकाण्ड
आवश्यक मलयगिरीया वृत्ति आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, भाग-१
आवहावृ१
चासा
चारित्रसार
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश/संकेत सूची
चैत्य
चैत्यवन्दन
दप्रा
जम्बू
जंबद्दीवपण्णत्ती
दशा
जम्बूच
दहावृ
जम्बू जीभा
जम्बूचरित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति जीतकल्पभाष्य
दर्शनप्राभृत दशाश्रुतस्कन्ध (दसाओ, नवसुत्ताणि) दशवैकालिक हारिभद्रीया वृत्ति द्रव्यानुयोगतर्कणा द्वादशानुप्रेक्षा (वारसाणुवेक्खा) धवला, पुस्तक धर्मसंग्रह
द्वाअ
जीवा
जीवाजीवाभिगम (जीवाजीवाभिगमे,
धव पु
धसं
जीवावृ
नच
द्वादशारनयचक्र
जैतवि
नन्दी
जैमी
नन्दीचू
नन्दीमवृ
जैसिदी जैसिदी
उवंगसुत्ताणि खंड-१) जीवाजीवाभिगम वृत्ति जैन तत्त्व विद्या जैनदर्शन : मनन और मीमांसा जैन सिद्धांत दीपिका जैन सिद्धान्त दीपिका वृत्ति ज्ञातधर्मकथा (नायधम्मकहाओ अंगसुत्ताणि भाग-३) ज्ञातधर्मकथा वृत्ति झीणी चर्चा
नन्दीहाव
नन्दी नन्दी चूर्णि नन्दी मलयगिरीया वृत्ति नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति नव पदार्थ निशीथ (निसीहं, नवसुत्ताणि) निशीथ भाष्य
नवप
नि
निभा
झीच
निभाचू
निशीथ भाष्य चूर्णि निरयावलिका (निरयावसियाओ.
तभा
तत्त्वार्थ भाष्य
निर
तभावृ
तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी टीका
उवंगसत्ताणि खंड-२)
तवा
तत्त्वार्थराजवार्तिक
निर्वाणक
निवार्णकलिका
तश्रुव
निसाताव
नियमसार तात्पर्यवृत्ति
न्यायकु
न्यायकुमुदचन्द्र
त्रिप्र
न्याया
न्यायावतार
पञ्चव
पञ्चवस्तु
तत्त्वार्थश्रुतसागरवृत्ति तत्त्वार्थ सूत्र त्रिलोक प्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णत्ती) दशवैकालिक (दसवेआलियं) दशवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि दशवैकालिक चूलिका दशवैकालिक जिनदास चूर्णि दशवैकालिक नियुक्ति
दअचू
पञ्चसूवृ
पञ्चसूत्र वृत्ति
दचूला
पञ्चा
पञ्चाशक
दजिचू
पंसं
पञ्चसंग्रह
दनि
पद्वा
परमात्म द्वात्रिंशिका
दभा
दशवैकालिक भाष्य
पिनि
पिण्डनियुक्ति
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१४
पु
पुष्प
प्रज्ञा
प्रज्ञावृ
प्रत
प्रनत
प्रमी
प्रव
प्रसा
प्रसाउवृ
प्रसावृ
प्रश्न
प्रश्नवृ
बृद्रसं
बृद्रसंवृ
बृभा
बृभावृ
बृसं
भआ
भआविवृ
भग
भगचू
भगभा
पुष्पिका (पुफियाओ
उत्ताणि खंड २)
पुष्पचूलिका (पुप्फचूलिकाओ,
उवंगसुत्ताणि खण्ड- २)
प्रज्ञापना (पण्णवणा,
उवंगसुत्ताणि खण्ड- २)
प्रज्ञापनावृत्ति
प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार
प्रमाण मीमांसा
प्रवचनसार
प्रवचनसारोद्धार
प्रवचनसारोद्धार उदयप्रभवृत्ति
प्रवचनसारोद्धार वृत्ति
प्रश्नव्याकरण (पण्हावागरणाई,
अंगसुत्ताणि भाग - ३)
प्रश्नव्याकरण वृत्ति
बृहद् द्रव्यसंग्रह
बृहद् द्रव्यसंग्रह वृत्ति
बृहत्कल्पभाष्य
बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति
बृहत्संग्रहणी
भगवती आराधना
भगवती आराधना विजयोदया वृत्ति
भगवती (भगवई, अंगसुत्ताणि भाग २)
भगवती चूर्णि
भगवती भाष्य
भगवती वृत्ति
भगवृ
भासं
भिक्षु
मनो
मूला
योश
唇
योशा
योशावृ
राज
राजवृ
लासं
विभा
विभाकोवृ
विभामवृ
वीस्तो
व्य
व्यभा
व्यभाषी
व्यभावृ
शाभा
श्राप्र
श्राप्रवृ
पखं
षस
सप्र
सम
समप्र
जैन पारिभाषिक शब्दकोश / संकेत सूची
भावसंग्रह
भिक्षुन्यायकर्णिका
मनोनुशासनम्
मूलाचार
योगशतक
योगशास्त्र
योगशास्त्र वृत्ति
राजप्रश्नीय
राजप्रश्नीय वृत्ति
लाटी संहिता
विशेषावश्यक भाष्य
विशेषावश्यक भाष्य
कोट्याचार्यवृत्ति
विशेषावश्यक भाष्य
मलधारीया वृत्ति
वीतराग स्तोत्र
व्यवहार (ववहारो, नवसुत्ताणि)
व्यवहारभाष्य गाथा
व्यवहारभाष्यपीठिका
व्यवहारभाष्य वृत्ति
शान्तसुधारस भावना
श्रावक प्रतिक्रमण
श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति
षट्खण्डागम
षड्दर्शनसमुच्चय
सन्मतितर्कप्रकरण
समवायांग (समवाओ)
समवाओ प्रकीर्णक
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश/संकेत सूची
समवृ
समवायांग वृत्ति
सश
समाधिशतक
सूर्यप्रज्ञप्ति (सूरपण्णत्ती, उवंगसुत्ताणि खंड-२) सूर्यप्रज्ञप्ति वृत्ति स्थानांग (ठाणं)
समयसार
ससाआख्या
ससि
स्थावृ
स्थानांग वृत्ति
साशआ
स्याद्वादमञ्जरी
सूत्र १
गाथा
समयसार, आत्मख्याति वृत्ति सर्वार्थसिद्धि सामाचारी शतक, आगमाधिकार सूत्रकृतांग (सूयगडो १) सूत्रकृतांग (सूयगडो २) सूत्रकृतांग चूर्णि सूत्रकृतांग नियुक्ति सूत्रकृतांग वृत्ति
पत्र
सूत्र २ सूत्रचू
पृष्ठ
सूत्रनि
सूत्रवृ
-०००
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________________
अ
अकतिसञ्चित वह राशि, जो गणना की दृष्टि से असंख्यात अथवा अनंत
है।
सिद्धिपदमारोहन्ति (तां), क्षपकश्रेणिम्।
(उ १०. ३५ शावृ प ३४१) अकल्पस्थापनाकल्प वह मुनि, जिसने पिण्डैषणा के सूत्र और अर्थ का अध्ययन नहीं किया है, उससे आहार आदि की गोचरी न करवाना। 'अकल्पिकेन' अनधीतपिण्डैषणादिसूत्रार्थेन आहारादिकं न ग्राहयेत्।
(बृभा ६४४२ वृ)
अकति-असंख्याता अनन्ता वा...."असंख्याता एकैकसमये उत्पन्नाः सन्तस्तथैव सञ्चितास्ते अकतिसञ्चिताः।
(स्था ३.७ वृ प ९९) (द्र कतिसञ्चित)
अकल्पस्थित वह मुनि, जो चातुर्याम की परम्परा में दीक्षित है। अकल्पस्थितानां तु 'चत्वारो यामाः' चत्वारि महाव्रतानि भवन्ति।
(बृभा ५३४० वृ)
अकर्मभूमि वह क्षेत्र, जहां कल्पवृक्ष के द्वारा जीवन की आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं, जहां जीविका के लिए वाणिज्य, कृषि आदि की प्रवृत्ति नहीं होती। अकर्मभूमियां तीस हैं। कृष्यादिकर्मरहिता: कल्पपादपफलोपभोगप्रधाना भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्षपञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चकैरण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिंशदकर्मभमयः।
(नन्दी २३ मवृ प १०२) (द्र कर्मभूमि) अकर्मवीर्य वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न जीव की सहज शक्ति। न विद्यते कर्मास्येत्यकर्मा-वीर्यान्तरायक्षयजनितं जीवस्य सहजं वीर्यम्।
(सूत्र १.८.२ वृ प १६८) अकर्मांश १. सिद्ध अवस्था, जहां कर्म का अंशमात्र भी शेष न हो। अकम्मंसे-एभिः सर्वैर्विधूणितैः अकम्मंसो भवति... सिद्धत्वम्।
(सूत्र १.१.३९ चू पृ ४५) २. स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था. जो निर्ग्रन्थ के घात्यकर्मों के पूर्ण क्षय की सूचक है। क्षालितसकलघातिकर्ममलपटलत्वात् स्नात इव स्नातः स एव स्नातकः""क्षपितकर्मत्वादकाँशः।
(स्था ५. १८९ वृ प ३२०)
अकषाय संवर वीतराग-अवस्था, क्रोध आदि कषायों का निरोध। क्रोधाद्यभावोऽकषायः। __ (जैसिदी ५.१४) अकषायी वह मुनि, जिसका मोह उपशांत अथवा क्षीण हो चुका हो। अकषायिण: उपशान्तमोहादयः ।
(स्था ५.२०८ वृ प ३२७) अकस्मात्दण्डप्रत्यय दण्डसमादान क्रियास्थान का चौथा प्रकार, किसी एक का वध करते समय अकस्मात् किसी दूसरे का वध हो जाना। अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ-से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा""कविंजलं वा विंधित्ता भवति–इति खल से अण्णस्स अट्ठाए अण्णं फुसइ-अकस्मादंडे। (सूत्र २.२.६) अकस्मात् भय भय का एक प्रकार। किसी बाह्यनिमित्त के बिना होने वाला भय। अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं गहादिष्वेव स्थितस्य रात्र्यादौ भयमकस्माद्भयम्। (स्था ७.२७ वृ प ३६९)
अकलेवर श्रेणी क्षपक श्रेणी, जिस पर आरोहण कर मुनि कर्मों को क्षीण करता है। कलेवर-शरीरम् अविद्यमानं कडेवरमेषामकडेवरा:-सिद्धास्तेषां श्रेणिरिव श्रेणिर्ययोत्तरोत्तरशुभपरिणामप्राप्तिरूपया ते
अकाम निर्जरा मोक्ष की अभिलाषा के बिना होने वाली अथवा की जाने वाली अविपाकी निर्जरा। जो व्यक्ति अपने अभिप्राय से विषयों की निवृत्ति नहीं करता,
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२
किन्तु परतंत्रता के कारण भोग और उपभोग का निरोध करता है, उससे होने वाला कर्म का परिशाटन ।
विषयाऽनर्थनिवृत्तिं चात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्याद् भोगोपभोगनिरोधोऽकामनिर्जरा । ( तवा ६.१२)
सहकामेन मोक्षाभिलाषेण विधीयमाना निर्जरा सकामा, तदपरा अकामा । (जैसिदी ५.१८ वृ)
अकाम मरण
मरण का एक प्रकार । मृत्यु को न चाहने पर भी विषय में आसक्त होने के कारण होने वाली असंयमी की मृत्यु । बाला इव बालाः सदसद्विवेकविकलता....... ते हि विषयाभिष्वङ्गतो मरणमनिच्छन्त एव म्रियन्ते । (उ५. १७ शावृ प २४२ )
अकाल
वह कालखण्ड, जो स्वाध्याय आदि करणीय कार्य के लिए सम्मत नहीं है।
काल:- कर्त्तव्यावसरस्तद्विपरीतोऽकालः । ( आवृ प ९१ ) अकुशल
वह व्यक्ति, जिसकी प्रवृत्ति जन्म-मरण बढ़ाने की ओर होती है।
अकुसलो नाम अप्रधानः बंधाय संसाराय ।
अकृत्स्ना आरोपणा
कोई मुनि प्रायश्चित्त के लिए षाण्मासिक तप कर रहा है, उसी अवधि में दोष का आसेवन होने पर दिया जाने वाला प्रायश्चित्त, जो उसी छ: मास की अवधि में समाहित किया जाता है, वह अकृत्स्ना आरोपणा है। बहूनपराधानापन्नस्य षण्मासान्तं तप इतिकृत्वा षण्मासाधिकं तपः कर्म तेष्वेवान्तर्भाव्य शेषमारोप्यते यत्र सा अकृत्स्नारोपणा । (सम २८. १ वृ प ४६ )
(निभा ७४ चू पृ ३६ )
अक्रियावादी
आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करने वाला वादी, दार्शनिक ।
ये पुनरिहाक्रियावादिनस्तेषामात्मैव नास्ति ।
(द्र क्रियावादी)
(उशावृ प ४४३)
अक्षणयोग
वह प्रयत्न, जो हिंसा-रहित होता है। अहिंसणेण अच्छणो जोगो जस्स सो अच्छणजोगी । (द ८. ३ अचू पृ १८५)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अक्षर
ज्ञानचेतना, जिसका कभी क्षरण नहीं होता। जो अनुपयोग अवस्था में भी प्रच्युत नहीं होता, वह अक्षर है । नाणक्खरं 'क्षर संचरणे' न क्षरतीत्यक्षरम्, न प्रच्यवते अनुपयोगे ऽपीत्यर्थः....तं च णाणं अविसेसतो चेतनेत्यर्थः । (नन्दी ५५ चू पृ ४४)
अक्षरश्रुत
1
श्रुतज्ञान का एक भेद, जो अक्षर की दृष्टि से किया गया। है अक्षर-संज्ञाक्षर, व्यञ्जनाक्षर और लब्ध्यक्षर के आधार पर होने वाला ज्ञान ।
अक्खरसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा - सण्णक्खरं, वंजणक्खरं, लद्धिअक्खरं । ( नन्दी ५६)
अक्षीणमहानस
एक लब्धि । खाद्य वस्तु को अक्षीण बनाने वाली योगज विभूति, दूसरों को खिलाने के लिए अक्षीण और स्वयं खाने पर वह क्षीण हो जाती है।
ssi भैक्षं बहुभिरप्यन्यैर्भुक्तं न क्षीयते, किन्तु स्वयमेव भुक्तं निष्ठां याति तस्याऽक्षीणमहानसीलब्धिः । (विभा ८०१ वृ)
अगमिकश्रुत
श्रुतज्ञान का एक भेद, जिसका वर्गीकरण ग्रंथ की रचनाशैली के आधार पर किया गया है, जिसमें गाथा, श्लोक, वेष्टक आदि असदृश पाठों की बहुलता है, जैसे -कालिक श्रुत । भंगगणिया गमियं जं सरिसगमं च कारणवसेण । गाहाइ अगमियं खलु कालियसुयं दिट्टिवाए वा ॥ (विभा ५४९)
(द्र गमिक श्रुत) अगारधर्म
बारह प्रकार का धर्म, जिसका प्रतिपादन गृहस्थ के लिए किया गया है, जैसे- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत । अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खड़, तं जहा - पंच अणुव्वयाई,
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाई। (औप ७७)। अगुरुलघुकगुण
(प्रज्ञा १५. ५७) (द्र अगुरुलघुत्व)
अगुरुलघुकनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर न अति भारी होता है और न अति हल्का; गुरुत्व और लघुत्व का सन्तुलन बना रहता है। यदुदयात् प्राणिनां शरीराणि न गुरूणि नापि लघूनि किन्त्वगुरुलघुरूपाणि भवन्ति, तदगुरुलघुनाम।
__ (प्रज्ञा २३.५१ वृ प ४७३) अगुरुलघुपरिणामनियामकमगुरुलघुनाम। (तभा ८.१२) अगुरुलघुकपर्यव द्रव्य का एक सामान्य गुण।
(भग २.४५) (द्र अगुरुलघुत्व)
तब्भत्तिया, तप्पक्खिया तब्भारिया"महारण्णो आणाउववाय-वयण-निद्देसे चिटुंति॥ (भग ३.२५२) अग्रेयणीय पूर्व दूसरा पूर्व। इसमें सब द्रव्यों, पर्यायों और सब जीवों के परिमाण का प्रज्ञापन किया गया है। बितियं अग्गेयणीयं, तत्थ वि सव्वदव्वाण पज्जवाण य सव्वजीवविसेसाण य अग्गं-परिमाणं वणिज्जड़।
(नन्दी १०४ चू पृ७५), अघातिकर्म वह कर्म, जो आत्मा के मूल गुणों का घात नहीं करता, जैसे-वेदनीय कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और आयुष्य कर्म। (द्र घातिकर्म)
अगुरुलघुत्व सामान्य गुण का एक प्रकार। वह गुण अथवा पर्याय. 'जो द्रव्य के अस्तित्व को बनाए रखता है। स्वस्वरूपाविचलनत्वम्-अगुरुलघुत्वम्।
(जैसिदी १. ३८ वृ) अगुरुलघु द्रव्य
(भग १.४०३) (द्र गुरुलघु द्रव्य) अग्निकाय
(आचूला २.४१) (द्र तेजस्कायिक) अग्निकुमार भवनपति देव का एक प्रकार । वह देववर्ग, जिसका शरीर भास्वर और अवदात होता है, जिसका चिह्न है घट और जो लोकपाल सोम की आज्ञा में रहता है। मानोन्मानप्रमाणयुक्ता भास्वन्तोऽवदाता: घटचिह्नाः अग्निकुमारा भवन्ति।
(तभा ४. ११) अग्गिकुमारा""तारारूवा जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते
अङ्ग १. द्वादशाङ्ग (आचाराङ्ग आदि बारह आगम), जो अर्हतप्रज्ञप्त और गणधरों द्वारा निर्मित है। गणहर-थेरकयं वा, आएसा मुक्कवागरणओ वा। धुव-चलविसेसओ वा, अंगाणंगेसु नाणत्तं ।।
(विभा ५५०) २. कालिक श्रुत का एक विभाग, ग्यारह अंग। कालियसुयपरिमाणसंखा"अंगसंखा। (अनु ५७१) अचूलिका कालिक श्रुत का एक प्रकार। आचाराङ्ग की चूला अथवा दृष्टिवाद की चूला। अंगस्स चूलिता जहा आयारस्स पंचचूलातो, दिट्ठिवायस्स वा चूला।
(नन्दी ७८ चू पृ५९) अनिमित्त अष्टाङ्ग महानिमित्त का एक प्रकार। शरीर के अवयवों के स्फुरण अथवा स्पन्दन के आधार पर शुभ-अशुभ फल की उद्भावना करने वाला शास्त्र। अंग-प्रत्यंग-दर्शन-स्पर्शनादिभिस्त्रिकालभाविसुखदुःखादिविभावनमङ्गम्।
(तवा ३.३६) अंङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान का एक भेद।
(नन्दी ७३) (द्र अङ्ग, अङ्गबाह्य श्रुत)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अङ्गप्रविष्टश्रुत श्रुतज्ञान का एक भेद, जो वक्ता की अपेक्षा से किया गया है, जो द्वादशाङ्ग---गणिपिटक में समाहित है। सुयनाणपरोक्खं चोद्दसविहं......अंगपविटुं, अणंगपविटुं॥
(नन्दी ५५) अंगपविट्ठ दुवालसविहं पण्णत्तं.... ॥ (नन्दी ८०)
प्रकार। वह तीन प्रकार का है-आत्माङ्गल, उत्सेधाङ्गल, प्रमाणाङ्गल। से किं तं विभागनिप्फण्णे? विभागनिप्फण्णेगाहअङ्गल विहत्थि रयणी......॥ से कि तं अङ्गले ? अङ्गले तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयङ्गले, उस्सेहङ्गुले पमाणाङ्गुले॥ (अनु ३८८, ३८९) (द्र उत्सेधाङ्गुल) अङ्गष्ठ प्रश्न वह प्रश्नविद्या, जिसके माध्यम से अंगुष्ठ पर देवता को अवतीर्ण कर प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया जाता है। (द्र क्षौमकप्रश्न)
अङ्गबाह्य अनंगप्रविष्टश्रृत (उपाङ्ग), स्थविरों द्वारा निर्मित औपपातिक आदि आगम। (द्र अङ्ग)
अङ्गबाह्यश्रुत श्रुतज्ञान का एक भेद। तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-अंगपवि₹, अंगबाहिरं च॥
(नन्दी ७३) (द्र अङ्गबाह्य)
अङ्गार मांडलिक दोष का एक प्रकार, जो स्वादिष्ट भोजन और । उसके दाता की प्रशंसा करने से उत्पन्न होता है। इस दोष का सेवन करने वाला मुनि राग की अग्नि से चारित्र रूपी ईंधन को अङ्गारा बना देता है। तं होइ सइंगालं जं आहारेइ मुच्छिओ संतो। (पिनि ६५५) स्वाद्वन्नं तद्दातारं वा प्रशंसन् यद् भुङ्क्ते स रागाग्निना चारित्रेन्धनस्याङ्गारीकरणादङ्गारो दोषः ।
(योशा १.३८ वृ पृ१३८) अङ्गारकर्म कर्मादान का एक प्रकार। अग्नि के महारंभ वाला उद्योगकोयला बनाने और उसको बेचने का उद्योग। इंगाला निद्दहितुं विक्किणति। (आवहावृ २ पृ २२६) अंगाराणां करणविक्रयस्वरूपम् एवमग्निव्यापाररूपं यदन्यदपीष्टकापाकादिकं कर्म तदङ्गारकर्मोच्यते।
(भग ८.२४२ वृ)
अचक्षुर्दर्शन चक्ष के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों तथा मन से होने वाला सामान्य अवबोध। अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं-स्वस्वविषये सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम्। (प्रज्ञा २९. ३ वृ प ५२७) अचक्षुर्दर्शनावरण दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अचक्षुदर्शन
आवृत होता है। ...."अचक्षुर्दर्शनं तस्यावरणीयमचक्षदर्शनावरणीयम्।
(प्रज्ञा २३. १४ वृ प ४६७) अचरम जो जिस अवस्था को पुनः प्राप्त करेगा, वह उसके लिए अचरम है। जो जं पाविहिति पुणो भावं, सो तेण अचरिमो होइ।
(भग १८.३६) अचरमसमयनिर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थ) का एक प्रकार । ग्यारहवें-उपशान्तमोह अथवा बारहवें-क्षीणमोह गुणस्थान के अन्तिम समय को छोडकर शेष समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ। (द्र यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ) अचलित कर्म जीवप्रदेशों के द्वारा गृहीत होकर जो कर्म-पुद्गल स्थित हो
अङ्गुल माप की एक इकाई। विभागनिष्पन्न क्षेत्र-प्रमाण का एक
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जाते हैं।
जीवप्रदेशेभ्यश्चलितं- तेष्वनवस्थानशीलं तदितरत्त्वचलि
(भग १.२८ वृ)
तम् ।
अचित्त
वह वस्तु, जो जीव-रहित है ।
(द ५.१.८६)
अचित्तमहास्कन्ध
वह पौद्गलिक महास्कन्ध, जिसमें सर्वाधिक परमाणुओं का संचय होता है, जो पूर्ण लोकव्यापी और चतुःस्पर्शी है। अयमेव सर्वोत्कृष्टपरमाणुसंख्याप्रचितो एष पुनरचित्तमहास्कन्धो यस्माच्चतुःस्पर्श इष्यते ।
(विभा ६४४,६४६ मवृ पृ २८२, २८३)
अचित्त योनि
वह योनि (उत्पत्तिस्थान), जो जीव के प्रदेशों से शून्य होती है, जैसे- देव और नैरयिक की योनि ।
(स्था ३.१०१ )
(द्र मिश्रयोनि)
अचेलक
१. साधना की वह व्यवस्था, जिसके अनुसार मुनि वस्त्र नहीं रखता ।
२. साधना की वह व्यवस्था, जिसके अनुसार मुनि श्वेत और साधारण वस्त्र रखता है।
अचेलक:- अविद्यमानचेलकः कुत्सितचेलको वा ।
( उ २३.१३ शावृ प ५०० )
अचेल परीषह
परीषह का एक प्रकार ।
१. अचेल अवस्था में होने वाली लज्जा, जो मुनि के द्वारा सहनीय है।
२. वस्त्र की प्राप्ति न होने पर उस विषय में चिंता न करना । परिजुण्णेहिं वत्थेहिं, होक्खामि त्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्खं इइ भिक्खू न चिंतए ॥ गया होइ, सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए ॥
( उ २. १२, १३)
अचौर्य महाव्रत
(द्र अदत्तादानविरमण)
(उ २१.१२)
५
अच्छवी
स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था, जो उसके आंशिक काययोग के निरोध की सूचक है।
छविः - शरीरं तदभावात्काययोगनिरोधे सति अच्छविर्भवति । (स्था ५. १८९ वृ प ३२० )
अच्छिन्नछेदनयिक
सूत्र
सूत्र - रचना की वह परिपाटी, जिसमें पूर्ववर्ती सूत्र और अर्थ का उत्तरवर्ती और अर्थ के साथ संबंध रहता है। यो नयः सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नछेदनयो यथा 'धम्मोमंगलमुक्किट्ठ' मित्यादिश्लोकोऽर्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाण इत्येवं यान्यच्छिन्नच्छेदनयवन्ति तान्यच्छिन्नच्छेदनयिकानि । (सम २२.२ वृ प ४० )
अच्युत
बारहवां स्वर्ग । कल्पोपपत्र वैमानिक देवों की बारहवीं आवासभूमि । ( उ ३६.२११)
(देखें चित्र पृ ३४६)
अजीव
तत्त्वों में एक तत्त्व, जिसमें चैतन्य न हो। उसके पांच प्रकार हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । (जैसिदी ३.१९ )
अचेतनः अजीवः । अज्जीवो पुण ओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं । कालो......... ॥ (बृद्रसं १५)
अजीव अप्रत्याख्यान क्रिया
अप्रत्याख्यान क्रिया का एक प्रकार । प्रत्याख्यान के अभाव से अजीव के संबंध में होने वाली प्रवृत्ति । यदजीवेषु – मद्यादिष्वप्रत्याख्यानात् कर्मबन्धनं सा अजीवाप्रत्याख्यानक्रिया | (स्था २.१३ वृप ३८)
अजीवआज्ञापनिका क्रिया
आज्ञापनिका क्रिया का एक प्रकार। अजीव के विषय में आज्ञा देने से होने वाली क्रिया ।
अजीवविषया अजीवाऽऽज्ञापनी अजीवानायनी वा ।
(स्था २.३० वृ प ३९ )
अजीवआरम्भिकी क्रिया आरम्भिकी क्रिया का एक प्रकार । अजीव के उपमर्दन से
होने वाली प्रवृत्ति ।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
स्फोट-अप्रकाशनीय के प्रकाशन से होने वाली क्रिया।
(स्था २.३१)
यच्चाजीवान् जीवकडेवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्च वस्त्रादीन वा आरभमाणस्य सा अजीवारम्भिकी।
(स्था २. १५ वृ प३८) अजीव क्रिया क्रिया का एक प्रकार। पुद्गल-समुदाय का कर्म रूप में परिणत होना। अजीवस्य-पुद्गलसमुदायस्य यत्कर्मतया परिणमनं सा अजीवक्रिया।
(स्था २.२ वृ प ३७)
अजीवदृष्टिजा क्रिया दृष्टिजा क्रिया का एक प्रकार। निर्जीव पदार्थों को देखने के लिए होने वाली रागात्मक प्रवृत्ति। अजीवानां चित्रकर्मादीनां दर्शनार्थं गच्छतो या सा अजीवदृष्टिका।
(स्था २.२१ वृ प ३९) अजीवनसृष्टिकी क्रिया नैसृष्टिकी क्रिया का एक प्रकार । धनुष्य आदि के द्वारा बाण आदि निर्जीव पदार्थों को फेंकने की क्रिया। यत्तु काण्डादीनां धनुरादिभिः सा अजीवनैसृष्टिकी।
(स्था २.२८ वृ प ३९) अजीवपारिग्रहिकी क्रिया पारिग्रहिकी क्रिया का एक प्रकार। अजीव परिग्रह की सुरक्षा के लिए की जानेवाली प्रवृत्ति। (स्था २.१६) अजीवप्रातीत्यिकी क्रिया प्रातीत्यिकी क्रिया का एक प्रकार। अजीव के निमित्त से होने वाली राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति अथवा उसके कारण से होने वाले कर्मबंध की हेतुभूत प्रवृत्ति। अजीवं प्रतीत्य यो रागद्वेषोद्भवस्तज्जो वा बन्धः सा अजीवप्रातीत्यिकी।
(स्था २.२४ वृ प ३९) अजीवप्रादोषिकी क्रिया प्रादोषिकी क्रिया का एक प्रकार। अजीव के प्रति प्रद्वेष से होने वाली क्रिया। अजीवे-पाषाणादौ स्खलितस्य प्रद्वेषादजीवप्राद्वेषिकी।
(स्था २.८ वृ प ३८) अजीववैदारणिका क्रिया वैदारणिका क्रिया का एक प्रकार। अजीव के विषय में
अजीवसामन्तोपनिपातिकी क्रिया सामन्तोपनिपातिकी क्रिया का एक प्रकार निर्जीव वस्तुओं के बारे में जन-समुदाय की प्रतिक्रिया सुनने पर होने वाली हर्षात्मक प्रवृत्ति। तथा रथादौ तथैव हृष्यतोऽजीवसामन्तोपनिपातिकी।
__(स्था २.२५ वृ प ३९) अजीवस्पृष्टिजा क्रिया स्पृष्टिजा क्रिया का एक प्रकार। अजीव के स्पर्शन के लिए होने वाली रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति। जीवमजीवं वा रागद्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा जीवपृष्टिका जीवस्पृष्टिका वा, अजीवपृष्टिका अजीवस्पृष्टिका वा।
(स्था २.२२ वृ प ३९) अजीवस्वाहस्तिकी क्रिया स्वाहस्तिकी क्रिया का एक प्रकार। अपने हाथ में रहे हुए निर्जीव शस्त्र के द्वारा किसी दूसरे जीव को मारने की क्रिया। यच्च स्वहस्तगृहीतेनैवाजीवेन-खड्गादिना जीवं मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकी। (स्था २.२७ वृ प ३९) अजीवोदयनिष्पन्न जीव में पुद्गल के योग से होने वाला कर्म का वह उदय, जो प्रधानरूप से पौद्गलिक पर्याय निष्पन्न करता है। अजीवेसु जहा ओरालियदव्ववग्गणेहिंतो ओरालियसरीरपयोगे दव्वे घेत्तूणं तेहिं ओरालियसरीरे णिव्वत्तेइ णिव्वत्तिए वा तं उदयनिष्फण्णो भावो। (अनु २७४ चू पृ ४२)
अज्ञात उञ्छ अज्ञात रूप में गृहस्थ के घर जाकर अपना परिचय दिए बिना ली जाने वाली भिक्षा। अज्ञातोञ्छं परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोञ्छं गृहस्थोद्वरितादि।
(द ९.३.४ हावृ प २५३)
अज्ञातता योगसंग्रह का एक प्रकार । अज्ञात रूप में तप करना, उसका प्रदर्शन या प्रख्यापन नहीं करना।
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लिए अनाचीर्ण है। अञ्जनं रसाञ्जनादिना।
(द ३.९ हावृ प ११८)
'अण्णायय'त्ति तपसोऽज्ञातता कार्या।
(सम ३२.१.२ वृ प ५५) अज्ञातपिण्ड
(सूत्र १.७.२७) (द्र अज्ञातउञ्छ)
अञ्जना अधोलोक (नरक) की चतुर्थ पृथ्वी का नाम। एतासि णं सत्तण्डं पुढवीणं सत्त णामप्पेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मा, वंसा, सेला, अंजणा, रिट्ठा, मघा, माघवती।
(स्था ७.२३)
अज्ञान १. ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होने वाला ज्ञान का अभाव। ज्ञानाभावरूपम् औदयिकमज्ञानम्। (जैसिदी २.३२) २. ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला मिथ्यात्वी का ज्ञान। मिथ्यादृष्टानमपि मिथ्यादर्शनोदयपरिग्रहादज्ञानं बम्भण्यते।
(विभा ५२० वृपृ २३८)
अज्ञान परीषह परीषह का एक प्रकार। ज्ञान का विकास तथा तत्त्व का साक्षात्कार न होने के कारण होने वाली निराशा, जो मुनि के द्वारा सहनीय है। निरहगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो। जो सक्खं नाभिजाणामि, धम्मं कल्लाण पावगं ।। तवोवहाणमादाय, पडिमं पडिवज्जओ। एवं पि विहरओ मे, छउमं न नियट्टई।
(उ २.४२,४३)
अञ्जलिप्रग्रहसंभोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। सांभोजिक अथवा अन्य सांभोजिक साधुओं को वन्दना करना। सम्भोगिकानामन्यसम्भोगिकानां वा संविग्नानां वन्दनकंप्रणाममञ्जलिप्रग्रह, नमः क्षमाश्रमणेभ्यः।
(सम १२.२ वृ प २२) अणुव्रत गृहस्थ धर्म के पांच व्रत, जैसे-स्थूल प्राणातिपातविरमण, स्थूल मृषावादविरमण, स्थूल अदत्तादानविरमण, स्वदारसंतोष
और इच्छापरिमाण। पंच अणुव्वयाई, तं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे। (औप ७७) अण्डज अण्डे से उत्पन्न होने वाला जीव, जैसे-मयूर आदि। अण्डजाता अण्डजा मयूरादयः। (द ४.९ अचू पृ ७७) अण्डसूक्ष्म मधुमक्खी, चींटी आदि के अण्डे। उद्दसंडं महुमच्छिगादीण। कीडियाअंडगं-पिपीलियाअंडं, उक्कलिअंड-लूयापडगस्स। हलियंडं-बंभणियाअंडगं। सरडि-अंडगं-हल्लोहलिअंडं। (द ८.१५ अचू पृ १८८) अतथाज्ञान द्रव्यानुयोग का एक प्रकार । द्रव्य का अयथार्थ बोध, एकान्तवाद का अभ्युपगम। अतथाज्ञानं मिथ्यादृष्टिजीवद्रव्यमलातद्रव्यं वा वक्रतयाऽवभासमानमेकान्तवाद्यभ्युपगतं वा वस्तु।
(स्था १०. ४६ वृ प ४५७) अतिक्रम आचार के अतिक्रमण की दिशा में प्रथम चरण । ज्ञानाचार,
अज्ञानमरण मरण का एक प्रकार, जिसका हेतु ज्ञात नहीं होता, जो रागद्वेष की तीव्रता के कारण होता है। हेउं ण जाणइ अण्णाणमरणं मरइ। (भग ५.१९३)
अज्ञानवादी ज्ञान का निरसन कर केवल (तप आदि) क्रिया से सिद्धि मानने वाला वादी, दार्शनिक। अज्ञानवादिनस्त्वाहुः-अपवर्ग प्रत्यनुपयोगित्वात् ज्ञानस्य। केवलं कष्टं तप एवानुष्ठेयं, न हि कष्टं विनेष्टसिद्धिः।
(उशावृ प ४४४) (द्र क्रियावादी)
अञ्जन अनाचार का एक प्रकार। आंखों में अंजन आंजना मनि के
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अइपरिणामगो-अपवादरुचिः। (द्र परिणामक)
(जीचूवि पृ. ५४)
दर्शनाचार और चारित्राचार के प्रतिकूल आचरण का संकल्प। तिविधे अतिक्कमे पण्णत्ते, तं जहा-णाणअतिक्कमे. दंसणअतिक्कमे, चरित्तअतिक्कमे। (स्था ३. ४४०) (द्र व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार)
अतिभार स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार। सामर्थ्य से अधिक भार लादना। 'अइभारे' त्ति अतिभारारोपणं तथाविधशक्तिविकलानां महाभारारोपणम्।
(उपा १.३२ वृ पृ१०) अतिव्याप्त लक्षणाभास का एक प्रकार। वह लक्षण, जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में मिलता है, जैसे-वाय का लक्षण गतिशीलता। लक्ष्यालक्ष्यवृत्तिरतिव्याप्तः। यथा-वायोर्गतिमत्त्वम्। (भिक्षु १.८ वृ) अतिशय छत्ताईए तित्थगराइसए पासइ। (ज्ञा २.१.२६) (द्र अतिशेष )
अतिशेष तीर्थंकरों की विशेष सम्पदा. उसकी संख्या चौंतीस है। चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ता.... (सम३४.१)
अतिक्रान्त प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान का एक प्रकार। वर्तमान में करणीय तप यदि नहीं किया जा सके, उसे भविष्य में करना। 'अइक्कंतं' ति एवमेवातीते पर्यषणादौ करणादतिक्रान्तं आहच
पज्जोसवणाए तवं जो खलु न करेइ कारणजाए। गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलन्नयाए वा॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अइच्छिए काले। एयं पच्चक्खाणं अइक्कंतं होड़ नायव्वं ।।
(स्था १०.१०१ ७ प ४७२) अतिचार आचार के अतिक्रमण की दिशा में तृतीय चरण । ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार का आंशिक अतिक्रमण। तिविधे अइयारे पण्णत्ते, तं जहा–णाणअइयारे, दंसणअइयारे, चरित्तअइयारे।
(स्था ३.४४२) (द्र अतिक्रम, व्यतिक्रम, अनाचार) अतिथिसंविभाग गृहस्थ धर्म का बारहवां व्रत। संयमी को अपने आहार, धर्मोपकरण, औषध और आवास का विधिपूर्वक संविभाग देना। अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाईणंदव्वाणं देसकालसद्धासक्कारकमजुअंपराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं। (आव परि पृ २३) । अतिथिसंविभागश्चतुर्विधो भिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात्।
(तवा ७.२१.२८) अतिपरिणामक वह मुनि, जिसकी मति अर्हत् प्रज्ञप्त उत्सर्ग-अपवाद मार्ग में से केवल अपवाद-मार्ग में परिणत होती है, श्रुतोक्त अपवाद से अत्यधिक अपवाद वाली होती है। जो दव्व-खेत्तकय-कालभावओ जं जहिं जया काले। तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणाम वियाणाहि॥
अतीन्द्रियज्ञान इन्द्रियातीत ज्ञान, जो केवल आत्मा के द्वारा होता है, जिसमें इन्द्रियों के माध्यम की अपेक्षा नहीं होती। आत्ममात्रापेक्षम् अतीन्द्रियम्॥ (मनो १.४) (द्र नोइन्द्रियप्रत्यक्ष)
अतीर्थंकरसिद्ध वह सिद्ध, जो सामान्य केवली के रूप में मुक्त होता है। अतित्थकरा सामण्णकेवलिणोगोतमादितम्मि अतित्थकरभावे द्विता अतित्थकरभावातो वा सिद्धा अतित्थकरसिद्धा।
(नन्दी ३१ चू पृ २६) अतीर्थसिद्ध वह सिद्ध, जो तीर्थस्थापना से पहले अथवा तीर्थ के अभाव में मुक्त होता है। अतित्थं-चातुवण्णसंघस्स अभावो तित्थकालभावस्स वा अभावो।तम्मि अतित्थकालभावे अतिस्थकालभावातो वा जे सिद्धा ते अतित्थसिद्धा। (नन्दी ३१ चू पृ २६)
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अत्यक्षर ज्ञानातिचार का एक प्रकार । पाठ का उच्चारण करते समय अतिरिक्त अक्षरों को जोड़ देना। अत्यक्षरम्-अधिकाक्षरम्। (आव ४.८ हावृ पृ १६१)
अत्यन्ताभाव अभाव का चौथा प्रकार। तादात्म्य परिणति का त्रैकालिक अभाव, जैसे चेतन में अचेतन का और अचेतन में चेतन का अभाव। कालत्रयापेक्षिणी हि तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरत्यन्ताभावः। यथा-चेतनाचेतनयोः।
(प्रनत ३.६५, ६६)
अदत्तादानविरमण तृतीय महाव्रत । अदत्तादान के परित्याग से होने वाली विरति।
(स्था १.१११) (द्र सर्वअदत्तादानविरमण) अदर्शन परीषह
(तसू ९.९) (द्र दर्शन परीषह) अदर्शनी वह व्यक्ति, जो सम्यग् दर्शन से रहित है।
(उ २८.३०) अद्धा पल्योपम
(अनु ४२९) (द्र अध्वा पल्योपम) अद्धा सागरोपम
(अनु ४३१) (द्र अध्वा सागरोपम)
अदत्तादान आश्रव आश्रव का एक प्रकार। स्तेय के द्वारा कर्म को आकर्षित करने वाली आत्मा की अवस्था। चोरी करै तिण नै कह्यो जी, आसव अदत्तादान।
(झीच २२.८) अदत्तादान पाप पाप कर्म का तीसरा प्रकार । चोरी करने की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध। (आवृ प ७२) अदत्तस्य-स्वामिजीवतीर्थंकरगुरुभिरवितीर्णस्याननुज्ञातस्य सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य वस्तुनः आदानं-ग्रहणमदत्तादानं, चौर्यम्।
(स्था १.९३ वृप २४)
अद्धासमय
(अनु १४९)
(द्र अध्वाकाल)
अदत्तादान पापस्थान पापस्थान का तीसरा प्रकार। वह कर्म, जिसके उदय से जीव अदत्तादान में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, चोरी करै अयाण। तिण कर्म नै कहियै सही जी, अदत्तादान पापठाण ॥
(झीच २२.७) अदत्तादानप्रत्यय क्रिया क्रियास्थान का सातवां प्रकार। स्व और स्व से संबद्ध व्यक्तियों के लिए अदत्तादान की प्रवृत्ति। केइ पुरिसे आयहेउं वा णाइहेउं वा..."अदिण्णं आदियति, अण्णेण वि अदिण्णं आदियावेति, अदिण्णं आदियंतं पि अण्णं समणुजाणइ। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिजइ। सत्तमे किरियट्ठाणे अदिण्णादाणवत्तिए त्ति आहिए।
(सूत्र २.२.९)
अधर्मदान वह दान, जो हिंसा, असत्य आदि पापों में प्रवत्त व्यक्ति को दिया जाता है। हिंसानतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः। यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय॥
(स्था १०.९७ वृ प ४७१) अधर्मलेश्या अप्रशस्त भावधारा । कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं, जिनसे जीव प्रायः दुर्गति को प्राप्त होता है। किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई बहुसो॥
(उ ३४.५७) अधर्मास्तिकाय द्रव्य अथवा अस्तिकाय का एक प्रकार । स्थितितत्त्व, धर्मास्तिकाय का प्रतिपक्षी, स्थान (गति-निवत्ति) में वर्तमान जीवों
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और पुद्गलों की स्थिति में उदासीन भाव से अनन्य सहायक द्रव्य, जो द्रव्य की अपेक्षा से एक द्रव्य है, काल की अपेक्षा से शाश्वत है, भाव की अपेक्षा से अरूपी है, क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण है, असंख्येयप्रदेशी है।
स्थानगतानां जीवपुद्गलानां स्थितावुदासीनभावेनाऽनन्यसहायकं द्रव्यमधर्मास्तिकायः ॥ यथा पथिकानां छाया । (जैसिदी १.५ वृ) दव्वओ णं अधम्मत्थिकाए एगे दव्वे । खेत्तओ लोगप्पमाणत्ते । कालओ....सासए । भावओ अवण्णे अगंधे अरसे अफासे । गुणओ ठाणगुणे ... एवं अधम्मत्थिकाए वि...... (भग २.१२६, १३५)
(द्र धर्मास्तिकाय)
अधिकरण
दुर्गति की निमित्तभूत वस्तु - शरीर, इन्द्रिय, बाह्य उपकरण, शस्त्र आदि ।
अधिकरणं - दुर्गतिनिमित्तं वस्तु तच्च विवक्षया शरीरमिन्द्रियाणि च तथा बाह्य हलगन्त्र्यादिपरिग्रहः । (भग १६.८ वृ)
अधिकरणी वह जीव, जो अविरति की अपेक्षा अधिकरण से युक्त होता है ।
अविरतिं पडुच्च जीवे अधिकरणी ।
(भग १६.९ वृ)
अधोदिशाप्रमाणातिक्रम
दिग्व्रत का एक अतिचार । अधोदिशा में जाने के नियत प्रमाण का अनजान में अथवा किसी अन्य कारणवश अतिक्रमण करना ।
(द्र ऊर्ध्वदिशिप्रमाणातिक्रम)
अधोलोक
लोक का निम्न भाग, जो सात रज्जु से कुछ अधिक है। (देखें चित्र पृ ३४१ ) अधोभागस्थितत्वादधोलोकः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः ।
(स्था ३.१४२ वृ प १२१ )
अधोवधि
देशावधि, नियत क्षेत्र को प्रत्यक्ष जानने वाला अवधिज्ञानी ।
अधोऽवधिरात्मा - नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी ।
(द्र देशावधि) अधोव्यतिक्रम
(द्र अधोदिशाप्रमाणातिक्रम)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अध्यवतर
अहिगं तु तंदुलादी, छुब्भति अज्झोयरो उड .... ।
(स्था २.१९३ वृ प ५७)
(तसू ७.२५)
(द्र अध्यवपूरक)
अध्यवपूरक
उद्गम दोष का एक प्रकार। अपने लिए बनाए जा रहे भोजन साधुओं के निमित्त अधिक मिलाकर बनाया हुआ आहार । अध्यवपूरके तु पूर्वं स्तोकमेव तन्दुलादिर्गृह्यते, पश्चादधिकप्रक्षेपः । (पिनि ९३ वृ प ७२)
(द्र अध्यवसान)
(जीभा १२८४)
अध्यवसान
१. अन्तःकरण का परिणाम, भावात्मक चेतना । 'अध्यवसाने' इत्यन्तःकरणपरिणामे ।
(द्र अध्यवसाय)
२. आयुष्य के उपक्रम (अपमृत्यु) का एक हेतु। राग, स्नेह, भय आदि की तीव्रता ।
अध्यवसानम् - रागस्नेहमयात्मकोऽध्यवसायः ।
(उ १९.७ शावृ प ४५२)
अध्यवसाय
वह चेतना, जो कर्म - शरीर के साथ काम करती है। (भग १.३५६भा)
(जैसिदी ७.३३ वृ)
अध्यात्म
वह प्रवृत्ति, जो आत्मा को केन्द्र में रखकर की जाती है । अप्पाणमधिकरेऊण जं भवति तं अज्झप्पं ।
(द १०.१५ अचू पृ २४१ )
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अध्युपपन्न
अद्धाकाले-से णं समयट्टयाए आवलियट्टयाए जाव ऋद्धि, रस और साता-इन तीन गौरवों में अत्यन्त आसक्त उस्सप्पिणीट्ठयाए।
(भग ११.१२८) होने वाला।
अध्वा पल्योपम समृद्धिरससातागौरवेषु अध्युपपन्ना गृद्धाः।
असंख्य वर्षों का कालखण्ड। अध्वा पल्योपम के दो प्रकार (सूत्र १.२.५८ वृ प ७२)
हैं-व्यावहारिक और सूक्ष्म। अध्रुव अवग्रहमति
व्यावहारिक अध्वा पल्योपम-एक पल्य (कोठा) है जो एक व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। इन्द्रिय, उपयोग और योजन लंबा, एक योजन चौड़ा और एक योजन ऊँचा है। विषय-संबंध के होने पर भी कदाचित् विषय को बहु, उसकी परिधि कुछ अधिक तिगुनी (तीन योजन से कुछ बहुविध आदि पर्यायों के साथ ग्रहण करना और कदाचित् न अधिक) है। ऐसे पल्य को एक, दो, तीन दिन यावत् करना।
उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए बालानों से लूंस-ठूस कर सतीन्द्रिये सति चोपयोगे सति च विषयसंबंधे कदाचित् तं घनीभूत कर भरा जाता है। उस कोठे से सौ-सौ वर्ष बीत विषयं तथा परिच्छिनत्ति कदाचिन्नेत्येतदध्रुवमवगृहातीत्यु- जाने पर एक-एक बालाग्र निकाला जाता है। जितने समय पदिश्यते।
(तभा १.१६ वृ) में वह कोठा खाली हो जाता है, उतने काल को व्यावहारिक
अध्वा पल्योपम कहा जाता है। इसका कोई प्रयोजन नहीं है, अध्रुवबन्धिनी
केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है। बंध का कारण मिलने पर भी जिस कर्म-प्रकृति का बंध हो सूक्ष्म अध्वा पल्योपम उन बालानों के असंख्य खण्ड कर भी सकता है और नहीं भी, जैसे-सातवेदनीय, असातवेदनीय, उस कोठे को ठसाठस भरा जाता है तथा प्रत्येक सौ-सौ वर्षों गतिचतुष्क आदि।
से एक-एक खण्ड को निकाला जाता है। जितने समय में निजबंधहेतुसम्भवेऽपि भजनीयबंधा अधूवबन्धिन्यः।
वह कोठा खाली हो जाता है, उतने काल को सूक्ष्म अध्वा
(कप्र पृ २७) पल्योपम कहा जाता है। अधुवसत्ताक
अद्धापलिओवमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–सुहुमे य वावहारिए वह कर्म-प्रकृति, जिसकी सत्ता सब जीवों के सर्वदा नहीं
य॥ होती, जैसे--उच्चगोत्र, सम्यक्त्व आदि।
तत्थ णं जेसे वावहारिए, से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं कदाचिद् भवन्ति कदाचिन्न भवन्तीत्येवमनियता सत्ता यासां आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उर्दू उच्चत्तेणं, तं तिगुणं ता अध्रुवसत्ताकाः।
(कप्र पृ ३०) सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्ले
गाहाअध्रुवोदया
एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय,उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं। वह कर्म-प्रकृति, जो कभी उदय में आती है, कभी अनुदय
सम्मटे सन्निचिते, भरिए वालग्गकोडीणं॥ अवस्था में चली जाती है, कभी निमित्त मिलने पर फिर ते णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो उदय में आ जाती है, जैसे-निद्रा, निद्रानिद्रा आदि।। कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। व्यवच्छिन्नोदया अपि सत्यो याः प्रकृतयो हेतुसम्पत्त्या तओ णं वाससए-वाससए गते एगमेगं वालग्गं अवहाय भूयोऽप्युदयमायान्ति ता अध्रुवोदयाः। (कप्र पृ २९) । जावइएणं कालेणं से पल्लेखीणे नीरए निल्लेवे निदिए भवइ।
सुहमे अद्धापलिओवमे : से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं अध्वाकाल
आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उर्दू उच्चत्तेणं, तं तिगुणं समयक्षेत्र में होने वाली सूर्य की गति से पहचाना जाने वाला
सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्लेव्यावहारिक काल, जैसे-समय, आवलिका आदि।
गाहासूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो। एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढणं। अद्धाकालो भन्नइ समयक्खेत्तंमि समयाइ॥
सम्मट्टे सन्निचिते, भरिए वालग्गकोडीणं॥ (स्था ४.१३४ वृप १९९vate a personal use Only
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१२
तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ, ते णं वालग्गे दिट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा । ते णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा.... तओ णं वाससए - वाससए गते एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ । से तं सुहुमे अद्धापलिओवमे ।
( अनु ४२७, ४२९, ४३१)
अध्वा प्रत्याख्यान
प्रत्याख्यान का एक प्रकार । प्रहर आदि के कालमान के आधार पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान ।
अद्धायाः - कालस्य पौरुष्यादिकालमानमाश्रित्य । (स्था १०.१०१ वृ प ४७३ )
अध्वायु
कायस्थति, वह आयु जो पारम्परिक है, जिसके आधार पर एक 'जीव एक ही जाति में अनेक बार जन्म लेता रहता है। (स्था २.२६२ )
(द्र कायस्थिति)
अध्वा सागरोपम
अध्वा सागरोपम के दो प्रकार हैं- व्यावहारिक और सूक्ष्म । दस कोटाकोटि व्यावहारिक अध्वा पल्योपम का एक व्यावहारिक अध्वा सागरोपम होता है। इसका कोई प्रयोजन नहीं है, केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है। दस कोटाकोटि सूक्ष्म अध्वा पल्योपम का एक सूक्ष्म अध्वा सागरोपम होता है।
एएसिं पल्लाणं,
कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । तं वावहारियस्स अद्धासागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥
एएहिं वावहारियअद्धापलिओवम-सागरोवमेहिं नत्थि किंचिप्पओयणं, केवलं पण्णवणट्टं पण्णविज्जति । ....... एएसिं पल्ला,
कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सुहुमस्स अद्धासागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥
( अनु ४२९, ४३०, ४३१ )
अनक्षरश्रुत
श्रुतज्ञान का एक भेद | अभिप्रायपूर्वक किए गए उच्छ्वास
निःश्वास आदि से होने वाला ज्ञान । ऊससियं नीससियं, निच्छूढं खासियं च छीयं च । निस्सिंघियमणुसारं, अणक्खरं छेलियाईयं ॥
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अनगार
वह साधु, जिसके कोई अगार-घर नहीं है, जो गुप्तियों से गुप्त, सभी समितियों से समित, संयत और यतना करने वाला होता है।
1
अगारं गृहं तं जस्स नत्थि सो अणगारो ।
(नन्दी ६० )
गुत्ता गुत्तहिं सव्वाहिं, समिया समितीहिं संजया । जयमाणगा सुविहिता, एरिसगा होंति अणगारा ॥
(दअचू पृ ३७)
अनगारधर्म
पांच महाव्रत रूप मुनिधर्म । अणगारधम्मो ताव अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय अदत्तादाण मेहुणपरिग्गह- राई भोयणाओ वेरमणं । (औप ७६)
अनङ्गप्रविष्टश्रुत श्रुतज्ञान का एक भेद ।
(द्र अङ्गप्रविष्टश्रुत, अङ्गबाह्य)
(आवनि १०५)
अङ्ग स्वदारसंतोष व्रत का एक अतिचार अप्राकृतिक मैथुन, स्वाभाविक कामाङ्गों के अतिरिक्त शरीर के अन्य अङ्गों में रति का प्रयोग करना ।
हस्तकर्मादीच्छा | (तभा ७.२३ वृ) अङ्ग प्रजननं योनिश्च ततोऽन्यत्र क्रीडा अनङ्गक्रीडा । अनेकविधप्रजननविकारेण जघनादन्यत्र चाङ्गे रतिरित्यर्थः ।
( तवा ७.२८.३१) अनंगानि - मैथुनकर्मापेक्षया कुचकक्षोरुवदनादीनि तेषु क्रीडनमनंगक्रीडा । (उपा १.३५ वृ पृ १३ )
(नन्दी ५५)
अनध्यवसाय
अयथार्थ ज्ञान का एक प्रकार । इन्द्रिय-समूह के साथ विषय का सम्पर्क होने पर ध्यान न देना, 'कुछ है' मात्र इतना ज्ञान होना ।
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किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः। (प्रनत १.१३) विवक्षितप्रदेशापेक्षया अनन्तरप्रदेशेष्ववगाढा-अवस्थिता
अनन्तरावगाढाः। (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) अनन्त
(द्र परम्परावगाढ) गणनासंख्या का एक प्रकार । जिनका अन्त नहीं है, वे अनन्त कहलाते हैं। उत्कृष्ट असंख्येय-असंख्येय में एक का प्रक्षेप अनन्तराहारक करने पर जघन्य परीत-अनन्त होता है। अनन्त के तीन १. वह जीव, जिसने उत्पन्न होने के प्रथम समय में आहार प्रकार हैं-परीत, युक्त और अनन्त। इनमें से परीत-अनन्त लिया हो।
और युक्त-अनन्त के तीन-तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम, प्रथमसमयाहारका अनन्तराहारकाः । उत्कृष्ट तथा अनन्त-अनन्त के दो भेद हैं-जघन्य और मध्यम।
(स्था १०.१२३ वृ प ४८७) असंख्येय और अनन्त में यह अन्तर है कि एक-एक संख्या २. वह जीव, जो अनन्तर-जीव-प्रदेशों से स्पष्ट पुद्गलों के घटाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है का आहार करता है। और जो राशि समाप्त नहीं होती वह अनन्त है।
अनन्तरान्-अव्यवहितान्जीवप्रदेशैराक्रान्ततया स्पृष्टतया वा अविद्यमानोऽन्तो येषां ते अनन्तः। (ससि ५.९)
पुद्गलानाहारयन्तीत्यनन्तराहारकाः। किमसंखेज्जं णाम? जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे
(स्था १०.१२३ वृ प ४८७) णिट्टादि सो असंखेज्जो।जो पुणण समप्पइ सो रासी अणंतो।
(द्र परम्पराहारक) (ध पु ३ खं १ भा २ सू २६७)
अनन्तरोपपन्न (द्र संख्येय, असंख्येय)
वह जीव, जिसे उत्पन्न हुए मात्र एक समय हुआ है। अनन्तजीव
अनन्तरोपपन्नकाः येषामुत्पन्नानामेकोऽपि समयो नातिक्रान्तः। वह वनस्पति, जिसके एक शरीर में अनन्त जीव विद्यमान
(स्था १०.१२३ वृ प ४८७) हों।
(द्र परंपरोपपन्न) चक्कागं भन्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे।
अनन्तवियोजक पढवीसरिसभेदेण, अणंतजीवं वियाणाहि॥
१. वह जीव, जो अनन्त संसार के हेतुभूत अनन्तानुबन्धी गूढछिरागं पत्तं, सच्छीरं जंच होति णिच्छीरं।
क्रोध आदि का विलय कर देता है। जं पि य पणट्ठसंधिं, अणंतजीवं वियाणाहि॥
२. वह पुरुष, जो अनन्त संसार के अनुबंधी क्रोध आदि को पउमुप्पलिणीकंदे अंतरकंदे तहेव झिल्ली य।
उपशान्त अथवा क्षीण करता है। एते अणंतजीवा.....। (प्रज्ञा १. ४८.३८, ३९, ४२)
अनन्तः संसारस्तदनुबन्धिनोऽनन्ताः क्रोधादयस्ता वियोजयति सव्वोऽवि किसलओखल, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ। सो चेव विवडूंतो, होइ परित्तो अणंतो वा।
क्षपयत्युपशमयति वा अनन्तवियोजकः। (तभा ९.४७ वृ)
(बृसं ३०३) अनन्तवृत्तिताअनुप्रेक्षा अनन्तरपर्याप्त
शुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षा का एक प्रकार । संसार-परम्परा की वह जीव, जिसे पर्याप्त हुए एक समय हुआ हो।
अनन्तता का चिन्तन करना। न विद्यते पर्याप्तत्वेऽन्तरं येषां ते अनन्तरास्ते च ते पर्याप्त
अनन्ता-अत्यन्तं प्रभूता वृत्तिः-वर्तनं यस्यासावनन्तकाश्चेत्यनन्तरपर्याप्तकाः, प्रथमसमयपर्याप्तकाः।
वृत्तिः""""भवसन्तानस्येति गम्यते, तस्या अनुप्रेक्षा अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा।
(स्था ४.७२ वृ प १८१) (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) (द्र परम्परपर्याप्त)
अनन्तसंसारी
वह जीव, जिसका भव सीमित न हुआ हो। अनन्तरावगाढ
परीत्तसंसारिकाः संक्षिप्तभवा इतरे त्वितरे। विवक्षित क्षेत्र से अव्यवहित आकाशप्रदेशों में अवस्थित
(स्था २.१८८ वृ प५६) Jain जीव अथवा पदराल।
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असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार । वह भाषा, जिससे प्रतिनियत अर्थ का निर्धारण नहीं होता। अनेक कार्यों की अवस्थिति में किसी के पूछने पर किसी कार्य के विषय में निश्चित निर्देश न देने वाली भाषा, जैसे---जो तुम्हें अच्छा लगे वह काम करो। अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा बहुकार्येष्ववस्थितेषु कश्चित् कञ्चन पृच्छति-किमिदानीं करोमि? स प्राह-यत्प्रतिभासते तत्कुरु। (प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९)
अनर्थदण्ड
(स्था २.७६)
(द्र अनर्थदण्डप्रत्यय)
अनन्तानुबन्धी कषाय चारित्र मोहनीय कर्म की एक प्रकति। अनन्त संसार का अनुबंध करने वाला कषाय-चतुष्क (क्रोध-मान-माया- -लोभ), जिसके उदयकाल में सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता। अनन्तं संसारमनुबध्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः।
(प्रज्ञा १४.७ वृ प ४६८) सम्यक्त्वगुणविघातकृदनन्तानुबन्धी। (प्रज्ञावृ प २९१) पढमिल्लुयाण उदए नियमा संजोयणा कसायाणं। सम्महसणलंभं भवसिद्धीयावि न लहंति॥
(आवनि १०८) अनन्तानुबन्धी क्रोध यह पत्थर की रेखा के समान सुदीर्घ काल तक टिकने वाला होता है। पव्वयराइसमाणे।
(स्था ४.३५४) (द्र अनन्तानुबन्धी कषाय) अनन्तानुबन्धी मान यह पत्थर के स्तम्भ के समान अतिस्तब्ध होता है। सेलथंभसमाणे।
(स्था ४.२८३) (द्र अनन्तानुबन्धी कषाय) अनन्तानुबन्धी माया यह बांस की जड़ के समान वक्रतम होती है। वंसीमूलकेतणासमाणा।
(स्था ४.२८२) (द्र अनन्तानुबन्धी कषाय) अनन्तानुबन्धी लोभ यह कमिरेशम के रंग के समान रञ्जक होता है-अधिकतम आसक्ति वाला। किमिरागरत्तवत्थसमाणे।
(स्था ४.२८४) (द्र अनन्तानुबन्धी कषाय) अनपवर्तनीय आयुष्य वह आयुष्य, जो कर्मकृत कालमर्यादा से पहले समाप्त न हो, अकाल मृत्यु से मुक्त। नापवायुषोऽनपवायुषः..."न हि तेषामायषो बाह्यनिमित्तवशादपवर्तोऽस्ति।
(तवा २.५२.५) अनभिगृहीता
अनर्थदण्डप्रत्यय दण्डसमादान (क्रियास्थान) का दूसरा प्रकार । प्रयोजन के बिना प्रमादवश की जाने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति । अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइसे जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति, ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए''से हंता छेत्ता भत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता ओदवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति-अणट्ठादंडे।
(सूत्र २.२.४) अनर्थदण्डविरमण गृहस्थ धर्म का आठवां व्रत, अपध्यानाचरित आदि की वर्जना करना। चउव्विहं अणट्ठादंडं पच्चक्खाइ, तं जहाअवज्झाणाचरितं पमायाचरितं हिंसप्पयाणं पावकम्मोवदेसे।
(उपा १.३०)
अनर्पणा
(भिक्षु ४. ७) (द्र अनर्पित) अनर्पित अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का प्रतिपादन करते समय शेष सब धर्मों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा। प्रयोजनाभावात सतोऽप्यविवक्षा भवति इत्युपसर्जनीभूतमनर्पितमित्युच्यते।
(तवा ५. ३२.२)
अनवक
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वह मुनि, जिसका प्रव्रज्या-पर्याय तीन वर्ष हो चका है। यः प्रव्रज्यापर्यायेण त्रिवर्षोत्तीर्णः सोऽनवक उच्यते।
(व्यभा १५७८ ७)
अविद्यमाना आकारा-महत्तराकारादयो निच्छिन्नप्रयोजनत्वात् प्रतिपत्तुर्यस्मिस्तदनाकारम्।
(स्था १०.१०१ वृ प ४७२)
अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया अपेक्षा न रखकर (परिणाम की चिंता किए बिना) की जाने वाली प्रवृत्ति। अनवकांक्षा-स्वशरीराधनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकांक्षाप्रत्यया।
(स्था २.३२ वृ प ४०)
अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का नौवां प्रकार, जिसमें प्रायश्चित्तकर्ता को कुछ समय के लिए संघ से निष्कासित कर तपस्यापूर्वक पुनः दीक्षा दी जाती है। यस्मिन्नासेविते कञ्चन कालं व्रतेष्वनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चाच्चीर्णतपास्तद्दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्यः ।
(स्था १०.७३ वृ प ४६१)
अनागत प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान का एक प्रकार। पर्युषण आदि के लिए निर्धारित तप समय से पूर्व करना, जिससे उस समय स्वयं को आचार्य आदि की सेवा में लगा सके। अनागतकरणादनागतं-पर्युषणादावाचार्यादिवैयावत्त्यकरणान्तरायसद्भावादारत एव तत्तपःकरणम्।
(स्था १०.१०१ वृ प ४७२) अनागाढयोग जिस योगवहन में आहार आदि से संबंधित अत्यन्त गाढप्रबल नियंत्रण नहीं होता, जैसे-उत्तराध्ययन आदि सूत्रों के अध्ययनकाल में विकृति से संबंधित कोई कड़ा नियंत्रण नहीं होता है। (द्र आगाढयोग)
अनवस्थितकल्प
(प्रसावृ प १८६)
(द्र अस्थितकल्प)
अनशन बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार । अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-इस चतुर्विध आहार का परित्याग, जो सावधिक और निरवधिक दोनों प्रकार से किया जाता है। आहारपरिहारोऽनशनम्।
(जैसिदी ६.३०) (द्र इत्वरिक अनशन, यावत्कथिक अनशन)
अनाचार १. आचार के अतिक्रमण की दिशा में चौथा चरण। ज्ञान, दर्शन अथवा चारित्र के प्रतिकूल आचरण का पूर्णतः सेवन । तिविधे अणायारे पण्णत्ते, तं जहा–णाणअणायारे, दंसणअणायारे, चरित्तअणायारे। (स्था ३.४४३) (द्र अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार) २. मनि के लिए जो अकल्प्य. अग्राह्या. असेव्य. अभोग्य और अकरणीय है-अनाचीर्ण है। अणाचिण्णं अकप्पं।
(दअचू पृ ५९)
अनाकार उपयोग दर्शनोपयोग, सामान्यग्राही अवबोध, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक द्रव्य के उत्पाद-व्यय रूप पर्याय को गौण कर केवल ध्रौव्य धर्म को ग्रहण करने वाला अवबोध, दर्शन। उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकस्य द्रव्यस्य उत्पादव्ययात्मकं पर्याय गौणीकृत्य ध्रौव्यस्य ग्राहकं दर्शनमनाकार उपयोग इत्युच्यते।
(जैसिदी २.६७) अनाकार प्रत्याख्यान वह प्रत्याख्यान, जिसमें परिस्थिति आदि की कोई छूट न रखी गई हो।
अनादर सामायिक का एक अतिचार । प्रतिनियत वेला में सामायिक न करना अथवा अनुत्साहपूर्वक जैसे-तैसे करना। अनादरोऽनुत्साहः, प्रतिनियतायां वेलायामकरणं सामायिकस्य, यथाकथञ्चित् प्रवृत्तिरनादरः। (तभा ७.२८ वृ) अनादि-अपर्यवसाननित्यता वह नित्यता, जिसका आदि, अन्त नहीं होता, जैसे-लोक, अलोक की संरचना। अनाद्यपर्यवसाननित्यता सावधिनित्यता च, तत्राद्या लोकसन्निवेशवदनासादितपूर्वापरावधिविभागा सन्तत्यव्यवच्छेदेन
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स्वभावमजहती तिरोहितानेकपरिणतिप्रसवशक्तिगर्भा भवन- न आनुपूर्वी अनानुपूर्वी यथोक्तप्रकारद्वयातिरिक्तरूपा। मात्रकृतास्पदा प्रतीतैव। (तभा ५.४ वृ)
(अनु १४७ हावृ प ४१) अनादि पारिणामिक
(द्र पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी) वह पारिणामिक भाव, जिसकी आदि नहीं है, जैसे-धर्मा- अनानुपूर्वी अनशन स्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, अनशन का एक प्रकार। अर्थग्रहण आदि सब पदों का पुद्गलास्तिकाय, काल, लोक, अलोक, भव्यत्व, अभव्यत्व। अनुपालन किए बिना अनशन करना। अणाइपारिणामिए-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगा. (द्र आनुपूर्वी अनशन) सत्थिकाए जीवस्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए लोए
अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व अलोए भवसिद्धिया अभवसिद्धिया। (अनु २८८)
मिथ्यात्व का एक प्रकार । वह दृष्टिकोण, जिसके द्वारा असत् अनादि विस्रसाबन्ध
तत्त्व आग्रहपूर्वक स्वीकृत नहीं होता। (द्र विस्त्रसाबन्ध)
अनाभिग्रहिकं तु प्राकृतलोकानां सर्वे देवा वन्दनीया न अनादि श्रुत
निन्दनीयाः, एवं सर्वे गुरवः सर्वे धाः।
(योशा २.३ वृ पृ१६५) श्रुतज्ञान का एक भेद। द्वादशाङ्ग श्रुत, जो अव्युच्छित्ति नय
अनाभोग क्रिया की अपेक्षा अनादि है। अव्वुच्छित्तिनयट्ठयाए अणाइयं। (नन्दी ६८)
अप्रतिलेखित और अप्रमार्जित भूमि पर बैठना, उपकरण
रखना आदि। अनादेय नाम
अप्रमृष्टादृष्टभूमौ कायादिनिक्षेपोऽनाभोगक्रिया। अशुभनाम कर्म की एक प्रकृति,
(तवा ६.५.१५) १. जिसके उदय से जीव का वचन युक्तिसंगत होते हुए भी अनाभोगनिर्वर्तित क्रोध मान्य नहीं होता और उपकार करने पर भी वह जनता द्वारा । प्रकृति की विवशता से बिना प्रयोजन अथवा कषाय के सम्मान्य नहीं होता।
विपाक के गुण-दोष की विचारणा किए बिना होने वाला २. जिसके उदय से शरीर निष्प्रभ होता है।
आवेश। यदुदयवशादुपपन्नमपि ब्रुवाणो नोपादेयवचनो भवति
यदा त्वेवमेव तथाविधमुहूर्त्तवशाद् गुणदोषविचारणाशून्यः नाप्युपक्रियमाणोऽपि जनस्तस्याभ्युत्थानादि समाचरति।
परवशीभूय कोपं कुरुते तदा स कोपोऽनाभोगनिर्वर्तितः। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७५)
(प्रज्ञा १४.९ वृ प २९१) निष्प्रभशरीरकरणमनादेयनाम। (तवा ८.११.३७)
अनाभोग प्रतिषेवणा अनानुगामिक अवधिज्ञान
प्रतिषेवणा का एक प्रकार। विस्मतिवश किया जाने वाला वह अवधिज्ञान, जो ज्ञानी का अनुगमन नहीं करता, किन्तु ।
प्राणातिपात आदि का आसेवन । क्षेत्र विशेष से प्रतिबद्ध होता है।
प्रतिषेवणा-प्राणातिपाताद्यासेवनम्। न गच्छन्तमनुगच्छति तदवधिज्ञानमनानुगामिकम्।
अनाभोगो-विस्मृतिः। (स्था १०.६९ ७ प ४५९,४६०) (नन्दी ९ मवृ प ८१)
अनाभोगप्रत्यया क्रिया अनानुपूर्वी
क्रिया का एक प्रकार। अज्ञानवश होने वाली प्रवृत्ति। औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का एक प्रकार । यत्रतत्रानुपूर्वी- अनाभोगः-अज्ञानं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः सा तथा। अनुलोम क्रम और प्रतिलोम क्रम को छोड़कर कहीं से भी
(स्था २.३२ वृ प ४०) गणना प्रारम्भ करना।
अनाभोगबकुश
बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार।
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अनिःसृत अवग्रहमति
(तवा १.१६)
(द्र अनिश्रित अवग्रहमति)
अनित्य द्रव्य का पर्यायात्मक स्वरूप, जिसका परिणमन होता रहता है, उत्पाद-व्यय होता रहता है। परिणमनमनित्यम्।
(भिक्षु ६.५) अनित्य अनुप्रेक्षा प्रथम अनुप्रेक्षा। शरीर, व्यक्ति और पदार्थ का संयोग अनित्य है, ऐसा पुनः पुनः चिन्तन करना अथवा अभ्यास करना। बाह्याभ्यन्तराणि शरीरशय्याऽऽसनवस्त्रादीनि द्रव्याणि सर्वसंयोगाश्चानित्या इत्यनुचिन्तयेत्। (तभा ९.७)
वह मुनि, जो चिन्तन किए बिना शरीर और उपकरण की विभूषा करता है। शरीरोपकरणभूषयो: "सहसाकारी अनाभोगबकुशः।
(स्था ४.१८६ वृ प३२०) अनाभोग मिथ्यात्व अमनस्क जीव अथवा विचारशून्य व्यक्ति के अज्ञान के कारण होने वाला मिथ्या दृष्टिकोण। अनाभोगिकं विचारशून्यस्यैकेन्द्रियादेर्वा विशेषविज्ञानविकलस्य भवति।
(योशा २. ३ वृ पृ १६५) अनायुक्तप्रमार्जनता क्रिया अनाभोगप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। असावधानी से पात्र आदि के प्रमार्जन की प्रवृत्ति। अनायुक्तस्यैव पात्रादिविषया प्रमार्जनता अनायुक्तप्रमार्जनता।
(स्था २.३३ वृ प ४०) अनायुक्तादानता क्रिया अनाभोगप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । असावधानी से वस्त्र आदि लेने की प्रवृत्ति। अनायुक्त:-अनाभोगवाननुपयुक्त इत्यर्थः तस्याऽऽदानतावस्त्रादिविषये ग्रहणता अनायुक्तादानता।
(स्था २.३३ वृ प ४०) अनाशातना विनय दर्शनविनय का एक प्रकार । अर्हत् आदि की भक्ति, बहुमान और गुणोत्कीर्तन करना। अणासायणाविणतो."अरहंताणं भत्ती अरहंताणं बहुमाणो अरहंताणं वण्णसंजलणता।
(दअचू पृ १५)
अनिदा वेदना मानसज्ञानशून्य (अथवा विवेकविकल) अवस्था में अनुभव की जाने वाली वेदना। दुविहा वेदणा पण्णत्ता, तं जहा--णिदा य अणिदा य॥ अनिदा चित्तविकला सम्यगविवेकविकला वा।
(प्रज्ञा ३५.१६ वृ प ५५७)
अनिदान जो ऋद्धि आदि के निमित्त तप, संयम नहीं करता। जो किए हुए तप के बदले में ऐहिक फल की कामना नहीं करता। माणुसरिद्धिनिमित्तं तवसंजमं न कुव्वइ, से अनियाणे।
(द १०.१३ जिचू पृ ३४५) अनिदानो भाविफलाशंसारहितः। (दहावृ प २६७) (द्र निदान)
अनाश्रव संवर, नए कर्म के आश्रव का निरोध। अनाश्रवो-नवकर्मानुपादानम्। (भग २.१०० वृ)
अनाहारक १. ओज आदि आहार-पुद्गलों का भी आहरण (ग्रहण) न । करने वाला। अनाहारका ओजाद्याहाराणामन्यतमेनापि नाहारयन्ति।
(श्राप्रवृ प १६८) २. तैजस और कार्मण वर्गणा के अतिरिक्त अन्य पुद्गलों का ग्रहण न करने वाला जीव।
अनिन्द्रिय १. मन, अन्तःकरण, जो मतिज्ञान में निमित्त बनता है। मनोऽन्तःकरणमनिन्द्रियमित्युच्यते। (तवा १.१४) २. ओघज्ञान, चेतना के अनावरण की स्वतंत्र क्रिया, जो इन्द्रिय और मन से पृथक् है।। अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्तिरोघज्ञानं च। (तभा १.१४) (द्र ओघसंज्ञा) ३. अशरीरी-सिद्ध, जिसके इन्द्रियां नहीं होती।
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न सन्ति इन्द्रियाणि येषां तेऽनिन्द्रियाः। के ते? अशरीराः अनिवृत्तियुक्तो बादरकषायः अनिवृत्तिबादरः । सिद्धाः। (धव पु १ पृ २४८)
(जैसिदी ७.११)
अनिवृत्तिबादरः स च कषायाष्टकक्षपणारम्भान्नपुंसकवेदोअनिमेषप्रेक्षा
पशमनारम्भाच्चारभ्य बादरलोभखण्डक्षपणोपशमने यावद आंखों को तिर्यक् भित्ति, नासग्र आदि किसी एक बिन्दु पर
भवति।
(सम १४.५ वृ प २६) स्थापित कर उसे अनिमेष दृष्टि से देखना। इससे निर्विकल्प समाधि सिद्ध होती है।
अनिश्चित अवग्रहमति अद पोरिसिं तिरियं भित्तिं, चक्खुमासज्ज अंतसो झाड़। अन्तर्लक्ष्यात्मकेन अनिमेषप्रेक्षाध्यानेन निर्विकल्पसमाधिः
(द्र संदिग्ध अवग्रहमति) सिद्धयति।
(आ ९.१.५ भा) अनिश्रित अवग्रहमति अनिर्वृतमूलक
व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार।
१. किसी पूर्व गृहीत हेतु के बिना विषय का ग्रहण करना, अनाचार का एक प्रकार । सचित्त मूला लेना व भोगना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है।
जैसे-फूल के स्निग्ध, मृदु आदि स्पर्श का पहली बार
अनुभव करना। अनिर्वृतम्-अपरिणतमनाचरितं....' मूलं च' सट्टामूलादि, सचित्तमनाचरितम्।
२. जो न पुस्तकों में लिखा गया है और जो न कहा गया है. (द ३.७ हावृ प ११८)
उसका अवग्रहण करना। अनिर्हारि
निश्रितो लिङ्गप्रतिमोऽभिधीयते, यथा यूथिकाकुसुमानाउपाश्रय से बाहर गिरिकन्दरा आदि एकान्त स्थानों में किया मत्यन्तशीतमृदुस्निग्धादिरूपः प्राक् स्पर्शोऽनुभूतस्तेनानुजाने वाला अनशन।
मानेन लिङ्गेन तं विषयं न यदा परिच्छिन्दत् तज्ज्ञानं प्रवर्तते अनिर्झरिमं तु योऽटव्यां म्रियते इति। (भग २.४९ वृ) तदा अनिश्रितं अलिङ्गमवगृह्णातीत्युच्यते। (द्र निर्हारि)
(तभा १.१६ वृ)
...."अणिस्सितं जन्न पोत्थए लिहियं। अनिवृत्तिकरण
अणभासियं च गेण्हति॥ (व्यभा ४१०८) सम्यक्त्व-प्राप्ति की प्रक्रिया का एक अङ्ग। वह अध्यवसाय, जो सम्यक्दर्शन की प्राप्ति तक विद्यमान रहता है।
अनिश्रित उपधान निवर्तनशीलं निवर्ति, ननिवर्ति-अनिवर्ति-आसम्यग्दर्शन- योगसंग्रह का एक प्रकार। दूसरे की सहायता लिए बिना लाभाद्न निवर्तते। (विभा १२०२ वृ पृ४५८)
तप:कर्म करना।
अनिश्रितंच-तदन्यनिरपेक्षमुपधानंच-तपोऽनिश्रितोपधानं अनिवृत्तिबादर जीवस्थान
परसाहाय्यानपेक्षं तपो विधेयम्। (सम ३२.१.१ ७ प ५५) जीवस्थान/गुणस्थान का नौवां प्रकार।
अनिसृष्ट १. वह जीवस्थान, जिसमें अनिवृत्ति-समसमयवर्ती जीवों
उद्गम दोष का एक प्रकार। किसी वस्तु के एक से अधिक की परिणामविशुद्धि सदृश ही होती है।
मालिक होने पर सबकी अनुमति के बिना वह वस्तु लेना। २. जो अनिवृत्ति और बादर-स्थूल कषाय वाला है, उसकी
यद गोष्ठीभक्तादि सर्वैरदत्तमननुमतं वा एकः कश्चित् आत्मविशुद्धि।
साधुभ्यो ददाति तदनिसृष्टम्। (योशा १.३८ वृ पृ १३४) अनिवृत्तिः-समसमयवर्तिजीवानां परिणामविशुद्धः सद्रशता।
(जैसिदी ७.११ वृ) अनिह्नवन अनिवृत्तिबादरजीवस्थाने भिन्नसमयवर्त्तिजीवानां परिणाम- ज्ञानाचार का एक प्रकार । अपने वाचनाचार्य के नाम और श्रुत -विशद्धिर्विसदशी भवति, किन्तु समसमयवर्तिजीवानां का अपलाप न करना। सदृश्येव।
(पंखं १, पृ १८४)
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ग्रन्थधारणं शिष्याध्यापनं च कुर्विति अनुज्ञा।
(अनु ३ हावृ पृ २) (द्र उद्देश)
यतोऽनिह्नवेनैव पाठादि सूत्रादेर्विधेयं न पुनर्मानादिवशतः आत्मनो लाघवाद्याशङ्कया श्रुतगुरूणां श्रुतस्य वाऽपलापेनेति।
(प्रसा २६७ वृ प ६४) अनीकाधिपति देव-सेना का अधिपति। अनीकाधिपतयो दण्डनायक स्थानीयाः दण्डनायको विक्षेपाधिपतिः सेनापतिः।
(तभा ४.४७)
अनुकम्पा सम्यक्त्व का एक लक्षण। अनुग्रह की बुद्धि से चित्त की आर्द्रता होने पर पर-पीड़ा को अपनी पीड़ा मानने से होने वाला अनुकम्पन। अनुग्रहबुद्धयाऽऽर्टीकृतचेतसः परपीडामात्मसंस्थामिव कुर्वतोऽनुकम्पनमनुकम्पा। (तभा ६.१३ वृ) अनुकम्पा दान वह दान, जो करुणापूर्वक दीन, अनाथ को दिया जाता है। कृपया दानं दीनानाथविषयमनुकम्पादानम्।
(स्था १०.९७ वृ प ४७०)
अनुत्कर्ष जाति आदि मदस्थानों के आधार पर जो अहंकार नहीं करता। अणक्कसो णाम न जात्यादिभिर्मदस्थानैरुत्कर्षं गच्छति।
(सूत्र १.१.७७ चू पृ ४५) अनुत्तर देव वैमानिक देवों का एक प्रकार। अनुत्तर विमानवासी देव, कल्पातीत देव, जो स्थिति, प्रभाव, द्युति में अन्य देवों की अपेक्षा श्रेष्ठ होते हैं । इनके पांच प्रकार हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वाथसिद्धक। .......विजया वेजयंता य जयंता अपराजिया॥ सव्वट्ठसिद्धगा चेव पंचहाणुत्तरा सुरा। इइ वेमाणिया देवा...... ॥ न विद्यन्ते उत्तरा-प्रधाना स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्यादिभिरेभ्योऽन्ये देवा इत्यनुत्तराः।
(उ ३६.२१५,२१६ शावृ प ७०२) अनुत्तर विमान वैमानिक देवों के वे पांच विमान (आवास-स्थल)-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध, जो स्वर्गों में सबसे ऊर्ध्ववर्ती होते हैं। (देखें चित्र पृ ३४६) अनुत्तराः पञ्चेत्यादि। विमानविशेषाः पञ्च सर्वोपर्यनुत्तराः अविद्यमानमुत्तरमन्यद् विमानादि येषां तेऽनुत्तराः देवनामान एव ते विमानविशेषाः।
(तभा ४.२० वृ) अनुत्तरोपपातिकदशा द्वादशांग श्रुत का नौवां अंग। इसमें अनुत्तर विमान में उपपन्न दस साधुओं के जीवन-चरित्र का वर्णन है। अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं."आघविजंति।
(समप्र ९७)
अनुक्त अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। शब्दोच्चारण के बिना ही विषय का अवग्रहण करना, जैसे-वीणा का स्पर्श करते हुए व्यक्ति को देखकर बता देना कि आप इस राग का वादन करेंगे। स्वरसंचरणात् प्राक् तन्त्रीद्रव्यातोद्यामर्शनेनैव अवादितम् अनुक्तमेव शब्दमभिप्रायेणावगृह्य आचष्टे -'भवानिमंशब्दं वादयिष्यति' इति।
(तवा १.१६.१६)
अनुगम व्याख्या (अनुयोग) का तीसरा द्वार । सूत्र का अनुगमन करते हुए वस्तु-द्रव्य की अस्तित्व, नास्तित्व, द्रव्यमान, क्षेत्र, स्पर्शना, काल आदि अनेक पहलुओं से व्याख्या करना। अनुगमनमनुगमः अनुगम्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वाऽनुगमः सूत्रस्यानुकूल: परिच्छेदः। (अनु ७५ हावृ पृ २७)
अनुज्ञा प्राचीन अध्ययनपद्धति का तृतीय चरण। ग्रन्थधारण और अध्यापन की गुरु से आज्ञा प्राप्त करना।
अनुत्तरोपपातिकदशाधर वह मुनि, जो अनुत्तरोपपातिक के सूत्र-पाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगडया अणत्तरोववाडयदसाधरा। (औप ४५)
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अनुदयबन्धोत्कृष्टा
कारोपणा।
(सम २८.१.२६ वृ प ४८) वह कर्म-प्रकृति, जिसके विपाकोदय के प्रवर्त्तमान न होने (द्र आरोपणा प्रायश्चित्त) पर भी अपने बंधकाल से ही उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है,
अनुधर्मचारी जैसे-मनुष्यायु, तिर्यञ्चायु।
गुरु ने जैसा आचरण किया, वैसा आचरण करने वाला यासां तु विपाकोदयाभावे बन्धादुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मा
शिष्य। वाप्तिस्ता: अनुदयबन्धोत्कृष्टाः। (कप्र पृ ४५)
अणुधम्मचारिणो""तेन चीर्णमनुचरन्ति यथोद्दिष्टम्। अनुदयवती
(सूत्र १.२.४७ चू पृ ६७) वह कर्म-प्रकृति, जिसके दलिक चरम समय में समानजातीय अनुपदेश आहिण्डक प्रकृतियों में संक्रान्त होकर भोगे जाते हैं, अपनी प्रकृति के वह मुनि, जो कुतूहलवश देश-दर्शन के लिए यात्रा करता है। उदय रूप में नहीं भोगे जाते, जैसे-सातवेदनीय, असातवेदनीय ये तु कौतुकेन देशदर्शनं कुर्वन्ति तेऽनुपदेशाहिण्डकाः। आदि।
(बृभा ५८२५ वृ) यासां प्रकतीनां दलिकं चरमसमयेऽन्यासु प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमय्यान्यप्रकृतिव्यपदेशेनानुभवेत्, न स्वोदयेन, अनुपयुक्त ता: अनुदयवतीसंज्ञाः।
(कप्र पृ ४५)
१. जो जानने के लिए चेतना का व्यापार नहीं कर रहा है।
२. वह व्यक्ति, जो करणीय कार्य में दत्तचित्त नहीं है। अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा
तत्थ णं जेते अणुवउत्ता ते णं ण याणंति ण पासंति वह कर्म-प्रकृति, जिसकी स्थिति बंधकाल में अल्पकालिक
आहारेति।
(प्रज्ञा १५. ४८) होती है किन्तु अनुदयकाल में संक्रमण के द्वारा अन्य दलिकों का प्रक्षेप होने पर उत्कृष्ट बन जाती है, जैसे--मनुष्यानुपूर्वी,
अनुपरतकायक्रिया
कायिकी क्रिया का एक प्रकार। विरतिरहित व्यक्ति की तीर्थंकर नाम आदि। यासां प्रकृतीनामनुदये संक्रमत उत्कृष्टस्थितिलाभस्ताः
कायिकप्रवृत्ति।
अनुपरतस्य-अविरतस्य सावधात् मिथ्याद्रष्टे: सम्यग्दृष्टे अनुदयसंक्रमोत्कृष्टाः।
(कप्र पृ ४४)
कायक्रिया-उत्क्षेपादिलक्षणा कर्मबन्धनिबन्धनमनुपरतअनुदिशा
कायक्रिया।
(स्था २.६ वृ प ३८) आग्नेय आदि चार विदिशाएं, जो पूर्व आदि चार दिशाओं के (द्र दुष्प्रयुक्तकायक्रिया) मध्य में होती हैं।
अनुपशान्त अणुदिसा अग्गेयादी। (सूत्र २.१.१० चू पृ ३१३)
उदयावस्था को प्राप्त कषाय। अनुद्घातिक
अनुपशान्त:-उदयावस्थः। (प्रज्ञा १४.९ वृप २९१) तपःप्रायश्चित्त का एक प्रकार । गुरु प्रायश्चित्त, जिसका वहन अनुपारिहारिक निरन्तर किया जाए।
परिहारविशुद्धि चारित्र की साधना में संलग्न मुनियों की अणग्यातियं णाम जं निरंतरं वहति गुरुमित्यर्थः ।
सेवा करने वाले मुनि। ये गायों के पीछे ग्वाले की भांति
(निचू ३ पृ ६२) पारिहारिक का अनुवर्तन करते हैं। अनुद्घातिक आरोपणा
चत्वारो वैयावृत्त्यकरा...। (प्रसावृ प ६०७) आरोपणा प्रायश्चित्त का एक प्रकार । जिस प्रायश्चित्त में भाग अणुपरिहारिए गोवालए व णिच्च उज्जुत्तमाउत्ते। नहीं किया जाता, वह अनुद्घातिक है।
(बृभा ६४७०) सार्द्धदिनद्वयाद्यनुरातनेन गुरूणामारोपणा अनुद्घाति- अनुप्रेक्षा
स्वाध्याय का एक प्रकार।
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अनुभावकर्म वह कर्म, जिसके यथाबद्ध रस का वेदन होता है। यस्य त्वनुभावो यथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेद्यं कर्मानुभावकर्म।
(स्था २.२६५ वृप ६३) (द्र प्रदेशकर्म)
१. सूत्र और अर्थ का मानसिक परावर्तन अनुचिन्तन करना, वचन का प्रयोग नहीं करना। अणप्पेहा नाम जो मणसा परिअडेड, णो वायाए।
(दहावृ प १६) सुत्तऽत्थाणं मणसाऽणुचिंतणं। (दअचू पृ १६) २. जैसे तप्त लोहपिण्ड अग्निमय हो जाता है वैसे ही ध्येय के प्रति चित्त का समर्पण कर अधिगत या ज्ञात अर्थ का तन्मयता के साथ मन से अभ्यास करना।। अधिगतपदार्थप्रक्रियस्य तप्तायस्पिण्डवदर्पितचेतसो मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा।
(तवा ९. २५) ३. मन की स्थिरता के लिए अनित्य, अशरण आदि द्वादश अर्थों (विषयों) का अनुप्रेक्षण या अनुचिन्तन करना। मनःस्थैर्याय अनित्याद्यानुप्रेक्षणं अनुप्रेक्षा। अनुप्रेक्षणं-अर्थविमर्शनं अनुप्रेक्षा। (जैसिदी ६.१९ वृ) अनुबन्ध एक जीव का विवक्षित पर्याय में अविच्छिन्न रूप में होने वाला अवस्थान । यथा-उत्पल जीन का उत्पल के रूप में पुनर्जन्म। अणुबंधो त्ति विवक्षितपर्यायेण अव्यविच्छिन्नेनावस्थानम्।
(भग २४.२९ वृ) अनुभव संज्ञा वह बोध, जो संवेदन युक्त होता है। अनुभवसंज्ञा संवेदनात्मिका भवति। (आभा पृ २३)
अनुभावनामनिधत्तायु आयुबंध का एक प्रकार । नाम कर्म के तीव्र विपाक के साथ होने वाला आयु का निषेचन। यद्यस्मिन् भवे तीव्रविपाकं नामकर्मानुभूयते तथा नारकायुषि अशुभवर्णगन्धरसस्पर्शोपघातानादेयदःस्वरायश:कीर्त्यादिनामानि तदनुभावनाम तेन सह निधत्तमायुरनुभावनामनिधत्तायुः।
(प्रज्ञा ६.११८ वृ प २१८) अनुभाव बन्ध बंध का एक प्रकार। अनुभाग बंध, कर्मों की फल देने की शक्ति का निर्माण। अनुभावो-विपाकः तीव्रादिभेदो रसः।
(स्था ४.२९० वृ प २०९) अनुमन्य आलोचना आलोचना का एक दोष । गुरु उग्र दण्ड देने वाला है या मृदु दण्ड देने वाला, इसका विवेचन कर मद दण्ड देने वाले से
आलोचना करना। 'अणुमाणइत्ता' अनुमानं कृत्वा, किमयं मृदुदण्ड उतोग्रदण्ड इति ज्ञात्वेत्यर्थः । अयमभिप्रायोऽस्य-यद्ययं मृदुदण्डस्ततो दास्याम्यालोचनामन्यथा नेति। (स्था १०.७० व प ४६०)
अनुमान परोक्ष प्रमाण का एक प्रकार । साधन के द्वारा साध्य का ज्ञान। साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम्। (प्रमी १.२.७)
अनुभाग बन्ध बंध का एक प्रकार । कर्मों का विपाक, आत्मा के साथ तीव्र अथवा मंद परिणामों से बंधने वाले कर्म का तीव्र अथवा मंद अनुभाव, रस। विपाकोऽनुभागः। रसोऽनुभागोऽनुभावः फलम्-एते एकार्थाः।
(जैसिदी ४.१० वृ) (द्र अनुभाव बन्ध)
अनुयोग
१. दृष्टिवाद के पांच विभागों में से एक विभाग। जिसमें तीर्थंकर आदि के जीवन-चरित्र का प्रतिपादन है, जैसेमूलप्रथमानुयोग, गंडिकानुयोग। अणुओगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-मूलपढमाणुओगे गंडियाणुओगे य॥
(नन्दी ११९) (द्र दृष्टिवाद) २. प्राचीन अध्ययनपद्धति का चतुर्थ चरण। वह प्रतिपादन
अनुभाव शाप देने और अनुग्रह करने का सामर्थ्य । अणुभावो णाम शापानुग्रहसामर्थ्यम्। (उचू पृ २०८) ।
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पद्धति, जिसके द्वारा अध्ययन के प्रतिपाद्य की व्याख्या की जाती है। अध्ययनार्थकथनविधिरनुयोगः। (अनु ७५ हात पृ २६) (द्र उद्देश)
वस्त्रों को एक साथ झटकना। 'अणेगरूवधुणे'त्ति अनेकरूपा चासौ संख्यात्रयातिक्रमणतो युगपदनेकवस्त्रग्रहणतो वा धूनना च प्रकम्पनात्मिका अनेकरूपधूनना।
(उ २६.२७ शावृ प ५४२) अनेकसिद्ध वे सिद्ध, जो एक समय में एक साथ एक से अधिक, उत्कृष्ट एक सौ आठ मुक्त होते हैं। उक्कोसोगाहणाए य सिझंते जुगवं दुवे। चत्तारि जहन्नाए जवमज्झत्तरं सयं॥ (उ ३६.५३) अणेगसिद्ध त्ति एकम्मि समए अणेगे सिद्धा।
(नन्दी ३१ चू पृ २७)
अनुयोगद्वार १. उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें पूर्व के अध्ययन की पद्धति का निर्देश है।
(नन्दी ७७) २. वह व्याख्यापद्धति जिसके चार द्वार हैं-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय। .....चत्तारि अणुओगदारा भवंति, तं जहा-उवक्कमे, निक्खेवे, अणुगमे, नए।
(अनु ७५) अनुवीचिभाषण सत्य महाव्रत की एक भावना । समीक्षापूर्वक बोलना, बोलने का अवसर हो, तब बोलना। अनुवीचीति देशीवचनमालोचनार्थे वर्तते। भाषणं वचनस्य प्रवर्तनम्। अतोऽयमर्थः-समीक्ष्यालोच्य वचनं प्रवर्तितव्यम्।
(तभा ७.३ वृ) समिक्खितं संजतेण कालम्मि य वत्तव्वं । एवं अणुवीइ समितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा। (प्रश्न ७.१७)
अनुवीचिसमितियोग
(प्रश्न ७.१७) (द्र अनुवीचिभाषण) अनुशिष्टि यथार्थ का बोध कराने के लिए दी जाने वाली प्रज्ञापना। अनुशिष्टि म सद्भावकथनपुरस्सरं प्रज्ञापना।
(बृभा २८०४ वृ) अनुश्रेणि वह आकाशश्रेणि, जो पूर्व आदि दिशा के अभिमुख होती
अनेकान्त उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य में होने वाला भेदाभेदात्मक दृष्टिकोण। एए पुण संगहओ पाडिक्कमलक्खणं वेण्हं पि। तम्हा मिच्छद्दिट्टी पत्तेयं दो वि मूलणया। ण य तइओ अत्थि णओ ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं। जेण दुवे एगंता विभज्जमाणा अणेगंतो॥
(सप्र १. १३, १४) अनेवम्भूतवेदना उदीरणा आदि के द्वारा कर्म के वेदन में परिवर्तन करना । इस प्रक्रिया में जैसे कर्म किया, वैसे ही उसका वेदन नहीं होता। 'अणेवंभूयं पि'त्ति यथा बद्धकर्म नैवंभूता अनेवंभूता अतस्तां श्रूयन्ते ह्यागमे कर्मणः स्थितिघातरसघातादय इति।
(भग ५.११७ वृ) अनैकान्तिक हेत्वाभास हेत्वाभास का एक प्रकार। वह हेतु, जो साध्य के अतिरिक्त दूसरे साध्य में भी घटित होता है, जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रमेय है। अन्यथाऽप्युपपद्यमानोऽनैकान्तिकः। यथा-अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्। (भिक्षु ३.१९) अनौपनिधिकी (द्रव्यानुपूर्वी) द्रव्यानुपूर्वी का एक प्रकार। नय के आधार पर द्रव्य के क्रम का विस्तार से बोध कराना।
है।
'अणुसेढि' त्ति अनुकूला-पूर्वादिदिगभिमुखा श्रेणियंत्र । तदनुश्रेणिः
(भग २५.९३ वृ प ८६८) अनेकरूपधूनना प्रतिलेखना का एक दोष। प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को अनेक बार-तीन बार से अधिक झटकना अथवा अनेक
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याऽसावनौपनिधिकी सा नयवक्तव्यताश्रयणात्।
(अनु १११ हावृ पृ ३१) (द्र औपनिधिकी)
अन्तगत अवधिज्ञान आनुगामिक अवधिज्ञान का एक प्रकार । एक दिशा में विद्यमान विषय-वस्तु को जानने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान। सव्वातप्पदेसविसुद्धेसु वि ओरालियसरीरेगतेण एगदिसिपासणगतं ति अंतगतं भण्णति। (नन्दी १० चू पृ१६)
अन्तःशल्यमरण मरण का एक प्रकार। आन्तरिक शल्य (अपराध) की आलोचना किये बिना होने वाला मरण। शल्यमिव शल्यमपराधपदं यस्य सोऽन्तःशल्यो लज्जाऽभिमानादिभिरनालोचितातीचारस्तस्य मरणं अन्तःशल्यमरणम्।
(सम १७.९ वृ प३२) अन्तकरभूमि वह भूमि-काल, जिसमें कर्मों का अंत हो, जैसे-पुरुषान्तकरभूमि (युगान्तकरभूमि) और पर्यायान्तकरभूमि। अंतकरभूमि त्ति अन्तः कर्मणां भूमिः-कालो।सो दुविधोपुरिसंतकरकालो परियायतकरकालो य।
(दशा ८ परि सू १०५ चू)
अन्तरकरण मिथ्यात्व-दलिकों के प्रदेश-वेदन का अभाव–पूर्ण उपशम। अन्तरकरण के पहले क्षण में अन्तर्मुहूर्त स्थितिवाला औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। तद्वेद्याभावश्चान्तरकरणम्।तस्य प्रथमे क्षणे आन्तौहूर्त्तिकमौपशमिकसम्यक्त्वं भवति। (जैसिदी ५.८ वृ) (द्र अनिवृत्तिकरण)
(भग ८.१११ वृ)
अन्तर गति (द्र अन्तराल गति)
अन्तकृतदशा द्वादशांग का आठवां अंग, जिसमें दस चरमशरीरी साधओं के जीवन का वर्णन है। अंतगडदसासुणं अंतगडाणं"अंतगड़ो मुणिवरो तमरयोधविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता।" (समप्र ९६)
अन्तरद्वीप लवणसमुद्र के मध्य में विद्यमान द्वीप। अन्तरे----लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपाः।
(प्रज्ञा २.२९ वृ प ५०)
अन्तकृतदशाधर वह मुनि, जो अन्तकृतदशा के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया अंतगडदसाधरा।
(औप ४५)
अन्तकृतभूमि
(दशा ८ परि सू १०५)
अन्तरात्मा १. वह जीव, जो भेदविज्ञान-शरीर और आत्मा की भिन्नता की अनुभूति करता है। जे जिणवयणे कुसला, भेयं जाणंति जीवदेहाणं। णिज्जियदुदुमया अंतरप्या य ते.......॥ (काअ १९४) २. वह जीव, जो चौथे से बारहवें गणस्थान तक की अवस्था में विद्यमान है। अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः।
(बृद्रसंवृ पृ ३८) ३. जीव का एक पर्यायवाची नाम । वह आत्मा, जो मध्यरूप (शरीर में स्थित) है, शरीररूप नहीं है। 'अंतरप्पा'......"अन्तः-मध्यरूप आत्मा, न शरीररूप इत्यन्तरात्मेति।
(भग २०.१७ वृ) ४. जो आत्मानन्द में लीन है। (द्र बहिरात्मा)
(द्र अन्तकरभूमि)
मा
अन्तक्रिया जन्म-मरण की परम्परा का अन्तकरण। सब क्रियाओं-कर्मों से मुक्त अवस्था। भवस्यान्तकरणम्।
(स्थावृ प १७०) कर्मान्तकरणं मोक्षः। (प्रज्ञा २०.१ प ३९७)
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अन्तराय कर्म वह कर्म, जिसके द्वारा वर्तमान में प्राप्त वस्तु का विनाश होता है और भविष्य में होने वाले लाभ के मार्ग का अवरोध होता
अंतराइए कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पडुप्पण्णविणासिए चेव पिहति य आगामिपहं चेव। (स्था २.४३१) अन्तरालगति एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने के समय होने वाली गति
और मुक्त आत्माओं की लोकान्त तक होने वाली एक समय वाली गति। अन्तरालगतिर्द्विविधा-ऋजुर्विग्रहा च। एकसामयिकी ऋजुः चतुः समयपर्यन्ता च विग्रहा। (जैसिदी ७.२८ वृ) (द्र विग्रहगति)
अन्तरिक्षनिमित्त महानिमित्त का एक प्रकार। सूर्य, चन्द्र आदि की गति के आधार पर अतीत-अनागत के ज्ञान का प्रतिपादक शास्त्र । रविशशिग्रहनक्षत्रभगणोदयास्तमयादिभिरतीतानागतफलप्रविभागप्रदर्शनमन्तरिक्षम्।
(तवा ३.३६)
अन्नपुण्य पुण्य का एक प्रकार। पात्र (संयमी) को अन्न देने से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध। पात्रायान्नदानाद् यस्तीर्थकरनामादिपुण्यप्रकृतिबन्धस्तदन्नपुण्यम् एवं सर्वत्रापि। (स्था ९. २५ वृ प ४२८) अन्यत्व अनुप्रेक्षा पांचवीं अनुप्रेक्षा। भेदविज्ञान-शरीर से आत्मा की भिन्नता का चिन्तन करना। शरीरव्यतिरेकेणात्मानमनुचिन्तयेत्। अन्यच्च शरीरान्नित्योऽहमिति श्रेयसे घटत इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा। (तभा ९.७) अन्यथानुपपत्ति साध्य के अभाव में साधन का अभाव होना, जैसे अग्नि के अभाव में धूम का अभाव। असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः। असत्यनुपपत्ते:-असति कृशानुमत्त्वे धूमवत्त्वस्यानुपपत्तेः।
(प्रनत ३. ३०, ३१) अन्यलिंगसिद्ध वह सिद्ध, जो जैनेतर संन्यासी के वेश में मुक्त होता है। तावसपरिवायगादिवक्कलकासायमादिदव्वलिंगट्ठिता सिद्धा अण्णलिंगसिद्धा।
(नन्दी ३१ चू पृ २७) अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्ध स्नेह के कारण होने वाला जीव और पुद्गल का संबंध। जीव में आकर्षण करने की योग्यता है और पुद्गल में आकृष्ट होने की योग्यता है। अन्योऽन्यं स्नेहप्रतिबद्धा इति।यदाहस्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम्। रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम्॥
(भग १.३१२ वृ) अन्योन्य अभाव
(भिक्षु ३.३२) (द्र इतरेतर अभाव)
अन्तरिक्षक अस्वाध्यायिक अस्वाध्यायिक का एक प्रकार। उल्कापात आदि आकाशीय स्थितियां, जिनमें आगम-स्वाध्याय का निषेध है। दसविधे अंतलिक्खए असज्झाइए पण्णत्ते, तं जहाउक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, विजुते, णिग्घाते, जुवए, जक्खालित्ते, धूमिया, महिया, रयुग्घाते। (स्था १०.२०) अन्तर्मुहूर्त दो समय से लेकर एक समय कम अड़तालीस मिनट तक । का कालमान। मुहूर्तस्य मध्ये अन्तर्मुहूर्त्तम्। (तभा १.७ वृ) अन्तर्व्याप्ति पक्ष में ही साध्य के साथ साधन की व्याप्ति, जैसेअनेकान्तात्मक वस्तु। पक्षीकृत एव विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिः...। यथानेकान्तात्मकं वस्तु, सत्त्वस्य तथैवोपपत्तेः....।
(प्रनत ३. ३८, ३९)
अन्वय
(प्रमीवृ २.१.१२)
(द्र तथोपपत्ति)
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अपक्वौषधिभक्षण
उपभोग - परिभोग-परिमाण व्रत का एक अतिचार । अपक्व धान्य का आहार करना ।
अपक्वायाः - अग्निनाऽसंस्कृताया ओषधे: - शाल्यादिकाया भक्षणता - भोजनमित्यर्थः । (उपा १.३८ वृ पृ १५ )
अपध्यानाचरित
अनर्थदण्ड का एक प्रकार । आर्त्त एवं रौद्र ध्यान का आसेवन । जय पराजय, वध, बन्धन, अङ्गच्छेद, वित्तहरण आदि के विषय में किया जाने वाला चिन्तन । 'अवज्झाणायरियं' ति अपध्यानम् - आर्त्तरौद्ररूपं तेनाचरितः - आसेवितो योऽनर्थदण्डः सः ।
( उपा १.३० वृ पृ ९ )
अपरसंग्रह
1
संग्रह नय का एक प्रकार । अवान्तर सामान्य को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण, जैसे - जो सत् है, वह द्रव्य है द्रव्यत्वादीनि अवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तद्भेदेषु गजनि - मीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसंग्रहः । धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वाभेदा
(प्रनत ७.१९, २०)
दित्यादिर्यथा ॥
अपराजित
अनुत्तरविमान का चतुर्थ विमान। इस विमान में रहने वाला देव अभ्युदय में विघात करने वाले हेतुओं से पराजित नहीं होता ।
वह देव प्रतनु कर्म वाला होता है। वह सतत तृप्त होता है, इसलिए भूख आदि से पराजित नहीं होता ।
अनुत्तराः पञ्च देवनामान एव। विजिता अभ्युदयविघ्नहेतवः एभिरिति विजय - वैजयन्त- जयन्ताः । तैरेव विघ्नहेतुभिर्न पराजिता अपराजिताः । (तभा ४.२० ) प्रतनुकर्मपटलावच्छन्नत्वात् सतततृप्तत्वान्न क्षुदादिभिः पराजीयन्त इत्यपराजिताः । (तभा ४.२० वृ)
अपराध आलोचना
अतिक्रमण की विशुद्धि के लिए की जाने वाली आलोचना । (निभा ६३१० चू)
अपरावर्त्तमाना वह कर्म-प्रकृति, जो किसी दूसरी प्रकृति के बंध अथवा
उदय को रोककर बंध अथवा उदय को प्राप्त नहीं होती, जैसे - उच्छ्वास नामकर्म, तीर्थंकर नामकर्म आदि ।
याः प्रकृतयः प्रकृत्यन्तरस्य बंधमुदयं वा विनिवार्य बंधमुदयं वाऽगच्छन्ति ताः परावर्त्तमानाः इतरा अपरावर्त्तमानाः । (कप्र पृ ३४)
२५
(द्र परावर्त्तमाना)
अपरिगृहीतागमन
स्वदार संतोष व्रत का एक अतिचार । वेश्यागमन करना, परस्त्रीगमन करना ।
'अपरिग्गहियागमणे' त्ति अपरिगृहीता नाम वेश्या अन्यसत्का परिगृहीतभाटिका कुलाङ्गना वा अनाथेति ।
(उपा १.३५ वृ पृ १३ )
अपरिगृहीता देवी
जिसका कोई स्वामी नहीं होता और जो भोग के लिए आमंत्रित की जाती है, वह देवी ।
या गणिकात्वेन पुंश्चलित्वेन वा परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता । ( तवा ७.२८)
अपरिग्रह महाव्रत
पांचवां महाव्रत ।
(द्र सर्वपरिग्रह विरमण )
अपरिग्रह संवर
( उ २१.१२)
( प्रश्न ६.१.२ )
(द्र सर्वपरिग्रह विरमण )
अपरिणत
१. वह स्थावर जीव, जो विरोधी शस्त्र- स्वकाय अथवा परकाय शस्त्र द्वारा परिणामान्तर - निर्जीवता को प्राप्त नहीं हुआ है।
पुढवी चित्तमंतमक्खाया....अन्नत्थ सत्थपरिणएणं ।
(द ४. सू. ४) २. वह जीव और पुद्गल, जो विवक्षित परिणाम में अवस्थित है।
द्रव्याणि - जीवपुद्गलरूपाणि तानि च विवक्षितपरिणामत्यागेन परिणामान्तरापन्नानि परिणतानि, विवक्षितपरिणामवन्त्येव अपरिणतानि । (स्था २.१३ वृ प ५१ )
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३. एषणा दोष का एक प्रकार। जो पूर्ण प्रासुक न हो, उसे अपर्याप्तिका भाषा लेना।
जिस भाषा के द्वारा प्रतिनियत रूप से अर्थ का अवधारण न देयद्रव्यं मिश्रमचित्तत्वेनापरिणमदपरिणतम्।
किया जा सके। सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (योशा १.३८ वृ पृ १३७) (व्यवहार) भाषा अपर्याप्तिका भाषा है।
न प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यते सा अपर्याप्ता, सा च अपरिणामक
सत्यामृषा असत्यामृषा वा। (प्रज्ञा ११.३१ ७ प २५७) वह साधु, जो आगमोक्त विषय पर यथार्थ रूप में श्रद्धा नहीं करता और जिसकी गति केवल उत्सर्ग-मार्ग में परिणत अपवर्तना होती है।
कर्मकरण का एक प्रकार, जिसमें कर्म की स्थिति और अनुभाग जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणक्खायं। की हानि होती है। तं तह असद्दहतं, जाण अपरिणामयं साहं।
कर्मणां"स्थित्यनुभागहानि: अपवर्तना। दोसु वि परिणमइ मई, उस्सग्गऽववायओ उ पढमस्स।
(जैसिदी ४.५ वृ) बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए य तइयस्स।
अपवर्त्यते ह्रस्वीक्रियते स्थित्यादि यया साऽपवर्तना। (बृभा ७९४, ७९७)
(कप्र १.२) अपरिवर्ता
अपवर्तनीय आयुष्य (कग्र ५. १८)
वह आयुष्य, जो समय से पूर्व समाप्त होता है। (द्र अपरावर्त्तमाना)
शीघ्रमन्तर्मुहूर्तात्"यः सकलायुष्यकर्मफलोपभोगस्तदपवर्तनम्।
(तभा २.५२ वृ) अपरिश्रावी स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था, जो चौदहवें गुणस्थान- अपवाद सूत्र -प्राप्त निर्ग्रन्थ के सम्पूर्ण योग के निरोध की सूचक है। वह सूत्र, जिसमें आचार-विषयक विशेष विधि का प्रतिपादन निष्क्रियत्वात्सकलयोगनिरोधे अपरिश्रावी।
होता है।
(बृभा ३३१७) (स्था ५.१८९ वृ प ३२०) (द्र उत्सर्ग सूत्र) अपर्यवसित श्रुत
अपवादोत्सर्ग सूत्र श्रुतज्ञान का एक भेद। द्वादशाङ्ग, जो अव्युच्छित्ति नय की वह सूत्र, जिसमें आचार-विषयक विशेष और सामान्य विधियों अपेक्षा से अपर्यवसित है।
का प्रतिपादन हो। अवुच्छित्तिनयट्ठयाए अणाइयं अपज्जवसियं। (नन्दी ६८) विहिभिन्नस्स य गहणं, अववाउस्सग्गियं सुत्तं।
(बृभा ३३१७) अपर्याप्तक
(द्र उत्सर्गोपवाद सूत्र) वह जीव, जो अपर्याप्त नाम कर्म के उदय से जीवन-धारण के लिए अपेक्षित पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाता। अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना अपज्जत्तयणामकम्मोदएणं अणिव्वत्तातो जेसिं ते अपज्ज- संलेखना के द्वारा शरीर को अनशन योग्य बनाकर किया जाने त्तया।
(नन्दी २३ चू पृ २२) वाला आमरण आहार का परित्याग। (द्र पर्याप्तक)
पश्चिमैवामंगलपरिहारार्थमपश्चिमा मरणं-प्राणत्याग
लक्षणम्।""मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी, अपर्याप्तकनाम
संलिख्यते-कृशीक्रियतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव स्वयोग्य तयोर्विशेषलक्षणा ततः कर्मधारयाद् अपश्चिममारणान्तिकपर्याप्तियां पूर्ण नहीं कर पाता। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) संलेखना।
(भग ७.३५ वृ) Jain (द्र पर्याप्तकनाम)
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अपहृत्य असंयम उच्चार आदि का अविधि से परिष्ठापन। अपहत्यासंयमः अविधिनोच्चारादीनां परिष्ठापनतो यः सः।
(सम १७.१ वृ प ३२) अपान श्वास के पुद्गलों का उत्सर्जन करने वाली ऊर्जा, आन्तरिक क्रिया-श्वसनतन्त्र की क्रिया। 'आनन्ति वा प्राणन्ति वा' इत्यनेनाध्यात्मक्रिया परिगृह्यते।
(भग १.१४ वृ)
अपाय अवाय की तीसरी अवस्था, जिसमें ईहा की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है और ज्ञेय वस्तु अवधारणा के योग्य बन जाती है। सव्वहा ईहाए अवणयणं कातुं अवधारणावधारितत्थस्स अवधारयतो अवातो त्ति भण्णइ। (नन्दी ४७ चू पृ ३६) अपाय विचय धर्म्यध्यान का दूसरा प्रकार। राग-द्वेष आदि से उत्पन्न दोषों अथवा शारीरिक-मानसिक दु:खों के उत्पत्तिहेतु, क्षयहेतु आदि को ध्येय बनाकर उसमें होने वाली एकाग्रता। अपाया-रागद्वेषादिजन्या अनर्थाः। (भग २५.६०५७) अपाया-विपदः शारीर-मानसानि दःखानीति पर्यायास्तेषां विचयः-अन्वेषणम्।
(तभा ९.३७)
अपूर्वकरण १. सम्यक्त्व प्राप्ति से पूर्व होने वाला वह अध्यवसाय, जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ अथवा अपूर्व स्थितिघात और रसघात करने वाला आत्मपरिणाम। अप्राप्तपूर्वमपूर्वं स्थितिघातरसघाताद्यपूर्वार्थनिर्वर्तकं वाऽपूर्वम्।
(विभा १२०२ वृ पृ ४५८) २. अष्टम गुणस्थान, श्रेणी-आरोहण के प्रारम्भ में होने वाला असदृश अध्यवसाय, जैसा पहले कभी नहीं आया। प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिसंक्रमा अन्यश्च स्थितिबन्ध इत्येते पञ्चाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः प्रवर्त्तन्त इत्यपूर्वकरणम्।
(आवृप २९८) ३. वह असदृश अध्यवसाय, जिसमें अनुप्रविष्ट जीव केवलज्ञान को प्राप्त करता है। कम्मरयविकिरणकरं अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जति। (भग ९. ४६) अपृथक्त्व अनुयोग अनुयोग की वह पद्धति, जिसमें प्रत्येक सूत्र पर नयदृष्टि से विचार किया जाता है। चरणकरणानुयोग-धर्मकथानुयोग-गणितानुयोग-द्रव्यानुयोगानामपृथग्भावोऽपृथक्त्वं प्रतिसूत्रमविभागेन वक्ष्यमाणेन विभागाभावेन प्रवर्तनं प्ररूपणमित्यर्थस्तस्मिन्नपृथक्त्वे नयानां विस्तरेणासीत् समवतारः। (विभा २२७९ वृ पृ २८)
अप्काय
(दहावृ प १३८)
(द्र अप्कायिक)
अपाय अनुप्रेक्षा शुक्लध्यान की एक अनुप्रेक्षा । अपायों-आश्रवद्वारों, दोषों का चिन्तन करना। अपाया आश्रवाणामिति गम्यते, यथा... आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च। भवसंताणमणंतं वत्थणं विपरिणामं च॥
(स्था ४.७२ वृ प १८१) अपुनर्बन्धक वह व्यक्ति, जो तीव्र भाव से पापकर्म नहीं करता, जो भवपरम्परा में लिप्त नहीं रहता। पावं न तिव्वभावा कुणइ ण बहुमण्णई भवं घोरं। उचियट्टिइं च सेवइ सव्वत्थ वि अपुणबंधो त्ति॥
(योश १३)
अप्कायिक षड्जीवनिकाय का दूसरा प्रकार । वह जीव, जिसका शरीर पानी है। आपो-द्रवाः प्रतीता एव ता एव काय:-शरीरं येषां तेऽप्कायाः। अप्काया एव अप्कायिकाः। (दहावृ पृ१३८)
अप्रतिज्ञ १. वह व्यक्ति, जो इहलोक और परलोक संबंधी कामभोगों में अमूर्च्छित और अद्विष्ट होता है।
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अप्रतिज्ञः इहपरलोकेषु कामेषु अप्रतिज्ञ अमूर्च्छित अद्विष्टो अप्रतिष्ठित क्रोध वा।
(सूत्र १.१५.२० चू पृ १८५) किसी बाह्य निमित्त के बिना केवल क्रोध वेदनीय के उदय २. प्रतिकार करने के संकल्प से रहित।
से होने वाला आवेश। अप्रतिज्ञः-प्रतिकारसंकल्परहितः। (आभा ९.२.११) अप्रतिष्ठितो नाम यदैष स्वयं दुश्चरणमाक्रोशादिकं च कारणं ३. वह भिक्षु, जो केवल अपने लिए ही आहार आदि नहीं विना निरालम्बन एव केवलक्रोधवेदनीयादुपजायते। लाता, सभी के लिए लाता है।
(प्रज्ञा १४.३ ७ प २९०) स अप्रतिज्ञो भवति-नात्मनः प्रतिज्ञया आहारादिकं गृह्णाति,
अप्रत्याख्यानकषाय किन्तु सामुदायिकम्।
(आभा २.११०)
चारित्रमोहनीय कर्म की वह प्रकृति-कषायचतुष्टयी (क्रोध, ४. वह भिक्षु, जो अप्रतिज्ञात कुलों से भिक्षा ग्रहण करता है।
मान, माया, लोभ), जिसके उदयकाल में देशविरति (देश."अपडिण्णायेसु कुलेसु गिण्हइ, ण य एतं परिण्णं वारित्ता
चारित्र) की चेतना जागृत नहीं होती। गच्छति, जहा--अमुगकुलाणि गच्छीहामि सो अपडिण्णो।
अप्रत्याख्यानो देशविरत्यावारकः। (स्थावृ प १८३)
(आचू पृ७९,८०) अप्रतिपाति अवधिज्ञान
अप्रत्याख्यानक्रिया वह अवधिज्ञान, जो केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व नष्ट नहीं
संयम का उपघात करने वाले कर्मोदय के कारण पापाचरण होता।
से होने वाली अनिवृत्ति। यत् न केवलज्ञानादर्वाक् भ्रंशमुपयाति तदप्रतिपातीत्यर्थः।।
संयमघातिकर्मोदयवशादनिवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया। _(नन्दी ९ मवृ प ८२)
(तवा ६.५) अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्त्रवणभूमि अप्रत्याख्यान क्रोध पौषधोपवास व्रत का एक अतिचार। उच्चारप्रश्रवण की भूमि । चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। यह क्रोध भूमि की का निरीक्षण न करना अथवा सम्यक प्रकार से न करना।
रेखा के समान दीर्घकाल तक टिकने वाला होता है। उच्चार:-पुरीषं, प्रस्त्रवणं-मूत्रं तयोर्भूमिः स्थण्डिलम्। पुढविराइसमाणे।
(स्था ४.३५४) (उपा १.४२ वृ पृ १९) (द्र अप्रत्याख्यानकषाय) (द्र अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तारक)
अप्रत्याख्यान मान अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तारक चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। यह मान अस्थिपौषधोपवास व्रत का एक अतिचार। शय्या संस्तारक का । -स्तम्भ के समान स्तब्ध होता है। प्रतिलेखन न करना अथवा सम्यकतया प्रतिलेखन न करना। अद्विथंभसमाणे।
(स्था ४.२८३) पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, (द्र अप्रत्याख्यानकषाय) न समायरियव्वा, तं जहा-१. अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे २. अप्पमज्जिय-दुप्पज्जिय-सिज्जासंथारे ३.
अप्रत्याख्यान माया अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय-उच्चारपसवणभूमी ४.
चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। यह माया मेंढे के सींग अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय-उच्चारपासवणभूमी ५. पोसहो- के समान वक्र होती है। पवासस्स सम्म अणणपालणया। (उपा १.४२) मेंढविसाणकेतणासमाणा।
(स्था ४.२८२) 'अप्रत्युपेक्षितो'-जीवरक्षार्थं चक्षुषा न निरीक्षितः, 'दुष्प्रत्यु- (द्र अप्रत्याख्यानकषाय) पेक्षितः' उद्भ्रान्तचेतोवृत्तितयाऽसम्यग्निरीक्षितः शय्या-शयनं तदर्थं संस्तारकः-कुश-कम्बलफलकादिशय्या-संस्तारकः,
अप्रत्याख्यान लोभ ततः"अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारकः ।
चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। यह लोभ कीचड़ के (उपा १.४२ वृ पृ १९)
रंग के समान रञ्जक होता है-अधिक आसक्ति वाला
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होता है। कद्दमरागरत्तवत्थसमाणे। (द्र अप्रत्याख्यानकषाय)
(स्था ४.२८४)
के समय शय्या-संस्तारक का वस्त्रखण्ड से प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक्तया प्रमार्जन न करना। नवरं प्रमार्जनं वसनाञ्चलादिना। (उपा १.४२ व ११९) (द्र अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तारक)
अप्रथमसमयनिर्ग्रन्थ निग्रंथ (निग्रंथ) का एक प्रकार। (अन्तर्मुहूर्त की स्थितिवाले) उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह गुणस्थान के प्रथम समय को छोड़कर शेष समय में वर्तमान निग्रंथ । (द्र यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ) अप्रमत्तसंयत जीवस्थान जीवस्थान/गुणस्थान का सातवां प्रकार। सर्वथा प्रमादमुक्त मुनि की आत्मविशुद्धि। अप्रमत्तसंयतः-सर्वप्रमादरहितः। (सम १४.५ वृप २६)
अप्रश्न विद्या विद्या का एक प्रकार। वह जपसिद्ध विद्या, जो बिना प्रश्न किये ही मंत्रजप के समय व्यक्ति को शुभ-अशुभ का निर्देश कर देती है। या पुनर्विद्या मन्त्रविधिना जप्यमाना अपृष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति, एता: अप्रश्नाः । (समप्र ९८ वृ प ११५)
अप्रातिहारिक मुनि द्वारा गृहस्थ से गृहीत वह वस्तु, जिसका प्रत्यर्पण नहीं किया जा सके। अप्रातिहारिकं सागारिकेण भक्तमुपकरणं वा यत् त्यक्तं निर्देयतया दत्तम्।
(बृभा ३६५७ वृ) (द्र प्रातिहारिक)
अप्रमाद १. अध्यात्मलीनता-स्वभाव के प्रति पूर्ण जागरूकता। अध्यात्मलीनता अप्रमादः। (जैसिदी ५. १३) २. धर्माराधना के प्रति होने वाली आन्तरिक जागरूकता। ३. कुशल अनुष्ठानों के प्रति होने वाला उत्साह और प्रवृत्ति। ४. शरीर, वाणी और मन का सुप्रणिधान। (द्र प्रमाद) अप्रमाद संवर अप्रमाद से होने वाला कर्म के आगमन का निरोध, प्रमाद आश्रव का निरोध।
(स्था ५.११०)
अप्राप्यकारी इन्द्रिय चक्षु और मन अपने विषय को प्राप्त किए बिना ही जान लेते हैं, इसलिए वे अप्राप्यकारी हैं। अप्पत्तकारि नयणं मणो य.......। (विभा ३४०) (द्र प्राप्यकारी इन्द्रिय)
अप्रमार्जन असंयम असंयम का एक प्रकार । पात्र आदि का प्रमार्जन न करना अथवा विधिपूर्वक प्रमार्जन न करना। अप्रमार्जनाऽसंयमः-पात्रादेरप्रमार्जनयाऽविधिप्रमार्जनया वेति।
(सम १७.१ ७ प ३२) अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-उच्चारप्रस्रवणभूमि पौषधोपवास व्रत का एक अतिचार । उच्चारप्रस्रवण की भूमि का प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना। (द्र अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्रवणभूमि ) । अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-शय्यासंस्तारक पौषधोपवास व्रत का एक अतिचार। पौषधोपवास की आराधना
अबद्धश्रुत
(उनि २०३) (द्र आदेश) अबद्धिकवाद प्रवचननिह्नव का सातवां प्रकार। यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं, उसके साथ एकीभूत नहीं होते। स्पृष्टं जीवेन कर्म न स्कन्धबन्धवद्वद्धमबद्धं तदेषामस्तीत्यबद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः।
(स्था ७.१४० वृ प ३८९) अबन्धक वह जीव, जो कर्म का बंध नहीं करता। अयोगी अवस्था। मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं बंधकारणाणं सव्वेसिमजो
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गिम्हि अभावा अजोगिणो अबंधया। (धव पु ७ पृ८)
अबहिर्लेश्य वह मुनि, जिसकी भावधारा संयम में लीन हो, संयम से बाहर न जाए। 'अबहिल्लेस'त्ति संयमादबहिर्भूतमनोवृत्तयः।
(औप २५ वृ प ६२) अबाधाकाल कर्म की सत्ताकालीन अवस्था. जिसमें कर्म अपने उदय से जीव को बाधित नहीं करता। यावत् न किञ्चिदपि स्वोदयतो जीवस्य बाधामुत्पादयति।"अबाधाकालपरिज्ञानोपायश्चायं-यस्य यावत्यः सागरोपमकोटीकोट्यस्तस्य तावन्ती वर्षशतान्यबाधा।।
(प्रज्ञावृ प ४७९)
यः स्वभावात्सुखैषिभ्यो, भूतेभ्यो दीयते सदा। अभयं दुःखभीतेभ्योऽभयदानं तदुच्यते॥
(ग अधि २) अभवसिद्धिक वह जीव, जिसमें मुक्त होने की योग्यता नहीं होती। इसे अभव्य कहते हैं। अभव्यत्व पारिणामिक भाव है, अनादिअनंत है। अभवसिद्धिका:-अभव्याः। (प्रज्ञा ३.११३ वृ प १४०) जीवत्वमभव्यत्वं चानादिरनन्तः। (विभामवृ१ पृ७३४) (द्र भवसिद्धिक)
अबुद्ध जागरिका वह जागृत अवस्था, जो छद्मस्थ मुनि को प्राप्त है। जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिट्ठावणियासमिया मणसमिया वइसमिया कायसमिया मणगुत्ता वइगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिंदिया गुत्तबंभचारी-एए णं अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति।
(भग १२. २१) अबुद्धिपूर्वा निर्जरा वह निर्जरा, जो आत्मशुद्धि की बुद्धि के बिना कर्मफल के अनुभव के रूप में होती है। इसे विपाकी निर्जरा भी कहते ।
अभव्य (द्र अभवसिद्धिक) अभाषक वह जीव, १. जिसे भाषा-पर्याप्ति के अभाव में बोलने की क्षमता प्राप्त न हो, जैसे एकेन्द्रिय। अभाषका-भाषालब्धिहीनाः। (प्रज्ञावृप १३९) २. जिसमें भाषा पर्याप्ति होने पर भी बोलने की क्षमता न हो, जैसे गूंगा। ३. भाषा पर्याप्ति और बोलने की क्षमता होने पर भी जो नहीं बोल रहा हो, जैसे मौन अवस्था वाला। ४. जो अयोगी-चतुर्दश गुणस्थानवर्ती हो।
हैं।
नरकादिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा। (तवा ९.७) अभक्तार्थ सूरे उग्गए अभत्तटुंपच्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं....।
(आव ६.७) (द्र उपवास, चतुर्थभक्त)
अभिगमकुशल वह मुनि, जो साधु और आचार्य का आदर-सम्मान और भक्ति करने में कुशल है। साधणमायरियाणंजा विणयपडिवत्ती सो अभिगमो भण्णड, तंमि कुसले।
(द ९.३.१५ जिचू प ३२४) अभिगमरुचि १. रुचि का एक प्रकार, सूत्र के अर्थ का अवगाहन करने से उत्पन्न होने वाली रुचि। २. अभिगमरुचि सम्पन्न व्यक्ति। सो होइ अभिगमरुई, सुयनाणं जेण अत्थओ दिटुं। एक्कारस अंगाई, पइण्णगं दिट्टिवाओ य॥
(उ २८. २३)
अभयदान जीवों को अपनी ओर से भय-मुक्त करना-अभय प्रदान करना। जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारित्वादभयदानं श्रेष्ठम्।
(सूत्र १.६.२३ वृ)
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होने वाली क्षुल्लकविद्याओं और महाविद्याओं में लुब्ध नहीं
होता।
अभिगमसम्यग्दर्शन उपदेश आदि निमित्तों से प्राप्त होने वाला सम्यग्दर्शन। अभिगमोऽधिगमो गुरूपदेशादिः। (स्था २.८० वृ प ४४) अभिगृहीता असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार। किसी के पूछने पर किसी कार्य के लिए स्पष्ट निर्देश देने वाली भाषा, जैसे-अभी तुम यह काम करो, यह मत करो। अभिगृहीता प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा इदमिदानीं कर्त्तव्यमिदं नेति।
(प्रज्ञा ११.३६ ७ प २५९)
अभिग्रह १. लक्ष्यपूर्ति की शर्त के साथ किया जाने वाला संकल्प. विशेष प्रतिज्ञा। तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्त-णातिसयण-संबंधिवग्गं पडिविसजेति, पडिविसज्जेत्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-बारसवासाई वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पजंति, तं जहा-"दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे अणाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्म सहिस्सामि खमिस्सामि अहियासइस्सामि॥"
(आचूला १५. ३४) सामी य इमं एतारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हति, चउव्विहं... दव्वतो कुम्मासे सुप्पकोणेणं, खित्तओ एलुगं विक्खंभइत्ता, कालओ नियत्तेसु भिक्खायरेसु, भावतो जदि रायधुया दासत्तणं पत्ता, णियलबद्धा, मुंडियसिरा, रोयमाणी, अब्भत्तट्ठिया एवं कप्पति, सेसंण कप्पति। (आवचू १ पृ ३१७) अभिगृह्यन्त इत्यभिग्रहा:-प्रतिज्ञाविशेषाः।
(आवहावृ २ पृ २१०) २. प्रत्याख्यान का एक प्रकार। विशेष प्रतिज्ञा की संपूर्ति होने से पहले चतुर्विध आहार का त्याग करना। अभिग्गहं पच्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं.....।
(आव ६.९)
रोहिणिआदिपंचसयमहाविज्जाओ"सव्वविजाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुव्वी, जो पुण ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी सो अभिण्णदसपुव्वी णाम।
(धव पु ९ पृ ६९) अभिभव कायोत्सर्ग १. दूसरों से अभिभूत होकर किया जाने वाला कायोत्सर्ग। २. उपसर्गों के आने पर किया जाने वाला कायोत्सर्ग। सो उस्सग्गो दुविहो चिट्ठाए अभिभवे य नायव्वो। भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गाभिमुंजणे बिइओ॥
(आवनि १४५२) अभिमुखनामगोत्र जो जीव भावी जन्म के नाम और गोत्र के अभिमुख हो, जिसके जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् भावी जन्म के नाम और गोत्र उदय में आने वाले हों। नीचैर्गोत्राख्ये अभिमुखे जघन्यतः समयेनोत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेणैव व्यवधानात् उदयाभिमुखप्राप्ते नामगोत्रे कर्मणी यस्य सोऽभिमुखनामगोत्रः। (अनु ५६८ मवृ प २१३) अभिलापाक्षर अक्षर का एक प्रकार। अभिलाववण्णा अक्खरं भणिता, पंकजवत्, एवं ताव अभिलावहेतुग्गहणतो सुतविण्णाणस्स अक्खरता भणिता।
(नन्दीचू पृ ४४) (द्र व्यञ्जनाक्षर)
अभिषवाहार उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत का एक अतिचार। १. चीटी, लट आदि से युक्त आहार करना। कुन्थुपिपीलिकादिसूक्ष्मजन्तुव्यतिमिश्रस्याभ्यवहार: अभिषवाहारः।
(तभा ७.३० वृ) २. सिरका का प्रयोग तथा उत्तेजित भोजन करना। द्रवः सौवीरादिकः वृष्यं वा द्रव्यमभिषवः इत्यभिधीयते।
(तवा ७.३५) अभिषेक सूत्र, अर्थ और तदुभय का ज्ञाता मुनि, जो आचार्य-पद के
अभिन्नदशपूर्वी १. जो समग्र दशपूर्वो का ज्ञाता है। अभिन्नदशपूर्विणः-सम्पूर्णदशपूर्वधरस्य।
(नन्दी ६६ मवृ प १९२)
. २. वह मुनि, जो दशवें पूर्व का अध्ययन समाप्त होने पर प्राप्त ।
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योग्य हो। 'अभिषेकः' सूत्राऽर्थ-तदुभयोपेत आचार्यपदस्थापनार्हः ।
(बृभा ४३३६ वृ) अभिषेकप्राप्ता वह साध्वी, जो प्रवर्तिनी पद के योग्य हो। अभिषेकप्राप्ता प्रवर्त्तिनीपदयोग्या। (बृभा ४३३९ वृ) अभिषेकसभा अभिषेक-कक्ष, जहां इन्द्र का राज्याभिषेक किया जाता है। अभिषेकसभा यस्यां राज्याभिषेकेणाभिषिच्यते।
(स्था ५.२३५ वृ प ३३४) अभिहृत उद्गम दोष का एक प्रकार। साधु को देने के लिए दूर से अर्थात् अपने ग्राम से अथवा दूसरे ग्राम से लाकर उपाश्रय में । दी जाने वाली भिक्षा। अभिहतं-यत्साधुदानाय स्वग्रामात्परग्रामाद्वा समानीतम्।।
(पिनिवृ प ३५) अभ्याख्यान पाप पापकर्म का तेरहवां प्रकार। असद्दोषारोपण की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्मप्रकृति का बंध। (आवृ प ७२) अभ्याख्यानं-प्रकटमसद्दोषारोपणम्।
(स्था १.१०३ वृ प २४) अभ्याख्यान पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव अभ्याख्यान में प्रवृत्त होता
(झीच २२.२२) अभ्यासवर्तिता लोकोपचारविनय का एक प्रकार । ज्ञान-प्राप्ति के लिए आचार्य के पास बैठना। 'अब्भासवत्तियं' ति प्रत्यासत्तिवर्त्तित्वं, श्रुताद्यर्थिना हि आचार्यादिसमीपे आसितव्यमित्यर्थः।
(स्था ७.१३७ वृ प ३८८) अभ्युत्थानसंभोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। किसी बड़े साधु को आते देखकर आसन से उठना। 'अब्भुटाणे यावरेत्ति' अभ्युत्थानमासनत्यागरूपमित्यपरं सम्भोगासम्भोगस्थानमित्यर्थः। तत्राभ्युत्थानं पार्श्वस्थादेः
कुर्वंस्तथैवासम्भोग्यः। (सम १२.२ ७ प २२) अभ्युत्थान सामाचारी आचार्य आदि का आदर करना, उनको आहार, औषध आदि लाकर देना। अब्भुटाणं गुरुपूया"। अभिमुख्येनोत्थानम्-उद्यमनमभ्युत्थानं तच्च 'गुरुपूय' त्ति सूत्रत्वाद् गुरुपूजायां, सा च गौरवार्हाणाम् आचार्यग्लानबालादीनां यथोचिताहारभेषजादिसम्पादनम्।
(उ २६.७ शावृ प ५३५) अभ्युद्यत मरण मरण का एक प्रकार। अनशनपूर्वक-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमनपूर्वक होने वाला मरण। अभ्युद्यतमरणं पुनस्त्रिविधम्-पादपोपगमनम् इंगिनीमरणं"" भक्तप्रत्याख्यानम्।
(बृभा १२८३ वृ) अभ्युद्यत विहार जिनकल्प, शुद्धपरिहारकल्प (परिहारविशुद्धि) और यथालंदकल्प की साधना का प्रयोग। जिनकल्प: शुद्धपरिहारकल्पो यथालन्दकल्पश्चेति त्रिविधोऽभ्युद्यतोऽथैष विहारः।
(बृभा १२८३ वृ)
अमन मानसिक क्रिया का निरोध। निर्विचार चेतना।
(स्था ३.३५८) अमनस्क
(तसू २.११) (द्र असंज्ञी) अमायिसम्यग्दृष्टि वह व्यक्ति, जो मायाशल्य रहित सम्यक्दृष्टि वाला है।
(भग ५. १०२) अमिलित ज्ञान का एक आचार। शास्त्र का उच्चारण, जिसमें पद और वाक्य का विच्छेद समुचित रूप से होता है। 'अमिलियपयवक्कविच्छेयं ति'... अमिलितोऽसंसक्तः पदवाक्यविच्छेदो यत्र, तद वाऽमिलितमुच्यते।
(विभा ८५४ वृ पृ ३४७)
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अमूढदृष्टि
सम्यक्त्व का चतुर्थ आचार । यथार्थ दृष्टि । देव, गुरु और धर्म से जुड़े हुए परवादियों के चमत्कारों को देखकर उनके प्रति आकृष्ट न होने वाली दृष्टि ।
गविधा इड्डीओ, यूयं परवादिणं च दट्ठूणं । जस्सन मुज्झइ दिट्ठी, अमूढदिट्ठि तयं बेंति ॥
( निभा २६)
अमूर्त्त
अरूपी । वर्ण, गंध, रस और स्पर्श- इन गुणों से रहित द्रव्य, जैसे - आत्मा आदि । रूपादिगुणाभावादमूर्त्ताः ।
(बृद्रसं १५ वृ पृ ४०)
अम्ब
परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। वह असुर देव, जो नैरयिकों को दौड़ाता है, घुमाता है, उनका हनन करता है, उन्हें शूलों में पिरोता है, भूमि पर ओंधे मुंह गिराता है, आकाश में उछालता है।
धाडेंति पधाडेंति य, हणंति बिंधंति ति निसुभंति । पाडिंति अंबरतले, अंबा खलु तत्थ नेरइया ॥
(सूत्रनि ६८)
अम्बरिसी
परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। वह असुर देव, जो मुद्गरों से आहत, खड्ग से उपहत नैरयिकों को करवत से चीरकर टुकड़े-टुकड़े कर छिन्न-भिन्न करता है।
ओहतहते य निहते, निस्सण्णे कप्पणीहि कप्पंति । बिदलग - चडुलग छिन्ने, अंबरिसी तत्थ नेरइया ॥ (सूत्रनि ६९ )
अयशः कीर्तिनाम
कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव को अपयश और अकीर्ति प्राप्त होती है।
यदुदयवशात् मध्यस्थस्यापि जनस्याप्रशस्यो भवति तदयश:कीर्त्तिनाम |
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७५)
अयोग संवर
आत्मा की अप्रकम्प अवस्था - मन, वचन और काय की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध | अप्रकम्पोsयोगः ।
(जैसिदी ५.१५ )
(द्र अयोगि केवली जीवस्थान)
अयोगिकेवली जीवस्थान
जीवस्थान/गुणस्थान का चौदहवां प्रकार । मन, वचन और शरीर की सम्पूर्ण प्रवृत्ति से मुक्त केवली की आत्मविशुद्धि | अयोगिकेवली - निरुद्धमनः प्रभृतियोगः ।
(सम १४.५ वृप २७ )
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अरति
नोकषाय का एक प्रकार, जो चारित्र मोहनीय कर्म की एक प्रकृति है । इसके उदय से संयम में आनन्द की अनुभूति नहीं होती ।
यदुदयेन तेष्वेवारतिरुत्पद्यते तदरतिकर्म्म।
(स्था ९.६९ वृ प ४४५)
अरति परीषह
परीषह का एक प्रकार । ग्रामानुग्राम विहार करने से आने वाली खिन्नता, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। गामाणुगामं रीयंतं अणगारं अकिंचणं ।
अरई अणुप्पविसे तं तितिक्खे परीसहं ॥ अरई पिटूओ किच्चा विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारंभे उवसंते मुणी चरे ॥
अरतिरति पाप
( उ २.१४, १५)
For Private & Pe: (द्र अमniliy
(भग १.३८४)
(द्र रतिअरति पाप)
अरहस्यधारक
अतीव रहस्यपूर्ण छेदसूत्रों के तत्त्व को धारण करने वाला अपात्र को उनकी वाचना नहीं देने वाला मुनि । नास्त्यपरं रहस्यान्तरं यस्मात् तद् अरहस्यम् - अतीवरहस्यच्छेदशास्त्रार्थतत्त्वमित्यर्थः, तद् यो धारयति - अपात्रेभ्यो न प्रयच्छति सोऽरहस्यधारकः । (बृभा ६४९० वृ)
अरुणोपपात
कालिक श्रुत का एक प्रकार । वह अध्ययन, जिसमें अरुण नामक देव की वक्तव्यता है तथा जिसका परावर्तन करने पर अरुण देव उपस्थित हो जाता है।
अरुणो नाम देवः तद्वक्तव्यताप्रतिपादको यो ग्रन्थः परावर्त्यमानश्च तदुपपातहेतुः सोऽरुणोपपातः ।
( नन्दी ७८ मवृ प २०६ )
अरूपी
(स्था २.१ )
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३४
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अर्थ ज्ञानाचार का एक प्रकार। सम्यक् उपयोगपूर्वक आगम के । अर्थ का अध्ययन करना। अर्थः-अभिधेयं "सम्यगुपयोगेन च यतः सूत्रादि पठनीयम्।
(प्रसावृ प ६४) अर्थकल्पिक वह मुनि, जो आवश्यक सूत्र से प्रारंभ कर यावत् सूत्रकृतांग तक के आगमों (आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग) के अर्थ का ज्ञाता है। सूत्रकृतांग के । पश्चात् भी छेदसूत्रों को छोड़कर, जिसने जितना श्रुत पढ़ा। है, वह उस समस्त श्रुत के अर्थ का कल्पिक होता है। (छेदसूत्र पढ़ लेने पर भी जब तक शिष्य अपरिणत होता है तब तक अर्थ नहीं दिया जाता। परिणत होने पर वह उनके अर्थ का कल्पिक होता है।) अत्थस्स कपिओ खलु, आवस्सगमादि जाव सूयगडं। मोत्तूण छेयसुयं, जं जेणऽहियं तदट्ठस्स।
(बृभा ४०८) आवश्यकमादिं कृत्वा यावत् सूत्रकृतमङ्गं तावद् यद् येनाधीतं स तस्यार्थस्य कल्पिको भवति। सूत्रकृताङ्गस्योपर्यपि छेदश्रुतं मुक्त्वा यद् येनाधीत सूत्रं स तस्य सूत्रस्य समस्तस्याप्यर्थस्य कल्पिको भवति। छेदसूत्राणि पुनः पठितान्यपि। यावदपरिणतं तावन्न श्राव्यते, यदा तु परिणतं तदा कल्पिकः।
(बृभा ४०८ वृ) (द्र सूत्रकल्पिक) अर्थक्रिया वस्तु की कार्य करने की शक्ति। अर्थक्रियासामर्थ्य-वस्तुतः कार्यकरणशक्तिः।
(प्रनत ५.२ वृ) अर्थदण्ड
(स्था २.७६) (द्र अर्थदण्ड क्रिया) अर्थदण्डप्रत्यय दण्डसमादान क्रियास्थान का पहला प्रकार । स्व तथा स्व से संबद्ध व्यक्ति और वस्तु के लिए की जाने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति। पढमे दंडसमादाणे अद्वादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ-से
जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा णाइहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेउं वा ॥
(सूत्र २. २. ३) अर्थधर वह मुनि, जो केवल अर्थागम का ज्ञाता है। अर्थेन केवलेन सम्यगधिगतेनार्थी भवति ज्ञातव्यः, अर्थधर इति।
(बृभा ६९० वृ) अर्थनय वह नय, जिसमें अर्थ प्रधान और शब्द गौण होता है, जैसेनैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय। एतेषु चत्वारः प्रथमेऽर्थनिरूपणप्रवणत्वादर्थनयाः।
(प्रनत ७.४४) अर्थपद अर्थ का बोध कराने वाले अक्षरों का समूह। जत्तिएहि अक्खरेहि अत्थोवलद्धी होदि तेसिमक्खराणं कलावो अस्थपदं णाम।
(कप्रा पृ ९१) अर्थपदप्ररूपणा अनौपनिधिकी (द्रव्यानुपूर्वी) का एक प्रकार। संज्ञा और संज्ञी के संबंध की प्ररूपणा। संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्ररूपणेत्यर्थः। (अनु ४.११४ हावृ प ३१) अर्थपर्याय गुणपर्याय । पदार्थ की सूक्ष्म परिणति, जिसके बदल जाने पर भी द्रव्य का आकार नहीं बदलता, जिसकी कालावधि एक समय की है। सूक्ष्मो वर्तमानवर्ती अर्थपरिणामः अर्थपर्यायः।
(जैसिदी १. ४३) (द्र व्यञ्जनपर्याय) अर्थमण्डली मण्डली का एक विभाग। श्रमणों के लिए एक साथ बैठकर अर्थ के चिन्तन, ग्रहण और धारण की व्यवस्था। इय सुद्ध सुत्तमंडलि, दाविज्जति अत्थमंडली चेव।
(व्यभा १४२९) (द्र मण्डली, सूत्रमण्डली) अर्थागम तीर्थङ्कर के द्वारा की जाने वाली तत्त्व-निरूपणा।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
सूत्रागमः, तदभिधेयश्चार्थ एवार्थागमः ।
(अनु ५५० म वृ २०२)
अर्थावग्रह अवग्रह का एक प्रकार। व्यञ्जनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त जाति, द्रव्य, गुण आदि की कल्पना से रहित अर्थ का ग्रहण। व्यञ्जनावग्रहः""ततो मनाग व्यक्तं जातिद्रव्यगुणकल्पनारहितमर्थग्रहणम् अर्थावग्रहः। (जैसिदी २.१२ वृ) .....अवरोप्परसंसग्गो जया तया गिण्हइ तमत्थं ॥ सामन्नमणिद्देसं सरूवनामाइकप्पणारहियं ।.....
(विभा २५१,२५२) अर्धचक्रवाल श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार । वह श्रेणि जिसमें केवल पुद्गल (परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि) अर्धमंडलाकार (अर्धगोलाकार) में घूमकर उत्पन्न होता है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'अद्धचक्कवाल' त्ति चक्रवालार्द्धरूपा, सा चैवम्।
(भग २५.९१ वृ प ८६८) अर्धतृतीय द्वीप जंबूद्वीप, धातकीखण्ड और अर्द्धपुष्कर द्वीप का समुच्चय। इसे मनुष्यक्षेत्र (अढाई द्वीप) भी कहा जाता है।
(प्रज्ञा २.२९) (द्र समयक्षेत्र) अर्धनाराच संहनन वह अस्थिरचना, जिसमें हड्डी का एक छोर मर्कटबन्ध से बंधा हुआ होता है तथा दूसरा छोर कील से बंधा हुआ होता है। यत्र त्वेकतो मर्कटबन्धो द्वितीयपाओँ कीलिका तदर्द्धनाराचम्।
(स्था ६.३० वृप ३३९) अर्द्धपर्यंका निषद्या का एक प्रकार। एक पैर को साथल (सक्थि) पर टिकाकर बैठना। अर्द्धपर्यंडा-ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणेति।
(स्था ५.५० वृ प २८७) अर्पणा
(भिक्षु ४.७) (द्र अर्पित)
अर्पित अनन्तधर्मात्मक द्रव्य के प्रतिपादन में की जाने वाली एक धर्म की विवक्षा। अनेकात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशात् यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितप्राधान्यमर्थरूपमर्पितम्पनीतम्।
(तवा ५.३२) अर्पितानर्पित द्रव्यानुयोग का एक प्रकार। द्रव्य के मुख्य और गौण धर्म का विचार करना। 'अप्पियाणप्पिए'त्ति द्रव्यं ह्यर्पितं-विशेषितं यथा जीवद्रव्यं, किंविधं ?-संसारीति, संसार्यपि त्रसरूपं त्रसरूपमपि पञ्चेन्द्रियं तदपि नररूपमित्यादि, अनर्पितं-अविशेषितमेव, यथा जीवद्रव्यमिति, ततश्चार्पितं च तदनप्तिं चेत्यर्पितं चेत्यर्पितानर्पितं द्रव्यं भवतीति द्रव्यानुयोगः।
(स्था १०.४६ वृ प ४५६) अर्हत् १. तीर्थंकर । प्रवचनकार, जो अर्थ की प्ररूपणा करते हैं। तित्थं चाउवण्णो संघो, सो पढमए समोसरणे। उप्पण्णे अ जिणाणं वीरजिणिंदस्स बीअंमि॥
(आवनि २६५) अत्थं भासइ अरहा।
(आवनि ९२) २. वह ज्ञानी, जिसकी इन्द्रियातीत चेतना का विकास हो चुका हो। अतीन्द्रियज्ञानी-अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी। तओ अरहा पण्णत्ता, तं जहा-ओहिणाणअरहा, मणपज्जवणाणअरहा, केवलणाणअरहा। (स्था ३.५१४)
अलंकारिकसभा वह अलंकारकक्ष, जहां इन्द्र अपने को अलंकृत करता है। अलंकारिका यस्यामलंक्रियते। (स्था ५.२३५ वृ प ३३४)
अलमस्तु केवली, जो ज्ञान की परम कोटि तक पहुंच चुका हो, जिसके लिए कोई ज्ञान पाना शेष न हो। ..."उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया॥
(भग १.२०९) 'अलमत्थु' त्ति .....अलमस्तु पर्याप्तं भवतु, नातः परं किञ्चिद् ज्ञानान्तरं प्राप्तव्यमस्यास्तीति। (भग १.२०९७)
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अलाभ परीषह
परीषह का एक प्रकार । अभीष्ट वस्तु के न मिलने पर होने वाली खिन्नता, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। परेसु घासमेसेज्जा भोयणे परिणिट्टिए । लद्धे पिंडे अलद्धे वा नाणुतप्पेज्ज संजए ॥ अजेवाहं न लब्धामि अवि लाभो सुए सिया । जो एवं पंडिसंविक्खे अलाभो तं न तज्जए ॥
( उ २.३०, ३१)
अलोक
वह आकाशखण्ड, जिसमें आकाश के अतिरिक्त धर्मास्तिकाय आदि कोई द्रव्य नहीं होता ।
''अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ॥ (उ ३६.२) शेषद्रव्यशून्यमाकाशमलोकः । (जैसिदी १. १३)
अलोकाकाशश्रेणि
अलोकाकाश के प्रदेशों की पंक्तियां, जो पूर्व-पश्चिम-आयत, दक्षिण-उत्तर - आयत और ऊर्ध्व-अधः- आयत होती हैं, द्रव्य से अनंत होती हैं।
अलोगागाससेढीओ णं भंते! दव्वट्टयाए किं संखेज्जाओ ? असंखेज्जाओ ? अणंताओ ?
गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखज्जाओ, अणंताओ । एवं पाईणपडीणायताओ वि । एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। महायताओ वि (भग २५.७७)
अलोभ
योगसंग्रह का एक प्रकार । निर्लोभता का आचरण । 'अलोभे य' त्ति अलोभता विधेया ।
(सम ३२.१ वृ प ५५)
अल्प अवग्रह मति व्यावहारिक अर्थावग्रह का एक प्रकार। एक का अवग्रहण करना, जैसे- तत, वितत, घन, शुषिर आदि शब्दों में से किसी एक का ग्रहण करना । .....ततशब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दं गृह्णाति ।
( तवा १.१६.१६)
(द्र एक अवग्रहमति)
अल्पलेपिका
'पिण्डैषणा का एक प्रकार । रूखा आहार लेना, जैसे- वल्ल, चना आदि ।
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
सा अप्पलेविया जा निल्लेवा वल्लचणगाई । ( प्रसा ७४१ ) अल्पेच्छता
मुनि की वह वृत्ति, जिसके आधार पर वह प्राप्त पदार्थों में मूर्च्छा नहीं करता तथा आवश्यकता से अधिक ग्रहण नहीं
करता ।
अप्पिच्छया णाम णो मुच्छं करेइ, ण वा अतिरित्ताण गिण्हइ । (द ९.३.५ जिचू पृ ३२० )
अवकाशान्तर
अवकाश रूप अन्तराल । तनुवात, घनवात आदि अथवा कृष्णराजियों अथवा रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के मध्यवर्ती
आकाश ।
सत्त ओवासंतरा पण्णत्ता ।
एतेसुं णं सत्तसु ओवासंतरेसु सत्त तणुवाया पट्टिया । (स्था ७.१८, १९) 'अट्ठसु उवासंतरेसु' त्ति द्वयोरन्तरमवकाशान्तरम् । (भग ६.१०६ वृ) 'अवकाशान्तरात्' आकाशविशेषादवकाशरूपान्तरालाद् वा । (भग १.२५६ वृ)
अवक्तव्यकसञ्चित
संख्यात और असंख्यात दोनों प्रकार से व्यक्त नहीं होने वाली राशि अर्थात् एक ( एक को संख्या नहीं माना जाता ) । यः परिमाणविशेषो न कति नाप्यकतीति शक्यते वक्तुं सोऽवक्तव्यकः स चैक इति तत्सञ्चिता अवक्तव्यकसञ्चिताः । (स्था ३.७ वृ प ९९ )
(द्र अकतिसञ्चित)
अवगाढ
वस्तु का व्याप्ति - क्षेत्र, जितने क्षेत्र में वस्तु व्याप्त होती है, उतना क्षेत्र अवगाढ कहलाता है । (प्रज्ञा ३.१८० )
अवगाढरुचि
अनेक नयवादों - विकल्पों से युक्त गंभीर श्रुत के अर्थश्रवण से उत्पन्न तीव्र संवेग ।
गाहरु णाम अगनयवायभंगुरं सुयं अत्थओ सोऊण महता संवेगमावज्जइ एस ओगाहरुई । (दजिचू पृ ३४)
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'जैन पारिभाषिक शब्दकोश
३७
अवगाहना
अवग्रहकल्पिक. सूत्रमत्र आचारद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य शरीर अथवा उसका आधारभूत क्षेत्र जीव के शरीर की सप्तमम् अवग्रहप्रतिमानामकमध्ययनम्। (बृभा ६६९ वृ) ऊंचाई-लम्बाई आदि।
पढिते य कहिय अहिगय, परिहरति"कप्पितो सो उ... अवगाहन्ते-आसते यस्यां (जीवाः) साऽवगाहना-तनुस्त
(बृभा ४१६) दाधारभूतं वा क्षेत्रं.....।
(भग १.२१९ वृ)
अवग्रहण
अवग्रह की पहली अवस्था, जिसमें व्यञ्जनावग्रह के प्रथम अवगाहनागुण
समय में प्रविष्ट अथवा सन्निकृष्ट पुद्गलों का ज्ञान होता है। एक विशेष गुण, जिसके द्वारा आकाशास्तिकाय अवगाह का
वंजणोग्गहस्स पढमसमयपविट्ठपोग्गलाण गहणता हेतु बनता है।
ओगिण्हणता भण्णति। (नन्दी ४३ चू पृ ३५) 'अवगाहणागुणे त्ति'... अवकाशहेतुः... |
(भग २.१२७ वृ) अवग्रहसमितियोग अवगाहनानामनिधत्तायु
ओग्गहं अणुण्णविय गेण्हियव्वं । एवं ओग्गहसमितिजोगेण
भावितो भवति अंतरप्पा। आयुबंध का एक प्रकार । औदारिक आदि शरीरनाम कर्म के
(प्रश्न ८.१०) साथ होने वाला आयु का निषेचन।
(द्र अवग्रहानुज्ञापना) गतिनामनिहत्ताउए इति गति: नरकगत्यादिभेदाच्चतर्खा सैव
अवग्रहसीमाज्ञान नाम गतिनाम तेन सह निधत्तमायुः. गतिनामनिधत्तायुः""शरीरं
अचौर्य महाव्रत की दूसरी भावना। गृहस्वामी द्वारा अनुज्ञात औदारिकादिः तस्य नाम औदारिकादिशरीरनामकर्म अवगाह
अवग्रह (स्थान) की सीमा को जानना। नानाम।
(प्रजा ११८ वृ प २१८) ( १९०८
तत्र च अनुज्ञाते सीमापरिज्ञानम्। (सम २५.१.१२ वृ प ४३) अवगृहीत
अवग्रहानुज्ञापना पिण्डैषणा का एक प्रकार । खाने के लिए थाली में परोसा
अचौर्य महाव्रत की प्रथम भावना। अवग्रह (स्थान) के हुआ आहार लेना।
लिए गृहस्वामी की अनुज्ञा लेना। भोयणकाले निहिया सरावपमुहेसु होइ उग्गहिया।
तत्रावग्रहानुज्ञापना। (सम २५.१.११ वृ प ४३) (प्रसा ७४२)
(द्र अवग्रहसमितियोग) अवग्रह श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार । इन्द्रिय और अर्थ का अवधारिणी भाषा संयोग होने पर दर्शन के पश्चात् सामान्य अर्थ का ग्रहण १. वह भाषा, जिसके द्वारा अर्थ का अवधारण किया जाता होना।
है, जो अवबोध की बीजभूत होती है, जिसके माध्यम से अर्थानां रूपादीनां प्रथमं दर्शनानन्तरमेवाऽवग्रहणमवग्रहं
मनन और चिन्तन किया जाता है। (विभा १७९ वृ पृ९०)
'मन्ये' अवबुध्ये इति। एवमवधार्यते-अवगम्यतेऽनयेत्यवइन्द्रियार्थयोगे दर्शनानन्तरं सामान्यग्रहणमवग्रहः।
धारणी, अवबोधबीजभूतेयर्थः। (भ २.११५ वृ) (जैसिदी २.११)
मण्णामीति ओहारिणी भासा, चिंतेमीति ओहारिणी भासा। अवग्रहकल्पिक
(प्रज्ञा ११.१) वह मनि, जिसने आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध (आचार
अवधिज्ञान चूला) के 'अवग्रह प्रतिमा' नामक सातवें अध्ययन को पढ़ा
ज्ञान का एक प्रकार। इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना है, उसके अर्थ को सुना है, अभ्यास किया है, उस पर श्रद्धा
आत्मा से होने वाला मूर्त पदार्थों का ज्ञान। ज्ञेय वस्तु में की है और उसके अनुरूप अवग्रह (स्थान) का परिभोग
अवधान-एकाग्रता से होने वाला प्रत्यक्ष (अतीन्द्रिय) ज्ञान। करता है।
ब्रुवते।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अवधिर्मर्यादा; रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। (नन्दीमवृ प ६५) तेणावहीयए तम्मि वाऽवहाणं तओऽवही सो य मज्जाया। जं तीए दव्वाइ परोप्परं मुणइ तओऽवहि ति॥
(विभा ८२) (द्र अवधिदर्शन)
व्यापेक्षया पुनस्तद्ग्रहणावधिं यावज्जीवस्य मृतत्वादिति।
(सम १७.१ ७ प ३२) अवनामिनी वह विद्या, जिसके प्रयोग से वृक्ष की शाखा झुक जाती है। (द्र उन्नामिनी)
अवधिज्ञानावरण ज्ञानावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अवधिज्ञान आवृत होता है। पुद्गलद्रव्यमर्यादयैव वाऽऽत्मनः क्षयोपशमजः प्रकाशाविर्भावोऽवधि:"""तदावरणमवधिज्ञानावरणम्।
(तभा ८.७४) अवधिज्ञानी वह जीव, जो अवधिज्ञानयुक्त है। (भग ६.४५) (द्र अवधिज्ञान)
अवन्ध्य पूर्व ग्यारहवां पूर्व, जिसमें मोक्षमार्ग की दृष्टि से ज्ञान, तप आदि की सफलता एवं प्रमाद आदि की अशुभफलता का प्रज्ञापन किया गया है। एगादसमं अवंझं ति, वंझं णाम-णिप्फलं, ण वंझमवंझं, सफलेत्यर्थः, सव्वे णाणतवसंजमजोगा सफला वणिजंति, अप्पसत्था य पमादादिया सव्वे असुभफला वण्णिता, अतो अवंझं।
(नन्दी १०४ चू पृ ७६) अवम वह मुनि, जिसका प्रव्रज्या-पर्याय तीन वर्ष से कम है। अवमो नाम आरात् त्रिवर्षारतो यस्य प्रव्रज्यापर्यायेण त्रीणि वर्षाणि नाद्यापि परिपूर्णानि भवन्ति।
(व्यभा १६४७ वृ प ६२)
अवधिदर्शन दर्शन का एक प्रकार। मूर्त द्रव्यों का सामान्यग्राही प्रत्यक्ष (अतीन्द्रिय) बोध। अवधिना-रूपिमर्यादया अवधिरेव वा करणनिरपेक्षो बोधरूपो दर्शनं सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनम्।
(स्था वृ प ४२५) (द्र अवधिज्ञान) अवधिदर्शनावरण दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अवधिदर्शन आवृत होता है। सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनं तस्यावरणमवधिदर्शनावरणम्।
(स्था ९.१४ वृ प ४२५) अवधिमरण मरण का एक प्रकार। एक बार जिन आयुष्य कर्म के दलिकों का वेदन कर मरता है, उन्हीं कर्मदलिकों का पुनः वेदन कर मरना। अवधि:-मर्यादा तेन मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्र
अवमान विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण का एक प्रकार, जिससे लम्बाई, चौड़ाई और गहराई का माप किया जाता है। ओमाणे-जण्णं ओमिणिज्जइ। (अनु ३८०) अवमोदरिका बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार। आहार, पानी, वस्त्र, पात्र और कषाय का अल्पीकरण । सा दुविहा-दव्वे भावे या दव्वे उवकरणे भत्तपाणे या" भावोमोयरिया चउण्हं कसायाणं। (दअचू पृ १३) अवर्णवाद राग-द्वेष और मोह के आवेश से केवली, श्रुत, संघ आदि के असदभत दोषों का उदभावन करना. जो दर्शनमोह कर्म के बंध का हेतु है। रागद्वेषमोहसमावेशादसद्भूतदोषोद्भावनं"निन्दाप्रख्यापन वा वदनं वा दोषभाषणमवर्णस्य वादोऽवर्णवादः ।
(तभा ६.१४ वृ)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।
(तसू ६.१४)
अवलम्बन
अवग्रह की चौथी अवस्था, जिसमें विशेष - सामान्य अर्थ का अवग्रह होता है।
विसेससामण्णत्थावग्गहकाले अवलंबणता भण्णति । (नन्दी ४३ चू पृ ३५, ३६ )
अवसन्न
वह मुनि, जो सामाचारी के पालन में प्रमाद करता है। सामाचारीविषयेऽवसीदति -प्रमाद्यति यः सोऽवसन्नः ।
(प्रसा १०३ वृप २५)
अवसर्पिणी
असंख्य वर्षों का एक कालखण्ड, जो दस कोटिकोटि अद्धा सागरोपम होता है । समय (कालचक्र) का अवरोही चक्र या क्रम। इसमें आयुष्य, शरीर आदि का परिमाण कम हो जाता है।
'ओसप्पिणी ' त्ति अवसपति हीयमानारकतया अवसर्प्पयति assयुष्कशरीरादिभावान् हापयतीत् णी सागरोपमकोटीकोटीदशकप्रमाणः कालविशेषः ।
(स्था १.१२७ वृ प २७) दस सागरोपमकोडाकोडी कालो ओसप्पिणी ।
(भग ६.१३४ )
(द्र उत्सर्पिणी)
अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी
बारह अर (विभाग) वाला एक कालचक्र, जिसका कालमान बीसकोटाकोटि सागरोपम होता है।
वीसं सागरोपमकोडाकोडी कालो ओसप्पिणी उस्सप्पिणी (भग ६.१३४)
य।
अवस्थितकल्प (द्र स्थितकल्प)
अवस्वापिनी
वह विद्या, जिसके प्रयोग से व्यक्तियों को निद्रामग्न कर दिया जाता है। (व्यभा १५२९)
अवाच्य
युगपद् अनेक धर्मों का कथन नहीं किया जा सकता, इस
अपेक्षा से धर्मी अवाच्य है। वाचामविषयमवाच्यम् ।
युगपद् अनेक धर्मापेक्षया च अवाच्यम्
( भिक्षु ६. १० )
।
( भिक्षु ६. ११)
अवाय
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का तीसरा प्रकार। ईहा के पश्चात् उत्पन्न होने वाला 'अमुक है', 'अमुक नहीं है' इस प्रकार का निश्चयात्मक अवबोध, जैसे-यह शंख का ही शब्द है । अवगृहीतस्येहितस्यार्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवायः । ( नन्दी ३९ मवृ प १६८ )
अविग्रहगतिसमापन्न
१. उत्पत्तिस्थान में स्थित जीव । २. ऋजुगतिक जीव ।
अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते ।
३९
अविग्रहगतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिकः स्थितो वा ।
(भग १४.५४,५५ वृ)
(भग १.३३५ वृ)
अविधिनिर्गत
वह मुनि, जो आचारहीनता और अनुशासनहीनता के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
अविधिनिर्गताः सारणादिभिस्त्याजिता एकाकीभूताः ।
(बृभा ५८२५ वृ)
अविनाभाव
व्याप्ति - सहभावी के सहभाव का, क्रमभावी के क्रमभाव का नियम ।
सहक्रमभाविनोः सहक्रमभावनियमो ऽविनाभावः । (प्रमी १.२.१० )
(द्र व्याप्ति)
अविपाकजा निर्जरा
तप आदि के द्वारा निर्धारित समय से पहले होने वाली निर्जरा, जो स्वैच्छिक और अनैच्छिक दोनों प्रकार की होती है ।
कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णं बलादुदीर्योदयावलिकामनुप्रवेश्य वेद्यते पनसतिन्दुकाम्रफलपाकवत् सा त्वविपाकजा निर्जरा । (तभा ८.२४ वृ)
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अविभाग परिच्छेद वह अंश, जिसका और अंश न हो सके, न किया जा सके। अविभागाश्च ते परिच्छेदाश्चेत्यविभागपरिच्छेदाः, निरंशा अंशा इत्यर्थः।
(भग ८.४७९ वृ) अविरतसम्यग्दृष्टि जीवस्थान जीवस्थान/ गुणस्थान का चौथा प्रकार। सम्यग्दृष्टि होने पर भी जो अविरत है, असंयत है, उसकी आत्मविशुद्धि। अविरतसम्यग्दृष्टिर्देशविरतिरहितः। (सम १४.५ ७ प २६)
अव्यक्तिकवाद प्रवचननिह्नव का तीसरा प्रकार। यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार किसी भी वस्तु के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, सब कुछ अनिश्चित है, अव्यक्त है। अव्यक्तं-अस्फुटं वस्तु अभ्युपगमतो विद्यते येषां तेऽव्यक्तिकाः, संयताद्यवगमे सन्दिग्धबुद्धय इति भावना।
(स्था ७.१४० वृ प ३८९) अव्यथ शुक्लध्यान का एक लक्षण । देवों द्वारा कृत उपसर्ग से भयभीत या विचलित न होना। 'अव्वहे'त्ति देवादिकृतोपसर्गादिजनितं भयं चलनं वा व्यथा तस्या अभावो अव्यथम्। (स्था ४. ७० वृ प १८१) अव्यवहारराशि जीवों का अक्षय कोष।
(जैतवि १.१) (द्र असांव्यवहारिक जीव)
अविरति अप्रत्याख्यान मोह के उदय से आत्मा का हिंसा आदि में होने वाला अत्यागरूप अध्यवसाय। अप्रत्याख्यानमविरतिः। अप्रत्याख्यानादिमोहोदयात् आत्मनः आरम्भादेरपरित्यागरूपोऽध्यवसाय: अविरतिरुच्यते। (जैसिदी ४.२० वृ) अविरति आश्रव आत्मा का अविरतिरूप परिणाम, जो कर्म-पुद्गलों के आश्रवण का हेतु बनता है।
(स्था ५.१०९) (द्र आश्रव) अविशोधिकोटि १. वे द्रव्य, जिनका परिवर्तित रूप में भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। २. वे दोष, जिनका किसी भी स्थिति में शोधन नहीं होता, जैसे-आधाकर्म आदि छह उद्गमदोष। (द्र विशोधिकोटि)
अव्याकृता असत्यामृषा (व्यवहार)भाषा का एक प्रकार। वह भाषा, जिसमें शब्दों का अर्थ अति गंभीर हो और अक्षर का प्रयोग भी स्पष्ट न हो। अव्याकृता अतिगम्भीरशब्दार्था अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा अविभावितार्थत्वात्। (प्रज्ञा ११. ३७ वृ प २५९)
अव्याप्त लक्षणाभास का एक प्रकार । वह लक्षण, जो लक्ष्य के एक देश में मिलता है, जैसे-पशु वह होता है, जिसके विषाण होते हैं। लक्ष्यैकदेशवृत्तिरव्याप्तः। यथा-पशोर्विषाणित्वम्।
(भिक्षु १.७ वृ)
अविहेटक वह मुनि, जो आक्रोश, ताड़ना आदि के द्वारा दूसरों को । तिरस्कृत नहीं करता। अविहेडए णाम जं परं अक्कोसतेप्पणादीहिं न विधेडयति।
(द १०.१० जिचू पृ ३४३) अव्यक्त आलोचना आलोचना का एक दोष । अगीतार्थ के पास दोषों की आलोचना करना। अगीतार्थस्य गुरोः सकाशे यदालोचनं तत्सम्बन्धादव्यक्तमुच्यते।
(स्था १०.७० वृ प ४६१)
अव्याबाध १. वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक आदि रोगों का न होना। जं मेवातिय-पित्तिय-संभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता नो उदीरेंति, सेत्तं अव्वाबाहं।
(भग १८.२११) २. वह सुख, जो निरन्तर हो, जिसके मध्य कोई विघ्न बाधा न हो।
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'अव्याबाधम्'–उपरतसकलपीडं मौक्तम्।
अशुभप्रकृति (उशावृ प ५७८) वह कर्म-प्रकृति, जो अशुभ (विषाद के निमित्तभूत) रस से
युक्त होती है, जैसे-असातवेदनीय, नीचगोत्र आदि। अव्युच्छित्तिनय
नास्ति शुभो रसो यासु ता अशुभाः। (कप्र पृ ३४)
(भग ७.९४) (द्र द्रव्यार्थिकनय)
अशुभयोग
मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्ति, जिससे पापकर्म का अशन
बंध होता है। आहार का एक प्रकार।
."अशुभयोग:-असत्प्रवृत्तिः, स च अशुभकर्मपुद्गलान् वह द्रव्य, जिससे क्षुधा की निवृत्ति होती है। जैसे कूर,
आकर्षति।
(जैसिदी ४. २६ वृ) ओदन आदि।
अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः। (तवा ६.३) असिज्जइ खुहितेहिं जं तमसणं जहा कूरो एवमादीति।
(दजिचू पृ १५२)
अशुभ अनुप्रेक्षा अशबल
शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षा का एक प्रकार । पदार्थों की अशुभता स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था, जो स्नातक निर्ग्रन्थ के का अनुचिन्तन करना। निरतिचार चारित्र की सूचक है।
'असुभे'त्ति अशुभत्वं संसारस्येति गम्यते।
धी संसारो जंमि जुयाणओ परमरूवगव्वियओ। निरतिचारत्वादशबलः। (स्था ५.१८९ वृ प ३२०)
मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कडेवरे नियए॥ अशरण अनुप्रेक्षा
(स्था ४.७२ १ प १८१) दूसरी अनुप्रेक्षा । दुःख से घिरे हुए संसार में धर्म के सिवाय अशोक वृक्ष कोई शरण नहीं है-ऐसा अनुचिन्तन करना।
महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। देवकृत अतिशय। तीर्थंकर जन्मजरामरणव्याधि"मरणसमुत्थेन दुःखेनाभ्याहतस्य नीलाभ अशोक (कंकेल्लि) वृक्ष के नीचे सिंहासन पर आसीन जन्तोः संसारे शरणं न विद्यत इति चिन्तयेत्। (तभा ९.७)
होते हैं। अशरीरप्रतिबद्ध
जस्थ जत्थवि य णं अरहंता भगवंतो चिटुंति वा निसीयंति
वा, तत्थ तत्थवि य णं"असोगवरपायवो अभिसंजायइ। वह जीव, जो शरीर से मुक्त हो चुका है। (स्था ७.७८)
(सम ३४.१.११) अशुचित्व अनुप्रेक्षा
असोगवरपायवं जिणउच्चत्ताओ बारसगुणं सक्को विउव्वति। छठी अनुप्रेक्षा। शरीर की अशुचिता का अनुचिन्तन । रक्त,
__ (आवचू १ पृ ३२५) मल, मूत्र, वल्गम आदि से भरा हुआ यह शरीर अशुचि का भंडार है-ऐसा अनुचिन्तन करना।
अश्रुतनिश्रितमति अशुचि खल्विदं शरीरमिति चिन्तयेत्""निर्विण्णश्च शरीर
मतिज्ञान का एक प्रकार । आगम या अन्य किसी उपदेश का प्रहाणाय घटत इति अशुचित्वानुप्रेक्षा। (तभा ९. ७)
आश्रय लिए बिना होने वाला सहज ज्ञान ।
सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव अशुभनाम
यथावस्थितवस्तुसंस्पर्शि मतिज्ञानमुपजायते तद् अश्रुतनाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से नाभि के नीचे के ।
(नन्दी ३७ मवृ प १४४) अवयव अशुभ होते हैं। यदुदयवशात् नाभेरधस्तना पादादयोऽवयवा अशुभा भवन्ति ।
अश्रुत्वाकेवली तदशुभनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४)
___ असोच्चाकेवली, जो किसी भी सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं है,
निश्रितम्।
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४२
जिसे धर्म सुनने का अवसर भी प्राप्त नहीं है और आन्तरिक विशुद्धि का प्रकर्ष होने पर जिसे केवलज्ञान प्राप्त होता है । असोच्चा केवलनाणं उप्पाडेज्जा ॥ (भग ९.३१)
अश्लोकभय
वह भय, जो अकीर्ति की आशंका से होता है। अश्लोकभयं - अकीर्त्तिभयम् । (स्था ७.२७ वृ प ३६९)
अश्वरत्न
चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न । प्रकृष्ट वेग और महान् पराक्रम से युक्त घोड़ा।
तुरङ्गमगजी प्रकृष्टवेगमहापराक्रमादिगुणसमन्वितौ ।
अष्टमभक्त
तीन दिन का उपवास (तेला) । ''अट्टमेणं''।'' दिनत्रयानन्तरं भुक्तवान् ।
(द्र चतुर्थभक्त)
'अष्टमभक्तिक
तेला (तीन दिन का उपवास) करने वाला। अट्ठमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ गोयरकाला । (दशा ८ परि सू ४२)
(प्रसावृ प ३५० )
अष्टस्पर्शी
वह पुद्गल - स्कन्ध जो शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, गुरु, लघु, मृदु, कर्कश – इन आठों स्पर्श से युक्त है। वह गुरुलघुभारयुक्त होता है।
(द्र चतुःस्पर्शी)
अष्टाङ्गनिमित्त
अगुरूलहू चतुफासो अरूविदव्वा य होंति नायव्वा । सेसा उ अट्टकासा गुरुलहुया निच्छयणयस्स ॥
(द्र महानिमित्तज्ञता)
अष्टादशसहस्रशीलाङ्ग
(आ ९.४.७ भा)
(द्र ध्रुवशील)
(भ १.३९३ वृ)
( तवा ३.३६)
(द ८.४० जिचू पृ २८७)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अष्टापद
अनाचार का एक प्रकार। शतरंज खेलना, जो मुनि के लिए
अनाचरणीय है।
'अष्टापदं' द्यूतम् ।
(द ३.४ हावृ प ११७)
असंख्येय ( असंख्यात )
गणनासंख्या का एक प्रकार। संख्यातीत । उत्कृष्ट संख्येय में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य-परीत असंख्येय होता है। असंख्येय के तीन प्रकार हैं- परीत, युक्त और असंख्येय । इनमें से प्रत्येक के तीन प्रकार हैं- जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट । ( अनु ५७४, ५७६, ५७७, ५८७)
(द्र संख्येय)
असंख्येय जीव
वह वनस्पति, जिसके एक शरीर में असंख्येय जीव होते हैं। ...पुण्णाग णागरुक्खे सीवण्णि तहा असोगे य ॥ जे यावणे तपगारा । एतेसि णं मूला वि असंखेज्जजीविया, कंदा वि खंधा वि तया वि साला वि पवाला वि।'''' (प्रज्ञा १.३५)
असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय
वह पञ्चेन्द्रिय जीव, जो मन रहित होता है।
( भग २४,३०० )
असंज्ञिभूत
वह जीव, जो अमनस्क योनि से मरकर समनस्क योनि में पैदा हुआ हो। मन की क्षमता होने पर भी मस्तिष्कीय विकास के अभाव में जिसका मन व्यक्त न हुआ हो, जिसमें पूर्वजन्म कृत शुभ, अशुभ अथवा वैर आदि का स्मरण करने की क्षमता न हो ।
ये त्वसंज्ञिभ्यस्तेऽसंज्ञिभूताः, असंज्ञिनश्च पाश्चात्यं न किमपि जन्मान्तरकृतं शुभमशुभं वैरादिकं वा स्मरन्ति ।
(प्रज्ञा १७.९ वृ प ५५७,५५८)
असंज्ञिमनुष्य
अमनस्क पञ्चेन्द्रिय मनुष्य, जो समनस्क मनुष्य के मल, मूत्र आदि में उत्पन्न होता है ।
(भग २४.३०० )
असंज्ञिश्रुत
१ श्रुतज्ञान का एक प्रकार । कालिकी उपदेश संज्ञा से रहित
( अमनस्क) प्राणी का श्रुत।
(नन्दी ५५ )
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२. पर्यालोचनपूर्वक करणशक्ति से शून्य प्राणी का श्रुत। ३. मिथ्यादृष्टि का श्रुत। (द्र असंज्ञी)
असंवृतबकुश बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो प्रकट रूप में शरीर और उपकरण की विभूषा करता है। शरीरोपकरणभूषयोः"""प्रकटकारी असंवृतबकुशः।
(स्था ५.१८६ वृ प ३२०) असंव्यवहार्य (द्र स्थाप्य) असंसक्तवासवसतिसमितियोग
(प्रश्न ९.७) (द्र संसक्तशयनासन वर्जन)
असंज्ञी १. जिसके ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श नहीं होता, वह कालिकी उपदेश संज्ञा (मन) की अपेक्षा से असंज्ञी है। जस्स णं णस्थि ईहा, अपोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिंता, वीमंसा-से णं असण्णीति लब्भइ। (नन्दी ६२) २. जिस जीव में पर्यालोचनापर्वक करणशक्ति नहीं होती.. वह हेतु उपदेश संज्ञा की अपेक्षा से असंज्ञी है। जस्स णं नत्थि अभिसंधारणपुब्विया करणसत्ती-से णं असण्णीति भण्णई।
(नन्दी ६३) ३. वह व्यक्ति, जो मिथ्यादृष्टि सम्पन्न है। मिच्छाद्दिट्टी असण्णी भणितो। (नन्दीचू पृ ४७) असंदिग्ध अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार । विषय को संशय रहित ग्रहण करना, जैसे-स्पर्श के आधार पर जानना कि यह स्त्री
असंसारसमापन्न वह जीव, जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो चुका है। असंसारसमापन्ना मुक्ताः । (प्रज्ञा १.१० वृ प १८) असंसृष्ट पिण्डैषणा का एक प्रकार। देय वस्तु से अलिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार लेना। तंमि य संसट्ठा हत्थमत्तएहिं इमा पढम भिक्खा। तविवरीया बीया भिक्खा गिण्हंतयस्स भवे॥
(प्रसा ७४०) (द्र संसृष्ट)
निश्चितं सकलसंशयादिदोषरहितमिति, यथा तमेव योषिदादिस्पर्शमवगृह्णत् ज्ञानं योषित एव। (तभा १.१६ वृ) ..."निस्संकितं होतऽसंदिद्धं॥
(व्यभा ४१०८)
असम्भवी लक्षणाभास का एक प्रकार । वह लक्षण, जो अपने लक्ष्य में अंशतः भी नहीं मिलता, जैसे-पदगल का लक्षण चैतन्य। लक्ष्यमात्रावृत्तिरसंभवी। यथा-पुद्गलस्य चेतनत्वम्। (भिक्षु १.९ वृ) असंवृत अनगार १. वह साधु, जो आश्रव का निरोध नहीं कर रहा है। 'असंवृतः' अनिरुद्धाश्रवद्वारः'अणगारे'त्ति अविद्यमानगृहः, साधुरित्यर्थ।
(भग १.४४ वृ) २. मन, वाणी और काय का संवर नहीं करने वाला, उत्तरगुण में दोष लगाने वाला। (भभा खं. १ पृ ४०) ३. संयम से च्युत होने वाला। (भजो १.६.३४)
असत् सत् का प्रतिपक्ष, जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से शून्य है। उत्पादव्ययधौव्यात्मकं सत॥
(भिक्षु ६.२) तदितरदसत्॥ यन्नोपपद्यते, नव्येति, नच ध्रुवं, तदसत्, यथा आकाशकुसुमम्।
(भिक्षु ६.३ वृ) (द्र सत्) असतीपोषण कर्मादान का एक प्रकार । तीतर, तोता, मैना तथा दास-दासी का पोषण कर उनके विक्रय द्वारा आजीविका चलाना। सारिका-शुक-मार्जार-श्व-कुक्कुट-कलापिनाम्। पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः॥
___ (योशा ३.११२) असत्यो दुःशीलास्तासां दासीसारिकादीनां पोषणं पोषोऽसतीपोषः।
(प्रसावृ प ६३)
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असत्यामृषा भाषा भाषा का एक प्रकार। न सत्य न मृषा-व्यवहार भाषा, जैसे-आज्ञा देना, आमंत्रण देना आदि। आमंत्रणाज्ञापनादिविषया असत्यामृषा।
(प्रज्ञा ११.२ वृ प २४८) असद्भूत व्यवहारनय अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र आरोप करना, जैसे-परमाण को बहुप्रदेशी कहना। स्वजात्यसद्भूतव्यवहारो, यथा-परमाणुर्बहुप्रदेशीति कथनम्।
(आप २१८)
असमनुज्ञ अन्यतीर्थिक, जिसके दर्शन, वेश और सामाचारी का अनुमोदन नहीं किया जा सके। समनोज्ञो दृष्टितो लिङ्गतो, नतु भोजनादिभिः, तस्य, तद्विपरीतस्त्वसमनोज्ञः शाक्यादिः। (आ ८.१ वृ प २४०)
असमाधि १. मन की चंचलता। २. मानसिक तनाव। ३. असंतोष। समाधानं समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थः। न समाधिरसमाधिः। (आवहाव २ प १०९)
पाया है। इसका कोई व्यवहार, विभाग या भेद नहीं होता। ये पुनरनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते व्यवहारपथातीतत्वादसांव्यवहारिकाः। (प्रज्ञावृ प ३८०) असातवेदनीय वेदनीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शारीरिक और मानसिक दुःख का अनुभव होता है। यस्योदयात् पुनः शरीरे मनसि च दुःखमनुभवति तदसातवेदनीयम्।
(प्रज्ञा २३.१६ वृ प ४६७) असिद्ध हेत्वाभास अज्ञान, संदेह अथवा विपर्यय के कारण जिस हेतु के स्वरूप की प्रतीति नहीं होती, जैसे-शब्द अनित्य है, क्योंकि वह चाक्षुष है। अप्रतीयमानस्वरूपोऽसिद्धः। यस्य हेतोरज्ञानात् सन्देहाद् विपर्ययाद् वा स्वरूपंन प्रतीयते स असिद्धः, यथा-अनित्यः शब्दः, चाक्षुषत्वात्।
(भिक्षु ३.१७ वृ) असि परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। वे नरकपाल देव, जो नैरयिकों के हाथ, पैर, ऊरु, बाहु, सिर आदि अंग-प्रत्यंगों के अत्यधिक टुकड़े करते हैं। हत्थे पादे ऊरु-बाहु-सिरा-पास अंगमंगाणि। छिंदंति पगामं त, असिनेरइया निरयपाला॥
(सूत्रनि ७६) असिपत्रधनु परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार । वे असुर देव, जो असि आदि के द्वारा नैरयिकों के कर्ण, ओष्ठ, नासिका, हाथ, पैर, दांत, स्तन, नितम्ब, ऊरु तथा बाहु का छेदन-भेदन-शातन करते हैं। वे देव 'असिपत्र' वन को बीभत्स करके वायु की विकुर्वणा करते हैं। छायार्थी नारक जीव उन वृक्षों के नीचे बैठते हैं तो असिधारा की भांति तीक्ष्ण पत्ते उन पर गिरते हैं और उन्हें छिन्न करते हैं। कण्णो ?-नास-कर-चरण-दसण-थण-फिग्ग-ऊरु-बाहूणं। छेदण-भेदण-साडण-असिपत्तधणूहि पाडति॥
(सूत्रनि ७७) असिप्रधानाः पत्रधनुर्नामानो नरकपाला असिपत्रवनं बीभत्सं
असमाधिस्थान वह परिस्थिति, जो असमाधि का हेतु बनती है। न समाधिरसमाधिस्तस्याः स्थानानि-आश्रयभेदाः पर्याया वा।
(सम २०.१ वृ प ३६) असम्मोह शुक्लध्यान का एक लक्षण । सूक्ष्म पदार्थविषयक मूढता का न होना, भ्रांति का न होना। सूक्ष्मपदार्थविषयस्य च संमोहस्य मूढताया निषेधादसम्मोहः।
(स्था ४. ७० वृ प १८१) असांव्यवहारिक जीव वह जीव, जो अनादिकाल से निगोद-वनस्पति में है, जिसका वनस्पति के अतिरिक्त किसी भी जीव-जाति में अवतरण नहीं हुआ है, जो विकास की भूमिका का आरोहण नहीं कर
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कृत्वा तत्र छायार्थिनः समागतान् नारकान् वराकान् अस्यादिभिः पाटयन्ति, तथा.....स्फिगूरूबाहुनां.....शातनादीनि विकुर्वितवाताहतचलिततरुपातितासिपत्रादिना कुर्वन्ति।
(सूत्रनि ७७ वृ प ८४) असिरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न। युद्धभूमि में अप्रतिहत शक्ति वाला और अचूक वार करने वाला खड्ग। खड्गरत्नं-संग्रामभूमावप्रतिहतशक्तिः । (प्रसावृप ३५०)
२. उत्पाद-पर्याय। अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमड़। (भग १. १३३) ३. सामान्य गुण का एक प्रकार। पदार्थ का मौलिक धर्म, सत्ता या विद्यमानता। अस्तित्वं भावानां मौलो धर्मः सत्तारूपत्वम्।
(तभा २.७ वृ) (द्र सामान्य गुण) अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व चौथा पूर्व । इसमें अस्तित्व और नास्तित्व का प्रज्ञापन किया गया है। चउत्थं अस्थिणस्थिप्पवादं, ज लोये जहा अस्थि जहा वा णत्थि, अहवा सितवादाभिप्पादतो तदेवास्ति नास्तीत्येवं प्रवदति।
(नन्दी १०४ चू पृ७५)
असुर वह देव, जिसका समावेश भवनपति और व्यंतर की श्रेणी में होता है। न सुरा असुरा:-भवनपतिव्यन्तराः । (स्था १.४१ ७ प २०)
असुरकुमार भवनपति देव का एक प्रकार। वह देव, जिसका शरीर कृष्णवर्ण वाला और विशाल होता है तथा जिसका चिह्न है चूड़ामणि। गंभीराः श्रीमन्तः काला महाकाया रत्नोत्कटमुकुटभास्वराश्चूडामणिचिह्ना असुरकुमारा भवन्ति। (तभा ४.११ वृ) अस्तिकाय जिनका विभाग न हो सके वैसे प्रदेशों का स्कन्ध, जैसेधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय । समग्र जीव-राशि---जीवास्तिकाय समग्र परमाणु-राशि, जैसेपुद्गलास्तिकाय। दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे। दव्वओ णं अधम्मस्थिकाए एगे दव्वे। दव्वओ णं आगासत्थिकाए एगे दव्वे। दव्वओ णं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं। दव्वओ णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दव्वाइं। (भग २. १२५-१२९)
अस्तेय महाव्रत
(जैसिदी ६.६) (द्र सर्वअदत्तादानविरमण) अस्थितकल्प वह कल्प, जो मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय अनिवार्य नहीं था, जैसे-आचेलक्य, औद्देशिक, प्रतिक्रमण आदि। आचेलक्ये औद्देशिके प्रतिक्रमणे राजपिंडे मासकल्पे पर्युषणाकल्पेच सततसेवनीयत्वाभावान्मध्यमजिनसाधनामस्थितकल्पो ज्ञातव्यः, ते ह्येतानि स्थानानि कदाचिदेव पालयन्तीति।
(प्रसा ६५१ वृ प १८५) (द्र स्थितकल्प)
अस्तिकायधर्म पांच अस्तिकायों का स्वभाव। (स्था १०.१३५) (द्र अस्तिकाय) अस्तित्व १. सत्-जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। (तसू ५. २९)
अस्थिरनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जिह्वा आदि अवयव अस्थिर हो जाते हैं और कृश हो जाते हैं। यदुदयवशाज्जिह्वादीनामवयवानामस्थिरता भवति तदस्थिरनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) (द्र स्थिरनाम) अस्पृशद्गति १. वह गति, जिसमें एक परमाणु-पुद्गल दूसरे परमाणु-पुद्गलों व स्कन्धों का स्पर्श किये बिना गति करता है। अफुसमाणगती-जण्णं एतेसिं चेव अफुसित्ता णं गती
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पवत्तइ ।
(प्रज्ञा १६.४० ) २. मुक्त जीव की गति, जिसमें मुक्त जीव अन्तरालवर्ती आकाशप्रदेशों का स्पर्श किये बिना गति करता है। अस्पृशन्ती — सिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य सोऽस्पृशद्गतिः, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः ।
(औपवृ प २१६ ) ३. एक सामयिकी गति, जो द्वितीय समय और द्वितीय प्रदेश का स्पर्श किए बिना होती है।
गतिश्च समयान्तरं प्रदेशान्तरं वाऽस्पृशन्ती भवति । (तभा १०.५ वृ)
अस्वाध्यायिक
जिसमें आगम का स्वाध्याय न किया जा सके, वैसा देश और काल ।
न स्वाध्यायिकमस्वाध्यायिकं तत्कारणमपि च रुधिरादिकारणे कार्योपचारात् अस्वाध्यायिकमुच्यते ।
( आवहावृ २ पृ १६१ )
अहमिन्द्र
(द्र कल्पातीत देव)
अहिंसा
प्राणों का हनन न करना, प्राणीमात्र के प्रति संयम करना और अप्रमत्त रहना ।
प्राणानामनतिपातः सर्वभूतेषु संयमः अप्रमादो वा अहिंसा । (जैसिदी ६.७ ) (द ६.८)
अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएस संजमो ॥ अहिंसा महाव्रत
( प्रज्ञा २.६० )
(द्र सर्वप्राणातिपातविरमण )
अहिंसा संवर
(द्र सर्वप्राणातिपातविरमण )
( उ २१.१२)
( प्रश्न ६.१.२ )
अहेतुगम्य
आगमगम्य । वह पदार्थ, जो हेतु अथवा तर्क का विषय नहीं ( जैमी १.६ पृ १४० )
बनता ।
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अहेतुवाद
प्ररूपणा का वह सिद्धान्त, जहां हेतु अथवा तर्क का प्रयोग नहीं किया जाता।
(द्र हेतुवाद)
अहोविहार
संयमयात्रा । विषय - परिग्रह आदि के बंधन से मुक्त व्यक्ति की जीवन-यात्रा|
इच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए । अहोविहार:''''विषयपरिग्रहादेः बन्धनं छित्त्वा ये जीवनयात्रायां प्रस्थिता भवन्ति । (आभा २.१० )
आ
आकम्प्य आलोचना
आलोचना का एक दोष। सेवा आदि के द्वारा प्रायश्चित्त देने वाले की आराधना कर आलोचना लेना । वेयावच्चाईहिं पुव्वं, आगंपइत्तु आयरिए । आलोएइ कहं मे, थोवं वियरिज्ज पच्छित्तं ॥
(स्था १०.७० वृ प ४६० )
आकर्ष
आयुष्य कर्म के बंध के समय प्रयत्नपूर्वक किया जाने वाला कर्म-पुद्गलों का ग्रहण |
आकर्षो नाम तथाविधेन प्रयत्नेन कर्मपुद्गलोपादानम् । (प्रज्ञावृ प २१८) जीवा णं भंते! जातिणामणिहत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहिं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं अट्ठहिं ॥ (प्रज्ञा ६.१२० )
आकाशातिपाती
वह मुनि, जो आकाशगामिनी विद्या अथवा पादलेप आदि के प्रभाव से आकाश में यात्रा कर सकता है तथा आकाश से स्वर्ण-वृष्टि आदि कर सकता है। आकाशं - व्योमातिपतन्ति — अतिक्रामन्ति आकाशगामिविद्याप्रभावात् पादलेपादिप्रभावाद्वा आकाशाद्वा हिरण्यवृष्ट्यादिकमिष्टमनिष्टं वाऽतिशयेन पातयन्तीत्येवंशीला आकाशातिपातिनः । ( औप १.२४ वृ प ५४ )
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आकाशास्तिकाय वह द्रव्य, जिसका लक्षण है अवगाह देना। भायणं सव्वदव्वाणं, णहं ओगाहलक्खणं। (उ २८.९)
आगमतः द्रव्य निक्षेप द्रव्य निक्षेप का एक प्रकार । ज्ञाता की वह अवस्था, जिसमें वह ज्ञेय को जानता है किन्तु उसमें दत्तचित्त नहीं होता। आगमतः-जीवादिपदार्थज्ञोऽपि तत्राऽनुपयुक्तः।
(जैसिदी १०.८ वृ) आगमत: भाव निक्षेप भाव निक्षेप का एक प्रकार । ज्ञाता की वह अवस्था, जिसमें वह ज्ञेय को जानता है और उसमें दत्तचित्त भी होता है। उपाध्यायार्थज्ञस्तदनुभवपरिणतश्च आगमतो भावोपाध्यायः।
(जैसिदी १०.९ वृ)
आकिञ्चन्य श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार । शरीर. धर्मोपकरण आदि में ममत्व का वर्जन। शरीरधर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिञ्चन्यम्।
(तभा ९.६.९) आक्रोश परीषह परीषह का एक प्रकार । कठोर या अप्रिय वचन कहे जाने से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूवक सहनीय है। अक्कोसेज परो भिक्खं, न तेसिं पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले॥ सोच्चाणं फरुसा भासा, दारुणा गामकंटगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा, न ताओ मणसीकरे।
(उ २.२४,२५) आक्षेपणी वह कथा, जो तत्त्वज्ञान और चारित्र के प्रति आकर्षण उत्पन्न करती है। मोहात् तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताऽनयेत्याक्षेपणी।
(स्था ४.२४६ वृ प २००) आगति जीव का पूर्वभव से वर्तमान भव में आना। आगइ त्ति आगमनमागतिः-नारकत्वादेरेव प्रतिनिवृत्तिः।
(स्था १.२६ वृ प १९) (द्र गति)
आगम व्यवहार व्यवहार का एक प्रकार। केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और नवपूर्वी से प्राप्त होने वाला निर्देश। केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। चोद्दस-दस-नवपुव्वी, आगमववहारिणो धीरा॥
(व्यभा ४५२९)
आगमसम्पन्न वह मुनि, जो चतुर्दशपूर्वी है अथवा एकादश अंगों का अध्येता या वाचक तथा स्वसमय-परसमय को जानने वाला है। आगमसंपन्नं नाम वायगं, एक्कारसंगंच, अन्नं वा ससमयपरसमयवियाणगं।
(द ६.१ जिचू पृ २०८) आगाढयोग योग (स्वाध्यायभूमि) का एक प्रकार । जिस योगवहन में आहार आदि से संबंधित प्रबल नियंत्रण होता है, जैसेभगवती आदि आगमग्रंथों के अध्ययन-काल में नौ प्रकार की विकृतियों (दूध आदि रसों) का वर्जन किया जाता है। आगाढमणागाढे, दुविधे जोगे य समासतो होति. आगाढतरा जमि जोगे जंतणा..."यथा भगवतीत्यादि। इतरो....उत्तराध्ययनादि।
(निभा १५९४ चू) .....सज्झायभूमि दुविधा, आगाढा चेवऽणागाढा॥
(व्यभा २११७) आगामिपथपिधान अन्तराय कर्म का एक प्रकार, जो भविष्य में होने वाले लाभ के मार्ग को रोकता है।
आगम १. आप्तपुरुष के वचन से होने वाला वस्तु का ज्ञान। आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः। (प्रनत ४. १) । २. आप्तपुरुष का वचन। आगमो णाम अत्तवयणं। (आवचू १ पृ २८) ३. केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी यावत् अभिन्न दशपूर्वी। (नन्दीटि पृ १७४)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
आगामिनो-लब्धव्यस्य वस्तुनः पन्था आगामिपथस्तमिति, क्वचिदागामिपथानिति दृश्यते, क्वचिच्च आगमपहं ति, तत्र च लाभमार्गमित्यर्थः। (स्था २.४३१ वृप ९२)
आचार में ध्रुवयोग (सतत जागरूकता) आदि विशेषताओं से उपलब्ध होती है। आयारसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-संजमधुवजोगजुत्ते यावि भवति, असंपग्गहियप्पा, अणियतवित्ती, वुड्डसीले यावि भवति। से तं आयारसंपदा॥
(दशा ४.४)
आग्नेयी धारणा पिण्डस्थ ध्यान का एक प्रकार। इसमें साधक यह अनुभव करता है कि नाभि-कमल प्रज्वलित हो रहा है। मेरे सब दोष दग्ध हो रहे हैं। नाभिकमलस्य प्रज्वलनेन अशेषदोषदाहचिन्तनमाग्नेयी।
(मनो ४. १९) आचामाम्ल (आयम्बिल) रसपरित्याग का एक प्रकार। दिन में एक समय, एक बार केवल कांजी युक्त एक धान्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खाना।
(औप ३५)
आचार १. योगसंग्रह का एक प्रकार। आचार का सम्यक् प्रकार से पालन करना, उसमें माया न करना। 'आयारे'त्ति....तत्राचारोपगतः स्यात् न मायां कुर्यादित्यर्थः।।
(सम ३२.१.२ वृ प ५५) २. द्वादशांग श्रुत का पहला अंग। इसमें श्रमणों के आचार तथा महावीर के तपस्वी जीवन का निरूपण किया गया है। आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं आयार-गोयर-विणयवेणइय-ट्ठाण-गमण-चंकमण-पमाण-जोगजुंजण-भासासमिति-गुत्ती-सेजोवहि-भत्तपाण-उग्गम-उप्यायण-एसणा-विसोहि-सुद्धासुद्धग्गहण-वयणियमतवोवहाणसुप्पसत्थमाहिज्जइ।
(समप्र ८९)
आचार्य धर्मसंघ में सात पदों से एक पद। जो पांच आचार-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य का स्वयं अनुपालन करता है, दूसरों को आचार का सक्रिय प्रशिक्षण देता है, जो अपने गुरु द्वारा गुरुपद पर स्थापित है, सूत्र-अर्थ तदुभय का ज्ञाता है, शिष्यों को सूत्र के अर्थ का अध्ययन कराने वाला है, वह आचार्य है। पंचविहं आयारं आयारमाणा तहा पभासंता। आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चंति॥ (आवनि ९९४) सुत्तत्थतदुभयादिगुणसम्पन्नो अप्पणो गुरुहिं गुरुपदे स्थावितो आयरिओ।
(अदचू पृ २१९) 'आचार्यः' गच्छाधिपतिः। (बृभा ४३३६ वृ) 'आचार्याः' अर्थदातारः।
(बृभा २७८० वृ) (द्र उपाध्याय) आच्छेद्य उद्गम दोष का एक प्रकार । निर्बल व्यक्ति से छीनकर दिया जाने वाला आहार आदि लेना। यद्बलादाच्छिद्य दीयते साधुभ्यस्तदाच्छेद्यम्।
(पिनि ९३ वृ प ६८)
आचारदशा
(स्था १०.११०)
आजीव उत्पादन-दोष का एक प्रकार। अपनी जाति, कुल आदि का परिचय देकर भिक्षा लेना। आजीवो-जाति-कुल-गण-शिल्पादिप्रकटनेन यल्लभ्यते।
(प्रसा ५६६)
(द्र दशाश्रुतस्कन्ध)
आचारधर वह मुनि, जो आचारांग के सूत्र-पाठ और अर्थ का विशेषज्ञ । होता है। अप्पेगइया आयारधरा।
(औप ४५)
आजीववृत्तिता अनाचार का एक प्रकार। जाति, कुल, गण, शिल्प और कर्म का अवलम्बन ले भिक्षा प्राप्त करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनम् आजीवः तेन वृत्तिस्तद्भाव आजीववृत्तिता। (द ३.६ हावृ प ११७)
आचारसम्पदा गणिसम्पदा का एक प्रकार। आचार्य की वह संपत्ति. जो
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आजीविक
आज्ञाविचय भगवान महावीर के समय का एक सुप्रसिद्ध श्रमण-सम्प्रदाय, धर्म्यध्यान का एक प्रकार। अतीन्द्रिय तत्त्व (आज्ञा) को ध्येय जिसका सिद्धांत था नियतिवाद। मंखलिपत्र गोशालक बनाकर उसमें होने वाली एकाग्रता। आजीविक सम्प्रदाय के धर्माचार्य थे।
तत्राज्ञा-सर्वज्ञप्रणीत आगमः।तामाज्ञामित्थं विचिनुयात्'आजीविका: ' गोशालकशिष्याः। (भग ८.२३० ७)
पर्यालोचयेत् "इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा ।
णासी" इत्यादि वचनात्।
(तभा ९.३७ वृ) पुरिसक्कारपरक्कमे इवा, नियता सव्वभावा।
आज्ञा व्यवहार (उपा ७.२४)
व्यवहार का एक प्रकार। देशान्तर में स्थित गीतार्थ से विधिआज्ञा
निषेध तथा प्रायश्चित्त का निर्णय प्राप्त करना। हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के लिए दिया जाने
यदगीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायावाला सर्वज्ञ का उपदेश, आगम।
तिचारालोचनमितरस्यापि तथैव शुद्धिदानं साऽऽज्ञा। आज्ञाप्यते इत्याज्ञा-हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया सर्वज्ञो
(स्था ५.१२४ वृ प ३०२) पदेशः। (आ ६.४९ वृप १०२)
आतङ्कदर्शी आज्ञापनिका क्रिया
जो हिंसा करने में स्वयं का अहित देखता है, आतंकक्रिया का एक प्रकार। आज्ञा देने से होने वाली क्रिया।
शारीरिक या मानसिक दुःख देखता है। आज्ञापनस्य-आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी सैवा
आतङ्कः-शारीरं मानसं वा दुःखम्। यो हिंसाकरणे आतङ्क ज्ञापनिका।
(स्था २.२९ वृ प ३९)
पश्यति स आतङ्कदर्शी सहजमेव हिंसातो विरमति। आज्ञापनी
(आभा १.१४६) असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार। आदेश-निर्देश
आतपनाम के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा, जैसे--अमुक काम
नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव के अनुष्ण करो।
शरीर से भी उष्ण प्रकाश-रश्मियां निकलती हैं। आज्ञापनी-कार्ये परस्य प्रवर्त्तनं, यथेदं कुर्विति।
यदुदयात् जन्तुशरीराणि स्वरूपेणानुष्णान्यपि उष्णप्रकाश(प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९)
लक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम। आज्ञापरिणामक
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७३) वह शिष्य, जो गुरु की आज्ञा पर कारण पूछे बिना ही श्रद्धा
(द्र उद्योतनाम) करता है।
आतापनभूमि आज्ञापरिणामको नाम यद् आज्ञाप्यते तत्कारणं न पृच्छति
वह स्थान, जहां आतापना ली जाती है, जैसे-पर्वत का किमर्थमेतदिति किन्त्वाज्ञयैव कर्त्तव्यतया श्रद्दधाति।
शिखर, ऊंचा टीला आदि।
(भग २.६२) (व्यभा ४४४३ वृ)
आतापना आज्ञारुचि
तैजस शक्ति का विकास करने के लिए सूर्य के सम्मुख १. रुचि का एक प्रकार। राग, द्वेष, मोह और अज्ञान के दूर
विविध आसनों की मुद्रा में लिया जाने वाला सूर्य का हो जाने पर वीतराग की आज्ञा (वाणी) में होने वाली रुचि।।
आतप। २. आज्ञारुचि-सम्पन्न व्यक्ति।
.......सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरागो दोसो मोहो, अण्णाणं जस्स अवगयं होइ।
रित्तए....।
(भग ११.५९) आणाए रोयंतो, सो खलु आणारुई नाम॥ (उ २८.२०)e & Personal use Only
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आतुर
वह व्यक्ति, जो शारीरिक और मानसिक दुःखों से दुःखी होकर अत्यंत त्वरा करता है । सारीरमाणसेहिं दुक्खेहिं आतुरीभूतो अच्चत्थं तुरति आतुरो । ( आ १.१५ चूप १०८)
आतुरप्रतिषेवणा
प्रतिषेवणा का एक प्रकार। भूख-प्यास और रोग से अभिभूत होकर किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । क्षुत्पिपासाव्याधिभिरभिभूतः सन् यां करोति ।
(स्था १०.६९ वृ प ४६० )
आतुरप्रत्याख्यान उत्कालिक श्रुत (प्रकीर्णक) का एक प्रकार, जिसमें आतुर (ग्लान) को कराए जाने वाले प्रत्याख्यान का वर्णन है। आउरो - गिलाणो, तं किरियातीतं णातुं गीतत्था पच्चक्खावेंति, दिणे दिणे दव्वहासं करेंता अंते य सव्वदव्वदातणताए भत्ते वेरगंजणेंता भत्ते नित्तण्हस्स भवचरिमपच्चक्खाणं कारेंति, एतं जत्थऽज्झणे सवित्थरं वण्णिज्जड़ तमज्झयणं आउरपच्चक्खाणं । (नन्दी ७७ चू पृ ५८)
भोगों का
आतुरस्मरण अनाचार का एक प्रकार आतुर दशा में भुक्त स्मरण करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है । आउरीभूतस्स पुव्वभुत्ताणुसरणं । (द३.६ जिचू पृ ११४) आत्मदोषोपसंहार
योगसंग्रह का एक प्रकार। अपने दोषों के प्रवाह को समाप्त करना ।
'अत्तदोसोवसंहार' त्ति स्वकीयदोषस्य निरोधः ।
(सम ३२.१.३ वृ प ५५ )
आत्मप्रतिष्ठित क्रोध
अपने ही विचार और आचरण के निमित्त से अपने आप पर होने वाला आवेश ।
स्वयमाचरितस्य ऐहिकं प्रत्यपायमवबुध्य कश्चिदात्मन एवोपरि क्रुध्यति तदा आत्मप्रतिष्ठितः क्रोध इति ।
(प्रज्ञा १४.३ वृ प २९० )
आत्मप्रवाद पूर्व
सातवां पूर्व । इसमें आत्मा का नयों के द्वारा प्रज्ञापन किया
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गया है।
सत्तमं आयप्पवातं, आय त्ति-आत्मा, सोऽणेगहा जत्थ यदरिसणेहिं वणिज्जति तं आयप्पवादम् ।
(नन्दी १०४ चू पृ ७६)
आत्मभाववक्रता क्रिया
मायाप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । आत्मभाववञ्चनाअप्रशस्त आत्मभाव को प्रशस्त प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति | आत्मभावस्याप्रशस्तस्य वङ्कनता-वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववङ्कनता । (स्था २.१८ वृप ३८ ) आत्मरक्षक
१. इन्द्र का अंगरक्षक देव, जो शस्त्र से सन्नद्ध होकर पीछे खड़ा रहता है।
आत्मरक्षाः शिरोरक्षोपमाः ॥ प्रहरणोद्यता रौद्राः पृष्ठतोऽवस्थायिनः । ( तवा ४.४ ) २. अपने सामने होने वाले असत् आचरण की स्थिति में धार्मिक प्रेरणा, मौन और एकान्त गमन द्वारा अपनी आत्मा की रक्षा करना ।
तओ आयरक्खा पण्णत्ता, तं जहा -- धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता भवति, तुसिणीए वा सिया, उट्ठित्ता वा आताए एतमंतमवक्कमेज्जा । (स्था ३.३४८)
आत्मवाद
१. वह सिद्धान्त, जो जैन दार्शनिकों के द्वारा सम्मत है। आत्मवादाः – स्वसिद्धान्तप्रवादाः । ( औप २६ वृ प ६३) २. आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व का स्वीकार करने वाला सिद्धान्त । (आभा १.५ )
आत्मविशोधि
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार इस अध्ययन में आत्मविशुद्धि के विभिन्न साधनों का वर्णन है।
1
आत त्ति आत्मा, तस्स विसोही तवेण चरणगुणेहिं य आलोयणाविहाणेण य जहा भवति तहा जत्थ अज्झयणे वणिज्जति तमझयणं आतविसोही । (नन्दी ७७ चू पृ ५८ ) आत्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया क्रिया
अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। अपने शरीर की क्षति की उपेक्षा कर की जाने वाली प्रवृत्ति । तत्रात्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
कुर्वतः।
(स्था २.३४ वृ प ४०) .
आत्मा १. जीव का पर्यायवाची नाम। वह द्रव्य, जो चैतन्यमय असंख्य प्रदेशों का अविभाज्य पिण्ड है। (स्था १.२) (द्र द्रव्य आत्मा) २. जीव का पर्यायवाची नाम। वह आत्मा, जो सतत संक्लिष्ट अथवा असंक्लिष्ट रूपों में परिणत होती है। 'आय'त्ति सततगामित्वात्। (भग २०.१७ वृ) अतति-सन्ततं गच्छति शुद्धिसंक्लेशात्मकपरिणामान्तराणीत्यात्मा।
(उशावृ प५२) ३. जो आत्मा है, वह ज्ञाता है और जो ज्ञाता है, वह आत्मा है। जिस साधन से आत्मा जानती है, वह ज्ञान आत्मा है। जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया।
(आ ५. १०४)
आदर्शप्रश्न वह विद्या, जिसके द्वारा दर्पण पर देवता को अवतरित कर उत्तर प्राप्त किया जाता है। 'पसिणाई'ति प्रश्नविद्या: यकाभिः क्षौमकादिषु देवतावतार: क्रियत इति, तत्र क्षौमकं-वस्त्र, अद्दागो आदर्श:..।
(स्था १०.११६ वृ प ४८५) आदर्श विद्या वह विद्या, जिसके प्रयोग से दर्पण में रोगी के प्रतिबिम्ब का अपमार्जन किया जाता है, रोगी स्वस्थ हो जाता है। अदाए त्ति या आदर्शविद्या तया आतुर आदर्श प्रतिबिम्बितोऽपमाMते आतुरः प्रगुणो जायते। (व्यभा २४३९ वृ) आदाननिक्षेपसमिति योग अहिंसा महाव्रत की एक भावना। संयम की पुष्टि तथा सर्दीगर्मी, मच्छर आदि से बचाव करने के लिए राग-द्वेष मुक्त भाव से वस्त्र, पात्र, पट्ट आदि का उपयोग करना। संजमस्स उवबूहणट्ठयाए वातातव-दंसमसग-सीयपरिरक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरितव्वं संजतेण" ‘एवं आयाणभंडनिक्खेवणासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा।
(प्रश्न ६.२१)
आत्मांगुल अंगुल का एक प्रकार। क्षेत्र माप की एक इकाई । जिस काल में पुरुष की अंगुली का जो प्रमाण होता है, वह आत्मांगुल होता है। इसका प्रमाण (माप) अनियत होता है। जे णं जता मणूसा तेसिं जं होइ माणरूवं ति। तं भणियमिहायंगुलमणियतमाणं पुण इमं तु॥
__ (विभाकोवृ पृ १०८) (द्र प्रमाणांगुल, उत्सेधांगुल)
आदानभय
भय का एक प्रकार। धन आदि पदार्थों का अपहरण करने वाले से होने वाला भय। धनं तदर्थं चौरादिभ्यो यद्भयं तदादानभयम्।
(स्था ७.२७ वृ प ३६९)
आत्मागम गुरु के उपदेश के बिना स्वत: प्राप्त होने वाला आगम, जैसेतीर्थंकर के अर्थागम और गणधर के सूत्रागम। तत्र गुरूपदेशमन्तरेणात्मन एव आगम आत्मागमः।
(अनु ३९० मवृ प २०२)
आदाननिक्षेपणा समिति धर्मोपकरण को देखकर, उसका प्रमार्जन कर लेना और रखना। रजोहरणपात्रचीवरादीनां पीठफलकादीनां चावश्यकार्थं निरीक्ष्य प्रमृज्य चादाननिक्षेपौ आदाननिक्षेपणासमितिः।
(तभा ९.५)
आत्यन्तिक मरण मरण का एक प्रकार। वह मरण, जिसमें जीव वर्तमान आयुष्यकर्म के पुद्गलों का अनुभव कर मरण को प्राप्त हो, फिर उस भव में उत्पन्न न हो। आत्यन्तिकमरणं यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यति।
(सम १७.९ व प ३२)
आदेयनाम १. शुभ नाम कर्म की एक प्रकृति । जिसके उदय से जीव का वचन मान्य होता है और बोलने वाला जनता द्वारा सम्मान्य होता है। यदुदयवशात् यच्चेष्टते भाषते वा तत्सर्वं लोकः प्रमाणीकरोति
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नाम ।
दर्शनसमनन्तरमेव च जनोऽभ्युत्थानादि समाचरति तदादेय(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४, ४७५) २. जिसके उदय से शरीर प्रभायुक्त होता है । प्रभोपेतशरीरताकरणम् आदेयनाम । (तवा ८.११.३६)
आदेश
श्रुत के वे अंश, जो आगम में निबद्ध नहीं हैं, किन्तु जो आचार्य-परम्परा अथवा अनुश्रुति के आधार पर चलते हैं । वे आदेश पांच सौ हैं।
....अबद्धं आएसाणं हवंति पंचसया । (आवनि १०२३) आधाकर्म
उद्गम दोष का एक प्रकार । साधु के निमित्त पचन-पाचन आदि का संकल्प कर आहार आदि निष्पन्न करना । 'आधाय' विकल्प्य यतिं मनसि कृत्वा सचित्तस्याचित्तीकरणमचित्तस्य वा पाको निरुक्तादाधाकर्म ।
( योशा १.३८ वृ पृ १३३)
आधिकरणिकी क्रिया
१. हिंसात्मक अनुष्ठान और शस्त्र के संयोजन अथवा निर्माण से होने वाली क्रिया ।
अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम्-अनुष्ठानं बाह्यं वा वस्तु, इह च बाह्यं विवक्षितं खड्गादि, तत्र भवा आधिकरणिकी। (स्था २.५ वृप ३८ ) २. वह क्रिया, जिसमें हिंसा के साधनभूत उपकरणों का संग्रह किया जाता है। हिंसोपकरणादानादाधिकरणिकी क्रिया । ( तवा ६.५.८ )
आध्यात्मिक क्रिया
क्रियास्थान का आठवां प्रकार, वह क्रिया, जिसमें किसी बाह्य कारण के बिना अपने अंतरंग कारण से कषाय की प्रवृत्ति होती है। केइ पुरिसे सयमेव हीणे दीणे तस्स णं अज्झत्थिया असंसइया चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जंति, तं जहा- कोहे माणे माया लोहे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ । अमेरियट्टा अझथिए त्ति आहिए ॥
( सूत्र २. २.१० )
आन
श्वासयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करने वाली ऊर्जा ।
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
'आणमंति' त्ति आनन्ति ' अन प्राणने '। (द्र अपान)
आन-अपान
उच्छ्वास - नि:श्वास की आन्तरिक शक्ति ।
(भग १.१४ वृ)
(भग १.१४ भा)
आनत
नौवां स्वर्ग । कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की नौवीं आवासभूमि । ( उ ३६.२११ )
(देखें चित्र पृ ३४६)
आनप्राण पर्याप्ति
(प्रसा १३१७)
(द्र आनापान पर्याप्ति)
आनयनप्रयोग
देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार । संकल्पित देश से बाहर स्थित व्यक्ति से सचित्त आदि द्रव्य मंगाना । इह विशिष्टावधिके भूदेशाभिग्रहे परतः स्वयं गमनायोगाद्यदन्य: सचित्तादिद्रव्यानयने प्रयुज्यते सन्देशकप्रदानादिना 'त्वयेदमानेयम्' इत्यानयनप्रयोगः । (उपा १.४१ वृ पृ १९)
आनापान पर्याप्ति
छह पर्याप्तियों में चतुर्थ पर्याप्ति । श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करने वाली पौद्गलिक शक्ति की संरचना ।
पोग्गलजोग्गाणापाणूण गहण - णिसिरणसत्ती आणापाणुपज्जत्ती । (नन्दीचू पृ २२)
आनापान वर्गणा
वर्गणा का एक प्रकार । श्वासोच्छ्वास प्रायोग्य पुद्गल - - समूह | (विभा ६३६ वृ)
आनुगामिक अवधिज्ञान
वह अवधिज्ञान, जो अवधिज्ञानी का अनुगमन करता है, उसके साथ-साथ रहता है ।
गच्छन्तमनुगच्छति तदवधिज्ञानमानुगामिकम्।
( नन्दी ९ मवृ प ८१ )
आनुपूर्वी
द्रव्यों की क्रम-व्यवस्था । पदार्थ-संरचना और उसके क्रम
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
का सिद्धांत, जैसे-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी। पत्सु-द्रव्यादिभेदासु दृढधर्मता कार्या। पूर्वस्य पश्चादनुपूर्वं तस्य भाव इति"तस्मादनुपूर्वभावः आनु
(सम ३२.१.१ वृ प ५५) पूर्वी अनुक्रमोऽनुपरिपाटीति पर्यायाः, ज्यादिवस्तुसंहतिरिति
आपन्नपरिहार भावः। (अनु १०० हावृ पृ ३०)
वह मुनि, जिसे मासिक यावत् पाण्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त आनुपूर्वी अनशन
हुआ हो। अनशन का एक प्रकार। साधना के क्रम में प्राप्त होने वाला
आवण्णपरिहारो पुण जो मासियं वा जाव छम्मासियं वा अनशन-प्रव्रज्या, शिक्षापद यावत् गण-अव्यवच्छित्ति पर्यंत
पायच्छित्तं...।
(निभा ६२९५ चू) पदों का क्रमशः अनुशीलन करते हुए जीवन के अंतिम
आपाकप्राप्त समय में अनशन करना।
ईषत् परिपाक को प्राप्त कर्म-परमाणु। एक्केक्कं दुहा पडिवज्जइ-अहाणुपुवीए अणाणुपुव्वीए
'आपाकप्राप्तस्य' ईषत्पाकाभिमुखीभूतस्य"। य। पव्वज्जासिक्खापयादिकमेण मरणकालं पत्तस्स
(प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९) आणुपुव्वी, अत्थग्गहणाईए पदे अप्फासेत्ता अणाणुपुवी।
(निचू ३ पृ २९३)
आप्त
वह व्यक्ति, जो अभिधेय वस्तु को यथार्थ रूप में जानता है आनुपूर्वीनाम
और उसका यथार्थ रूप में प्रतिपादन करता है। नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अन्तराल गति में
अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीते यथाज्ञानं चाभिधत्ते जीव की वक्रगति के मार्ग का नियमन होता है।
स आप्तः ।
(प्रनत ४.४) कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिकाकारेण यथात । द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्था . गच्छतो जीवस्यानु- आप्रच्छना सामाचारी श्रेणिनियता गमनपरिपाटी आनुपूर्वी, तद्विपाक वेद्यं अपने या दूसरे से संबंधित कार्य करने से पूर्व गुरु से अनुमति नामकर्मापि कारणे कार्योपचारात् आनुपूर्वी नाम।
लेना। (प्रज्ञा २३.५४ वृप ४७३) आपुच्छणा सयंकरणे...॥
(उ २६.५) आन्तःपुरिकी विद्या
उच्छ्वासनिःश्वासौ विहाय सर्वकार्येष्वपि स्वपरसंबन्धिषु वह विद्या, जिसमें चिकित्सक रोगी का नाम लेकर अपने
गुरवः प्रष्टव्याः ।
(उशावृ प५३५) अंग का अपमार्जन करता है और रोगी स्वस्थ हो जाता है। आभिग्रहिक मित्थात्व आन्तःपुरे आन्तःपुरिकी विद्या भवति यया आतुरस्य नाम
मिथ्यात्व का एक प्रकार । वह दृष्टिकोण, जिसके द्वारा असत् गृहीत्वा आत्मनो अङ्गमपमार्जयति, आतुरश्च प्रगुणो जायते
तत्त्व आग्रहपूर्वक स्वीकृत होता है। सा आन्तःपुरिकी। (व्यभा २४३९ वृप २६)
आभिग्रहिकं पाखण्डिनां स्वस्वशास्त्रनियन्त्रितविवेकाआपत् प्रतिषेवणा
लोकानां परपक्षप्रतिक्षेपदक्षाणां भवति। प्रतिषेवणा का एक प्रकार। आपदा प्राप्त होने पर किया जाने
(योशा २.३ वृ पृ १६४) वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन।
आभिनिबोधिकज्ञान आपत्सु द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधासु....."ततोऽपि प्रतिषेवा
(नन्दी २) पृथिव्यादिसंघट्टादिरूपा भवति। (स्था १०.६९ वृ प ४६०)
(द्र मतिज्ञान) आपढ्ढधर्मता
आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय योगसंग्रह का एक प्रकार। कठिनाई के समय में धर्म में
ज्ञानावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके द्वारा आभिनिदृढता।
बोधिकज्ञान आवृत होता है। 'आवईसु दढधम्मय' त्ति प्रशस्तयोगसङ्ग्रहाय साधुनाऽऽ
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
आभिनिबोधिकज्ञानस्यावरणीयं आभिनिबोधिकज्ञाना- शरीरोपकरणभूषयोः सञ्चिन्त्यकारी आभोगबकुशः। वरणीयम्। (प्रज्ञा २३.२५ वृ प ४६७)
(स्था ५.१८७ वृ प ३२०) आभिनिवेशिक
आभ्यन्तर तप मिथ्यात्व का एक प्रकार । वह दृष्टिकोण, जिसके द्वारा सत् कर्म शरीर (सूक्ष्म शरीर) को प्रभावित करने वाला तप, चित्त तत्त्व को जान लेने पर भी असत तत्त्व का अभिनिवेश बना
निरोध की प्रधानता के कारण कर्मक्षय का अंतरंग कारण। रहता है।
आभ्यन्तरं-चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतत्वात्। आभिनिवेशिकं जानतोऽपि यथास्थितं वस्तु दुरभिनिवेश
(सम ६.४ वृ प १२) लेशविप्लावितधियो जमालेरिव भवति।
(योशा २.३ पृ १६५)
आभ्युपगमिकी वेदना
स्वेच्छा से स्वीकृत तपश्चर्या से होने वाली वेदना। आभियोगिक देव
आभ्युपगमिकी नाम या स्वयमभ्युपगम्यते। वह कल्पोपपन्न देव, जो प्रेष्य कर्म में नियुक्त होता है।
(प्रज्ञा ३५.१२ वृ प ५५७) अभियोगः-प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यमाणत्वम्-अभियोगेन जीवन्ति
(द्र औपक्रमिकी वेदना) इति आभियोगिकाः।
(रा १० वृ प५२)
आमन्त्रणी आभियोगी भावना
असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार। आमंत्रण के संक्लिष्ट भावना का एक प्रकार । सुख आदि से भावित चित्त
लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा, जैसे-हे देवदत्त ! वाले व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला मंत्र आदि का प्रयोग।
असत्यामृषा...."आमंतणि' इति तत्र आमन्त्रणी हे देवदत्त! मंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजंति।
इत्यादि।
(प्रज्ञा ११.३७ वृप २५९) सायरसइडिहेडं अभिओगं भावणं कुणइ॥
(उ ३६. २६४)
आम\षधि
लब्धि का एक प्रकार । हाथ आदि के स्पर्श मात्र से रोग दूर आभोग
करने वाली योगज विभूति। ईहा की पहली अवस्था, जिसमें विशेष अर्थाभिमुख आलोचन
करादिसंस्पर्शमात्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थो लब्धिः। प्रारम्भ हो जाता है।
(विभा ७७९ ७) ओग्गहसमयाणंतरं सब्भूतविसेसत्थाभिमुहमालोयणं आभोयणता भण्णति।
(नन्दी ४५ चू पृ ३६)
आम्नायार्थवाचक
वह आचार्य, जो आम्नाय-आगम के गूढ रहस्यमय अर्थों आभोगनिर्वर्तित
एवं उत्सर्ग-अपवादविधियों का प्रतिपादन करता है। कषाय के विपाक का ज्ञान होने पर भी प्रयोजन वश किया
आम्नाय-आगमस्तस्योत्सर्गापवादलक्षणोऽर्थस्तं वक्तीजाने वाला आवेश।
त्याम्नायार्थवाचकः, पारमर्षप्रवचनार्थकथनेनानग्राहकोऽक्षयदा परस्यापराधं सम्यगवबुद्धय कोपकारणं च व्यवहारतः
निषद्यानुज्ञायी पञ्चम आचार्यः। (तभा ९.६ वृ) पुष्टमवलम्ब्य नान्यथाऽस्य शिक्षोपजायते इत्याभोग्य कोपं विधत्ते तदा स कोप आभोगनिर्वर्तितः।
आयतचक्षु (प्रज्ञा १४.९ वृ प २९१)
वह व्यक्ति, जिसका चक्षु संयत हो, दृष्टि अनिमेष हो। आभोगबकुश
आयतचक्षुः-संयतचक्षुः अनिमेषदृष्टिरिति यावत्।
(आभा २.१२५) बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो चिन्तनपूर्वक शरीर और उपकरण की विभूषा करता है।
आयुसंवर्तक
आयुष्य का संवर्तन-अकाल मरण-यह मनुष्य और पंचेन्द्रिय For Private & Personal use only
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तिर्यञ्चयोनिक जीवों के होता है।
आरम्भ दोण्हं आउय-संवट्टए पण्णत्ते, तं जहा-मणुस्साणं चेव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव।
जीव-वध की प्रवृत्ति। (स्था २.२६७) प्राणिवधः आरम्भः॥
(तभा ६.९) आयुष्मन्
आरम्भक्रिया शिष्य के लिए प्रयुक्त होने वाला मंगलसूचक आमन्त्रण। आयुष्मन्नित्यनेन शिष्यस्यामन्त्रणम्।
क्रिया का एक प्रकार। छेदन-भेदन, हिंसा आदि क्रियाओं में
तत्पर होना अथवा अन्य के द्वारा हिंसा आदि व्यापार किये (द ४.१ जिचू पृ १३०)
जाने पर हर्षित होना। आयुष्यकर्म
छेदनभेदनवित्रंसनादिक्रियापरत्वम, अन्येन चारम्भे क्रियमाणे वह कर्म, जिसके उदय से जीव भवस्थिति को प्राप्त होता प्रहर्ष आरम्भक्रिया।
(तवा ६.५.११) है-नरक आदि अवस्थाओं को जीता है और इसके क्षय से
आरम्भ प्रतिमा जीव मृत कहलाता है। एति भवस्थितिं जीवो येन इति आयुः। (जैसिदी ४.३ वृ)
उपासक-प्रतिमा का आठवां प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक
पृथ्वी आदि जीवों का स्वयं आरंभ-हिंसा नहीं करता। आ समन्तादेति-गच्छति भवाद् भवान्तरसङ्क्रान्तौ विपाकोदयमित्यायुः।
(प्रज्ञावृ प ४५४)
आरंभसयंकरणं अट्ठमिया अट्ठ मास वजेइ। (प्रसा ९९०) यस्योदयात् प्रायोग्यप्रकृतिविशेषानुशायीभूत आत्मा नारका- आरम्भनिश्रित दिभावेन जीवति यस्य च क्षयान्मृत उच्यते तदायुः। वह व्यक्ति, जो हिंसायुक्त व्यापार में आसक्त होता है।
(तभा ८.११ वृ) आरम्भे-प्राण्युपमर्दनकारिणि व्यापारेनि:श्रिता-आसक्ताः आयुष्य प्राण
संबद्धा अध्युपपन्नाः। (सूत्र १.१.१० वृ प २०) वह प्राण, जो जीवन को बनाए रखने की शक्ति के लिए आराधक उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६) लक्ष्य-सिद्धि के लिए सम्यक् साधना करने वाला। आयोजिका क्रिया
(स्था ४.४२६)
आलोयणपरिणतो, सम्मं संपट्ठितो गुरुसगासे। वह क्रिया, जिसके द्वारा जीव अशुभ कर्म से बंधता है,
जदि अंतरा उकालं करेज्ज आराहओ तहऽवि॥ जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करता है।
(निभा ६३१२) आयोजयन्ति जीवं संसारे इत्यायोजिकाः।
(द्र आराधना) (प्रज्ञा २२.५७ वृ प ४४५)
आराधना आरण
लक्ष्य-सिद्धि के लिए की जाने वाली सम्यक साधना। ग्यारहवां स्वर्ग। कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की ग्यारहवीं
'आराहण'त्ति आराधना-निरतिचारतयाऽनुपालना। आवासभूमि। (उ ३६.२११)
(भग ८.४५१७) (देखें चित्र पृ ३४६) आरभटा
आरोपणा प्रायश्चित्त प्रतिलेखना का एक दोष । विधि से विपरीत प्रतिलेखन करना
चतुर्विध प्रायश्चित्त का तीसरा प्रकार। एक प्रमाद का अथवा एक वस्त्र का पूरा प्रतिलेखन किए बिना आकुलता
प्रायश्चित्त हुआ, दूसरा प्रमाद, उसका प्रायश्चित्त हुआ-इस से दूसरे वस्त्र को ग्रहण करना।
प्रकार आगे से आगे होने वाला प्रायश्चित्त । एक दोष का आरभटा विपरीतकरणमुच्यते त्वरितं वाऽन्यान्यवस्त्रग्रहणे
प्रायश्चित्त चल रहा हो, उस बीच में ही उस दोष को पुनः नासौ भवति।
(उ २६.२६ शाव प५४१) Pivate & Personal Use Only
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पुनः सेवन करने पर विजातीय प्रायश्चित्त का आरोपण किया जाता है। यह आरोपणा षाण्मासिक प्रायश्चित्त तक की जा सकती है।
आरोप्यते इति आरोपणा प्रायश्चित्तानामुपर्युपर्यारोपणम् । (व्यभा ३६ वृ) एकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताध्यारोपणमारोपणा । (स्था ४.१३३ वृप २०० ) वीसे दाणाऽऽरोवण, मासादी जाव छम्मासा ।
(निभा ६२७२)
आर्जव योगसंग्रह का एक प्रकार । सरलता, वह भाव, जो माया से मुक्त है
'अज्जवे' त्ति आर्जव: - ऋजुभावः ।
(सम ३२.१.२ वृ प ५५)
आर्जव धर्म
श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार । १. शरीर, वचन और मन की अवक्रता ।
योगस्यावक्रता आर्जवम् ।
( तवा ९. ७. ४) २. भावविशुद्धता और अविसंवादन - कषायवश अयथार्थ तत्त्व का निरूपण नहीं करना ।
भावविशुद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम् । (तभा ९.६.३) आर्त्तगवेषणता
लोकोपचार विनय का एक प्रकार। रोगी के लिए औषध आदि की गवेषणा करना ।
आर्त्तस्य 'दुःखार्त्तस्य गवेषणं औषधादेरित्यातगवेषणं तदेवार्त्तगवेषणतेति, पीडितस्योपकार इत्यर्थः ।
(स्था ७.१३७ वृ प ३८८ )
आर्त्तध्यान
ध्यान का एक प्रकार । प्रिय का वियोग और अप्रिय का संयोग होने पर होने वाला संक्लेशपूर्ण चिन्तन । प्रियाप्रियवियोगसंयोगे चिन्तनमार्त्तम् । (जैसिदी ६.४६ )
आर्या
वह साध्वी, जो संयम, महाव्रत की साधना करती है । 'आर्या' संयत्यः । (बृभा ४१२० वृ)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
आलोकभाजनभोजन
अहिंसा महाव्रत की एक भावना। जिस पात्र का मुंह चौड़ा हो, जिसमें खाद्य वस्तु दिखाई देती हो, उस पात्र में भोजन
करना ।
आलोकभाजनभोजनं - आलोकनपूर्वं भाजने - पात्रे भोजनं भक्तादेरभ्यवहरणम्, अनालोक्यभाजनभोजने हि प्राणिहिंसा सम्भवति । (सम २५.१.४ वृ प ४३ )
आलोचना
दशविध प्रायश्चित्त का पहला प्रकार। गुरु को सूचित किए बिना परस्पर वाचना, परिवर्तना करने पर तथा वस्त्र आदि का आदान-प्रदान करने पर गुरु को निवेदन करना । परोप्परस्स वायणपरियदृणवत्थदाणादिए अणालोतिए गुरूणं अविणओ त्ति आलोयणारिहं । (आवचू २ पृ २४६)
आवर्जीकरण
कर्म-स्कन्धों को उदीरणावलिका में प्रक्षिप्त करने का प्रयत्न । आवर्जीकरणम् - उदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपम् । (औप १७३ वृ पृ २०८ )
(द्र उदयावलिका प्राप्त )
आवर्त्तन
अवाय की पहली अवस्था, जिसमें ईहा का कार्य सम्पन्न होने पर अर्थ के स्वरूप का बोध होता है।
भावनियत्तस्स अत्थसरूवपडिबोधबुद्धस्स य परिच्छेदमुपादतस्स आउट्टता भण्णति । (नन्दी ४७ चू पृ ३६)
आवलिका
१. परम्परा से प्राप्त श्रुत की उपसम्पदा ।
या सा श्रुतोपसम्पत् परम्पराप्ता आवलिका ज्ञातव्या । (व्यभा ३९८० वृ) २. असंख्य समयों का समुदय । १६७७७२१६ आवलिका का एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट) होता है । जघन्य- युक्त असंख्यात के तुल्य एक आवलिका की समयराशि है। असंखेज्जाणं समयाणं समुदय समिति-समागमेणं सा एगा आवलिया । ( अनु ४१७) ......जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं होइ । आवलिया वि तत्तिया चेव ।
(अनु ५९०)
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आयः-सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातनाः-खण्डनं निरुक्तादाशातनाः।
(सम ३३.१ वृ प५६)
आशीविष लब्धि का एक प्रकार। शाप के द्वारा अनिष्ट करने वाली योगज विभूति। एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणत आशीविषवृश्चिक भुजङ्गादिसाध्यकर्मक्रियां कुर्वन्ति-शापप्रदानादिना परं व्यापादयन्तीत्यर्थः। (विभा ७८० वृ पृ ३२३)
३. सौधर्म आदि कल्पों का विमान। (द्र क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति) आवश्यक मण्डली मण्डली का एक विभाग, जिसकी व्यवस्था के अनुसार श्रमण गुरु की सन्निधि में आवश्यक (सामूहिक प्रतिक्रमण) करते हैं।
(प्रसा ६९२ वृप १९६) (द्र मण्डली) आवश्यक सूत्र वह आगम, जिसमें दोनों संध्याओं में की जाने वाली छः आवश्यक क्रियाओं की विधि है। (नन्दी ७५) (द्र षडावश्यक) आवश्यकी सामाचारी स्थान से बाहर जाते समय आवश्यकी' का उच्चारण करना। गमणे आवस्सियं कुज्जा।
(उ २६.५) आवारक कर्म वह कर्म, जो ज्ञान और दर्शन को आवृत करता है, जैसेज्ञानावरण, दर्शनावरण। तत् कर्म ज्ञानदर्शनयोरावरणस्य हेतु भवति।
(जैसिदी ४.२ वृ) आवीचि मरण मरण का एक प्रकार। प्रतिक्षण आयु के क्षय से होने वाला मरण। आवीचिमरणं-प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम्।
(सम १७.९ वृ प ३२) आवृतवीर्य वह वीर्य, जो कर्म के द्वारा आच्छादित है। (कप्र पृ५३) आशातना सम्यक्त्व, ज्ञान आदि की उपलब्धि में बाधा अथवा न्यूनता उत्पन्न करने वाली अवज्ञापूर्ण प्रवृत्ति। आसातणा णामं नाणादिआयस्स सातणा।
(आवचू २ पृ २१२) सम्यक्त्वादिलाभं शातयति विनाशयतीत्याशातना।
(उशावृ प ५७९)
आशुप्रज्ञ १. वह व्यक्ति, जिसे प्रश्न करने पर प्रष्टव्य विषय का चिन्तन नहीं करना पड़ता, तत्काल सब कुछ समझ लेता है, जैसे-केवली, तीर्थंकर। आसुपण्णे त्ति न पुच्छितो चिंतेति, आशु एव प्रजानीते आशुप्रज्ञः।
__ (सूत्र १.५.२ चू पृ १२६) ..."आसुप्रज्ञो, केवली तीर्थंकर एव।
(सूत्र १.५.२ चू पृ ४०३) २. क्षिप्रप्रज्ञ, जो प्रतिबुद्ध-प्रतिक्षण जागरूक रहता है। आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः क्षणलवमुहूर्तप्रतिबुद्ध्यमानता।
(सू १.१४.४ चू पृ २२९) आश्रव नौ तत्त्वों में एक तत्त्व। आत्मा की वह अवस्था, जो कर्मों के आकर्षण का हेतु बनती है। कर्माकर्षणहेतुरात्मपरिणाम आश्रवः। ..."आश्रवन्ति-प्रविशन्ति कर्माणि आत्मनि येन परिणामेन स आश्रवः कर्मबन्धहेतुरिति भावः। (जैसिदी ४.१६ वृ)
आश्रव अनुप्रेक्षा सातवीं अनुप्रेक्षा । आश्रव के स्वरूप तथा उससे होने वाले दोषों के बारे में पुनः-पुनः अनुचिन्तन करना। आश्रवानिहामुत्रापाययुक्तान्"चिन्तयेत्। (तभा ९.७) आश्रवद्वार ..."आश्रवः, कर्मप्रवेश इति भावः। तस्य द्वाराणि-उपायाः आश्रवद्वाराणि-कर्मबन्धहेतूनि इति। (जैसिदी ४.१६व) (द्र आश्रव)
आश्वास श्रमणोपासक के चार विश्राम। धर्माराधना करने वाला गृहस्थ
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अगार-धर्म के क्रमिक विकास के लिए जिनका आलंबन असणं पाणगं चेव खाइमं साइमं तहा। लेकर भारहीनता का अनुभव करता है।
एसा आहारविही, चउव्विहा होइ नायव्यो। श्रावकस्तस्य सावधव्यापारभाराक्रान्तस्य आश्वासाः- आसुं खुहं समेई, असणं पाणाणुवग्गहे पाणं। तद्विमोचनेन विश्रामाः। (स्था ४.३६२ वृ प २२४) खे माई खाइमं ति य, साएइ गुणे तओ साई॥ आसन्दी
(आवनि १५८७, १५८८) अनाचार का एक प्रकार । मञ्चिका आदि पर बैठना, जो मुनि आहारक के लिए अनाचरणीय है।
१. औदारिक आदि किसी भी वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण आसंदी उपविसणं। (द ३.५ अचू पृ६१) करने वाला।
(प्रज्ञा १८.९४)
२. शरीर को पोषण देने वाले पदार्थों को ग्रहण करने वाला। आसुरी भावना संक्लिष्ट भावना का एक प्रकार । क्रोध की सतत प्रवृत्ति से
(द्र आहार, अनाहारक) भावित चित्त वाले व्यक्ति का व्यवहार और आचरण । आहारककाययोग अणुबद्धरोसपसरो तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवि।
आहारक शरीर के द्वारा की जाने वाली प्रवृत्ति । एएहिं कारणेहिं आसुरियं भावणं कुणइ॥
(तभा २.२६ वृ) (उ ३६.२६६)
आहारकमिश्रकाययोग आसेवन शिक्षा
(कग्र ४.२४) ज्ञान के अनुरूप क्रिया का उपदेश।
(द्र आहारकमिश्रशरीरकाययोग) आसेवनशिक्षा तु प्रत्युपेक्षणादिक्रियोपदेशः। (विभा ७ वृ)
आहारकमिश्र शरीर काययोग (द्र ग्रहणशिक्षा)
जब आहारक शरीर अपना कार्य सम्पन्न कर औदारिकआस्तिक्य
शरीर में प्रवेश करता है, उस समय औदारिक के साथ सम्यक्त्व का एक लक्षण। सत्यनिष्ठा-आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म आहारकमिश्र काययोग होता है। आदि में विश्वास।
इहाहारकमिश्रशरीरकाययोगप्रयोग आहारकस्यौदारिकेण आस्तिक्यम्-सत्यनिष्ठा। (जैसिदी ५.९ वृ)
मिश्रतायां स चाहारत्यागेनौदारिकग्रहणाभिमुखस्य। जीवादयोऽर्था यथास्वं भावैः सन्तीति मतिरास्तिक्यम्।
(भग ८.६३ वृ) (तवा १.२.३०)
आहारक लब्धि आहार
विशिष्ट लब्धि, जिसके द्वारा श्रुतकेवली विशिष्ट प्रयोजन १. जीव द्वारा किसी भी वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण।। उत्पन्न होने पर आहारक शरीर का निर्माण करते हैं।
औदारिक आदि तीन शरीर और छ: पर्याप्तियों के योग्य कन्जंमि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीय। पुद्गलों को ग्रहण करना।
जं एत्थ आहरिज्जइ भणंति आहारयं तं तु॥ त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः।
(अनुहावृ पृ८७) (तवा २.३०) आहारकवर्गणा २. भूख-प्यास को शांत करने वाले, शरीर को पोषण देने
आहारक शरीर के प्रायोग्य पुद्गल-समूह। (विभा ६३१) वाले पदार्थों का ग्रहण, जिसके चार प्रकार हैं-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य।
आहारकशरीर .."चउव्विहं वि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइम।
संशय-निवारण के लिए चतुर्दशपूर्वी प्रमत्त संयति के द्वारा (आव ६.१)
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आहारक लब्धि से निर्मित किया जाने वाला शरीर । 'आहारए' त्ति तथाविधकार्योत्पत्तौ चतुर्दशपूर्वविदा योगबाह्रियते । (स्था ५.२५ वृ प २८१)
आहारकशरीरबंधननाम
नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण आहारक शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा तैजस और कर्मणशरीर के साथ संबंध स्थापित होता है । यदुदयादाहारकशरीरपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसकार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धस्तदाहारक(प्रज्ञा २३.४३ वृ प ४७० )
बन्धनम् ।
आहारक समुद्घात
आहारक शरीर के निर्माण और सम्प्रेषण के समय आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना । यह आहारक समुद्घात शरीरनामकर्म के आश्रित होता है । आहारकसमुद्घातः शरीरनामकर्माश्रयः ।
(सम ७.२ वृ प १२) .....वैक्रिय-आहारक-तैजसनामकर्माश्रयाः वैक्रियआहारक(जैसिदी ७.३० वृ)
तैजसाः । आहारपर्याप्ति
छह पर्याप्तियों में प्रथम पर्याप्ति । आहार के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करने वाली पौद्गलिक शक्ति अथवा जीवनीशक्ति का स्रोत ।
आहारपज्जत्ती णाम खलरसपरिणामसत्ती ।
(नन्दीचू पृ २२)
आहारप्रायोग्य-पुद्गल-ग्रहण-परिणमनोत्सर्गरूपं पौद्गलिकसामर्थ्योत्पादनम् आहारपर्याप्तिः ।
(जैसिदी ३.११ वृ)
आहारसंज्ञा
क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से होने वाला क्षुधा का अभिलाषात्मक संवेदन ।
क्षुद्वेदनीयोदयात् या कवलाद्याहारार्थं तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया साऽऽहारसंज्ञा । (प्रज्ञा ८.११ वृप २२२ ) आहारसमिति योग
अहिंसा महाव्रत की एक भावना। शुद्ध आहार की गवेषणा
करना ।
आहारएसणाए सुद्धं उछं गवेसियव्वं....एवं आहारसमिति
५९
जोगेण भावितो भवति अंतरप्पा ।
इ
इङ्गिताकारसम्पन्न
वह शिष्य, जो गुरु के इङ्गित- प्रवृत्ति - निवृत्ति मूलक सिर हिलाना आदि सूक्ष्म संकेत तथा आकार - दिशावलोकन आदि स्थूल संकेत को जानता है अथवा गुरु के मनोभावों को जानता है।
( प्रश्न ६.२० )
1
इङ्गितं—निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद् भ्रूशिरःकम्पादि, आकारः - स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावाभिव्यञ्जको दिगवलोकनादिः । अनयोर्द्वन्द्वे इङ्गिताकारौ तौ अर्थाद् गुरुतौ सम्यक् प्रकर्षेण जानाति इङ्गिताकारसम्प्रज्ञः । यद्वा इङ्गिताकाराभ्यां गुरुगतभावपरिज्ञानमेव कारणे कार्योपचाराद् इङ्गिताकारशब्देनोक्तं तेन सम्पन्नो – युक्तः ।
( उ १.२ शावृ प ४४)
इङ्गिताकारसम्प्रज्ञ
(द्र इङ्गिताकारसम्पन्न )
इङ्गिनीमरण
यावत्कथिक अनशन का दूसरा प्रकार, जिसमें प्रतिनियत स्थान पर रहकर प्रवृत्ति करने का संकल्प होता है। इङ्ग्यते प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यतेऽस्यामनशनक्रियायामितीङ्गिनी तया मरणमिङ्गिनीमरणम् ।
(सम १७.९ वृ प ३३)
(द्र प्रायोपगमन अनशन )
इच्छाकाम
स्वर्ण आदि पदार्थों को प्राप्त करने की कामना । इच्छाकामः – स्वर्णादिपदार्थप्राप्तेः कामना ।
( उ १.२ शावृ प ४४)
(आभा २.१२१)
(द्र मदनकाम)
इच्छाकार सामाचारी
सामाचारी का एक प्रकार सारणा ( औचित्य से कार्य करने और कराने) में इच्छाकार का प्रयोग करना- आपकी इच्छा हो तो मैं आपका कार्य करूं। आपकी इच्छा हो तो कृपया अमुक कार्य करें।
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......इच्छाकारो य सारणे ।
इच्छा - स्वकीयोऽभिप्रायस्तया करणं - तत्कार्यनिर्वर्तनमिच्छाकारः, सारणे इत्यौचित्यत आत्मनः परस्य वा कृत्यं प्रति प्रवर्त्तने, तत्रात्मसारणे यथेच्छाकारेण युष्मच्चिकीर्षितं कार्यमिदमहं करोमीति, अन्यसारणे च मम पात्रलेपनादि सूत्रदानादि वा इच्छाकारेण कुरुतेति ।
( उ २६.६ शावृ प ५३५ )
इच्छानुलोमा
असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार। किसी के कार्य को समर्थन देने के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा, जैसे - यह कार्य तुम करो, मुझे भी यह अच्छा लगता है। इच्छानुलोमा नाम यथा कश्चित्किञ्चित्कार्यमारभमाणः कञ्चन पृच्छति, स प्राह- करोतु भवान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति । (प्रज्ञा ११.३७ वृप २५९) इच्छापरिमाण
गृहस्थधर्म का पांचवां व्रत, जिसमें परिग्रह की इच्छा का सीमाकरण किया जाता है।
अपरिमियपरिग्गहं समणोवासओ पच्चक्खाइ इच्छापरिमाणं (आव परिपृ २२)
उवसंपजड़ ।
इतरेतरसंयोग
दो, तीन आदि परमाणुओं का संयोग होना; द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि स्कंध इसके उदाहरण हैं।
दुप्पभितीण परमाणूणं जो संजोगो सो इतरेतरसंजोगो भवति परमाणूणं । (उच् पृ १७)
इतरेतराभाव
अभाव का तीसरा प्रकार। दो वस्तुओं में परस्पर एकरूपता का अभाव, जैसे- स्तम्भ में घट के स्वरूप का अभाव और घट में स्तम्भ के स्वरूप का अभाव । स्वरूपान्तरात् स्वरूपव्यावृत्तिरितरेतराभावः । यथा स्तम्भस्वभावात् कुम्भस्वभावव्यावृत्तिः ।
(प्रनत ३. ६३, ६४ )
इत्वर परिहारविशुद्धिक
वह मुनि, जो परिहार - विशुद्धि की साधना के बाद पुनः उस साधना को स्वीकार करता है अथवा गच्छ में आ जाता है। कल्पसमाप्त्यनन्तरं तमेव कल्पं गच्छं वा समुपयास्यन्ति ते
इत्वरा: ।
इत्वरिक अनशन
सावधिक तप;
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
छम्मासा ।
(द्र यावत्कथिक अनशन)
(प्रज्ञावृ प ६८ )
इसकी अवधि है - उपवास से छह मास
पर्यन्त ।
इत्तरियं णाम परिमितकालियं, तं चउत्थाउ आरद्धं जाव (दजिचू पृ २१ )
इत्वरिक सामायिकचारित्र
सात दिन अथवा चार मास अथवा छः मास की अवधि वाला सामायिक चारित्र । इस अवधि की समाप्ति के बाद छेदोपस्थापन चारित्र में उपस्थापन होता है। यह प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय होता है।
इत्वरस्य भाविव्यपदेशान्तरत्वेनाल्पकालिकस्य सामायिकस्यास्तित्वादित्वरिकः स चारोपयिष्यमाणमहाव्रतः । (भग २५.४५४ वृ)
इन्द्र
देवों के अधिपति ।
इन्द्रा भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कविमानाधिपतयः ।
(तभा ४.४ वृ)
इन्द्रस्थावरकाय
इन्द्र से संबंधित होने के कारण पृथ्वीकाय का अपर नाम है - इन्द्रस्थावरकाय ।
इन्द्रसंबंधित्वादिन्द्रः स्थावरकायः पृथिवीकायः ।
(स्था ५.१९ वृप २७९) पंच थावरकाया पण्णत्ता, तं जहा- इंदे थावरकाए, बंभे थावरकार, सिप्पे थावरकाए, सम्मती थावरकाए, पायावच्चे थावरकाए । (स्था ५.१९)
इन्द्रस्थावरकायाधिपति
वह देव, जो पृथ्वीकायसंज्ञक स्थावरकाय का अधिपति है । स्थावरकायानां – पृथिव्यादीनामिति सम्भाव्यन्तेऽधिपतयो - (स्था ५.२० वृप २७९)
नायकाः ।
इन्द्रिय
ज्ञान का वह स्रोत, जिसके द्वारा आत्मा (इन्द्र) का बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क होता है और जिसके द्वारा शब्द आदि
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
६१
विषयों का ग्रहण होता है। इन्द्र आत्मा, तस्य कर्ममलीमसस्य स्वयमर्थान् ग्रहीतुमसमर्थस्याऽर्थोपलम्भने यल्लिङ्गं तदिन्द्रियमित्युच्यते।
(तवा १.१४.१)
पांच प्रकार हैं--श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष, चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष, जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष, स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष। वस्तुतः यह परोक्ष ज्ञान है। इंदियं ति-पुग्गलेहिं संठाणणिव्वत्तिरूवं दव्विंदियं, सोइंदियमादिइंदियाणं सव्वातप्पदेसेहिं स्वावरणक्खतोवसमातो जा लद्धी तं भाविंदियं, तस्स पच्चक्खं ति इंदियपच्चक्खं। ""परमत्थओ पुण चिंतमाणं एतं परोक्खं।
(नन्दी ५ चू पृ १४) इंदियपच्चक्खं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-सोइंदियपच्चक्खं चक्खिदियपच्चक्खं घाणिंदियपच्चक्खं जिभिदियपच्चक्खं फासिंदियपच्चक्खं।
(नन्दी ५)
इन्द्रिययमनीय इंद्रियों को वश में करना। इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंदिय-चक्खिंदिय-धाणिदियजिभिदिय-फासिंदियाई निरुवहयाई वसे वÈति, सेत्तं इंदियजवणिज्जे।
(भग १८.२०९)
इन्द्रियदम
(दअचू पृ ९३) (द्र इन्द्रियप्रतिसंलीनता) इन्द्रियनिरोध इन्द्रियों के अपने-अपने इष्ट और अनिष्ट विषयों के प्रति राग और द्वेष की वर्जना। 'इंदियनिरोहो'त्ति इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि तेषां निरोधः इन्द्रियनिरोधः आत्मीयात्मीयेष्टानिष्टविषयरागद्वेषाभावः।
(ओनिवृ प १३) इन्द्रियपर्याप्ति छह पर्याप्तियों में तीसरी पर्याप्ति । इन्द्रिय के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करने वाली पौद्गलिक शक्ति की भवारंभ में होनेवाली संरचना। पंचण्हमिंदियाणं जोग्गा पोग्गला चियित्तु अणाभोगनिव्वत्तितविरियकरणेण तब्भावणयणसत्ती इंदियपज्जत्ती।
(नन्दीचू पृ २२) इन्द्रियप्रतिसंलीनता प्रतिसंलीनता का एक प्रकार। विषय के प्रति होने वाले इन्द्रिय-व्यापार का निरोध, इन्द्रिय द्वारा प्राप्त विषयों में रागद्वेष का निग्रह। सोइंदियविसयप्पयारनिरोहो वा सोइंदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा, चक्खिंदियविसयप्पयारनिरोहो वा चक्खिंदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा, घाणिंदियविसयप्पयारनिरोहो वा घाणिंदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा, जिब्भिंदियविसयप्पयारनिरोहो वा जिब्भिंदियविसयपत्तेस अत्थेस रागदोसनिग्गहो वा. फासिंदियविसयप्पयारनिरोहो वा, फासिंदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा, से तं इंदियपडिसंलीणया।
(औप ३७) इन्द्रियप्रत्यक्ष इन्द्रिय की सहायता से होने वाला पदार्थ का ज्ञान। इसके
इन्द्रियार्थविकोपन इन्द्रियों के विषयों के प्रति अत्यधिक आसक्ति का भाव, कामविकार। इन्द्रियार्थानां-शब्दादिविषयाणां विकोपनं-विपाकः इन्द्रि-यार्थविकोपनं कामविकार इत्यर्थः ।
(स्था ९.१३ वृ प ४२३)
इन्द्रियालोकवर्जन ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। स्त्रियों के अङ्ग-प्रत्यङ्गों के अवलोकन का वर्जन। मनोहराणि मानोन्मानलक्षणयुक्तानि दर्शनीयानि मजावन्तीन्द्रियाणि"तदालोकनाद्यपरतिः श्रेयसीति भावयेत्।
(तभा ७.३ ७)
इहलोकभय भय का एक प्रकार । सजातीय से होने वाला भय, जैसेमनुष्य को मनुष्य से होने वाला भय। मनुष्यादिकस्य सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्यद्भयं तदिहलोकभयम्। (स्था ७.२७ वृ प ३६९) इहलोकाशंसाप्रयोग मारणान्तिक संलेखना का एक अतिचार। मनष्य-जीवन में
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धन और सत्ता के क्षेत्र में उत्कृष्ट बनूं' - इस प्रकार आकांक्षा
करना ।
इहलोको - मनुष्यलोकः, तस्मिन्नाशंसा - अभिलाषः तस्याः प्रयोगः इहलोकाशंसाप्रयोगः श्रेष्ठी स्यां जन्मान्तरेऽमात्यो वा इत्येवंरूपा प्रार्थना | (उपा १.४४ वृ पृ २१ )
ई
ईर्यापथक्रिया क्रिया का एक प्रकार । (द्र ईर्यापथिक बन्ध)
ईर्यापथिक बन्ध
केवल योग - (कषायमुक्त ) प्रवृत्ति के कारण होने वाला कर्मबंध, ऐर्यापथिकी क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध । यह बंध वीतराग के होता है।
(तवा ६.५.७)
ऐर्यापथिकं - केवलयोगप्रत्ययं कर्म्म तस्य यो बन्धः । (भग ८.३०२ वृ) एवं पञ्चभिः समितिभिः समितस्य तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तस्य सर्वत्रोपयुक्तस्येर्याप्रत्ययिकः सामान्येन कर्मबन्धो भवति ।
( सूत्र २.२.२ वृ प ४६ )
ईर्यापथिको वीतरागस्य । ईर्या - योगः, पन्थाः -- मार्गों यस्य बन्धस्य स ईर्यापथिकः । अयञ्च सातवेदनीयरूपः द्विसमयस्थितिको भवति । (जैसिदी ७.२० वृ)
(द्र ऐर्यापथिकी क्रिया)
ईर्यापथिकी
आवश्यक का वह सूत्र, जिसका उच्चारण बाहर से आने पर चलने में होने वाले प्रमाद की शुद्धि के लिए किया जाता है। इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे...... । ( आव ४.४)
विणएण पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी । इरियावहियमायाय, आगओ य पडिक्कमे ॥
(द ५.१.८८)
ईर्यासमिति
शरीरप्रमाणभूमि को आंखों से देखकर चलना ।
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
(जैसिदी ६.१३)
युगमात्रभूमिं चक्षुषा प्रेक्ष्य गमनमीर्या ।
ईर्यासमिति योग
अहिंसा महाव्रत की एक भावना। युगप्रमाण भूमि को देखकर
चलना ।
ठाणगमणगुणजोगजुंजणजुंगतरनिवातियाए दिट्ठीए इरियां... एवं इरियासमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा ।
( प्रश्न ६.१७ )
ईशान
१. दूसरा स्वर्ग । कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की दूसरी आवास( उ ३६.२११)
भूमि ।
(देखें चित्र पृ ३४६)
२. ईशानस्वर्गवासी देव । ईशानो नाम द्वितीयदेवलोकस्तन्निवासिनो देवा अपि ईशानास्त एव ईशानकाः । एवमुत्तरत्रापि व्युत्पत्तिः कार्या ।
( उशावृ प ७०२ )
३. दूसरे स्वर्ग के इन्द्र ।
एतेसुणं दस कप्पेसु दस इंदा पण्णता, तं जहा - सक्के, ईसाणे, सणकुमारे, माहिंदे, बंभे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे, पाणते, अच्चुते । (स्था १०.१४९)
ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी
मुक्त आत्माओं का निवास स्थान। यह लोक के अग्र भाग में स्थित है। सीधे छत्ते के आकार जैसा और श्वेत स्वर्ण से निर्मित है। (देखें चित्र पृ ३४१ ) अलोए पहिया सिद्धा लोयग्गे य पइट्टिया । इहं बोंदिं चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ॥ बारसहिं जोयणेहिं सव्वट्टस्सुवरि भवे । सीपभारनामा उ पुढवी छत्तसंठिया ॥ अज्जु सुवणगमई सा पुढवी निम्मला सहावेणं । उत्ताणगछत्तगसंठिया य, भणिया जिणवरेहिं ॥
( उ ३६.५६, ५७, ६० )
ईहा
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार । अवग्रह के बाद 'यह अमुक होना चाहिए' इस प्रकार किया जाने वाला विशेष का पर्यालोचन ।
हनमीहा, सद्भूतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा ।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अवग्रहादुत्तरकाल.............मतिविशेषः।
(नन्दी ३९ मवृ प १६८)
उक्त अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। शब्दोच्चारण के द्वारा विषय का ग्रहण, जैसे-वीणा के शब्द सुनकर राग (धुन)को ग्रहण करना।
(तवा १.१६.१६)
उच्छ्वासनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव को श्वासोच्छ्वास की शक्ति प्राप्त होती है। यदुदयवशादात्मन उच्छ्वासनिःश्वासलब्धिरुपजायते तदुच्छ्वासनाम। (प्रज्ञा २३.५५ वृ प ४७३) उच्छ्वासनिःश्वास पर्याप्ति
(जैसिदी ३.११) (द्र आनापान पर्याप्ति)
उग्रतप उपवास आदि किसी भी अनशन तपोयोग को स्वीकार कर जीवनभर निर्वाह करने वाला। चतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशपक्षमासाद्यनशनयोगेष्वन्यतमयोगमारभ्य आमरणादनिवर्तका उग्रतपसः। (तवा ३.३६)
उच्छ्वासनिःश्वास प्राण वह प्राण, जो श्वासोच्छ्वास की शक्ति के लिए उत्तरदायी
(प्रसा १०६६ वृ प३१४) उज्झितधर्मा पिण्डैषणा का एक प्रकार । जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना। भोयणजायं जं छड्डणारिहं नेहयंति दुपयाई। अद्धच्चत्तं वा सा उज्झियधम्मा भवे भिक्खा।
(प्रसा ७४३)
उच्चगोत्र गोत्र कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव जातिविशिष्टता, बल-विशिष्टता आदि का अनुभव करता है। यदुदयवशादुत्तमजातिकुलबलतपोरूपैश्वर्यश्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाञ्जलिप्रग्रहादिसम्भवस्तदुच्चैर्गोत्रम्।
(प्रज्ञा २३. ५८ वृ प ४७५) उच्चारप्रस्रवणसमिति उच्चारप्रस्रवणक्ष्वेलसिंघानजल्लपरिष्ठापनिका समिति।
(सम ५.७) (द्र उत्सर्ग समिति)
उत्कालिक श्रुत आगम का एक वर्ग, जो अकाल के सिवाय सभी प्रहरों में पढा जा सके। कालवेलावर्जं पठ्यते तदूर्ध्वं कालिकादित्युत्कालिकम्।
(स्था २.१०६ वृ प ४८)
उच्छन्नज्ञानी जिस ज्ञानी का ज्ञान कुछ समय के लिए ज्ञानावरण कर्म के उदय से आच्छादित हो गया हो। ""तेसिं वा उदएणं जाणियव्वं ण जाणइ, जाणिउकामे वि ण याणति, जाणित्ता वि ण याणति, उच्छण्णणाणी यावि भवति णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं।
(प्रज्ञा २३.१३)
उत्कुटुका निषद्या का एक प्रकार। पुतों को भूमि से छुआए बिना पैरों के बल पर बैठना। आसनालग्नपुतः पादाभ्यामवस्थित उत्कुटुकस्तस्य या सा उत्कुटुका।
(स्था ५.५० वृ प२८७)
ना।
उच्छ्वास श्वासोच्छवास प्राण के द्वारा श्वास-योग्य पुद्गलों का ग्रहण।
(भग १.१४ भा)
उत्कृष्ट आतापना अधोरुकशायी, पार्श्वशायी और उत्तानशायी की शयन मुद्रा में लिया जाने वाला सूर्य का आतप। निप्पन्नस्योत्कृष्ट: "निप्पन्नातापनाऽपि त्रिधा-अधोरुकशायिता पार्श्वशायिता उत्तानशायिता चेति।
(औपवृ प ७५)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
उत्तमपुरुष वह पुरुष, जो अपने क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट होता है। जैसे-धर्म के क्षेत्र में अर्हत्, भोग के क्षेत्र में चक्रवर्ती और कर्म के क्षेत्र में वासुदेव। उत्तमपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मपुरिसा, भोगपुरिसा, कम्मपुरिसा। धम्मपुरिसा अरहंता, भोगपुरिसा चक्कवट्टी, कम्मपुरिसा वासुदेवा। (स्था ३.३३)
उत्कृष्ट गीतार्थ वह मुनि, जो चतुर्दशपूर्वी होता है। गीतार्थाः.....चतुर्दशपूर्विणः पुनरुत्कृष्टाः । (बृभा ६९३ वृ) । उत्कृष्ट चिरप्रव्रजित वह मुनि, जो बीस वर्षों से दीक्षित है। चिरप्रव्रजितः.....विंशतिवर्षप्रव्रजित उत्कृष्टः।
(बृभा ४०३ वृ) उत्कृष्ट बहुश्रुत १. वह मुनि, जो नवम और दशम पूर्व का धारक होता है। उत्कृष्टो नवम-दशमपूर्वधरः। (बृभा ४०२ वृ) २. वह मुनि, जो चतुर्दश पूर्वो का धारक होता है। (द्र मध्यम बहुश्रुत) उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदय वे कर्म-प्रकृतियां, जिनका पहले उदयव्यवच्छेद होता है और बाद में बंधव्यवच्छेद होता है, जैसे-अयश: कीर्तिनाम, वैक्रियशरीरनाम आदि। पूर्वमुदयः पश्चाबन्ध इत्येवमुत्क्रमेण व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदयौ यासां ताः उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः। (कप्र पृ ४२)
उत्तरकुरु महाविदेह का वह क्षेत्र, जो मंदरपर्वत से उत्तर में, नीलवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण में, गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में और माल्यवान पर्वत से पश्चिम में स्थित है। यह कर्मभमि में स्थित होने पर भी अकर्मभूमि है। मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, गंधमायणस्स, वक्खारपव्ययस्स पुरस्थिमेणं, मालवंतस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता।
(जं ४.१०८) देवकुरूत्तरकुरवस्तु कर्मभूम्यभ्यन्तरा अप्यकर्मभूमय इति।
(तभा ३.१६)
उत्तमक्षमा दशविध श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार। शक्तिसम्पन्न व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला सहिष्णता का प्रयोग। उत्तमत्वं क्षमेति क्षमणं-सहनं परिणाम आत्मनः शक्तिगतः।
(तभा ९.६७)
उत्तमधर्म प्रकर्षप्राप्त क्षमा आदि दस धर्म, जो मनि के द्वारा आचरणीय
उत्तरगुण १. स्वाध्याय आदि। उत्तरगुणान्--मूलगुणापेक्षया स्वाध्यायादींस्तत्कालोचितान्।
(उशावृ प ५३६) २. आचार के सहायक नियम, जैसे-दस प्रत्याख्यान। उत्तरगुणा:-दशविधप्रत्याख्यानरूपाः।
(भग २५.३०८ वृ) ३. मूल गुण के संपोषक पिण्डविशुद्धि आदि नियम। उत्तरगुणाः-पिण्डविशुद्ध्यादयः।
(प्रसा ७२९ वृ प २१२) उत्तरगुणकल्पिक वह मुनि, जो उद्गम, उत्पादन और एषणा से परिशुद्ध आहार, उपधि और शय्या का नियत रूप में ग्रहण करता है। य आहारोपधिशय्या उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धाः 'नियतं' निश्चितं परिगृह्णाति स खलूत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः ।
(बृभा ६४४४ वृ)
उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः।
(तसू ९.६) उत्तमो धर्मः प्रकर्षयोगात्। क्षमादयो हि उत्तमविशेषणविशिष्टस्तादृशाश्चागारिणो न सन्ति।"क्षमादयः""समुदिता एवोत्तमो धर्मः।
(तभा ९.६७) (द्र यतिधर्म)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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उत्तरवैक्रिय
तिर्यगलोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति। वैक्रिय शरीर वाले जीव के द्वारा निर्मित वैक्रिय शरीर।
(भ २.११८ वृ) पूर्ववैक्रियापेक्षयोत्तराणि-उत्तरकालभावीनि वैक्रियाणि
उत्पाद उत्तरवैक्रियाणि।
(भग ३.११२७)
त्रिपदी का एक अंग। द्रव्य के अवस्थान्तर अथवा पर्यायान्तर उत्तराध्ययन
(उत्तर पर्याय) का आविर्भाव उत्पाद कहलाता है। जैसेकालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें साध्वाचार, जीवनवृत्त मृत्पिण्ड का घटपर्याय में उत्पाद। और तत्त्वविद्या का प्रतिपादन है। प्राचीनकाल में इसका चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत उभयअध्ययन आचारांग के अध्ययन के पश्चात् किया जाता था,
निमत्तिवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः, मृत्पिण्डस्य इसलिए इसका नाम उत्तराध्ययन है। (नन्दी ७८)
घटपर्यायवत्।
(ससि ५.३०) अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबद्धसंवाया। (उनि ४)
द्रव्यनयाभिप्रायेणाकारान्तराविर्भावमात्रमुत्पाद औपचारिकः, आचारात् परतः पूर्वकाले यस्मादेतानि पठितवन्तो यतयस्तेन
परमार्थतो न किञ्चित्पद्यते सततमवस्थितद्रव्यांशमात्रत्वात्। उत्तराध्ययनानि। (तभा १.२० वृ)
(तभा ५.२९ वृ)
एगे उप्या।"उप्प त्ति प्राकृतत्वादुत्पादः, स चैक एकसमये उत्थान
एकपर्यायापेक्षया, न हि तस्य युगपदुत्पादव्ययादिरस्ति। वह सामर्थ्य, जिसके द्वारा प्राणी कार्य की निष्पत्ति के लिए
(स्था १.२२ वृ प १९) प्रस्तुत होता है।
(द्र त्रिपदी) उत्थानं-चेष्टाविशेषः।
(स्थावृ प २१)
उत्पादन दोष उत्थानं-ऊर्वीभवनम्।
(भग १.१४६ वृ)
गोचरचर्या में की जाने वाली मुनि की अनाचरणीय प्रवृत्ति । उत्थानश्रुत
सोलस उग्गमदोसे गिहिणो उ समुट्ठिए वियाणाहि। कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसका एक, दो अथवा तीन उप्पायणाए दोसे साहूउ समुट्ठिए जाण ॥ बार परावर्तन करने से ग्राम, राजधानी अथवा कुल उजड़
(पिनि ४०३) जाता है।
उत्पाद पूर्व 'उदाणसुतं' ति अज्झयणं परियट्रेति एक्कं दो तिण्णि वा वारे
पहला पूर्व। इसमें सर्व द्रव्यों व पर्यायों के उत्पादन का ताहे से गामे वा जाव रायधाणी वा कुलं वा उदेति।
प्रज्ञापन किया गया है। (नन्दी ७८ चू पृ ६०)
पढमं उप्पायपुव्वं ति, तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जवाण य उत्पन्नज्ञानदर्शन
उप्पायभावमंगीकाउंपण्णवणा कता। अतीन्द्रियज्ञान या प्रत्यक्षज्ञान। किसी बाह्य आलम्बन के
(नन्दी १०४ चू पृ ७५) बिना आत्मा से उपजने वाला ज्ञान।
उत्सर्ग समिति उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली.....।
त्रस और स्थावर जीवों से रहित स्थान पर निरीक्षण और (भग १.२०९)
प्रमार्जनपूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्म आदि का उत्सर्जन करना। पच्चक्खनाणाणि आयसमुत्थाणी पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं स्थण्डिले स्थावरजंगमजन्तुवर्जिते निरीक्ष्य प्रमुज्य च लेस्साहिं विसुज्झमाणाहिं उप्पन्जंति। (आचू पृ २२१) मूत्रपुरीषादीनामुत्सर्ग उत्सर्गसमितिः। (तभा ९.५) उत्पातपर्वत
उत्सर्ग सूत्र वह पर्वत, जहां से तिर्यगलोक में जाने के लिए देव उडान
वह सूत्र, जिसमें आचारविषयक सामान्य विधि का प्रतिपादन भरते हैं।
(बृभा ३२१) For Private & Pe(द्र अपवाद सूत्र)
है।
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उत्सर्गापवाद सूत्र
उदक वह सूत्र, जिसमें आचार-विषयक सामान्य और विशेष विधियों। वह वनस्पति, जो अनन्तकायिक है। का प्रतिपादन है।
(बृभा ३२१) उदगं नाम अणंतवणण्फई। (द ८.११ जिचू पृ २७७) (द्र अपवादोत्सर्ग सूत्र)
(द्र अनन्तजीव) उत्सर्पिणी
उदधिकुमार असंख्य वर्षों का एक कालखण्ड जो दस कोटिकोटि अद्धा
भवनपति देवों का एक वर्ग, जिसकी जंघा और कटिभाग सागरोपम प्रमाण होता है। समय (काल-चक्र) का आरोही अधिक सुन्दर होता है, जिसका चिह्न है-मकर। चक्र या क्रम। इसमें आयुष्य, शरीर आदि का परिमाण ऊरुकटिष्वधिकप्रतिरूपा: कृष्णश्यामा: मकरचिह्ना उदधिक्रमश: वृद्धिंगत हो जाता है।
कुमाराः।
(तभा ४.११) 'एगा उस्सप्पिणी'..."उत्सर्पति-उत्सर्पति-वर्द्धतेऽरकापेक्षया उत्सर्पति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति उत्सर्पिणी।
उदय
उदीरणाकरण के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से आठों कर्मों (स्था १.१३४ वृ प २५) दस सागरोपम कोडाकोडीओ कालो उस्सण्णिी।
का अनुभव होना।
वेद्यावस्था उदयः। (भग ६/१३४)
उदीरणाकरणेन स्वभावरूपेण वाष्टानामपि कर्मणामनुभवाउत्सारकल्प
वस्था उदयः।
(जैसिदी २.४९ ) सूत्र और अर्थ की परिपाटिवाचना (क्रमश: वाचना) से मुक्त होकर अविधि अथवा अक्रम-व्युत्क्रम से अध्ययन-अध्यापन
उदयनिष्पन्न करना।
औदयिक भाव, जो उदय में आकर किसी अन्य पर्याय को सूत्रार्थयोः परिपाटिवाचनां परित्यज्य सकलश्रुतधर्मधूम
जन्म देता है। केतुकल्पमुत्सारकल्पम्।
(बृभा ७२३ वृ)
उदयनिष्फण्णो णाम उदिण्णेण जेण अण्णो निष्फादितो सो उदयणिण्फण्णो।
(अनु २७४ चू पृ ४२) उत्सेधाङ्गल माप की एक इकाई। आठ यवमध्य प्रमाणवाला माप, जिससे
उदयप्राप्त नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देवों के शरीर की। गति, स्थिति, पुद्गल-परिमाण आदि सामग्री को प्राप्त कर अवगाहना मापी जाती है।
उदय में आने वाले कर्म-पुद्गल। अट्ठ जवमज्झा से एगे उस्सेहंगुले॥ (अनु ३९९) सामग्रीवशादुदयप्राप्तस्य। (प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९) उस्सेहंगुलेणं नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवाणं सरीरो
उदयबन्धोत्कृष्टा गाहणाओ मविजंति॥
(अनु ४०१)
वह कर्म-प्रकृति, जो विपाकोदय प्रवर्त्तमान होने पर संक्रमण (द्र आत्माङ्गुल, प्रमाणाङ्गुल)
आदि के बिना बंधकाल से ही उत्कृष्ट स्थिति वाली पाई उत्स्वेदिम
जाती है। चतुर्थभक्त (उपवास) वाले मुनि के द्वारा ग्राह्य पानक का यासां प्रकृतीनां विपाकोदये सति बन्धादुत्कृष्टं स्थितिएक प्रकार। आटे का धोवन, वह पानी जो आटे से मिश्रित सत्कर्मावाप्यते ता: उदयबन्धोत्कृष्टाः। (कप्रप४५) हो।
उदयवती उत्स्वेदेन निर्वृत्तमुत्स्वेदिमं-येन व्रीह्यादिपिष्टं....उत्सवेद्यतेः।
वह कर्म-प्रकृति, जिसके दलिक चरम समय में अपने विपाक (स्था ३.३७६ वृ प १३७)
रूप में भोगे जाते हैं।
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यासां च दलिकं चरमसमये स्वविपाकेन वेदयते ताः उदयवत्यः।
(कप्र पृ ४५) उदयसंक्रमोत्कृष्टा वह कर्म-प्रकृति, जिसकी स्थिति बंधकाल में अल्पकालिक होती है, किन्तु विपाकोदय-काल में संक्रमण के द्वारा अन्य दलिकों का प्रक्षेप होने पर उत्कृष्ट बन जाती है। यासां विपाकोदये प्रवर्त्तमाने संक्रमत उत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म लभ्यते, न बन्धतः, ताः उदयसंक्रमोत्कृष्टाः।
(कप्र पृ४४)
निरंतर न किया जाए। भागपात: सान्तरदानं वा उद्घातः, स विद्यते येषु ते उद्घातिकाः तविपरीता अनुद्घातिकाः। (क ४.१ वृ) लघुकमिति वा उद्घातितमिति वा शुक्लमिति वा लघुकस्य नामानि।
(बृभा २९९ वृ) (द्र अनुद्घातिक) उद्घातिकारोपणा आरोपणा प्रायश्चित्त का एक प्रकार । जिस प्रायश्चित्त में भाग किया जाता है, वह उद्घातिक आरोपणा है। सार्द्धदिनद्वयस्य पक्षस्य चोपघातनेन लघनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते आरोपणा उद्घातिकारोपणा।
(सम २८.१.२५ वृ प ४६) (द्र आरोपणा प्रायश्चित्त) उद्दिष्टवर्जन प्रतिमा उपासकप्रतिमा का दसवां प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी अपने लिए बने हए भोजन को ग्रहण नहीं करता। दसमा दस मासे पुण उद्दिट्ठकयं पि भत्त नवि भुंजे।
(प्रसा ९९१)
उदाहरण
दृष्टांत का कथन करना। दृष्टान्तवचनमुदाहरणम्।
(प्रमी २.१.१३)
उदीरणा कर्मकरण का एक प्रकार। निश्चित समय से पहले कर्मों का उदय, जो अपवर्तनासापेक्ष है। नियतकालात् प्राक् उदयः उदीरणा, इयं चापवर्तनापेक्षिणी
(जैसिदी ४.५ वृ) उदीरणावलिका प्राप्त कर्मद्रव्य की वह पंक्ति, जिसकी रचना उदीरणाकरण के द्वारा होती है। उदीरणा के द्वारा उदीरणावलिकाप्राप्त किन्तु जो अभी उदय में नहीं आया है। उदीरणाकरणेनाकृष्योदीरणावलिकां प्राप्ता यावदद्याप्युदयं न गच्छन्ति।
(विभा २९६२ वृ)
उद्देश
उदीर्ण जो कर्म निश्चित समय से पूर्व प्रयत्न द्वारा उदयावलिका में प्रविष्ट किया गया है, उदीरित किया गया है। उदीर्णस्य-उदयप्राप्तस्य""उदीरितस्य-उदयमुपनीतस्य।
(प्रज्ञा २३.१९ वृ प ४६०) उद्गम दोष आहार आदि की उत्पत्ति में गृहस्थ के द्वारा लगने वाले दोष। (द्र उत्पादन दोष) उद्घातिक प्रायश्चित्त का एक प्रकार । लघु प्रायश्चित्त, जिसका वहन
प्राचीन अध्ययनपद्धति का प्रथम चरण । गुरु के द्वारा दी जाने वाली पढ़ने की आज्ञा, जिसमें अध्ययन आदि के नाममात्र का कथन किया जाता है। सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणण्णा अणुओगो य पवत्तड़॥ मध्ययनादि त्वया पठितव्यमिति गुरुवचनविशेष उद्देशः।
(अनु ३ मवृ प ३) नामधेयमात्रकीर्तनमुद्देशः। (प्रमी १.१.१ वृ) उद्देशक एक दिन की वाचना, परिच्छेद, विभाग। (अनु ५७१) उद्देशनाचार्य पढ़ने की आज्ञा देने वाले आचार्य। (स्था ४.४२३) (द्र श्रुतोद्देष्टा) उद्धार पल्योपम असंख्य वर्षों का काल-खण्ड। उद्धार पल्योपम के दो प्रकार
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हैं-व्यावहारिक और सूक्ष्म ।
एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे व्यावहारिक उद्धार पल्योपम एक पल्य (कोठा) है, जो एक नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ। से तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे। योजन लंबा, एक योजन चौड़ा और एक योजन ऊँचा है।
(अनु ४२०, ४२२, ४२४) उसकी परिधि कुछ अधिक तिगुनी (तीन योजन से कुछ
उद्धार सागरोपम अधिक) है। ऐसे पल्य को एक, दो, तीन दिन यावत्
उद्धार सागरोपम के दो प्रकार हैं-व्यावहारिक और सूक्ष्म । उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए बालानों से लूंस-ठूस कर घनीभूत कर भरा जाता है। उस कोठे से प्रत्येक समय में
दस कोटाकोटि व्यावहारिक उद्धार पल्योपम का एक व्यावएक-एक बालाग्र निकालने से जितने समय में वह कोठा
हारिक उद्धार सागरोपम होता है। इसका कोई प्रयोजन नहीं खाली हो जाता है, उतने काल को व्यावहारिक उद्धार
है, केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है। पल्योपम कहा जाता है। इसका कोई प्रयोजन नहीं है, केवल
दस कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धार
सागरोपम होता है। प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है।
एएसिं पल्लाणं, सूक्ष्म उद्धार पल्योपम उन बालागों के असंख्य खण्ड कर
कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। उस कोठे को ठसाठस भरा जाता है तथा प्रत्येक समय में
तं वावहारियस्स उद्धारसागरोवमस्स एक-एक खण्ड को निकाला जाता है। जितने समय में वह
एगस्स भवे परीमाणं॥ कोठा खाली हो जाता है, उतने काल को सूक्ष्म उद्धार
एएहिं वावहारियउद्धारपलिओवम-सागरोवमेहिं नस्थि पल्योपम कहा जाता है।
किंचिप्पओयणं, केवलं पण्णवटुं पण्णविन्जति...... उद्धारपलिओवमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे य वावहारिए एएसिं पल्लाणं, य।
कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। तत्थ णंजे से वावहारिए, से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं । तं सुहुमस्स उद्धारसागरोवमस्स आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उड़े उच्चत्तेणं, तं तिगणं एगस्स भवे परीमाणं॥
(अनु ४२२-४२४) सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्ले-- गाहा
उद्धृता एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय,उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं। पिण्डैषणा का एक प्रकार । थाली, बटलोई आदि से परोसने सम्मट्टे सन्निचिते, भरिए वालग्गकोडीणं॥ के लिए निकालकर दूसरे बर्तन में डाला हुआ आहार लेना। ते णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, तओ णं नियजोएणं भोयणजायं उद्धरियमुद्धडा भिक्खा। समए-समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से
(प्रसा ७४१) पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ। से तं वावहारिए
उद्भिज्ज उद्धारपलिओवमे। "सुहमे उद्धारपलिओवमे-से जहानामए पल्ले सिया
पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाला जीव, जैसे- पतंग, जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उर्दु उच्चतेणं, तं तिगुणं
खञ्जरीट आदि। सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले
उब्भिता भूमिं भिंदिऊण निद्धावंति सलभादतो। गाहा
(द ४ सू ९ अचू पृ ७७) एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय,उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं। उद्भिन्न सम्मटे सन्निचित्ते, भरिए वालग्गकोडीणं॥ उद्गम दोष का एक प्रकार। हिंसा की संभावना की स्थिति तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाइं खंडाई कज्जइ। ते णं में शीशी आदि का मुंह खोलकर दिया जाने वाला आहार वालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता सुहमस्स आदि लेना। पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा।ते णं वालग्गे
उद्भेदनं कुतुपादिमुखानां साधुदाननिमित्तमुद्भिन्नम्। नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा तओ णं समए-समए
(पिनि ३४७ वृ)
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उद्योतनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव का शरीर शीतल प्रकाश देने वाला होता है। यदुदयाजन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशकरूपमुद्योतं कुर्वन्ति यथा यतिदेवोत्तरवैक्रियचन्द्रनक्षत्रतारविमानरत्नौषधयस्तदुद्योतनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४)
उपकरण असंवर (आस्रव) अकल्पनीय उपकरणों का स्वीकार अथवा गृहीत उपकरणों को अयतनापूर्वक रखना।
(स्था १०.११) (द्र उपकरणसंवर)
उपकरणइन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय का एक प्रकार । वह पौदगलिक शक्ति, जो इन्द्रियों के विषयग्रहण में साधकतम बनती है। विसयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तं पि। जं नेह तदुवधाए गिण्हइ निव्वत्तिभावे वि॥
(विभा २९९६)
उद्वर्तना १. कर्मकरण का एक प्रकार। कर्म की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि। कर्मणां स्थित्यनुभागवृद्धिः उद्वर्तना। (जैसिदी ४.५७) २. नारकीय जीव और भवनपति देव मरण के बाद अधोलोक से ऊपर आते हैं, अत: उनका मरण उद्वर्तन कहलाता है। उद्वर्त्तनमुद्वर्त्तना तत्कायान्निर्गमो मरणमित्यर्थः, तच्च नैरयिकभवनवासिनामेवैवं व्यपदिश्यते।
(स्था २.२५१ वृ प ६२) उन्नामिनी वह विद्या, जिसके प्रयोग से वृक्ष की एं ऊपर हो जाती
उपकरण बकुश बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों की विभूषा में प्रवृत्त रहता है। वस्त्रपात्राद्युपकरणविभूषानुवर्तनशील उपकरणबकुशः।
(भग २५.२७८ वृ)
उण्णामिणीए विज्जाए डालाउणामिया अंबगाणिगहियाणि पुणोवि उन्नामिणीए उन्नामिया।
(व्यभा ६३ वृ प २४)
उपकरण संवर अकल्पनीय वस्त्र आदि का अस्वीकार अथवा बिखरे हए उपकरणों को यतनापूर्वक सुव्यवस्थित करना। अप्रतिनियताकल्पनीयवस्त्राद्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वस्त्राद्युपकरणस्य संवरणमुपकरणसंवरः ।...."संवरविपरीतोऽसंवरः।
(स्था १०.१० वृ प ४४८)
उन्माद १. यक्ष के आवेश से होने वाला चित्तविभ्रम । २. मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला चित्तविभ्रम। दुविहे उम्माए पण्णत्ते, तं जहा-जक्खाएसे चेव, मोहणिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं।
(स्था २.७५)
उपकरणोत्पादक वह मुनि, जो साधु-साध्वियों के लिए धर्मोपकरण की गवेषणा और याचना करता है।
(व्यभा १९४३)
उन्मान विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण, जिससे वजन तोला जाए। उम्माणे-जण्णं उम्मिणिज्जड़।
(अनु ३७८)
उपक्रम व्याख्या (अनुयोग)का पहला द्वार । उपोद्घात, इससे शास्त्र के अभिधान, प्रतिपाद्य, विभाग, प्रकरण आदि की प्रारंभिक जानकारी प्राप्त होती है। उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः, शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलक्षणः, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवागयोगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः।
(अनु ७५ हावृ पृ २७)
उन्मिश्र एषणादोष का एक प्रकार । सचित्त-अचित्त मिला हआ आहार आदि लेना। देयद्रव्यं खण्डादि सचित्तेन धान्यकणादिना मिश्रं ददत उन्मिश्रम्।
(योशा १.३८ वृ पृ१३७)
उपग्रहकुशल वह मुनि, जो बाल, वृद्ध, ग्लान आदि मुनियों को आहार
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पानी, औषध आदि लाकर देता है, दिलाता है, उनकी सेवा करता है और उनसे सेवा करवाता है, जो इन सब उपग्रहों को जानता है। बाला सहु वुडेसुं संत तवकिलंतवेयणातंके। सेज्ज-निसेज्जोवधि-पाणमसण-भेसज्जुवग्गहिते॥ दाण-दवावण-कारावणेसु, करणे य कतमणुण्णाए। उवहितमणुवहितविधी, जाणाहि उवग्गहं एयं।
(व्यभा १५१५, १५१६)
वाली रुचि। २. उपदेशरुचि सम्पन्न व्यक्ति। एए चेव उ भावे, उवइटे जो परेण सद्दहई। छउमत्थेण जिणेण व, उवएसरुइ त्ति नायव्वो॥
(उ २८.१९)
उपधान ज्ञानाचार का एक प्रकार । श्रुतवाचन के समय किया जाने वाला तप। उप-समीपे धीयते-क्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानं-तपोविशेषः।
(प्रसा २६७) (द्र उपधानवान् )
उपघातनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव अपने ही अवयवों की अव्यवस्था के कारण उपहत होता है अथवा आत्महत्या का प्रयास करता है। यददयात् स्वशरीरावयवैरेव शरीरान्त:परिवर्द्धमानैः प्रतिजिह्वागलवृन्दलम्बक-चोरदन्तादिभिः उपहन्यते यद्वा स्वयंकृतोद्बन्धनभैरवप्रपातादिभिस्तदुपघातनाम ।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७३)
उपधान प्रतिमा प्रतिमा का एक प्रकार। विशिष्ट प्रकार की सघन तपस्या, जैसे भिक्षु की बारह और श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं। उपधानं-तपस्तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा द्वादश भिक्षुप्रतिमा एकादशोपासकप्रतिमाः। (स्था २.२४३ वृ प ६१)
उपचरित सद्भूत व्यवहार उपनय का एक प्रकार। स्व से भिन्न व्यक्ति और वस्तु में उपचार से ममकार करना, जैसे---मेरा पुत्र, मेरा घर। स्वजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो, यथा-पुत्रदारादि मम।
(आप २१८ वृ)
उपधानवान् श्रुत अध्ययन के लिए तप (उपधान) करने वाला। उपधानम्--अङ्गानाध्ययनादौ यथायोगमाचाम्लादितपोविशेषस्तद्वान्।
(उ ११.१४ शावृ प ३४७)
उपचित
उपधारण वह कर्म, जिसका समानजातीय दूसरी प्रकृति के कर्मदलिकों अवग्रह की दूसरी अवस्था, जिसमें दूसरे समय से लेकर के संक्रमण द्वारा उपचय हो चुका है।
व्यञ्जनावग्रह तक, असंख्यात समय तक अर्थ का प्रस्फुटित 'उपचितस्य' समानजातीयप्रकृत्यन्तरदलिकसंक्रमेणोपचयं रूप बनता है। नीतस्य। (प्रज्ञा २३.१३ वृप ४५९) बितियादिसमयादिसु जाव वंजणोग्गहो ताव उवधारणता भण्णति।
(नन्दी ४३ चू पृ ३५) उपदेश आहिण्डक वह मुनि, जो भावी आचार्य है, सूत्र और अर्थ का अध्ययन उपधिसंभोज कर गुरु के निर्देशानुसार नाना देशों के आचार, भाषा आदि। सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए देशाटन करता है। वस्त्र, पात्र आदि उपधि का लेन-देन। ये सूत्राऽर्थी गृहीत्वा भविष्यदाचार्या गुरूणामुपदेशेन विषया- उपधिर्वस्त्रपात्रादिस्तं सम्भोगिकः सम्भोगिकेन सार्द्धमुद्ऽऽचारभाषोपलम्भनिमित्तमाहिण्डन्ते ते उपदेशाहिण्डकाः। गमोत्पादनैषणादोषैर्विशुद्धं गृह्णन् शुद्धः"। (बृभा ५८२५ वृ)
(सम १२.२ ७ प २१) उपदेशरुचि
उपनय १. रुचि का एक प्रकार, जीव आदि तत्त्वों पर उपदेश से होने १. धर्मी में साधन का उपसंहार करना, जैसे-यह धूमवान्
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धर्मिणि साधनस्योपसंहार उपनयः । यथा धूमवांश्चायम्।
(प्रमी २.१.१४) २. जो नय के समीप होता है, नय न होते हुए भी नयतुल्य होता है वह उपनय कहलाता है, जैसे- सदभुत व्यवहारनय। नयानां समीपा उपनयाः।
(आप३७)
उपपात जन्म का एक प्रकार । देवों और नारकों का क्रमशः शय्या एवं कुम्भी में उत्पन्न होना। 'उववाए'त्ति उपपतनमुपपातो-देवनारकाणां जन्म।
(स्था १.२८ वृ प १९)
तत्रोपबंहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम्।
(दहावृ प १०२) उपभोग वह पदार्थ, जिसका बार-बार उपयोग किया जाता है, जैसेवस्त्र, भाजन आदि। पुनः पुनर्भुज्यते इत्युपभोगो वस्त्रालंकारादि, उक्तं च." उवभोगो उ पुणो पुण उवभुज्जइ वत्थविलयाइ।
(प्रज्ञा २३.५९ वृ प ४७५) उपभोगपरिभोगपरिमाण गृहस्थधर्म का सातवां व्रत । पदाची के उपभोग और परिभोग का सीमाकरण।
(उपा १.३७) उपभोगपरिभोगातिरिक्त अनर्थदण्डविरमण व्रत का एक अतिचार । खान-पान, स्नान आदि प्रवृत्तियों के लिए आवश्यक वस्तुओं का अपेक्षा से अधिक उपयोग करना। उपभोगपरिभोगविषयभूतानि यानि द्रव्याणि स्नानप्रक्रमे उष्णोदकोद्वर्तनकामलकादीनि, भोजनप्रक्रमे अशनपानादीनि, तेषु यदतिरिक्तम्-अधिकमात्मादीनामर्थक्रियासिद्धावाप्यवशिष्यते तदपभोगपरिभोगातिरिक्तम।
(उपा १.३९ वृ पृ १७)
उपपातगति क्षेत्र, भव और नोभव से संबद्ध गति। उपपात:--प्रादुर्भावः, सच क्षेत्रभवनोभवभेदात् त्रिविधः... उपपात एव गतिरुपपातगतिरिति।
(प्रज्ञ. ६.२४ वृ प ३२८) (द्र क्षेत्रोपपातगति, भवोपपातगति, नोभवोपपातगति)
उपपातज बिना गर्भ के अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण विकसित शरीर के साथ जन्म लेने वाला। देवता और नारक का जन्म इसी प्रकार होता है। उपपाताजाता उपपातजाः अथवा उपपाते भवा औपपातिका-देवा नारकाश्च। (द ४.९ हाव प १४१) (द्र उपपात)
उपभोगान्तराय अंतराय कर्म की एक प्रकृति. जिसके उदय से उपभोग्य पदार्थ के होने पर भी व्यक्ति उसका उपभोग नहीं कर पाता। स्त्रीवस्त्रशयनाऽऽसनभाजनादिरूपो भोगः।पुनः पुनरुपभुज्यते हि सः"स सम्भवन्नपि यस्य कर्मण उदयान्न परिभुज्यते तत् कर्म उपभोगान्तरायाख्यम्।
(तभा ८.१४ वृ)
उपपातसभा वह कक्ष, जहां इन्द्र उत्पन्न होता है। उपपातसभा यस्यामुत्पद्यते। (स्था ५.२३५ व प३३४)
उपपाद देवनारकामुपपादः। (द्र उपपात)
(तवा २.३४)
उपयुक्त वह व्यक्ति, जो करणीय कार्य में दत्तचित्त है। उपयुक्तश्च भावतो दत्तावधानः। (उ २४.८ शावृ प५१५) उपयोग ज्ञान और दर्शन रूप चेतना का व्यापार। चेतनाव्यापार: उपयोगः।
(जैसिदी २.३)
उपबृंहण सम्यक्त्व का पांचवां आचार। साधर्मिकों के सद्गुणों की प्रशंसा कर उनको वृद्धिंगत करना।
उपयोगआत्मा आत्मा का ज्ञान, दर्शन की प्रवृत्ति वाला पर्याय ।
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उदयोदीरणानिधत्तिनिकाचनाऽयोग्यत्वम् उपशमः।
(जैसिदी ४.५ )
उपशम श्रेणी अध्यात्म विकास की वह श्रेणी, जिसमें मोहकर्म को उपशान्त किया जाता है, जो आठवें से ग्यारहवें गणस्थान तक होती
(तवा ९.१.१८) (द्र क्षपकश्रेणी)
साकारानाकारभेदस्तत्प्रधान आत्मा उपयोगात्मा।
(भग १२.२०० वृ) उपयोग इन्द्रिय भावेन्द्रिय का एक प्रकार। अर्थ (इन्द्रियविषय) को ग्रहण करने वाला चेतना का व्यापार। जो सविसयवावारो सो उवओगो। (विभा २९९८) उपरमअनित्यता वह अनित्यता, जिसका अत्यन्ताभाव नहीं होता, जैसे-पुनर्जन्म। उपरमानित्यता तु भवोच्छेदवदपास्तगतिचतुष्टयपरिभ्रमक्रियाक्रमपर्यन्तवर्तिनी परिप्राप्तावस्थानविशेषरूपा, नात्यन्ताभावभाविनीति।
(तभा ५.४ वृ) उपरौद्र परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार । पापकर्म में रत वे असर देव, जो नैरयिकों के अंगोंपांगों को भिन्न करते हैं। उनके बाहू, सिर, हाथ और पैरों को कैंची से काटते हैं। भंजंति अंगमंगाणि, बाहसिराणि कर-चरणे। कप्पंति कप्पणीहिं, उवरुद्दा पावकम्मरया।।
(सूत्रनि ७३)
उपशान्त वह व्यक्ति, जिसका मोह उदय अवस्था में नहीं होता। उपशान्तः-अनुदयावस्थः।
(प्रज्ञावृ प २९१)
उपशान्तमोह जीवस्थान/गुणस्थान का ग्यारहवां प्रकार । मोहकर्म के सर्वथा उपशम से होने वाली जीव की आत्मविशुद्धि। उपशान्तः सर्वथानुदयावस्थो मोहः।
(सम १४.५ वृ प २७) उपसम्पदा आलोचना उपसम्पदा हेतु उपस्थित मुनि द्वारा की जाने वाली आलोचना।
(निभा ६३१० चू) उपसम्पदा सामाचारी ज्ञान आदि की उपलब्धि के लिए दूसरे गण के आचार्य आदि की सन्निधि में रहना, उनका मर्यादित काल तक शिष्यत्व स्वीकार करना। आचार्यान्तरादिसन्निधौ अवस्थाने उप-सामीप्येन सम्पादनं गमन""उपसम्पद्-इयन्तं कालं भवदन्तिके मयाऽऽसितव्यमित्येवंरूपा।
(उ २६.७ शावृ प५३५)
उपवास १. शब्द आदि पांच इन्द्रिय-विषयों के प्रति उत्सकता की निवृत्ति करना। २. अशन, पान, भक्ष्य और लेह्य-इस चतुर्विध आहार का त्याग करना। शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तौत्सुक्यानि पञ्चापीन्द्रियाणि उपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवासः।अशनपानभक्ष्यलेह्यलक्षणचतुर्विधाहारपरित्याग इत्यर्थः। (तवा ७.२१) (द्र अभक्तार्थ)
उपशम कर्मकरण का एक प्रकार। मोहनीय कर्म के विपाकोदय और प्रदेशोदय को रोकना, उसे उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना के अयोग्य बना देना। मोहकर्मणो वेद्याभाव उपशमः। (जैसिदी २.४६) विपाकप्रदेशानुभवरूपतया द्विभेदस्याप्यदयस्य विष्कम्भणमुपशमस्तेन निवृत्त औपशमिकः। (उशावृ प ३३)
उपसम्पद्यमानगति किसी एक व्यक्ति के नेतृत्व में होने वाली गति (यात्रा)। उपसम्पद्यमानगतिर्यदन्यमुपसम्पद्य-आश्रित्य तदवष्टम्भेन गमनम्।
(प्रज्ञा १६.४१ वृ प ३२९) उवसंपज्जमाणगती-जण्णं रायं वा"सेणावइंवा सत्थवाहं वा उवसंपज्जित्ता णं गच्छति। (प्रज्ञा १६.४१)
उपस्थापनाचार्य वह आचार्य, जो शिष्य को महाव्रतों में उपस्थापित करता है।
(स्था ४.४२२)
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उपस्थापना अन्तेवासी वह शिष्य, जो केवल उपस्थापना की दृष्टि से आचार्य के पास रहता है। उपस्थापनान्तेवासी महाव्रतारोपणतः शिष्य इति।
(स्था ४.४२४ वृ)
उपासकदशाधर वह मुनि, जो उपासकदशाङ्ग के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है।
उपाङ्ग औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि बारह अंगबाह्य आगम, जो श्रुतपुरुष के उपांगभूत हैं। अर्थतोऽङ्गस्य समीपभावेनेदमुपाङ्गम्। (औपवृ पृ१) । उपाङ्गान्यौपपातिकप्रभृतीन्यङ्गार्थानुवादीनि।
(तभा ६.१४ वृ पृ २७) (द्र अङ्ग, निरयावलिका)
उपासकप्रतिमा उपासक (श्रावक) द्वारा किया जाने वाला साधना का विशेष प्रयोग, जो राजाभियोग आदि आकारों (अपवादों) से मुक्त होता है। इसका कालमान साढे पांच वर्ष का होता है। उपासका:-श्रावकास्तेषां प्रतिमा:-प्रतिज्ञाः अभिग्रह-रूपाः उपासकप्रतिमाः।
(सम ११.१ वृ प १९) एकमासं प्रथमाया: प्रतिमायाः पालनेन द्वौ मासौ द्वितीयायाः प्रतिमायाः पालनेन एवं यावदेकादश मासानेकादश्याः पालनेन पञ्च सार्धानि वर्षाण्यर्थतः प्रतिपादितानीति।
(प्रसावृ प २९४) उपेक्षा असंयम असंयम का एक प्रकार। आत्मसंयम की उपेक्षा अथवा असंयम में निरत होना। उपेक्षाऽसंयमोऽसंयमयोगेषु व्यापारणं संयमयोगेष्वव्यापारणं वा।
(सम १७.१ वृ प ३२)
उपाध्याय धर्मसंघ में सात पदों में से एक पद। सूत्र और अर्थ की विधि का पारगामी, आचार्य-पद के योग्य और सूत्र का अध्यापन करने वाला। .....आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वागणी य गणहरे वा गणावच्छेइए वा।
(आचूला १.१३०) उपाध्याय: अध्यापकः।
(आवृ प २३६) सम्मत्तनाणसंजमजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिनू। आयरियठाणजोगो सुत्तं वाए उवज्झाओ॥
(प्रसा १०२ वृ प २४)
उपानद् अनाचार का एक प्रकार। पैरों में जूते पहनना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। उवाहणा पादत्राणम्।
(द ३.४ अचू पृ६१)
उभयधर वह मुनि, जो सूत्र और अर्थ दोनों का धारक होता है। पाठकः, अर्थधरो बोद्धा अन्यस्तूभयधरः। (स्थावृप १८६) उभयबन्धिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध उसके उदय-काल और अनुदय-काल दोनों में होता है, जैसे-निद्रा, निद्रा-निद्रा आदि। उभयस्मिन्नुदयेऽनुदये वा बन्धो यासां ताः उभयबंधिन्यः।
(कप्र पृ ४०) उष्णतेजोलेश्या निग्रह करने वाली तेजोलेश्या। तैजसमुष्णगुणं शापानुग्रहसामर्थ्याविर्भावनं तदेव यदोत्तरगुणप्रत्यया लब्धिरुत्पन्ना भवति तदा परं प्रति दाहाय विसृजति।
(तभा २.३७ ७) (द्र तेजालश्या)
उपासक
(भग ५.९६)
(द्र श्रमणोपासक)
उपासकदशा द्वादशाङ्ग श्रुत का सातवां अङ्ग, जिसमें भगवान महावीर के दस प्रमुख श्रावकों के जीवन का वर्णन है। उवासगदसास णं उवासयाणं नगराई.......... आघविज्जति।
(समप्र ९५)
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उष्ण परीषह गर्मी से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय ।
उसिणपरियावेणं परिदाहेण तज्जिए। प्रिंसु वा परियावेणं सायं नो परिदेवए। उण्हाहितत्ते मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए। गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं।
(उ२.८,९)
ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम दिग्व्रत का एक अतिचार। ऊर्ध्वदिशा में जाने के नियत प्रमाण का अनजान में अथवा किसी अन्य कारणवश अतिक्रमण करना। उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे एते चोर्ध्वदिगाद्यतिक्रमा अनाभोगादिनाऽतिचारतयाऽवसेयाः। (उपा १.३७ वृ पृ१४) ऊर्ध्वलोक तिर्यग् लोक के ऊपर का भाग, जो कुछ कम सात रज्जुप्रमाण
(देखें चित्र पृ ३४१) "तियग्लोकस्ततः परत ऊर्ध्वभागस्थितत्वात् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तरज्जुप्रमाणः।" उड़े उवरिं जं ठिय, सुहरवेत्तं खेत्तओ य दव्वगुणा। उप्पजंति सुभा वा तेण तओ उड़लोगो ति॥
(स्था ३.१४२ वृ प १२१) ऊर्ध्वव्यतिक्रम
(तसू ७.२५) (द्र ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम)
उष्ण योनि वह उत्पत्ति-स्थान, जो उष्ण होता है। शीता शिशिरा। तद्विपरीतोष्णा। उभयस्वभावा मिश्रा।
(तभा २.३३ वृ)
है।
ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया मिथ्या-दर्शनप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार, जिसमें तत्त्व के स्वरूप का न्यून या अधिक स्वीकार हो, जैसे-शरीरव्यापी आत्मा को अंगुष्ठप्रमाण या सर्वव्यापी स्वीकार करना। ऊनं स्वप्रमाणाधीनमतिरिक्तं-ततोऽधिकमात्मादि वस्त तद्विषयं मिथ्यादर्शनमूनातिरिक्तमिथ्यादर्शनं तदेव प्रत्ययो यस्याः सा ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया।
(स्था २.१९ वृ प ३९)
ऊह
(प्रमी १.२.५)
(द्र तर्क)
ऊनोदरिका
(उ ३०.८)
(द्र अवमोदरिका)
ऊर्ध्वता सामान्य पूर्व और अपर अवस्थाओं में होने वाली एकरूपता, जैसेघट आदि का आकार बदल जाने पर भी मृत्तिका अनुगत । रहती है। पूर्वापरपरिणाममसाधारणं द्रव्यमूर्ध्वतासामान्यम्। ऊर्ध्वतादिसामान्यं पूर्वापरगुणोदयम्। पिंडस्थादिकसंस्थानानुगता मृद्यथा स्थिता॥ (द्रत १.४) (द्र तिर्यग्सामान्य)
ऋजुआयता श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार। आकाश-प्रदेशों की वह पंक्ति (श्रेणि), जो सीधी और लंबी हो। जब जीव और पुद्गल ऊंचे लोक से नीचे लोक में अथवा नीचे लोक से ऊंचे लोक में जाते हुए सम-रेखा (समश्रेणी) में गति करते हैं, कोई घुमाव नहीं लेते, वह ऋजुआयता श्रेणि कहलाती है। इस गति में केवल एक समय लगता है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'उज्जुयायत' त्ति ऋजुश्चासावायता चेति ऋज्वायता यया जीवादय ऊर्ध्वलोकादेरधोलोकादौ ऋजतया यान्तीति।
(भग २५.९१ वृ प ८६५) 'उज्जुआययाए' त्ति यदा मरणस्थानापेक्षयोत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां भवति तदा ऋज्वायता श्रेणिर्भवति।
(भग ३४.२ वृ प ९५६)
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ऋजुगति
(द्र ऋजुआयता श्रेणि)
ऋजुड
वह साधु, जो स्वभाव से ऋजु और मति से जड़ होता है। उसे धर्म का तत्त्व समझाना कठिन होता है। 'उज्जुजड्डे' त्ति ऋजवश्च प्राञ्जलतया जडाश्च तत एव दुष्प्रतिपाद्यतया ऋजुजडाः । ( उ २३.२६ शावृ प ५०२) (द्र वक्रजड)
(प्रज्ञा वृ प ३१३)
ऋजुदर्शी
जिसकी दृष्टि मोक्षमार्ग पर टिकी हुई है। उज्जू मोक्खमग्गो, तं पसंतीति उज्जुदंसिणो ।
ऋजुप्रज्ञ
वह साधु, स्वभाव से ऋजु और प्रज्ञावान होता है, उसे धर्म का तत्त्व समझाना सरल होता है।
जो
(द ३.११ अचू पृ ६३ )
'ऋजुप्रज्ञा: ' ऋजवश्च ते प्रकर्षेण जानन्तीति प्रज्ञाश्च सुखेनैव विवक्षितमर्थं ग्राहयितुं शक्यन्त इति ऋजुप्रज्ञाः । ( उ २३.२६ शावृ प ५०२)
(द्र ऋजुजड)
ऋजुमति मनः पर्यव
मनः पर्यवज्ञान का एक प्रकार । मन के सामान्य अथवा एकरूप पर्यायों को जानने वाला मनः पर्यवज्ञान |
रिजु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिजुमई मणोनाणं ।
ऋतुबद्धकाल
(द्र द्वितीय समवसरण)
ऋद्धि
१. ऐश्वर्य, सम्पदा । २. योगविभूतिजन्य शक्ति ।
(द्र लब्धि)
ऋजुसूत्र नय
वर्तमान पर्याय को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण | वर्तमानपर्यायग्राही ऋजुसूत्रः ।
( विभा ७८४)
( भिक्षु ५.१० )
(भग ३.४ )
ऋद्धि गौरव
गौरव का एक प्रकार । वह अशुभभाव, जिसके द्वारा ऋद्धि की प्राप्ति का अभिमान, अप्राप्तऋद्धि की प्रार्थना की जाती है।
७५
ऋद्धिप्राप्त्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभ भाव: ऋद्धयादिषु गौरवमादरः । (स्था ३.५०५ वृ प १६३) ऋद्धिप्राप्त
१. लब्धि अथवा योगजविभूति से सम्पन्न । २. विशुद्ध भावधारा वाला।
यत्र तु कीलिका नास्ति तद् ऋषभनाराचम् ।
ऋषभनाराच संहनन
संहनन का एक प्रकार, जिसमें हड्डियों की आंटी और वेष्टन होते हैं, कील नहीं होती।
( प्रज्ञा १.९० )
(स्था ६.३० वृ प ३३९)
(द्रवज्रऋषभनाराच संहनन)
ऋषिभाषित
कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें पैंतालीस अर्हतों के प्रवचन संकलित हैं । (नन्दी ७८)
ए
एक अवग्रहमति
योषिदादिस्पर्शानां यं किञ्चिदेकं स्पर्शमवगृह्णाति, अन्यान् सतोऽपि क्षयोपशमापकर्षात् न गृह्णाति तदाल्पम् - एकमवगृह्णातीत्युच्यते । (तभा १.१६ वृ)
(द्र अल्प अवग्रहमति )
एकजीवक
वह वनस्पति, जिसके एक शरीर में एक जीव होता है । पत्राणि एकजीवकानि - एकजीवाधिष्ठितानि ।
(प्रज्ञावृ प ३३) (प्रज्ञा १.३५ )
पत्ता पत्तेयजीविया ।
एकत: खा श्रेणि
आकाश श्रेणि का एक प्रकार । वह श्रेणि जिसमें स्थावर जीव (अथवा पुद्गल) त्रसनाडी के किसी भी एक पार्श्व से उसमें प्रवेश कर मुड़कर उसके अन्दर नीचे (या ऊपर) की
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एकत्वविक्रिया वैक्रिय लब्धि का एक प्रकार। अपने शरीर का सिंह आदि के रूप में परिवर्तन करना। एकत्वविक्रिया--स्वशरीरादपथग्भावेन सिंहव्याघहंसकुररादिभावेन विक्रिया।
(तवा २.४७)
ओर गति कर पुनः उसके उसी पार्श्व की ओर मुड़कर नियतस्थान में उत्पन्न होता है। इसमें दो या तीन घुमाव लेता है। उसके त्रसनाड़ी के बाहर का आकाश एक ओर से स्पृष्ट होता है इसिलए इसे एकतः खा कहा जाता है। इसमें भी एकतोवक्रा, द्वितोवक्रा श्रेणी की भांति वक्र गति होती है किन्तु त्रसनाड़ी की अपेक्षा से इसका स्वरूप उनसे भिन्न है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'एगओखह' त्ति यया जीवः पुद्गलो वा नाड्या वामपाश्र्वादेस्तां प्रविष्टस्तयैव गत्वा पुनस्तद्वामपाश्र्वादावुत्पद्यते सा एकतः खा, एकस्यां दिशि वामादिपावलक्षणस्य भावादिति, इयं च द्वित्रिचतुर्वक्रोपेताऽपि क्षेत्रविशेषाश्रितेति भेदेनोक्ता, स्थापना चेयम्। (भग २५.९१ वृ प ८६८) एकतोवक्रा श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार । जीव अथवा पुद्गल की एक घुमाव वाली गति का पथ। मूलतः आकाशश्रेणियां ऋजु (सीधी) ही होती हैं। एक दिशा से दूसरी दिशा में गमन । करने की अपेक्षा से वक्रा कहा गया है। यह तब होता है। जब च्यवन-स्थान की अपेक्षा से उत्पत्ति-स्थान उसी प्रतर में, किन्तु विश्रेणि में होता है। जब जीव और पुद्गल ऋजु गति करते-करते दूसरी श्रेणि में प्रवेश करते हैं तब उन्हें एक घुमाव लेना होता है इसलिए उस मार्ग को 'एकतोवक्रा श्रेणी' कहा जाता है, जैसे-कोई जीव या पुद्गल नीचे लोक की पूर्व दिशा में च्युत होकर ऊंचे लोक की पश्चिम दिशा में जाता है तो पहले-पहल वह ऋजुगति के द्वारा ऊंचे लोक की पूर्व दिशा में पहुंचता है-समश्रेणी गति करता है। वहां से वह पश्चिम दिशा की ओर जाने के लिए एक घुमाव लेता है। इस गति में दो 'समय' लगते हैं। (देखें चित्र पृ ३४१) 'एगओ वंक' त्ति 'एकत' एकस्यां दिशि वङ्का' वक्रा यया जीवपुद्गला ऋजु गत्वा वक्रं कुर्वन्ति-श्रेण्यन्तरेण यान्तीति, स्थापना चेयम्। (भग २५.९१ वृ प ४६८) एगओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा।
(भग ३४.३) यदापुनर्मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमेकप्रतरे विश्रेण्यां वर्त्तते तदैकतोवक्रा श्रेणिः स्यात् समयद्वयेन चोत्पत्तिस्थानप्राप्तिः स्यादित्यत उच्यते। (भग ३४.३ वृ प ९५६, ९५७)
एकत्ववितर्कअविचार शुक्लध्यान का दूसरा चरण । एकत्व का अर्थ अभेद. वितर्क का अर्थ श्रुत और अविचार का अर्थ असंक्रमण है। एकत्व का चिन्तन करने वाला ध्यान एकत्ववितर्क है। इसमें एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर, अर्थ से शब्द पर, शब्द से अर्थ पर एवं एक योग से दूसरे योग पर परिवर्तन नहीं होता। अत: यह अविचार है। एगत्तवियक्के ति एकत्वेन-अभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालम्बनतयेत्यर्थो वितर्कः पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्कम्, तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र सञ्चरणलक्षणः।
(स्था ४.६९ वृ प १८०) (द्र पृथक्त्ववितर्कसविचार) एकत्वअनुप्रेक्षा चतुर्थ अनुप्रेक्षा । आत्मा के एकत्व का अनुचिन्तन । रोग, जरा, मरण आदि दुःखों में कोई भागीदार नहीं बनता, स्वकृत कर्मफल स्वयं को ही भोगना होता है इसका अनुचिन्तन करना, अपनों के प्रति राग और परायों के प्रति द्वेष से अलग होकर आत्मा के अकेलेपन का पुनः-पुनः चिन्तन करना। एक एवाहं न मे कश्चित् स्वः परो वा विद्यते। एक एवाहं जाये एक एक म्रिये"एक एवाहं स्वकृतकर्मफलमनुभवामीति चिन्तयेत्। एवं ह्यस्य चिन्तयतः स्वजनसंज्ञकेषु स्नेहानुरागप्रतिबन्धो न भवति परसंज्ञकेषु च द्वेषानुबन्धः। ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव यतत इत्येकत्वानुप्रेक्षा।
(तभा ९.७) एकपाक्षिक वह मुनि, जो एक ही आचार्य के पास प्रव्रज्या और श्रुतदोनों ग्रहण करता है। अथवा दीक्षित होकर एक ही गण में रहता है।
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दुविहो य एगपक्खी, पव्वज्जसुते य होति नायव्वो। सुत्तम्मि एकवायण, पव्वज्जाए कुलिव्वादी॥
(व्यभा १२९९)
एकभविक नोआगमत: ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यनिक्षेप का एक प्रकार । वह जीव, जिसके भावी जन्म में अमुक रूप में होने । का निर्धारण हो चुका हो किन्तु आयुष्य का बंधन न हुआ हो। वह वर्तमान भव में एकभविक (भावी भव वाला जीव) कहलाता है। यो जीवो मृत्वाऽनन्तरभवे शोषु उत्पस्यते स तेष्वबद्धायुष्कोऽपि जन्मदिनादारभ्य एकभविकः स शख उच्यते।
(अनु ५६८ मवृ प २१३)
प्रतिपादन करने वाला दृष्टिकोण। (सप्र १.१४) एकान्त परोक्ष वह ज्ञान, जिससे ज्ञेय वस्तु का आत्मा और इन्द्रिय से साक्षात्कार नहीं होता, जैसे-अनुमान ज्ञान। एकान्तेनाऽऽत्मन इन्द्रियमनसां चाऽसाक्षात्कारेणोपजायमानत्वादेकान्तपरोक्षम्।
(विभा ९५ वृ) एकामर्शा प्रतिलेखना का एक दोष। वस्त्र को बीच में से पकड़कर, उसके दोनों पार्यों का एक बार में ही स्पर्श करना-एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देखना। एकामर्शनं एकामर्शा'"मध्ये गृहीत्वा ग्रहणदेशं यावदुभयतो वस्त्रस्य यदेककालं संघर्षणमाकर्षणम्।
___ (उ २६.२७ शावृ प५४१) एकार्थिकानुयोग द्रव्यानुयोग का एक प्रकार । एकार्थवाची या पर्यायवाची शब्दों के द्वारा द्रव्य की व्याख्या करना। एकश्चासावर्थश्च-अभिधेयो जीवादिः स येषामस्ति त एकार्थिकाः शब्दास्तैरनुयोगस्तत्कथनमित्यर्थः।
(स्था १०.४६ वृप ४५६)
एकविध अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। एक पर्याय का अवग्रहण करना, जैसे-किसी वाद्य के एक शब्द को ग्रहण करना। .""ततादिशब्दानामेकविधावग्रहणात् एकविधमवगृह्णाति।
(तवा १.१६.१६) एकलविहारप्रतिमा प्रतिमा का एक प्रकार। पूर्णतः अकेले रहने का संकल्प करना। एकाकिनो विहारो-ग्रामादिचर्या स एव प्रतिमा-अभिग्रहः एकाकिविहारप्रतिमा। (स्था ८.१ वृ प ३९५)
एकसिद्ध वह सिद्ध, जो एक समय में अकेला मुक्त होता है। एकम्मि समए एक्को चेव सिद्धो। (नन्दी ३१ चू ए २७)
एकस्थान प्रत्याख्यान का एक प्रकार। दिन में एक समय, एक आसन में एक बार से अधिक भोजन नहीं करना। (आव ६.५)
एकासन प्रत्याख्यान का एक प्रकार। दिन में एक स्थान पर बैठकर एक बार से अधिक भोजन नहीं करना। (आव ६.४) एगासणगं नाम पुता भूमीतो ण चालिज्जंति, सेसाणि हत्थे पायाणि चालेज्जावि। (आवचू २ पृ ३१६) एकेन्द्रिय १. केवल एक स्पर्शन इन्द्रियवाला प्राणी, जैसे-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक आदि। एकमिन्द्रियं-करणं स्पर्शनलक्षणमेकेन्द्रिय पृथिव्यादयः।
(स्था ५.२०४ वृ प ३१९) २. एक समय में एक ही इन्द्रिय का उपयोग हो सकता है अतः पञ्चेन्द्रिय भी उपयोग की दृष्टि से एकेन्द्रिय है। एगेण चेव तम्हा उवओगेगिंदिओ सव्वो॥ (विभा २९९८)
एकानुप्रेक्षा धर्म्यध्यान की अनप्रेक्षा का एक प्रकार। (द्र एकत्व अनुप्रेक्षा)
(स्था ४.६८)
एकान्तनय दुर्नय, एकांगी दृष्टिकोण। सामान्य और विशेष का निरपेक्ष
एकेन्द्रिय रत्न चक्रवर्ती के वे सात रत्न, जो पृथ्वीकायिक होते हैं, जो की मार
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कल्पनीय, जो आहार आदि वस्तु मनि के लेने योग्य है।
(भग १.४३८)
ऐरवत कर्मभूमि का एक प्रकार।
(स्था २.२६८)
(द्र ऐरावत)
पृथ्वीकाय के परिणमन से निष्पन्न हैं, जैसे-चक्र आदि। चक्रादीनि सप्त एकेन्द्रियाणि पृथिवीपरिणामरूपाणि।
(प्रसावृ प ३५१) एकोरुक एकोरुक नामक अन्तरद्वीप में उत्पन्न मनुष्य, जो गुफाओं में रहते हैं और मिट्टी का आहार करते हैं। आठ सौ धनुष की अवगाहना वाले होते हैं। उन प्राणियों के चौसठ पृष्ठकरण्डक होते हैं।
"एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे णामं दीवे ॥ .."अट्ठधणुसयऊसित्ता, चोउटुिं पिट्ठकरंडगा"।
(जीवा ३.२१७,२१८) एकोरुका मृदाहारा गुहावासिनः। (तवा ३.३६) एवंभूत नय क्रियापरिणति के अनुरूप ही शब्द के प्रयोग को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण, जैसे अध्यापनक्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए अध्यापक शब्द का प्रयोग। क्रियापरिणतमर्थं तच्छब्दवाच्यं स्वीकुर्वन्नेवंभूतः।
(भिक्षु ५.१३) एवंभूत वेदना जैसे कर्म किया, वैसे ही वेदना का अनुभव करना। एवंभूयं वेयणं ति यथाविधं कर्म निबद्धं एवंभूतामेवं प्रकारतयोत्पन्नां वेदनाम्"अनुभवन्ति। (भग ५.११६७) (द्र अनेवंभूत वेदना ) एषणा दोष भिक्षाकाल में मुनि और दानदाता गृहस्थ दोनों की ओर से होने वाली अनाचरणीय प्रवृत्ति। गहणेसणाइ दोसे आयपरसमुट्ठिए वोच्छं।
(पिनि ५१४)
ऐरावत कर्मभूमि का वह क्षेत्र, जो शिखरी पर्वत तथा पूर्व, पश्चिम
और उत्तर समुद्रों के बीच अवस्थित है। इसके बीच में विजयार्ध पर्वत है। इसमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालचक्र का क्रम चलता रहता है। शिखरिणो गिरेस्त्रयाणां पूर्वापरोत्तरसमुद्राणां मध्ये तस्यैरावतस्य उपन्यासो वेदितव्यः।
(तवा ३.१०) (द्र महाविदेह) ऐर्यापथिक बन्ध
(भग ८.३०२ वृ) (द्र ईर्यापथिक बन्ध) ऐर्यापथिकी क्रिया अजीवक्रिया का एक प्रकार। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली की प्रवृत्ति के निमित्त से होने वाली सातवेदनीय कर्मरूप पुद्गल-राशि। प्रवृत्तिनिमित्तं तु यत्केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्मतया अजीवस्य पदगलराशेर्भवनं सा ऐर्यापथिकी क्रिया।
(स्था २.४ वृ प ३७) संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स"जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ। (भग ७.१२६) (द्र ईर्यापथिक बन्ध)
एषणा समिति आगमिक विधि के अनुसार संयम-जीवन के साधनभूत अन्न-पान, पात्र, वस्त्र आदि की एषणा करना। अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य चोदगमोत्पादनैषणादोषवर्जनमेषणासमितिः। (तभा ९.५)
ओ
एषणीय
ओघनियुक्ति चरण-करण का सामान्य प्रतिपादन करने वाला नियुक्ति ग्रंथ।
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ओहेण उ निजुत्तिं वोच्छं चरणकरणाणुओगातो।।
(ओभा १४) ओघसंज्ञा इन्द्रिय और मन के बिना केवल संवेदना के स्तर पर होने वाला ज्ञान । प्रकम्पनों से होने वाला ज्ञान। ओध:-सामान्यम् अप्रविभक्तरूपं यत्र न स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तानि मनोनिमित्तमाश्रीयन्ते, केवलं मत्यावरणीयक्षयोपशम एव तस्य ज्ञानस्योत्पत्तौ निमित्तम्। (तभा १.१४ वृ)
औत्पत्तिकी बुद्धि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार। अदृष्ट, अश्रुत और अज्ञात अर्थ का तत्क्षण यथार्थ रूप से ग्रहण करने वाली बुद्धि। पव्वं अदिदमसयमवेडय-तक्खणविसद्धगहियत्था अव्वाहय-फलजोगा, बुद्धी उप्पत्तिया नाम॥
(नन्दी ३८.२) औदयिक भाव उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था। ...उदयः तेन निर्वृत्तो भव औदयिकः। (जैसिदी २.४५ वृ) (द्र उदयनिष्पन्न)
ओघ सामाचारी साधुओं के संघीय व्यवहार की व्यवस्था। वह इच्छाकार आदि दस प्रकार की होती है। सामाचारी दशविधा ओघरूपा"। (उशावृ प ५४७) (द्र सामाचारी)
ओघादेश व्याख्या का एक कोण, जिसके द्वारा सामान्य रूप से वस्त का प्ररूपण किया जाता है। (द्र विधानादेश)
औदारिक अस्वाध्याय अस्थि, मांस आदि के परिपार्श्व में तथा चन्द्रग्रहण आदि के समय आगम-स्वाध्याय का निषेध। दसविधे ओरालिए असज्झाइए पण्णत्ते, तं जहा-अलि, मंसे, सोणिते, असइसामंते, ससाणसामंते. चंदोवराए. सरोवराए, पडणे, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे।
(स्था १०.२१)
ओघोदभवा शक्ति द्रव्य में होने वाली अव्यक्त शक्ति, घास में घृत होने की शक्ति। गुणपर्याययोः शक्तिमात्रमोघोदभवादिमा।" ज्ञायमाना तृणत्वेनाज्यशक्तिरनुमानतः" (द्रत २.६,७)
ओजआहार जन्म के प्रथम समय में कार्मण शरीर द्वारा वातावरण से अथवा माता-पिता से लिए जाने वाले आहारयोग्य पुद्गल। ओज-उत्पत्तिदेशे आहारयोग्यपुद्गलसमूहः।
(प्रज्ञा २८.१०५ वृप५१०)
औदारिककाययोग औदारिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यंच गति के जीवों की हलन-चलन रूप प्रवृत्ति। (तभा ९.४ वृ पृ १८४) (द्र वैक्रियकाययोग) औदारिकमिश्रकाययोग
(तभा २.२६ वृ) (द्र औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोग) औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोग औदारिक काययोग का कार्मण, वैक्रिय अथवा आहारक काययोग के साथ होने वाला मिश्रण, जो चार प्रकार से हो सकता है१. मनुष्य एवं तिर्यंचगति में उत्पन्न होने के समय जीव आहार ले लेता है, परन्तु शरीर पर्याप्ति का निर्माण पूर्ण नहीं हो पाता, उस अवस्था में कार्मण काययोग के साथ औदारिकमिश्र काययोग होता है। २. वैक्रियलब्धि वाले मनुष्य और तिर्यंच वैक्रिय रूप बनाते
औ
औधिक उपकरण वह उपकरण, जो मुनि के प्रतिदिन काम में आता है। औघिको नित्यमेव यो गृह्यते। (प्रसावृ प ११८)
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हैं, परन्तु जब तक वह पूर्ण नहीं होता, तब तक वैक्रिय काययोग के साथ औदारिक मिश्र काययोग होता है। ३. विशिष्टशक्तिसम्पन्न योगी आहारक शरीर का निर्माण करता है, जब तक आहारक शरीर पूरा नहीं बन जाता, तब तक आहारक काययोग के साथ औदारिक- मिश्र काययोग होता है।
४. केवली समुद्घात के दूसरे, छठे और सातवें समय में कार्मण के साथ औदारिक-मिश्र काययोग होता है । औदारिकमुत्पत्तिकालेऽसम्पूर्ण सत् मिश्रं कार्म्मणेनेति औदारिकमिश्रं तदेवौदारिकमिश्रकं तल्लक्षणं शरीरमौदारिकमिश्रकशरीरं तदेव कायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिकमिश्रकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स औदारिकमिश्रकशरीरकायप्रयोगः ।
यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पर्याप्तबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदा औदारिककाययोग एव वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् पुद्गलानुपादाय यावद् वैक्रियशरीरपर्याप्त्या न पर्याप्तिं गच्छति तावद्वैक्रियेणौदारिकशरीरस्य मिश्रता ।
--एवमाहारकेणाप्यौदारिकशरीरस्य मिश्रता ।
(भग ८.५८ वृ) द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु पुनः प्रदेशानां प्रक्षेपसंहारयोरौदारिके तस्माच्च बहिः कार्मणे वीर्यपरिस्पन्दादौदारिककार्मणमिश्रः । (औपवृ पृ २१० )
औदारिकमिश्रशरीरकाययोग
(औप १७६)
(द्र औदारिकमि श्रशरीरकायप्रयोग)
औदारिकवर्गणा
वह पुद्गल - समूह, जो औदारिक शरीर के निर्माण के योग्य है ।
तथाविधविशिष्टपरिणामपरिणतानन्तप्रदेशिकस्कन्धानामेकोत्तरवृद्धयौदारिकशरीरग्रहणप्रायोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति । औदारिकशरीरनिर्वर्तनयोग्या इत्यर्थः ।
(विभा ६३५ वृ)
औदारिक शरीर
स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न रस आदि धातुमय शरीर । यह
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मनुष्य और तिर्यञ्चों के ही होता है । स्थूलपुद्गलनिष्पन्नं रसादिधातुमयम् औदारिकम्, मनुष्यतिरश्चाम् ॥ (जैसिदी ७.२५ वृ)
औदारिकशरीरबन्धननाम
नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण औदारिक शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा तैजस और कार्मण के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है। यदुदयवशाद् औदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिपुद्गलैश्च सह सम्बन्ध उपजायते तदौदारिकबन्धनम् । (प्रज्ञा २३.४३ वृ प ४७० )
औद्देशिक
उद्गम दोष का एक प्रकार। निर्ग्रन्थ को दान देने के उद्देश्य से आरंभ समारंभ कर बनाया गया आहार आदि । उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित्तं आरंभो त्ति वृत्तं भवति । (द ३.२ जिचू पृ १११)
औपक्रमिकी वेदना
वेदनीय कर्म के विपाक तथा रोग आदि निमित्त से होने वाली वेदना । स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनं तेन निर्वृत्ता औपक्रमिकी | (प्रज्ञा ३५.१२ वृ प ५५७)
(द्र आभ्युपगमिकी वेदना)
औपग्रहिक उपकरण
मुनि का वह उपकरण, जो विशेष स्थिति में उपयोग में लिया जाता है।
1
कारणे आपन्ने संयमयात्रार्थं यो गृह्यते न पुनर्नित्यमेव स औपग्रहिकः । (प्रसावृ प ११८)
औपचारिक अवग्रह
(द्र व्यावहारिक अर्थावग्रह )
औपचारिक विनय
(विभामवृ १ पृ १६८)
(प्रसावृ प ६८ )
(द्र लोकोपचार विनय )
औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी
द्रव्यानुपूर्वी का एक प्रकार । विवक्षित अर्थ की पूर्वानुपूर्वी
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है।
(स्था
आदि क्रम से स्थापना करना।
आठ प्रकार हैं-आमर्पोषधि, श्वेलौषधि, जल्लौषधि, अधिकताध्ययनपर्वापर्वानपादिरचनाश्रयप्रस्तारोपयोगिनी मलौषधि विडौषधि सौषधि आस्थाविप टष्टिविट। औपनिधिकीत्युच्यते। (अनु १११ हावृ पृ ३१) औषधर्द्धिरष्टविधा-असाध्यानामप्यामयानां सर्वेषां
विनिवत्तिहेतरामर्शदवेलजल्लमलविसौषधिप्राप्ताऔपपातिक
स्याविषदष्ट्यविषविकल्पात्। (तवा ३.३६.३) १. उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। प्रथम उपांग, यह वर्णक का आधारभूत सूत्र तथा अन्य मतावलम्बियों का परिचयसत्र
(नन्दी ६६) २. पुनर्जन्म करने वाला।
कण्डिकानुयोग अस्थि मे आया ओववाइए।
(आ १.२)
अनुयोग (दृष्टिवाद) का एक विभाग । कण्डिका (गण्डिका) ३. उपपात जन्म से उत्पन्न होने वाला देव और नारक।
-समान वक्तव्यता के अर्थाधिकार का अनुसरण करने वाली औपपातिका देवनारकाः। (स्था ८.२ वृ प ३९५)
वाक्यपद्धति; उसका अर्थ प्रकट करने वाली विधि, जैसेऔपम्य
कुलकरगण्डिका, तीर्थंकरग्रण्डिका आदि। साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा दो वस्तुओं की तुलना करना।
इहैकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका
उच्यन्ते तासामनयोगः, अर्थकथनविधि: गण्डिकानयोगः । ओवम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-साहम्मोवणीए य वेहम्मो
(समप्र १२७ वृ प १२२) वणीए य।
(अनु ५३८)
गंडियाणुओगे कुलगरगंडियाओ, तित्थयरगंडियाओ"आघऔपम्य सत्य
विजंति।
(नन्दी १२१) सत्य का एक प्रकार । समान धर्म के आधार पर उपमा द्वारा (द्र गण्डिकानुयोग) किसी को उपमित करना, जैसे-आंखें कमल के समान हैं।
कतिसञ्चित दशममौपम्यसत्यमिति उपमैवौपम्यं तेन सत्यमौपम्यसत्यं यथा समुद्रवत्तडागं देवोऽयं सिंहस्त्वमिति, सर्वत्रैकार: प्रथमैक
संख्यात रूप में व्यक्त होने वाली राशि।
'कती' त्यनेन संख्यावाचिना द्वयादयः संख्यावन्तोऽभिधीयन्ते वचनार्थे द्रष्टव्य इहेति। (स्था १०.८९ वृ प ४६४)
''सञ्चिता:-कत्युत्पत्तिसाधाद् बुद्ध्या राशीकृतास्ते औपशमिक भाव
कतिसञ्चिताः।
(स्था ३.७ वृ प ९९) उपशम से होने वाली आत्मा की अवस्था।
(द्र अकतिसञ्चित) .."उपशमः"तेन निष्पन्नो भावः औपशमिकः।
कथाप्रबन्ध सम्भोज (जैसिदी २.४५ वृ)
सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार । (द्र उपशम)
साम्भोजिक साधुओं के साथ कथा का प्रबन्धन करना। यह औपशमिक सम्यक्त्व
व्यवहार असाम्भोजिक साधुओं के साथ भी हो सकता है। दर्शनसप्तक अनन्तानुबंकधिचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक के कथा-वादादिका पञ्चधा तस्याः प्रबन्धनं-प्रबन्धेन करणं उपशम से प्राप्त होने वाला सम्यक्त्व।
कथाप्रबन्धनं, तत्र सम्भोगासम्भोगौ भवतः। सम्यक्त्वं "अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहनीयत्रिकस्य
(सम १२.२ वृ प २३) चोपशमे औपशमिकम्।
(जैसिदी ५.४ वृ) कन्दर्प औषधि ऋद्धि
अनर्थदण्ड विरमण का एक अतिचार । कामवर्धक वाक्प्रयोग,
हास्य आदि। मोह को उद्दीप्त करने वाली हास्ययुक्त क्रीड़ा तप से प्राप्त वह लब्धि, जिसके प्रभाव से तपस्वी के स्पर्श
करना। आदि में समस्त औषधियों के गण प्राप्त हो जाते हैं। इसके
कन्दर्पः-कामस्तद्हेतुविशिष्टो कन्दर्प उच्यते, रागोद्रेकात्
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प्रहासमिश्रं मोहोद्दीपकं कर्मेति भावः।
तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे, वइकरणे, (उपा १.३९ वृ प १७) कायकरणे।
(स्था ३.१५)
६. इन्द्रिय। कपाट
इन्द्रियं-करणम्। (स्था ५.१७६ वृ प ३१९) केवलिसमुद्घात के दूसरे और सातवें समय की स्थिति में
७. शरीर का सघन चेतनामय वह स्थान (चैतन्य केन्द्र)। आत्म-प्रदेश शरीर के बाहर निकल कर दण्डाकार फैल जाते
जिसके माध्यम से अतीन्द्रिय-ज्ञान रश्मियां बाहर निकलती हैं। वह दण्ड ऊंचाई-निचाई में लोक-प्रमाण होता है। पर उसकी मोटाई शरीर के बराबर ही होती है। दूसरे समय में
(द्र सन्धि ) उक्त दण्ड पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण में फैलकर कपाटाकार
८. जिसका आचरण मुनि के द्वारा प्रयोजन होने पर किया (किंवाड के आकार का) बन जाता है।
जाता है, जैसे-पिण्डविशुद्धि आदि। (देखें चित्र पृ ३४३)
यत्त प्रयोजने आपन्ने क्रियते तत्करणम्""पिण्डविशुद्धयादि 'बिइए कवाडं करेइ'त्ति द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात्पावतो लोकान्तगामिकपाटमिव कपाटं ।
तु प्रयोजने समापन्ने क्रियते। (ओनिवृ प १४) करोति।
(औप १७४ ७ प २०९) करण अपर्याप्त (द्र केवलिसमुद्घात)
वह जीव, जो भविष्य में पर्याप्त होगा, पर अभी तक हुआ करण
नहीं है। १. मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का हेतुभूत जीववीर्य, ये पुनः करणानि, शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति, अथ जो कर्म के बंध, संक्रमण आदि आठ अवस्थाओं में निमित्त
चावश्यं निवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः। (प्रज्ञाव प २६) बनता है।
करणगुणश्रेणि चउबिहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे, वईकरणे,
क्षपक श्रेणि। वह परिणामधारा, जो मोह को क्षीण करने में कायकरणे, कम्करणरे।
(भग ६.५)
समर्थ है। (द्र कर्मकरण)
करणेन-अपूर्वकरणेन गुणहेतुका श्रेणि: करणगुणश्रेणिः २. पर्याप्तिनिर्माण की क्रिया. पौदगलिक शक्ति।
सर्वोपरितनस्थितेर्मोहनीयादिकर्मदलिकान्युपादायोदयसमयापर्याप्ति: पुद्गलरूपात्मनः कर्तुः करणविशेषः ।
त्प्रभृति द्वितीयादिसमयेष्वसंख्यातगुणपुद्गल"करणगुण(तभा ८.१२ वृ) श्रेणि: गृह्यते।
(उ २९.७ शावृ प ७९) ३. आत्मा का विशिष्ट प्रकार का परिणाम । इसके तीन प्रकार
करणवीर्य हैं-१. यथाप्रवृत्तिकरण २. अपूर्वकरण ३. अनिवृत्तिकरण।
वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय और शरीरनाम परिणामविशेष: करणम्।
(जैसिदी ५.७)
कर्म के उदय से होने वाली क्रियात्मक क्षमता। यथाप्रवृत्त्यपूर्वाऽनिवृत्तिभेदात् त्रिधा। (जैसिदी ५.८)
वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमतो"लब्धिवीर्यकार्यभूता क्रिया ४. करण अर्थात् क्रिया, इसके तीन रूप बनते हैं-कृत,
करणं तद्रूपं करणवीर्यम्। (भग १.३७६ वृ) कारित और अनुमत। करणं तिविहं-कतं कारितं अणुमतं। (दअचू पृ४१)
करणसप्तति ५. करण अर्थात् कार्य की सिद्धि में साधकतम, इसके तीन प्रयोजनवश किए जाने वाले सत्तर अनुष्ठानों का संकलन है, प्रकार हैं-मन, वचन और काय।
जैसे-चार पिण्डविशोधि, पांच समिति आदि। तेणेति साधकतमं करणं तइयाभिहाणओऽभिमयं।
पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो। केण तिविहेण भणिए मणेण वायाए काएणं ।।
पडिलेहणगुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु॥ (विभा ३५२४)
(ओनि ३)
(द्र करण)
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बंधण संकमणुव्वट्टणा य अववट्टणा उदीरणया। उवसामणा निहत्ती निकायणा च त्ति करणाई।
(क प्र२) कर्मविषयं करणं-जीववीर्यं बन्धनसंक्रमणादिनिमित्तभूतं कर्मकरणम्।
(भग ६.५ वृ) कर्मक शरीर
(प्रज्ञा २३.४१) (द्र कार्मण शरीर)
कर्मकशरीरबंधननाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण कर्मपुद्गलों का परस्पर संबंध स्थापित होता है। यदुदयात् कार्मणपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं संबन्धस्तत्कार्मणबन्धननाम। (प्रज्ञा २३.४३ वृप ४७०)
करण सत्य निर्दिष्ट क्रिया के प्रति दत्तचित्तता, जो कार्य करने का सामर्थ्य बढ़ाती है और उससे मुनि यथावादी तथाकारी होता है। करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ। करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ। (उ २९.५२) करणे सत्यं करणसत्यं यत्प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुरुते, तेन करणशक्तिं तन्माहात्म्यात् पुराऽनध्यवसितक्रियासामर्थ्यरूपां जनयति।
(उ २९.५२ शावृ प ५९१) करणानुयोग द्रव्यानुयोग का एक प्रकार। एक द्रव्य की निष्पत्ति में प्रयुक्त होने वाले साधनों का विचार। करणाणुओगो त्ति क्रियते एभिरिति करणानि तेषामनुयोगः करणानुयोगः। तथाहि-जीवद्रव्यस्य कर्तुर्विचित्रक्रियासु साधकतमानि कालस्वभावनियतिपूर्वकृतानि नैकाकी जीवः । किञ्चन कर्तुमलमिति, मृद्रव्यं वा कुलालचक्रचीवरदण्डादिकं करणकलापमन्तरेण न घटलक्षणं कार्यं प्रति घटत इति तस्य तानि करणानीति द्रव्यस्य करणानुयोगः।।
(स्था १०.४६ वृ प ४५६) करिष्यति दान अमुक आगे सहयोग करेगा, इस बुद्धि से जो दिया जाता है, वह दान। करिष्यति कञ्चनोपकारं ममायमितिबुद्धया यद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते। (स्था १०.९७ वृ प ४७१) कर्म १. आत्मा की प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट होने वाले पुद्गलस्कंध, जो कर्म रूप में परिणत होने योग्य हैं। आत्मप्रवृत्त्याकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गला: कर्म। (जैसिदी ४.१) २. उत्क्षेपण आदि क्रियाएं। कर्म-उत्क्षेपणापक्षेपणादि। (भग १.१४६ वृ)
कर्मचेतना इष्ट और अनिष्ट विकल्प से राग-द्वेष में परिणत होने वाली चेतना। स्वेहापूर्वेष्टानिष्टविकल्परूपेण विशेषरागद्वेषपरिणमनं कर्मचेतना।
(बृद्रसं वृ पृ ३९) कर्मजा बुद्धि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार। अभ्यास से उत्पन्न होने वाली बुद्धि। उपयोग (दत्तचित्तता) के द्वारा कर्म के रहस्य को देखने वाली बुद्धि। उवओगदिट्ठसारा, कम्मपसंगपरिघोलणविसाला। साहुक्कारफलवई, कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी॥
(नन्दी ३८.८) कर्मनिषेक अनुभवयोग्य-अबाधाकाल को छोड़कर शेष कर्म-स्थिति। यह निषेककालीन अवस्था है। अबाधोना-अबाधाकालपरिहीना अनुभवयोग्या कर्मस्थिति:'"-कर्मनिषेकः। (प्रज्ञा २३.६० ७ प ४७९)
कर्मकरण बंधन, संक्रमण उद्वर्तना, अपवर्त्तना, उदीरणा, उपशम, निधत्ति ।
और निकाचना-कर्म की इन आठ अवस्थाओं के घटित होने में निमित्त बनने वाला जीव का वीर्य ।
कर्मपरिग्रह जीव के द्वारा कृत और संगृहीत कर्मपुद्गल। तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा-कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरगभंडमत्तोवगरणपरिग्गहे।
(भग १८.१२३)
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कर्मप्रकृति कर्म का स्वभाव और प्रकार। प्रकृतिशब्देन स्वभावो भेदश्चाभिधीयते। (उचू प २७७) (द्र प्रकृतिबन्ध) कर्मप्रवाद पूर्व आठवां पूर्व । इसमें कर्म के स्वरूप का प्रज्ञापन किया गया
कर्मशरीर कायप्रयोग
(सम १३.७) (द्र कार्मणशरीर कायप्रयोग) कर्मस्थिति कर्म-बंध का कर्मरूप में होने वाला अवस्थिति-काल । स्थिति:-कर्मरूपतावस्थानलक्षणा।
(प्रज्ञा २३.६० वृप ४७९) कर्मादान आजीविका के लिए किया जाने वाला महाहिंसा और महापरिग्रह वाला व्यवसाय और उद्योग, जिससे कर्मों का आगमन होता है। 'कम्मादाणाई' ति कर्माणि-ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते यैस्तानि कर्मादानानि।
(भग ८.२४२ वृ)
कलह पाप पापकर्म का बारहवां प्रकार । कलह की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध।
(आवृ प ७२)
पर
अट्टमं कम्मप्पवादं, णाणावरणाइयं अविधं कम्मं पगति-ट्ठिति-अणुभाग-प्पदेसादिएहिं भेदेहिं अण्णेहि य उत्तरुत्तरभेदेहिं जत्थ वणिज्जति तं कम्मण्यवाद।
(नन्दी १०४ चू पृ७६) कर्मफलचेतना वह चेतना, जो सुख-दुःख का वेदन कर पुनः कर्मबंध का हेतु बनती है। अव्यक्तसुखदुःखानुभवनरूण कर्मफलचेतना।
(बृद्रसंवृ पृ ३९) कर्मभूमि वे क्षेत्र (पांच भरत, पांच ऐरवत, पांच महाविदेह), जहां मनुष्य कृषि, वाणिज्य आदि के द्वारा जीविका-निर्वाह करते हैं तथा जहां आध्यात्मिक प्रयत्न संभव है। कृषिवाणिज्यतपःसंयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयः।
(नंदी २३ मवृ प १०२) कम्मभूमगा पंचसु भरहेसु पंचसु एरवदेसु पंचसु महाविदेहेसु ।
(नन्दीचू पृ २२) (द्र अकर्मभूमि) कर्म वर्गणा अष्टविध कर्मस्कन्ध कर्मशरीर के प्रायोग्य पुद्गल समूह।
(विभा ६३१ ७) कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्या।
(धव पु १४ पृ५२) कर्मवीर्य कर्मों के उदय से निष्पन्न शक्ति। कर्माष्टप्रकारं-कारणे कार्योपचारात् तदेव वीर्यमिति प्रवेदयन्ति, तथाहि-औदयिकभावनिष्पन्नं कर्मेत्युपदिश्यते।।
(सूत्र १.८.२ वृ प १६८)
य।
कलह पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव कलह में प्रवृत्त होता है।
(झीच २२.२२) कल्प १. कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें साधुओं के आचारविषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवाद आदि का विवरण है। चार छेदसूत्रों में से एक। कल्प्यन्ते-भिद्यन्ते मूलादिगुणा यत्र स कल्पः।
(तभा १.२० वृ) कालियं अणेगविहं पण्णत्तं,तं जहा-उत्तरज्झयणाइंदसाओ कप्पो ववहारो निसीहं"।
(नन्दी ७८) २. वह नियम अथवा विधि-विधान, जिसके आधार पर सामाचारी का संचालन होता है। 'कल्प:' सामाचारी।
(बृभा ४२६६ वृ) ३. देवलोक। (द्र कल्पोपग देव) ४. वह वस्त्र, जो ओढने के काम आता है, पछेवड़ी।
(ओनि ५९१)
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कल्पवतंसिका नौवां उपांग। कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें धर्म की आराधना करने वाले श्रेणिक के दस पौत्रों की सदगति का वर्णन है।
(नन्दी ७८)
कल्पवृक्ष यौगलिक व्यवस्था में जीवन की अपेक्षाओं को पूरा करने वाला वृक्ष। गामणयरादि सव्वं ण होदि ते होंति सव्वकप्पतरू । णियणियमणसंकप्पियवस्थूणिं देंति जुगलाणं।
(त्रिप्र ४.३४१)
या तु कल्पिका सा तदभावात्' रागद्वेषाभावाद भवति।
(बृभा ४९४३ वृ) कल्पिकाकल्पिक उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें कल्प और अकल्प का वर्णन है। कप्पमकप्पं च जत्थ सुते वणिज्जति तं कप्पियाकप्पियं।
(नन्दी ७७ चू पृ ५७) कल्पोपग देव कल्पोपपन्न देव । वह देव, जो इन्द्र, सामानिक आदि कल्पव्यवस्था वाले देवलोक में उत्पन्न होता है। कल्प्यन्ते-इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिदशप्रकारत्वेन देवा एतेष्विति कल्पा-देवलोकास्तानुपगच्छन्तिउत्पत्तिविषय- तया प्राप्नुवन्तीति कल्पोपगाः।
(उ ३६.२०९ शावृप ७०२) (द्र कल्पातीत देव) कल्पोपपन्न देव
(तसू ४.३) (द्र कल्पोपग देव)
कल्पस्थित १.पंच महाव्रत की परंपरा में दीक्षित मनि। साधूनां कल्पस्थितिः पञ्चमहाव्रतरूपा। (बृभा ५३४० ७) २. वह मुनि, जो परिहारविशुद्धि चारित्र की साधना के समय गुरु का दायित्व निभाता है। नवानां जनानां मध्यादेकं कल्पस्थितं-गुरुकल्पं कुर्यात्।
___ (बृभा ६४६३ वृ) कल्पस्थिति सामायिक, छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र वाले मुनि की आचार-मर्यादा। कल्पस्य-कल्पाद्युक्तसाध्वाचारस्य सामायिकच्छेदोपस्थापनीयादेः स्थिति:-मर्यादा कल्पस्थितिः ।
(स्था ६.१०३ वृ प ३५५)
कल्पातीत देव ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान के देव, जो इन्द्र, सामानिक आदि की कल्प-मर्यादा से मुक्त मुक्त होते हैं। कप्पाईया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया। गेविज्जाऽणुत्तरा चेव ॥
(उ ३६.२१२) कल्पान्-उक्तरूपानतीता:-तदपरिवर्तिस्थानोत्पन्नतया निष्क्रान्ता: कल्पातीताः। (उ ३६.२०९ शाव प ७०२) (द्र कल्पोपग देव)
कल्याणक प्रायश्चित्तस्वरूप दिया जाने वाला प्रत्याख्यान-विशेष । चतु:कल्याणकं प्रायश्चित्तं "चत्वारि चतुर्थभक्तानि चत्वार्या-चाम्लानि चत्वारि एकस्थानानि"।
(बृभा ५३६० वृ) कल्याणकं प्रायश्चित्तं दीयते। (ओनि ३५८ वृ प २९६) कल्याणानुबन्धा निर्जरा वह प्रशस्त निर्जरा, जो स्वर्ग आदि सुगति अथवा मोक्ष का कारण बनती है। प्रशस्तनिर्जराकः-कल्याणनुबन्धनिर्जरः। (भग ६.१ ७) (द्र कुशलमूला निर्जरा)
कषाय १. रागद्वेषात्मक उत्ताप, जिससे कषकर्म का आगमन होता
कल्पिका राग-द्वेष की प्रेरणा के बिना विशेष परिस्थितिवश की जाने वाली प्रतिषेवणा/दोषाचरण।
रागद्वेषात्मकोत्तापः कषायः।
(जैसिदी ४.२३)
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कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं"जीवप्रदेशान् शरीराद् बहिर्निष्काश्य। (सम ७.२ ७ प १२)
कषः कर्म भवेत् तस्य आयो-लाभ: प्राप्तिः कषायः।
(तभा ६.५ वृ) ३. चेतना को अपने रंग में रंग देने वाला मोह का आवेश। कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषायाः।
(प्रज्ञा १४.१ ७ प २९०)
कषाय आत्मा आत्मा का राग-द्वेषात्मक पर्याय। क्रोधादिकषायविशिष्ट आत्मा कषायात्मा अक्षीणानुपशान्तकषायाणाम्।
(भग १२.२०० वृ)
कांक्षा सम्यक्त्व का एक अतिचार । लक्ष्य के विपरीत दृष्टिकोण के प्रति अनुरक्ति। काङ्कितं-युक्तियुक्तत्वादहिंसाद्यभिधायित्वाच्च शाक्योलूकादिदर्शनान्यपि सुन्दराण्येवेत्यन्यान्यदर्शनग्रहात्मकम्।
(उशावृ प ५६७) कांक्षामोहनीय 'इस मत को स्वीकार करूं या उस मत को स्वीकार करूं' इस प्रकार की अभिलाषात्मक मनोदशा। कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः उपलक्षणत्वाच्चास्य शंकादिपरिग्रहः। ततः कांक्षाया मोहनीयं कांक्षामोहनीयम्।
(भग १.११८ वृ)
कान्दी भावना संक्लिष्ट भावना का एक प्रकार । कामकथा आदि से भावित चित्त वाले व्यक्ति का व्यवहार और आचरण। कंदप्पकोक्कुइयाइं तह, सीलसहावहासविगहाहिं। विम्हावेंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ॥
(उ ३६.२६३)
कषाय आश्रव आत्मा का कषायरूप परिणाम, जो कर्म पुद्गलों के आश्रवण का हेतु बनता है।
(स्था ५.१०९) कषायकुशील कुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जिसके संज्वलन कषाय की उदीरणा होती है। येषां तु संयतानामपि सतां कथञ्चित्सञ्चलनकषाया उदीर्यन्ते ते कषायकुशीलाः।
(स्थावृ प ३२०) (द्र कुशील) कषायप्रतिसंलीनता प्रतिसंलीनता का एक प्रकार। क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय का निरोध, उदय में आए हए कषाय का विफलीकरण। कोहस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, माणस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं, मायाउदयणिरोहो वा उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरणं, लोहस्सुदयणिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरणं। से तं कसायपडिसंलीणया।
(औप ३७) कषायवेदनीय कषाय के रूप में किया जाने वाला संवेदन। क्रोधादिकषायरूपेण वेद्यते तत् कषायवेदनीयम्।
(प्रज्ञा २३.१७ वृप ४६८) कषायसमुद्घात समुद्घात का एक प्रकार। कषाय की तीव्रता से आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना।
काकिणीरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो चक्रवर्ती के स्कन्धावार को प्रकाशित करता है। काकिणीरत्नमष्टसौवर्णिकं"यत्र चन्द्रप्रभा सूर्यप्रभा वह्निदीप्तिर्वा न तमःस्तोममपहर्तुमलं भवति तत्र तमिस्रगुहायामतिनिबिडतिमिरतिरस्करणदक्षं"यच्च सर्वकालं चक्रवर्ती निजस्कन्धावारे रात्रौ स्थापयति। (प्रसावृ प ३५०) कापोतलेश्या अप्रशस्त लेश्या का तीसरा प्रकार । १. अप्रशस्त भावधारा, वक्रता से संबंधित चेतना की एक रश्मि । वंके वंकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचग ओवहिए मिच्छदिदी अणारिए॥ (उ ३४.२५) (द्र भावलेश्या)
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२. कापोतलेश्या के परिणमन में आधारभूत कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल ।
(द्र द्रव्यलेश्या)
कामगुण
इच्छा को उद्दीप्त करने वाले शब्द आदि विषय | कामस्य वा - मदनस्योद्दीपका गुणाः कामगुणाः -
शब्दादयः ।
(सम ५.३ वृ प १० )
सद्दे रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य ।
पंचविहे कामगुण.....
||
( उ १६ गा १० )
कामभोगतीव्राभिलाषा
स्वदार संतोष व्रत का अतिचार । कामभोग की तीव्र इच्छा करना ।
कामौ - शब्दरूपे, भोगाः - गन्धरसस्पर्शास्तेषु तीव्राभिलाषः - अत्यन्तं तदध्यवसायित्वं कामभोगतीव्राभिलाषः । ( उपा १.३५ वृ पृ १३ )
कामभोगाशंसाप्रयोग
संलेखना का एक अतिचार । कामभोग की आकांक्षा करना, जैसे- अच्छा हो, मुझे मानुष अथवा दिव्य कामभोग प्राप्त हो जाएं ।
कामभोगाशंसाप्रयोगो यदि मे मानुष्यकाः कामभोगा दिव्या वा सम्पद्यन्ते तदा साधु इति विकल्परूपः ।
(उपा १.४४ वृ पृ २१)
काम राग
भोग्य वस्तु के प्रति होने वाला राग । मणपल्हायजणणिं, कामराग विवड्ढणिं । बंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवज्जए ॥ कामरागो - विषयाभिष्वङ्गङ्ग ।
( उ १६, गा. २ शावृ प १८९ )
काय असंवर (आव)
कर्म-आकर्षण की हेतुभूत कायिक प्रवृत्ति । (स्था १०.११)
कायक्लेश
बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार । वीरासन आदि विविध प्रकार के आसनों द्वारा शरीर को साधना ।
ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उगा जहा धरिज्जंति, कायकिलेसं तमाहियं ॥
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(उ ३०.२७)
कायगुप्ति
१. कायचेष्टा का नियमन करना - आगमोक्त विधि से शयन, आसन, चंक्रमण आदि रूप प्रवृत्ति करना ।
२. असत् प्रवृत्ति से निवर्तन करना ।
३. पूर्णत: कायोत्सर्ग करना - सत् - असत् प्रवृत्तिमात्र का निरोध
करना ।
शयनसनादाननिक्षेपस्थानचङ्कमणेषु कायचेष्टानियमः कायगुप्तिः ।
(तभा ९.४)
कायस्य गुप्तिः - संरक्षणं उन्मार्गगतेरागमतः ।...... गमनादिविषयेषु कायकृतचेष्टायाः - कायव्यापारस्य नियमो - व्यवस्था निग्रहः - एवं कर्त्तव्यम् एवं न कर्त्तव्यामिति । उक्तं
च
'कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गे शरीरगुप्ति स्यात् । ' (तभा ९.४ वृ पृ १८४, १८५ )
(द्र गुप्ति)
दोषेभ्यो वा हिंसादिभ्यो विरतिस्तयोर्गुप्तिः ॥ (तभा ९.४ वृ) कायदण्ड
शरीर का दुष्प्रयोग- शरीर की अशुभ परिणति और प्रमत्त अवस्था में किया जाने वाला कर्म ।
कायेण असुभपरिणतो पमत्तो वा जं करेति सो कायदंडो । (आवचू २ पृ७७)
काय दुष्प्रणिधान
शरीर की वह अवस्था, जिसमें मिथ्या आचरण के प्रति अवधान होता है।
(द्र मनोदुष्प्रणिधान)
कायपरिचारक
सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव, जिनकी कामेच्छा शारीरिक संभोग से शांत होती है।
दोसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा पण्णत्ता, तं जहा- सोहम्मे चेव, ईसाणे चेव । (स्था २.४५६ ) 'कायपरियारग' त्ति परिचरन्ति सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः कायतः परिचारकाः कायपरिचारकाः ।
(स्थावृप ४५)
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कायपरीत वह जीव, जो अकेला ही अपने शरीर का निर्माण करता है। यः प्रत्येकशरीरी स कायपरीतः।
(प्रज्ञा १८.१०६ वृ प ३९४) (द्र प्रत्येकशरीर) कायपुण्य संयमी की पर्युपासना करने से होने वाला पुण्य प्रकृति का । बंध।
(स्था ९.२५ वृ प ४२८) (द्र मनःपुण्य)
कायविनय विनयाह के प्रति काय का कुशल प्रयोग करना। परोक्षस्थित आचार्य आदि को भी बद्धाञ्जलि हो, वंदना आदि करना। मनोवाक्कायविनयास्तु मनःप्रभृतीनां विनयाहेषु कुशलप्रवृत्त्यादिः।
(स्था ७.१३० वृ प ३८८) परोक्षेष्वपि कायवाइमनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः।
(तवा ९.२३.६)
कायबल वह प्राण, जो शारीरिक क्रियाशक्ति के लिए उत्तरदायी है। कायवर्गणावष्टम्भजनितात्मप्रदेशप्रचयशक्तिः कायबलप्राणः।
(गोजीप्र १२९) देहोदये शरीरनामकर्मोदये सति कायचेष्टाजननशक्तिरूप: कायबलप्राणः।
(गोजाप्र १३१)
कायव्यायाम वह प्रवृत्ति, जो शरीर के द्वारा संचालित होती है। 'कायवायामे' त्ति चीयत इति काय:-शरीरं तस्य व्यायामो व्यापारः कायव्यायामः। (स्था १.२१ वृ प १८) कायसंयम 'दौड़ने, कूदने' आदि प्रवृत्तियों की निवृत्ति और शुभक्रियाओं में प्रवृत्ति। कायसंयम इति धावन-वल्गन-प्लवनादिनिवृत्तिः, शुभक्रियासु च प्रवृत्तिः।
(तभा ९.६ वृ) कायसंवर शरीर की प्रवृत्ति का निरोध।
(स्था १०.१०) (द्र कायगुप्ति)
कायबली लब्धि का एक प्रकार । वह मुनि, जो वीर्यान्तराय के प्रकृष्ट क्षयोपशम से उपलब्ध कायबल के कारण एक वर्ष तक कायोत्सर्ग प्रतिमा में खडा रहने पर भी श्रान्त-क्लान्त नहीं होता, जैसे-बाहुबली। वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भतासाधारणकायबलत्वात् प्रतिमयावतिष्ठमानाः श्रमक्लमविरहिता वर्षमात्रप्रतिमाधरा बाहुबलिप्रभृतयः कायबलिनः। (योशा १.८ वृ पृ ४२) काययोग शरीरवर्गणा के आलम्बन से होने वाली जीव की शारीरिक शक्ति और प्रवृत्ति। कायः शरीरं""तद्योगाज्जीवस्य वीर्यपरिणामः-शक्ति:सामर्थ्य काययोगः।
(तभा ६.१ वृ) काययोगप्रतिसंलीनता प्रतिसंलीनता का एक प्रकार। हाथ, पैर आदि सब अवयवों का कूर्म की भांति संगोपन करना। जण्णं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिंदिए सव्वगायपडिसंलीणे चिट्ठइ । से तं कायजोगपडिसंलीणया।
(औप ३७)
कायसंवेध वह प्रक्रिया, जिसके अनुसार प्राणी का वर्तमान काय से च्युत होकर तुल्य काय में अथवा किसी दूसरे काय में उत्पन्न होना और वहां से च्युत होकर पुनः पूर्ववर्ती काय में जन्म लेना। उप्पलजीवे पुढविजीवे, पुणरवि उप्पलजीवे त्ति। कायसंवेहो त्ति विवक्षितकायात् कायान्तरे तुल्यकाये वा गत्वा पुनरपि यथासम्भवं तत्रैवागमनम्। (भग ११.३० वृ) कायसमाधारण संयम की आराधना में शरीर का नियोजन। 'कायसमाधारणया' संयमयोगेषु शरीरस्य सम्यग्व्यवस्थापनरूपया। __ (उ २९.५९ शावृ प ५९२) कायसुप्रणिधान शरीर की वह अवस्था, जिसमें आत्मा की शुद्धि के लिए स्थिरता अथवा कायोत्सर्ग किया जाता है। तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे,
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वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। (स्था ३.९७) कायेन।
(औप २४ वृ पृ ५२) कायस्थिति
कायोत्सर्ग वह काल, जिसमें जीव जन्म-मृत्यु करता हुआ भी उसी १. षडावश्यक में पांचवां आवश्यक । प्रतिक्रमण आदि प्रवृत्तियों निकाय-अवस्था में रहता है, जैसे-मनुष्य मरकर पुनः । में नियत कालावधि तक चतुर्विंशतिस्तवयुक्त किया जाने मनुष्य बन जाता है। पृथ्वी आदि जीव असंख्य काल तक वाला देह के ममत्व का विसर्जन। अपनी अपनी योनि में रह सकते हैं।
देवस्सियणियमादिस जहत्तमाणेव उत्तकालम्हि। काये-निकाये पृथिव्यादिसामान्यरूपेण स्थितिः काय- जिणगुणचिंतणजुत्तो काउस्सग्गो तणुविसग्गो॥ स्थिति: असंख्योत्सर्पिण्यादिका।
(मूला २८) (स्था २.२५९ वृ प ६२)
(द्र षडावश्यक)
२. शरीर की वह अवस्था, जिसमें चंचलता और ममत्व का कायिक
विसर्जन किया जाता है। नैपुणिक (पुरुष) का एक प्रकार। शरीर में रहे हुए इड़ा,
काय:-शरीरं तस्योत्सर्गः-आगमोक्तनीत्या परित्यागः पिंगला आदि प्राणतत्त्वों का ज्ञाता।
कायोत्सर्गः।
(उशावृप ५८१) कायिक-शारीरिकम, इडापिंगलादि प्राणतत्त्वं"तज्ज्ञो निपुणप्रायो भवति। (स्था ९.२८ वृ प ४२८)
कायोत्सर्ग प्रतिमा (द्र नैपुणिक)
उपासक प्रतिमा का पांचवां प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक
कायोत्सर्ग की सघन साधना करता है। कायिक ध्यान
पञ्च मासांश्चतुष्वपा गृहे तद्वारे चतुष्पथे वा परीषहो१. शरीर की वह अवस्था, जिसमें कछुए की भांति अंगोपांग
पसर्गादिनिष्प्रकम्पकायोत्सर्गः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानं पालयन् का संगोपन किया जाता है।
सकलां रात्रिमास्त इति पञ्चमी। (योशा ३.१४८७ प्र७६२) कर्मवद वा संलीनाङोपाङस्तिष्ठति। (बभा १६४२व) २. शरीर की चेष्टा, जिसमें किसी व्याक्षेप के बिना भंगों की
कारक गणना की जाती है।
१. वह मुनि, जो आगमोक्त प्रतिलेखना आदि क्रियाकलाप कायिकं नाम यत् कायव्यापारेण व्याक्षेपान्तरं परिहरन्नुप
का आचरण करता है अथवा करवाता है। युक्तो भङ्गकचारणिकां करोति। (बृभा १६४२ वृ)
भणगं करगं झरगं"। वंदामि अज्जमगुं..॥
'कारकं' कालिकादिसूत्रोक्तमेवोपधिप्रत्युपेक्षणादिरूपं कायिकी क्रिया
क्रियाकलापं करोति, कारयतीति वा। क्रिया का एक प्रकार।
(नन्दी गा २८ मवृ प ५०) १. काया की प्रवृत्ति।
कारकसम्यक्त्व कायेन निर्वत्ता कायिकी-कायव्यापारः।
वह सम्यक्त्व, जिसके होने पर व्यक्ति सद्-अनुष्ठान में
(स्था २.५ वृ प ३८) २. प्रद्वेष की अवस्था में होने वाली शारीरिक चेष्टा।
श्रद्धा करता है, उसका आचरण करता है और करवाता है।
यस्मिन् सम्यक्त्वे सति सदनुष्ठानं श्रद्धत्ते, सम्यक् करोति प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिकी क्रिया। (तवा ६.५.८)
च, तत् कारयति सदनुष्ठानमिति कारकं सम्यक्त्वमुच्यते।
(विभा २६७५ वृ पृ१४२) कायेन शापानुग्रहसमर्थ
कारकसूत्र वह मुनि, जिसमें काय से ही शाप देने और अनुग्रह करने ।
आप्तपुरुष की वाणी होने के कारण आगम स्वतः सिद्ध हैं, की शक्ति होती है। मनसैव परेषां शापानुग्रहौ कर्तुं समर्था इत्यर्थः, एवं वाचा ।
फिर भी हेतुप्रदर्शनपूर्वक उनकी सिद्धि करने वाला सूत्र।
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सव्वन्नुपमाणाओ, जइ वि य उस्सग्गओ सुयपसिद्धी । वित्थरओsपायाण य, दरिसणमिइ कारगं तम्हा ॥ (बृभा ३१७)
कारणदोष
१. मांडलिक दोष का एक प्रकार । आगम-निर्दिष्ट कारणों के बिना आहार करना ।
छहिं कारणेहिं असणं आहारंतो वि आयरदि धम्मं । वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमट्ठाए। त पाणधम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं ॥ .......निष्कारणं यदि भुङ्क्ते भोज्यादिकं तदा दोषः । (मूला ४७८, ४७९ वृ पृ ३६९ ) २. वाद - दोष का एक प्रकार। कारण सामग्री के एक अंश को पूरा कारण मान लेना, पूर्ववर्ती होने मात्र से कारण मान
लेना । कारणं - परोक्षार्थनिर्णयनिमित्तमुपपत्तिमात्रं, यथानिरुपम - सुखः सिद्धो ज्ञानानाबाधप्रकर्षात् ।
(स्था १०.९४ वृ प ४६७)
कारुणिक दान
वह दान, जो मृतक के पीछे दिया जाता है।
कारुण्यं - शोकस्तेन पुत्रवियोगादिजनितेन तदीयस्यैव तल्पादेः स जन्मान्तरे सुखितो भवत्वितिवासनातोऽन्यस्य वा यद्दानं तत्कारुण्यदानम् । (स्था १०.९७ वृ प ४९६)
कारुण्य
भावना का एक प्रकार । अनुकम्पा, दीन प्राणियों पर अनुग्रह
भाव ।
कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रह इत्यर्थः ।
कार्मणका योग
(तभा ७.६)
(कग्र ४.२४)
(द्र कार्मणशरीरकायप्रयोग)
कार्मण शरीर
कर्मपुद्गलों द्वारा निर्मित शरीर, जो कर्म-समूह का आश्रय बनता है।
कर्मणा निर्वृत्तं कार्मणम्, अशेषकर्मराशेराधारभूतं कुण्डवद् । (तभा २.३७ वृ)
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कार्मणशरीर कायप्रयोग
अन्तराल गति में जब जीव अनाहारक होता है, उस समय कार्मण काययोग होता है । केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण काययोग होता है। इह कार्म्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घातगतस्य च केवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भवति ।
(भग ८.६४ वृ)
कार्यहेतु
लोकोपचार विनय का एक प्रकार। 'इसने मुझे ज्ञान दिया' इसलिए उसका विनय करना ।
कार्यं श्रुतप्रापणादिकं हेतुं कृत्वा, श्रुतं प्रापितोऽहमनेनेति हेतोरित्यर्थी, विशेषेण विनये तस्य वर्त्तितव्यं तदनुष्ठानं च कर्त्तव्यम् । (स्था ७.१३७ वृ प ३८८)
काल
१. वह द्रव्य, जो वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व और अपरत्व का हेतु है, उसके प्रदेशों का प्रचय नहीं होता । वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ।
(तसू ५.२२) कालोऽनस्तिकायः, तस्य प्रदेशप्रचयाभावात् । (धव पु९ पृ १६८) २. ज्ञानाचार का एक प्रकार। जिस आगम के अध्ययन के लिए जो समय निर्दिष्ट है, उसे उसी समय पढ़ना । यो यस्याङ्गप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल उक्तस्तस्य तस्मिन्नेव स्वाध्यायः कार्यो नान्यदा प्रत्यवायसम्भवात् ।
(प्रसावृ प ६३, ६४ ) ३. महानिधि का एक प्रकार। शुभाशुभ काल का ज्ञान तथा कृषिकर्म, शिल्प आदि का प्रतिपादक शास्त्र । काले कालपणाणं, भव्व पुराणं च तीसु वासेसु । सिप्पसतं कम्माणि य, तिण्णि पयाए हियकराई ॥ (स्था ९.२२.७) ४. परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार । वे असुर देव, जो नैरयिकों को दीर्घ चुल्लिका, शुण्ठिका, कन्दुका, प्रचण्डक, कुम्भी, लोहे की कड़ाही आदि में पकाते हैं। मीरासु शुंठएसु य, कंडूसु य पयणगेसु य पयंति । कुंभीय लोहीसु य, पयंति काला तु नेरइया ॥
(सूत्रनि ७४)
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कालचक्र बीस कोटिकोटि सागरोपम प्रमाण काल का एक चक्र। इसके दो विभाग होते हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, जिनमें प्रत्येक के छह-छह अर होते हैं। कालचक्रं विंशतिसागरोपमकोटाकोटि परिमाणं ....
(नन्दीहावृ पृ ८४) कालचक्रं विशतिकोटाकोटिप्रमाणं"। (नन्दीमत् प १९६)
आगम का एक वर्ग, जो दिन और रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर में ही पढ़ा जा सकता है।
(नन्दी ७६) दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालेन निर्वृत्तं कालिकम्। (स्था २.१०६ वृ प ४८) कालिकश्रुत-अनुयोगिक कालिकश्रुत का व्याख्याता। कालिकश्रुतानुयोगे-व्याख्याने नियुक्ताः कालिकश्रुतानुयोगिकाः।
(नन्दी गा ३२ मवृ प५१) कालिक्युपदेश संज्ञा संज्ञीश्रुत का एक प्रकार।
(नन्दी ६१) (द्र दीर्घकालिकी संज्ञा)
कालपरमाणु एक समय, काल की अविभाज्य इकाई। कालपरमाणुः समयः।
(भग २०.३७ वृ) (द्र समय)
कालप्रतिलेखना स्वाध्याय आदि के लिए उपयुक्त समय का ज्ञान करना। आगमविधिना यथावन्निरूपणा ग्रहणप्रतिजागरणरूपा कालप्रत्युपेक्षणा। (उ २९.१६ शावृ प ५८३) कालमण्डली समय की सूचना देने वाली साधुओं की मण्डली।
(प्रसा ६९२ वृ) (द्र मण्डली) काललोक लोक का वह स्वरूप, जिसकी व्याख्या काल के आधार पर की जाती है। कालः-समयादिः तद्रूपो लोकः काललोकः ।
(भग ११.९० वृ)
कालोदसमुद्र वह समुद्र, जो अर्धपुष्करद्वीप से परिक्षिप्त है, जिसका विस्तार सोलह लाख योजन है। कालोदसमुद्रः पुष्करवरद्वीपार्धेन परिक्षिप्तः। (तभा ३.८) किन्नर वानमंतर देवों का पहला प्रकार, जो प्रियंगु की भांति श्याम, सौम्य मुद्रा और अत्यंत सुन्दर मुख वाला होता है। सिर पर मकट होता है तथा इसका चिह्न है अशोकवक्ष। तत्र किन्नराः प्रियङ्गश्यामाः सौम्याः सौम्यदर्शना मुखेष्वधिकरूपशोभा मुकुटमौलिभूषणा अशोकवृक्षध्वजा अवदाताः।
(तभा ४.१२ वृ) किमिच्छक अनाचार का एक प्रकार। 'कौन क्या चाहता है ?' यों पूछ कर दिया जाने वाला राजकीय भोजन आदि लेना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। कः किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छकः।
(द ३.३ हावृ प ११७) किम्पुरुष वानमंतर देव का दूसरा प्रकार । इस जाति के देव की साथल
और भुजा सुन्दर, मुख भास्वर, शरीर विभिन्न आभरणों से विभूषित, रंगबिरंगी माला, शरीर पर चंदन आदि का लेप तथा इसका चिह्न होता है चंपकवृक्ष। किम्पुरुषा ऊरुबाहुष्वधिकशोभा मुखेष्वधिकभास्वरा
कालातिक्रम अतिथिसंविभाग व्रत का एक अतिचार। साधु को आहार न देने की भावना से भोजन के समय का अतिक्रमण करना। कालस्य-साधुभोजनकालस्यातिक्रमः-उल्लङ्गनकालातिक्रमः।
(उपा १.४३ वृ पृ १९)
कालादेश वस्तु का वह निरूपण, जो काल की अपेक्षा से किया जाता
(भग ५.२०२)
कालिक श्रुत
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शिर और गर्दन प्रमाणोपेत नहीं होते, शेष अवयव प्रमाणयुक्त होते हैं, कुबड़ा। 'खुज्जे'त्ति अधस्तनकायमडभं, इहाधस्तनकायशब्देन पादपाणिशिरोग्रीवमुच्यते तद् यत्र शरीरलक्षणोक्तप्रमाणव्यभिचारि यत्पुनः शेषं तद्यथोक्तप्रमाणं तत्कुब्जम्।
(स्था ६.३१ वृ प ३३९)
कुम्भी
सहा
परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। वे नरकपाल देव, जो नैरयिकों का हनन करते हैं तथा उनको कुम्भी, कढ़ाही, लोहभाजन आदि पात्रों में पकाते हैं। कुंभीसु य पयणेसु य, लोहीसु य कंदु-लोहि-कुंभीसु। कुंभी य नरयपाला, हणंति पाचिंति नरगेसु॥
(सूत्रनि ७८)
कुल
विविधाभरणभूषणाश्चित्रनगनुलेपनाश्चम्पकवृक्षध्वजाः।
(तभा ४.१२) किल्विषिक वह कल्पोपपन्न देव, जो अन्त्यवासिस्थानीय होता है। अन्त्यवासिस्थानीयाः किल्विषिकाः। (तवा ४.४.१०) किल्विषिकी भावना संक्लिष्ट भावना का एक प्रकार। ज्ञान और ज्ञानी के प्रति । असद भावना से भावित चित्त वाले व्यक्ति का व्यवहार और आचरण। नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघसाहणं। माई अवण्णवाई किग्विसियं भावणं कुणइ॥
(उ ३६.२६५) कीलिका संहनन संहनन का वह प्रकार, जिसमें अस्थियों के छोर परस्पर जुड़े हुए होते हैं-एक दूसरे से बंधे हुए होते हैं। कीलिकाविद्धास्थिद्वयसञ्चितं कीलिकाख्यम्।
(स्था ६.३० वृ प ३३९) कुत्रिकापण वह दुकान, जिसमें स्वर्ग, मनुष्यलोक और पाताल-इन तीनों लोकों में होने वाली सभी वस्तुएं मिलती हैं। कुत्रिकं-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्संभवं वस्त्वपि कुत्रिकं तत्सम्पादक आपणो हट्टः कुत्रिकापणः।
(भग २.९५ वृ) कुष्यप्रमाणातिक्रम इच्छापरिमाण व्रत का एक अतिचार। अनजान में अथवा अतिलोभ के कारण गृहसामग्री-थाली, कटोरी आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना। तीव्रलोभाभिनिवेशादतिरेकाः प्रमाणातिक्रमाः।
(तवा ७.२९) 'कुवियपमाणाइक्कमे' त्ति कुप्यं-गृहोपस्करः स्थालकच्चोलकादि, अयं चातिचारोऽनाभोगादिना।
(उपा १.३६ वृ पृ १४) कुब्ज संस्थान संस्थान का पांचवां प्रकार । जिस शरीर-रचना में पैर, हाथ,
१. एक आचार्य की शिष्यसंपदा । २. समानधर्मी और अनेक गच्छों का समूह । कुलमाचार्यसंततिसंस्थितिः।...बहूनां गच्छानां एकजातीयानां समूहः कुलम्।
(तभा ९.२४ वृ) ३. वंश की एक शाखा। (द्र कुलधर्म)
कुलकर कर्मभूमि के प्रारंभ में कुल का संचालन करने वाला व्यक्ति। कुलकरणम्मि य कुसला कुलकरणामेण सुपसिद्धा॥
(त्रिप्र४.५०९)
कुलकोटि
एक ही योनि में उत्पन्न होने वाले जीवों की श्रेणियां। एकस्यामेव योनौ अनेकानि कुलानि भवन्ति।
___(प्रज्ञा १.४९ वृ प ४१) "बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्त जाइकलकोडिजोणीपमुहसतसहस्सा भवंतीति मक्खातं। (प्रज्ञा १.४९) कुलधर्म १. उग्र आदि कुल (वंश की शाखा) की व्यवस्था और आचार-संहिता। २. जैन मुनियों के चान्द्र आदि गच्छों की सामाचारी। उग्रादिकुलाचारः अथवा कुलं चान्द्रादिकमार्हतानां गच्छ
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३
कूटतुला-कूटमान स्थूलअदत्तादानविरमण व्रत का एक अतिचार । झूठा तोलमाप करना, अप्रामाणिक व्यवहार करना। तुला प्रतीता, मानं-कुडवादि, कूटत्वं-न्यूनाधिकत्वं, ताभ्यां न्यूनाभ्यां ददतोऽधिकाभ्यां गृह्णतोऽतिचरति व्रतमिति, अति-चारहेतुत्वादतिचारः कूटतुलाकूटमानमुक्तः।
(उपा १.३४ वृ पृ १२,१३)
समूहात्मकं, तस्य धर्मः-सामाचारी।
(स्था १०.१३५ वृ प ४८९) कुशल १. वह व्यक्ति, जो कर्म को क्षीण करने में समर्थ है। 'कुसलो' नाम प्रधान: कर्मक्षपणसमर्थ इत्यर्थः ।
(निभा ७४ चू) २. वीतराग अथवा वीतरागता का साधक। कुशल:-वीतराग: वीतरागसाधनायां वा प्रवृत्तः पुरुषः।
(आभा २.९५) ३. सर्वपरिज्ञाचारी, ज्ञानी जीवन्मुक्त। कुशलः-सर्वपरिज्ञाचारी पुरुषः । असौ जीवन्मुक्तः इत्यपि उच्यते।
(आभा २.१८२) ४. केवली, जो ज्ञान के आवरण आदि से बद्ध नहीं होता। कुशल:-केवली। स च अवरणादिभिर्नो बद्धो भवति, भवोपग्राहिकर्मभिर्नो मुक्तो भवति। (आभा २.१८२) कुशलमूला निर्जरा आत्मशोधन के लिए की जाने वाली तपस्या और परीषहजय से होने वाला कर्मपुद्गलों का निर्जरण। तपःपरीषहजयकृतः कुशलमूलः।
(तभा ९.७) परीषहजये कृते कुशलमूला, सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति।
(तवा ९.४५)
कूटलेखकरण स्थूलमृषावादविरमण व्रत का एक अतिचार। प्रमाद अथवा दुश्चिन्तनपूर्वक मिथ्या लेख लिखना। 'कूडलेहकरणे' त्ति असद्भूतार्थस्य लेखस्य विधानमित्यर्थः, एतस्य चातिचारत्वं प्रमादादिना दुर्विवेकत्वेन वा।
(उपा १.३३ वृ पृ ११) कूर्मोन्नता योनि कछुए की पीठ के समान उन्नत योनि, यह योनि का उत्तम प्रकार है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती और बलदेव-वासुदेव की माता के यह योनि होती है। कूर्मः-कच्छप: तद्वदुन्नता कूर्मोन्नता।
(स्था ३.१०३ वृ प ११६) कुम्मुण्णया णं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं। कुम्मुण्णयाते णं जोणीए तिविहा उत्तमपुरिसा गब्भं वक्कमति तं जहाअरहंता, चक्कवट्टी बलदेववासुदेवा। (स्था ३.१०३)
कृतकरणा वह कुशल साध्वी, जो बहुत बार साधुसंघ की सेवा कर चुकी है। यया साध्व्या बहशो वैयावृत्यानि कृतानि सा कुतकरणा कुशला इत्यर्थः।
(व्यभा २३८८ वृ प १८),
कुशील १. निर्ग्रन्थ का तीसरा प्रकार, जो उत्तरगुण में दोष लगाता है अथवा जो संज्वलन कषाय वाला होता है। कुत्सितं उत्तरगुणप्रतिषेवया सञ्चलनकषायोदयेन वा दूषितत्वात् शीलं-अष्टादशशीलाङ्गसहस्रभेदं यस्य स कुशीलः।
(भग २५.२७८ वृ प ३२०) २. वह शिथिलाचारी मुनि, जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार और । चारित्राचार का सम्यक् अनुशीलन नहीं करता तथा जाति, कुल आदि के आधार पर आजीविका प्राप्त करता है। कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः, स त्रिविधो भवतिज्ञानविषये दर्शनविषये चारित्रविषये च। (प्रसाव प २६) जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे तवे सुते चेव। सत्तविधं आजीवं, उवजीवति जो कुसीलो सो॥
(व्यभा ८८०)
कृतदान 'अमुक ने सहयोग किया था', इस प्रत्युपकार की भावना से जो दिया जाता है। कृतं ममानेन तत्प्रयोजनमिति प्रत्युपकारार्थं यद्दानं तत्कृतम्।
(स्था १०.९७ वृ प ४७१) कृतप्रतिकृतिता लोकोपचार विनय का एक प्रकार। प्रत्युपकार की भावना से विनय करना।
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'कृतप्रतिकृतिता' कृते भक्तादिनोपचारे प्रसन्ना गुरवः प्रतिकृतिं - प्रत्युपकरणं सूत्रादिदानतः करिष्यन्तीति भक्तादिदानं प्रति यतितव्यम् । (स्था ७.१३७ वृ प ३८८)
कृतयोग्य
वह मुनि, जो प्रत्युपेक्षणा आदि प्रवृत्तियों में निपुण है तथा अनशनविधि सम्पन्न कराने में कुशल है।
थेरेहि कडाईहिं सद्धिं..... भत्तपाणसपडियाइक्खियस्स.... । (भग २.६६ ) 'कडाईहिं’..... कृतयोग्यादिभिरिति स्यात्, तत्र कृता योगाः - प्रत्युपेक्षणादिव्यापारा येषां सन्ति ते कृतयोगिनः ।
(भग २.६६ वृ)
(द्र कृतयोगी, निर्यापक)
कृतयोगी
१. जो पहले सूत्र और अर्थ का धारण करने वाला होता है, वर्तमान में नहीं होता।
कृतयोगी नाम यः पूर्वमुभयधरः आसीत् नेदानीम् ।
(व्यभा २३३५ वृ प ९ ) २. सूत्र और अर्थ की दृष्टि से छेद ग्रंथों को धारण करने वाला स्थविर |
कृतयोगी सूत्रतोऽर्थतश्च छेदग्रन्थधरः स्थविरः ।
(व्यभा २३६९ वृ प १६ ) ३. वह मुनि, जिसने कठोर तपस्याओं के द्वारा अनेक बार अपनी आत्मा को भावित कर लिया है। कृतयोगो नाम कर्कशतपोभिरनेकधा भावितात्मा ।
(व्यभा ५३८ वृ प २७ )
(द्र कृतयोग्य )
कृतिकर्म
आचार्य, बहुश्रुत आदि के वन्दनाकाल में की जाने वाली क्रियाविधि, जिसके पच्चीस प्रकार हैं, जैसे-दो अवनमन, द्वादशावर्त्त आदि । जिणसिद्धाइरियबहुसुदेसु वंदिज्जमाणेसु जं कीरड़ कम्मं तं किदियम्मं णाम । तस्स... वारसाक्तादिलक्खणं विहाणं फलं चकिदियम्मं वण्णेदि । (कप्रा १ पृ १५८) दोओणयं अहाजायं किइकम्मं वारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगनिक्खवणं ॥ ( आवनि ११९७)
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कृतिकर्म
कृतिकर्म करने में कुशल मुनि, जो आलस्य और अभिमान से मुक्त, वैराग्य - सम्पन्न और निर्जरार्थी होता है। आयरिय उवज्झाए, पव्वत्ति थेरे तहेव रायणिए । एएसिं किइकम्मं, कायव्वं निज्जरट्ठाए ॥ पंचमहव्वयजुत्तो, अणलस माणपरिवज्जियमईओ । संविग्गनिज्जरट्ठी, किइकम्मकरो हवड़ साहू ॥ ( आवनि ११९५, ११९७)
कृतिकर्मसम्भोज
सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार । विधिपूर्वक वंदना करना ।
कृतिकर्म – वन्दनकं तस्य करणं-विधानं तद्विधिना कुर्वन् शुद्धः । (सम १२.२ वृ प २२)
कृत्य
आचार्य, जो वंदना के योग्य होता है।
कृति : - वन्दनकं तदर्हन्ति कृत्याः । ( उ १.४५ शावृ प ५४) कृत्सना आरोपणा
प्रायश्चित्त का एक प्रकार। दोष की शुद्धि के लिए दिया जाने वाला वह, तपरूप आरोपण प्रायश्चित्त, जो छः मास की अवधि के भीतर पूर्ण रूप से वहन कर लिया जाए, जिसमें न्यूनता न करनी पड़े। यावतोऽपराधानापन्नस्तावतीनां तच्छुद्धीनामारोपणा कृत्स्नारोपणा । (सम २८.१ वृ प ४६ ) वीसे दाणाऽऽरोवण, मासादी जाव छम्मासा ॥
(निभा ६२७२) कसिणा झोसविरहिता, जहिं झोसो सा अकसिणा उ ॥ (व्यभा ६०० )
कृष्णपाक्षिक अर्द्धपुद्गलपरावर्त से अधिक अवधि तक संसार में रहने वाला जीव ।
जेसिमवड्ढा पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण किण्हपक्खीआ ॥ (स्था १.१८६ वृप २९)
(द्र पुद्गल परिवर्त्त)
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कृष्णराजि पृथ्वीकायिक जीवों और पुदगलों से निर्मित कृष्णपंक्तिप्रचय। इसकी अवस्थिति ऊर्ध्वलोक में है। (देखें चित्र पृ ३४२) 'कण्हराईओ'त्ति कृष्णवर्णपुद्गलरेखाः। (भग ६.८९७) कण्हरातीओ'"पुढवीपरिणामाओ""जीव परिणामाओ वि, पोग्गलपरिणामाओ वि॥
(भग ६.१०४)
कृष्णलेश्या अप्रशस्त लेश्या का पहला प्रकार। १. अप्रशस्त भावधारा, क्रूर भावनाओं से संबंधित चेतना की एक रश्मि । निबंधसपरिणामो निस्संसो अजिइंदिओ। एयजोगसमाउत्तो किण्हलेसं तु परिणमे॥ (उ ३४.२२) (द्र भावलेश्या) २. कृष्णलेश्या के परिणमन में आधारभूत कष्ण वर्ण वाले पुद्गल।
(उ ३४.४) (द्र द्रव्यलेश्या)
केवलदर्शन दर्शन का एक प्रकार । सम्पूर्ण जगत् की समस्त वस्तुओं का सामान्य बोध।
(देखें चित्र पृ ३४२) केवलमेव सकलजगद्भाविसमस्तवस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपं दर्शनं केवलदर्शनम्। (प्रज्ञा २९.३ वृ प५२७) केवलदर्शनावरणीय दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से केवलदर्शन आवृत होता है। केवलमेव दर्शनं तस्यावरणीयं केवलदर्शनावरणीयम्।
(प्रज्ञा २३.१४ वृ प ४६७) केवली १. अतीन्द्रियज्ञानी-अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी। तओ के वली पण्णत्ता, तं जहा-ओहिणाणकेवली, मणपज्ज-वणाणकेवली, केवलणाणकेवली।
(स्था ३.५१३) वह अतीन्द्रियज्ञानी, जिसका ज्ञान घाति कर्मों का क्षय होने पर प्रकट होता है, जो समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों का साक्षात् ज्ञाता और द्रष्टा है। घातिकर्मक्षयादाविर्भूतज्ञानाद्यतिशयः केवली।
(तवा ९.१.२३) कसिणं केवलकप्पं लोगं जाणंति तह य पासंति। केवलचरित्तनाणी तम्हा ते केवली हंति॥
(आवनि १०७९)
केवलज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान का एक प्रकार । वह ज्ञान, जो समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों को साक्षात् जानने में समर्थ है। अह सव्वदव्वपरिणाम-भाव-विण्णत्ति-कारणमणंतं। सासयमप्यडिवाई, एगविहं केवलं नाणं॥
(नन्दी ३३.१) २. आवरण का पूर्णतः विलय हो जाने पर चेतन के स्वरूप का प्रकट हो जाना। तत् सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्यं केवलम्।
(प्रमी १.१.१५)
केवलज्ञानावरणीय ज्ञानावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से केवलज्ञान आवृत रहता है। समस्तावरणक्षयाविर्भूतमात्मप्रकाशतत्त्वमशेषद्रव्यपर्यायग्राहि केवलज्ञानं तदाच्छादनकृत् केवलज्ञानावरणम्। (तभा ८.७) केवलज्ञानी वह आत्मा, जो केवलज्ञानयुक्त है। (भग ६.४५) (द्र केवलज्ञान)
केवलीमरण मरण का एक प्रकार । केवलज्ञानी का मरण। """"केवलिमरणं तु केवलिणो॥ (उनि २२३) केवलिसमुद्घात समुद्घात का एक प्रकार । वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म का आयुष्य के साथ समीकरण करने के लिए केवली के शरीर से होने वाला आत्मप्रदेशों का प्रक्षेपण। जस्स पुण थोवमाउं हवेन्ज सेसं तियं च बहुतरयं। तं तेण समीकुरुए गंतूण जिणो समुग्घायं॥
(विभा ३०४३) केवलिसमुद्घातो वेदनीयनामगोत्राश्रयः ।
(सम ७.२ वृ प १३)
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का
केवलिसमुग्धाए""अट्ठसमइए पण्णते, तं जहा-पढमे समए
कात्कुच्य दंडं करेइ, बीए समए कवाडं करेइ, तइए समए मंथं करेइ, अनर्थदण्ड विरमण व्रत का एक अतिचार। भाण्ड की तरह चउत्थे समए लोयं पूरेइ पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ, छठे
मुख, नयन आदि की विकारपूर्ण और हास्यजनक प्रवृत्ति समए मंथं पडिसाहरइ, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, अट्ठमे
करना। समए दंडं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता सरीरत्थे भवइ॥
'कौत्कुच्यम्' अनेकप्रकारा मुखनयनादिविकारपूर्विका परि(औप १७४)
हासादिजनिका भाण्डानामिव विडम्बनक्रिया, अयमपि केशवाणिज्य
तथैव।
(उपा १.३९ वृ पृ१७) कर्मादान का एक प्रकार । केश वाले जीव-गाय, भैंस, स्त्री
क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदय आदि का व्यापार। 'केसवाणिज्जे'त्ति केशवज्जीवानांगोमहिषीस्त्रीप्रभृतिकानां
वह कर्म-प्रकृति, जिनका पहले बंध-विच्छेद और बाद में विक्रयः।
(भग ८.२४२ वृ)
उदय-विच्छेद होता है, जैसे-मतिज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण
आदि। केसरिका
क्रमेण पूर्वं बन्धः पश्चादुदय इत्येवंरूपेण व्यवच्छिद्यमानौ जिनकल्पी साधु का एक उपकरण। पात्र को साफ करने का बन्धोदयौ यासां ताः क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः। वस्त्र-खण्ड।
(कप्र पृ ४१) 'केशरिका'-प्रमार्जनार्थं चीवरखण्डम्। (भग २.३१ वृ)
क्रिया (द्र पात्रकेसरिका)
१. द्रव्य का एक देश से दूसरे देश में होने वाला गतिरूप कोटिसहित प्रत्याख्यान
पर्याय, जो आंतरिक और बाह्य दोनों कारणों से होता है। प्रत्याख्यान का एक प्रकार। एक प्रत्याख्यान के अन्तिम दिन उभयनिमित्तापेक्षः पर्यायविशेषो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः और दूसरे प्रत्याख्यान के प्रारंभिक दिन के बीच में समय का क्रिया।
(तवा ५.७.१) व्यवधान न हो।
२. जीव की कषायप्रत्ययिक अथवा योगप्रत्ययिक प्रवृत्ति, 'कोडीसहियं तिकोटीभ्यां-एकस्य चतुर्थादेरन्तविभागोऽ- जो कर्मबंध का हेतु बनती है। (स्थावृ प ३७) परस्य चतुर्थादेरेवारम्भविभाग इत्येवंलक्षणाभ्यां सहितं मिलितं यक्तं कोटीसहितं मिलितोभयप्रत्याख्यानकोटेश्चतुर्थादेः
क्रियावादी करणम्। (स्था १०.१०१ वृप ४७२)
१. वह वादी, जो अस्तित्ववाद, सम्यग्वाद, पुनर्जन्मवाद
और आत्मकर्तृत्ववाद में विश्वास करता है। कोष्ठ
किरियावादी यावि भवति, तं जहा-आहियवादी आहियधारणा की पांचवीं अवस्था, जिसमें अवधारित अर्थ सुरक्षित पण्णे आहि यदिट्ठी सम्मावादी नीयावादी संतिहो जाता है, विनष्ट नहीं होता।
परलोगवादी "सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति। कोट्टे त्ति जहा कोटगे सालिमादिबीया पक्खित्ता अविणता
(दशा ६.४) धारिजंति तहा अवातावधारितमत्थं गुरूवदि8 सुत्तमत्थं वा २. वह वादी, जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है अविणटुं धारयतो धारणा कोट्ठगसम त्ति कातुं कोटे त्ति । किन्तु उसके व्यापकत्व, कर्तृत्व आदि के विषय में विप्रतिपन्न वत्तव्वा।
(नन्दी ४९ चू पृ ३७) कोष्ठकबुद्धि
अस्थि त्ति किरियवादी, वदति नत्थि त्ति अकिरियावादी य।
अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी॥ लब्धि का एक प्रकार । कोष्ठ में रखे हुए धान्य की भांति
(सूत्रनि ११८) अधीत ज्ञान को सुरक्षित रखने वाली योगज विभूति।
किरियावादीणं अस्थि जीवो। अत्थित्ते सति के केसिंच """कोट्ठयधन्नसुनिग्गलसुत्तत्था कोट्ठबुद्धीया॥
सव्वगतो केसिंच असव्वगतो, केसिंच मुत्तो अमुत्तो. (विभा ७९९)
है।
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किरियावादी कम्मं कम्मफलं च अस्थि त्ति भणंति।
__ (सूत्रचू पृ २०७) ३. वह वादी, जो मानता है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्रिया के द्वारा ही होता है। आत्मनः कर्मणश्च सम्बन्धः क्रियात एव भवति।
(आभा १.५)
क्रोधनिग्रह उदय में आए हुए क्रोध का निग्रह करना, उसे विफल करना। उदीरणावलिका में आए हुए क्रोध को क्षमा आदि साधनों द्वारा विपाकोदय में न आने देना। द्विरूप: क्रोधः-उदयगतः उदीरणावलिकागतश्च, तत्रोदयगतनिग्रहः क्रोधनिग्रहः। यस्तु उदीरणावलिकाप्राप्तस्तस्योदय एव न कर्त्तव्यः क्षान्त्यादिभिर्हेतुभिः। (ओनिवृ प १३) क्रोध पाप पाप कर्म का छठा प्रकार। क्रोध की प्रवत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध।
. (आवृ प ७२) क्रोधपापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव क्रोध में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, क्रोध तप्त जीव रा प्रदेश। तिण कर्म नै कहियै सही जी, छठो पापठाणो रेस॥
(झीच २२.१३) क्रोधपिण्ड उत्पादनदोष का एक प्रकार। क्रोध-फल, अभिशाप आदि का प्रदर्शन कर भिक्षा लेना। क्रोधफले च शापादिके दृष्टे यः पिण्डो लभ्यते स क्रोधपिण्डः।
(पिनि ४०८ वृ प ८५)
क्रियारुचि १. रुचि का एक प्रकार। संयम की साधना में होने वाली रुचि। २. क्रियारुचि सम्पन्न व्यक्ति। दसणनाणचरित्ते तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु। जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई नाम॥
(उ २८.२५) क्रियाविशाल पूर्व तेरहवां पूर्व । इसमें कायक्रिया, संयमक्रिया आदि क्रियाओं का भेदसहित प्रज्ञापन किया गया है। तेरसमं किरियाविसालं, तत्थ कायकिरियादियाओ विसाल त्ति-सभेदा, संजमकिरियाओ य छंदकिरियविहाणा य।
(नन्दी १०४ चू पृ ७६) क्रीडा शतायु जीवन की एक दशा, दूसरा दशक। इसमें खेलकूद की मनोवृत्ति अधिक होती है, कामभोग की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती। बिइयं च दसं पत्तो, णाणाकिड्डाहिं किड्डुइ। न तत्थ कामभोगेहिं, तिव्वा उप्पज्जई मई॥
(दहावृ प ८) क्रीत उद्गम दोष का एक प्रकार । साधु के निमित्त खरीदकर कोई वस्तु देना। यत्साध्वर्थं मूल्येन क्रीयते तत् क्रीतम्।
(योशा १.३८ वृ पृ १३३) क्रोध कषाय का एक प्रकार। आत्मा का वह अध्यवसाय, जो उपघात आदि हेतुओं से उत्पन्न होता है। उपघातादिहेतुजनिताऽध्यवसायः क्रोधः। (आभा ३.७१)
क्रोधप्रत्यया क्रिया द्वेषप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । क्रोध के निमित्त से होने वाली प्रवृत्ति।
(स्था २.३७)
क्रोधविजय 'क्रोध करने से क्रोध का अंत नहीं होता, उसका परिणाम भी अच्छा नहीं होता'-इस प्रकार के चिन्तन से किया जाने वाला क्रोध के उदय का निरोध। क्रोधस्य विजयो-दुरन्तादिपरिभावनेनोदयनिरोधः क्रोधविजयः।
(उ २९.६८ शावृ प ५९३) क्रोधविवेक सत्य महाव्रत की एक भावना। क्रोध के आवेश में न बोलना, क्रोध का विवेक करना, क्रोध का प्रत्याख्यान करना। क्रोधः कषायविशेषो मोहकर्मोदयनिष्यन्नोऽप्रीतिलक्षणः प्रद्वेषप्रायः। तदुदयाच्च वक्ता स्वपरनिरपेक्षो यत्किंचनभाषी
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मृषाऽपि भाषेत। अतः क्रोधस्य प्रत्याख्यानं निवृत्तिरनुत्पादो वा, (तेन ) नित्यमात्मानं भावयेत्। (तभा ७.३ वृ) क्रोधसंज्ञा क्रोधवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला आवेशात्मक संवेदन। क्रोधवेदनीयोदयात् तदावेशगर्भा पुरुषमुखवदनदन्तच्छदस्फुरणचेष्टा क्रोधसञ्ज्ञा। (प्रज्ञा ८.१ वृ प २२२)
क्रोध का विफलीकरण। क्षमा तितिक्षा सहिष्णुत्वं क्रोधनिग्रह इत्यनर्थान्तरम्। ..... क्षमागुणाश्चानायासादीननुस्मृत्य क्षमितव्यमेवेति क्षमाधर्मः।
(तभा ९.६.१) क्रोधोत्पत्तिनिमित्तविषह्याक्रोशादिसंभवे कालुष्योपरमः क्षमा।
(तवा ९.६.२) कोहोदयस्स निरोहो कातव्वो उदयप्पत्तस्स वा विफलीकरणं एसा खम त्ति।
(दअचू पृ ११) (द्र उत्तम क्षमा)
क्षमावीर्य
क्षपक वैयावृत्त्यकर वह मुनि, जो तपस्वी की सेवा में नियुक्त होता है।
(व्यभा १९४३) क्षपक श्रेणी अध्यात्म-विकास की वह श्रेणी, जिसमें मोहकर्म का क्षय किया जाता है, जो आठवें से बारहवें गुणस्थान तक (ग्यारहवें को छोड़कर) होती है। यत्र मोहनीयं कर्मोपशमयन्नात्मा आरोहति सोपशमकश्रेणी। यत्र तत्क्षयमुपगमयन्नुद्गच्छति सा क्षपक श्रेणी।
(तवा ९.१.१८) (द्र उपशमश्रेणी)
आक्रोश करने पर भी जो क्षुब्ध नहीं होता। क्षमावीर्यं आक्रुश्यमानोऽपि न क्षुभ्यति।
(सूत्र १ चू पृ १६४)
क्षय
क्षपण १. वह मुनि, जिसमें उपवास से लेकर छ: मास की तपस्या करने की क्षमता है और जो क्षमा आदि गुणों से युक्त है। 'खमणि' त्ति चउत्थं छटुं अट्ठमं दसमं दुवालसमं अद्धमासखमणं मास-दुमास-तिमास-चउमास-पंचमास-छम्मासा। "तहा खमादओ य गुणा। जुत्तं ति एतेहिं जहाभिहिएहिं गुणेहिं उववेओ जुत्तो।
(निभा २७ चू) २. जो चार प्रकार की गतियों का क्षय करता है अथवा जो कर्मों का क्षय करता है। भवं चउप्पगारं खवेमाणो खवणो भण्णइ।
(दजिचू पृ ३३३) अणं कम्म भण्णइ, जम्हा अणं खवयइ तम्हा खवणो भण्णइ।
(दजिचू पृ ३४)
कर्मों का आत्यन्तिक उच्छेद। क्षयः कर्मणामत्यन्तोच्छेदः। (उशावृप ३३) क्षयोपशम १. चार घाति कर्मों के दबाव को कम करने की प्रक्रिया। इसमें उदयावलिका में आने योग्य कर्मदलिकों को विपाकोदय के अयोग्य बना दिया जाता है, तीव्ररस का मंदरस में परिणमन किया जाता है। घातिकर्मणो विपाकवेद्याभावः क्षयोपशमः । उदयप्राप्तस्य घातिकर्मणः क्षयः अनुदीर्णस्य च उपशम:विपाकत: उदयाभाव इति क्षयोपलक्षित उपशमः क्षयोपशमः ।
(जैसिदी २.४७ वृ) २. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायइस कर्म-चतुष्टयी के सर्वघाती स्पर्धकों का क्षय, अंतर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले स्पर्धकों का उपशम तथा देशघाति स्पर्धकों के उदयकाल में होने वाला विकास। तस्स कम्मस्स सव्वघातिकफडगाणं उदयक्खयात्, तेषामेव सदुपशमात्, देशघातिफड्डगाणं उदयात् खतोवसमितो भावो भवति।
(आवचू १ पृ ९७)
क्षमा श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार ।क्षमा से उत्पन्न गुणों तथा क्रोध से होने वाले दोषों का चिन्तन कर किया जाने वाला निग्रह । क्रोध के उदय का निरोध तथा उदयप्राप्त
क्षान्त
(स्था ८.१९)
(द्र क्षान्तिक्षम)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
क्षान्तिक्षम
जो शक्ति होने पर भी अप्रिय वचन आदि प्रतिकूल स्थिति को सहन करता है।
क्षान्त्या न त्वशक्त्या क्षमते - प्रत्यनीकाद्युदीरितदुर्वचनादिकं सहत इति क्षान्तिक्षमः । (उ२१.१३ शावृ प ४८५, ४८६)
क्षान्ति धर्म
(स्था १०.६ )
(द्र उत्तमक्षमा)
क्षायिक भाव
कर्म-क्षय से होने वाली जीव की अवस्था ।
'कर्मणां सर्वथा प्रणाशः - क्षयः । तेन निर्वृत्तो भावः क्षायिकः । (जैसिदी २.४६ वृ)
क्षायिक सम्यक्त्व
दर्शन - सप्तक के क्षय से प्राप्त होने वाला सम्यक्त्व । अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयक्षयानन्तरं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुञ्जलक्षणे त्रिविधेऽपि दर्शनमोहनीयकर्मणि सर्वथा क्षीणे क्षायिकं सम्यक्त्वं भवति । (प्रसावृ प २८१ )
क्षायोपशमिक भाव
कर्म के क्षयोपशम से होने वाली आत्मा की अवस्था । ..... क्षयोपशमः । तज्जन्यो भावः क्षायोपशमिकः ।
(जैसिदी २.४७ वृ)
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
दर्शन - सप्तक के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाला सम्यक्त्व । मिथ्यात्वस्य - मिथ्यात्वमोहनीयकर्मण उदीर्णस्य क्षयादनुदीर्णस्य चोपशमात्सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणाद्विष्कम्भितोदयस्वरूपाच्च क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं व्यपदिशन्ति । (प्रसावृप २८१ )
तं खिप्पं
क्षिप्र अवग्रहमति
व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार । क्षयोपशम की पटुता के कारण विषय को शीघ्र ग्रहण करना, जैसे-- शब्द को शीघ्र ग्रहण करना ।
प्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरण क्षयोपशमादिपरिणामित्वात् क्षिप्रं शब्दमवगृह्णाति । ( तवा १.१६.१६)
...' उच्चारितमेव ओगिरहे ।
॥
(व्यभा ४१०६)
क्षीणमोह
जीवस्थान/गुणस्थान का बारहवां प्रकार। मोहकर्म के सर्वथा क्षीण होने से होने वाली जीव की आत्मविशुद्धि । क्षीणो- निःसत्ताकीभूतो मोहः । ( सम १४.५ वृ प २७) क्षीराश्रव लब्धि
लब्धि का एक प्रकार । वक्ता के वचनों को दूध के समान मधुर एवं आनंदमयी बनाने वाली योगज विभूति । 'खीरासव' त्ति क्षीरवन्मधुरत्वेन श्रोतॄणां कर्णमनः सुखकरं वचनमाश्रवन्ति - क्षरन्ति ये ते क्षीराश्रवाः । ( औपवृ प ५३)
९९
क्षुद्रहिमवान् वर्षधर
वह वर्षधर पर्वत, जो हैमवत वर्ष के दक्षिण में, भरतवर्ष के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में स्थित है। यह भरत और हैमवतइन दोनों के मध्य विभाजन रेखा का काम करता है। हेमवयस्स वासस्स दाहिणेणं, भरहस्स वासस्स उत्तरेणं, पुरत्थि - मलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं वास- हरपव्व पण्णत्ते । (जं ४.१) भरतस्य हैमवतस्य च विभक्ता हिमवान् । (तभा ३.११ )
क्षुद्रिका मोकप्रतिमा
स्व-मूत्रपान के आधार पर की जाने वाली तपस्या का विशेष प्रयोग । इस प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधक यदि भोजन करके आरोहण करता है तो उसकी समाप्ति छः उपवास से होती है। यदि भोजन किए बिना आरोहण करता है तो उसकी समाप्ति सात उपवास से होती है । खुड्डियां मोयपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स । भोच्चा आरुभइ चोदसमेणं पारेइ । अभोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ ॥ (व्य ९.४०, ४१ )
(द्र महतीमोकप्रतिमा)
क्षुधा परीषह
परीष का एक प्रकार। भूख से उत्पन्न वेदना, जो मुनि द्वारा भावपूर्वक सहनीय है।
दिगिंछापरिगए देहे तवस्सी भिक्खु थामवं । न छिंदे न छिंदावए न पए न पयावए । कालीपव्वंगसंकासे किसे धमणिसंतए । मायणे असणपाणस्स अदीणमणसो चरे ॥
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
क्षुल्लक अवस्था अथवा श्रुत से अपरिपक्व। क्षुद्रका-वयसा श्रुतेन वाऽव्यक्ताः । (सम १८.३ वृ प३४)
क्षुल्लककल्पश्रुत उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। अविस्तृत अर्थ और लघुतर आकार वाला आचारशास्त्र। चुल्लं ति-लहुतरं अवित्थरत्थं अप्पगंथं च चुल्लकप्पसुतं।
(नन्दी ७७ चू पृ५७)
क्षुल्लक भव सबसे छोटा भव (जन्मावधि), जो दो सौ छप्पन आवलिका का होता है। दो य सया छप्पन्ना आवलियाणं तु खुड्भवमाणं। ""क्षुल्लकभवग्रहणान्येकस्मिन्नच्छवासनिःश्वासे सातिरेकाणि सप्तदश मन्तव्यानि; यत उक्तम्-'खडागभवग्गहणा सत्तरस हवंति आणुपाणम्मि।' (विभा ३३१८ वृ) क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति कालिक श्रुत का एक प्रकार । वह अध्ययन, जिसमें सौधर्म आदि कल्पों के आवलिका और प्रकीर्णक इन दोनों प्रकार के विमानों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। आवलिकाप्रविष्टानामितरेषां वा विमानानां वा प्रविभक्तिः प्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौसा विमान-प्रविभक्तिः, सा चैका स्तोकग्रन्थार्था द्वितीया महा-ग्रन्थार्था, तत्राऽऽद्या क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिः।
(नन्दी ७८ मवृ प २०६)
और मानसिक-वाचिक-कायिक प्रवृत्ति को जानता है। क्षेत्रम्-शरीरम्, कामः, इन्द्रियविषयः, हिंसा, मनोवाक्कायप्रवृत्तिश्च । यः पुरुषः एतत्सर्वं जानाति स क्षेत्रज्ञो भवति।
(आभा ३.१६) ४. ज्ञानी। जो दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे।
(आ १.६७) क्षेत्रज्ञो-ज्ञानी....।
(आभा १.६७) क्षेत्रदिशा मेरु पर्वत के मध्य भाग में विद्यमान अष्टप्रदेशी रुचक से निकलने वाली दिशाएं। .."खेत्तदिसटुपएसियरुयगाओ मेरुमज्झम्मि।
(विभा २७००) क्षेत्रपरमाणु आकाश का एक प्रदेश। क्षेत्रपरमाणुः-आकाशप्रदेशः। (भग २०.३७ वृ) क्षेत्र पल्योपम असंख्य वर्षों का कालखण्ड। क्षेत्र पल्योपम के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-सूक्ष्म और व्यावहारिक । व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम-जैसे कोई पल्य (कोठा) एक योजन लंबा, चौड़ा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है। वह पल्य-एक, दो, तीन दिन यावत उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बालागों से ढूंस-ठूस कर घनीभूत कर भरा हुआ है। उस कोठे से जो आकाश-प्रदेश उन बालारों से व्याप्त हैं, उनमें से प्रति समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वह कोठा खाली होता है, वह व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम है। उस व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम का कोई प्रयोजन नहीं है। केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम-उन बालानों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड किए जाते हैं। उस कोठे के आकाश-प्रदेश उन बालानों से व्याप्त हों या अव्याप्त, उनमें से प्रति समय एक-एक आकाश प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वह कोठा खाली होता है, वह सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम है। तत्थ णं जेसे वावहारिए, से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं
क्षेत्र आकाश-खण्ड, जिसमें पदार्थ का अवगाहन होता है, जैसेपरमाणु का एक आकाश-प्रदेश वाला क्षेत्र।
(विभा ४३२ वृ पृ २०८) (द्र स्पर्शना)
क्षेत्रज्ञ १. आत्मज्ञ। २. लोक और अलोक को जानने वाला। 'क्षेत्रज्ञो' यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानादात्मज्ञ इति, अथवा लोकालोकस्वरूपपरिज्ञातेत्यर्थः। (सूत्र १.६.३ ७ प १४३) ३. वह पुरुष, जो क्षेत्र-शरीर, काम, इन्द्रियविषय, हिंसा
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उड्डुं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्ले
गाहा
एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । सम्म सन्निचिते,
भरिए वालग्गकोडीणं ॥
जेणं तस्स आगासपएसा तेहिं वालग्गेहिं अप्फुन्ना, तओ णं समए - समए एगमेवं आगासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ । से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे ।
एएहिं वावहारियखेत्तपलिओवमसागरोवमेहिं नत्थि किंचिप्पओयणं, केवलं पण्णव पण्णविज्जइ । से तं वावहारिए खेत्तपलिओ मे ॥
से किं तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे ? सुहुमे खेत्तपलिओवमे, से जहानामए पल्ले सिया - जोयणं आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्ले
गाहा
एगाहिय - बेयाहिय- तेयाहिय,
उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं । सम्मट्ठे सन्निचिते,
भरिए वालग्गकोडीणं ॥
तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ । जेणं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं बालग्गेहिं अप्फुन्ना अन्नावा, ओणं समए- समए एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ । से तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे ॥
( अनु ४३४, ४३६-४३८)
क्षेत्र लोक
लोक का वह स्वरूप, जिसकी व्याख्या क्षेत्र के आधार पर की जाती है।
'खेत्तलोए' त्ति क्षेत्ररूपो लोकः । (भग ११.९० वृ)
क्षेत्रवास्तु प्रमाणातिक्रम इच्छापरिमाण व्रत का एक अतिचार । अनजान में अथवा अतिलोभ के कारण खेत, घर आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना।
क्षेत्रवस्तुनः प्रमाणातिक्रमः, प्रत्याख्यानकालगृहीतमानो
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लङ्घनमित्यर्थः, एतस्य चातिचारत्वमनाभोगादिनाऽतिक्रमादिना वा । (उपा १.३६ वृ पृ १३ )
क्षेत्रविपाकिनी
वह कर्म-प्रकृति, जो अंतरालगति में उदय में आती है, शेष काल में नहीं ।
क्षेत्रे गत्यन्तरसंक्रमणहेतुनभः पथे विपाकः फलदानाभिमुख्यं यासां ताः क्षेत्रविपाकिन्यः । (कप्र पृ ३५)
क्षेत्रवृद्धि
दिग्व्रत का एक अतिचार। एक दिशा का परिमाण घटाकर उसे दूसरी दिशा के परिमाण में संयोजित कर उसका विस्तार करना ।
'खेत्तवुड्डि' त्ति एकतो योजनशतपरिमाणमभिगृहीतमन्यतो दशयोजनान्यभिगृहीतानि, ततश्च यस्यां दिशि दश योजनानि तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्ये योजनशतमध्यादपनीयान्यानि दश योजनानि तत्रैव स्वबुद्ध्या प्रक्षिपति, संवर्धयत्येकतः । (उपा १.३७ वृ पृ १४ )
क्षेत्र सागरोपम
क्षेत्र सागरोपम के दो प्रकार हैं-व्यावहारिक और सूक्ष्म । दस कोटिकोटि व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम का एक व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम होता है। इसका कोई प्रयोजन नहीं है, केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है।
दस कोटाकोटि सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है। ( अनु ४३४, ४३१)
क्षेत्रोपपातगति
उपपातगति का एक प्रकार। जिस क्षेत्र में नारक आदि जीव, मुक्त जीव अथवा पुद्गल अवस्थित रहते हैं, उस क्षेत्र से संबंधित गति ।
क्षेत्र - आकाशं यत्र नारकादयो जन्तवः सिद्धाः पुद्गला वा अवतिष्ठन्ते । (प्रज्ञा १६.२४ वृप ३२८)
(द्र उपपातगति)
क्षौमकप्रश्न
वह विद्या, जिसके द्वारा वस्त्र पर देवता को अवतीर्ण कर प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया जाता है।
'पसिणाई' ति प्रश्नविद्याः यकाभिः क्षौमकादिषु देवतावतारः क्रियते । (स्था १०.११६ वृ प ४८५ )
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
खरस्वर परमाधार्मिक देव का एक प्रकार । वे असुर देव, जो वज्र जैसे कांटों से आकुल शाल्मलि वृक्ष का निर्माण कर, उस पर नारकों को आरोपित कर, उन्हें खींचते हैं। कप्पंति करकएहि, तच्छिंति परोप्परं परसुएहिं। सिंव्वलितरुमारुहंति, खरस्सरा तत्थ नेरइया॥
(सूत्रनि ८१)
खेदज्ञ समस्त प्राणियों के कर्मजन्य दु:खों का ज्ञाता तथा उनको नष्ट करने का उपाय बताने वाला। खेदं-संसारान्तर्वर्तिनां प्राणिनां कर्मविपाकजं दःखं जानातीति खेदज्ञो दुःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात्।।
(सूत्र १.६.३ वृ प १४३)
खलिन कायोत्सर्ग का एक दोष। रजोहरण को आगे कर खड़ा होना। ठाइ य खलिणं व जहा रयहरणं अग्गाओ काउं॥
(आवनि १५४६ हावृ पृ २०५)
गच्छ १. एक आचार्य के नेतृत्व में वर्तमान साघुसमुदाय। एकाचार्यप्रणेयसाधुसमूहो गच्छः। (तभा ९.२४ वृ) २. साधुओं का वह संगठन, जिसमें कुल, गण और संघ का समावेश होता है। गच्छः साधुसमूहरूपो..."गच्छग्रहणेन कुल-गण-संघरूपो गच्छः ।
(बृभा २८६५ वृ)
खलुङ्क
गजरत्न
(उशा वृ प ३५०)
(द्र हस्तिरत्न)
वह शिष्य, जो गुरु का प्रत्यनीक, पिशुन और अविश्वस्त होता है। जे किर गुरुपडिणीया, सबला असमाहिकारगा पावा। अहिगरणकारगं वा, जिणवयणे ते किर खलङ्का॥ पिसुणा परोवतापी, भिन्नरहस्सा परं परिभवंति। निव्वय-निस्सील-सढा, जिणवयणे ते किर खलुङ्का॥
(उनि ४८८,४८९) खादिम आहार का एक प्रकार। १. खाद्यपदार्थ, जैसे-फल और मेवा। खादः प्रयोजनमस्येति खादिम-फलवर्गादि।
(स्था ४.२८८ वृ प २१९) २. भक्ष्य पदार्थ।
(तवा ७.२१) (द्र स्वादिम, उपवास)
गण १. परस्पर सापेक्ष अनेक कुलों का समुदाय। 'गणः' परस्परसापेक्षानेककुलसमुदायः । (बृभा २७८० वृ) २. समान वाचनाकल्प और सामाचारी वाला साधुसमुदाय। गण इति–एकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायः।
(आवनि २११ हावृ पृ९०) ३. श्रुतस्थविरपरम्परा की संस्थिति। 'गणः' स्थविरसन्ततिसंस्थितिः । स्थविरग्रहणेन श्रुतस्थविरपरिग्रहः...तेषां सन्ततिः-परम्परा, तस्याः संस्थानं-वर्तनं अद्यापि भवनं संस्थतिः।
(तभा ९.२४ वृ)
खेचर पञ्चेन्द्रियतिर्यंच का एक प्रकार । चर्म पक्षी, रोम पक्षी, समुद्ग पक्षी और वितत पक्षी। पंचिंदियतिरिक्खाओ।"खहहयरा य बोद्धव्वा"। चम्मे उ लोमपक्खी य, तइया समुग्गपक्खिया। विययपक्खी य बोद्धव्वा, पक्खिणो य चउव्विहा॥
(उ ३६.१७०,१७१,१८८)
गणधर १. धर्मसंघ में सात पदों में से एक पद। वह मुनि, जो आचार्य के समान होता है तथा जो आचार्य के आदेश से साधुसंघ को लेकर पृथक् विहरण करता है। यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग विहरति स गणधरः।
(आवृ प २३६) (द्र उपाध्याय)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
२. वह मुनि, जिस पर साध्वियों की व्यवस्था करने का दायित्व होता है।
'गणधर : ' संयतीपरिवर्तकः । (बृभा ४१५० वृ) ३. वह मुनि, जो सूत्रकर्ता होता है, जैसे-- महावीर के ग्यारह शिष्य ।
गणधराः - सूत्रकर्त्तारः । (आवनि २११ हावृ पृ९० ) ४. वह मुनि, जो ज्ञान आदि की विराधना न करते हुए गण का परिवर्धन करता है ।
ज्ञानादीनामविराधनां कुर्वन् यो गच्छं परिवर्धयति स गणधरः । (व्यभा १३७५ वृ प ५)
गणधर्म
१. गण - राज्यों अथवा मल्ल आदि गणों की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता ।
२. मुनियों के गण की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता । मल्लादिगणव्यवस्था जैनानां वा कुलसमुदायो गणः - कोटिकादिस्तद्धर्मः - तत्सामाचारी ।
(स्त्र ०.१३५ वृ प ४८९)
गणनोपग
प्रतिलेखना का एक दोष । प्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शङ्का होने पर की जाने वाली गणना।
प्रमाणे – प्रस्फोटादिसंख्यालक्षणे प्रमादम् - अनवधानं यच्च शंकिते - प्रमादतः प्रमाणं प्रति शङ्कोत्पत्तौ गणनां कराड्गुलिरेखास्पर्शनादिनैकद्वित्रिसंख्यात्मिकामुपगच्छतिउपयाति गणनोपगम् ।
(उ२६.२७ शावृ प ५४२)
गणाधिपति
(बृभा २०५०)
(द्र गणी)
गणावच्छेदक
धर्मसंघ में सात पदों में से एक पद । वह मुनि, जो गच्छ के
कार्य के विषय में चिन्तन करता रहता है ।
गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यचिन्तकः ।
गणिनी
(द्र प्रवर्त्तिनी)
(आवृ प २३६)
(बृभा २३३९)
गणिपिटक
द्वादशांग। वह पिटक, जो आचार्य के श्रुत का सर्वस्व होता है
गणी - आचार्यस्तस्य पिटकं - सर्वस्वं गणिपिटकम् । ( नन्दी ६८ हावृ पृ ८२)
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गणिविद्या
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। इस अध्ययन में दीक्षा आदि विभिन्न अवसरों पर प्रयुक्त होने वाले मुहूर्त्त, नक्षत्र आदि का वर्णन है।
.....पव्वावणा सामाइयारोवणं एमाइया कज्जा जेसु तिहिकरण - णक्खत्त-मुहुत्त जोगेसु य जे जत्थ करणिज्जा ते जत्थऽज्झयणे वणिज्जंति तमज्झयणं गणिविज्जा । (नंदी ७७ चू पृ ५८)
गणिसम्पदा
आचार्य का बाह्य और आन्तरिक ऐश्वर्य - आचार, शरीर आदि का वैभव ।
अट्ठविहा गणिसंपदा पण्णत्ता, तं जहा – आयारसंपदा सुतसंपदा सरीरसंपदा वयणसंपदा वायणासंपदा मतिसंपदा पओगसंपदा संगहपरिण्णा णामं अट्टमा । (दशा ४.३)
गणी
गण का अधिपति आचार्य । 'गणी' गणाधिपतिराचार्यः ।
(द्र उपाध्याय)
(बृभा ४१५० वृ)
गण्डक
अनुयोग का एक विभाग ।
इक्खुमादिपर्वगंडिकावत् एक्काहिकारत्तणतो गंडियाणुओगो
(नन्दी ११९ चू पृ७७)
भणितो । गंडिका इति खंडं । (द्र कण्डिकानुयोग)
गण्य
विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण का एक प्रकार। जो गिना जाता है,
वह गण्य है।
गणिमे - जण्णं गणिज्जइ ।
( अनु ३८२)
गति
१. पर्यायान्तरगमन (एक पर्याय से दूसरे पर्याय में जाना)
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गम्ममाणे अगए"""ते थेरा भगवंतो अण्णउत्थिए एवं पडिभणंति, पडिभणित्ता गइप्पवायं नाम अज्झयणं पण्णवइंस॥
(भग ८.२९२)
२. जीव का वर्तमान भव से आगामी भव में गमन। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव रूप में भव की प्राप्ति। गम्यते-तथाविधकर्मसचिवैः प्राप्यते इति गतिःनारकत्वादिपर्यायपरिणतिः। (प्रज्ञावृ प ४६९) ३. गमन-एक देश से दूसरे देश को प्राप्त करने का साधन। देशाद्देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः।
(ससि ४.२१)
गन्ध
पुद्गल का एक लक्षण, जो घ्राणेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं। (उ २८.१२) घाणस्स गंधं गहणं वयंति". गंधस्स घाणं गहणं वयंति .. (उ ३२.४८,४९)
गतिकल्याण वह देव, जो अनुत्तरोपपातिक देवलोक में अथवा वैमानिक देवलोक में उत्पन्न होता है तथा जो इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिशक, लोकपाल, परिषद्, आत्मरक्षक, प्रकीर्णक आदि रूप में उत्पन्न होता है। गतिकल्लाणा-कल्लाणगती अणुत्तरोववाइएसु वेमाणिएसु वा, इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशलोकपालपरिषदात्मरक्षप्रकीर्णकेषु। (सूत्र २.२.६९ चू पृ ३६६, ३६७) गतिनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव नरक आदि चतुर्विध गति को प्राप्त करता है। नरक गतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिस्तजनकं नाम गतिनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४६९) गतिनामनिधत्तायु आयुबंध का एक प्रकार। नरक आदि चार गतिनाम कर्म के साथ होने वाला आयु का निषेचन। गतिर्नरकगत्यादिभेदाच्चतुर्द्धा सैव नाम गतिनाम तेन सह निधत्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः। (प्रज्ञा ६.११८ वृ प २१७) गतिप्रतिघात प्रशस्त गति का अवरोध, जो अशुभ आचरण के द्वारा निष्पन्न होता है। गतेः-देवगत्यादेः प्रकरणाच्छुभायाः प्रतिघात:- तत्प्राप्तियोग्यत्वे सति विकर्मकरणादप्राप्तिर्गतिप्रतिघातः।
(स्था ५.७० वृ प २८९) गतिप्रवाद गति का वर्णन करने वाला शास्त्र। """"अम्हण्णं अज्जो! गम्ममाणे गए"।तुब्भण्णं अप्पणा चेव ।
गन्धनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के गंध की व्यवस्था होती है। गन्ध्यते-आघ्रायते इति गन्धः, स द्विधा, तद्यथासुरभिगन्धो दुरभिगन्धश्च, तन्निबन्धनं गन्धनामापि द्विधा".." यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु सुरभिगन्ध उपजायते यथा शतपत्रमालतीकुसुमादीनां तत्सुरभिगन्धनाम, यदुदयाद् दुरभिगन्धः शरीरेषू-पजायते यथा लशुनादीनां तत् दुरभिगन्धनाम।
(प्रज्ञा २३.४८ वृ प ४७३) गन्धर्व वानमंतर देव का चौथा प्रकार। इस जाति के देव रक्तिम आभावाले और गंभीर होते हैं। उनका रूप सुन्दर और स्वर मधुर होता है। वे सिर पर मुकुट और गले में हार पहनते हैं। उनका चिह्न होता है तुंबरु का वृक्ष। गान्धर्वा रक्तावदाता गम्भीराः प्रियदर्शनाः सुरूपाः सुमुखाकारा: सुस्वरा मौलिधरा हारविभूषणास्तुम्बरुवृक्षध्वजाः।
(तभा ४.१२)
गमनगुण एक विशेष गुण, जिसके द्वारा धर्मास्तिकाय गतिपरिणत जीव
और पुद्गल की गति में सहायक बनता है। 'गमणगुणे' त्ति जीवपुद्गलानां गतिपरिणतानां गत्युपष्टम्भहेतुः।
(भग २.२५ वृ) गमिक श्रुत वह श्रुत, जिसमें भंग, गणित अथवा गमों-सदृश पाठों की बहुलता हो, जैसे-दृष्टिवाद। भंगगणियाइ गमियं जं सरिसगमं च कारणवसेण। दिद्रिवाए
(विभा ५४९)
वा॥
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गरुडोपपात कालिक श्रुत का एक प्रकार। वह अध्ययन, जिसमें गरुड देव की वक्तव्यता है तथा जिसका परावर्तन करने से गरुड नामक देव उपस्थित हो जाता है। (द्र अरुणोपपात)
तस्सेवऽत्थस्स वइरेगधम्मपरिच्चाओ अण्णयधम्मसमालोगणं च गवेसणता भण्णति। (नंदी ४५ चू पृ ३६) ३. भोजन आदि ग्रहण करने के लिए उद्गम और उत्पादनगत दोषों की एषणा करना। आधाकर्मादिदोषपरिहारत उदगमं धात्र्यादि दोषपरित्यागतश्चोत्पादनां शुद्धामादधीत। (उ २४.११ शावृ प ५१७)
१. जन्म का एक प्रकार। जरायुज, अण्डज और पोतम ये गाढबन्धनबद्ध गर्भ से उत्पन्न होते हैं।
वह कर्मबंध, जो निकाचित होता है-परिवर्तनयोग्य नहीं गर्भोपपातसंमूर्च्छनानि जन्म।
होता। जराय्वण्डपोतजानां गर्भः। (जैसिदी ३.१४,१५) 'धणियं' ति गाढं बन्धनं-श्लेषणं तेन बद्धा निकाचिता २. वह स्त्री-गर्भाशय, जिसमें शुक्र और शोणित का मिश्रण इत्यर्थः।
(उ २९.२३ शावृ प५८५) होता है अथवा मां के द्वारा गृहीत आहार से जहां रस ग्रहण
गाणङ्गगणिक किया जाता है।
शबल का एक प्रकार । वह मुनि, जो विशेष कारण के बिना यत्र शुक्रशोणितयोः स्त्रिया उदरमुपगतयोर्गरणं मिश्रणं भवति
छह मास के भीतर ही गण-परिवर्तन करता है-एक गण से स गर्भः। मात्रोपयुक्ताहारात्मसात्करणाद् वा।
दूसरे गण में जाता है। (तवा २.३१)
अंतो छण्हं मासाणं गणातो गणं संकममाणे सबले। गर्भज
(दशा २.३) वह जीव, जो शुक्र और शोणित की प्रक्रिया से गर्भ में स्वेच्छाप्रवृत्ततया 'गाणंगणिए'त्ति गणाद् गणं षण्मासाभ्यउत्पन्न होता है।
न्तर एव संक्रामतीति 'गाणंगणिक' इत्यागमिकी परिभाषा। योविषयोनावकध्यमागत्य ग्रहणं शुक्ररक्तयोर्यत् क्रियते
(उ १७.१७ शावृ प ४३५,४३६) जीवेन जनन्यभ्यवहृताहाररसपरिपोषापेक्षं तद गर्भजन्मोच्यते।
गात्रउद्वर्तन (तभा २.३२ वृ)
अनाचार का एक प्रकार । शरीर पर पीठी आदि का उबटन गर्भावक्रान्तिक
करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। गर्भ से उत्पन्न होने वाला जीव। (प्रज्ञा १.८२) गायस्सुव्वट्टणाणि य।
(द ३.५) गर्हण
गात्राभ्यङ्ग गर्दा, दूसरों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना। अनाचार का एक प्रकार। शरीर पर तैलमर्दन करना, जो मुनि गर्हणेन-परसमक्षमात्मनो दोषोद्भावनेन।
के लिए अनाचरणीय है। (उ २९.८ शावृ प ५८०) गायब्भंगो शरीरब्भंणवामद्दणाईणि। (द ३.९ अचू पृ६२) गवेषणा
गीतार्थ १. मतिज्ञान का पर्यायवाची नाम । व्यतिरेकधर्म का अन्वेषण १. वह मुनि, जो छेदसूत्र के अर्थ का ज्ञाता होता है। करना।
विदितः-मुणितः परिज्ञातोऽर्थः छेदसूत्रस्य येन तं विदितार्थ गवेषणं व्यतिरेकधर्मालोचनं गवेषणा। (विभा ३९६७)
खलु वदन्ति गीतार्थम्।
(बृभा ६८९ वृ) २. ईहा की तीसरी अवस्था, जिसमें व्यतिरेकधर्म का परित्याग २. वह मुनि, जो सूत्रधर भी है और अर्थधर भी है। कर अन्वयधर्म का समालोचन होता है।
एकः सूत्रधरोऽप्यर्थधरोऽपि "तत्त्वतो गीतार्थशब्दमविकलमुद्वोढुमर्हति।
(बृभा ६८९, ६९० वृ)
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गुप्तेन्द्रिय इन्द्रियों का संवरण करने वाला। गुप्तानि-स्वस्वविषयप्रवृत्तिनिरोधेन संवृतानीन्द्रियाणि येनासौ गुप्तेन्द्रियः।
(बृभा ८०३ वृ)
गुण १. पर्याय या अंश। गुण:-अंशः पर्यायः।
(अनुमवृ प १०१) २. द्रव्य का सहभावी धर्म, जो द्रव्य के आश्रय में रहता है, स्वयं निर्गुण है। द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।
(तसू ५.४०) गुणः सहभावी धर्मो यथात्मनि विज्ञानव्यक्तिशक्त्यादिः।
(प्रनत ५.७)
गुणरत्नसंवत्सर एक विशिष्ट तप:कर्म, जिसमें सोलह मास का समय लगता है। तपस्या का कालमान तेरह मास सतरह दिनों का होता है
और आहार का कालमान तिहत्तर दिनों का होता है। गुणरत्नसंवत्सरं-तपः, इह च त्रयोदशमासा: सप्तदशदिनाधिकास्तपःकालः, त्रिसप्ततिश्च दिनानि पारणककाल इति।
(भग २.६१ वृ) गणवीर्य
औषधि में होने वाली गुणात्मक शक्ति, जिसके द्वारा रोग का निवारण होता है। गणवीरियंजं ओसहीण तित्त-कडय-कसाय-अंबिल-महरगुणत्ताए रोगावणयणसामत्थं। (निभा ४७ चू)
गुरु १. धर्माचार्य, जो तत्त्व का प्रतिपादन करता है, जैसेतीर्थंकर, गणधर आदि। धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः। सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते॥
(प्रज्ञावृप १६३) २. जो अर्हत् के प्रवचन (शासन) का अनुगमन करता है तथा बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थियों से मुक्त होता है। निर्ग्रन्थो गुरुः॥ अर्हतां प्रवचनानुगामी बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिविप्रमुक्तः निर्ग्रन्थः।
(जैसिदी ८.२ वृ)
गुणव्रत
(प्रसावृप २९४) (द्र शिक्षाव्रत) गुणस्थान धर्म-धर्मिणोरभेदोपचारात् जीवस्थानानि कर्मक्षयोपशमादिजन्यगुणाविर्भावरूपक्रमिकविशुद्धिरूपाणि गुणस्थानानि उच्यन्ते।
(जैसिदी ७.१ वृ) (द्र जीवस्थान)
गुरुचिन्तक वह मुनि, जो गुरु की सेवा में नियुक्त होता है।
(व्यभा १९४३) गुरु प्रायश्चित्त अनुद्घातिक प्रायश्चित्त, जिसका वहन निरन्तर किया जाता है। काल की दृष्टि से ग्रीष्म काल और तप की दृष्टि से अष्टमभक्त (तेला) आदि गुरु प्रायश्चित्त हैं। जं तु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तवस्स तं गुरुगं। जं पुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ॥ काल-तवे आसज्ज व, गुरू वि होइ लहुओ लहू गुरुगो। कालो गिम्हो उ गुरू, अट्ठाइ तवो लहू सेसो॥
(बृभा ३००,३०१) (द्र अनुद्घातिक)
गुप्ति १. मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का सम्यक् निग्रह।। सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः।
(तसू ९.४) २. चित्त की वह अवस्था, जिसके द्वारा अशुभ मन, वचन और काया का निवर्तन होता है। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो॥ (उ २४.२६)
गुरुलघुद्रव्य वह द्रव्य, जो भारयुक्त है, जैसे-बादरस्कन्ध-औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर। परमाण्वादेरारभ्य संख्यातप्रदेशात्मकोऽसंख्यातप्रदेशात्मको यश्चानन्तप्रदेशात्मकः सूक्ष्मस्कन्धः कार्मणप्रभृतिक एते अगुरुलघवः, बादराः स्कन्धा औदारिकवैक्रियाहारकतैजसरूपा गुरुलघवः।
(बृभा ६५ वृ)
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पोग्गलत्थिकाए गरुयलहुए वि, अगरुयलहुए वि ॥
जीवत्थिकाए अगरुयलहुए ।
(भग १.४०३, ४०४)
गुरुलघुपर्यव
पुद्गल का भारात्मक पर्याय, बादर स्कन्ध द्रव्य का पर्याय । (भग २.४५ ) गुरुलघुद्रव्याणि - बादरस्कन्धद्रव्याणि तत्पर्यवाः । ( जंवृ प १३० )
गृद्धपृष्ठमरण
मरण का एक प्रकार। हाथी आदि के कलेवर में प्रविष्ट होने पर दूसरे गृध्र आदि प्राणियों द्वारा नोचे जाने से होने वाला
मरण ।
करिकरभादिशरीरमध्यपातादिना गृध्रादिभिरात्मानं भक्षयतो महासत्त्वस्य भवति । (सम १७.९ वृप ३३ )
गृहपतिरन
चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो चक्रवर्ती के गृह की समुचित व्यवस्था में तत्पर रहता है। गृहपति एक दिन में अन्न निष्पन्न कर खाद्य सामग्री उपस्थित कर देता है । गृहपतिः - चक्रवर्त्तिगृहसमुचितेतिकर्तव्यतापरः ।
(प्रसावृ प ३५० )
गृहान्तरनिषद्या
अनाचार का एक प्रकार । भिक्षा करते समय गृहस्थ के घर में बैठना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है।
गिहं चेव गिहंतरं तंमि गिहे निसेज्जा एत्थ गोचरग्गगतस्स णिसेज्जा... | (द ३.५ जिचू पृ ११४)
गृह मंत्र
अनाचार का एक प्रकार। गृहस्थ के पात्र में भोजन करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है ।
गहिमत्तं गिहिभायणं ति ।
(द ३.३ जिचू पृ ११२)
गृहिधर्म
(उपा १.४५)
(द्र श्रावकधर्म)
गृहिलिङ्गसिद्ध
वह सिद्ध, जो गृहस्थ के वेश में मुक्त होता है।
गृहस्थाः सन्तो ये सिद्धास्ते गृहिलिङ्गसिद्धाः ।
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(प्रसावृ प ११२)
गृहिवैयात्य
अनाचार का एक प्रकार। गृहस्थ की सेवा करना - उसको भोजन का संविभाग देना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। गहीण अण्णापाणादीहिं विसूरंताण विसंविभागकरणं । (द ३.६ जिचू पृ ११४) वेयावडियं नाम तथाऽऽदरकरणं तेसि वा पीतिजणणं, उपकारकं । (दजिचू पृ ३७३ )
गोचरचर्या
भिक्षाचर्या, गाय की भांति गृहस्थ के घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करने की प्रवृत्ति ।
गोश्चरणं गोचरः, चरणं-चर्या, गोचर इव चर्या गोचरचर्या । (आवहावृ २ पृ५७)
गोत्रकर्म
१. वह कर्म, जो जाति, रूप, तप आदि की विशेषता और हीनता के निर्देश का हेतु बनता है । उच्चनीचकुलोत्पत्तिलक्षणः पर्यायविशेषः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रम् । (प्रज्ञावृ प ४५४) २. वह कर्म, जो समाज में उच्च या नीच स्थान का निर्धारण करता है।
उच्चनीचभेदं गच्छति येनेति गोत्रम् ।
(जैसिदी ४.३)
गोदोहा
निषद्या का एक प्रकार । घुटनों को ऊंचा रखकर पंजों के बल पर बैठना तथा दोनों हाथों को दोनों सक्थियों (साथलों) पर टिकाना, गाय को दुहने की 'मुद्रा में बैठना ।
गोर्दोहनं गोदोहिका तद्वद्याऽसौ गोदोहिका ।
(स्था ५.५० वृ प २८७)
गोलक
अनन्त जीवों का एक साधारण शरीर निगोद कहलाता है। उसका आकार स्तिबुक (जलबिन्दु) जैसा होता है, ऐसे असंख्य निगोद मिलकर एक गोलक का निर्माण करते हैं। अनन्तानां जीवानां साधारणमेकं शरीरं, तच्च स्तिबुकाकारं, इत्थंभूतानां चासंख्येयानां निगोदानां समुदायो गोलकाकारो
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गोलकः। ते च गोलका असंख्येयाः। (बृसंवृ प १२८ अ) का ग्रहण करना। गोला य असंखिज्जा, अस्संखनिगोअओ हवड़ गोलो। एवं तु गविट्ठस्स उग्गमउप्पायणाविसुद्धस्स। एक्कएक्कम्मि निगोए, अणंतजीवा मुणेयव्वा॥ गहणविसोहिविसुद्धस्स होइ गहणं तु पिंडस्स॥ (बृसं ३०१)
(पिनि ५१३)
ग्रहणैषणायां शोधयेच्छङ्कितादिदोषत्यागतः। गौरव अभिमान और लोभ के कारण होने वाली बड़प्पन अथवा
(उशावृप५१७) गर्व की अनुभूति।
ग्रामधर्म गौरवाणि-अभिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशुभभावगुरुत्वानि। गांव की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता।
(सम ३.४ वृ प ८) ग्रामा-जनपदाश्रयास्तेषां तेष वा धर्म:-समाचारो गौरव दान
व्यवस्थेति ग्रामधर्मः। (स्था १०.१३५ वृ प ४८८) वह दान, जो गर्वपूर्वक यश के लिए दिया जाता है। ग्रासैषणा गौरवेण-गर्वेण यद्दीयते तद् गौरवदानमिति, उक्तं च- पंचविध माण्डलिक दोष।
(ओनि ५५१) नटनर्तमुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धुमित्रेभ्यः।
(द्र परिभोगैषणा) यद्दीयते यशोथं गर्वेण तु तद्भवेद्दानम्॥
ग्रैवेयक (स्था १०.९७ वृ प ४७१)
देवों का वह आवासस्थल, जो लोकपुरुष के गर्दन स्थान पर ग्रह
होता है।
(देखें चित्र पृ ३४६) ज्योतिष्क देवनिकाय का एक प्रकार। ये संख्या में अठासी लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थानीयत्वात् ग्रीवाः, ग्रीवासु भवानि हैं, जैसे-बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि आदि। ग्रैवेयकाणि विमानानि।
(तवा ४.१९.२) (त्रिप्र ७.१५-२२) (द्र ज्योतिष्क)
ग्लानवैयावृत्त्यकर
वह मुनि, जो रुग्ण साधु-साध्वियों की सेवा में नियुक्त होता ग्रहणगुण
(व्यभा १९४३) वह विशेष गुण, जिसके द्वारा पुद्गल में समुदित होने की तथा जीव के साथ संबंध स्थापित करने की क्षमता होती है।
घ पोग्गलत्थिकाए....गुणओ गहणगुणो।।
घन तप ग्रहणं-परस्परेण सम्बन्धनं जीवेन वा औदारिकादिभिः
इत्वरिक अनशन का एक प्रकार। जितने पदों की श्रेणी है, प्रकारैरिति।
(भग २.१२९ वृ)
प्रतर को उतने पदों से गुणा करने से होने वाला तप। यहां ग्रहणशिक्षा
चार पदों की श्रेणी है। अतः सोलह पदात्मक प्रतर तप को १. ज्ञान ग्रहण करने का उपदेश । गुरुमुख अथवा पुस्तक से। चार से गुणा करने से अर्थात् उसे चार बार करने से घन तप अध्ययन करना।
होता है। घन तप के चौंसठ पद बनते हैं। द्वादशवर्षाणि यावत् सूत्रं त्वयाऽध्येतव्यमित्युपदेशो अत्र च षोडशपदात्मकः प्रतरः पदचतुष्टयात्मिकया श्रेण्या ग्रहणशिक्षा।
(विभा ७ वृ पृ८) गणितो घनो भवति, आगतं चतुःषष्टिः (६४), स्थापना तु २. वह शिक्षा, जिसके द्वारा ज्ञान का विकास होता है। पूर्विकैव नवरं बाहल्यतोऽपि पदचतुष्टयात्मकत्वं विशेषः (द्र आसेवनशिक्षा)
एतदुपलक्षितं तपो घनतप उच्यते।
(उ ३०.१० शावृ प ६०१) ग्रहणैषणा
(द्र श्रेणी तप, प्रतर तप) उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित विशुद्ध आहार
है।
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घनवात घनीभूत वायु, जो तनुवात पर प्रतिष्ठित है। घनवातवलयं तनुवातवलयप्रतिष्ठितम्। (तवा ३.१) घनोदधि घनीभूत जल वाला समुद्र, जो घनवात पर प्रतिष्ठित है। घनोदधिवलयं घनवातवलयप्रतिष्ठितम् । (तवा ३.१) घर्मा अधोलोक (नरक) की प्रथम पृथ्वी का नाम । (द्र अञ्जना)
घोषसम गुरु के पास वाचना लेते समय गुरु द्वारा उच्चारित उदात्त आदि घोषों के अनुसार उच्चारण करना। उदात्तादिता घोसा तेजधा गुरूहिं उच्चारिया तधा गहितं ति घोससममिति।
(अनु १३ चू पृ७) घोषहीन ज्ञान का एक अतिचार । उदात्त आदि घोषरहित उच्चारण करना। घोषहीनम्-उदात्तादिघोषरहितम्।
(आव ४.८ हावृ २ पृ १६१) घ्राणेन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (घ्राण) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा गंध का ग्रहण करती है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् "जिघ्रत्यनेनात्मेति घ्राणम्। (तवा २.१९)
घातिकर्म वह कर्म, जो आत्मा के मूल गुणों का घात करता है, जैसेज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अंतराय कर्म। आवरणमोहविग्धं घादी जीवगुणघादणत्तादो। आउगणामं गोदं वेयणीयं तह अघादि त्ति। (गोक ९) ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायचतुष्कं धाति, शेषचतुष्कं च अघाति।
(जैसिदी ४.४ वृ) (द्र अघातिकर्म)
घात्यकर्म
(जैसिदी ७.२२)
(द्र घातिकर्म)
घोरतपस्वी हिंस्र पशुओं एवं चोर आदि से घिरे हुए प्रदेश में आवास करने वाला तपस्वी मुनि।
"सिंहव्याघ्रादिव्यालमृगभीषणस्वनघोरचौरादिप्रचरितेष्वभिरुचितावासाश्च घोरतपसः। (तवा ३.३६) घोरब्रह्मचर्यवासी चिरकाल से अस्खलित ब्रह्मचर्य वाला। चारित्रमोह के प्रकृष्ट विलय (क्षयोपशम) के कारण जिसे दुःस्वप्न भी नहीं आते। चिरोषिताऽस्खलितब्रह्मचर्यवासाः प्रकष्टचारित्रमोहनीयक्षयोपशमात् प्रणष्टदुःस्वप्ना घोरब्रह्मचारिणः।
(तवा ३.३६)
घ्राणेन्द्रिय असंवर (आश्रव) कर्म-आकर्षण की हेतुभूत घ्राण इन्द्रिय की प्रवृत्ति ।
(स्था १०.११) घ्राणेन्द्रिय निग्रह प्रिय, अप्रिय गन्ध में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह। इसके द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। घाणिंदियनिग्गहेणं मणुन्नामणुन्नेसु गंधेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ॥
(उ २९.६५) घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष का एक प्रकार । घ्राणेन्द्रिय की सहायता से होने वाला गंध का ज्ञान। (द्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष) घ्राणेन्द्रिय प्राण वह प्राण, जो सूंघने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६)
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घ्राणेन्द्रियरागोपरति अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ गंध में राग का वर्जन और अमनोज्ञ गंध में द्वेष का वर्जन। (सम २५.१.२३) (द्र चक्षुरिन्द्रियरागोपरति) घ्राणेन्द्रिय संवर घ्राणेन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्मनिरोध ।
(स्था ५.१३७)
चक्ररत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो सभी आयुधों में श्रेष्ठ तथा दुर्दम शत्रु पर विजय पाने में समर्थ होता है। चक्रं समस्तायुधातिशायिदुर्दमरिपुजयकरम्।
(प्रसा १२१४ वृ प ३५०) चक्रवर्ती शलाकापुरुष का एक प्रकार। भरत क्षेत्र के छ: खण्ड भूमि का स्वामी, सार्वभौम सम्राट, इसका अस्त्र है चक्र। चक्री चालीस लाख अप्टापद की शक्ति से युक्त होता है। 'चक्रवर्ती' षट्खण्डभरताधिपः। (उशावृ प ३५०) चक्रवाल श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार। वह श्रेणि, जिसमें केवल पुद्गल (परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि) मंडलाकार (गोलाकार) में घूमकर उत्पन्न होता है। (देखें चित्र पृ३४३) 'चक्कवाल'त्ति चक्रवालं-मण्डलं, ततश्च यया मण्डलेन परिभ्रम्य परमाण्वादिरुत्पद्यते सा चक्रवाला, सा चैवम्।
(भग २५.९१ वृ)
तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा रूप का ग्रहण करता है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् पश्यत्यनेनात्मेति चक्षुः। (तवा २.१९) चक्षुरिन्द्रिय असंवर कर्म-आकर्षण की हेतुभूत चक्षुरिन्द्रिय की प्रवृत्ति।
(स्था १०.११) चक्षुरिन्द्रियनिग्रह प्रिय, अप्रिय रूप में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह। इसके द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। चक्खिदियनिग्गहेणं मणुनामणुन्नेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ॥
(उ २९.६४) चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष का एक प्रकार । चक्षुरिन्द्रिय की सहायता से होने वाला रूप का ज्ञान। (द्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष) चक्षुरिन्द्रिय प्राण वह प्राण, जो देखने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६) चक्षुरिन्द्रिय रागोपरति अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ रूप में राग का वर्जन और अमनोज्ञ रूप में द्वेष का वर्जन करना।
(सम २५.१.२२) पञ्चानामिन्द्रियार्थानां स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दानां मनोज्ञानां प्राप्तौ गाद्धर्यवर्जनममनोज्ञानां प्राप्तौ द्वेषवर्जनम्।
(तभा ७.३) चक्षुरिन्द्रिय संवर चक्षुरिन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्मनिरोध ।
(स्था ५.१३७)
चक्रवाल सामाचारी प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि नित्य कर्म का समाचरण। पडिलेहणा पमन्जण भिक्खिरियाऽऽलोगभुंजणा चेव। पत्तगधुवण वियारा थंडिल आवस्सयाईया।।
(प्रसा ७६८)
चक्षुरिन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (चक्षु) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम
चक्षुह्यविवर्जन ब्रह्मचर्य गुप्ति का चतुर्थ प्रकार।
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अंगपच्चंगसंठाणं, चारुल्लवियपेहियं। बंभचेररओ थीणं, चक्खुगिज्झं विवज्जए॥
(उ १६ गा ४) (द्र इन्द्रियालोकवर्जन) चक्षुर्दर्शन चक्षु से होने वाला सामान्य बोध। चक्षरिन्द्रियेण दर्शनं-रूपसामान्यग्रहणलक्षणं चक्षदर्शनम्।
(प्रज्ञा २९.३ वृ प ५२७) चक्षुर्दर्शनावरण दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति । चक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन-सामान्यग्राही बोध का आवरण। चक्षुषा दर्शनं-सामान्यग्राही बोधश्चक्षदर्शनं तस्यावरणं चक्षुर्दर्शनावरणम्। (स्था ९.१४ वृ प ४२४) चण्डा परिषद् इन्द्र की परिषद् का एक प्रकार। मध्यमा परिषद्, इसके सदस्य इन्द्र के द्वारा बुलाने और न बुलाने पर भी आते हैं। मज्झिमिता चंडा।
(स्था ३.१४३) ये त्वाहूता अनाहूताश्चागच्छन्ति सा मध्यमा।
(स्था ३.१४३ वृ प १२२) (द्र जाता परिषद्, समिता परिषद्) चतुःस्थानपतित (चतुःस्थानिका) तुलनात्मक न्यूनता और अधिकता को बताने वाले चार गणितीय मान। जैसे-असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन, संख्येय- गुणहीन, असंख्येयगुणहीन अथवा; असंख्येयभागअधिक, संख्येयभागअधिक, संख्येयगुणअधिक, असंख्येयगुणअधिक।
(प्रज्ञा ५.१५६) (द्र षट्स्थानपतित) चतुःस्पर्शी सूक्ष्म परिणति वाला पुद्गलस्कन्ध, जिसमें स्निग्ध और रूक्ष, शीत और उष्ण-ये चार स्पर्श होते हैं, जैस-कर्मशरीर, मनयोग, वचनयोग। ""ओरालियसरीरे, जाव तेयगसरीरे-एयाणि अट्ठफासाणि। कम्मगसरीरे चउफासे। मणजोगे वइजोगे य चउफासे। कायजोगे अगुफासे।
सर्वत्र च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणाम: कारणं, अष्टस्पर्शत्वे च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति।
(भग १२.११७ वृ) (द्र अष्टस्पर्शी) चतुरिन्द्रिय स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु-इन चार इन्द्रियों वाला प्राणी, जैसे-मच्छर, मक्खी , भ्रमर आदि। स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियचतुष्टययुक्ता दंशमशकमक्षिकाभ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः। (बुद्रसं ११ वृ पृ २३) चतुर्थभक्त उपवास, सूर्यास्त से पहले तीसरे दिन के सूर्योदय तक आहार का प्रत्याख्यान। चतुर्थं भक्तं यावद्भक्तं त्यज्यते यत्र तच्चतुर्थम्, इयं चोपवासस्य संज्ञा।
(भग २.६२ वृ) 'चउत्थभत्तियस्स...."एक पर्वदिने द्वे उपवासदिने चतर्थं पारणकदिने भक्तं-भोजनं परिहरति यत्र तपसि तत्-चतुर्थ भक्तं, तद्यस्यास्ति स चतुर्थभक्तिव्यः।
(स्था ३.३७ वृप'१३७) (द्र अभक्तार्थ) चतुर्दशपूर्वी चौदह पूर्वो-विशिष्ट ज्ञानराशि का ज्ञाता मुनि। इसके दो प्रकार हैं-१. भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी (श्रुतकेवली) और २. अभिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी । .चोद्दस पुव्वाइं अहिज्जइ। (अन्त ३.११६) "चतुर्दशपूर्वधरः, सच द्विविधः-भिन्नाक्षरोऽभिन्नाक्षरश्च, ते च यस्यैकैकमक्षरं श्रुतज्ञानगम्यपर्यायैः सत् कारिकाभेदेन भिन्नं वितिमिरतामितं स भिन्नाक्षरः, तस्य च श्रुतज्ञानसंशयापगमात् प्रश्नाभावस्ततश्चाहारकलब्धितामपि नैवोपजीवति विनालम्बनेन, स एव श्रुतकेवली भण्यते, शेष: करोत्यकृत्स्नश्रुतज्ञानलाभादवीतरागत्वाच्च।
(तभा २.४९ वृ पृ २०९) सयलसुदणाणधारिणो चोद्दसपुव्विणो।
(धव पु ९ पृ ७०) (द्र अभिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी, भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी) चतुर्विंशतिस्तव षडावश्यक में दूसरा आवश्यक (लोगस्स), जिसमें चौबीस
आचा
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तीर्थंकरों का स्तवन है।
(नन्दी ७५) चतुर्विंशतिस्तवः तीर्थकराणामनुकीर्तनम्। (तवा ६.२४)
चरम व्यक्ति की जिस अवस्था का अत्यन्त वियोग हो जाता है, वह उस अवस्था की दृष्टि से चरम है। अच्चंतविओगो जस्स, जेण भावेण सो चरिमो॥
(भग १८.३६)
चन्द्र ज्योतिष्क देवनिकाय का एक प्रकार। अष्टाविंशतिनक्षत्राणि, अष्टाशीतिर्ग्रहाः, षट्षष्टिःसहस्त्राणि नव शतानि पञ्चसप्ततीनि ताराकोटाकोटीनामेकैकस्य चन्द्रमसः परिग्रहः।
(तभा ४.१४) (द्र ज्योतिष्क देव)
चन्द्रप्रज्ञप्ति कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें चन्द्रमा का ज्योतिषीय विवेचन है।
(नन्दी ७८) चन्द्रवेध्यक उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । इस अध्ययन में विनयगुण, आचार्यगुण, शिष्यगुण, ज्ञानगुण, चारित्रगुण आदि विषयों पर विस्तार से विवेचन है।
(नन्दी ७७)
चरमनारक नरकगति में अन्तिम बार उत्पन्न होने वाला जीव। चरमनारकभवयक्तत्वाच्चरमाः न पनारका भविष्यन्ति।
(स्था १०.१२३ वृ प ४८७) चरमसमयनिर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थ) का एक प्रकार। उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह गुणस्थान के अन्तिम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ (निर्गन्थ)। (द्र यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ)
चरित्र
(उ २८.२९)
(द्र चारित्र)
चरण जिसका अनुष्ठान मुनि के द्वारा नित्य किया जाता है, जैसेअहिंसा आदि। नित्यानुष्ठानं चरणम्।"व्रतादि सर्वकालमेव चर्यते न । पुनर्वतशून्यः कश्चित्कालः। (ओभा ३ वृ प ७) । चरणविधि उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। इस अध्ययन में चारित्र की विधियों का निरूपण है। चरणं-चारित्तं, तस्स विही चरणविही, सभेदो चरणविही वणिज्जति जत्थ अज्झयणे तमज्झयणं चरणविही।
(नन्दी ७७ चू पृ५८)
चर्मरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो पानी में नौका का काम देता है। इसकी शक्ति से बारह योजन लंबे-चौड़े क्षेत्र में प्रात:काल में बोये गये बीज अपराह्न में पक जाते हैं। तए णं से दिव्वे चम्मरयणे सुसेणसेणावडणा परामटे समाणे खिप्पामेव णावाभूए जाए यावि होत्था। (जं ३.८०) चर्मरत्नं-द्वादशयोजनायामविस्तारं प्रातरुप्तापराह्नसम्पन्नोपभोग्यशाल्यादिसम्पत्तिकरम्। (प्रसा १२१४ वृ प ३५०) चर्या परीषह परीषह का एक प्रकार। भिन्न-भिन्न स्थानों में विहार करने और किसी भी एक स्थान में नियत वास नहीं करने से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए। असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गहं। असंसत्तो गिहत्थेहिं अणिएओ परिव्वए।
(उ २.१८,१९)
चरणसप्तति नित्य आचार की सत्तर विधाओं का संकलन, जैसे- पांच महाव्रत, दशविध श्रमणधर्म आदि। वयसमणधम्मसंजमवेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोहनिग्गहाई चरणमेयं ।।
(ओभा २) (द्र चरण)
गुत्ताआ।
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चलित
चारित्र वह कर्मपुद्गल, जो स्थिर अवस्था को छोड़कर प्रकम्पित हो संयम। जाता है।
१. कर्म का निग्रह । कर्म आने के कारणों की निवृत्ति । 'चलियं' ति जीवप्रदेशेभ्यश्चलितम्। (भग १.२८ ) कर्मादानकारणनिवृत्तिश्चारित्रम्। (तवा १.७)
...."चरित्तेण निगिण्हाइ"।
(उ २८.३५) चातुर्याम धर्म
२. निरवद्य योग, इसके द्वारा निर्जरा होती है, कर्मसंचय रिक्त प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण और
होता है। बाह्यादानविरमण नामक चार याम-महाव्रत वाला धर्म, जो
... एयं चयरित्तकरं, चारित्तं होइ आहियं॥ (उ २८.३३) मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल में होता है। चातुर्यामः-महाव्रतचतुष्टयात्मको यो धर्मः।
चारित्र आत्मा (उ २३.१२ शावृ प ४९९)
सावध योग की निवृत्ति और निरवद्य योग की प्रवृत्ति से होने
वाला आत्मा का एक पर्याय। चापेटी
चारित्रात्मा विरतानां....।
(भग १२.२०० वृ) वह विद्या, जिसमें चिकित्सक दूसरे व्यक्ति के चपेटा लगाता है और रोगी स्वस्थ हो जाता है।
चारित्रकषायकुशील यया अन्यस्य चपेटायां दीयमानायामातुरः स्वस्थो भवति सा । कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो चारित्र चापेटी। (व्यभा २४४१ वृप २७) के प्रसंग में क्रोध, अहंकार आदि का प्रयोग कर अथवा
कषायवश अभिशाप आदि का प्रयोग कर चारित्र की विराधना चामर
करता है। महाप्रतिहार्य का एक प्रकार। चौंतीस अतिशयों में से एक
(द्र ज्ञानकषायकुशील) अर्हत् के चारों ओर कुंद पुष्प के समान श्वेत चंवर डुलाए जाते हैं।
चारित्रप्रतिषेवणाकुशील देवैः"काञ्चनमयोद्दण्डदण्डरमणीया चारुचामरश्रीविस्ता- प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो यते।
(प्रसा ४४० वृ प १०६) आजीविका के लिए कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आगासियाओ सेयवरचामराओ। (सम ३४.१.८) कल्क-कुरुका, लक्षण, विद्या तथा मन्त्र का प्रयोग करता है। (द्र छत्र)
(द्र ज्ञानप्रतिषेवणाकुशील) चारक
चारित्रधर्म प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार । अपराधी को कारावास की सावध योग की निवृत्ति और निरवद्य योग की प्रवृत्ति रूप सजा देना।
धर्म। चारकं गुप्तिगृहम्। (स्था ७.६६ वृ प ३७८) असहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं॥ चारण
(बृद्रसं ४५) विशेष प्रकार के गमन, आगमन और आकाशगमन की लब्धि से सम्पन्न मुनि।
चारित्रपुलाक चरणं-गमनमतिशयवदाकाशे एषामस्तीति चारणाः। पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। मूलगुण तथा उत्तरगुण
(भग २०७९ ७) दोनों में दोष लगाकर चारित्र को सारहीन बनाने वाला। चारण (ऋद्धि)
मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनातश्चरणपुलाकः । ऋद्धि का एक प्रकार।
(स्था ५.१८५ वृ प ३२०) (द्र चारण)
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चारित्रबोधि १. अप्राप्त चारित्र की प्राप्ति। (बृद्रसंवृ पृ. ११४) २. चारित्र की प्राप्ति के उपाय का चिंतन ।
(द्वाअ ८३) (द्र बोधि) चारित्रमोहनीय मोहनीय कर्म का एक प्रकार, जिसके उदय से चारित्र की चेतना मूर्च्छित होती है। चारित्रं-सावद्येतरयोगनिवृत्तिप्रवृत्तिगम्यं शुभात्मपरिणामरूपं तन्मोहयति। (प्रज्ञा २३.३२ वृ प ४६७,४६८) चारित्रविनय चारित्र के प्रति श्रद्धा, उसका आचरण और भव्य जीवों के समक्ष उसकी प्ररूपणा करना। सामाइयादिचरणस्स सद्दहणया तहेव काएणं। संफासणं परूवणमह पुरओ भव्वसत्ताणं॥
(स्था ७.१३० वृ प ३८८) चारित्रविनीत वह मुनि, जो आठ प्रकार के कर्मचय को रिक्त करता है और नया कर्म नहीं बांधता। अद्वविधं कम्मचयं, जम्हा रित्तं करेति जयमाणो। नवमन्नं च न बंधेति, चरित्तविणीओ भवति तम्हा।।
(दनि २९४) चारित्रवीर्य सम्पूर्ण कर्मक्षय करने और क्षीरास्रव आदि लब्धि (योगजविभूति) उत्पन्न करने की शक्ति। चरित्तवीरियं णाम असेसकम्मविदारणसामत्थं, खीरादिलद्धप्पादणसामत्थं च।
(निभा ४७ चू पृ २६) चारित्राचार चारित्र की विशुद्धि के लिए किया जाने वाला समिति-गुप्ति रूप आचरण। पणिधाणजोगजुत्तो, पंचहिं समितीहिं तिहिं य गुत्तीहिं। एस चरित्तायारो अट्टविहो होति णायव्वो॥
(निभा ३५)
'आक्षेपः' चालना।
(बृभा ३०५ वृ) चिकित्सापिण्ड उत्पादन दोष का एक प्रकार । वैद्य की तरह चिकित्सा कर भिक्षा लेना। वमन-विरेचन-वस्तिकादि कारयतो वैद्यभैषज्यादि सूचयतो वा पिण्डार्थं चिकित्सापिण्डः॥
(योशा १.३८ वृ पृ १३५) चित १. पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अंग। वह ज्ञान, जो आदि, मध्य और अंत कहीं से भी पूछे जाने पर तत्काल स्मृति में आ जाये। पुच्छितस्स आदिमझंते सव्वं वा सिग्घमागच्छति तं जितम्।
(अनु १३ चू पृ७) २. कर्म की वह अवस्था, जिसमें उत्तरोत्तर स्थिति में प्रदेश की हानि होने पर रसवृद्धि के रूप में अवस्थापित कर्मपरमाणुओं की संख्या कम होती जाती है और फल देने की शक्ति बढ़ती जाती है। 'चितस्य' उत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या रसवृद्धयाऽवस्थापितस्य।
(प्रज्ञावृ प ४५९)
चित्त १. निश्चय-नय के अनुसार चित्त को आत्मा कहा जाता है। णिच्छयणयाभिप्याएण चित्त इत्यात्मा। (अनुचू पृ १३) २. आत्मा का परिणामविशेष, चेतना-परिणाम। चित्तं जीवो भण्णइ""चेयणाभावो भण्णइ।
(द ४ सू ४ जिचू पृ १३५) आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम्। (ससि २.३२) ३. वह अध्यवसाय, जो अस्थिर है। ....."जं चलं तयं चित्तं"|| (आवहाव २ १६२) ४. योग-परिणाम । स्थूल शरीर के साथ काम करने वाली चेतना, जो मन, वचन और शरीर की प्रवर्तक है। जो पुण जोगपरिणामो अण्णोण्णेहिं अन्झवसाणेहिं अंतरितो सो चित्तम्।
(आवचू २ पृ६९) चित्रान्तरगण्डिका कण्डिकानुयोग का एक प्रकार, जिसमें भगवान् ऋषभ तथा
चालना
तत्त्वचर्चा के प्रसंग में प्रश्न उपस्थित करना।
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भगवान् अजित के अन्तराल-काल में उनके वंशज राजा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुए अथवा मोक्ष में गए, उनका प्रतिपादन है। ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे तद्वंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिवगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्चित्रान्तरगण्डिकाः।
(समप्र १२९ वृ प १२२)
२. मूल ग्रंथ में प्रतिपादित, अप्रतिपादित अर्थ का संक्षेप में निरूपण करने वाली ग्रन्थपद्धति । पुव्वभणितो अभणिओ य समासतो चूलाए अर्थो भण्यते।
__(नन्दीचू पृ ५९) ३. आगम का परिशिष्ट, जिसमें संबद्ध विषयों का संक्षिप्त वर्णन रहता है।
चिन्ता ईहा की चौथी अवस्था, जिसमें अन्वयधर्म से अनुगत अर्थ का बार-बार समालोचन किया जाता है। तस्सेव तद्धम्माणुगतत्थस्स पुणो पुणो समालोयणंतेण चिंता भण्णति।
(नन्दी ४५ चू पृ ३६)
चेतना जो जीव का लक्षण है, ज्ञान-दर्शन रूप है। चेतनालक्षणो हि जीवः।
(प्रज्ञावृ प ४५४) चेतना ज्ञानदर्शनात्मिका।
(जैसिदी २.३ ७) (द्र उपयोग) चेष्टा कायोत्सर्ग गमन-आगमन आदि प्रवृत्ति की निवृत्ति के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग। चेट्टाकाउस्सग्गो चेद्रातो निष्फण्णो जथा गमणागमणादिस काउस्सग्गो कीरति।
(आवचू २ पृ २४८) (द्र अभिभव कायोत्सर्ग)
चिर अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। विषय का चिरकाल से ग्रहण करना, जैसे-शब्द को चिरकाल से ग्रहण करना। अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपारिणामिकत्वात चिरेण शब्दमवगृह्णाति।
(तवा १.१६.१६) चिलिमिली मुनि का एक उपकरण, जिसका उपयोग यवनिका (पर्दे) के रूप में होता है। 'चिलिमिलि' त्ति यवनिका। (ओनि ७८ वृ प ४३) चूर्णपिण्ड उत्पादनदोष का एक प्रकार । अंजन, इष्टका चूर्ण आदि का प्रयोग कर भिक्षा लेना। चर्ण:-नयनाञ्जनादिरन्तर्धानादिफलः। (प्रसा ५६७७) विद्यां मन्त्रं चूर्णं योगं च भिक्षार्थं प्रयुञ्जानस्य चत्वारो विद्यादिपिण्डाः।
(योशा १.३८ वृ पृ १३६)
चैकित्स्य अनाचार का एक प्रकार । रोग का प्रतिकार करना, चिकित्सा करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। चिकित्साया भावश्चैकित्स्य-व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम्।
(द ३.४ हावृप ११७)
चैतन्य (द्र जीव)
चूर्णि नियुक्ति एवं भाष्य के उत्तरकाल में होने वाली आगमों की विश्लेषणात्मक व्याख्या, जो प्राकृत और संस्कृतमिश्र भाषा
___ (नन्दीचू पृ १)
चैतन्यकेन्द्र चैतन्य की अभिव्यक्ति का मख्य केन्द्र, चक्र। शरीर का जो भाग करण रूप में परिणत हो जाता है, जो चैतन्य केन्द्र जागृत हो जाता है, उसी में से अतीन्द्रिय-ज्ञानरश्मियां बाहर निकलने लगती हैं।
(आभा २.१२७) (द्र मर्म, सन्धि) चैत्यवासी वह मुनि, जो उद्युक्त विहार की चर्या को छोड़कर चैत्य अथवा मठ में आवास करता है। चेइयमढाइवासं पूयारंभाइ निच्चवासितं।" (संबोध ६१)
चूला १. दृष्टिवाद के पांच विभागों में से एक विभाग का नाम। 'चूल' त्ति सिहरं। दिविवाते जंपरिकम्म-सुत्त-पुव्व-अणुयोगे यण भणितं तं चूलासु भणितं। (नन्दी ११८ चू पृ७९)
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च्यवन
छद्मस्थमरण ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का मरण। ये देव आयुष्य पूर्ण । मरण का एक प्रकार । छद्मस्थ का मरण। कर नीचे आते हैं।
छद्मस्थमरणम्-अकेवलिमरणम्। 'चयणे'त्ति च्युतिः च्यवनं-वैमानिकज्योतिष्काणां मरणम्।
(सम १७.९ वृ प ३३) (स्था १.२७ वृ प १९)
छन्दना सामाचारी भिक्षा में प्राप्त अशन आदि द्रव्यों के उपयोग के लिए गरु
आदि को आमंत्रित करना। छंदणा दव्वजाएणं"।
(उ २६.६) १. अनाचार का एक प्रकार । वर्षा तथा आतप निवारण के (द्र निमन्त्रणा) लिए छत्र धारण करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है।
छन्न आलोचना (देखें चित्र पृ ३४१)
आलोचना का एक दोष । स्वयं ही सुन पाए, पर आचार्य न .."छत्तं च"""तं विजं परिजाणिया।। आतपादिनिवारणाय छत्रं"कर्मोपादानकारणत्वेन ज्ञपरिज्ञया
सुन पाए, वैसे धीरे से आलोचना करना।
'छन्नं' ति प्रच्छन्नमालोचयति यथाऽऽत्मनैव श्रृणोति परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति। (सूत्र १.९.१८ ७)
नाचार्यः। २. महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। चौंतीस अतिशयों में से
(स्था १०.७० वृ प ४६०) एक। धर्मोपदेश के समय तीर्थंकर के सिर पर देवकत छर्दित चन्द्रमंडल सदृश तीन छत्र (आतपत्र) होते हैं।
एषणादोष का एक प्रकार । दान देते समय जिसके छींटे नीचे कंकिल्लि कुसुमवट्ठी देवझुणि चामराऽऽसणाई च। गिर रहे हों, इस प्रकार दिया जाता हुआ आहार आदि लेना। भावलय भेरि छत्तं जयंति जिणपाडिहेराई।
घृतादिच्छईयन् यद्ददाति तत् छर्दितम्। ."भूर्भुवःस्वस्त्रयैकसाम्राज्यसंसूचकं शरदिन्दुकुन्दकुमुदाव
(योशा १.३८ वृ पृ १३७) दातं..."छत्रत्रयमतिपवित्रमासूत्र्यते। (प्रसा ४४० वृ प १०६)
छविच्छेद आगासगयं छत्तं।
१. प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार । सजा के रूप में हाथ, (सम ३४.१.७)
पैर, नाक आदि काटना। छत्ररत्न
'छविच्छेदो'हस्तपादनासिकादिच्छेदः। चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो चक्रवर्ती की
(स्था ७.६६ वृ प ३७८) सेना को धूप, हवा, वर्षा आदि से बचाता है।
२. स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार। पीटकर छत्रं "तपनातपवातवृष्टिप्रभृतिदोषक्षयकारकम्।
या बांधकर प्राणियों के अंगोपांग का छेदन करना। (प्रसा १२१४ वृ प ३५०) थूलगपाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच
अइयारा जाणियव्वा, तं जहा"छविच्छेए। छद्मस्थ
(आव परि पृ २१) अकेवली। वह जीव, जिसका ज्ञान और दर्शन आवृत होता है, जो घात्यकर्म (घातिकर्म) की उदयावस्था में रहता है। छिन्न निमित्त छद्म ज्ञानदृगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः।।
अष्टांग महानिमित्त का एक प्रकार। वस्त्र, शस्त्र, छत्र आदि
(धव पु १ पृ १८८) में शस्त्र, चूहे, कण्टक आदि से हुए छेद के द्वारा शुभाशुभ अकेवली छदास्थः।
का ज्ञान करना। घात्यकर्मोदयः छद्म, तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः।
(जैसिदी ७.२२ वृ)
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वस्त्रशस्त्रछत्रोपानदासनशयनादिषु'शस्त्रकण्टकमूषिका- दिकृतछेददर्शनात् कालत्रयविषयलाभालाभसुखदुःखादिसूचनं छिन्नम्।
(तवा ३.३६) (द्र निमित्त)
छेदेन-विभागेन महाव्रतेषु उपस्थाप्यते इति-छेदोपस्थाप्यम्।
(जैसिदी ६.५ वृ)
छेद प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का एक प्रकार । अपराधों का उपचय और शासनविरुद्ध समाचरण होने पर तथा तप के योग्य प्रायश्चित्त का अतिक्रमण होने पर प्रव्रज्या के जघन्य पांच दिन और उत्कृष्टत: छ: मास का छेद करना, संयमपर्याय को कम करना। छेदो अवराधोपचएण सासणविरुद्धादिसमायारेण वा तवारिहमतिक्कंतस्स पंचराइंदियादिपव्वज्जाविच्छेदणं।
(आवचू २ पृ २४७) पणगाइ पणगवुड्डी, दोण्ह वि छम्मास निट्ठवणा।
(बृभा ७०७)
जगश्रेणी सात रज्जु प्रमाण लोकपंक्ति। १ जगश्रेणी = ७ रज्ज। लोक का आयतन = जगश्रेणी का घन = ३४३ घनरज्जु।
(तरावा ३.३८)
जघन्य आतापना हस्तिशुण्डिका, एकपादिका और समपादिका की खड़ी मुद्रा में लिया जाने वाला सूर्य का आतप। ऊर्ध्वस्थितस्य जघन्या"ऊर्ध्वस्थानातापनाऽपि त्रिधा हस्तिशौण्डिका एकपादिका समपादिका चेति। (औपवृ प७५) (द्र उत्कृष्ट आतापना) जघन्य गीतार्थ वह मुनि, जो आचारप्रकल्प-निशीथ का धारक होता है। आचारप्रकल्पधराः निशीथाध्ययनधारिणो जघन्या गीतार्थाः।
(बृभा ६९३ वृ) जघन्य चिरप्रव्रजित वह मुनि, जो तीन वर्षों से दीक्षित है। त्रिवर्षप्रवजितो जघन्यश्चिरप्रव्रजितः। (बृभा ४०३ वृ)
जघन्य बहुश्रुत
छेदसूत्र निशीथ, व्यवहार, कल्प और दशा । - ग्रंथों में सात पदों की व्यवस्था, आचार के विधि-निषेध और प्रायश्चित्त की विधियों का निर्देश है। """आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा गणावच्छेइए वा ॥ (क ३.१३) छेदसुयं"जम्हा एत्थ सपायच्छित्तो विधी भण्णति, जम्हा य तेण चरणविसुद्धी करेति, तम्हा तं उत्तमसुतं।।
(निभा ६१८४ चू पृ २५३) कप्प-ववहार-कप्पियाकप्पिय-चल्लकप्प-महाकप्पसुय-निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु अइवित्थरेण पच्छित्तं भणियं।
(जीचू पृ१) छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले साधओं की कल्प-मर्यादा।
(स्था ६.१०३) छेदोपस्थापनीय चारित्र (द्र छेदोपस्थाप्य चारित्र) छेदोपस्थाप्य चारित्र वह चारित्र, जिसमें सामायिक चारित्र के पर्याय का छेद और विभागपूर्वक महाव्रतों की उपस्थापना की जाती है।
(बृभा ४०२)
(द्र जघन्य गीतार्थ)
जङ्घाचारण चारण ऋद्ध का एक प्रकार। वह मुनि, जो भूमि से चार अंगुल ऊपर शीघ्रता से सैकड़ों योजन गमन करने की लब्धि से सम्पन्न होता है। भुव उपर्याकाशे चतुरङ्गुलप्रमाणे जङ्घोत्क्षेपनिक्षेपशीघ्रकरणपटवो बहुयोजनशताशुगमनप्रवणा जङ्घाचारणाः।
(तवा ३.३६) जनपद सत्य सत्य का एक प्रकार। किसी एक जनपद में रूढ शब्द का
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अन्य प्रदेश में किया जाने वाला प्रयोग, जैसे- कोंकण आदि प्रदेशों में दूध को पिच्च, जल को नीर कहा जाता है, उसका प्रयोग अन्यत्र करना भी सत्य है ।
जनपदेषु देशेषु यद्यदर्थवाचकतया रूढं देशान्तरेऽपि तत्तदर्थवाचकतया प्रयुज्यमानं सत्यमवितथमिति जनपदसत्यं, यथा कोङ्कणादिषु पयः पिच्चं, नीरमुदकम् ।
(स्था १०.८९ वृ प ४६४)
जन्म
सचित्त, शीत आदि योनि में उत्पन्न होना, नया शरीर, नया जीवन धारण करना। इसके तीन प्रकार हैं- सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपात ।
जन्म प्रादुर्भावमात्रं शरीरिणाम् । (तभा २.३२ वृ) आधारो हि योनिराधेयं जन्म, यतः सचित्तादियोन्यधिष्ठान आत्मा सम्मूर्च्छनादि जन्मना शरीराहारेन्द्रियादियोग्यान् पुद्गलानादत्ते । ( तवा २.३२.१३)
सम्मूर्च्छनगर्भोपपाता जन्म ।
(तसू २.३२)
जम्बूद्वीप
वह द्वीप, जो तिर्यग्लोकस्थित असंख्य द्वीप-समुद्रों में मध्यवर्ती है, जिसका विष्कम्भ (विस्तार) एक लाख योजन है और जिसकी नाभि में मेरुपर्वत है।
तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः । ( तसू ३.९)
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
कालिक श्रुत का एक प्रकार। इसमें जम्बूद्वीप का पर्वत और नदियों सहित भौगोलिक विवेचन किया गया है। ( नन्दी ७८)
जय
वादी अथवा प्रतिवादी के द्वारा की जाने वाली अपने पक्ष की सिद्धि ।
वादिनः प्रतिवादिनो वा या स्वपक्षस्य सिद्धिः सा जयः । (प्रमी २.१.३१ वृ)
जयन्त
अनुत्तरविमान का तृतीय स्वर्ग । (द्र अपराजित)
(तभा ४.२० )
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जरा
-
शारीरिक वेदना – इसके द्वारा शरीर जीर्ण होता है। जेणं जीवा सारीरं वेदणं वेदेंति तेसि णं जीवाणं जरा । (भग १६.२९)
जरायुज
गर्भ जन्म का एक प्रकार । जन्म के समय जरायु-रक्तमांस की झिल्ली से वेष्टितदशा में उत्पन्न होने वाला जीव, जैसे - गाय, भैंस आदि । जरायुजाण्डजपतानां गर्भः ।
....... यज्जालवत् प्राणिपरिवरणं विततमां सशोणितं तज्जरायुरित्युच्यते । (तवा २.३३)
जराउवेढिता जायंति जराउजा गवादयः ।
(द ४.९ अचू पृ ७७)
जलचारण
चारण ऋद्धि का एक प्रकार। इस ऋद्धि के द्वारा साधक जलकायिक जीवों की विराधना किए बिना जल पर पैर रखकर चल सकता है।
जलमुपादाय वाप्यादिष्वप्कायजीवानविराधयन्तः भूमाविव पादोद्धारनिक्षेपकुशलाः जलचारणाः ।
(तवा ३.३६ पृ २०२ )
जल्ल परीषह
परीषह का एक प्रकार । शारीरिक मैल से उत्पन्न उद्विग्नता, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। किलिन्नगाए मेहावी पंकेण वा रएण वा । घिसु वा परितावेण सायं नो परिदेवए ॥ वेज्ज निज्जरापेही आरियं धम्मऽणुत्तरं । जाव सरीरभेउ त्ति जल्लं कारण धार ॥
(उ २.३६, ३७)
जल्लौषधि
लब्धि का एक प्रकार । मैल से रोग को दूर करने वाली योग विभूति ।
जल्लो मल: चात्मानं परं वा रोगापनयनबुद्ध्या विडादिभिः स्पृशतः साधोस्तद्रोगापगमः । (विभा ७७९ वृपृ ३२२ ) जागरिका
प्रबोध-नींद और प्रमाद से मुक्त रहकर किया जाने वाला चिन्तन |
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है।
जागरिका-प्रबोधः।
(भग १२.२० वृ) उत्कर्षतः पूर्ववर्तीनि नवसंज्ञिजन्मानि ज्ञातुं शक्यानि। जाता परिषद्
(आभा पृ २२) इन्द्र की परिषद् का एक प्रकार। बाह्य परिषद, जिसके
'सरति' त्ति स्मरति पौराणिकी जाति-जन्म। सदस्य इन्द्र के द्वारा बुलाये बिना ही आ जाते हैं।
(उ १९.८ शावृ प ४५२) ""बाहिरिता जाया।
जात्युत्तर ये त्वनाहूता अप्यागच्छन्ति सा बाह्या।
वाद में अविद्यमान दोषों का उद्भावन करना। (स्था ३.१४३ वृप १२२)
अभूतदोषोद्भावनानि दूषणाभासा जात्युत्तराणि। (द्र चण्डा परिषद्, समिता परिषद्)
(प्रमी २.२९) जातिनाम
(द्र वाद) नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय जितनिद्र आदि जाति को प्राप्त होता है। इन्द्रियों के आधार पर होने वह मुनि, जो अल्प निद्रा वाला होता है, रात्रि में सूत्र और वाले जीवों के विभाग।
अर्थ का चिंतन करता हुआ नींद से बाधित नहीं होता। एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियत्वादिरूपसमानपरिणामलक्षणमेकेन्द्रिया
जितनिद्रः-अल्पनिद्रः, स हि रात्रौ सूत्रमर्थं वा परिभावयन दिशब्दव्यपदेशभाक् यत्सामान्यं सा जातिस्तजनकं नाम
न निद्रया बाध्यते।
(प्रसावृ प १३१) जातिनाम। (प्रज्ञा २३.४० वृप ४६९)
जितेन्द्रिय जातिनामनिधत्तायु
वह साधक, जिसने श्रोत्र आदि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की आयुबंध का एक प्रकार । एकेन्द्रिय आद पांच जातिनाम कर्म के साथ होने वाला आयु का निषेचन ।
जिइंदिओ णाम जिताणि सोयाईणि इंदियाणि जेण सो एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चप्रकारा सैव नाम-नामकर्मण
जिइंदिओ।
(द ९.३.१३ जिचू पृ २८५) उत्तर-प्रकृतिविशेषरूपं जातिनाम तेन सह निधत्तं निषिक्तं यदा-युस्तजातिनामनिधत्तायुः। (प्रज्ञा ६.११८ वृ प २१७)
१. तीर्थंकर। जातिसम्पन्न
..."धम्मतित्थयरे जिणे।
(आव २.१) उत्तम मातपक्ष वाला, जो प्रायः अकरणीय कार्य नहीं करता.
(द्र जैन) कदाचित् हो जाए तो उसका शोधन कर लेता है।
२. सामान्यकेवली। जातिकुलसम्पन्नः प्रायः किंचिदकृत्यं न सेवते, आसेव्य च
जिनाः सामान्यकेवलिनः। (बृभा १११४ वृ) पश्चात् तद्गुणतः सम्यगालोचयेत्।
३. अतीन्द्रियज्ञानी। (स्था ८.१९ वृ प ४०२)
तओ जिणा पण्णत्ता, तं जहा-ओहिणाणजिणे, मणपज्जजातिस्थविर
वणाणजिणे, केवलणाणजिणे। (स्था ३.५१२) साठ वर्षों की अवस्था वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ।
४. राग-द्वेषविजेता, वीतराग पुरुष। सट्ठिवासजाए समणे णिग्गंथे जातिधेरे। (स्था ३.१८७) जियकोहमाणमाया, जियलोहा तेण ते जिणा हति।... जातिस्मृति
(आवनि १०७६) मतिज्ञान का एक प्रकार । पूर्व जन्म की स्मृति । इसके द्वारा ।
रागद्वेषमोहान् जयन्तीति जिनाः। (स्थावृ प १६८) पूर्ववर्ती नौ समनस्क जन्मों को जाना जा सकता है। जिनकल्प इदं जातिस्मरणं मतिज्ञानस्यैव एकः प्रकारोऽस्ति। अनेन
(बृभा १३८४)
(द्र जिनकल्पस्थिति)
जिन
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जिनकल्पस्थिति
जिनशासन जिन (तीर्थङ्कर) का अनुसरण करने वाली और विशिष्ट । द्वादशांग, तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त। ज्ञानसम्पन्न एकलविहारी मुनि की आचार-संहिता। जिनशासनं-जिनागमम्। (उ २.६ शावृ प ८८) एगारसंगधारी एआई धम्मसुक्कझाणी य।
जिनेन्द्र चत्तासेसकसाया मोणवई कंदरावासी॥ बहिरंतरंगगंथचुवा णिण्णेहा णिप्पिहा य जइवइणो।
(समप्र २२४.६) जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणा॥ (द्र तीर्थंकर)
(भासं १२२, १२३)
जिह्वेन्द्रिय असंवर (आश्रव) जिनकल्पिक
कर्म-आकर्षण की हेतुभुत रसनेन्द्रिय की प्रवत्ति । जिनकल्प की आचारसंहिता का पालन करने वाला मुनि।
(स्था १०.११) (बृभा १३९१) जिनधर्म
जिह्वेन्द्रियनिग्रह जैन धर्म। जिन-अनुत्तरज्ञानी अर्हत् द्वारा प्रज्ञप्त धर्म, जो प्रिय-अप्रिय रसों में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह, इसके श्रुत और चारित्र रूप है।
द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की "बोधि:-जिनधर्मोअर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रुतचारित्र
निर्जरा होती है। रूपस्य"।
जिब्भिंदियनिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसुरसेसुरागदोसनिग्गहं वत्थुपयासणसूरो अइसयरयणाण सायरो जयइ।
जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुवबद्धं च निजरेइ। सव्वजयजीवबंधुरबंधू दुविहो वि जिणधम्मो॥
(उ २९.६६) (स्थावृप ३०६)
जिहेन्द्रिय प्रत्यक्ष जिनमुद्रा
इन्द्रियप्रत्यक्ष का एक प्रकार। जिह्वेन्द्रिय की सहायता से होने १. दोनों पांवों के मध्य में आगे चार अंगुल का और पीछे वाला रस का ज्ञान। इससे कुछ कम अंतर करके दोनों भुजाओं को प्रलम्बित (द्र इन्द्रियप्रत्यक्ष) रखते हुए (साथल से सटाकर), खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना।
जिह्वेन्द्रियरागोपरति चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाई जत्थ पच्छिमओ। पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिणमुद्दा॥
अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ रस में राग का __ (पञ्चा ११४)
वर्जन और अमनोज्ञ रस में द्वेष का वर्जन। (सम २५.१.२४) २. दृढ़ संयम मुदा और ज्ञान मुद्रा के साथ इन्द्रिय मुद्रा
(द्र चक्षुरिन्द्रियरागोपरति) इन्द्रिय विजय की स्थिति और कषायमुद्रा-कषाय विजय जिह्वेन्द्रिय संवर की स्थिति।
रसनेन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्म-निरोध । जिनवचन
(स्था ५.१३७) जिनवाणी, जिसके द्वारा विषयसुखों की लालसा का विरेचन
जीत होता है और जन्म, मरण, व्याधि तथा सर्व दुःखों का क्षय अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा सहचिन्तन पूर्वक निर्मित मर्यादा। होता है।
जीतं नाम प्रभूतानेकगीतार्थकृतमर्यादा। जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
(व्यभा ७वृ प ६) जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥ बहुजणमाइण्णं पुण जीतं....॥ (व्यभा ९)
(दप्रा १७)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जीतकल्प
१. वह छेदसूत्र, जिसमें जीत नामक व्यवहार का निरूपण है। (साशआ)
२. व्यवहार का एक प्रकार। जिस विधि-निषेध और प्रायश्चित्त का आगम में स्पष्ट निर्देश नहीं, उस स्थिति में संविग्न गीतार्थ द्वारा निर्धारित व्यवहार ।
जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराए अविरुद्धं । जोगाय बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ ॥ वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो अणुवत्तिउ महाणेणं । एसो उ जीयकप्पो, पंचमओ होइ ववहारो ॥
जीत व्यवहार
(द्र जीतकल्प)
जीव
१. जीव जीता है, जीवत्व और आयुष्य कर्म का अनुभव करता है इसलिए वह जीव है ।
जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा (भग २.१५ )
जीवे त्ति वत्तव्वं सिया ।
२. वह प्राणी, जिसके पांच इन्द्रियां होती हैं।
जीवा: पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः ..... || (उशावृ प ५८४) ३. आत्मा, असंख्येय चैतन्यप्रदेशों का समूह, जो नौ तत्त्वों में एक तत्त्व है और जिसका लक्षण है- उपयोग । असंखेज्जा "लोगागासप्पदेसउल्लपदेसे तु जीवे ति वत्तव्वं । ( आवचू १ पृ ४२० )
(भग १३.५९ )
(व्यभा १२, ४५२१ )
(व्य १०.६)
उवयोगलक्खणे णं जीवे ॥ (द्र उपयोग)
जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे ॥ जीवचैतन्ययोः परस्परेणाविनाभूतत्वाज्जीवश्चैतन्यमेव चैतन्यमपि जीव एव । (भग ६. १७४ वृ)
४. जीवास्तिकाय का एक अंश (देश) । उपयोगगुण जीवास्तिकाय: तदंशभूतो जीवः ।
(भग २.१३५ वृ)
जीव क्रिया
क्रिया का एक प्रकार । जीव के द्वारा की जाने वाली प्रवृत्ति, जो कर्मबंध की हेतुभूत है।
१२१
जीवस्य क्रिया - व्यापारो जीवक्रिया। (स्था २.२ वृप ३६)
जीवदृष्टिजा क्रिया
दृष्टिजा क्रिया का एक प्रकार । प्राणियों को देखने के लिए होने वाली रागात्मक प्रवृत्ति ।
या अश्वादिदर्शनार्थं गच्छतः ।
(स्था २.२१ वृप ३९ )
जीवन
जीव की वह अवस्था, जिसमें पर्याप्तियों और प्राणों का योग होता है।
पर्याप्तीनां प्राणानां च योग एव जीवनं, तेषां वियोगश्च मृत्युः । (जैसिदी ३.१३ वृ)
जीवनै सृष्टिकी क्रिया
सृष्टिकी क्रिया का एक प्रकार जीव अर्थात् जल को यन्त्र आदि के द्वारा फेंकने से होने वाली क्रिया । राजादिसमादेशाद्यदुदकस्य यन्त्रादिभिर्निसर्जनं सा जीवनैसृष्टिकी । (स्था २.२८ वृ प ३९)
जीवपारिग्रहिकी क्रिया
पारिग्रहिकी क्रिया का एक प्रकार। सजीव परिग्रह की सुरक्षा के लिए प्रवृत्ति । (स्था २.१६)
जीवप्रातीत्यिकी क्रिया
प्रातीत्यिकी क्रिया का एक प्रकार । जीव के सहारे होने वाली कर्मबंध की हेतुभूत प्रवृत्ति |
जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा तथा ।
(स्था २.२४ वृ प ३९ )
जीवप्रादेशिकवाद
प्रवचननिह्नव का दूसरा प्रकार । यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जो जीव के असंख्य प्रदेशों को जीव स्वीकार नहीं करता, किन्तु उसके चरम प्रदेश को जीव स्वीकार करता है।
प्रदेश जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां ते तथा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिणः । (स्था ७.१४० वृ प ३८९) जीवप्रादोषिकी क्रिया प्रदोषकी क्रिया का एक प्रकार । मनुष्य के प्रति होने वाले मात्सर्य की प्रवृत्ति ।
जीवे प्रद्वेषाज्जीवप्राद्वेषिकी ।
(स्था २.९ वृ प ३८)
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१२२
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जीवभाव जीवत्व, चैतन्य। जीवे णं सउदाणे "सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसतीति वत्तव्वं सिया॥ जीवभावं ति जीवत्वं चैतन्यम्। (भग २.१३६ वृ) जीवमध्यप्रदेश जीव के असंख्य प्रदेशों के मध्यभाग में होने वाली अष्टप्रदेशात्मक विशिष्ट रचना, जिसकी संज्ञा रुचक है। तत्थ णं जे से अणादीए अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपएसाणं।
(भग ८.३५४) (द्र मध्यप्रदेश)
जीवविपाकिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका विपाक जीव में ही होता है, अन्यत्र शरीर आदि में नहीं, जैसे-ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि। जीवे जीवगते ज्ञानादिलक्षणे स्वरूपे विपाकस्तदनुग्रहोपघातादिसंपादनाभिमुख्यलक्षणो यासां ताः जीवविपाकिन्यः।
(कप्र पृ ३६) जीववैदारणिका क्रिया वैदारणिका क्रिया का एक प्रकार। जीव के विषय में स्फोटअप्रकाशनीय के प्रकाशन से होने वाली क्रिया।
(स्था २.३१) विदारयति-स्फोटयतीति, अथवा जीवमजीवं वाऽऽसमानभाषेष विक्रीणति सति द्वैभाषिको विचारयति परियच्छावेड़ त्ति भणितं होति, अथवा जीवं-पुरुषं वितारयति-प्रतारयति वञ्चयतीत्यर्थः, असद्गुणैरेतादृशः तादृशस्त्वमिति, पुरुषादिविप्रतारणबुद्ध्यैव, वाऽजीवं भणत्येतादृशमेतदिति यत्सा 'जीववेयारणिआऽजीववेयारणिया व'त्ति।
(स्था २.३१ वृ प ३९)
जीवस्थान कर्मविशुद्धि की तरतमता की अपेक्षा से होने वाले जीवों के चौदह स्थान (भूमिकाएं)। कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता।
(सम १४.५) (द्र गुणस्थान) जीवस्पृष्टिजा क्रिया स्पृष्टिजा क्रिया का एक प्रकार। जीव के स्पर्शन से होने वाली राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति। जीवमजीवं वा रागद्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा जीवपृष्टिका जीवस्पृष्टिका वा। (स्था २.२७ वृ प ३९) जीवस्वाहस्तिकी क्रिया स्वाहस्तिकी क्रिया का एक प्रकार। अपने हाथ में रहे हुए जीव के द्वारा किसी दूसरे जीव को मारने की क्रिया। स्वहस्तगहीतेन जीवेन जीवं मारयति सा जीवस्वाहस्तिकी।
(स्था २.२७ वृ प ३९) जीवाजीवाभिगम उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें जीव, अजीव और उनके प्रकारों की चर्चा है।
(नन्दी ७७) जीवाजीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवाभिगमे य अजीवाभिगमे य॥
(जीवा १.२) जीवाज्ञापनिका क्रिया आज्ञापनिका क्रिया का एक प्रकार। जीव के विषय में आज्ञा देने से होने वाली क्रिया। जीवमाज्ञापयत आनाययतो वा परेण जीवाज्ञापनी जीवानायनी वा।
(स्था २.३० वृ प ३९) जीवाप्रत्याख्यान क्रिया अप्रत्याख्यान क्रिया का एक प्रकार । प्रत्याख्यान के अभाव से जीव के संबंध में होने वाली प्रवृत्ति।। जीवविषये प्रत्याख्यानाभावेन यो बन्धादिापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया। (स्था २.१३ वृ प ३८) जीवारम्भिकी क्रिया आरंभिकी क्रिया का एक प्रकार। जीव के उपमर्दन की तथा अन्य द्वारा हिंसा आदि किये जाने पर हर्षित होने की प्रवृत्ति।
जीवसामन्तोपनिपातिकी क्रिया सामन्तोपनिपातिकी क्रिया का एक प्रकार। अपने पास की सजीव वस्तुओं के बारे में जनसमुदाय की प्रतिक्रिया सुनने । पर होने वाली हर्षात्मक प्रवृत्ति। कस्यापि षण्डो रूपवानस्तितं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तोपनिपातिकी।
(स्था २.२५ वृ प ३९)
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जैन अर्हत्-उपासक। वह व्यक्ति, जिसका आराध्य जिनेन्द्र देव है। जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जितः। (षस ४५) सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैनाः।
(निसातावृ १३९) जैनधर्म (द्र जिनधर्म)
छेदनभेदनवित्रंसनादिक्रियापरत्वम्, अन्येन चारम्भे क्रियमाणे प्रहर्ष आरम्भक्रिया।
(तवा ६.५) जीवास्तिकाय समस्त जीवों का समूह, जो उपयोग गुण वाला है। दव्वओ णं जीवस्थिकाए अणंताई जीवदव्वाई।
(भग २.१२८) (द्र जीव) जीविताशंसाप्रयोग संलेखना का एक अतिचार। संलेखना-काल में प्रतिष्ठा प्राप्त होने पर 'मैं और अधिक जीऊं'-इस प्रकार की आकांक्षा करना। 'जीविताशंसाप्रयोगो' जीवितं-प्राणधारणं तदाशंसायाःतदभिलाषस्य प्रयोगो 'यदि बहुकालमहं जीवेयम्..."यथा जीवितमेव श्रेयः, प्रतिपन्नानशनस्यापि यत एवंविधा मदुद्देशेन विभूतिर्वर्तते"
(उपा १.४४ वृ पृ२१) जीवोदयनिष्पन्न जीव में कर्म के उदय अथवा कर्मविपाक से निष्पन्न पर्याय, जैसे-नैरयिक आदि। जीवे कम्मोदएण जो जीवस्स भावो णिव्वत्तितो जहाणेरइते इत्यादि।
(अनु २७४ चू पृ ४२)
जैनशासन धर्म का वह अनुशासन, जो तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित है। (द्र जिनशासन)
जैन समुद्घात जैनसमुद्घातः केवलिसमुद्घात इत्यर्थः ।
(विभा ३८३ वृ पृ १८७) (द्र केवली समुद्घात) ज्ञपरिज्ञा ज्ञानात्मक परिज्ञा, किसी वस्तु को समग्रता से जानने की क्षमता। जाणणापरिण्णा णाम जो जं किंचि अत्थं जाणइ, सा तस्स जाणणापरिण्णा भवति।
(दजिचू पृ ११६) (द्र प्रत्याख्यानपरिज्ञा)
जुगुप्सा नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृति, जिसके उदय से व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति घृणा उत्पन्न होती है। यदुदयेन च विष्ठादिबीभत्सपदार्थेभ्यो जुगुप्सते तज्जुगुप्साकर्म।
(स्था ९.६३ वृ प ४४५) जृम्भक देव वह व्यन्तर देव, जो अत्यंत क्रीडारसिक होता है और सदा प्रमुदित रहता है। जंभगा णं देवा निच्चं पमुदित-पक्कीलिया कंदप्परति- मोहणसीला।जे णं ते देवे कुद्धे पासेज्जा, से णं पुरिसे महंतं अयसं पाउणेज्जा....तुढे पासेज्जा, महंतं जसं पाउणेज्जा। 'जंभग' त्ति जृम्भन्ते-विजृम्भन्ते स्वच्छन्दचारितया चेष्टन्ते ये ते जृम्भकाः तिर्यग्लोकवासिनो व्यन्तरदेवाः।
(भग १४.११८ वृ)
ज्ञातधर्मकथा द्वादशांग श्रुत का छठा अंग, जिसमें ज्ञात–दृष्टान्त और धर्मकथा का संग्रह किया गया है। णाय त्ति-आहरणा, दिटुंतियो वा णज्जति जेहऽत्थो ते णाता। अहिंसादिलक्खणस्स धम्मस्स कहा धम्मकहा।
(नन्दी ८६ चू पृ६६)
ज्ञातधमकथाधर वह मुनि, जो ज्ञातधर्मकथा के सत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया नायाधम्मकहाधरा।
(औप ४५)
ज्ञान १. ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से उत्पन्न
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चैतन्य की वह अवस्था, जिससे जीव आदि पदार्थ जाने जाते
खयोवसमियखाइएण वा भावेण जीवादिपदस्था णज्जंति इति णाणं।
(नन्दी २ चू पृ १३) २. ज्ञान चेतनात्मक है, जो आत्मा का स्वरूप है। ज्ञानं चेतना आत्मनः स्वरूपं इति। (तभा ६.११ व १२४)
आदि अतिचारों के द्वारा ज्ञान को सारहीन करने वाला उसकी विराधना करने वाला मुनि। स्खलितमिलितादिभिरतिचारैर्जानमाश्रित्यात्मानं असारं कुर्वन् ज्ञानपुलाकः।
(स्था ५.१८५ वृप३२०) ज्ञानमाश्रित्य पुलाक स्तस्यासारताकारी विराधको ज्ञानपुलाक: खलियाइदूसणेहिं नाणं, संकाइएहिं सम्मत्तं। मूलुत्तरगुणपडिसेवणाइ चरणं विराहेइ॥
(भग २५.२७९ वृ)
ज्ञान आत्मा आत्मा का ज्ञानात्मक पर्याय। ज्ञानविशेषित उपसर्जनीकृतदर्शनादिरात्मा ज्ञानात्मा सम्यग्दृष्टेः ।
(भग १२.२००७)
ज्ञानप्रवाद पांचवां पूर्व, जिसमें ज्ञानमीमांसा–ज्ञान और उसके भेदों का प्रज्ञापन किया गया है। पंचमं णाणप्पवादं ति, तम्मि मतिणाणाइपंचकस्स सप्रभेदं प्ररूपणा जम्हा कता तम्हा णाणप्पवादं।
(नंदी १०४ चू पृ ७५) ज्ञानबोधि १. अप्राप्त सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिः।
(बृद्रसंवृ पृ ११४) २. ज्ञान की प्राप्ति के उपाय का चिंतन। (द्र बोधि)
ज्ञानकषायकुशील कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो ज्ञान के प्रसंग में क्रोध, अहंकार आदि का प्रयोग कर ज्ञान की विराधना करता है। णाणंदंसणलिंगे जो गँजड़ कोहमाणमाईहिं। सो नाणाइकुसीलो कसायओ होइ विन्नेओ॥ चारित्तंमि कुसीलो, कसायओ जो पयच्छई सावं। मणसा कोहाईए, निसेवयं होइ अहसुहुमो॥ अहवावि कसाएहिं नाणाईणं विराहओ जो उ। सो नाणाइकुसीलो णेओ वक्खाणभेएणं॥
(भग २५.२८३ वृ) ज्ञानप्रतिषेवणाकुशील प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । काल, विनय आदि ज्ञानाचार की प्रतिपालना नहीं करने वाला ज्ञानोपजीवी मुनि। ज्ञानदर्शनचारित्रलिङ्गान्युपजीवन् प्रतिषेवणतो ज्ञानादिकुशीलः।
(स्था ५. १८७ वृ प ३२०) इह नाणाइकुसीलो उवजीवं होइ नाणपभिईए।
(भग २५.२८२ ) ज्ञान चेतना चेतना की वह अवस्था, जिसमें केवल (एक मात्र) ज्ञान का अनुभव किया जाता है। स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवति।
(ससाआ ३८६)
ज्ञानविनय आत्मशुद्धि के लिए ज्ञान का ग्रहण, अभ्यास, स्मरण आदि का बहुमानपूर्वक प्रयोग करना। सबहुमानज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयः ।
(तवा ९.२३) ज्ञानविनीत जो ज्ञान को ग्रहण करता है, गृहीत ज्ञान का प्रत्यावर्तन करता है, ज्ञान से कार्य सम्पादित करता है तथा नए कर्मों का बंधन नहीं करता। नाणं सिक्खति नाणी, गुणेति नाणेण कुणति किच्चाणि। नाणी नवं न बंधति, नाणविणीओ भवति तम्हा॥
(दनि २९३) ज्ञान संज्ञा ज्ञानावरण कमक क्षयापशम अथवा क्षय सहान वाला बाध।
ज्ञानपुलाक प्रतिसेवनाप लाक निग्रेन्थ का एक प्रकार । स्खलित. मिलित
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मतिः श्रुतं अवधि: मनःपर्यवः केवलञ्च-एतज्ज्ञानपञ्चकं ज्ञानसंज्ञा।
(आभा पृ २३)
दिसाविचारिणो चेव, पंचहा जोइसालया।।
(उ ३६.२०८)
ज्ञानाक्षर अक्षर का एक प्रकार। (द्र अक्षर, लब्धिअक्षर)
(नन्दीचू पृ४४)
ज्ञानाचार श्रुतज्ञान के विकास के लिए किया जाने वाला विनय आदि का आचरण। काले विणये बहुमाने उवधाने तहा अनिण्हवणे। वंजणअत्थतदुभए अट्ठविधो णाणमायारो॥
(निभा ८) ज्ञानावरणीय कर्म वह कर्म, जिससे आत्मा का ज्ञान-विशेष बोध आवृत होता
झंझकर १. एक असमाधिस्थान । गण में भेद डालने वाला अथवा गण के मन को पीड़ित करने वाला। (सम २०.१) २. वाचिक कलह करने वाला। (उ २९.४० वृ) झज्झाकरो येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्करो, येन वा गणस्य मनोदुःखं समुत्पद्यते तद्भावी। (सम. वृ. प. ३७) झंझपुरुष वह व्यक्ति, जो निरंतर कलह करता रहता है. उसके महामोहनीय कर्म का बंध होता है। .."अज्झीणझंझे पुरिसे, महामोहं पकुव्वइ ।
(सम ३०.१.९)
ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं-सामान्यविशेषात्मके
झरक वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधः, आवियते-आच्छाद्यते
१. सूत्र के अर्थ का मन से ध्यान करने वाला मुनि। अनेनेत्यावरणीयं.""ज्ञानस्यावरणीयं ज्ञानावरणीयम्।।
सुत्तत्थे य मणसा झायंतो झरको। (नन्दी गा २८ चू पृ८) (तभा ८.५ वृ)
२. ज्ञान के प्रवाह को आगे बढ़ाने वाला। ज्येष्ठावग्रह
झष संस्थान वर्षाकाल में मुनि चार मास एक ही क्षेत्र में रहते हैं, वह
शुभ चिह्न रूप मत्स्य का आकार, जो नाभि के उपरि भागों में ज्येष्ठावग्रह कहलाता है।
होता है। वरिसारत्तं चाउम्मासियं, स एव जेट्टग्गहो।
"नाभेरुपरि "स्वस्तिक-झष-कलशादिशुभचिह्न"। (दजिचू पृ ३७४)
(गोजी ३७१ वृ) ज्योतिःसमारम्भ
.."एदाणि संठाणाणि तिरिक्खमणस्साणंणाहीए उवरिमभागे
होति। अनाचार का एक प्रकार। अग्नि जलाना, जो मुनि लिए
(धव पु १३ पृ २९७) अनाचरणीय है।
झषावर्त जोती अग्गी तस्स जं समारंभणं एतदणाचिण्णं।
कृतिकर्म (वन्दना) का एक दोष। एक मुनि को वन्दन कर
(द ३.४ अचू पृ६१) झष की भांति शीघ्रता से पार्श्व-परिवर्तन कर दूसरे मुनि को ज्योतिष्क देव
रेचकावर्त की मुद्रा में वन्दन करना। देवनिकाय का तीसरा प्रकार । वह देवनिकाय, जो तेजोलेश्या उटुिंतनिवेसिंतो उव्वत्तइ मच्छउ व्व जलमज्झे। युक्त होता है और जिसका आवास क्षेत्र मध्य लोक है। चंद्र, वंदिउकामो वऽन्नं झसो व परियत्तए तुरियं॥ सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा-ये पांच प्रकार के ज्योतिष्क देव ___ "जिगमिषुरुपविष्ट एव झष इव"त्वरिताङ्गं परावृत्य यद्
गच्छति तन्मत्स्योवृत्तं, इत्थं च यदङ्गपरावर्तनं तज्झषावर्तजोइसियाणं "एगा तेउलेस्सा। (प्रज्ञा १७.५३)
मित्यभिधीयते।
(प्रसा १५९ वृ प ३७) चंदा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा।
है।
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मच्छुव्वत्तं एक्कं वंदितूणं छडुति बितिएण पासेति परियत्तति रेचकावर्तेन।
(आवनि १२०८ चू पृ४३)
ट टाल वह फल, जिसमें गुठली न पड़ी हो। 'इसमें गुठली नहीं पड़ी है'-ऐसा कहना। यह भाषा मुनि के लिए अनाचीर्ण
वाद-दोष का एक प्रकार । वादकाल में क्षुब्ध होकर मौन हो जाना। प्रतिवाद्यादेः सकाशाज्जातः क्षोभान्मुखस्तम्भादिलक्षणो दोषस्तज्जातदोषः। (स्था १०.९४ वृ प ४६७) ततगति प्रस्थान-स्थल और गन्तव्य-स्थल के अंतराल में होने वाली गति। यं ग्रामं सन्निवेशं वा प्रति प्रतिष्ठितो देवदत्तादिस्तं ग्रामादिकं यावदद्यापिन प्राप्नोति तावदन्तरा पथि एकैकस्मिन् पदन्यासे तत्तद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणा गतिरस्तीति ततगतिः।
(प्रज्ञा १६.२२ वृ प ३२८)
तहा फलाई.........टालाई.........नो वए। 'टालानि' अबद्धास्थीनि कोमलानीति।
(द ७.३२ हावृ प २१९)
तत्प्रतिरूपकव्यवहार स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत का एक अतिचार। असली वस्तु के स्थान पर नकली देना, मिलावट करना। तेन-अधिकृतेन प्रतिरूपकं-सदशं तत्प्रतिरूपकं तस्य विविध-मवहरणं व्यवहार:-प्रक्षेपस्तत्प्रतिरूपकव्यवहारः।
(उपा १.३५ वृ पृ १३)
टोलगति कृतिकर्म (वन्दना) का एक दोष। १. टिड्डी की तरह फुदक-फुदक कर वन्दना करना। .."टोलो व्व उप्फिडंतो ओसक्कहिसक्कणे कुणइ॥ पश्चाद्गमनं "अभिमुखगमनं ते अवष्वष्कणाभिष्वष्कणे टोलो व्व-तिडवदुत्प्लवमानः करोति यत्र तट्टोलगतिवन्दनकमित्यर्थः।
(प्रसा १५७ वृ प ३६) २. ऊंट की भांति उठकर एक-दूसरे के पास जाकर वन्दना करना। टोलगति–टोलो जधा उद्वेत्ता अण्णमण्णस्स मूलं जाति।
(आवनि १२०७ चू पृ ४३) ३. ऊंट जैसी गति वाला। अथवा टोलाकृति-अप्रशस्त आकार वाला। टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचाराः । पाठान्तरेण टोलाकृतयःअप्रशस्ताकाराः।
(भग ७.११९ वृ)
तत्त्व वस्तु, जो पारमार्थिक-वास्तविक है। जीवाजीवपुण्यपापासवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षास्तत्त्वम्॥ तत्त्वं पारमार्थिकं वस्तु। (जैसिदी २.१ वृ) तत्त्वमिति"तथ्यं सद्भूतं परमार्थ इत्यर्थः।"जीवादीनामर्थानां या स्वसत्ता सोच्यते।
(तभा १.४ वृ) (द्र तथ्य)
வ
ढड्डरस्वर कृतिकर्म (वन्दना) का एक दोष। उच्च स्वर से वन्दनासूत्र के आलापकों का उच्चारण करते हुए वन्दना करना। ढड्डरसरेण जो पुण सुत्तं घोसेइ ढड्डरं तमिह।" ढरेण-महता शब्देनोच्चारयन्नालापकान् यद् वन्दते ढडूरं तदिहेति।
(प्रसा १७३ वृ प ३८)
तत्रभू पिण्डस्थ ध्यान का पांचवां प्रकार । पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती
और वारुणी-इन धारणाओं के अभ्यास के बाद अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करना। सप्तधातुविनाभूतं पूर्णेन्दुविशदद्युतिम्। सर्वज्ञकल्पमात्मानं शुद्धबुद्धिः स्मरेत् ततः॥ स्वाङ्गगर्भे निराकारं संस्मरेदिति तत्रभूः। साभ्यास इति पिण्डस्थे योगी शिवसुखं भजेत्॥
(योशा ७.२३,२५)
तज्जातदोष
तत्सेवी आलोचना
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आलोचना का एक दोष। अपने समान दोषसेवी गुरु के सामने दोषों का निरूपण करना। ये दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्तस्य पुरतो यदालोचनं स तत्सेविलक्षण आलोचनादोषः।
(स्था १०.७० वृ प ४६१) तथाकार सामाचारी सामाचारी का एक प्रकार। प्रतिश्रवण (गुरु द्वारा प्राप्त उपदेश की स्वीकृति) के लिए तथाकार (यह ऐसे ही है) का प्रयोग करना। ""तहक्कारो य पडिस्सुए॥
(उ २६.६)
ज्ञानाचार का एक प्रकार । स्वाध्यायकाल में सूत्र और अर्थ दोनों का बोध करना, सम्यक् उपयोगपूर्वक आगम के पाठ
और अर्थ का अध्ययन करना। तदुभयं च-व्यञ्जनार्थयोरुभयं सम्यगुपयोगेन च यतः सूत्रादि पठनीयम्।
(प्रसा २६७ वृ प६४) तदुभयकल्पिक वह मुनि, जो आवश्यक आदि आगमों के सूत्र और अर्थ का एक साथ अध्ययन करने में सक्षम है। यो द्वावपि सूत्राऽौँ युगपद्ग्रहीतुं समर्थः स तदुभयकल्पिकः ।
(बृभा ४०९ वृ) तदुभय प्रायश्चित्त वह प्रायश्चित्त, जिसमें मूलगुण अथवा उत्तरगुणों के अतिक्रमण में संदेह होने पर अथवा जानबूझकर अतिक्रमण करने पर आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों का प्रयोग किया जाता
तथाज्ञान द्रव्यानुयोग का एक प्रकार। द्रव्य का यथार्थ-जैसा है. वैसा विचार करना। यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथाज्ञानम्।
(स्था १०.४६ वृ प ४५७)
तथोपपत्ति साध्य के होने पर ही साधन का होना, जैसे-अग्नि के होने पर धूम का होना। सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिः तथोपपत्तिः। यथा-अग्निमानयं पर्वतः, तथैव धूमोपपत्तेः।
(प्रनत ३.३०)
मूलुत्तरगुणातिक्कमसंदेहे आउत्तेण वा कए आलोयणपडिक्कमणमुभयं।
(आवचू २ पृ २४६) तदुभयशस्त्र वह सजीव अथवा निर्जीव द्रव्य, जिसके प्रयोग से अपनी जाति और अपने से भिन्न जाति के प्राणी का प्राणवियोजन होता है, जैसे-मिट्टीमिश्रित जल दूसरी मिट्टी का शस्त्र है।
(आभा १.१९) (द्र स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र)
तथ्य पदार्थ, जिनका अस्तित्व वास्तविक है, जैसे-जीव, अजीव आदि। तथ्याः अवितथा निरुपचरितवत्तयः। (उशाव प ५६२) जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निन्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव॥
(उ २८.१४) (द्र तत्त्व)
तदुभयागम वह आगम, जिसमें सूत्र और अर्थ दोनों एक साथ संकलित हो। सूत्रार्थोभयरूपस्तु तदुभयागमः। (अनु ५५० मवृप २०२)
तदन्यमन मन का एक प्रकार। लक्ष्य के बाहर किसी अन्य में लगा हुआ मन।
(स्था ३.३५७ ७ प १३२) (द्र तन्मन)
तद्भव मरण वह मरण, जिसमें तिर्यञ्च या मनुष्य भव में विद्यमान प्राणी पुनः तद्भव योग्य–तिर्यञ्च या मनुष्य भव-योग्य आयुष्य का बंध कर मरता है। तस्मै भवाय मनुष्यादेः सतो मनुष्यादावेव बद्धायुषो यन्मरणं तत्तद्भवमरणम्।
(भग २.४९ वृ)
तदुभय (सूत्र-अर्थ)
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तद्व्यतिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया
श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार। कर्मक्षय और मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। सद्भूत पदार्थ के आत्मशुद्धि के लिए किया जाने वाला तप। अस्तित्व का अस्वीकार, जैसे आत्मा नहीं है।
कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः।
(तवा ९.६) ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनाद् व्यतिरिक्तं मिथ्यादर्शनं-नास्त्ये
तपोविनीत वात्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथा।
जिसकी मति तपविनय में निश्चित होती है, जो तपस्या से (स्था २.१६ वृ प ३९)
अज्ञान को दूर करता है तथा आत्मा को मोक्ष के निकट ले तनुवात
जाता है। वह वायु, जो तरल और आकाश-प्रतिष्ठित है।
अवणेति तवेण तमं, उवणेति य मोक्खमग्गमप्पाणं। तनुवातवलयमाकाशप्रतिष्ठितम्। (तवा ३.१)
(तवा ३.१) । तवविणयनिच्छितमती, तवोविणीओ हवति तम्हा॥ (द्र घनवात)
(दनि २९५) तन्दुलप्रक्रीर्णक
तपःप्रायश्चित्त उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । इस अध्ययन में गर्भ, मानव मूलगुण-उत्तरगुण में अतिचार होने पर उसकी शुद्धि के की शरीर-रचना, शतवर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें लिए किया जाने वाला तप। इसका कालमान जघन्य पांच होने वाली शारीरिक स्थितियां, आहार आदि मानव-जीवन दिन-रात तथा उत्कृष्ट छह मास है। के विविध पक्षों पर विमर्श किया गया है। (नन्दी ७७) तवो मूलुत्तरगुणातियारे पंचरातिंदियाति छम्मासावसाण
मणेकधा।
(आवचू २ पृ २४६) तन्मन निर्धारित ज्ञेय अथवा लक्ष्य में लगा हुआ मन ।
तप्ततपस्वी तस्य-देवदत्तादेस्तस्मिन् वा घटादौ मनस्तन्मनः, ततो- वह मुनि, जिसके द्वारा किया हुआ शुष्क और अल्प आहार देवदत्ताद् अन्यस्य-यज्ञदत्तादेघटापेक्षया पटादौ वा मन- तत्काल परिणत हो जाता है, वह मल और रक्त में परिणत स्तदन्यमनः, अविवक्षितसम्बन्धितविशेषं तुमनोमानं नोअमन नहीं होता। इति।
(स्था ३.३५७ वृप १३२) तप्तायसकटाहपतितजलकणवदाशुशुष्काल्पाहारतया मलरु(द्र तदन्यमन, नोअमन)
धिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहाराः तप्ततपसः।
(तवा ३.३६) तप जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थि अथवा कर्मशरीर को तपाता है, तप्तानिवृतभोजित्व नष्ट करता है तथा जो पूर्वगृहीत कर्म के क्षय का हेतु है। मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार। अर्द्धपक्व सजीव तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठिं नासेति त्ति वुत्तं वस्तु का उपभोग करना। भवइ। (द ८.६२ जिचू पृ १५)
जावणातीवअगणिपरिणतं तं तत्तअपरिणिव्वडं। पूर्वगृहीतकर्मक्षयहेतुश्च तपः। (ओनिवृ प १२)
(द ३.६ अचू पृ ६१) तप आचार
तमःप्रभा अनशन आदि बारह प्रकार की तपस्याओं में कुशल तथा नरक की छठी पृथ्वी (मघा) का गोत्र, जहां कृष्ण अंधकार अग्लान रहने की प्रवृत्ति।
(देखें चित्र पृ ३४६) बारसविहम्मि वि तवे सब्भिंतर-बाहिरे जि
कृष्णतमो इवाभाति तमःप्रभा। (अनु १८१ चूपृ ३५) अगिलाए अणाजीवी णायव्वो सो तवायारो॥
(द्र रत्नप्रभा) (दनि १६०)
तमस्काय तपोधर्म
अप्कायिक जीवों और पुद्गलों से निर्मित अंधकार का
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प्रचय। इसकी अवस्थिति तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक दोनों में है। (देखें चित्र पृ ३४४) तमस्कायस्य च स्तिबुकाकाराप्कायिकजीवात्मकत्वात् । (भग ६.७२ वृ प ५३९) तमुक्काए णं जीवपरिणामे वि पोग्गलपरिणामे वि ।
(भग ६.८७)
तमस्तमा
(द्र महातमः प्रभा )
तमा
(स्था ७.२४)
(स्था ७.२४)
(द्र तमः प्रभा)
तर्क
अन्वय और व्यतिरेक का निर्णय, जैसे—धुएं के होने पर अग्नि का होना - अन्वय, अग्नि के न होने पर धुएं का न होना - व्यतिरेक ।
अन्वयव्यतिरेकनिर्णयस्तर्कः ।
''अन्वयः यथा-यत्र धूमस्तत्राग्निः, अग्नावेव वा धूमः । ...व्यतिरेकः, यथा - अग्न्यभावे न धूमः ।
( भिक्षु ३.७ वृ)
तस्करप्रयोग
स्थूल अदत्तादानविरमण व्रत का एक अतिचार । चोरी के लिए प्रेरणा देना और उसमें सहयोग करना । तस्करप्रयोगश्चौरव्यापारणम्, हरत यूयम् इत्येवमभ्यनुज्ञान(उपा १.३४ वृ पृ १२ )
मित्यर्थः ।
तापक्षेत्र
१. वह आकाश खण्ड, जो सूर्य के आतप से व्याप्त होता है । जम्बूद्वीप में दो सूर्य होते हैं। प्रत्येक सूर्य १८ मुहूर्त के दिन के समय जम्बूद्वीप के ३ भाग को प्रकाशित करता है। जम्बूद्वीप की परिधि ३१६२२८ योजन की है। उसका 12/20 भाग ३१६२२८×५०=९४८६८,,योजन होता है । यह तापक्षेत्र
1
१०
है।
'सूरिय' त्ति द्वौ सूर्यौ जम्बूद्वीपे । यदापि दक्षिणोत्तरयोः
****
सर्वोत्कृष्टो दिवसो भवति, तदापि जम्बूद्वीपस्य दशभागत्रयप्रमाणमेव तापक्षेत्रं तयोः प्रत्येकं स्याद् उत्कृष्टदिनं चाष्टादशभिर्मुहूर्तैरुक्तम् । लवणसमुद्रं प्रति चतुर्नवतिर्योजनानां सहस्राणि अष्टौ शतान्यष्टषष्ट्यधिकानि चत्वारश्च दशभागा योजनस्येत्येतदुत्कृष्टदिने तापक्षेत्रप्रमाणं भवति जम्बूद्वीपपरिधेः किञ्चिन्यूनाष्टविंशत्युत्तरशतद्वयाधिकषोडशसहस्रोपेतयोजनलक्षत्रयमानस्य दशभिर्भागे हृते यल्लब्धं तस्य त्रिगुणत्वे एतस्य भावादिति । (भग ५.३-७ वृ)
२. दिन, सूर्योदय से सूर्यास्त तक का काल ।
क्षेत्रं - सूर्यसम्बन्धी तापक्षेत्रं दिनमित्यर्थः । (भग ७.२४ वृ)
तापक्षेत्रदिशा
वह क्षेत्र दिशा, जो सूर्य के ताप से पहचानी जाती है।
तत्र तपतीति ताप इह सविता गृह्यते, तदुपलक्षिता क्षेत्रदिक् तापक्षेत्रदिक् । सा चानियतेत्याहजेसिं जत्तो सूरो उएइ तेसिं तई हवइ पुव्वा । तावक्खित्तदिसाओ पयाहिणं सेसियाओ सिं ॥
( विभा २७०१ वृ पृ १४९ )
तायी
(द्र त्रायी)
तारा
ज्योतिष्क देवनिकाय का एक प्रकार ।
१२९
( उ ८.४ शावृ प २९१ )
तितिक्षा
( उ ३६.२०८)
(द्र ज्योतिष्क देव)
तालवृन्तविद्या
वह विद्या, जिसमें अभिमंत्रित तालवृन्त से रोगी का अपमार्जन किया जाता है और वह स्वस्थ हो जाता है । तालवृन्तविषया विद्या, यया तालवृन्तमभिमन्त्र्य तेनातुरोऽपमृज्यमानः स्वस्थो भवति सा तालवृन्तविद्या । (व्यभा २४३९ वृ)
तालोद्घाटन विद्या
वह विद्या, जिसके प्रयोग से ताले खुल जाते हैं । तालुग्घाडणीए विज्जाए तालगाणि विहाडेऊ
।
(निभा ३४७ चू)
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योगसंग्रह का एक प्रकार। कष्ट-सहिष्णता, परीषहों पर रज्जुप्रमाणो जम्बूद्वीपमेरुरुचकमध्य इति। (तभा ३.६७) विजय प्राप्त करने का अभ्यास करना।
'तिरियलोए'....समयपरिभाषया तिर्यगमध्ये व्यवस्थितो लोक'तितिक्ख'त्ति तितिक्षा परीषहादिजयः।
स्तिर्यग्लोकः। अथवा तिर्यक् शब्दो मध्यमपर्यायः। (सम ३२.२.२ वृ प ५५)
(अनु १७७ मवृ प ८०) तिर्यक्सम्पातिम
अष्टादशशतयोजनोच्छ्रितोऽसंख्यद्वीपसमुद्रायामस्तिर्यक् । वह जीव, जो तिरछा उड़ता है, जैसे- भ्रमर, कीट, पतंग
(जैसिदी १.८ वृ) आदि।
तिर्यग्व्यतिक्रम तिरिच्छं संपयंतीति तिरिच्छसंपाइमा, ते य पयंगादी।
(तसू ७.२५) . (द ५.१८ जिचू पृ १७०) (द्र तिर्यग्दिशाप्रमाणातिक्रम) तिर्यकूसामान्य
तिर्यञ्चगति प्रतिव्यक्ति में होने वाली तुल्य परिणति, जैसे---- प्रत्येक घट
गतिनाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव तिर्यञ्च में घटत्व।
पर्याय का वेदन करता है। तुल्या परिणतिर्भिन्नव्यक्तिषु यत्तदुच्यते।
(द्र नरकगति) तिर्यक्सामान्यमित्येव घटत्वं तु घटेष्विव॥ (द्रत १.५) प्रतिव्यक्ति तत् तिर्यक्सामान्यम्, यथा-वटनिम्बादिषु वृक्ष
तिर्यञ्चायुष्क त्वम्।
(भिक्षु ६.६ वृ) आयुष्य कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव तिर्यञ्च(द्र ऊर्ध्वतासामान्य)
अवस्था का अनुभव करता है।
आयुरेवायुष्कम्"तिर्यग्योनय एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रितिर्यदिशाप्रमाणातिक्रम
यास्तेषामिदं तैर्यग्योनम्।
(तभा ८.११ वृ) दिग्व्रत का एक अतिचार। तिर्यक दिशा में जाने के नियत प्रमाण का अनजान में अथवा किसी अन्य कारण वश अतिक्रमण
तीर्थ करना।
उपा १.३७ वृ पृ१४)
१. श्रुतज्ञान । प्रवचन, जो द्वादशांग के रूप में प्रसिद्ध है। (द्र ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम)
तीर्थं श्रुतज्ञानं तत्पूर्विका 'अर्हत्ता' तीर्थकरता, न खलु
भवान्तरेषु श्रुताभ्यासमन्तरेण भगवत एवमेवाऽऽर्हन्त्यलक्ष्मीतिर्यग्योनिक
रुपढौकते।
(बृभा ११९४ वृ) औपपातिक (देव तथा नरक) और मनुष्य से भिन्न जीव, जो । .."पवयणं पि तित्थं"।
(विभा १३८०) निम्न भाव में रहते हैं।
तित्थं दुवालसंगं।
(धव पु १३ पृ३६६) औपपादिकमनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनयः। (तस ४.२८) २. वह श्रमणसंघ, जिसमें साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका तिरोभावो न्यग्भाव: उपबाह्यत्वमित्यर्थः ततः कर्मोदयापादित- चारों का समावेश होता है। भावा तिर्यग्योनिरित्याख्यायते। (तवा ४.२७)
तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे। (भग २०.७४) तिर्यग्लोक
तीर्थंकर मध्यलोक, जो झल्लरी संस्थान वाला है, असंख्य द्वीप-- -
शलाकापुरुष का एक प्रकार। तीर्थ का प्रवर्तन करने वाला. समुद्रमय एक रज्जु विस्तीर्ण है तथा अठारह सौ योजन ऊंचा
प्रवचनकार। है, जिसके मध्य में जम्बूद्वीप और मेरु पर्वत है।
अरहा ताव नियमं तित्थकरे।
(भग २०.७४) (देखें चित्र पृ ३४३)
पज्जा पवायगा पवयणस्स ते बारसंगस्स॥ (विभा १०६३) तिर्यग्लोको झल्लर्याकृतिः।
(तभा ३.६)
(द्र जिन) झल्लरी सर्वत्र समतला तुल्यविष्कम्भायामवादिनविशेषस्तदवत् तिर्यग्लोकसन्निवेशः, स च विष्कम्भायामाभ्यां
तीर्थंकरनाम
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तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गायविराहणा॥ आयवस्स निवाएणं, अउला हवइ वेयणा। एवं नच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया॥
(उ २.३४,३५)
नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव तीर्थ का प्रवर्तक होता है। तीर्थकरत्वनिवर्तकं तीर्थकरनाम। (तभा ८.१२) तीर्थंकरसिद्ध वह सिद्ध, जो तीर्थंकर अवस्था में मुक्त होता है। रिसभादयो तित्थकरा, ते जम्हा तित्थकरणाम-कम्मुदयभावे द्विता तित्थकरभावातो वा सिद्धा तम्हा ते तित्थकरसिद्धा।
(नन्दी ३१ चू पृ २६) तीर्थसिद्ध वह सिद्ध, जो तीर्थ में प्रव्रजित होकर मुक्त होता है। जे तित्थे सिद्धा ते तित्थसिद्धा। (नन्दी ३१ चू प२६) तीव्रकामाभिनिवेश
(तसू ७.२३) (द्र कामभोगतीव्राभिलाषा)
तेजस्काय जीवनिकाय का तीसरा प्रकार। (आचूला २.४१) (द्र तेजस्कायिक) तेजस्कायिक वे जीव, जिनका शरीर अग्नि है। तेजः-उष्णलक्षणं प्रतीतम्, तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजः-कायाः, तेजःकाया एव तेजःकायिकाः।
(दहावृ प १३८) (द्र तेजस्काय) तेजोलब्धि तैजस शरीर का विकास करने पर उत्पन्न होने वाली तैजस शक्ति। इसके द्वारा शाप और अनुग्रह दोनों किए जा सकते
तीव्रानुभाव १. वह कर्मबंध, जिसका अनुभाव तीव्र होता है, चतुःस्थानिक रसवाला होता है। तीव्रानुभावाश्चतुःस्थानिकरसत्वेन प्रकरोति।
(उ २९.२३ शावृ प ५८५) २. वह कर्मबंध, जिसके मन्दानुभाव की तीव्रानुभाव वाला किया जाता है। (द्र मन्दानुभाव) तुच्छौषधिभक्षण उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत का एक अतिचार। असार धान्य का आहार, जिससे जीवों की विराधना अधिक हो, तृप्ति कम हो। 'तुच्छोसहिभक्खणय' त्ति तुच्छा:-असारा ओषधयः अनिष्पन्न- मुद्गफलीप्रभृतयः तद्भक्षणे हि महती विराधना स्वल्पा च तत्कार्या तृप्तिः। (उपा १.३८ वृ पृ १६) तृणस्पर्श परीषह परीषह का एक प्रकार। तृण आदि की तीक्ष्णता अथवा कठोरता से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। अचेलगस्स लूहस्स, संजयस्स तवस्सियो।
तेज इत्यग्निः, तेजोगुणोपेतद्रव्यवर्गणासमारब्धं तेजोविकारस्तेज एव वा तैजसमुष्णगुणं शापानुग्रहसामर्थ्याविर्भावनं तदेव यदोत्तरगुणप्रत्यया लब्धिरुत्पन्ना भवति।
(तभा २.३७ वृ) (द्र तेजोलेश्या) तेजोलेश्या १. प्रशस्त लेश्या का पहला प्रकार । प्रशस्त भावधारा, नैतिक
और धार्मिक अनुशासन में गहरी आस्था से संबंधित चैतन्य की एक रश्मि। नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले। विणीयविणए दंते, जोगवं उवहाणवं॥ पियधम्मे दढधम्मे, वज्जभीरू हिएसए। एयजोगसमाउत्तो तेउलेसं तु परिणमे।।
(उ ३४.२७,२८) (द्र भावलेश्या) २. तेजोलेश्या में हेतुभूत अरुण वर्ण वाले पुद्गल। अरुण (बालसूर्य जैसा) आभामण्डल। हिंगुलयधाउसंकासा तरुणाइच्चसन्निभा। सुयतुंडपईवनिभा तेउलेसा उ वण्णओ।
(उ ३४.७)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
(द्र द्रव्यलेश्या) ३. तपोविभूतिजन्य तेजस्विता-तैजस ज्वाला, इसके द्वारा सैकड़ों योजनों में अवस्थित वस्तु को भस्म किया जा सकता
संक्षिप्ता-शरीरान्तर्लीनत्वेन ह्रस्वतां गता, विपुलाविस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वातेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला।
(भग १.९ वृ) (द्र तेजोलब्धि, संक्षिप्तविपलतेजोलेश्या)
अन्न, पान आदि से होने वाले अशुद्ध भाव का त्याग। बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरान्नपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः।
(तभा ९.६.८) त्यागी वह व्यक्ति, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनका उपभोग नहीं करता और अपनी स्वतन्त्र इच्छा से उनका त्याग करता है। जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिटिकुव्वई। साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइ॥ (द २.३)
तैजसवर्गणा तैजस शरीर के प्रायोग्य पुद्गलसमूह। (विभा ६३१) तैजसशरीर तैजस परमाणुओं द्वारा निष्पन्न शरीर, जिसके द्वारा दीप्ति, पाचन तथा आभामण्डल का निर्माण होता है और जो तेजोलब्धि का निमित्त बनता है। 'तेयए' त्ति तेजसो भावस्तैजसं, ऊष्मादिलिङसिद्धं, उक्तं
त्रसकाय जीवनिकाय का छठा प्रकार।
(आचूला २.४१) (द्र त्रसकायिक, त्रस जीव) त्रसकायिक वह जीव, जिसका शरीर ही त्रस (त्रसनशील) होता है। त्रसनशीलास्त्रसा: प्रतीता एव, त्रसा: कायाः-शरीराणि येषां ते त्रसकायाः, जसकाया एव त्रसकायिकाः।
(दहावृ प १३८) (द्र त्रस जीव)
सव्वस्स उम्हसिद्धं रसादिआहारपागजणगं च। तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायव्वं ॥
(स्था ५.२५ ७ प २८१)
तैजसशरीरबन्धननाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण तैजस शरीर के पुदगलों का परस्पर तथा कार्मण शरीर के साथ संबंध स्थापित होता है। यदयात्तैजसपुद्गलानां गृहीतानां गह्यमाणानां च परस्परं कार्मणपुद्गलैश्च सह संबंधस्तत्तैजसशरीरबन्धननाम।
(प्रज्ञा २३.४३ वृ प ४७०) तैजससमुद्घात तैजस शरीर का विसर्पण करना। इसका प्रयोजन है अनुग्रह
और निग्रह। यह तैजस नामकर्म के आश्रित होता है। वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्घात: शरीरनामकर्माश्रयाः।
(समवृ प १२) त्यागधर्म श्रमणधर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार। शरीर, उपधि,
त्रस जीव चलने-फिरने वाले प्राणी, जो इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति के लिए इच्छापूर्वक गति करते हैं। हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थं गमनशीलास्त्रसाः, तदितरे स्थावराः।
(जैसिदी ३.३ वृ) त्रसनाडी लोकाकाश का वह क्षेत्र, जहां त्रस जीव रहते हैं। लोक के बहुमध्यभाग में स्थित एक रज्जु लम्बा-चौड़ा और कुछ कम (३२१६२२४१ धनुष कम) तेरह रज्जु ऊंचा क्षेत्र त्रसनाड़ी कहलाता है।
(देखें चित्र पृ ३४१) लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा। तेरसरज्जुच्छेहा किंचूणा होदि तसनाली॥
(त्रिप्र २.६)
त्रसनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव में इच्छापूर्वक
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त्रिचक्षुः
गति करने की शक्ति पैदा होती है। यह द्वीन्द्रिय आदि में त्रिविद्य जन्म लेने का निमित्त बनती है।
पूर्वजन्म, जन्म-मरण और आश्रवक्षय-इन तीन विद्याओं त्रसन्ति-उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानाद्विजन्ते को जानने वाला। गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थं स्थानान्तरमिति।।
पूर्वजन्मज्ञानं जन्ममरणयोर्ज्ञानं आस्त्रवक्षयज्ञानं चेति तिस्त्रो त्रसा-द्वीन्द्रियादयस्तत्पर्यायपरिणतिवेद्यं नामकर्माणि
विद्याः। एतासां विद्यानां ज्ञाता त्रिविद्यो भवति। सनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४)
(आभा ३.२८) त्रायस्त्रिशक
त्रिस्थानपतित (त्रिस्थानिक) वेह देव, जो मंत्रीस्थानीय और पुरोहितस्थानीय है। तुलनात्मक न्यूनता और अधिकता को बताने वाले तीन त्रायस्त्रिंशा मंत्रिपुरोहितस्थानीयाः। (तभा ४.४) गणितीय मान। जैसे-असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन,
संख्येयगुणहीन; अथवा असंख्येयभागअधिक, संख्येयभागत्रायी
अधिक, संख्येयगुणअधिक। (प्रज्ञा ५.१०) संसार के महान् भय से आत्मा की रक्षा करने वाला अथवा
(द्र षट्स्थानपतित) वीतरागतुल्य मुनि। तायते-त्रायते वा रक्षति दुर्गतेरात्मानं एकेन्द्रियादिप्राणिनो त्रीन्द्रिय वाऽवश्यमिति तायी त्रायी वा। (उ८.४ शावृ प २९१) स्पर्शन, रसन और प्राण-इन तीन इन्द्रियों वाला प्राणी,
जैसे-कुन्थु, पिपीलिका, जूं आदि।
स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियत्रययुक्ताः कुन्थुपिपीलिकायूकामत्कुवह तथारूप श्रमण, जो अतिश ज्ञान का धारक
णादयस्त्रीन्द्रियाः। चक्षुरिन्द्रिय, परमश्रुत और परम अवधि-इन तीन चक्षुओं
__ (बृद्रसं ११ वृ पृ २३) वाला होता है।
त्रैराशिकवाद ""तहारूवे समणे वा माहणे वा उप्पण्णणाणदंसणधरे प्रवचननिह्नव का छठा प्रकार। यथार्थ का अपलाप करने तिचक्खु त्ति वत्तव्वं सिया।
वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार जीव, अजीव तथा नोजीव"""त्रिचक्षुः, चक्षुरिन्द्रियपरमतावधिभिरिति वक्तव्यं
ये तीन राशियां हैं। (स्था ३.४९९ वृ प १६१)
जीवाजीवनोजीवभेदास्त्रयो राशयः समाहृतास्त्रिराशिः। त्रिपदी
तत्प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिकाः, राशित्रयख्यापका इत्यर्थः । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इन तीन पदों की युति, जिसका
(स्था ७.१४० वृ प ४१३) तीर्थंकर व्याकरण करते हैं और जिसके आधार पर गणधर द्वादशांग की रचना करते हैं। उप्पण्णे इ वा, विगमे इ वा धुवे इ वा, एता एव तिम्रो
दंशमशक परीषह निषद्याः, आसामेव सकाशाद् गणभृताम् 'उत्पाद- परीषह का एक प्रकार। डांस, मच्छर आदि जन्तुओं के व्ययधौव्ययुक्तं सदि' ति प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा उपद्रव से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सत्ताऽयोगात्, ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशांग- सहनीय है। मुपरचयन्ति। (आवनि ७३५ हावृ पृ १८५) पुट्ठो य दंसमसएहिं समरेव महामुणी। तीहिं निसेज्जाहिं चोद्दसपुव्वाणि उप्पादिताणि। किं च वागरेति नागो संगामसीसे वा सूरो अभिहणे परं॥ भगवं? उप्पन्ने विगते धवे-एताओ तिन्नि निसेज्जाओ। नयंतसेन वारेजाम पिन पोस। उप्पन्ने त्ति जे उप्पन्निमा भावा ते उवागच्छंति। विगते त्ति ते उवेहे न हणे पाणे भुंजंते मंससोणियं॥ विगतिस्सभावा ते विगच्छंति। धुवा जे अविणासधम्मिणो।
(उ २.१०,११) (आवनि ७३५ चू पृ ३७०) (द्र मातृकापद)
स्यात्।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
दण्ड
दण्डायतिकः-प्रसारितदेहः। (स्था ७.४९ ७ प ३७८) १. वह प्रवृत्ति, जिससे आत्मा दण्डित होती है, जो चारित्र
दत्ति का अपहार करती है और जिससे दुर्गति प्राप्त होती है।
वह भिक्षा, जो हाथ या पात्र से अव्यवच्छिन्न धारा से दी दण्ड्यते-चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति
जाती है। दण्डाः ।
_(सम १.६ वृ प ८)
तत्र करस्थालादिभ्योऽव्यवच्छिन्नधारया या पतति भिक्षा २. केवली-समुद्घात के पहले और आठवें समय में अपने
सा दत्तिरभिधीयते।
(प्रसा १९७ वृ प ४५) शरीर की चौड़ाई के अनुसार ऊपर और नीचे दोनों ओर लोकान्त तक फैले हुए आत्मप्रदेशों की रचना।
दन्तवन पढमसमये 'दंडं करेइ'त्ति प्रथमसमय एव स्वदेहविष्कम्भ- अनाचार का एक प्रकार । दांतों को दतौन से घिसना, जो मुनि मूर्ध्वमधश्चायतमुभयतोऽपिलोकान्तगामिनं जीवप्रदेशसंघातं के लिए अनाचरणीय है। दण्डस्थानीयं केवली ज्ञानाभोगतः करोति।
दन्ताः पूयन्ते-पवित्राः क्रियन्ते येन काष्ठखण्डेन तद्दन्त(औपवृ पृ २०८, २०९) पावनम्।
(प्रसा २१० वृ प ५१) (द्र केवलिसमुद्घात)
दन्तवाणिज्य दण्डक
कर्मादान का एक प्रकार । हाथी-दांत, सींग, चमड़े आदि का समान जाति वाले जीवों का वर्गीकरण। ये चौबीस हैं।
क्रय-विक्रय। (स्था १.२१३)
'दंतवाणिज्जे'त्तिदन्तानां-हस्तिविषाणानाम् उपलक्षणत्वादण्डनीति
देषां चर्मचामरपूतिकेशादीनां वाणिज्यं-क्रयविक्रयो दन्तदोष के अनुसार दण्ड की व्यवस्था करना।
वाणिज्यम्।
(भग ८.२४२ वृ) दण्डनं दण्डः-अपराधिनामनुशासनं, तत्र तस्य वा स एव
दया वा नीति:-नयो दण्डनीतिः। (स्था ७.६६ ७ प ३७८) १. जगत् के सब जीवों की रक्षा करना, प्रयत्नपूर्वक वध न दण्डरत्न
करना।
सर्वजगज्जीवरक्षणरूपा या दया"। (प्रश्न ६.३ प १०९) चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो शत्रुओं को नष्ट
२. पापमय आचरणों से अपनी या दसरे की आत्मा को करने में समर्थ होता है, दिव्य तथा अप्रतिहत होता है। वह
बचाना। स्कन्धावार के लिए विषम भूमि को सम करता है और चक्रवर्ती के ईप्सित मनोरथों को पूरा करता है। यह भूमि के
पापाचरणादात्मरक्षा दया।
(जैसिदी ९.१) भीतर हजार योजन तक प्रवेश कर सकता है।
दर्पप्रतिषेवणा दण्डरलं रत्नमयपञ्चलताकं वज्रसारमयं सर्वशत्रुसैन्य
दर्प (उद्धतभाव) से, राग-द्वेष की प्रेरणा से किया जाने विनाशकारकं, चक्रवर्तिनः स्कन्धावारं विषमोन्नतविभागेषु
वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन, दोषाचरण। समत्वकारि शान्तिकरं चक्रवर्तिनो हितेप्सितमनोरथपूरकं
दप्पो पुण वग्गणाईओ इति वचनात्। दिव्यमप्रतिहतं प्रयत्नविशेषतश्च व्यापार्यमाणं योजन
..."आगमप्रतिषिद्धप्राणातिपाताद्यासेवा या सा दर्पप्रतिषेसहस्रमप्यधः प्रविशति। (प्रसा १२१४ वृ प ३५०,३५१)
वणा।
(स्था १०.६९ वृ प ४६०) दण्डायतिक
रागद्वेषाभ्याम् अनुगता-सहिता या प्रतिसेवना सा दर्पिका। कायक्लेश का एक प्रकार । दोनों पैरों को परस्पर सटाकर,
(बृभा ४९४३ वृ) दोनों हाथों को पैरों से सटाकर दण्ड की तरह सीधा लेटने
दर्पिका वाला।
(बृभा ४९४३ वृ)
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दर्भ विद्या
दर्शन परीषह वह विद्या, जिसमें अभिमन्त्रित कश से रोगी का अपमार्जन परीषह का एक प्रकार। सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थों का किया जाता है और वह स्वस्थ हो जाता है।
दर्शन न होने से उत्पन्न होने वाली खिन्नता, जो मुनि के लिए या दर्भे दर्भविषया भवति विद्या, यया दर्भेरपमृज्यमान सहनीय है। आतुरः प्रगुणो भवति।
(व्यभा २४३९ वृ) नत्थि नूणं परे लोए इड्डी वावि तवस्सिणो। दर्शन
अदुवा वंचिओ मि त्ति इइ भिक्खू न चिंतए।
अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सइ। १. सामान्य अवबोध। अनाकार उपयोग। इससे द्रव्य का
मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खू न चिंतए॥ निर्विकल्प---जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया से रहित ज्ञान
(उ २.४४,४५) होता है। जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं"।
(सप्र २.१)
दर्शनपुलाक "दर्शनम्-अनुल्लिखितविशेषस्य सन्मात्रस्य प्रतिपत्तिः""।
पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । मिथ्यादृष्टि वाले व्यक्तियों (जैसिदी २.११ वृ)
के सम्पर्क आदि से दर्शन को सारहीन बनाने वाला। २. दर्शनमोह के विलय से होने वाली दृष्टि, सम्यक्त्व।
कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाकः । दृश्यन्ते-श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेन "दर्शनं-दर्शनमोहनीयस्य
(स्था ५.१८५ वृ प ३२०) क्षयः क्षयोपशमो वा, दृष्टिर्वा दर्शनं-दर्शनमोहनीय
दर्शन प्रतिमा क्षयाद्याविर्भूतस्तत्त्वश्रद्धानरूप आत्मपरिणामः।
उपासक प्रतिमा का पहला प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक (स्थ १६ वृ प २१,२२) ३. दर्शन मोह के उदय से होने वाला दृष्टि, मिथ्यात्व।
दर्शन की वह साधना करता है, जो शंका, कांक्षा आदि
विकल्प से रहित होती है और जिसमें शम, संवेग आदि का दर्शनमोहोदयात् अतत्त्वे तत्त्वप्रतीतिः मिथ्यात्वं गीयते।
विशिष्ट अभ्यास किया जाता है और जो राजाभियोग आदि (जैसिदी ४.१८ वृ)
आकारों (अपवादों) से मुक्त होती है। दर्शन आत्मा
पसमाइगुणविसिटुं कुग्गहसंकाइसल्लपरिहीणं। दर्शनात्मक चेतना।
सम्मदंसणमणहं दंसणपडिमा हवइ पढमा ।। दर्शनात्मा सर्वजीवानां... जस्स दवियाया तस्स दंसणाया सम्यग्दर्शनस्य कुग्रहशंकादिशल्यरहितस्याणुव्रतादिगुणनियम अत्थि' त्ति यथा सिद्धस्य केवलदर्शनं 'जस्सवि विकलस्य योऽभ्युपगमः सा दर्शनप्रतिमेति, सम्यग्दर्शनदसणाया तस्स दवियाया नियमं अत्थि' त्ति यथा चक्षु- प्रतिपत्तिश्च तस्य पूर्वमप्यासीत् केवलमिह शङ्कादिदोषदर्शनादिदर्शनवतां जीवत्वम्। (भग १२.२००,२०३ वृ) । राजाभियोगाद्याकारषट्कवर्जितत्वेन यथावत्सम्यग्दर्शनाचार
विशेषपरिपालनाभ्युपगमेन च प्रतिमात्वं संभाव्यते। दर्शनकषायकुशील
(प्रसा ९८२ वृ प २९४) कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो दर्शन के प्रसंग में क्रोध, अहंकार आदि का प्रयोग कर दर्शन की
दर्शनप्रतिषेवणाकुशील विराधना करता है।
प्रतिषेवणाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो (द्र ज्ञानकषायकुशील)
दर्शन के आधार पर आजीविका करता है।
(द्र ज्ञानप्रतिषेवणाकुशील) दर्शनक्रिया क्रिया का एक प्रकार । रागाविष्ट होकर रमणीय रूप की ओर
दर्शन बोधि देखने की प्रमादी पुरुष की प्रवृत्ति।
१. अप्राप्त दर्शन की प्राप्ति। रागार्टीकृतत्वात् प्रमादिनः रमणीयरूपालोकनाभिप्रायः। २. दर्शनप्राप्ति के उपाय का चिन्तन।
(तवा ६.५)
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दर्शनबोधि : - दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्नः श्रद्धान
लाभ: ।
(स्था २ वृ प ९१)
(द्र बोधि)
दर्शनमोहनीय
मोहनीय कर्म का एक प्रकार, जो सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधा डालता है।
दर्शनं - सम्यक्त्वं तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् ।
(प्रज्ञा २३.३३ वृ प ४६७)
दर्शनविनय
तीर्थंकर द्वारा प्रज्ञप्त तत्त्व के प्रति निःशङ्कित भाव से होने वाली श्रद्धा और समर्पण ।
दव्वाण सव्वभावा उवदिट्ठा जे जहा जिणवरेहिं । ते तह सद्दहति नरो दंसणविणयो भवति तम्हा ॥
(दनि २९२ )
दर्शनश्राद्ध
वह सम्यकदृष्टि, जो व्रती नहीं है ।
‘दर्शनश्राद्धः' अविरतसम्यग्दृष्टिर्भवति । (बृभा १५४२ वृ) दर्शनसप्तक
मोहकर्म की वे सात प्रकृतियां, जो सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में अवरोध पैदा करती हैं । (बृभा ११८ वृ)
(द्र सम्यक्त्व)
दर्शनाचार
सम्यग्दर्शन की पुष्टि के लिए किया जाने वाला आचरण, जो निःशंकित आदि के भेद से आठ प्रकार का है। दर्शनं - सम्यक्त्वं तदाचारो निःशङ्कितादिरष्टधा । (स्था ५.१४७ वृ प ३०९ ) निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे
अट्ठ ॥ (उ २८.३१)
दर्शनावरणीय कर्म
वह कर्म, जिसके उदय से दर्शन - सामान्य बोध आवृत होता है।
दर्शनं – ''''सामान्यग्रहणात्मको बोधः तस्यावरणीयं दर्शना - वरणीयम् । (प्रज्ञा २३.१ वृ प ४५३)
दशपूर्वर
(द्र दशपूर्वी)
दशपूर्वी
वह मुनि, जो दश पूर्वो (उत्पादपूर्व यावत् विद्यानुवादपूर्व) का अध्ययन कर चुका है।
(व्यभा ४०३)
दशमभक्त
चार दिन का उपवास ।
दशममुपवासचतुष्टयलक्षणम् । ''''दसमेणं''।” दिनचतुष्कानन्तरं
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दशाश्रुतस्कन्ध
(व्यभा ४०३७)
(द्र दशा)
(प्रसावृ प १६९)
(द्र चतुर्थभक्त)
दशवैकालिक
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । श्रुतकेवली शय्यंभव द्वारा निर्यूढ वह आगम, जिसमें चरण - व्रत आदि, करणपिण्डविशुद्धि आदि तथा आचार - गोचर विधि का निरूपण किया गया है। (नन्दी ७७) अहिगारो । होंति ॥
अपुहत्तपुहत्ताइं निद्दिसिउं एत्थ होइ चरणकरणाणुयोगेण तस्स दारा इमे मागं पडुच्च सेज्जंभवेण निज्जूहिया दसज्झयणा । वेयालियाइं ठविया, तम्हा दसकालियं नामं ॥ (दनि ४,१४)
भुक्तवान्।
दशा
कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें असमाधिस्थान, गणसम्पदा, पर्युषणाकल्प आदि का विवरण है। चार छेदसूत्रों में से एक ।
(आभा ९.४.७ )
(नन्दी ७८) काचित् प्रतिविशिष्टावस्था यतीनां यासु वर्ण्यते ता दशाः । (तभा १.२० ) असमाहि य सबलत्तं, अणसादण गणिगुणा मणसमाही । सावग- भिक्खूपडिमा कप्पो मोहो निदाणं च ॥ (दशानि ८ )
(बृभा ६९३ वृ)
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दान अपने एवं पराये उपकार के लिए अपनी वस्तु का वितरण करना। स्वपरोपकारार्थवितरणं दानम्। (जैसिदी ९.१६) दानसम्भोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। सांभोजिक साधुओं द्वारा सांभोजिक अथवा अन्य सांभोजिक साधुओं को शिष्य आदि देना।। 'दायणे य'त्ति दानं, तत्र सम्भोगिकः सम्भोगिकाय (वस्त्रादिभिः शिष्यगणोपग्रहासमर्थे सम्भोगिके )ऽन्यसम्भोगिकाय वा शिष्यगणं यच्छन् शुद्धः। (सम १२.२ वृ प २२)
दानश्राद्ध वह श्रावक, जो दान में विशेष रुचि रखता है। 'दानश्राद्धः' दानरुचिः।
(बृभा १९२६ वृ)
दानान्तराय कर्म अन्तराय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से द्रव्य के होने पर भी व्यक्ति गुणवान पात्र को दे नहीं पाता, दान देने का महान फल जानते हुए भी दाता के मन में दान के लिए उत्साह नहीं होता। यदुदयवशात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रे दत्तमस्मै महाफलमिति जानन्नपि दातुं नोत्सहते तद्दानान्तरायम्।
(प्रज्ञा २३.५९ वृ प ४७५)
दावाग्निदापन कर्मादान का एक प्रकार। जंगल जलाकर आजीविका चलाना। दवाग्नेस्तृणादिदहननिमित्तं दानं-वितरणं दवदानम्।
(प्रसा २६६ वृ प ६३) दवग्गिदावणताकम्मं-वणदवं देति। (आवचू २ पृ २२६) दासी-दासप्रमाणातिक्रम
(तसू ७.२४) (द्र द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रम) दिक्कुमार भवनपति देवनिकाय का एक प्रकार । वह देववर्ग, जिसकी जङ्घाओं के अग्रभाग और पैर अधिक सुंदर होते हैं, जिसका चिह्न है-हाथी। जङ्गाग्रपादेष्वधिकप्रतिरूपा: श्यामा हस्तिचिह्ना दिक्कुमाराः।
(तभा ४.११) दिगाचार्य वह आचार्य, जो सचित्त. अचित्त और मिश्र वस्तु की अनुज्ञानिर्णय देता है। दिगाचार्यः-सचित्ताचित्तमिश्रवस्त्वनुज्ञायी।
(तभा ९.६ वृ पृ २०८) दिग्व्रत गृहस्थ धर्म का छठा व्रत, जिसमें लोभवृत्ति तथा आक्रामक मनोवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए ऊंची, नीची और तिरछी दिशा में जाने की सीमा की जाती है। जह लोहणासणटुं संगपमाणं हवेइ जीवस्स। सव्वदिसाण पमाणं तह लोहं णासए णियमा॥ जं परिमाणं कीरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं। उवओगं जाणित्ता गुणव्वदं जाण तं पढमं॥
(काअ ३४१, ३४२) दिसिवए तिविहे पण्णत्ते-उडदिसिवए अहोदिसिवए तिरिय-दिसिवए।
(आवपरि पृ २२) दिवसचरम प्रत्याख्यान का एक प्रकार । सूर्यास्त में एक मुहूर्त शेष रहे, तब चारों आहार (अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य)का प्रत्याख्यान करना।
दान्त वह मुनि, जो अपनी इन्द्रियों और नोइन्द्रिय (चार कषाय) का दमन करता है। दंते इंदिय-णोइंदियदमेणं, इंदियदमो सोइंदियदमादि पंचविधो, णोइंदियदमो कोधणिग्गहादि चतुविधो।
(सूत्र १.१६.१ चू पृ २४६) दायक दोष एषणा दोष का एक प्रकार । अंधे, पंगु, गर्भवती स्त्री आदि से आहार लेना। 'दायग' त्ति दायकदोषदुष्टं, दायकश्चानेकप्रकार:, तथाहि-आपन्नसत्त्वा बालवत्साएवमादिस्वरूपे दातरि ददति न कल्पते।
(प्रसा ५६८ वृ प १५१)
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दिवसचरिमं पच्चक्खाइ चउन्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं।
(आव ६.८)
दीर्घकालिकी संज्ञा अतीत, वर्तमान और भविष्य का दीर्घकालिक चिंतन। इह दीहकालिगी कालिगि त्ति सन्ना जया सुदीहं पि। संभरइ भूयमेस्सं चिंतेइ य किह णु कायव्वं ।।
(विभा ५०८) (द्र मन)
दिव्य ध्वनि महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। तीर्थंकर के समवसरण में धर्मोपदेश के समय देवों के द्वारा की जाने वाली ध्वनि। सरसतरसुधारससहोदरः"सकलजनानन्दप्रमोददायी दिव्यो ध्वनिर्वितन्यते।
(प्रसावृ प १०६) .."सव्वेसिं सन्नीणं, जोयणनीहारिणं भगवं॥ ..."साधारणेन' स्वस्वभाषापरिणमनसमर्थेन योजनव्यापिना शब्देन भगवान् धर्मं कथयति।"भगवतो दिव्यध्वनिरशेषाणामपि समवसरणवर्त्तिनां संज्ञिजन्तूनां जिज्ञासितार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनमुपजायते। (बृभा ११९३ वृ पृ ३७०)
दुक्खे
।
दुःख १. अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों में किया जाने वाला पाप कर्म। पावे कम्मे जे य कडे जे य कज्जइ जे य कज्जिस्सइ सव्वे से
(भग ७.१६०) २. इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से होने वाली ग्लानि। इष्टसंयोगाऽनिष्टनिवृत्तेराह्लादः सुखम्। तद्विपर्ययो दुःखम्। तस्याह्लादस्य विपर्ययो ग्लानिर्दःखमभिधीयते।
(जैसिदी ९.२२,२३ वृ)
दीक्षा
सर्व सावध प्रवृत्ति का आजीवन त्याग, महाव्रतों का स्वीकरण। ""दीक्षा तु व्रतसंग्रहः॥
(अचि ३.४८७) पापाद वजितः प्रव्रजितो भागवतीं दीक्षां प्रपन्न इत्यर्थः।
(विभा १६०४ वृ पृ५८९) (द्र प्रव्रज्या, सामायिकचारित्र) दीपक सम्यक्त्व तत्त्वश्रद्धा से शून्य मिथ्यादृष्टि व्यक्ति, जो दूसरे में तत्त्वश्रद्धा का उद्दीपन कर देता है, उसकी दृष्टि दीपक सम्यक्त्व कहलाती है। यत्तु स्वयं तत्त्वश्रद्धानरहित एव मिथ्यादृष्टिः परस्य धर्मकथादिभिस्तत्त्वश्रद्धानं दीपयत्युत्पादयति तत्संबन्धि सम्यक्त्वं दीपकमुच्यते, यथाऽङ्गारमर्दकादीनाम् , इदं सम्यक्त्वहेतुत्वात् सम्यक्त्वमुच्यते, परमार्थतस्तु मिथ्यात्वमेवेति।
(विभा २६७५ वृ पृ १४२) दीप्ततपस्वी वह मुनि, जिसका दीर्घकालीन उपवास करने पर भी कायिक, वाचिक और मानसिक बल प्रवर्धमान रहता है। उसका मुख दुर्गन्ध-रहित, श्वास उत्पल की भांति सुरभित और शरीर अप्रच्युत महादीप्ति वाला होता है। महोपवासकरणेऽपि प्रवर्धमानकायवाङ् मानसबलाः विगन्धरहितवदना: पद्मोत्पलादिसुरभिनिःश्वासा अप्रच्युतमहादीप्ति-शरीरा दीप्ततपसः।
(तवा ३.३६)
दुःखशय्या अश्रद्धा आदि के कारण मुनि-जीवन में असमाधि उत्पन्न करने वाली चित्त की अवस्था। दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावाः प्रवचनाश्रद्धानपरलाभप्रार्थनकामाशंसनस्नानादिप्रार्थनविशेषिताः प्रज्ञप्ताः।
(स्था ४.४५० वृ प २३५) दुःस्वरनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव का स्वर अप्रीतिकारक होता है। यदुदयात् स्वरः श्रोतृणामप्रीतये भवति।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४)
दुर्गति दुःखद गति, वह गति, जिसमें जीव सुख, सद्गुण आदि की दृष्टि से विपन्न होता है, जैसे-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति। तओ दग्गतीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-णेरड्यदुग्गती, तिरिक्खजोणियदुग्गती, मणुयदुग्गती। दुष्टा गतिर्दुर्गतिर्मनुष्याणां दुर्गतिर्विवक्षयैव तत्सुगतिरप्यभिधास्यमानत्वाद्।
(स्था ३.३७२ वृ प १३७)
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दुर्द्धर मति
दुष्प्रयुक्तकायक्रिया धारणामति का एक प्रकार । दुर्द्धर को धारण करना, जो नय कायिकी क्रिया का एक प्रकार। इन्द्रिय और मन के विषयों और भंगों से गहन है।
में आसक्त मुनि की काया की प्रवृत्ति। """"धारणमती"दुद्धरं धरेति।
(स्था ६.६४) दुष्प्रयुक्तस्य-दुष्टप्रयोगवतो दुष्प्रणिहितस्येन्द्रिया""दुद्धरनयभंगगुविलत्ता॥
(व्यभा ४११०) ण्याश्रित्येष्टानिष्टविषयप्राप्तौ मनाक्संवेगनिर्वेदगमनेन तथा
अनिन्द्रिय-माश्रित्याशुभमनःसंकल्पद्वारेणापवर्गमार्ग प्रति दुर्नय
दुर्व्यवस्थितस्य प्रमत्तसंयमस्येत्यर्थः कायक्रिया दुष्प्रयुक्तवह दृष्टिकोण, जो निरपेक्ष और एकान्तग्राही होता है।
कायक्रिया।
(स्था २.६ वृ प ३८) सदेव सत् स्यात् सदिति त्रिधार्थो,
(द्र अनुपरतकायक्रिया) मीयेत दुर्नीति-नय-प्रमाणैः।" (अन्ययो २८) ते सावेक्खा सुणया,
दुष्यम-दुष्षमा णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति। (काअ २६६)
काल का एकांत दःखमय विभाग। अवसर्पिणी का अन्तिम
तथा उत्सर्पिणी का पहला आरा। इसका कालमान इक्कीस दुर्भगनाम
हजार वर्ष होता है। नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से उपकारक और
दुष्ठु समा दुष्षमा-दुःखरूपा अत्यन्त दुष्षमा दुष्षम-दुष्षमा। संबंधी भी अप्रिय लगते हैं।
(स्था १.१३३ वृ प २५) यदुदयादुपकारकृदपि जनस्य द्वेष्यो भवति।
एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसम-दूसमा। (प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४)
(भग ६.१३) दुर्लभबोधिक
दुष्पम-सुषमा वह व्यक्ति, जिसे बोधि की प्राप्ति दुर्लभ है।
काल का दुःख-सुखमय विभाग। अवसर्पिणी का चौथा (भग ३.७२)
तथा उत्सर्पिणी का तीसरा आरा। इसका कालमान बयालीस दुष्ठुप्रतीच्छित
हजार वर्ष कम एक कोटाकोटी सागरोपम होता है। ज्ञान का एक अतिचार। ज्ञान को सम्यग भाव से ग्रहण न
(स्था १.१३१) करना।
एगा सागरोकमकोडाकोडी बायालीसाए।
वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसमसुसमा॥ दुष्ठु प्रतीच्छितं कलुषितान्तरात्मना। (आव ४.८ हावृ २ पृ १६१)
(भग ६.१३४)
दुष्षमा दुष्पक्वाहार
काल का दुःखमय विभाग। अवसर्पिणी का पांचवां तथा उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत का एक अतिचार। जो भोजन
उत्सर्पिणी का दूसरा आरा । इसका कालमान इक्कीस हजार अच्छी तरह से न पकाया गया हो. वैसा भोजन करना।
वर्ष होता है।
(स्था १.१३२) असम्यक्पक्वो दुष्पक्वः।।
(तवा ७.३५)
एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसमा। (भग ६.१३४) दुष्पक्वौषधिभक्षण
दूत विद्या उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत का एक अतिचार। अर्धपक्व
रोगी का दूत चिकित्सक के पास जाता है, जिस स्थान पर धान्य को पक्व मानकर खाना।
रोगी के दंश है, चिकित्सक दत के उस अवयव का दुष्पक्वा:-अस्विन्ना ओषधयस्तद्भक्षणता, अतिचारता
अपमार्जन करता है और रोगी स्वस्थ हो जाता है। चास्य पक्वबुद्ध्या भक्षयतः। (उपा १.३८ वृ पृ१५)
तया च दूतविद्यया यो दूत आगच्छति, तस्य दंशस्थानमप
माय॑ते । तेनेतरस्य दंशस्थानमुपशाम्यति।
(व्यभा २४४० वry.org
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
दूषण
दूतीपिण्ड
प्रवृत्ति। उत्पादन दोष का एक प्रकार। दूती की तरह संवाद बताकर । दृष्टेर्जाता दृष्टिजा अथवा दृष्टं-दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया भिक्षा लेना।
यस्यामस्ति सा दृष्टिका-दर्शनार्थं या गतिक्रिया, दर्शनाद मिथः सन्देशकथनं दूतीत्वम्, तत् कुर्वतो भिक्षार्थं दूतीपिण्डः।
वा यत्कर्मोदेति सा दृष्टिका वा। (स्था २.२० वृ प ३९) (योशा १.३८ वृ पृ १३५)
दृष्टिराग दूती परस्परसंदिष्टार्थकथिका तदभावस्तेन यल्लभ्यते स
राग का एक प्रकार। अपने दर्शन-सिद्धांत के प्रति होने दूतीपिण्डः।
(प्रसा ५६६ वृ)
वाला वह अनुराग, जो अप्रशस्त है, जिनमत से बाह्य है
वीतरागमार्ग से विमुख है। साधन के दोषों (असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक-इन त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रावादुकशतानामात्मीयात्मीयदर्शहेत्वाभासत्रयी) को प्रकट करना।
नानुरागो दृष्टिरागः। (आवनि ९१८ हावृ पृ २५८,२५९) साधनदोषोद्भावनं दूषणम्।
(प्रमी २.१.२८) (द्र राग)
दृष्टिवाद दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान
द्वादशाङ्ग श्रुत का बारहवां अङ्ग, जिसमें सर्वभावों की प्ररूपणा पूर्वदृष्ट पदार्थ की समानधर्मिता के आधार पर होने वाला
की गई है। ज्ञातव्य का अनुमान, जैसे—पूर्वदृष्ट एक रुपये के सिक्के के
दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणा आघविज्जइ। से समासओ आधार पर उस प्रकार के दूसरे सिक्कों को देखकर एक रुपये पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिकम्मे, सुत्ताई, पुव्वगए, का अनुमान लगाना।
अणुओगे, चूलिया॥
(नन्दी ९२) दृष्टोऽर्थो धर्मसमानतया अनुमितो दृष्टसाधर्म्यानुमानं नाम प्रमाणं भवति।
(अनु ५१९ चू पृ ७५)
दृष्टिवादोपदेश संज्ञा
संज्ञिश्रुत का एक प्रकार। दृष्टि के आधार पर होने वाला दृष्टान्त
संज्ञान-सम्यग्दृष्टि वाला जीव संज्ञी और मिथ्यादृष्टि वाला व्याप्ति की प्रयोगभूमि, जैसे-जहां-जहां धूम, वहां-वहां
जीव असंज्ञी। अग्नि, जैसे-रसोईघर।
तं खयोवसमियभावत्थं सम्मद्दिष्टुिं सणिण पडुच्च मिच्छाद्दिट्ठी प्रतिबन्धप्रतिपत्तेरास्पदं दृष्टान्तः। (प्रनत ३.४३)
असण्णी भणितो।
(नन्दी ६१ चू पृ ४७) दृष्टान्तपरिणामक
दृष्टिविपर्यासिका दण्ड परिणामक शिष्य का एक प्रकार, जो हेतुगम्य परोक्ष पदार्थ क्रिया का एक प्रकार। दृष्टि की विपरीतता (मति-विभ्रम) को प्रत्यक्ष प्रसिद्ध दृष्टांत से बुद्धि में आरोपित करता है, उस से होने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति । पर श्रद्धा करता है।
रज्ज्वामिव सर्पबुद्धिस्तया दण्डो दृष्टिविपर्यासदण्डः। परोक्खं हेउगं अत्थं, पच्चक्खेण उ साहयं।
(सूत्र २.२.२ वृ प ४५) जिणेहिं एस अक्खातो, दिटुंतपरिणामगो॥
(व्यभा ४६०९)
देव
१. वह प्राणी, जो अस्थि, मांस और रक्त की रचना से रहित, दृष्टि
भास्वर शरीर वाला तथा सब अङ्गोपाङ्ग से सुन्दर होने के दर्शनमोह के उदय या विलय से होने वाला आत्मपरिणाम।
कारण दिव्य रूप वाला होता है। जो विद्या, मंत्र आदि की (द्र दर्शन)
सहायता के बिना जन्म के अनन्तर ही आकाशगमन की दृष्टिजा क्रिया
शक्ति वाला होता है और जो देवगति नामकर्म के उदय से क्रिया का एक प्रकार। देखने के लिए होने वाली रागात्मक
उत्पन्न होता है।
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द्योतन्ते वा भास्वरशरीरत्वादस्थिमांसासूक्प्रबन्ध-रहितत्वात् सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरत्वाच्च देवाः।। अथवा विना विद्यामन्त्राञ्जनादिभिः पूर्वकृततपोऽपेक्षजन्मलाभसमनन्तरमेवाकाशगतिभाजो देवाः। (तभा ४.१ वृ) देवगतिनामकर्मोदये सति द्युत्याद्यर्थावरोधाद् देवाः।
(तवा ४.१) २. वैमानिक देव अथवा ज्योतिष्क और वैमानिक देव। (द्र देवेन्द्र) ३. वह प्राणी, जो दिव्य-क्रीड़ाशील है अथवा स्तुत्य है, आराध्य है, जैसे-अर्हत्, चक्रवर्ती आदि। दीव्यन्ति-क्रीडां कुर्वन्ति दीव्यन्ते वा-स्तूयन्ते वाऽऽराध्यतयेति देवाः। (भग १२.१६३ वृ) पंचविहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवियदव्वदेवा, णरदेवा, धम्मदेवा, देवातिदेवा, भावदेवा। (स्था ५.५३) । ४. वह पुरुष, जो सर्वज्ञ, वीतराग, यथास्थित अर्थ का प्रवक्ता, अर्हत् और परम ऐश्वर्यशाली होता है। सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः। यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन परमेश्वरः॥ (योशा २.४)
महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। तीर्थंकर के समवसरण में धर्मोपदेश के समय देवों के द्वारा दन्दभि का वादन होता है। 'दुंदुहि' त्ति देववाद्यविशेषः। (भग ५.६४ वृ) तारतरविस्फारभाङ्कारभरितभुवनोदरविवरा भेरयोमहाढक्काः क्रियन्ते।
(प्रसावृ प १०६) देवनिकाय चतुर्विध देव-समुदाय। देवाश्चतुर्निकायाः।
(तसू ४.१) चत्वारो निकाया-वासा येषां ते चत्वारो वा संघास्ते चतुर्निकायाः।""स्वधर्मापेक्षजातिविशेषसामर्थ्यान्निकायाः।
(तभा ४.१ वृ पृ २७३) (द्र देवलोक) देवलोक १. ऊर्ध्वलोक, स्वर्ग, जहां वैमानिक देवों के आलय हैं।
(उ ३.३ शावृ प १८२) २. चतुर्विध देवनिकाय-भवनवासी, वानमंतर, ज्यौतिषिक और वैमानिक।
चउव्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवासी-वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियभेदेणं। (भग ५.२५८)
देवकुरु महाविदेह का वह क्षेत्र (अकर्मभूमि), जो मंदरपर्वत से दक्षिण में निषध वर्षधर पर्वत से उत्तर में, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में, सौमनस वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में स्थित
देवातिदेव ..."देवातिदेवा""जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णनाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागयवियाणया सव्वण्णू सव्वदरिसी।
(भग १२.१६७) (द्र देवाधिदेव)
मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, विजुप्पहवक्खारपव्वयस्स परत्थिमेणं, सोम- णसवक्खार-पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता।
(जं ४.२०५) मन्दरनिषधयोर्दक्षिणोत्तरा: सौमनसविद्युत्प्रभयोर्मध्ये देवकुरवः।
(तभा २.५२ वृ) (द्र उत्तरकुरु) देवगति गतिनाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव देव पर्याय का वेदन करता है। (द्र नरकगति) देवदुन्दुभि
देवाधिदेव अर्हत् भगवान्, तीर्थंकर, जो देवों के भी देव होते हैं। वे चौबीस हैं-ऋषभ, अजित आदि। 'देवाइदेव' त्ति देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद् देवा देवातिदेवाः, 'देवाहिदेव' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र च देवानामधिका: पारमार्थिकदेवत्वयोगाद् देवा देवाधिदेवाः ।
(भग १२.१६३ वृ) चउव्वीसं देवाहिदेवा पण्णत्ता, तं जहा-उसभे"वद्धमाणे।
(सम २४.१) (द्र देव)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
नाणावरणचउक्कं दंसणतिगनोकसाय विग्घपाणं। संजलण देसघाई...॥
(पंसं ३.१८,१९)
देशघाति स्पर्धक वह कर्मशक्ति, जो आत्मगुणों के एक देश को आच्छादित करती है। विवक्षितैकदेशेनात्मगुणप्रच्छादिकाः शक्तयो देशघातिस्पर्धकानि भण्यन्ते।
(बृद्रसं ३४ वृ पृ७९)
देवायुष्क आयुष्य कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव देवअवस्था का अनुभव करता है। आयुरेवायुष्कम्"देवानां भवनवास्यादिभेदानामिदं दैवम्।
(तभा ८.११७) देवेन्द्र वह इन्द्र, जो वैमानिक देवों अथवा ज्योतिष्क देवों का अधिपति होता है। तओ इंदा पण्णत्ता, तं जहा-देविंदे असुरिंदे मणुस्सिंदे। देवा-वैमानिका ज्योतिष्कवैमानिका वा रूढेः असुरा:-- भवनपतिविशेषा भवनपतिव्यन्तरा वा सुरपर्युदासात्।
(स्था ३.३ वृ प ९८) देवेन्द्रस्तव उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। वह अध्ययन, जिसमें देवेन्द्रों की स्थिति, भवन, विमान, नगर, उच्छवास-नि:श्वास आदि का वर्णन है।
(नन्दी ७७) देवेन्द्रोपपात कालिक श्रुत का एक प्रकार । वह अध्ययन, जिसका परावर्तन करने से देवेन्द्र उपस्थित हो जाता है। (नन्दी ७८) (द्र अरुणोपपात)
देशचारित्र अपूर्ण चारित्र। अणुव्रत और शिक्षाव्रत। देशतश्चाणुव्रतशिक्षाव्रते।
(जैसिदी ६.२२) (द्र देशव्रत) देशविरत जीवस्थान संयताऽसंयतो देशविरतः।
(जैसिदी ७.७) देशेन-अंशरूपेण व्रताराधक इत्यर्थः। (जैसिदी ७.७ वृ) (द्र विरताविरत)
देश
वस्तु का वह अंश, जो वस्तु से पृथक् नहीं होता, किन्तु उपयोगितावश बुद्धि द्वारा उसके अंश होने की कल्पना की। जाती है। वस्तुनोऽपृथग्भूतो बुद्धिकल्पितोंऽशो देश उच्यते।
(जैसिदी १.३० वृ) देशकालज्ञता लोकोपचारविनय का एक प्रकार। देश और काल का ज्ञान होना, अवसरज्ञ होना। देशकालज्ञता-अवसरज्ञता। (स्था ७.१३७ वृप ३८८)
देशविराधक १. वह व्यक्ति, जो शीलसम्पन्न नहीं है किन्तु श्रुतसम्पन्नधर्म को जानने वाला है। पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं-अणुवरए, विण्णाय-धम्मे एस णं गोयमा! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते।
(भग ८.४५०) २. वह मुनि, जो चतुर्विध धर्मसंघ के अप्रिय व्यवहार को सम्यक सहन करता है किन्तु अन्यतीर्थिक और गृहस्थ को सम्यक् सहन नहीं करता। जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं य सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, बहणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइ-एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते।
(ज्ञा ११.३)
देशघाति घातिकर्म की वह प्रकृति, जो ज्ञान आदि आत्म-गुणों के एक देश का घात करती है, जैसे–मतिज्ञानावरण आदि। ..."तस्सेस देसघाइत्तणा उ पण देसघाईओ॥
देशव्रत श्रावक के लिए निर्धारित आचारसंहिता।
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'देशव्रतानि' स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि।
लेकर उत्कृष्टतः सम्पूर्ण लोक के रूपी द्रव्यों को जानने की
(बृभा ५०२४ वृ) क्षमता रखता है। (द्र देशचारित्र)
..."देसोही वि सव्वोही वि॥
(प्रज्ञा ३३.३३)
"पुनरपरेऽवधेस्त्रयो भेदाः-देशावधि: परमावधि: सर्वावधिदेशस्नान
श्चेति।"उत्सेधागुलासंख्येयभागक्षेत्रो देशावधिर्जघन्यः । मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार।शौचस्थानों के अतिरिक्त
उत्कृष्टः कृत्स्नलोकः।
(तवा १.२२.४) नेत्र-केश आदि का प्रक्षालन करना ।
(द्र अधोवधि) देससिणाणं लेवाडयं मोत्तूण सेसं अच्छिपम्हपक्खालणमेत्तमवि देससिणाणं भवइ। (दजिचू पृ ११२) देहप्रलोकन (द्र स्नान)
मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार । तैल, पानी या दर्पण
में मुंह देखना। देशाराधक
देहप्रलोकनं च आदर्शादावनाचरितम्। १. वह व्यक्ति, जो शीलसम्पन्न है किन्तु श्रुतसम्पन्न-धर्म
(द ३.३ हावृ प ११७) को जानने वाला नहीं है। पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं असुयवं-उवरए, दोगुन्दक अविण्णाय-धम्मे एस णं गोयमा! मए पुरिसे देसाराहए त्रायस्त्रिंश जाति के देव, जो सदैव भोग में रत रहते हैं। पण्णत्ते।
त्रायस्त्रिंशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुंदगा इति भण्णंति। (भग ८.४५०)
(उ १९.३ शावृ प ४५१) २. वह मुनि, जो अन्यतीर्थिक और गृहस्थ के अप्रिय व्यवहार को सम्यक् सहन कर लेता है किन्तु चतुर्विध धर्मसंघ के
दोष व्यवहार को सम्यक् सहन नहीं करता।
अप्रीत्यात्मक जीवपरिणाम, जिसका क्रोध और मान के रूप जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए
में संवेदन होता है। मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं दोसो विवागपच्चइयो; कोह-माण-अरदि-सोग-भयअण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म सहइखमइ तितिक्खइ दुगुंछाणं दव्वकम्मोदयजणिदत्ताओ। (धव पु१४ पृ११) अहियासेइ, बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं (द्र द्वेष) बहूणं सावियाणं य नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइएस णं मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते। (ज्ञा ११.५)
दोष पाप
(भग १.२८६) देशावकाशिक
(द्र द्वेष पाप) गृहस्थ धर्म (श्रावक) का दसवां व्रत, जिसमें दिग्व्रत की निर्धारित सीमा का अल्पकाल के लिए पुनः संकोच करना
द्रव्य होता है।
१. जिसके आश्रय में गुण रहते हैं। गृहीतस्य दिक्परिमाणस्य दीर्घकालस्य यावज्जीवनसंवत्सर
गुणाणमासओ दव्वं।
(उ २८.६) ..."प्रत्यहं तावत्परिमाणस्य गन्तुमशक्तत्वात् प्रतिदिनं
२. जो गुण और पर्याय से युक्त हैं। प्रतिदिवसमित्येतच्च "दिवसादिगमनयोग्यदेशस्थापनं गुणपर्यायवद्रव्यम्।
(तसू ५.३७) प्रतिदिन-प्रमाणकरणं देशावकाशिकम्।
३. जो सत् है, जिसका अस्तित्व है। (आवहावृ २ पृ २३०) यत् सत् तद् द्रव्यम् ।
(भिक्षु ५.८ वृ) देशावधि
४. वह मुनि, जो राग-द्वेष रहित है, वीतराग है।
५. वीतराग की भांति आचरण करने वाला, अल्पकषायी। वह अवधिज्ञान, जो उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग से ।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
६. भव्य प्राणी, जो मुक्तिगमन के योग्य है।
एकत्र अवस्थिति। रागद्दोसविमुक्को दविओ, वीतराग इत्यर्थः, अधवा वीतराग द्रव्यस्य भावो द्रव्यत्वम्।
(आप पृ २१८) इव वीतरागः।
(सूत्र १.८.१० चू पृ १६८) द्रव्यो भव्यो मुक्तिगमनयोग्य:."यदि वा वीतराग इव
द्रव्यदिशा
दस दिशाओं के उत्थान का कारणभूत द्रव्य। वीतरागोऽल्पकषाय इत्यर्थः।
दशदिक्स्थाननिबन्धनं यद् द्रव्यं सा द्रव्यदिग्। (सूत्र १.८.१० वृप १७०)
(विभा १४७ वृ) द्रव्य अवमोदरिका
द्रव्यनिक्षेप उपकरण और भोजन के अल्पीकरण का प्रयोग।
निक्षेप का एक प्रकार। दव्वोमोदरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवगरण-दव्वो- १. किसी पदार्थ की विवक्षित क्रिया-परिणति से शून्य अतीत मोदरिया य भत्तपाणदव्योमोदरिया य। (औप ३३) और भविष्य की अवस्था। जैसे-पहले रह चुका अथवा द्रव्य आत्मा
बाद में बनने वाला उपाध्याय। चैतन्यमय अविभाज्य असंख्येय प्रदेशों का स्कन्ध ।
२. अनुपयोग, अध्यवसाय-शून्य अवस्था। त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीकृतकषायादिपर्यायं तद्रूप आत्मा
भूतभाविभावस्य कारणम् अनुपयोगो वा द्रव्यम्। द्रव्यात्मा सर्वेषां जीवानां"।"द्रव्यात्मत्वं जीवत्वमित्यर्थः ।
(जैसिदी १०.८) (भग १२.२००,२०१ वृ) द्रव्यनिर्जरा (द्र जीव)
तप आदि शुभयोग की प्रवृत्ति द्वारा होने वाली कर्म-पुद्गलों द्रव्य आश्रव
की जीव से विच्युति।
कर्मणो गलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा। १. भाव आश्रव के द्वारा आकृष्ट होने वाले कर्म-पुद्गल। परिणमदिकम्मरूवं तं पिहूदव्वासवं जीवे। (नच १५२)
(बृद्रसं ३६ वृ पृ ११९) २. ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के योग्य पुद्गलों का आत्मा में द्रव्यपरमाणु आगमन अथवा आस्रवण।
मूल परमाणु, जो अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य होता णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ..॥
(बृद्रसं ३१)
दव्वपरमाणू"अच्छेज्जे, अभेज्जे, अडझे, अगेझे। (द्र भाव आश्रव)
(भग २०.३८) द्रव्यकर्म
(द्र परमाणु) ज्ञानावरण आदि कर्मों के रूप में परिणत पुदगल-द्रव्य।
द्रव्यपाप कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावो त्ति होदि दुविहं तु।
वह अशुभ कर्म-पुद्गलसमूह, जो बद्ध अवस्था में है, उदयपोग्गलपिंडो दव्वं॥
(गोक ६)
अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है। (द्र भाव कर्म)
(द्र भावपाप) द्रव्यजिन
द्रव्यपुण्य तीर्थंकर की केवलज्ञान से पूर्ववर्ती अवस्था।
वह शुभ कर्म-पुद्गलसमूह, जो बद्ध अवस्था में है, उदयजे छउमत्था, वाहिं वा वेरियं वा जे जिणंति ते दव्वजिणा।
अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है। (दअचू पृ ११)
(द्र भावपुण्य) द्रव्यत्व
सामान्य गुण का एक प्रकार। ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय की
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द्रव्यप्रमाण
वह द्रव्य, जो माप का साधन है, जैसे- पल, तुला आदि । प्रमेयभेदात् द्रव्यादयोऽपि प्रमाणम् । (अनुहावृ पृ ७५) पल- तुला- कुडवादीणि दव्वपमाणं, दव्वंतरपरिच्छित्तिकारणत्तादो । (कप्रा १.२७ वृ पृ ७५ ) (अनुहा पृ ७५)
प्रमेयभेदात् द्रव्यादयोऽपि प्रमाणम् ।
द्रव्यबन्ध
जी के सत्-असत् परिणामों से होने वाला कर्म - पुद्गलों
का ग्रहण |
झद कम्मं जे दु चेदणभावेण भावबंधो सो । कम्मादपदेसाणं अण्णोपणपवेसणं
इदरो ॥
(द्र भावबन्ध)
(बृद्रसं ३२)
द्रव्यमन
मन के रूप में परिणत मनोवर्गणा की पुद्गल - राशि । मनस्त्वेन परिणतानि पुद्गलद्रव्याणि द्रव्यमनः । (जैसिदी २.४१ वृ)
(द्र भावमन)
द्रव्यलेश्या
१. भावलेश्या के परिणमन में आधारभूत कृष्ण आदि पुद्गल
- द्रव्य ।
द्रव्यलेश्या नाम - जीवस्य शुभाशुभपरिणामरूपायां भावलेश्यायां परिणममानस्योपष्टम्भजनकानि कृष्णादीनि पुद्गलद्रव्याणि । (बृभा १६४४ वृ) २. वर्णनामकर्म के उदय से होने वाला शरीर का वर्ण । वणोदयेण जाणिदो सरीरवण्णो दु दव्वओ लेस्सा।
( गोजी ४९४ )
३. आभामण्डल ।
लेश्या - अतीवचक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया । (उशावृ प ६५० )
(द्र भावलेश्या)
द्रव्यलोक
द्रव्यमय लोक, जैसे- धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य, जीव- अजीव, रूपी - अरूपी, सप्रदेश- अप्रदेश और नित्य - अनित्य द्रव्य । द्रव्यलोको द्रव्याण्येव धर्मास्तिकायादीनि, आह च
"जीवमजीवे रूविमरूवि सपएसे अप्पएसे य । जाणाहि दव्वलोयं निच्चमणिच्चं च जं दव्वं ॥ " (भग ११.९० वृ)
१४५
द्रव्यव्युत्सर्ग
व्युत्सर्ग का एक प्रकार, जिसमें शरीर, गण, उपधि और भक्तपान का विसर्जन किया जाता है।
दव्वविउस्सग्गे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - सरीरविउस्सग्गे, गणविसग्गे, उवहिविउस्सग्गे, भत्तपाणविउस्सग्गे ।
(औप ४४)
(द्र व्युत्सर्ग)
द्रव्यशस्त्र
(आभा पृ ३४)
(द्र शस्त्र)
द्रव्यश्रुत
भावश्रुत में सहायक बनने वाले शब्द और संकेत । द्रव्यश्रुतं - शब्दसंकेतादिरूपम् । (जैसिदी २.२२ वृ) दव्वसुयं सणा-वंजणक्खरं, भावसुत्तमियरं तु । संज्ञाक्षरं, व्यञ्जनाक्षरं वैते द्वे अपि भावश्रुतकारणत्वाद् द्रव्यश्रुतं, इतरत्तु लब्ध्यक्षरं भावश्रुतम् ।
(विभा ४६७ वृ पृ २१८ ) .......वर्णपदवाक्यात्मकं वचनं पौद्गलिकत्वाद् द्रव्यश्रुतम् अर्थज्ञानात्मकस्य भावश्रुतस्य साधनं भवति ।
( भिक्षु ४.२ वृ)
(द्र भावश्रुत)
द्रव्य हिंसा
मुनि के द्वारा अप्रमत्त अवस्था में होने वाला अपरिहार्य अथवा अशक्य कोटि का जीव-वध ।
या पुनर्द्रव्यतो न भावतः सा खल्वीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गच्छत इति । (दहावृ प २४ ) उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्जा ॥ न य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो वि देसिओ समए । अणवज्जो उ पओगेण सव्वभावेण सो जम्हा ॥
(ओनि ७४८, ७४९)
(द्र भावहिंसा)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
द्विचक्षुः
द्रव्यानुपूर्वी
सूत्रकृत आदि। आनुपूर्वी का एक प्रकार । आनुपूर्वी का द्रव्यनिक्षेपात्मक रूप, "द्वादशाङ्गं' श्रुतपरमपुरुषोत्तमस्याङ्गानीवाङ्गानिद्वादशअङ्गानिजिसका प्रयोजन है-द्रव्य की संरचना का क्रम और द्रव्य
आचारादीनि यस्मिंस्तद् द्वादशाङ्गम्। का क्रम बतलाना। (अनु १०५)
(नन्दी ६५ हावृ पृ६४)
वालसंगं गणिपिडकं, तं जहा-आयारो, सूयगडो, ठाणं, द्रव्यानुयोग
समवाओ, वियाहपण्णत्ती, नायाधम्मकहाओ, उवासगजिससे जीव आदि द्रव्यों के द्रव्यत्व की व्याख्या की जाती
दसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावा
गरणाइं, विवागसुयं, दिट्ठिवाओ। (नन्दी ६५) यज्जीवादेव्यत्वं विचार्यते स द्रव्यानुयोगः।
द्वादशाङ्गी (स्था १०.४६ वृ प ४५६)
वह मुनि, जो द्वादशाङ्ग (बारह अङ्गों) का धारक होता है। द्रव्यार्थिक नय
(औप २६) मूल नय का पहला प्रकार। ज्ञाता का वह अभिप्राय, जो (द्र समस्तगणिपिटकधर) पर्याय को गौण कर द्रव्य को ग्रहण करता है, जिसके द्वारा द्रव्य के ध्रौव्यांश पर विचार किया जाता है।
द्विचक्षुष्मान्। वह जीव, जिसके सामान्य चक्षु और अतीन्द्रिय पज्जय गउणं किच्चा दव्वं पि य जो हु गिण्हइ लोए।
ज्ञान-अवधिज्ञानरूपी चक्ष-ये दो चक्ष होते हैं. जैसेसो दव्वत्थिय भणिओ विवरीओ पज्जयत्थिणओ।
देव। (नच १८९)
देवे बिचक्खू। दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्नमविणहूँ। उप्पजंति नियंति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स।
देवो द्विचक्षुः चक्षुरिन्द्रियावधिभ्याम्। (सप्र १.११)
(स्था ३.४९९ वृप १६१) (द्र पर्यवनय, पर्यायार्थिक नय)
द्वितीयपद द्रव्यास्तिक नय
अपवादमार्ग, मुनि के लिए किया जाने वाला विशेष व्यवस्था (सप्र १.३)
का विधान, जो सामान्य व्यवस्था के अपवादरूप में होता है। (द्र द्रव्यार्थिक नय)
बिइयपद तेण सावय, भिक्खे वा कारणे व आगाढे।
कज्जुवहि मगर छुब्भण, नावोदग तं पि जतणाए। द्रव्येन्द्रिय
(बृभा ५६६३) इन्द्रिय की रचना और इन्द्रियज्ञान की उपकारक शक्ति। द्वितीयसमवसरण 'दविदियाई ति निर्वृत्त्युपकरणलक्षणानि।
चतुर्मास अथवा वर्षाकाल के अति-रिक्त शेष आठ महीने (भग १.३४१ वृ)
का कालमान । ऋतुबद्धकाल, शेषकाल। (बृभा ४२३५ वृ) द्वादशभक्त
(द्र प्रथमसमवसरण) पांच दिन का उपवास।
द्विधाखा श्रेणि द्वादशमुपवासपञ्चकलक्षणं तप इति। (प्रसावृ प १६९) आकाशश्रेणि का एक प्रकार । वह श्रेणि, जिसमें स्थावर जीव दवालसमेण""दिनपञ्चकानन्तरं भुक्तवान्।
त्रसनाड़ी के किसी एक पार्श्व (दाएं या बांए) से उसमें (आभा ९.४.७)
प्रवेश कर उसके बाह्यवर्ती दूसरे पार्श्व में दो या तीन घुमाव द्वादशाङ्ग
लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है। तब उसके त्रसनाड़ी वह श्रुतपुरुष, जिसके बारह अङ्ग होते हैं, जैसे--आचार,
___ के बाहर का दोनों ओर का आकाश स्पृष्ट होता है। इसलिए
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ल,
जिसका
'द्विधाखा' श्रेणि कहलाती है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार की होती है।
(देखें चित्र पृ ३४१) 'दुहओखह' त्ति नाड्या वामपार्खादेर्नाडी प्रविश्य तयैव गत्वाऽस्या एव दक्षिणपादिौ ययोत्पद्यते सा द्विधाखा, नाडीबहिर्भूतयोमिदक्षिणपार्श्वलक्षणयोर्द्वयोराकाशयोस्तया स्पृष्टत्वादिति, स्थापना चेयम्। (भग २५.९१ वृ प ८६८) द्विधावक्रा श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार । जीव अथवा पुद्गल की दो घुमाव वाली गति का पथ, जिसमें एक गति से दूसरी गति में जीव दो मोड लेकर तीन समय में उत्पन्न होता है। जब मरणस्थान की अपेक्षा से उत्पत्तिस्थान नीचे वाले या ऊपर वाले प्रतर में विश्रेणि में होता है, तब इस श्रेणि से गति होती है। जब जीव ऊंचे लोक के अग्निकोण (पूर्व-दक्षिण) में मरकर नीचे लोक के वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में उत्पन्न होता है तब वह पहले समय में अग्नि कोण से तिरछी-गति कर नैऋत कोण की ओर जाता है। दूसरे समय में वहां से तिरछा होकर वायव्य कोण की ओर जाता है। तीसरे समय में नीचे वायव्य कोण में जाता है। यह तीन समय की गति त्रसनाड़ी अथवा उसके बाहरी भाग में होती है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार होती है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'दुहओवंक' त्ति यस्यां वारद्वयं वक्रं कुर्वन्ति सा द्विधावक्रा, इयं चोर्ध्वक्षेत्रादाग्नेयदिशोऽधः क्षेत्रे वायव्यदिशि गत्वा य उत्पद्यते तस्य भवति, तथाहि-प्रथमसमये आग्नेय्यास्तिर्यग् नैर्ऋत्यां याति ततस्तिर्यगेव वायव्यां ततोऽधो वायव्यामेवेति, त्रिसमयेयं त्रसनाड्या मध्ये बहिर्वा भवतीति।
(भग २५.९१ वृ प ८६८) दुहओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा।
(भग ३४.३) यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमधस्तने उपरितने वा प्रतरे विश्रेण्यां स्यात्तदा द्विवक्राश्रेणिः स्यात् समयत्रयेण चोत्पत्तिस्थानावाप्तिः स्यादित्यत उच्यते। (भग ३४.३ ७ प ९५७) द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रम इच्छापरिमाण व्रत का एक अतिचार। अनजान में अथवा अतिलोभ के कारण मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना।
(उपा १.३६) (द्र धनधान्यप्रमाणातिक्रम)
द्वीन्द्रिय वह प्राणी, जिसके स्पर्शन और रसन-ये दो इन्द्रियां होती हैं, जैसे-शंख, शुक्ति, कृमि आदि। स्पर्शनरसनेन्द्रियद्वययुक्ताः शंखशुक्तिकृम्यादयो द्वीन्द्रियाः।
(बृद्रसं ११ वृ पृ २३) द्वीपकुमार भवनपति देवनिकाय का एक प्रकार । वह देववर्ग, जिसका वक्षस्थल, स्कन्ध, बाहुओं का अग्रभाग और हाथ अधिक सुन्दर होता है, जिसका चिह्न है-सिंह। उर:स्कन्धबाह्वग्रहस्तेष्वधिकप्रतिरूपा: श्यामावदाताः सिंहचिह्ना द्वीपकुमाराः।
(तभा ४.११ वृ) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति कालिक श्रुत का एक प्रकार, जो बाईस प्रकीर्णकों में से एक है। वह अध्ययन, जिसमें द्वीपों और सागरों तथा उनमें रहने वाले ज्योतिष्क, वानमंतर और भवनवासी देवों के आवास का वर्णन है।
(नन्दी ७८) जा दीवसागरपण्णत्ती सा दीवसायराणं तत्थट्रियजोयिसवण-भवणावासाणं"वण्णणं कुणइ।
(कप्रा १ पृ १३३)
प्रतिरू
जीव का वह परिणाम, जो अप्रीति और दुःख उत्पन्न करता है, जैसे-क्रोध, मान आदि। 'दोसे'त्ति द्वेषणं द्वेषः दूषणं वा दोषः स चानभिव्यक्तक्रोधमानलक्षणभेदस्वभावोऽप्रीतिमात्रमिति।
(स्था १.१०१ वृ प २४) दुःखाभिप्रायो द्वेषः।
(जैसिदी ९.१२) (द्र दोष)
द्वेष पाप पापकर्म का ग्यारहवां प्रकार। द्वेषात्मक प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध।
(आवृ प ७२)
द्वेष पापस्थान पापस्थान का ग्यारहवां प्रकार। वह कर्म, जिसके उदय से जीव द्वेष में प्रवृत्त होता है।
(झीच २२.२२) (द्र मान पापस्थान)
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द्वेषप्रत्यया क्रिया
धर्म क्रिया का एक प्रकार। द्वेष के कारण होने वाली प्रवृत्ति । १. जो आत्मशुद्धि का साधन है, आत्मोदय करने वाला है द्वेषः क्रोधमानलक्षणः। (स्था २.३५ वृ प ४०) तथा जो लोकधर्म से भिन्न है।
आत्मशुद्धिसाधनं धर्मः॥ द्वैक्रियवाद
आत्मोदयकारकत्वेन लोकधर्मादसौ भिद्यते॥ प्रवचननिह्नव का पांचवा प्रकार। यथार्थ का अपलाप करने
(जैसिदी ८.३,१२) वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार एक ही क्षण में एक साथ (द्र लोकधर्म) दो क्रियाओं का अनुवेदन हो सकता है।
२. जो गतिसहायक द्रव्य है। सूत्रेऽभिहितमेका क्रियैकदा वेद्यते शीता वोष्णा वा, अहं गइलक्खणो उ धम्मो...।
(उ २८.९) च द्वे क्रिये वेदयामि अतो द्वे क्रिये समयेनैकेन वेद्यते इति।
(द्र धर्मास्तिकाय) (स्था ७.१४० वृ प ४१२)
३. जो वस्तु का स्वभाव है। धम्मो सभावो लक्खणं।
(दअचू पृ १०)
धर्मकथा धनधान्यप्रमाणातिक्रम
स्वाध्याय का पांचवां प्रकार।
(उ २९.२४) इच्छापरिमाण व्रत का एक अतिचार। धन और धान्य के । (द्र धर्मोपदेश) प्रमाण का अतिक्रमण करना, अनजान में अथवा अतिलोभ
धर्मकथी के कारण स्वीकृत प्रमाण से अतिरिक्त धनराशि को किसी
वह मुनि, जो धर्मकथा की प्रवृत्ति में नियुक्त होता है। दूसरे के पास धरोहर के रूप में रखना। तीव्रलोभाभिनिवेशादतिरेकाः प्रमाणातिक्रमाः।
(व्यभा १९४३) (तवा ७.२९)
धर्मजागरिका 'धणधण्णपमाणातिक्कमे' त्ति अनाभोगादेरथवा लभ्यमानं
मध्यरात्रि में किया जाने वाला धर्मचिन्तनपूर्वक जागरण। धनाद्यभिग्रहावधिं यावत्परगृह एव बन्धनबद्धं कृत्वा धारय
धर्माय धर्मचिन्तया वा जागरिका-जागरणं धर्मजागरिका। तोऽतिचारोऽयमिति। दुपयचउप्पयपमाणातिक्कमे'त्ति अय
(भग १२.१५ वृ) मपि तथैव।
(उपा १.३६ वृ पृ१४)
धर्मदान धरणा
वह दान, जो संयमी को दिया जाता है। धारणा की पहली अवस्था, जिसमें अवधारित विषय की
धर्मकारणं यत्तद्धर्मदानं धर्मे एव वा, उक्तं चअंतर्मुहूर्त तक अविच्युति बनी रहती है।
समतृणमणिमुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः। अवायाणंतरं तमत्थं अविच्चुतीए जहण्णुक्कोसेणं अंतमुहुत्तं
अक्षयमतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्माय॥ धरेंतस्स धरणा भण्णति। (नन्दी ४९ चू पृ३७)
(स्था १०.९७ वृ प ४७१) धरणोपपात
धर्मदेव कालिक श्रुत का एक प्रकार। वह अध्ययन, जिसमें धरण
वह मनुष्य, जो मुनि-दीक्षा में दीक्षित होता है, समितिनामक देव की वक्तव्यता है, जिसका परावर्तन करने से धरण
गुप्ति से युक्त होता है। नामक देव उपस्थित हो जाता है।
धर्मप्रधाना देवा धर्मदेवाः-चारित्रवन्तो देवानां मध्ये अति(नन्दी ७८ मवृ प २०६) शयवन्तो देवाः।
(स्था ५.५५३ वृ प २८८) (द्र अरुणोपपात)
जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया जाव गुत्तबंभयारी। से..."धम्मदेवा॥
(भग १२.१६६)
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धर्मध्यान प्रशस्त ध्यान का एक प्रकार। वस्तुधर्म--सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता। (तसू ९.२९) (द्र धर्म्यध्यान)
धर्मरुचि १. रुचि का एक प्रकार। केवलिप्रज्ञप्त धर्म में होने वाली रुचि। २. धर्मरुचिसम्पन्न व्यक्ति। सो अस्थिकायधम्मं, सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च। सद्दहइ जिणाभिहियं, सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो॥
(उ २८.२७) धर्मलेश्या प्रशस्त भावधारा । तेजः, पद्म और शुक्ल-ये तीन लेश्याएं, जिनसे जीव प्रायः सुगति में उत्पन्न होता है। तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गई उववज्जई बहुसो॥
__ (उ ३४.५७)
धर्मी जो अनुमानकाल में साध्य बनता है। पक्ष इसका पर्यायवाची नाम है। अनुमितौ तु साध्यधर्मविशिष्टोधर्मी, यथा अग्निमान् पर्वतः । धर्मी एव पक्षः।
(भिक्षु ३.९ वृ) धर्मोपदेश उन्मार्ग से निवर्तन, संदेह से व्यावर्तन और अपूर्व पदार्थों के प्रकाशन के लिए किया जाने वाला धर्म का उपदेश। उन्मार्गनिवर्तनार्थं संदेहव्यावर्त्तनापूर्वपदार्थप्रकाशनार्थं धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश इत्याख्यायते। (तवा ९.२५) धर्म्यध्यान सत्य को जानने के लिए किया जाने वाला विचयध्यान। आज्ञा-अपाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम्।
(जैसिदी ६.४३) (द्र धर्मध्यान, विचयध्यान) धातकीखण्ड अर्धतृतीय (अढ़ाई) द्वीप का एक भाग। वह द्वीप, जो कालोद समुद्र से परिक्षिप्त है, जिसका विस्तार आठ लाख योजन है। धातकीखण्डद्वीपः कालोदसमुद्रेण परिक्षिप्तः। (तभा ३.८) (द्र अर्धतृतीय द्वीप, समयक्षेत्र) धात्रीपिण्ड उत्पादन दोष का एक प्रकार। धाय की तरह बालक को क्रीड़ा आदि में प्रवृत्त कर भिक्षा लेना। बालस्य क्षीर-मन्जन-मण्डन-क्रीडनाऽझरोपणकर्मकारिण्यः पञ्च धात्र्यः । एतासां कर्म भिक्षार्थं कुर्वतो मुनेर्धात्रीपिण्डः ।
(योशा १.३८ वृ पृ १३५)
धर्मान्तेवासी वह शिष्य, जो धर्म का प्रतिबोध पाने के लिए गुरु की . सन्निधि में रहता है, गुरु की उपसम्पदा स्वीकार करता है। धर्मान्तेवासी धर्मप्रतिबोधनत: शिष्यः, धार्थितयोपसम्पन्नो वेत्यर्थः।
(स्था ४.४२४ वृप २३०)
धर्मास्तिकाय द्रव्य अथवा अस्तिकाय का एक प्रकार। गति तत्त्व, अधर्मास्तिकाय का प्रतिपक्षी। गतिक्रिया में प्रवृत्त होने वाले जीव और पुद्गलों की गति में उदासीन भाव से अनन्य सहायक द्रव्य, जो द्रव्य की अपेक्षा से एक द्रव्य है, शाश्वत है, अरूपी है, लोकप्रमाण है, असंख्येयप्रदेशी है। गमनप्रवृत्तानां जीवपुद्गलानां गतौ उदासीनभावेन अनन्यसहायकं द्रव्यं धर्मास्तिकायः। (जैसिदी १.४ वृ) । दव्वओणं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे।खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते। कालओ'सासए"।भावओ अवण्णे अगंधे अरसे अफासे। गणओ गमणगणे"असंखेज्जा धम्मत्थिकायपएसा"।
(भग २.१२५,१३४) (द्र अधर्मास्तिकाय)
धारणा १. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार। अवाय के अनंतर निर्णीत अर्थ (निर्णयात्मक ज्ञान) की अवस्थिति, जो
अविच्युति, वासना और स्मृति रूप है। तयणंतरं तयत्थाविच्चवणं जो य वासणाजोगी। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥
(विभा २९१)
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२. धारणा की दूसरी अवस्था, जिसमें अवधारित विषय अनुपयोग के कारण विच्युत हो जाता है। तमेव अत्थं अणुवयोगत्तणतो विच्चुतं जहण्णेणं अंतमुहुत्तातो परतो दिवसादिकालविभागेस संभरतो य धारणा भण्णति।
(नन्दी ४९ चू पृ ३७) ३. योग साधना का एक प्रकार, जिसमें चित्त को किसी एक ध्येय में सन्निविष्ट किया जाता है। ध्येये चित्तस्य स्थिरबन्धो धारणा। (मनो ४.१५)
माण्डलिक दोष का एक प्रकार, जो अरस भोजन और उसके दाता की निन्दा करने से उत्पन्न होता है। इस दोष का सेवन करने वाला मुनि चारित्ररूपी ईंधन को जलाकर धुआं पैदा कर देता है। निन्दन् पुनश्चारित्रेन्धनं दहन् धूमकरणाद् धूमो दोषः।
_(योशा १.३८ वृ पृ १३८)
धूमनेत्र
धृति
धारणा व्यवहार
अनाचार का एक प्रकार, जिसमें नलिका द्वारा औषधीय व्यवहार का एक प्रकार। संविग्न गीतार्थ के द्वारा विधि
धूम्रपान किया जाता है, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। निषेध तथा प्रायश्चित्त के लिए प्रयुक्त विधि का अवधारण
'धूमणेत्ति' धूमपाणसलागा। (द ३.९ अचू पृ ६२) कर वैसा व्यवहार करना। गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः धूमप्रभा कता तामवधार्य यदन्यस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुङ्क्ते सा नरक की पांचवीं पृथ्वी (रिष्टा) का गोत्र, जहां धूम जैसी धारणा। (स्था ५.१२४ वृ प ३०२) आभा होती है।
(देखें चित्र पृ ३४६) धिक्कार
धूमाभा-धूमप्रभा।
(अनुचू पृ ३५) प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार। ‘धिक्कार है तुझे, तूने ।
(द्र रत्नप्रभा) ऐसा किया!' कहना। धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणम-उच्चारणं धिक्कारः।
१. अरति मोहकर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होने वाली (स्था ७.६६ वृ प ३७८)
नियंत्रण की शक्ति। हक्कारे मक्कारे, धिक्कारे चेव दंडनीईओ....
धिती तु मोहस्स उवसमे होति।
(निभा ८५) (आवनि १६७)
२. चित्त की स्वस्थता, अनुद्विग्नता धीर
धृतिश्च चित्तस्वास्थ्यमनुद्विग्नत्वमित्यर्थः। १. वह मुनि, जो अक्षोभ्य है, भूख, प्यास आदि कष्टों से
(उ ३२.३ शावृ प ६२२) क्षुब्ध नहीं होता।
३. अनुयोगकृत् (आचार्य) का एक गुण, जिसके कारण वह २. उत्तम बुद्धि से सम्पन्न।
सूत्र के अति गहन अर्थों में भ्रमित नहीं होता, निःशंक और धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीरः, परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा।।
निर्धान्त होता है। (सूत्र १.११.३८ वृ प २१०) धृतियुतो नातिगहनेष्वर्थेषु भ्रममुपयाति। धीर:-अक्षोभ्यः सबुद्ध्यलंकृतो वा।।
(बृभा २४१ वृ पृ७५) (सूत्र १.१३.२१ वृ प २४६) धृतिमति
योगसंग्रह का एक प्रकार । धैर्ययुक्त बुद्धि, अदीनता। वैराग्य का प्रयोग, जो कर्म को प्रकंपित करता है।
'धिइमई य'त्ति धृतिप्रधाना मतिभृतिमतिः-अदैन्यम्। धुतं णाम येन कर्माणि विधूयन्ते, वैराग्य इत्यर्थः ।
(सम ३२.१.३ वृ प५५) (सूत्र १.२.८ चू पृ ५३)
ध्यान आभ्यन्तर तप का एक प्रकार।
धुत
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१. एक आलम्बन पर मन को स्थापित करना।
यथा प्राथमिकं शब्दग्रहणं तथावस्थितमेव शब्दमवगहाति २. मन, वचन और काया की क्रिया का निरोध ।
नोनं नाभ्यधिकम्।
(तवा १.१६.१६) एगग्गचिंतानिरोहो झाणं। __ (दअचू पृ १६) ध्रुवबन्धिनी एकाग्रे मनःसन्निवेशनं योगनिरोधो वा ध्यानम्।।
बंध का कारण मिलने पर जिस प्रकृति का अवश्य बंध होता (जैसिदी ६.४१)
है, जैसे मतिज्ञानावरण आदि पांच प्रकृतियां, चक्षुदर्शनावरणीय ३. अध्यवसाय की दृढता, स्थिरता।
आदि नौ प्रकृतियां तथा अन्य प्रकृतियां। थिरमज्झवसाणं झाणं।
(नन्दीचू पृ ५८)
निजहेतुसम्भवे यासामवश्यम्भावी बन्धस्ता ध्रुवबन्धिन्यः। ध्यानविभक्ति
(कप्र पृ २७) उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । इस अध्ययन में ध्यान का
ध्रुवयोग विभाग-युक्त विस्तृत वर्णन है।
मुनि की प्रतिलेखना आदि वह संयमचर्या, जो प्रतिदिन थिरमज्झवसाणं झाणं, विभयणं विभत्ती सभेदं झाणं जत्थ
नियमित रूप से की जाती है। वणिज्जति अज्झयणे तमज्झयणं झाणविभत्ती।
जे पडिलेहणादिसंजमजोगा तेसु धुवजोगी भवेज्जा। (नन्दी ७७ चू पृ५८)
(द १०.६ जिचू पृ ३४१) ध्यानसंवरयोग
ध्रुवयोगी योगसंग्रह का एक प्रकार। सूक्ष्म ध्यान/महाप्राण ध्यान की
१. वह साधु, जो प्रतिपल जागरूकता आदि गुणों से युक्त साधना।
होता है। 'झाणसंवरजोगे'त्ति ध्यानमेव संवरयो पानसंवरयोगः।
२. वह साधु, जो प्रतिलेखना आदि ध्रुवयोग के प्रति जागरूक (सम ३२.१.४ वृ प ५५)
रहता है। ध्यानान्तरिका
३. वह साधु, जो बुद्धवचन-द्वादशाङ्गी में निश्चल योग दो ध्यानों के बीच का काल। एक द्रव्य या पर्याय का ध्यान वाला होता है, सदा श्रुत में उपयुक्त रहता है। सम्पन्न कर दूसरे द्रव्य या पर्याय के ध्यान के लिए किया धुवजोगी णाम जो खण-लव-मुहुत्तं पडिबुज्झमाणादिजाने वाला विमर्श अथवा अनुप्रेक्षा।
गुणजुत्तो सो धुवजोगी भवइ, अहवा जे पडिलेहणादि'झाणंतरियाए'त्ति अन्तरस्य-विच्छेदस्य करणमन्तरिका.
संजमजोगा तेसु धुवजोगी भवेज्जा, ण ते अण्णदा ध्यानान्तरिका।
(भग ५.८६ वृ)
कुज्जा।"अहवा बुद्धाण वयणं दुवालसंगं, तंमि धुवजोगी
भवेज्जा, सुओवउत्तो सव्वकालं भवेज्ज त्ति। अन्नतरझाणऽतीतो, बिइयं झाणं तु सो असंपत्तो। झाणंतरम्मि वट्टइ, बिपहे व विकुंचियमईओ॥
(द १०.६ जिचू पृ ३४१) (बृभा १६४३)
ध्रुवशील ध्रुव अवग्रहमति
वह शील, जिसके अठारह हजार (१८,०००) अङ्ग होते व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। बहु, बहुविध शब्द
हैं, जैसे-दस श्रमणधर्म, दस कायसंयम आदि। आदि का ज्ञान किया, सर्वदा उसी रूप में जानना, जैसे-तत
धुवसीलयं णाम अट्ठारससीलंगसहस्साणि। आदि के शब्दों को पहले जितना जाना, उन्हें उतना ही
(द ८.४० जिचू पृ २८७) जानना, न कम न अधिक।
जोए करणे सण्णा, इंदिय भोम्मादि समणधम्मे य। यथैकदा बहादिरूपेणावगतं सर्वदैव तथाऽवबुध्यमानो ध्रुवं
अण्णोण्णेहिं अभत्था अट्ठारहसीलसहस्साई॥ "मुणति' इत्युच्यते। (विभा ३०९ वृ)
(मू १०१९) न वि विस्सरति धुवं तू। (व्यभा ४१०८)
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नन्दी
ध्रुवसत्ताका वे कर्म-प्रकृतियां, जिनकी सत्ता विशिष्ट गणस्थान की प्राप्ति के बिना निरन्तर बनी रहती है। विशिष्टगुणप्राप्तिं विना ध्रुवा निरन्तरा सत्ता यासां ता ध्रुवसत्ताकाः।
(कप्र पृ २९) ध्रुवोदया उदय-काल के व्यवच्छेद से पूर्व तक जिन प्रकृतियों का उदय निरन्तर रहता है। उदयकालव्यवच्छेदादर्वाग्ध्रुवो निरन्तर उदयो यासां ता ध्रुवोदया:।
(कप्र पृ २८)
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें ज्ञान-मीमांसा और आगम का विशद विवरण मिलता है। इमं पंचविहणाणपरूवगं णंदि त्ति अज्झयणं, तं च सुतंसेण सव्वसुतब्भंतरभूतं ।
(नन्दीचू पृ १) नपुंसकलिंगसिद्ध वह सिद्ध, जो कृतनपुंसक के रूप में मुक्त होता है। जन्म से नपुंसक सिद्ध नहीं होता। अत: मुक्त होने के प्रसंग में कृत नपुंसक विवक्षित है। नपुंसकलिङ्गे वर्तमाना: सन्तो ये सिद्धास्ते नपुंसकलिङ्गसिद्धाः।
(प्रसावृ प ११२) नपुंसकवेद नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। नपुंसकवेदमोहकर्म के उदय से स्त्री और पुरुष के प्रति नपुंसक में होने वाला वासनात्मक संवेदन। नपुंसकस्य स्त्रियं पुरुषं च प्रत्यभिलाष इत्यर्थः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि नपुंसकवेदः। (प्रज्ञा १८.६२ वृ प ४६९)
ध्रौव्य त्रिपदी का एक अङ्ग। वस्तु के स्थायित्व का सूचक पद, जो दर्शन का विषय बनता है। ""अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्। यथा । मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः। (ससि ५.३०) ध्रुवतीति ध्रुवं-शाश्वतं तद्भावो धौव्यं-स्थिरता। ... द्रव्यास्तिकस्य ध्रौव्यमन्वयी सामान्यांशः। (तभा ५.२९ वृ) ध्रौव्यस्य ग्राहकं दर्शनम्। (जैसिदी २.६ वृ)
नमस्कार पुण्य पुण्य का एक प्रकार। संयमी को नमस्कार करने से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (द्र मन:पुण्य)
नक्षत्र ज्योतिष्क देव का एक प्रकार। ये संख्या में अट्ठाईस हैं, जैसे-कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा आदि।
(त्रिप्र ७.२६-२८) (द्र ज्योतिष्क देव)
नमस्कारसहिता प्रत्याख्यान का एक प्रकार। सूर्योदय से लेकर एक मुहूर्त (४८ मिनट) तक चारों आहारों का प्रत्याख्यान करना तथा समय सम्पन्न होने पर नमस्कारमंत्र का उच्चारण कर उसे पूर्ण करना। सूरे उग्गए नमुक्कारसहियं पच्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं"।
(आव ६.१) णमोक्कारं काऊणं जेमेउं वदृति।णमोक्कारं काऊणं जेमेति तो न भग्गं।
(आवचू २ पृ ३१५)
नक्षत्र संवत्सर संवत्सर का वह कालमान, जिसमें ३२७ २१ दिन होते हैं।
(स्था ५/२१० पृ ३२७) नगर धर्म लोकधर्म का एक प्रकार । वह धर्म (आचारसंहिता). जिसके आधार पर नगर की व्यवस्था की जाती है। नागरधर्मो-नगराचारः। (स्था १०.१३५ वृ प ४८९)
नय अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का बोध । प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के विवक्षित अंश का ज्ञान करने वाला तथा
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अन्य अंशों का निराकरण न करने वाला ज्ञाता का विशेष सिर और मुख का भाग कृष्णश्याम आभा वाला होता है, अभिप्राय।
जिसकी गति ललित होती है, जिसके सिर पर फण किए नयः सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोधः। हुए सर्प का चिह्न है। देवेन्द्र शक्र के लोकपाल वरुण की
(अनु ७५ मवृ प ४०) आज्ञा में रहने वाला देववर्ग। अनिराकृतेतरांशो वस्त्वंशग्राही प्रतिपत्तुरभिप्रायो नयः। शिरोमुखेष्वधिकप्रतिरूपाः कृष्णश्यामा मृदुललितगतयः
(भिक्षु ५.१) शिरस्सु फणिचिह्ना नागकुमाराः। (तभा ४.११)
नागकुमारा नागकुमारीओ"तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, तब्भानयगति
रिया सक्कस्स देविंदस्स देवरणो वरुणस्स महारण्णो अपने-अपने मत का सापेक्ष दृष्टि से प्रतिपादन।
आणा-उववाय-वयण-निद्देसे चिटुंति। (भग ३.२६२) यन्नयानां सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणाबाधितवस्तुव्यव- नागपर्यापनिका स्थापनं सा नयगतिः। (प्रज्ञा १६.४६ वृ प ३२९)
कालिक श्रत का एक प्रकार । वह अध्ययन. जिसका परावर्तन नयाभास
करने से नागकुमार अपने स्थान पर स्थित रहकर वंदना, अपने अभिप्रेत अंश के अतिरिक्त अंश का अपलाप करने
नमस्कार करता है और श्रृंगनादित जैसे कार्यों में वर भी देता वाला। स्वाभिप्रेतादंशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः। (प्रनत ७.२)
'णागपरियाणिय'त्ति अज्झयणे णाग त्ति-नागकुमारे, तेसु (द्र दुर्नय)
समयनिबद्धं अज्झयणं, तं जदा समणे उवयुत्ते परियट्रेति तया
अकतसंकप्पस्स वि ते णागकुमारा तत्थत्था चेव परियाणंति, नरकगति
वंदंति णमंसंति भत्तिबहुमाणं च करेंति, सिंगणाइयकज्जेसु गतिनामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव नारक य वरया भवंतीत्यर्थः।
(नंदी ७८ चू पृ६०) पर्याय का वेदन करता है।
नाग्न्य परीषह यन्निमित्त आत्मनो नारकभावः तन्नरकगतिनाम। एवं शेषे
अचेल अवस्था में आने वाली स्थितियां, जो मुनि के द्वारा ष्वपि योज्यम्।
(तवा ८.११) समभावपूर्वक सहनीय हैं।
(तसू ९.९) नरदेव
(द्र अचेल परीषह) वह मनुष्य, जो चक्रवर्ती की प्रतिष्ठा को प्राप्त है।
नाम कर्म नरदेवाः-चक्रवर्तिनो रत्नचतुर्दशकाधिपतयः शेषमनुजो
वह कर्म, जिसके द्वारा शरीर की संरचना होती है और अनेक त्कृष्टत्वात्।
(तभा ४.१ वृ) ""जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी"मणुस्सिंदा"। से"
पौद्गलिक अवस्थाओं का सृजन होता है। नरदेवा॥
(भग १२.१६५)
चतुर्गतिषु नानापर्यायप्राप्तिहेतु नाम। (जैसिदी ४.३ वृ)
गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम। नव खोटक
(प्रज्ञावृ प ४५४) प्रतिलेखनविधि का एक प्रकार। वस्त्र के प्रत्येक पूर्व में तीन-तीन बार खोटक (प्रमार्जन) करना। एक भाग में नौ
नाम निक्षेप खोटक होते हैं।
निक्षेप का एक प्रकार । मूल शब्द के अर्थ की अपेक्षा न रखने नवखोड त्ति खोटकः समयप्रसिद्धाः स्फोटनात्मका:
वाला संज्ञाकरण। जैसे-किसी अनक्षर व्यक्ति का नाम कर्तव्याः। (उ २६.२५ शावृ प५४१)
उपाध्याय रखना।
तदर्थनिरपेक्षं संज्ञाकर्म नाम। (जैसिदी १०.६) नागकुमार भवनपति देवनिकाय का एक प्रकार। वह देववर्ग, जिसका।
नामप्रत्यय
__ वह कर्मपुद्गल समूह, जो ज्ञानावरण आदि कर्म के नामानुरूप
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प्रदेशबंध का कारण बनता है।
नामप्रत्ययः कर्मैषामिति नामप्रत्ययाः नाम्नैव प्रत्याय्यन्ते यादृशाः पुद्गलाः प्रदेशबन्धस्य कारणीभवन्ति ।
(तभा ८.२५ वृ)
नाम सत्य
भाषागत (व्यवहार) सत्य का एक प्रकार । गुणविहीन होने पर भी किसी व्यक्ति या वस्तु को गुणात्मक अभिधान से अभिहित करना ।
'नामे' त्ति नाम अभिधानं तत्सत्यं नामसत्यम् ।
नारकायु
नरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवनं तन्नारकायुः । ( तवा ८.१० )
(स्था १०.८९ वृ प ४६४ )
(द्र नैरयिकायुष्क)
नाराच संहनन
अस्थिरचना का एक प्रकार, जिसमें अस्थि के दोनों तरफ मर्कटबन्ध होता है।
यत्र तूभयोर्मर्कटबन्ध एव तन्नाराचम् ।
नास्तित्व
१. सत् का अभाव ।
२. विनाशात्मक पर्याय ।
नालिका
अनाचार का एक प्रकार । नलिका से पासा डालकर जुआ खेलना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। 'नालिका चे 'ति द्यूतविशेषलक्षणा, यत्र मा भूत्कलयाऽन्यथा पाशकपातनमिति नालिकया पात्यन्त इति ।
(द ३.४ हावृ प ११७)
(स्था ६.३० वृ प ३३९)
'नास्तित्वम्' अत्यन्ताभावरूपं यत् खरविषाणादि' अथवा '' 'नास्तित्वे' असत्त्वे वर्त्तते, यथा अपटोऽपटत्व एवेति ।
(भग १.१३३ वृ)
निःशङ्कित सम्यक्त्व का पहला आचार। जिनभाषित तत्त्वों के प्रति अंशतः या सर्वतः शङ्का का अभाव ।
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
शङ्कित – देशसर्वशंकात्मकं तस्याभावो निःशङ्कितम् । ( उ २८.३१ शावृ प ५६७ )
निःश्वास
श्वासोच्छ्वास प्राण के द्वारा श्वास के पुद्गलों का उत्सर्जन । यदेवोक्तं प्राणन्ति तदेवोक्तं निःश्वसन्तीति । ( भग २.२ वृ)
निःसृत अवग्रहमति
( तवा १.१६.१६)
(द्र निश्रित अवग्रहमति )
निकाचनसंभोज
सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार । साधुओं को उपधि, आहार, स्वाध्याय आदि के लिए निमंत्रण देना ।
'निकाए य'त्ति निकाचनं छन्दनं निमन्त्रणमित्यनर्थान्तरं, तत्र शय्योपध्याहारैः शिष्यगणप्रदानेन स्वाध्यायेन च सम्भोगिकः सम्भोगिकं निमन्त्रयन् शुद्धः'''''। (सम १२.२ वृप २२) निकाचना
कर्मकरण का एक प्रकार । वीर्यविशेष के द्वारा कर्म को उस अवस्था में व्यवस्थापित करना, जो उद्वर्तना आदि किसी भी करण के द्वारा बदला न जा सके, जिसका विपाक अनिवार्य हो ।
निकाच्यते-सकलकरणायोग्यत्वेनावश्यवेद्यतया व्यवस्थाप्यते कर्म जीवेन यया सा निकाचना । (कप्र पृ ४९ ) अनुभूतिव्यतिरिक्तोपायान्तरेण क्षपयितुमशक्यानि निकाचि
(भग ६.४ वृ)
तानि ।
निक्षिप्त
एषणा दोष का एक प्रकार। सचित्त वस्तु पर रखी हुई भिक्षा लेना ।
निक्षिप्तं सचित्तस्योपरि स्थापितम् । (प्रसा ५६८ उवृ) पृथिव्युदक-तेजो- वायु-वनस्पतिषु त्रसेषु च यदन्नाद्यचित्तमपि स्थापितं तन्निक्षिप्तम् । ( योशा १.३८ वृ पृ १३६)
निक्षेप
शब्दों में विशेषण के द्वारा प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन करने की शक्ति निहित करना ।
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शब्देष विशेषणबलेन प्रतिनियतार्थप्रतिपादनशक्तेनिक्षेपणं निक्षेपः।
(जैसिदी १०.४)
निगमन साध्य को पक्ष में दोहराना। जैसे-इसलिए यह अनित्य है। साध्यस्य निगमनम्। साध्यधर्मस्य धर्मिणि उपसंहारो निगमनम्, यथा-तस्मादनित्यः।
(भिक्षु ३.२८ वृ)
नित्य द्रव्य का वह अंश, जो कभी च्युत नहीं होता, जो अपरिवर्तनशील है। तद्भावाव्ययं नित्यम्।
(तसू ५.३०) सतोऽप्रच्युतिर्नित्यम्।
(भिक्षु ६.४) नित्याग्रपिण्ड अनाचार का एक प्रकार । आदरपूर्वक निमन्त्रित कर प्रतिदिन दिया जाने वाला आहार आदि, जो मुनि के लिए अग्राह्य है। 'नियाग' त्ति-नित्यमामन्त्रितं पिण्डम्।
(द ३.२ हावृ प २०३) निदान मेरी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अमुक प्रकार की भौतिकसम्पदा और ऐश्वर्य मिले, इस प्रकार का अध्यवसाय। निदानम्-अवखण्डनं तपसश्चारित्रस्य वा, यदि अस्य तपसो फलं ततो जन्मान्तरे चक्रवर्ती स्यामर्धभरताधिपतिर्महामण्डलिकः सुभगो रूपवानित्यादि। (तभा ७.३२ वृ)
निदानकरण मारणान्तिक संलेखना का एक अतिचार। (तसू ७.३२) (द्र कामभोगाशंसाप्रयोग)
निगोद साधारण वनस्पति के अनंत जीवों का एक शरीर। निगोदरूपेऽप्येकैकस्मिन् शरीरे तच्छरीरात्मकतया अनन्तान् जीवान् परिणतान् जानीहि।।
(प्रज्ञावृ प ४०) (द्र गोलक) निगोद जीव एक शरीर में विद्यमान अनंत जीव। वे दो प्रकार के हैं१. चतुर्गतिनिगोद-वे निगोद जीव, जो चार गतियों में भ्रमण कर पुनः निगोद में प्रविष्ट हैं। २. नित्यनिगोद-वे निगोद जीव, जिन्होंने कभी भी निगोद को नहीं छोड़ा है, सदैव निगोद में रहते हैं। अस्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंकअपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति॥
(षखं ५.६.१२७) णिगोदेसु जे द्विदा जीवा ते दुविहा-चउग्गइणिगोदा। णिच्चणिगोदा चेदि। तत्थ चउग्गइणिगोदा णाम जे देवणेरइयतिरिक्खमणुस्सेसूप्पज्जियूण पुणो णिगोदेसु पविसिय अच्छंति।"णिच्चणिगोदा णाम जे सव्वकालं णिगोदेसुचेव अच्छंति।
(धव पु १४ पृ २३६) (द्र साधारण जीव) निग्रह वाद-दोष का एक प्रकार । वादी अथवा प्रतिवादी के द्वारा अपने पक्ष को सिद्ध न कर पाना तथा छल आदि के द्वारा प्रतिवादी को निगृहीत करना। स्वपक्षासिद्धिरूप: पराजयो निग्रहहेतुत्वान्निग्रहः।
(प्रमी २.१.३३) निग्रहः-छलादिना पराजयस्थानं स एव दोषो निग्रहदोषः।
(स्था १०.४४ वृ प ४६८)
निदान शल्य शल्य का एक प्रकार । वह भावात्मक आयुध, जो आकांक्षा के रूप में उदित होकर संयम को बाधित करता है। नितरां दीयते-लूयते मोक्षफलमनिन्द्यब्रह्मचर्यादिसाध्यं कुशलकर्मकल्पतरुवनमनेन देवद्धर्यादिप्रार्थनपरिणामनिशितासिनेति निदानम्। (स्था ३.३८५ वृ प १३९) (द्र शल्य) निदा वेदना वेदना का एक प्रकार । चैतन्य अवस्था में अनुभव की जाने वाली वेदना। दुविहा वेदणा पण्णत्ता, तं जहा--णिदा य अणिदा य॥ ..."जेते सण्णिभूया ते णं निदायं वेदणं वेदेति"जेते असण्णिभूया ते णं अणिदायं वेदणं वेदेति। नितरां निश्चितं वा सम्यग् दीयते चित्तमस्यामिति निदा।
(प्रज्ञा ३५.१६ वृ प ५५७)
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निद्रा
निमित्त दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति।
स्वर, लक्षण आदि के आधार पर अतीत, वर्तमान और १. जिसके उदय से ऐसी नींद आती है जो सुखपूर्वक टूटती भविष्य संबंधी शुभ-अशुभ, लाभ-अलाभ का प्रतिपादक है।
शास्त्र, जैसे-अंगनिमित्त, स्वरनिमित्त आदि। निद्रा-सुखप्रबोधा स्वापावस्था। (स्था ९.१४ वृ प ४२४) । अंगं सरो लक्खणं च वंजणं सुविणो तहा। २ मद, खेद और क्लान्ति को दूर करने के लिए होने वाला
छिण्ण भोम्मंऽतलिक्खाए एमए अट्ठ आहिया॥ शयन, जिसमें चैतन्य अविस्पष्ट हो जाता है।
एए महानिमित्ता उ अट्ठ संपरिकित्तिया। मदखेदक्लमविनोदार्थः स्वापो निद्रा। (तवा ८.७)
एएहिं भावा णजंति तीताऽणागय-संपया। नियतं द्राति अविस्पष्टतया गच्छति चैतन्यं यस्यां स्वापाव
इंदिएहिंदियत्थेहिं, समाधाणं च अप्पणो।
णाणं पवत्तए जम्हा, णिमित्तं तेण आहियं॥ स्थायां सा निद्रा। (कप्र पृ९)
(अंवि १.२,३,१३) निद्रानिद्रा
(द्र महानिमित्तज्ञता) दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति ।
निमित्तपिण्ड १. जिसके उदय से नींद दुःख से टूटती है।
उत्पादन दोष का एक प्रकार। अतीत, वर्तमान और भविष्य २. वह शयन-अवस्था, जिसमें चैतन्य अत्यधिक अविस्पष्ट
में होने वाले लाभ-अलाभ बताकर भिक्षा लेना। हो जाता है, अतिशायिनी निद्रा। निद्रातिशायिनी निद्रा निद्रानिद्राह्यत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैत
अतीताऽनागतवर्तमानकालेषु लाभाऽलाभादिकथनं निमि
त्तम्। तद् भिक्षार्थं कुर्वतो निमित्तपिण्डः। न्यत्वाहुःखेन बहुभिर्घोलनादिभिः प्रबोधो भवत्यतः सुप्रबोधानिद्रापेक्षया अस्या अतिशायिनीत्वं तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृति
(योशा १.३८ वृ पृ १३५) रपि कार्यद्वारेण निद्रानिद्रेत्युच्यते। (स्था ९.१४ वृ प ४२४) नियन्त्रित उपर्युपरि तवृत्तिर्निद्रानिद्रा।
(तवा ८.७) प्रत्याख्यान का एक प्रकार । नीरोग या ग्लान अवस्था में भी
'मैं अमुक प्रकार का तप अमुक-अमुक दिन अवश्य करूंगा'निधत्ति
इस प्रकार का प्रत्याख्यान करना। कर्मकरण का एक प्रकार। वीर्य विशेष के द्वारा कर्म को
'नियंटियं' ति नितरां यन्त्रितं-प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानत्वाउद्वर्तना और अपवर्तना के अतिरिक्त उदीरणा, संक्रमण आदि द्यन्तरायभावेऽपि नियमात्कर्त्तव्यमिति। करणों के अयोग्य बना देना।
(स्था १०.१०१ वृप ४७२) निधीयते-उद्वर्तनापवर्तनान्यशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्था- नियम प्यते कर्म यया सा निधत्तिः।
(कप्र पृ ४८) १. तप, स्वाध्याय, सेवा आदि के लिए किया जाने वाला दृढ़ निधिरत्न
संकल्प।
तपः-अनशनादिनियमा:-तद्विषया अभिग्रहविशेषा: यथा (जं ३.१६७)
एतावत्तपःस्वाध्यायवैयावृत्त्यादि। (भग १८.२०७०) (द्र महानिधि)
२. नियमतः होना, व्याप्ति, अनिवार्यता। (भग १.२३४)
(द्र भजना) अपने दोषों के प्रति अनादर का भाव प्रकट करना।
निरतिचारछेदोपस्थापनीय चारित्र निन्दनम्-आत्मनैवात्मदोषपरिभावनम्।
१. वह छेदोपस्थापनीय चारित्र, जो अतिचार-सेवन के (उ २९.७ शावृ प ५७९)
कारण के बिना सामान्य विधि के अनुसार सामायिक चारित्र
की अवधि की समाप्ति के बाद स्वीकार किया जाता है।
निन्दा
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२. अर्हत् पार्श्व की परम्परा के साधुओं के द्वारा भगवान् यस्मात्तत् निरवशेषम्। (स्था १०.१०१ वृ प ४७३) महावीर के संघ में प्रवेश पाने के लिए स्वीकृत किया जाने
निरुद्धपर्याय वाला चारित्र। निरतिचारच्छेदोपस्थापनीययोगान्निरतिचारः स च शैक्षकस्य।
वह श्रमण, जिसने अपने उत्कृष्टतः बीसवर्षीय संयमपर्याय
से उत्प्रव्रजन कर पुनः संयमपर्याय को स्वीकार किया हो। पार्श्वनाथतीर्थान्महावीरतीर्थसंक्रान्तौ वा।
निरुद्धो विनाशितः पर्यायो यस्य स निरुद्धपर्यायः""तस्य (भग २५.४५५ वृ)
पूर्वपर्यायो विकृष्टो विंशतिवर्षाण्यासीत्। (व्य ३.९ वृ) (द्र छेदोपस्थाप्य चारित्र)
निरुपक्रम आयु निरन्तरबन्धिनी
(तभा २.५२) वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध जघन्यत
(द्र अनपवर्तनीय आयु) निरन्तर होता है, जैसे–मतिज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण आदि। जघन्येनापिया अंतर्महतं यावन्नरन्तर्येण बध्यन्ते ता: निरन्तर- निर्ग्रन्थ बन्धाः ।
(कप्र पृ ४४) १. वह मुनि, जो अकेला है, एकत्व भावना का अभ्यासी है,
आत्मप्रवाद (सातवें पूर्व) का ज्ञाता है, इन्द्रियों का बाह्य निरपलाप
और आन्तरिक दोनों रूपों में संयम करता है। योगसंग्रह का एक प्रकार। शिष्य के द्वारा आलोचित अपराध
एत्थ वि णिग्गंथे–एगे एगविदू बुद्धे संछिण्णसोए सुसंजए का अप्रकटीकरण।
सुसमिए सुसामाइए आतप्पवादपत्ते विऊदुहओ वि सोयपलि'निरवलावे' त्ति आचार्योऽपि मोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहायैव
छिपणे णो पूयासक्कारलाभद्री धम्मदी धम्मविऊ णियागदत्तायामालोचनायां निरपलापः स्यात्, नान्यस्मै कथयेत्।
पडिवणे समियं चरे दंते दविए वोसकाए 'णिग्गंथे' त्ति (सम ३२.१.१ ७ प ५५) वच्चे।
(सूत्र १.१६.६) निरयावलिका
२. जो बाह्य (धन, धान्य आदि) और आभ्यन्तर (मिथ्यात्व, कालिक श्रुत का एक प्रकार । उपाङ्ग का प्रथम वर्ग, जिसमें
कषाय आदि) ग्रंथियों-आसक्तियों से मुक्त होता है। चेटक और कोणिक के भीषण युद्ध का वर्णन है।
सावज्जेण विमुक्का, सब्भितर-बाहिरेण गंथेण।
निग्गहपरमा य विद, तेणेव य होंति निग्गंथा। (नन्दी ७८)
जे वि अ न सव्वगंथेहिं निग्गया होंति केइ निग्गंथा। "उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा
ते वि य निग्गहपरमा, हवंति तेसिं खउज्जुत्ता॥ पण्णत्ता।
कलुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो। "कृणिए राया"चेडगे राया"रहमसलं संगामं ओयाए।
संते वि जो कसाए, निगिण्हई सो वि तत्तुल्लो॥ "दोण्हवि राठणं "अण्णमण्णेणं सद्धिं जुझंति।
.."गिण्हंता उवगरणं, जम्हा अममत्तया तेसु॥ (निर ७, १३६-१३९)
(बृभा ८३२, ८३६-८३८) निरवद्य दान
३. सराग अथवा वीतराग, प्रतिसेवी अथवा अप्रतिसेवी साधु, जिस दान से अपना व पर का संयम पुष्ट होता है, धर्मदान।
जो चारित्र के लिए अधिकृत हैं, जैसे-पुलाक, बकुश, येन स्वस्य परस्य वा संयम उपचयं याति तन्निरवद्यदानं
कुशील, निग्रंथ और स्नातक। धर्मदानमिति।
(जैसिदी ९.१७ )
पंच नियंठा पण्णत्ता, तं जहा-पुलाए, बउसे, कुसीले, निरवशेष प्रत्याख्यान
नियंठे, सिणाए॥
(भग २५.२७८) प्रत्याख्यान का एक प्रकार, जिसमें अशन, पान, खाद्य और
४. निर्ग्रन्थ का चौथा प्रकार। मोहकर्म के उपशम अथवा क्षय स्वाद्य का सम्पूर्ण परित्याग किया जाता है।
से होने वाली वीतराग अवस्था। 'निरवसेसं' ति निर्गतमवशेषमपि अल्पाल्पमशनाद्याहारजातं
निर्गतो ग्रन्थान्-मोहनीयकर्माख्यादिति निर्ग्रन्थः ।
(भग २५.२७८ वृ)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
निर्जरा
करते हैं। १. विपाक में आये हुए कर्म-पुद्गलों तथा उदीरणा से मरणकाले शरीरिणः शरीरान्निर्गमस्तस्य मार्गो निर्याणमार्गः। विपाक में लाए गए पुद्गलों का आत्मा से पृथक् होना।
(स्था ५.२१४ वृ प ३२८) विपक्वानां कर्मावयवानां परिशटनं हानिरित्यर्थः। तपसा २. जो निर्वाणप्राप्ति का मार्ग है। सेव्यमानेन कर्माण्यात्मप्रदेशेभ्यो विघटन्त इति।
निर्याणमार्गः विशिष्टनिर्वाणप्राप्तिकारणमित्यर्थः । (तभा ९.३ वृ)
(आव ४.९ हावृ पृ१८१) २. नौ तत्त्वों में एक तत्त्व। तप के द्वारा कर्ममल का विच्छेद।
निर्यापक होने से जो आत्मा की निर्मलता, उज्ज्वलता होती है, उसे
प्रातिचारक। वह मुनि, जो अपने अथवा दूसरों के संयमनिर्जरा कहते हैं।
निर्वहन, विशेष रूप से अनशनकाल में शोधिकरण में ३. उपचार से तपस्या भी निर्जरा कहलाती है।
कुशल होता है। तपसा कर्मविच्छेदादात्मनैर्मल्यं निर्जरा।
पादोवगमे इंगिणि, दुविधा खलु होंति आयनिज्जवगा। उपचारात्तपोऽपि।
(जैसिदी ५.१६, १७) (जासदा ५.१०
निज्जवणा य परेण व, भत्तपरिणाय बोधव्वा॥ निर्जरा अनुप्रेक्षा
(व्यभा ४२२१) नवम अनुप्रेक्षा–तपस्या और परीषहजय से होने वाली निर्जरा
चारित्रस्य पर्यन्तसमये निर्यापका एव यथावस्थितशोधिके विषय में अनुचिन्तन करना।
प्रदानत उत्तरोत्तरचारित्रनिर्वाहकाः। (व्यभा ४१६४ व) निर्जरा वेदना विपाक इत्यनर्थान्तरम्। स द्विविधोऽबुद्धिपूर्वः ।। नियुक्ति कुशलमूलश्च । "तं गुणतोऽनुचिन्तयेत् शुभानुबन्धो
१. आगम का वह प्राचीनतम पद्यबद्ध व्याख्या ग्रन्थ, जिसके निरनुबन्धो वेति। एवमनुचिन्तयन्कर्मनिर्जरणायैव घटत इति
द्वारा आगम के पदों का निर्वचन होता है। निर्जरानुप्रेक्षा।
(तभा ९.७)
निज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होइ निजत्ती। (द्र अबुद्धिपूर्वी निर्जरा, कुशलमूला निर्जरा)
(आवनि ८८)
निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धानामर्थानामाविर्भावनम्। निर्जरा पुद्गल
(सूत्रनि १ वृ प २) निर्जराप्रधान पुद्गल, वे कर्मपुद्गल, जो जीव से पृथक् ।
२. सूत्र के प्रतिपाद्य को स्पष्ट करने वाला युक्ति ग्रन्थ, होकर अकर्मता को प्राप्त हो गए हैं।
व्याख्या ग्रंथ। निर्जराप्रधानाः पुद्गला निर्जरापुद्गलाः, जीवेनाकर्मता- निर्युक्तयः निर्युक्तानां-सूत्रेऽभिधेयतया व्यवस्थामापादिता: कर्मप्रदेशा इत्यर्थः। (औपवृ पृ २०७)
पितानामर्थानां युक्तिः।
(समवृ प१०१) .."निज्जुत्ती वक्खाणं॥
(विभा ९६५) निर्माणनाम
निर्लाञ्छतकर्म नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर में अंग-प्रत्यंगों, लिंग और आकृति की व्यवस्था होती है।
कर्मादान का एक प्रकार। बैल आदि को बधिया बनाना,
नपुंसक करना तथा पशुओं के नाक को बींधना। जातिलिंगाकृतिव्यवस्थानियामक निर्माणनाम।
नासावेधोऽङ्कनं मुष्कच्छेदनं पृष्ठगालनम्। (तभा ८.१२)
कर्णकम्बलविच्छेदो, निर्लाञ्छनमुदीरितम्॥ यदुदयाज्जन्तुशरीरेष्वंगप्रत्यंगानां प्रतिनियतस्थानवर्त्तिता
(प्रसा २६६ वृ प ६३) भवति तन्निर्माणनाम सूत्रधारकल्पम्। (कप्र पृ २०)
निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया निर्याणमार्ग
आधिकरणिकी क्रिया का एक प्रकार। नये सिरे से शस्त्रनिर्माण १. मृत्यु के समय जीव-प्रदेश जिस मार्ग से शरीर से निर्गमन
करने की क्रिया।
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यच्चादितस्तयोर्निर्वर्त्तनं सा निर्वर्तनाधिकरणिकी।
पारिहारिक का एक प्रकार। परिहारविशुद्धि चारित्र में
(स्था २.७ वृ प ३८) तप:साधना में संलग्न चार साधुओं की आचार-मर्यादा। (द्र संयोजनाधिकरणिकी क्रिया)
परिहरणं परिहार:-तपोविशेषस्तेन चरन्तीति पारिहारिकाः,
ते द्विधा निर्विशमानका निर्विष्टकायिकाश्च। तत्र निर्विशनिर्वाण
मानका-विवक्षिततपोविशेषासेवकाः, निर्विष्टकायिकाः १. मोक्ष, कर्मज्वाला के सर्वथा क्षीण हो जाने के कारण जो
-आसेवितविवक्षिततपोविशेषः॥ शांति का प्रतिष्ठान है।
(प्रसा ६०२ वृ प १६९) निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य। खेमं सिवं अणाबाहं, जंचरंति महेसिणो॥
निर्विष्टकायिककल्पस्थिति निर्वान्ति-कर्मानलविध्यापनाच्छीतीभवन्त्यस्मिन् जन्तव पारिहारिक का एक प्रकार। परिहारविशुद्धि चारित्र में जो इति निर्वाणम्। (उ २३.८३ शावृ प ५११) साधु पूर्व में तपस्या कर चुके और अब सेवा में संलग्न हैं, २. परम समाधि की अवस्था, जिसे ऋजुभूत धार्मिक व्यक्ति उनकी आचार-मर्यादा। (प्रसा ६०२ वृ प १६९) प्राप्त करता है। अथवा चेतना की दीप्त अवस्था, स्वास्थ्य। (द्र निर्विशमानकल्पस्थिति) निव्वाणं परमं जाइ घयसित्तव्व पावए॥
निवृत्त निर्वतिनिर्वाणं, स्वास्थ्यमित्यर्थः। (उ ३.१२ शाव प १८५) (द्र मोक्ष)
वह व्यक्ति, जिसका कषाय शान्त हो गया है।
निर्वृत्तः कषायोपशमाच्छीतीभूतः । निर्वाणमार्ग
(सूत्र १.११.३८ वृप २१०) आत्यंतिक, अव्याबाध सुख-प्राप्ति का मार्ग। निर्वाणं-सकलकर्मक्षयजमात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः,
निर्वृत्ति इन्द्रिय निर्वाणस्य मार्गो निर्वाणमार्ग इति"""परमनिर्वतिकारणम्।
द्रव्येन्द्रिय का एक प्रकार। इन्द्रिय की बाह्य और आन्तरिक (आवहावृ २ पृ १८१)
आकाररचना।
निर्वत्तिर्नाम प्रतिविशिष्ट: संस्थानविशेषः। सापि द्विधानिर्वाणवादी
बाह्या अभ्यन्तरा च।
(नन्दीमवृ प ७५) मोक्षवादी। श्रमणपरम्परा निर्वाणवादी परम्परा है।
निर्वेद """णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते॥ (सूत्र १.६.२१)
सम्यक्त्व का एक लक्षण। इन्द्रिय-विषयों से विरक्ति। निर्विकृतिक
निव्वेएणं दिव्वमाणुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वप्रत्याख्यान का एक प्रकार। दिन में एक बार विकृतिरहित मागच्छइ। सव्वविसएसु विरज्जइ। (उ २९.३) भोजन कर चारों आहारों का प्रत्याख्यान करना।
निर्वेदनी निव्विगइयं पच्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं।
(आव ६.१०)
कृत कर्मों के शुभ-अशुभ फल बता कर संसार के प्रति
उदासीन बनाने वाली कथा। निर्विचिकित्सा
संसारादेर्निविण्णः क्रियते अनयेति निर्वेदनी। सम्यक्त्व का तीसरा आचार। साधना के फल में सन्देह का
(स्था ४.२४६ वृ प २००) अभाव।
निभरि विचिकित्सा-फलं प्रति संदेहो, यथा-किमियत: क्लेशस्य
उपाश्रय में किया जाने वाला अनशन। फलं स्यादुत नेति?"तदभावो निर्विचिकित्सं"।
'नीहारिमे य'त्ति निर्हारेण निर्वृत्तं यत्तन्निर्हारिमं, प्रतिश्रये यो (उ २८.३१ शावृ प५६७)
म्रियते तस्यैतत्, तत्कडेवरस्य निरिणात्। (भग २.४९ वृ) निर्विशमानकल्पस्थिति
(द्र अनिर्हारि)
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निवृत्तिबादर जीवस्थान
जीवस्थान/गुणस्थान का आठवां प्रकार ।
१. निवृत्ति का अर्थ है - विसदृशता । वह जीवस्थान, जिसमें एक साथ प्रविष्ट सब जीवों की विवक्षित एक समय में परिणामविशुद्धि समान नहीं होती ।
निवृत्तिः - समसमयवर्तिजीवानां परिणामविशुद्धेर्विसदृशता । निवृत्तिबादरजीवस्थाने भिन्नसमयवर्तिजीवानां परिणामविशुद्धिर्विसदृशी भवति, समसमयवर्तिजीवानां च विसदृशी सदृशी चाऽपि । ( षखं १ पृ १८४) २. जो निवृत्ति और बादर-स्थूल कषाय वाला है, उसकी आत्मविशुद्धि | निवृत्तिबादर का अपर नाम अपूर्वकरण भी है ।
निवृत्तियुक्तो बादरकषायो निवृत्तिबादरः । बादरः स्थूलः । इदमपूर्वकरणमपि उच्यते ।
(जैसिदी ७.१० वृ)
निशीथ
कालिक श्रुत का एक प्रकार । चार छेदसूत्रों में से एक, जिसमें प्रायश्चित्त का विधान और प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया का विवरण है।
पच्छित्तमिहज्झयणे
।
( नन्दी ७८ ) (निभा ७१ ) (निचू १ पृ ३५)
इदमज्झयणं अववायबहुलं ।
निश्चयनय
तात्त्विक अर्थ को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण ।
तात्त्विकार्थाभ्युपगमपरो निश्चयः ।
(द्र नैश्चयिक नय)
निश्चित अवग्रहमति
( भिक्षु ५.१८)
(तभा १.१६ वृ)
(द्र असंदिग्ध अवग्रहमति )
निश्राणपद
अपवाद पद, जिसका आसेवन मन्द श्रद्धा वाले मुनि करते हैं ।
निश्रीयते- - मन्द श्रद्धाकैरासेव्यत इति निश्राणं तच्च तत् पदं च निश्राणपदम् - अपवादपदमित्यर्थः । ( बृभा ६६१ वृ)
निश्रास्थान
मुनि की साधना में आलम्बन बनने वाले स्थान |
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
धम्मणं चरमाणस्स पंच णिस्साद्वाणा पण्णत्ता, तं जहाछक्काया, गणे, राया, गाहावती, सरीरं । (स्था ५/१९२)
निश्रित अवग्रहमति
व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। पूर्व गृहीत हेतु के द्वारा विषय का ग्रहण करना, जैसे- पूर्व अनुभूत फूल के स्निग्ध, मृदु आदि स्पर्श का अनुभव करना । यदा त्वेतस्मादाख्याताल्लिङ्गात् परिच्छिनत्ति निश्रितं तदा स लिङ्गमवगृह्णातीति भण्यते । (तभा १.१६ वृ)
निषद्या
बैठने की विशिष्ट मुद्रा - आसन का प्रयोग । निषदनानि निषद्याः - उपवेशनप्रकाराः ।
(स्था ५.५० वृ प २८७)
(द्र नैषधिक) निषद्या परीषह
परीषह का एक प्रकार । साधना के अनुकूल एकान्त स्थान में उपस्थित होने वाला भय का प्रसंग, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है।
सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्खमूले व एगओ । अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं ॥ तत्थ से चिट्ठमाणस्स उवसग्गाभिधारए । संकाभीओ न गच्छेज्जा उट्ठित्ता अन्नमासणं ॥
( उ २.२०, २१ )
निषध
वह वर्षधर पर्वत, जो महाविदेह क्षेत्र से दक्षिण में, हरिवर्ष से उत्तर में, पूर्वी लवण समुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है। यह हरिवंश और विदेहइन दोनों के मध्य विभाजन रेखा का काम करता है। महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेणं, हरिवासस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे सिहे णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते । (जं ४.८६ ) हरिवंशविदेहयोर्विभक्ता निषधः ।
(तभा ३.११ वृ)
निषेक
एक साथ एक समय में उदयाभिमुख कर्मदलिकों का विभाग
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निह्नव
(विभा २२९९) (द्र प्रवचननिह्नव) नीचगोत्र गोत्र कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव जाति, कुल आदि की हीनता का अनुभव करता है। यदुदयवशात् पुनर्ज्ञानादिसम्पन्नोऽपि निन्दा लभते हीनजात्यादिसम्भवं च तत् नीचैर्गोत्रम्। (प्रज्ञा २३.५७७ प ४७५)
नीरज वह आत्मा, जो आठ कर्मों से मुक्त है। णीरया नाम अट्टकम्मपगडीविमुक्का भण्णंति।
(द ४.२४ जिचू पृ ११७)
नील
कर्म-पुद्गलों की वह रचना, जो प्रतिसमय होने वाले अनुभाव के अनुरूप होती है। अबाधाकाल पूर्ण होने पर उदयाभिमुख कर्म-पुद्गलों की प्रथम समय में बहु, दूसरे में विशेष हीन, तीसरे में हीनतर, उससे आगे के समयों में हीनतम-इस प्रकार होने वाली रचना या व्यवस्था निषेक है। कर्मनिषेको नाम कर्मदलिकस्यानुभवनार्थं रचनाविशेषः। तत्र च प्रथमसमये बहुकं निषिञ्चति द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुत्कृष्टस्थितिकं कर्मदलिकं तावद् विशेषहीनं निषिञ्चति। (भग ६.३४ वृ) निष्कांक्षित सम्यक्त्व का दूसरा आचार। सर्वज्ञ-प्रणीत दर्शन से भिन्न दर्शनों को ग्रहण करने की इच्छा का न होना। कांक्षितं-युक्तियुक्तत्वादहिंसाद्यभिधायित्वाच्च शाक्योलुकादिदर्शनान्यपि सुन्दराण्येवेत्यन्यान्यदर्शनग्रहात्मकं तदभावो निष्कांक्षितम्। (उ २८.३१ शावृ प५६७) निष्प्रतिकर्मता योगसंग्रह का एक प्रकार । शरीर की सारसंभाल का त्याग। 'निप्पडिकम्मय'त्ति तथैव निष्प्रतिकर्मता शरीरस्य विधेया।
(सम ३२.१.१ वृ. प ५५) निसर्ग क्रिया क्रिया का एक प्रकार । पापादान आदि की प्रवृत्ति को स्वीकार करना। पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया।(तवा ६.५) निसर्गरुचि १. रुचि का एक प्रकार। परोपदेश के बिना यथार्थ ज्ञान से जीव आदि तत्त्वों पर होने वाली रुचि। २. निसर्गरुचिसम्पन्न व्यक्ति। भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च। सहसम्मुझ्यासवसंवरो य रोएड उ निसग्गो।।
(उ २८.१७) निसर्गसम्यग्दर्शन अनुपदेशात्सम्यग्दर्शनमुत्पद्यत इत्येतन्निसर्गसम्यग्दर्शनम्।
(तभा १.३) (द्र निसर्गरुचि)
वह वर्षधर पर्वत, जो महाविदेह से उत्तर में, रम्यक् वर्ष से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है। यह महाविदेह वर्ष और रम्यक् वर्ष-इन दोनों के मध्य विभाजन-रेखा का काम करता है। महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं, रम्मगवासस्स दक्खिणेणं, पुरथिमिल्ललवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे णीलवंते णाम वासहरपव्वए।
__ (जं ४.२६२) विदेहरम्यकयोर्विभक्ता नीलः। (तभा ३.११ वृ)
नीललेश्या अप्रशस्त लेश्या का दूसरा प्रकार । १. अप्रशस्त भावधारा, चैतन्य की एक रश्मि, जिसका संबंध सांसारिक सुखों से है। इस्साअमरिसअतवो, अविज्जमाया अहीरिया य। गेद्धी पओसे य सढे, पमत्ते रसलोलुए सायगवेसए य॥ आरंभाओ अविरओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो। एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे॥
(उ ३४.२३,२४) (द्र भावलेश्या) २. नीललेश्या के परिणमन में आधारभूत नील वर्ण वाले पुद्गल।
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. १६२
नीलासोगसंकासा चासपिच्छसमप्यभा । वेरुलियनिद्धसंकासा नीललेसा उ वण्णओ ॥
(द्र द्रव्यलेश्या)
नैगम नय
१. भेद और अभेद को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण ।
भेदाभेदग्राही नैगमः ।
२. संकल्प को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण |
संकल्पग्राही च ।
नैपुणिक
१. सूक्ष्म ज्ञान का धनी ।
निपुणं सूक्ष्मज्ञानं तेन चरन्तीति नैपुणिकाः'
(उ ३४.५)
( भिक्षु ५.४)
( भिक्षु ५.५ )
****** |
(स्था ९.२८ वृ प ४२८ )
२. नौंवा पूर्व - विद्यानुप्रवाद का अध्ययन । अथवा अनुप्रवादाभिधानस्य अध्ययनविशेषा एवेति । (स्था ९.२८ वृ प ४२८ )
नैरयिकायुष्क
आयुष्य कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव नारक अवस्था का अनुभव करता है। नारकाद्यायुः पुद्गलानामुदयेन नारकाद्यायुर्वेदयते ।
(प्रज्ञा २३.३७ वृ प ४६३) आयुरेवायुष्कं तत्र नरका उत्पत्तियातनास्थानानि पृथिवीपरिणतिविशेषास्तत्संबन्धिनः सत्त्वा अपि तात्स्थ्यान्नरकास्तेषामिदमायुर्नारकम्। (तभा ८.११ वृ पृ १४८)
नैर्यात्रिक
वह धर्म, जो मोक्ष की ओर ले जाने वाला है।
(सूत्र १.८.११)
नैश्चयिक अर्थावग्रह
वह अवग्रह, जिसके द्वारा सामान्य का परिच्छेद होता है और जो एक समय की अवधि वाला है।
अवग्रहो द्विधा - नैश्चयिको व्यावहारिकश्च । तत्र नैश्चयिको नाम सामान्यपरिच्छेदः, स चैकसामयिकः शास्त्रेऽभिहितः । (तभा १.१६ वृ)
(द्र व्यावहारिक अर्थावग्रह )
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
नैश्चयिक काल
वह सर्वव्यापी काल, जो प्रत्येक द्रव्य में होता है, जो परिणमन
होता है।
नैश्चयिकस्तु प्रतिद्रव्यं वर्तते तेन तस्य सर्वव्यापित्वम् । (जैसिदी १.३५ वृ)
नैश्चयिक नय
द्रव्य के समग्र रूप, सब पर्यायों को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण, जैसे- भौंरा पांच वर्ण वाला है। वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पण्णत्ते ॥
...वावहारियनयस्स कालए भमरे, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाव अट्ठफासे पण्णत्ते ॥ (भग १८.१०७, १०८ ) तात्त्विकार्थाभ्युपगमपरो निश्चयः । यथा - पञ्चवर्णो भ्रमरः, तच्छरीरस्य बादरस्कन्धत्वेन । ( भिक्षु ५. १८ वृ)
(द्र व्यवहारनय)
नैषधिक
कायक्लेश का एक प्रकार । समपादपुता आदि निषद्याओं में बैठने वाला ।
नैषधिकः -- समपादपुतादिनिषद्योपवेशी।
(स्था ७.४९ वृ प ३७८)
नैषेधिकी
१. वह भूमि, जहां मुनि के शव का अंतिम संस्कार किया जाता है।
'नैषेधिक्यां वा' शवपरिष्ठापनभूम्याम् । (बृभा ५५४१ वृ) २. वह भूमि, जहां पर स्वाध्याय किया जाता है । 'णिसीहिया' सज्झायथाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादौ सैव निसीहिया । (दअचू पृ १२६)
नैषेधिकी सामाचारी
स्थान में प्रवेश करते समय 'निस्सही' नैषेधिकी का उच्चारण करना ।
......ठाणे कुज्जा निसीहियं ।
(उ२६.५)
नैसृष्टिकी क्रिया
किसी वस्तु के फेंकने से होने वाली कर्मबंध की हेतुभूत क्रिया ।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
निसर्जनं निसृष्टं, क्षेपणमित्यर्थः, तत्र भवा तदेव वा नैसृष्टिकी, निसृजतो यः कर्म्मबन्धः । (स्था २.२६ वृ प ३९ )
नैसर्प
महानिधि का एक प्रकार । वास्तुशास्त्र - ग्राम, नगर आदि की रचना का प्रतिपादक शास्त्र ।
सप्पंमि णिवेसा, गामागर नगर पट्टणाणं च । दोणमुहमडंबाणं, खंधाराणं गिहाणं च ॥ (स्था ९.२२.२) नो अतिमात्र भोजन
ब्रह्मचर्यगुप्ति का आठवां प्रकार, जिसमें प्रमाण से अतिरिक्त भोजन करना निषिद्ध है।
धम्मलद्धं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुंजेज्जा, बंभचेररओ सया ॥ नोअमन
लक्ष्य - शून्य मन, अनुबंधशून्य मन ।
( उ १६.८ )
(स्था ३.३५७ वृ प १३२)
(द्र तदन्यमन, तन्मन)
नोआगमतः ज्ञशरीर द्रव्यनिक्षेप
नोआगमतः द्रव्यनिक्षेप का एक प्रकार । जो शरीर निर्दिष्ट विषय को जानता था पर वर्तमान में ज्ञानशून्य है । जाणगसरीरदव्वावस्सयं - आवस्सए त्ति पयत्थाहिगारजाणगस्स जं सरीरयं ववगय-चुय चाविय चत्तदेहं जीवविप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं वा निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ताणं कोइ वएज्जा - अहो णं इमेणं सरीर-समुस्सएणं जिणदिवेणं भावेणं आवस्सए ति पयं आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उवदंसियं । को दितो ? अयं महुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी । से तं जाणगसरीर- दव्वावस्सयं ॥ (अनु १६) नोआगमतः ज्ञशरीर - भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यनिक्षेप नोआगमतः द्रव्यनिक्षेप का एक प्रकार। वह क्रिया अथवा द्रव्य, जिसका संबंध अतीत अथवा भावी ज्ञाता के साथ नहीं होता, जैसे- स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि तद्व्यतिरिक्त द्रव्य मंगल |
तव्वतिरित्तं जहा सोत्थियसिरिवच्छादिणो अट्ठमंगलया सुवण्णदधिअक्खयमादीणि य । (आवचू १ पृ५)
१६३
नोआगमतः द्रव्यनिक्षेप
द्रव्यनिक्षेप का एक प्रकार । व्यक्ति का वह मृत शरीर, जो कभी विवक्षित पद के अर्थ को जानता था । वह व्यक्ति, जिसका शरीर भविष्य में विवक्षित पद को जानने वाला होगा। वह द्रव्य, जो विवक्षित पदार्थ का प्रतिनिधित्व करता है ।
जाणगसरीरं जो जीवो मंगलपदत्थाधिकारजाणओ तस्स जं सरीरं ववगयजीवं, पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च, जहा अयं घयकुंभे आसी अयं महुकुंभे भविस्सति, एवं भवियसरीरविभासा कायव्वा । (आवचू १ पृ ५)
नोआगमतः भव्यशरीर द्रव्यनिक्षेप
नो आगमतः द्रव्यनिक्षेप का एक प्रकार। वह शरीर, जो भविष्य में निर्दिष्ट विषय को जानेगा पर वर्तमान में ज्ञानशून्य है 1 भवियसरीरदव्वावस्सयं - जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खते इमेणं चेव आदत्तएण सरीरसमुस्सएणं जिणदिवेणं भावेणं आवस्सए त्ति यं सेकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खड़ । जहा को दितो ? अयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सइ । से तं भवियसरीरदव्वावस्सयं ॥ ( अनु १७)
नोआगमतः भावनिक्षेप भावनिक्षेप का एक प्रकार। जो विवक्षित अर्थ को जानता है तथा उस क्रिया में प्रवृत्त है।
उपाध्यायार्थज्ञः अध्यापनक्रियाप्रवृत्तश्च नोआगमतो भावो(जैसिदी १०.९ वृ)
पाध्यायः ।
नोइन्द्रिय
१. मन, जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत विषयों का विश्लेषण, पर्यालोचन करता है इसलिए वह नोइंद्रिय है, ईषत् इन्द्रिय है ।
नोइन्द्रियं - मनः ।
(स्था ६.१४ वृ प ३३८)
२. चार कषाय
(द्र दान्त)
नोइन्द्रियप्रत्यक्ष
अतीन्द्रियज्ञान, इन्द्रियों की सहायता के बिना आत्मा से होने वाला ज्ञान ।
गोइंदियपच्चक् ति इंदियातिरित्तं । ( नन्दी ७ चू पृ १५ )
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नोइन्द्रिययमनीय क्रोध, मान, माया और लोभ की उदीरणा न करना। जं मे कोह-माण-माया-लोहा वोच्छिण्णा नो उदीरेंति, सेत्तं नोइंदियजवणिजे॥
(भग १८.२१०)
नोकर्म कर्म-पुदगलों की उदयोत्तरकालीन अवस्था, इस अवस्था में वे निर्जरा के योग्य बन जाते हैं। वेदितरसं कर्म नोकर्म।
(भग ७.७५ वृ) नोकर्मवर्गणा कर्म, भाषा, मन और तैजस-इन चार वर्गणाओं को छोड़कर शेष उन्नीस वर्गणाएं। सेसएक्कोणवीसवग्गणाओ णोकम्मवग्गणाओ।
(धव पु १४ पृ५२) नोकर्मशरीर कर्म की सहायक सामग्री। चार शरीर-औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस। ओरालिय-वेगुब्विय-आहारय-तेजणामकम्मुदये। चउ णोकम्मसरीरा, कम्मेव य होदि कम्पइयं ॥ कर्मसहकारित्वेन ईषतकर्मत्वाच्च नोकर्मशरीरत्वसंभवात्।
(गोजी २४४ वृ)
नोपरीत-नोअपरीत सिद्ध, जो न परीत है, न अपरीत-दोनों अवस्था से परे है। णोपरित्ते-णोअपरित्ते सादीए अपज्जवसिते।
(जीवा ९.८२) नोभवोपपातगति उपपात गति का एक प्रकार। सिद्ध जीव तथा परमाणु की एक समय में होने वाली गति। नोभवः-भवव्यतिरिक्तः कर्मसम्पर्कसम्पाद्यनैरयिकत्वादिपर्यायरहित इति भावः, स च पुद्गलः सिद्धो वा।
(प्रज्ञा १६.३३ वृ प ३२८) णोभवोववायगती विहा पण्णत्ता, तं जहा-पोग्गलणोभवोववायगती य सिद्धणोभवोववायगती य॥
(प्रज्ञा १६.३३) नोशब्दरूपगन्धरसस्पर्शानुपाती ब्रह्मचर्य की दसवीं गुप्ति (कोट), जिसमें शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में आसक्त नहीं बनने का निर्देश है। सद्दे रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य। पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए॥
(उ १६ सूत्र १२ गाथा १०)
नोकषाय ईषत् कषाय, कषाय का उपजीवी कषाय। जैसे-हास्य, रति आदि। कषायैः सहचारिणो नोकषाया इति, उक्तं चकषायसहवर्त्तित्वात्, कषायप्रेरणादपि। हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता।
(प्रज्ञा २३.३६ वृ प ४६९)
नोसंज्ञीनोअसंज्ञी केवलज्ञानी और सिद्ध जो समनस्क और अमनस्क-इन दोनों अवस्थाओं से परे होते हैं। नोसंज्ञीनोअसंज्ञी च केवली सिद्धश्च।
(प्रज्ञा २८.१२० वृ प ५१५) नोसातसौख्यप्रतिबद्ध ब्रह्मचर्य की गुप्ति का एक प्रकार, जिसमें ब्रह्मचारी प्रियता
और अनुकूल संवेदन में प्रतिबद्ध नहीं होता। नोसायासोक्खपडिबद्धे यावि भवइ। (सम ९.१)
नोकषायवेदनीय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । स्त्रीवेद आदि नोकषाय का वेदन करना। स्त्रीवेदादिनोकषायरूपेण वेद्यते तन्नोकषायवेदनीयम्।
(प्रज्ञा २३.३४ वृ प ४६८) नोकसायवेयणिज्जे "णवविहे पण्णत्ते, तं जहा-इथिए, पुरिसवेए णपुंसगवेदे हासे रती अरती भए सोगे दुगुंछा।।
(प्रज्ञा २३.३६)
नोसूक्ष्मनोबादर सिद्ध, शरीर मुक्त जीव, जो सूक्ष्म और बादर नहीं होता। नोसूक्ष्मनोबादराः सिद्धाः। (प्रज्ञा ३.१११ वृ प १३९) नोस्त्रीकथा ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। स्त्रीविषयक कथा का वर्जन करना, उनके श्रृंगार आदि की कथा न करना।
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स्त्रीणां कथा स्त्रीकथा "रागानुबन्धिनी देशजातिकुलनेपथ्यभाषागतिविभ्रमेडितहास्यलीलाकटाक्षप्रणयकलहभंगाररसानुविद्धा वात्येव चित्तोदधेरवश्यंतया विक्षोभमातनोति तस्मात् तद्वर्जनं श्रेय इति भावयेत्। (तभा ७.३ वृ) न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान संस्थान का दूसरा प्रकार। जिस शरीर की संरचना में नाभि से ऊपर का भाग विस्तृत अर्थात् प्रमाणोपेत और नीचे का भाग छोटा-बड़ा अर्थात् प्रमाणोपेत न हो। नाभेरुपरि विस्तरबहलं शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाग् अधस्तु हीनाधिकप्रमाणम्।
(स्था ६.३१ वृ प ३३९)
न्याय युक्ति के द्वारा तत्त्वों का परीक्षण करना. जिसके चार अंग हैं-प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति, प्रमाता। युक्त्यार्थपरीक्षणं न्यायः।।
(भिक्षु १.१) प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिः प्रमाता चेति चतुरङ्गः। (भिक्षु १.२)
न्यासापहार स्थल मषावाद विरमण व्रत का एक अतिचार। निक्षिप्त धनराशि की विस्मतिवश अल्प संख्या बतलाना। न्यासापहारो विस्मरणकृतपरनिक्षेपग्रहणम्।
(तभा ७.२१ वृ)
पञ्चयाम पांच प्रकार का यम (संयम) यानी पांच महाव्रत। 'पंचजामस्स' त्ति पञ्चानां यामानां-महाव्रतानां समाहारः पञ्चयामम्।
__ (सम २५.१ वृ प ४३)
(सम पञ्चशिक्षित धर्म अहिंसा, सत्य. अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांच शिक्षाओं से युक्त धर्म। पञ्चशिक्षा:-प्राणातिपातादिविरमणोपदेशात्मिका: संजाता यस्मिन्नसौ पञ्चशिक्षितः।
(उ २३.१२ शावृ प ४९९, ५००) पञ्चाङ्गप्रणिपात वह प्रणति, जिसमें जानुयुगल, करयुगल और मस्तक-ये पांच अंग प्रणत होते हैं। दो जाणू दोण्णि करा, पंचमगं होइ उत्तमंगं तु। सम्मं संपणिवाओ णेओ पंचंगपणिवाओ।
(पञ्चा ११२) पञ्चाणुव्रतिक धर्म वह धर्म, जिसका भगवान महावीर ने गृहस्थ के लिए पांच अणुव्रत के रूप में प्रज्ञापन किया था। से जहाणामए अज्जो! मए समणोवासगाणं पंचाणुव्वतिए" धम्मे पण्णत्ते।
(स्था ९.६२) पञ्चास्तिकाय धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल-ये पांच निरपेक्ष अस्तित्व, जो त्रैकालिक हैं, प्रदेशस्कन्ध अथवा परमाणुस्कन्ध के रूप में हैं। पंचत्थिकाए न कयाइ नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ । भुविंच, भवइ य, भविस्सइ य।धुवे नियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए निच्चे। (नंदी १२६) (द्र अस्तिकाय) पञ्चेन्द्रिय स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षुः और श्रोत्र-इन पांच इन्द्रियों वाला प्राणी, जैसे-मनुष्य, गाय आदि। स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियपञ्चयुक्ता मनुष्यादयः पञ्चेन्द्रियाः।
(बृद्रसं ११ वृ पृ २३)
पङ्कप्रभा नरक की चतुर्थ पृथ्वी (अञ्जना) का गोत्र, जहां पङ्क जैसी आभा होती है।
(देखें चित्र पृ ३४६) (द्र रत्नप्रभा) पंक इवाभाति पंकप्रभा।
(अनुचू पृ ३५)
पक्ष
(भिक्षु ३.९) (द्र धर्मी, साध्य) पञ्चमहाव्रतिक धर्म भगवान् महावीर के द्वारा मुनि के लिए प्रज्ञप्त पंचमहाव्रतात्मक धर्म। से जहाणामए अज्जो! मए समणाणं णिग्गंथाणं पंचमहव्वतिए सपडिक्कमणे अचेलए धम्मे पण्णत्ते। (स्था ९.६२)
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पञ्चेन्द्रियरत्न
सकता है। चक्रवर्ती के वे सात रत्न, जो पञ्चेन्द्रिय होते हैं-स्त्री, अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहुविहाण पत्ताणं। सेनापति, गृहपति, पुरोहित, वर्धकी, अश्व, हस्ती। जा उवरि वच्चदि गुणी सा रिद्धी पत्तचारणा णाम॥ सेनापत्यादीनि सप्त पञ्चेन्द्रियाणि। (प्रसाव प ३५१)
(त्रिप्र ४.१०४०) पटबुद्धि
पदविभाग सामाचारी वह मुनि, जिसकी बुद्धि विशिष्ट वक्ता के द्वारा निरूपित कल्प और व्यवहार-इन दो आगमों (छेदसूत्रों) में प्रतिपादित प्रभूत सूत्र और अर्थ को पटवत् (पट में वस्तु के धारण की
विधि और निषेध। शक्ति होती है) धारण करने में समर्थ होती है।
पदविभागसामाचारी कल्पव्यवहारः । तत्रौघसामाचारी पद'पडबुद्धि' त्ति पटवत् विशिष्टवक्तृवनस्पतिविसृष्टविविध
विभागसामाचारीच नवमपूर्वान्तर्वर्त्ति यत् तृतीयं सामाचारी
वस्त्वस्ति, तत्रापि विंशतितमात् प्राभृतात् साध्वनुग्रहार्थं प्रभूतसूत्रार्थपुष्पफलग्रहणसमर्थतया बुद्धिर्येषां ते तथा।
भद्रबाहुस्वामिना निर्मूढा। (औप १.२४ वृप५२)
____ (ओनिवृ प १)
पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणि पण्डित
(आवनि ६६५ हावृ पृ १७२) १. वह मुनि, जो परित्यक्त भोगों के पुनः सेवन करने से होने
पदस्थ ध्यान वाले दोषों को जानता है।
मंत्र आदि पदों का आलंबन लेकर किया जाने वाला ध्यान। पंडिया णाम चत्ताणं भोगाणं पडियाइयणे जे दोसा परि
यत्पदानि पवित्राणि, समालम्ब्य विधीयते। जाणंती।
(द २.११ जिचू पृ९२)
तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानसिद्धान्तपारगैः॥ (योशा ८.१) २. जो सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न होता है। पण्डिताः-सम्यग्ज्ञानवन्तः। (दहावृ प ९९) पदहीन ३. मुनि, वह जीव, जो सर्वथा विरत है। जो , त्व का ज्ञाना का एक अतिचार । ग्रंथ में प्रयुक्त शब्दों को छोड़कर विज्ञाता-संयति है।
उच्चारण करना। विरई पडुच्च पंडिए आहिज्जइ। (सूत्र २.२.७५) पदेनैवोनम्।
(आवहावृ २ पृ१६१) फलवद्विज्ञानसंयुक्तत्वात् पण्डितो-बुद्धतत्त्वः संयत इत्यर्थः।
पदानुसारिणी बुद्धि (स्था ३.५१९ वृ प १६५)
बुद्धि ऋद्धि का एक प्रकार। एक सूत्रपद के आधार पर पण्डित मरण
सम्पूर्ण सूत्रपदों को जान लेने वाली योगज विभूति। संयति का मरण।
जो सुत्तपएण बहुं सुयमणुधावइ पयाणुसारी सो॥ पण्डिताण मरणं पण्डितमरणं, विरतानामित्यर्थः।।
(विभा ८००) (उचू पृ १२८) पण्डित वीर्य
पद्मलेश्या वीर्यलब्धि का एक प्रकार। चारित्रमोहकर्म और वीर्यान्तराय
प्रशस्त लेश्या का दूसरा प्रकार। कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त शक्ति। संयति का संयममय
१. पशस्त भावधारा, प्रतनु कषाय और उपशांत कषाय से
संबंधित चैतन्य की एक रश्मि। पुरुषार्थ।
(भग ८.१४५) (द्र बालवीर्य)
पयणुक्कोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए।
पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ।। पत्रचारण
तहा पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए। चारण ऋद्धि का एक प्रकार । इस ऋद्धि के द्वारा साधक पत्तों एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे॥ के जीवों का उपघात किए बिना उनके ऊपर से गमन कर
(उ ३४.२९,३०)
(द्र भावलेश्या)
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२. पद्मलेश्या के परिणमन में आधारभत पीत वर्ण वाले परपरिवाद पाप पुद्गल।
पापकर्म का पन्द्रहवां प्रकार। पर-निंदा करने की प्रवृत्ति से हरियालभेयसंकासा हलिद्दाभेयसंनिभा।
होने वाला अशुभ कर्म-बंध। (आवृ प ७२) सणासणकुसुमनिभा पम्हलेसा उवण्णओ॥
'परपरिवाए'विप्रकीणं परेषां गुणदोषवचनम्। (उ ३४.८)
(भग १.२८६ वृ) (द्र द्रव्यलेश्या)
परपरिवाद पापस्थान पद्मासन
वह कर्म, जिसके उदय से जीव परपरिवाद में प्रवृत्त होता बैठने की वह मुद्रा, जिसमें एक जंघा (पिंडली) के मध्यभाग है।
(झीच २२.२२) में दूसरी जंघा का संश्लेष होता है। जङ्घाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जङ्घया।
परपाषण्डप्रशंसा पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणैः॥ (योशा ४.१२९)
सम्यक्त्व का एक अतिचार । लक्ष्य के प्रतिकल चलने वालों
की प्रशंसा। पनकसूक्ष्म
परपाषण्डप्रशंसा-लक्ष्यप्रतिगामिनां प्रशंसा। वर्षा में भूमि, काठ, उपकरण (वस्त्र) आदि पर उत्पन्न
(जैसिदी ५.१० वृ) फफूंदी, जो उस द्रव्य के समान वर्ण वाली होती है।
परपाषण्डसंस्तव पणगसुहुम णाम पंचवण्णो पणगो वासासु भूमिकट्ठउवगरणादिसु तद्दव्वसमवण्णो पणगसुहुमं।
सम्यक्त्व का एक अतिचार । लक्ष्य के प्रतिकूल चलने वालों (र १५ जिचू पृ २७८) का परिचय (घनिष्ठता)।
परपाषण्डसंस्तवः-लक्ष्यप्रतिगामिनां परिचयः। पर
(जैसिदी ५.१० वृ) १. आप्त, तीर्थंकर, जिनसे उत्कृष्ट अन्य नहीं है। .."जिणा परं नथि।
(आनि ६६)
परप्रतिष्ठित क्रोध 'पर' शब्द उत्कृष्टतावाचकोऽस्ति।धर्मक्षेत्रे तीर्थंकरा उत्कृष्टाः
दूसरे के निमित्त से उत्पन्न होने वाला आवेश। वर्तन्ते।
(आभा १.३)
यदा पर उदीरयति आक्रोशादिना कोपं तदा किल तदविषयः २. गृहस्थ, जिसकी मुनि की अपेक्षा 'पर' संज्ञा है।
क्रोध उपजायते इति स परप्रतिष्ठितः। परा गिहत्था। (निभा ४३२ चू)
(प्रज्ञा १४.३ वृ प २९०)
परभाववक्रता क्रिया परकायशस्त्र
मायाप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । परभाव-वञ्चना, कूटलेख वह सजीव अथवा निर्जीव द्रव्य. जिसके प्रयोग से अपने से
आदि के द्वारा दूसरों को छलने की प्रवृत्ति । भिन्न जाति के प्राणी के प्राण का वियोजन होता है, जैसे
परभावस्य वङ्कनता-वञ्चनता या कूटलेखकरणादिभिः, अग्नि मिट्टी के जीवों का शस्त्र है। (आभा १.१९)
सा परभाववङ्कनता। (स्था २.१८ वृ प ३८) (द्र स्वकायशस्त्र)
परमाणु परच्छन्दानुवर्तिता
वह पुद्गलद्रव्य, जिसका विभाग नहीं हो सकता और जो लोकोपचार विनय का एक प्रकार । दूसरों के अभिप्राय के । एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श युक्त होता है। अनुसार वर्तन करना।
जं दव्वं अविभागी, तं परमाणु विजाणीहि। (तवा ५.२५) 'परच्छंदाणुवत्तिय' त्ति पराभिप्रायानुवर्त्तित्वम्।
परमाणुपोग्गले"एगवण्णे, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पण्णत्ते॥ (स्था ७.१३७ वृ प ३८८)
(भग १८.१११) (द्र द्रव्यपरमाणु)
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परमाणुपुद्गल
(भग १८.१११)
(द्र परमाणु)
परमोहिन्नाणविओ केवलमंतोमुहुत्तमित्तेण।..
(विभा ६८९) परमोही अंतोमुहुत्तं भवति।ततो परं केवलज्ञानं समुप्पज्जति।
(आवचू १ पृ ४०) परम्परपर्याप्त वह जीव, जिसे पर्याप्त हुए दो आदि समय हो चुके हैं। अनन्तर पर्याप्तका: प्रथमसमयपर्याप्तका इत्यर्थः, इतरे त परम्परपर्याप्तकाः। (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) (द्र अनन्तरपर्याप्त)
परम्परावगाढ विवक्षित क्षेत्र से व्यवहित आकाश-प्रदेशों में अवस्थित जीव। विवक्षितप्रदेशापेक्षया अनन्तरप्रदेशेष्ववगाढा-अवस्थिता अनन्तरावगाढा:एतद्विलक्षणा: परम्परावगाढाः, अयं क्षेत्रतो भेदः।
(स्था १०.१२३ वृ प ४८७) (द्र अनन्तरावगाढ)
परमात्मा १. जो आत्मा अत्यंत निर्मल है। परमात्मातिनिर्मलः।
(सश ५) २. वह आत्मा, जो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में विद्यमान है, सिद्ध के तुल्य है। ३. सिद्ध, जो साक्षात् परमात्मा है। सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वये "सिद्धसदृशः परमात्मा, सिद्धस्तु साक्षात् परमात्मा।
(बृद्रसंवृ पृ ३८) ४. परम अर्हतासम्पन्न अर्हत् और परम सिद्धिसम्प्राप्त सिद्ध। परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य॥
(काअ १९२) परमाधार्मिक देव वह असुर देव, जो प्रथम तीन पृथ्वियों में नारकीय जीवों को यातना देता है। परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च संक्लिष्टपरिणामत्वात्परमाधार्मिका:-असुरविशेषाः, ये तिसृषु पृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्तीति।
(सम १५. १ वृ प २८) परमावधि १. वह अवधिज्ञान, जो जघन्यतः एक प्रदेश अधिक लोकक्षेत्र को तथा उत्कृष्टतः असंख्यात लोकों को जानने की क्षमता रखता है। सव्वबहुअगणिजीवा निरंतरं जत्तियं भरिजंसु। खेत्तं सव्वदिसागं, परमोही खेत्तनिहिद्रो।
(नंदी १८.२) जघन्यस्य परमावधेः क्षेत्रं प्रदेशाधिको लोकः।"उत्कृष्टपरमावधेः क्षेत्रं सलोकालोकप्रमाणा असंख्येया लोकाः"" अग्निजीवतुल्याः"त्रिविधोऽपि परमावधिः उत्कृष्टचारित्रयुक्तस्यैव भवति नान्यस्य। वर्धमानो भवति, न हीयमानः। अप्रतिपाती, न प्रतिपातीr"द्रव्यक्षेत्रकालभावैः सर्वावधेरन्तःपाती परमावधिः, अतः परमावधिरपि देशावधिरेव।
__ (तवा १.२२.४) २. वह अवधिज्ञान, जिसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है।
परम्पराहारक १. वह जीव, जो पूर्व में व्यवहित और पश्चात् अपने क्षेत्र में आए हुए पुद्गलों का आहार करता है। २. वह जीव, जो उत्पन्न होने के बाद दूसरे, तीसरे आदि समयों में आहार लेता है। ये तु पूर्वव्यवहितान् सतः पुद्गलान् स्वक्षेत्रमागतानाहारयन्ति ते परम्पराहारकाः, अथवा प्रथमसमयाहारका अनन्तराहारकाः इतरे त्वितरे।
(स्था १०.१२३ वृ प ४८७) (द्र अनन्तराहारक) परम्परोपपन्न वह जीव, जिसे उत्पन्न हुए दो या उससे अधिक समय हुए
हों।
येषां तत्पन्नानां द्वयादयः समया जातास्ते परम्परोपपन्नकाः।
(स्था १०.१२३ वृ प ४८७) (द्र अनन्तरोपपन्न)
परलोकभय विजातीय से होने वाला भय, जैसे-मनुष्य को तिर्यञ्च, देव
आदि से होने वाला भय। विजातीयात्-तिर्यग्देवादेः सकाशान्मनुष्यादीनां यद्भयं तत् परलोकभयम्।
(स्था ७.२७ वृ प ३६९)
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परलोकाशंसाप्रयोग
संलेखना का एक अतिचार । 'परलोक में मैं देवता बनूं'इस प्रकार की आकांक्षा करना ।
परलोकाशंसाप्रयोगो 'देवोऽहं स्याम्' इत्यादि ।
( उपा १.४४ वृ पृ २१ )
परवाद
वह मत या सिद्धांत, जो बौद्ध आदि अन्य दार्शनिकों द्वारा सम्मत है I
परवादा: - शाक्यादिमतानि ।
(औपवृ प ३३)
परविवाह करण
स्वदारसंतोष व्रत का एक अतिचार। अपनी और अपने आत्मीयों की संतान के अलावा अन्य का विवाह करना । परेषाम् - आत्मन आत्मीयापत्येभ्यश्च व्यतिरिक्तानां विवाहकरणं परविवाहकरणम् । ( उपा १.३५ वृ पृ १३ )
परव्यपदेश
अतिथिसंविभाग व्रत का एक अतिचार। 'यह देय आहार किसी दूसरे का है ' - यह बहाना बनाकर न देना । ‘परव्यपदेशः 'परकीयमेतत् तेन साधुभ्यो न दीयते इति साधुसमक्षं भणनम् । (उपा १.४३ वृ पृ १९ )
परव्याकरण
तीर्थंकर की वह वाणी, जो पूर्वजन्म की स्मृति का हेतु बनती है ।
परवइवागरणं पुण, जिणवागरणं जिणा परं नत्थि । (आनि ६६ )
परशरीरानवकांक्षाप्रत्यया क्रिया अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। दूसरे के शरीर की क्षति की उपेक्षा कर की जाने वाली प्रवृत्ति । (स्था २.३४)
परसंग्रह नय
संग्रह का एक प्रकार। विशेष को उपेक्षित कर सत्तामात्र ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण, जैसे- विश्व एक है। अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसंग्रहः । (प्रनत ७.१५)
परसमय
Jain Eccurarernational
(अनु ६०७)
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परसमयवक्तव्यता
प्रज्ञापन की वह विधा, जिसमें अन्यतीर्थिकों के दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है।
जत्थ णं परसमए आघविज्जइ पण्णविज्जइ परूविज्जइ दंसिज्जड़ निदंसिज्जइ उवदंसिज्जइ । से तं परसमयवत्तव्वया ।
( अनु ६०७ )
परस्परोदीरित दुःख
वह दु:ख, जो मिथ्यादृष्टि वाले नारक जीवों द्वारा परस्पर दिया जाता है।
परस्परोदीरितानि च दुःखानि नरकेषु नारकाणां भवन्ति । मिथ्यादृष्टयो भवप्रत्ययविभङ्गानुगतत्वादालोक्य परस्परमेवाभिघातादिभिर्दुःखानि । (तभा ३.४)
परहस्तपारितापनिकी क्रिया
पारितापनिकी क्रिया का एक प्रकार। दूसरे के हाथ से स्वयं
या दूसरे को परिताप दिलाना ।
परहस्तेन तथैव च तत्कारयतः परहस्तपारितापनिकी ।
(स्था २.१० वृप ३८ )
परहस्तप्राणातिपात क्रिया प्राणातिपात क्रिया का एक प्रकार। दूसरे के हाथ से स्वयं अथवा दूसरों के प्राणों का अतिपात करना । परहस्तेनापि तथैव परहस्तप्राणातिपातक्रिया ।
(स्था २.१२ वृ प ३८)
पराक्रम
१. वह प्रयत्न, जो कार्यनिष्पत्ति में सक्षम होता है। पराक्रमश्च स एव साधिताभिमतप्रयोजनः ।
(भग १.१४६ वृ) २. वह सामर्थ्य, जिसके द्वारा शत्रु का निराकरण होता है । पराक्रमस्तु शत्रुनिराकरणमिति । (भग १.१४६ वृ)
पराघातनाम कर्म
नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव अपने प्रभाव के कारण दूसरे को अभिभूत कर देता है । यदुदयात् पुनरोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महानृपसभामपि गतः सभ्यानामपि त्रासमापादयति प्रतिवादिनश्च प्रतिभाविघातं करोति तत्पराघातनाम |
(प्रज्ञा २३.५३ वृ प ४७३)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
परिग्रह के द्वारा कर्म को आकर्षित करने वाली आत्मा की अवस्था।
(स्था ५.१२८)
पराजय वाद में अपने पक्ष को सिद्ध न कर सकने पर होने वाला पराभव। वादिनः प्रतिवादिनोवा या स्वपक्षस्य असिद्धिः सा पराजयः।
(प्रमी २.१.३२ व)
परार्थानुमान परोपदेश से होने वाला साध्य का विज्ञान. जिसमें पक्ष और हेतु का कथन किया जाता है। 'परार्थम्' अनुमानं परोपदेशापेक्षं साध्यविज्ञानमित्यर्थः ।
(प्रमी २.१.१ वृ) पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात्।
(प्रनत ३.२३)
परिग्रह पाप पापकर्म का पांचवां प्रकार । मूर्छात्मक संग्रह की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध। (आवृ प ७२) परिग्रह पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव परिग्रह में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, परिग्रह सेवै अयाण। तिण कर्म नै कहियै सही जी, परिग्रह पंचम पापठाण॥
(झीच २२.११) परिग्रहविरमण पांचवां महाव्रत । परिग्रह के परित्याग से होने वाली विरति।
(स्था ५.१) (द्र सर्वपरिग्रहविरमण)
परिग्रहसंज्ञा लोभवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला संग्रहात्मक संवेदन। लोभोदयात् प्रधानसंसारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया परिग्रहसञ्ज्ञा। (प्रज्ञा ८.१ ७ प २२२)
परावर्त्तमान वह कर्म-प्रकृति, जो किसी दूसरी प्रकृति के बंध अथवा उदय को रोककर बंध अथवा उदय को प्राप्त होती है, जैसेस्त्रीवेद, पुरुषवेद आदि। याः प्रकृतयः प्रकृत्यन्तरस्य बन्धमुदयं वा विनिवार्य बन्धमुदयं वाऽऽगच्छन्ति ताः परावर्त्तमानाः। (कप्र पृ ३४) परिकर्म दृष्टिवाद का एक प्रकार, जिसके पढ़ने से सूत्र आदि को समझने की योग्यता आ जाती है। सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थं परिकर्म।
(स्था ४.१३१ वृ प १८८) (द्र दृष्टिवाद) परिकुञ्चना प्रायश्चित्त मायापूर्वक अपराध को छिपाने का प्रायश्चित्त। परिकुञ्चनम्-अपराधस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणनं परिकुञ्चना परिवञ्चना वा" तस्याः प्रायश्चित्तं परिकुञ्चनाप्रायश्चित्तं।
(स्था ४.१३३ वृप १८९) परिगृहीता देवी पत्नी के रूप में स्वीकृत देवी। (प्रज्ञा २.१९)
परिचारणा कामवासना की प्रवृत्ति। परिचारणा-यथायोगं शब्दादिविषयोपभोगः ।
(प्रज्ञा ३४.१७ वृ प ५४४)
परिचित पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अङ्ग। परावर्तन करते समय उल्टे-सीधे क्रम से पूरे ग्रंथ को दोहराना अथवा पूछे जाने पर क्रम या व्युत्क्रम से तत्काल बता देना। जं कमेण उक्कमेण उ अणेगधा आगच्छंति तं परिजियं।
(अनु १३ चू पृ७)
परिज्ञा १. विवेक। साधना की सिद्धि के लिए उपधि, कषाय आदि का परित्याग करना। परिज्ञा-विवेकः
(आभा १.९) पंचविहा परिणा पण्णत्ता, तं जहा-उवहिपरिण्णा,
परिग्रह आस्त्रव
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परिणामअनित्यता वह अनित्यता, जो स्वभाव से अथवा प्रयोग से प्रतिक्षण अवस्थान्तर को प्राप्त होती रहती है, जैसे-मृत्पिण्ड की बदलती हुई अवस्थाएं। परिणामानित्यता नाम मत्पिण्डो हि विस्त्रसाप्रयोगाभ्यामनुसमयमवस्थान्तरं प्रागवस्थाप्रच्युत्या समश्नुते।
(तभा ५.४ वृ)
उवस्सयपरिणा, कसायपरिणा, जोगपरिण्णा, भत्तपाणपरिणा।
(स्था ५.१२३) (द्र ज्ञपरिज्ञा, प्रत्याख्यानपरिज्ञा) २. भक्तप्रत्याख्यान नामक अनशन। 'परिज्ञा' इति भक्तप्रत्याख्यानम्। (बृभा १२८३ वृ) परिज्ञातकर्मा जो ज्ञानी पुरुष कर्म-समारंभ के परिणाम को जान लेने के बाद उससे विरत होता है, कर्मत्यागी मुनि।। परिणायकम्मे-ज्ञानी पुरुषः कर्मसमारम्भस्य परिणाम ज्ञात्वैव ततो विरमति, अत एव स परिज्ञातकर्मा इत्युच्यते।
(आभा १.१२) परिण्णायकम्मो णाम जाणिऊण विरतो।
(आ १.१२ चू पृ १७) जस्सेते छज्जीवणिकायसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे।
(आ १.१७७)
परिज्ञातपञ्चाश्रव जो पांच आश्रवों को जानकर छोड़ चुका है। परिण्णा विहा-जाणणापरिण्णा पच्चक्खाणपरिण्णा य, जे जाणणापरिणाए जाणिऊण पच्चखाणपरिणाए ठिता ते पंचासवपरिण्णाता। (द ३.११ अचू पृ६३)
परिणामक १. वह साधु, जो आगमोक्त विषय पर श्रद्धा करता है। जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणक्खायं। तं तह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामयं साहुं॥
(बृभा ७९३) २. उत्सर्ग (-सूत्र) और अपवाद (-सूत्र) का ज्ञाता। 'परिणामकान' यथास्थानमपवादपदपरिणमनशीलान।
(बृभा १९१९ वृ) परिणामप्रत्ययिक परिणमन (परिणाम) से होने वाली पुद्गलों की स्वाभाविक संरचना, जैसे-बादल। जण्णं अब्भाणं, अब्भरुक्खाणं जहा ततियसए जाव अमोहाणं परिणामपच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ। (भग ८.३५३) परिणामिनित्यता वह नित्यता, जो परिवर्तनशील है, जैसे-आत्मा सदा ही आत्मा रहेगी-इस दृष्टि से वह नित्य है। उसके पर्यायपरिवर्तन होता रहता है-इस दृष्टि से वह परिणामी है, अनित्य है। यह जैन दर्शन का परिणामी नित्यवाद है। आविब्भाव-तिरोभावमेत्त परिणामिदव्वमेवेयं। निच्चं.....॥
(विभा २६६६) जं जाहे जं भावं परिणमइ तयं तया तओऽणन्न। परिणइमेत्तविसिटुं दव्वं.....॥ ..."पर्यायं परिणमति"द्रव्यमेव परिणतिमात्रविशिष्टमविचलितस्वरूपं।
(विभा २६६८ वृ) परिनिर्वत सिद्ध जीव, जो जन्म, जरा, मरण, रोग आदि से सर्वथा मुक्त
परिणत १. वह स्थावर जीव, जो स्वकाय-परकाय शस्त्र आदि के द्वारा परिणामान्तर को प्राप्त हो चुका है, निर्जीव हो चुका है। परिणताः-स्वकायपरकायशस्त्रादिना परिणामान्तरमापादिताः, अचित्तीभूता इत्यर्थः। (स्था २.१३ वृ प५०) । २. वह जीव और पुद्गल, जो विवक्षित परिणाम को छोड़कर परिणामान्तर को प्राप्त हो चुका है। जीवपुद्गलरूपाणि तानि च विवक्षितपरिणामत्यागेन परिणामान्तरापन्नानि परिणतानि। (स्थावृ प५१)
परिणाम १. एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाना-न सर्वथा अवस्थान, न सर्वथा विनाश। परिणामः अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम्। (स्थावृ प १९०) २. द्रव्य का स्वभाव, शक्ति अथवा धर्म। परिणामः स्वभावः शक्तिः धर्मः। (स्थावृ प ४३०)
परिनिव्वुडा नाम जाइजरामरणरोगादीहिं सव्वप्पगारेण वि
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विप्पमुक्क त्ति वृत्तं भवइ ।
परिभाषा
प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार । थोड़े समय के लिए नजरबन्द करना, क्रोधपूर्ण शब्दों में 'यहीं बैठ जाओ' का आदेश देना ।
परिभाषणं परिभाषा - अपराधिनं प्रति कोपाविष्कारेण मा यासीः । (स्था ७.६६ वृ प ३७८)
परिभोगैषणा
भोजन करते समय लगने वाले दोष ।
(द्र परिभोगैषणाशोधि)
(द ३.१५ जिचू पृ ११७)
परिभोगैषणाशोधि
१. भोजन करते समय संयोजना, अप्रमाण, अंगार-धूम और कारण- इन दोषों का वर्जन करना ।
२. परिभोग में पिण्ड, वसति, वस्त्र और पात्र - इस चतुष्क का शोधन करना ।
.....संजोयणमाइ पंचेव ॥ (द्र भावग्रासैषणा)
( उ २४.११)
परिभोयंमि चउक्कं, विसोहेज्ज जयं जई । (उ२४.१२) परिभोगैषणायां चतुष्कं पिण्डशय्यावस्त्रपात्रात्मकम् "यदि वा...' चतुष्कं च' संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमकारणात्मकम्, अंगारधूमयोर्मोहनीयान्तर्गतत्वेनैकतया विवक्षितत्वात् ।
(उशावृ प ५१७) (पिनि ६६९)
परिमन्थु
अवश्य करणीय कार्य में व्याघात पैदा करने वाला, जैसेवाचालता सत्यवचन का परिमंधु है ।
साधुसमाचारस्य परि - सर्वतो मध्नन्ति - विलोडयन्तीति परि-मन्थवः । (बृभा ६३१३ वृ) छ कप्पस्स पलिमंथू पण्णत्ता मोहरिए सच्चवयणस्स लिमं । (क ६.१९)
परिमाणकृत प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान का एक प्रकार । दत्ति, कवल, गृह, भिक्षा, द्रव्य आदि के परिमाणयुक्त प्रत्याख्यान । परिमाणं—संख्यानं दत्तिकवलगृहभिक्षादीनां कृतं यस्मिंस्तपरिमाणकृतम् । (स्था १०.१०१ वृ प ४७२ )
परिवर्तना
स्वाध्याय का तीसरा प्रकार । कण्ठस्थ ग्रथों की पुनरावृत्ति । परावर्त्तना - गुणनम् ।
(उ२९.२२ शावृ प ५८४)
परियट्टणं पुव्वपढितस्स अब्भसणं ।
(दअचू पृ १६)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
परिवर्तपरिहार
वनस्पति का परिवर्तनवाद । वनस्पति के एक शरीर से मरकर बार-बार उसी शरीर में उत्पन्न होना । 'वणस्सइकाइयाओ पउट्टपरिहारं परिहरंति' त्ति परिवृत्ययस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहारः -- परिभोगमृत्वा स्तत्रैवोत्पादोऽसौ परिवृत्यपरिहारस्तं परिहरन्ति – कुर्वन्तीत्यर्थः । (भग १५.७५ वृ)
परिवर्तित
उद्गम दोष का एक प्रकार । साधु को देने के लिए वस्तु का विनिमय कर भिक्षा देना।
स्वद्रव्यमर्पयित्वा परद्रव्यं तत्सदृशं गृहीत्वा यद्दीयते तत् परिवर्तितम् । ( योशा १.३८ वृ पृ १३४)
परिवृत्य परिहार
परिषद्
१. इन्द्र की परिषद् के सदस्य ।
(द्र परिवर्तपरिहार)
परिश्रव
आत्मा का वह अध्यवसाय, जो कर्मों के निर्जरण का हेतु बनता है।
कर्मनिर्जरणहेतुरात्माध्यवसायः परिश्रवः । (आभा ४.१२)
(भग १५.७५ वृ)
(सूत्र २.२.६९ चू पृ ३६७)
(द्र पारिषद)
२. श्रमणोपासक का परिवारविशेष, जैसे-माता-पिता आदि आभ्यन्तर परिषद्, दास-दासी, मित्र आदि बाह्य परिषद् । परिषदः - परिवारविशेषा:, यथा-मातापितृपुत्रादिका अभ्यन्तरपरिसद्, दासीदासमित्रादिका बाह्यपरिषदिति ।
(समप्र ९५ वृप १११ )
परिहरणदोष
वाद-दोष का एक प्रकार । वादी द्वारा उपन्यस्त हेतु का छल
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या जाति से परिहार करना।
जाव-छम्मासियं सो परिहारिओ। (नि ४.११८ चू) वादिनोपन्यस्तस्य दूषणस्य असम्यकपरिहारो जात्युत्तरं (द्र परिहार तप) परिहरणदोषः। (स्था १०.९४ वृ प ४६७) ३. भिक्षा आदि के दोषों का परिहरण करने वाला उद्युक्तविहारी
मुनि। परिहारकल्प
परिहारिकः-पिण्डदोषपरिहरणादुद्युक्तविहारी साधुः।
(बृभा ६४४७) (द्र परिहारविशुद्धि)
(आचूलावृ प ३२४)
परिहारिक कुल परिहार तप
(निभा २७७७ वृ) प्रायश्चित्त का एक प्रकार। प्रायश्चित्त-वहन के लिए किया
(द्र पारिहारिक कुल) जाने वाला मासलघु आदि तप। वह तप, जिसमें तपस्वी मुनि के लिए संभाषण, संभोजन आदि दस पदों का परिहार- परीक्षा निषेध होता है।
१. लक्षित वस्तु में लक्षण उपपन्न हो रहा है या नहीं, इसका 'परिहारो' मासलघकादिस्तपोविशेषः। (क २.४७) प्रमाण से अर्थावधारण करना। एस तवं पडिवज्जति, न किंचि आलवति मा य आलवह। उद्दिष्टस्य लक्षितस्य च यथावल्लक्षणमुपपद्यते न वा इति अत्तट्ठचिंतगस्सा, वाघातो भेण कायव्वो॥ (व्यभा ५४९) प्रमाणतोऽर्थावधारणं परीक्षा। (न्याकु १.३ १ २१) (द्र शुद्ध तप)
२. विरुद्ध नाना युक्तियों के उपस्थित होने पर उनके प्राबल्य
और दौर्बल्य का अवधारण करने के लिए होने वाला विचार । परिहारविशुद्धि चारित्र
विरुद्धनानायुक्तिप्राबल्यदौर्बल्यावधारणाय प्रवर्तमानो विचार: चारित्र का एक प्रकार। नवपूर्वधर अथवा कुछ न्यून दशपूर्वधर
परीक्षा।
(न्यादी पृ ८) नौ साधुओं द्वारा अठारह मास तक किया जाने वाला तप का विशेष प्रयोग।
परीत सव्वे चरित्तमंतो य, दंसणे परिनिट्ठिया।
१. प्रत्येकशरीरी जीव। णवपुब्विया जहन्नेणं, उक्कोस दसपुब्विया॥
२. परिमित संसार (जन्म-मरण) वाला जीव। ... दशपूर्विणः'किञ्चिद् न्यूनदशपूर्वधरा मन्तव्याः।
परित्ते विहे पण्णत्ते-कायपरित्ते य संसारपरित्ते य॥ (बृभा ६४५४ )
(जीवा ९.७६) परिहारिओ वि छम्मासे अणपरिहाओ वि छम्मासा।
(द्र कायपरीत, संसारपरीत) कप्पद्वितो वि छम्मासे एते अट्ठारस उ मासा॥
परीतजीव (बृभा ६४७४)
जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो भंगे पदीसई। परिहारिक
परित्तजीवे उसे मूले, जे यावण्णे तहाविहे। १. वह मुनि, जो परिहारविशुद्धि चारित्र की साधना में
(प्रज्ञा १.४८.२०) प्रारंभिक छ: महीने तक तप करता है।
(द्र प्रत्येकजीव) परिहारिकाः प्रथमत: षण्मासान् प्रस्तुतं तपो वहन्ति।
परीतसंसारी
(बृभा ६४७४ वृ) (द्र निर्विशमानकल्पस्थिति)
वह जीव, जिसका संसार-जन्ममरण सीमित हो गया है। २. परिहारतप प्रायश्चित्त को वहन करने वाला मुनि। इस परीत्तसंसारिकाः-संक्षिप्तभवाः। (स्था २.१८८ वृप५६) तप की अवधि एक मास से छह मास तक हो सकती है।
परीषह पायच्छित्तमणावण्णो अपरिहारिओ. आवण्णो मासाति
मार्ग से अविच्युति और निर्जरा के लिए साधु द्वारा सहनीय
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परिस्थिति। परीषह बाईस हैं। परीति-समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहाः। (उ २.१ शावृ प ७२) मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः। (तसू ९.८)
परीषहजय परीषह की स्थिति आने पर विचलित न होना। तेषां क्षधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि"नित्यानन्दलक्षणसुखामृतसंवित्तेरचलनं स परीषहजयः। (बुद्रसंवृ पृ ११६) परोक्ष उपचार विनय आचार्य अथवा किसी साधु या साध्वी के सम्मुख न होने पर भी परोक्ष में उनका गुण-संकीर्तन करना। उनकी आज्ञा के अनुसार चलना और उनकी निंदा नहीं करना। परोक्षेष्वप्याचार्यादिष्वंजलिक्रिया--गुणसंकीर्तनानुस्मरणाज्ञानुष्ठायित्वादिः कायवाङ्मनोभिरवगन्तव्यः, रागप्रहसनविस्मरणैरपिन कस्यापि पृष्ठमांसभक्षणं करणीयमेवमादिः परोक्षोपचारविनयः प्रत्येतव्यः। (चासा १६५,६६)
मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार। पलङ्ग पर सोना। . पलियंको सयणिज्जं।
(द ३.५ अचू पृ६१) पर्यङ्का निषद्या का एक प्रकार। जिनप्रतिमा की भांति पद्मासन में बैठना। पर्यङ्का-जिनप्रतिमानामिव या पद्मासनमितिरूढा।
(स्था ५.५० वृ प २८७) स्याज्जङ्घयोरधोभागे पादोपरि कृते सति। पर्यो नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः ।।
(योशा ४.१२५) पर्यन्तकर वह मुनि, जो घात्यकर्मों का अंत करता है। यः घात्यकर्मणां पर्यन्तं करोति, स पर्यन्तकरः।
(आभा ३.७२) पर्यव
(उ २८.६) (द्र पर्याय) पर्यवजातलेश्य मरण १. बालमरण का एक प्रकार, जिसमें अशुद्ध लेश्या शुद्ध बनती जाती है। २. पण्डितमरण का एक प्रकार, जिसमें शद्ध लेश्या प्रवर्धमान विशुद्धि वाली होती है। बालमरणे"पज्जवजातलेस्से। पंडियमरणे"पज्जवजातलेस्से॥ पर्यवा:-पारिशेष्याद्विशुद्धिविशेषाः प्रतिसमयं जाता यस्यां सा तथा विशुद्धया वर्द्धमानेत्यर्थः।
(स्था ३.५२०, ५२१ वृप १६५) पर्यव नय मूल नय का दूसरा प्रकार । ज्ञाता का वह अभिप्राय, जो द्रव्य को गौण कर पर्याय को ग्रहण करता है, जिसके द्वारा द्रव्य के उत्पाद-व्यय रूप पर्यायों पर विचार किया जाता है। (द्र द्रव्यार्थिक नय, पर्यायर्थिक नय)
परोक्ष ज्ञान इन्द्रिय और मन से होनेवाला ज्ञान-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। अक्खा इंदिय-मणा परा, तेस जंणाणं तं परोक्खं ।
(नन्दी ३ चू ११) आद्ये मतिज्ञानश्रतज्ञाने परोक्षं प्रमाणं भवतः। कुतः? निमित्तापेक्षत्वात्।
(तभा १.११) (द्र परोक्ष प्रमाण)
परोक्ष प्रमाण १. वह प्रमाण, जो अस्पष्ट है-इन्द्रिय और मन के साहाय्य की अपेक्षा रखता है। अविशदः परोक्षम्।
(प्रमी १.२.१) परसाहाय्यापेक्षं प्रमाणमस्पष्टत्वात् परोक्षम्।
(भिक्षु ३.१ वृ) २. वह ज्ञान, जो साक्षात् आत्मा से नहीं, हेतु आदि से होता है तथा इन्द्रिय और मन की अधीनता से होता है। एगंतेण परोक्खं लिंगियं...।
(विभा ९५) (द्र परोक्षज्ञान)
पर्यङ्क
पर्याप्तक वह जीव, जो पर्याप्त नाम कर्म के उदय से उस जन्म के योग्य सारी पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है।
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पर्याय
एताओ पज्जत्तीओ पज्जत्तयणामकम्मोदएणं णिव्वत्तिजंति, ता जेसिं अस्थि ते पज्जत्तया। (नंदी २३ चू ५२२) यत्र भवे येन यावत्यः पर्याप्तयः करणीयाः तावतीष्वसमाप्तासु सोऽपर्याप्तः समाप्तासु च पर्याप्त इति। (जैसिदी ३.११ वृ) (द्र अपर्याप्तक)
पर्याप्तकनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने में समर्थ होता है। पर्याप्तकनामयदयात् स्वयोग्यपर्याप्तिनिवर्त्तनसमर्थो भवति, तत्पर्याप्तिनाम-आहारादिपुदगलग्रहणपरिणमनहेतरात्मनः शक्तिविशेषः। तदविपरीतमपर्याप्तकनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) (द्र अपर्याप्तकनाम)
तीर्थंकर के केवलित्व काल के आश्रित अन्तकरभूमि-समय, जैसे-अर्हत मल्लि को कैवल्य प्राप्त हए जब दो वर्ष सम्पन्न हुए, तब उनके तीर्थ में साधु सिद्ध हुए-सिद्धत्वप्राप्ति का क्रम प्रारंभ हुआ। परियायतकरभूमीति पर्यायः-तीर्थकरस्य केवलित्वकालस्तमाश्रित्यान्तकरभूमिर्या सा। (ज्ञा १.८.२३३ वृप १६१) (द्र युगान्तकरभूमि) पर्यायार्थिक नय भेदग्राही नय, जैसे--- ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय। प्राधान्येन अभेदग्राही द्रव्यार्थिकः भेदग्राहीच पर्यायार्थिकः।
(भिक्षु ५.२ वृ) ऋजुसूत्रः शब्दः समभिरूढ एवंभूतश्चेति चतुर्धा पर्यायार्थिकः।
(भिक्षु ५.९)
पर्याप्ति जन्म के प्रारम्भ में होने वाला पौद्गलिक शक्ति का निर्माण। पज्जत्ती णाम सत्ती सामत्थं । सा य पुग्गलदव्वोवचया उप्पजति।
(नंदीचू पृ २२) . भवारम्भे पौदगलिकसामर्थ्यनिर्माणं पर्याप्तिः।
(जैसिदी ३.१०) पर्याप्तिका भाषा जिस भाषा के द्वारा प्रतिनियत अर्थ का अवधारण किया जा सके। सत्य भाषा और असत्य भाषा पर्याप्तिका भाषा है। या प्रतिनियतरूपतया अवधारयितुं शक्यते सा पर्याप्ता, सा च सत्या मृषा वा।
(प्रज्ञा ११.३१ वृ प २५७)
जीवो गुणो पडिवन्नो, नयस्स दव्वट्ठियस्स सामाइयं। सो चेव पज्जवट्ठियनयस्स जीवस्स एस गुणे॥
(विभा २६४३) (द्र पर्यव नय) पर्युषणाकल्प १. आचारदशा (दशाश्रुतस्कंध) की आठवीं दशा, कल्पसूत्र, जिसमें तीर्थंकरचरित्र, गणधरावलि आदि का वर्णन है। आयारदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता"पज्जोसवणाकप्पो"।
(स्था १०.११५) २. वर्षावासीय आवास की व्यवस्था। वर्षाकालस्य चतुर्यु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः।
(भआवृ पृ ६१६)
पर्याय १. जीवनकाल अथवा प्रव्रज्याकाल। पर्यायो जन्मकाल: प्रव्रज्याकालो वा।
(स्था ५.३२ वृ प ३४०) २. पूर्व अवस्था का परित्याग और उत्तर अवस्था की प्राप्ति। पूर्वोत्तराकारपरित्यागादानं पर्यायः। (जैसिदी १.४०) पर्याय स्थविर वह श्रमण-निर्ग्रन्थ, जिसका संयम-पर्याय बीस वर्ष हो चुका है। वीसवासपरियाए णं समणे निग्गंथे परियायथेरे।
(स्था ३.१८७)
पल्य एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला कोठा। (देखें चित्र पृ ३४१) ....."जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उई उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, सेणं पल्ले। (अनु ४३१) पल्योपम पल्य से उपमित काल, जिसका प्रमाण संख्या से नहीं जाना
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जा सकता, वह पल्य की उपमा से जाना जाता है।
है, ऐसी लब्धि से सम्पन्न मुनि। जिनकल्पिक के यह लब्धि जंकालप्पमाणंण सक्कइ घेत्तं तं उवमियं भवति । धण्णपल्ल होती हैं। इव तेण उवमा जस्स तं पल्लोवमं भण्णति।
.."अच्छिद्दपाणिपादा, वइरोसभसंघतणधारी।
(अनु ४१९ चू पृ५७) वग्गुलिपक्खसरिसगं, पाणितलं तेसि धीरपुरिसाणं॥ (द्र पल्य, अध्वा पल्योपम, उद्धार पल्योपम, क्षेत्र पल्योपम) माएज्ज घडसहस्सं, धारेज्ज व सो तु सागरा सव्वे।
जो एरिसलद्धीए सो पाणिपडिग्गही होति॥ पल्लवान
(जीभा २१६६-२१६८) (द्वादशांग का) पर्यवपरिमाण । अक्षर के पर्याय और अर्थ के पर्याय। ये अनंत हैं।
पाणिप्राणविशोधनी समवाए."दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे अप्रमाद प्रतिलेखना का एक गुण, हाथों से सावधानीपूर्वक समासिज्जइ।
(नन्दी ८४) जीवों को हटाना। अक्खरपज्जवेहिं अत्थपज्जवेहिंय अणतं। (नन्दीचू पृ६२)
पाणे:-हस्तस्योपरि प्राणानां-प्राणिनां कुन्थ्वादीनामित्यर्थः
'विसोहणि'त्ति विशोधना प्रमार्जना प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रेणैव पश्चात्कृत
कार्या नवैव वाराः।
(स्था ६.४६ वृप ३४४) वह व्यक्ति, जिसने मुनित्व को छोड़ पुनः गृहवास को स्वीकार कर लिया है।
पाण्डुक 'पश्चात्कृतः' चारित्रं परित्यज्य गहवासं प्रतिपन्नः।
महानिधि का एक प्रकार । गणित तथा बीजों के मान और (बृभा १९२६ वृ)
उन्मान का प्रमाण तथा धान्य और बीजों की उत्पत्ति का पश्चानुपूर्वी
प्रतिपादक शास्त्र। औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का एक प्रकार। प्रतिलोम क्रम,
गणियस्स य बीयाणं, माणुम्माणस्स जं पमाणं च। अन्तिम से गणना प्रारम्भ करना।
धण्णस्स य बीयाणं, उप्पत्ती पंडुए भणिया॥ पाश्चात्त्यात्-चरमादारभ्य व्यत्ययेनैवानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी।
(स्था ९.२२.३) (अनु १४७ हावृ पृ ४१)
पाताल (द्र आनुपूर्वी)
लवणसमुद्र में विद्यमान कलशाकार रसातल। पश्यक
'पातालाणं' ति पातालकलशानाम्। वह पुरुष, जो वस्तु-सत्य को देखता है।
(अनु ४१० मवृ प १५९) यः वस्तुसत्यं पश्यति स पश्यकः। (आभा २.७३)
पात्रकेसरिका पश्यत्ता
वह वस्त्रखण्ड, जिसके द्वारा पात्र को साफ किया जाता है। दीर्घकालिक और परिस्फुट अवबोध।
पात्रकेसरिका-पात्रकमुखवस्त्रिका। (ओनिवृ प ४७१) साकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रदीर्घकालं अनाकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रकृष्टं परिस्फुटरूपमीक्षणम्। पादपोपगमन (प्रज्ञा ३०.१ वृप५३०) यावत्कथिक अनशन का तीसरा प्रकार, प्रायोपगमन, जिसमें
अनशनकर्ता चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक पेड़ की भांति पाणिपतद्ग्राही
निस्पन्द रहता है। जिसका पाणिपात्र निश्छिद्र है, करतल बगुली के पक्षों के
पादस्येवोपगमनम्-अस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोपगमनम्, इदं सदृश है, जिसके हाथ में हजार घडों का द्रव्य समा सकता
च चतुर्विधाहारपरिहारनिष्पन्नमेव भवति। ...
(औपवृ प ७१)
(द्र प्रायोपगमन अनशन)
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पान
पापकर्मोपदेश आहार का एक प्रकार।
(स्था ४.२८८) अनर्थदण्ड का एक प्रकार। केशवाणिज्य, तिर्यग्वाणिज्य, (द्र आहार, पानक)
वध, आरंभ (कृषि) आदि के विषय में सावध कथन करना।
पापकर्मोपदेश: क्षेत्राणि कृषत इत्यादिरूपः। पानक
(उपा १.३० वृ पृ९) द्राक्षा आदि द्रव्यों से निष्पन्न जल, काजी आदि। मुद्दितापाणगाती पाणं। (द ५.४७ अचू पृ८६) पापप्रकृति 'पानकं' च आरनालादि। (द ५.४७ हावृ प १६३)
(कग्र ५.१७)
(द्र अशुभ प्रकृति) पानपुण्य पुण्य का एक प्रकार। पात्र-संयमी को जल देने से होने पापस्थान वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (स्था ९.२५ वृ प ४२८) । १. वह कर्म, जिसके उदय से जीव अशुभ प्रवृत्ति में व्यापृत (द्र अन्नपुण्य)
होता है।
(झीच २२.१)
२. वह प्रवृत्ति, जो अशुभ कर्म के बंध का हेतु बनती है। पानैषणा
पापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि। (प्रसावृप ३९८) पानक की एषणा (ग्रहण) से संबद्ध संकल्प-विशेष, जैसेसंसृष्टा, असंसृष्टा आदि।
पारणक सत्त पाणेसणाआओ पण्णत्ताओ।
(स्था ७.९) १. तपस्या का समापन। (द्र पिण्डैषणा)
२. किसी ग्रन्थ के अध्ययन का समापन ।
पारणा च-तपसः श्रुतस्कन्धादिश्रुतस्य वा पारगमनम्। पाप
(प्रश्नवृप १२९) नौ तत्त्वों में एक तत्त्व । अशुभ कर्मपुद्गल।
यत्पार्यते-पर्यन्तः क्रियते गृहीतनियममस्यानेनेतिपारणं तदेव अशुभं कर्म पापम्।
(जैसिदी ४.१४) पारणकं, भोजनम्।
(उशावृ प ३६९) ""उपचारात् तद्हेतवोऽवि तत्शब्दवाच्याः, ततश्च तद् अष्टादशविधम्।
(जैसिदी ४.१४ ) पारणा (द्र पापकर्म)
(प्रश्न वृ१२९)
(द्र पारणक) पाप आयतन वह प्रवृत्ति, जो पाप (अशभ कर्म प्रकति) का आयतन- पारमार्थिक प्रत्यक्ष बंध का हेतु है, जैसे-प्राणातिपात आदि।
वह प्रत्यक्ष ज्ञान, जो ज्ञान उत्पत्ति के समय बाह्य निमित्त से पापस्य-अशुभप्रकृतिरूपस्यायतनानि-बन्धहेतवः।
निरपेक्ष होता है, केवल आत्मा से उत्पन्न होता है। (स्था ९.२६ वृ प ४२८) पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम्। (प्रनत २.१८) पापकर्म
पाराञ्चिक प्रायश्चित्त वह आचरण, जिसके द्वारा जीव का अध:पतन होता है,
प्रायश्चित्त का एक प्रकार। भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक जैसे-प्राणातिपात आदि।
पुनर्दीक्षा। पापं कर्म अध:पतनकारित्वात् पापं, क्रियत इति कर्म, तच्चा
यस्मिन् प्रतिषेविते लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिः पाराञ्चिको ष्टादशविधं प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहक्रोध
बहिर्भूतः क्रियते तत्पाराञ्चिकं, तदहमिति । मानमायालोभप्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशुन्यपरपरिवादरत्यर तिमायामृषामिथ्यादर्शनशल्याख्यमिति, एवमेतत् पापमष्टा
(स्था १०.७३ वृ प ४६१) दशभेदम्।
(आवृ प७२)
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१७८
पारिग्रहिकी क्रिया
१. क्रिया का एक प्रकार । परिग्रह, संग्रह में प्रवृत्ति ।
२. परिग्रह की सुरक्षा के लिए होने वाला प्रयत्न । परिग्रहाविनाशार्था पारिग्राहिकी।
(स्था २.१४)
पारिणामिक भाव
भाव का एक प्रकार। अपने स्वरूप का त्याग किए बिना परिणमन से होने वाली जीव और पुद्गल की अवस्था । अपरिचत्तसरूवमेव तथा परिणमति सा किरिया परिणामितो भावो भण्णति । (अनु २७१ चू पृ ४४)
पारिणामिकी बुद्धि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार । अवस्था के साथ अनुभव से उत्पन्न होने वाली बुद्धि । अनुमान हेतु और दृष्टान्त से साध्य को सिद्ध करने वाली, वयोविपाक से परिपक्व होने वाली, अभ्युदय और निःश्रेयस फल वाली बुद्धि ।
अणुमाण - उ-दिवंत-साहिया, वयविवागपरिणामा । हियनिस्सेयसफलवई, बुद्धी परिणामिया नाम ॥ ( नन्दी ३८.१० )
(तवा ६.५.११)
पारितापनिकी क्रिया
दूसरे को परितापन (ताड़न आदि दुःख) देने वाली क्रिया । दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात् पारितापनिकी क्रिया । (तवा ६.५.८) परितापनं - ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी । (स्था २.८ वृ प ३८ )
पारिषद्य
पारिषद
वे देव, जो इन्द्र की परिषद् के सदस्य होते हैं । वे मित्रसदृश और पीठमर्द - नृत्य कला के प्रशिक्षक होते हैं । वयस्यपीठमर्दसदृशाः परिषदि भवाः पारिषदाः ।
(ससि ४.४ )
(द्र पारिषद)
पारिहारिक
Jain (द परिहारिक )tional
(तभा ४.४ वृ)
(व्य १.१९ )
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
पारिहारिक कुल
१. वह कुल (घर), जहां आचार्य, ग्लान, बाल, वृद्ध और अतिथि मुनियों के योग्य आहार आदि की उपलब्धि होती है
I
गुरु-गिलाण - बाल - वुड्ढ-आदेसमादियाण जत्थ पाउग्गं लभति ते परिहारियकुले । (निभा २७७७ चू)
२. वह कुल, जो जाति, कर्म, शिल्प आदि की दृष्टि से जुगुप्सित या अभोज्य है ।
गुरु - ग्लान- बालादीनां यत्र प्रायोग्यं लभ्यते तानि कुलाि द्वा परिहारिकाणि नाम कुत्सितानि जात्यादिजुगुप्सितानि । (बृभा २६९६ वृ)
(द्र स्थापना कुल )
पार्थिवी धारणा
पिण्डस्थ ध्यान का पहला प्रकार । साधक आसनस्थित होकर अपने आधारभूत स्थान - समुद्र, पर्वत आदि की विशालता और विशदता का अनुभव करता है, सर्वशक्तिसम्पन्न वीतरागस्वरूप की अनुभूति करता है, अनुभूति को पुष्ट करते-करते उसी में लीन हो जाता है।
तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धिं तत्र चाम्बुजम् । सहस्रपत्रं स्वर्णाभं जम्बूद्वीपसमं स्मरेत् ॥ श्वेतसिंहासनासीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतम्। आत्मानं चिन्तयेत्तत्र पार्थिवी धारणेत्यसौ ॥ (योशा ७.१०,१२) स्वाधारभूतानां स्थानानां बृहदाकारस्य वैशद्यस्य च विमर्शः ॥ निजात्मन: सर्वसामर्थ्योद्भावनं पार्थिवी ॥ (मनो ४.१७, १८)
तत्रस्थस्य
पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान
अंतगत आनुगामिक अवधिज्ञान का एक प्रकार । वह अवधिज्ञान, जो शरीर के पार्श्ववर्ती - दाएं अथवा बाएं भाग से उत्पन्न होता है।
पासतो अंतगयं णाम वामतो दाहिणतो व त्ति ।
(आवचू १ पृ५६)
पार्श्वस्थ
शिथिलाचारी श्रमण का एक प्रकार ।
१. युक्तियों से बाहर ठहरने वाला - अयौक्तिक बात को मानने
वाला ।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
१७९
युक्तिकदम्बकाद् बहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः।
पिण्डावलग (सूत्र १.१.३२ वृ प ३३) वह भिक्षु, जो दीयमान पिंड-भिक्षा में आसक्त होता है। २. परलोक की क्रिया की व्यर्थता मानने वाला।
पिंडेसु दीयमाणेसु ओलंति पिंडोलगा। परलोकक्रियापार्श्वस्था वा नियतिपक्षसमाश्रयणात् परलोक
(उ ५.२२ चू पृ १३८) क्रियावैयर्थ्यम्।
(सूत्र १ वृ प ३३)
पिण्डैषणा ३. वह मुनि, जो कारण के बिना शय्यातरपिण्ड, अभ्याहृत
१. भिक्षा-आगमोक्त विधि से विशेष विकल्प के साथ पिण्ड, राजपिण्ड आदि दोषपूर्ण आहार का सेवन करता है। पार्श्वस्थः स यः कारणं तथाविधमन्तरेण शय्यातराभ्याहृतं
आहार ग्रहण करने के प्रकार। पिण्डैषणाएं सात हैं। नृपतिपिण्डं नैत्यिकमग्रपिण्डं वा भुङ्क्ते। (प्रसावृप २५)
पिण्डं समयभासया भक्तं तस्यैषणा ग्रहणप्रकाराः।
(स्था ७.८ वृ प३६८) पार्खापत्यीय
२. आचारचूला का प्रथम अध्ययन जिसमें पिण्डैषणा और
पानैषणा के विषय में आवश्यक निर्देश है। अर्हत् पार्श्व की उत्तरकालीन परम्परा में विद्यमान साधु । अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावच्चिज्जे णियंठे...] पिपासा परीषह पासस्स अवच्चं पासावच्चं, नासौ पार्श्वस्वामिना प्रवाजितः, परीषह का एक प्रकार । प्यास से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के किन्तु पारम्पर्येण पापित्यस्यापत्यं पासावच्चिज्ज।
द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। (सूत्र २.७.८ चू पृ ४४९) तओ पुट्ठो पिवासाए दोगुंछी लज्जसंजए।
सीओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे॥ पाषण्ड
छिन्नावाएसु पंथेसु आउरे सुपिवासिए। जैन, बौद्ध, आजीवक आदि श्रमणों के संप्रदाय।
परिसुक्कमुहेऽदीणे तं तितिक्खे परीसहं॥ पासंडनामे-समणे पंडरंगे भिक्खू कावालिए तावसे
(उ २.४, ५) परिव्वायगे।
(अनु ३४४) पाषण्डधर्म
पिशाच श्रमण संप्रदायों का धर्म-आचार।
वानव्यंतर देव का आठवां प्रकार । इस जाति का देव सुरूप, पाखण्डधर्म:-पाखण्डिनामाचारः।
सौम्य आकृति वाला, हाथ तथा गर्दन में मणि और रत्नों के (स्था १०.१३५ वृ प ४८९)
आभूषण पहनने वाला होता है। इसका चिह्न है-कदम्ब
वृक्षा पिङ्गल
पिशाचा: स्वरूपाः सौम्यदर्शना हस्तग्रीवासु मणिरत्नविभूषणा: महानिधि का एक प्रकार। आभरणविधि का प्रतिपादक शास्त्र। कदम्बवृक्षध्वजाः।
_ (तभा ४.१२ वृ) सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं। आसाण य हत्थीण य, पिंगलगणिहिम्मि सा भणिया॥
पिहित (स्था ९.२२.४)
एषणा दोष का एक प्रकार। सचित्त से ढकी हुई वस्तु से पिण्डस्थ ध्यान
भिक्षा लेना।
सचित्तेन फलादिना स्थगितं पिहितम्। शरीर के किसी अवयव-सिर, भ्रू, तालु आदि का आलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान।
(योशा १, ३८ वृ पृ१३६) शरीरालम्बि पिण्डस्थम्॥
पुण्डरीक शिरो-भू-तालु-ललाट-मुख-नयन-श्रवण-नासाग्र-हृदय
तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं में जो श्रेष्ठ होता है। नाभ्यादि शारीरालम्बनानि। (मनो ४.११, १२)
तेरिच्छगा मणुस्सा, देवगणा चेव होंति जे पवरा। ते होंति पोंडरीया.......॥
(सूत्रनि १४७)
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१८०
पुण्य
नौ तत्त्वों में एक तत्त्व। शुभ कर्म पुद्गल ।
(जैसिदी ४.१२)
शुभं कर्म पुण्यम् । शुभं कर्म सातवेदनीयादि पुण्यमभिधीयते । उपचाराच्च यद्यन्निमित्तो भवति पुण्यबन्धः, सोऽपि तद्- तद्शब्दवाच्यः, ततश्च तन्नवविधम् । यथा अन्नपुण्यम् ।
(जैसिदी ४.१२ वृ)
सोहणवण्णागुणं सुभाणुभावं च जं तयं पुण्णं । विवरीयमओ पावं ॥
(द्र द्रव्यपुण्य, भावपुण्य)
( विभा १९४० )
पुण्य प्रकृति
सुरनरतिगुच्चसायं तसदस तणुवंगवइचउरंसं । परघासग तिरिआउं वन्नचउ पणिंदि सुभखगई ॥ बायालपुन्नपगई .......'• (द्र शुभ प्रकृति)
(द्र बहि: पुद्गलप्रक्षेप)
पुद्गलपरावर्त्त
(द्र पुद्गलपरिवर्त्त)
(कग्र ५.१५,१६)
पुद्गल
१. वह द्रव्य, जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण होता है। स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुदगलाः । (तसू ५.२३) २. जीव का वह शुद्ध स्वरूप, जो औदयिक भाव से निरपेक्ष
/
जीवं पडुच्च पोग्गले ।
पुद्गल क्षेप
(भग ८.५०० )
(तसू ७.२६)
पुद्गलपरिवर्त्त
एक जीव को शरीर, मन, वचन और आनापान के रूप में सब पुद्गलों का स्पर्श करने में जितना समय लगता है, वह एक पुद्गलपरावर्त्त है।
सव्वपोग्गला जावतिएण कालेण सरीरफासअशनादीहिं फासिज्जति सो पोग्गलपरियट्टो भवति । (उच् पृ १८९) यदौदारिक - वैक्रिय-तैजस-भाषानापानमनः कर्मसप्तकेन संसारोदरविवरवर्तिनः पुद्गलाः आत्मसात्परिणामिता भवन्ति तदा पुद्गलपरावर्त्त इति । ( आ १.४८ वृ प ११६ )
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
पुद्गलविपाकिनी
वह कर्म - प्रकृति, जिसका विपाक पुद्गल में होता है, शरीर और शरीर से संबद्ध संस्थान, संहनन आदि में होता है। पुद्गले पुद्गलविषये विपाकः फलदानाभिमुख्यं यासां ताः पुद्गलविपाकिन्यः । (कप्र पृ३५)
पुद्गलास्तिकाय
समस्त परमाणुओं और परमाणुस्कंधों का समुदय । दव्व णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दव्वाई |
पुद्गली
वह जीव, जो इन्द्रियों से युक्त है।
जीवे वि सोइंदिय - चक्खिंदिय- घाणिंदिय-जिब्भिंदिय(भग ८.५००)
-फासिंदियाई पडुच्च पोग्गली ।
पुनर्भव
मृत्यु के बाद होने वाला अगला जन्म। पुनर्भवे – संसारे गर्भवसतिप्रपञ्चः ।
(भग २.१२९)
(प्रज्ञा २.६७ वृ प १०८)
पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान
अंतगत आनुगामिक अवधिज्ञान का एक प्रकार । शरीर के पुरोवर्ती भाग से उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान ।
पुरतो अंतगयं णाम तमोहिण्णाणिं पडुच्च चक्खिदियमिव अग्गतो दरिसणसामत्थजुत्तं । (आवचू १ पृ५६)
पुराण
धारणामति का एक प्रकार । पुराने को धारण करना, जो
चिरकाल पूर्व वाचित है।
धारणामती पोराणं धरेति । पोराण पुरा वायित ॥
(स्था ६.६४ )
(व्यभा ४११० )
पुरिमर्द्ध
प्रत्याख्यान का एक प्रकार, जिसमें पूर्वाह्न - दिन के प्रथमभाग तक खान-पान का त्याग किया जाता है। 1 पुरिमार्द्ध - पूर्वाह्णलक्षणं प्रत्याख्यानविशेषः ।
(स्था ५.३९ वृप २८४) पुरिमार्द्ध - प्रथमप्रहरद्वयकालावधिप्रत्याख्यानं गृह्यते ।
( आवहावृ २ पृ २४२)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
१८१
पुर:कर्म
पुरुषकार
से भिक्खू"वत्थं"कीयं॥ पौरुष के कारण उत्पन्न होने वाला अभिमान-"मैं ऐसा कर अह पुण एवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकर्ड'फासुयं एसणिज्जं सकता हूं'' इस प्रकार की अवधारणा।
ति मण्णमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा। (आचूला ५.११) पुरुषकारश्च पौरुषाभिमानः। (भग १.१४६ वृ)
""यो ददाति तस्मात् पुरुषादपर: परुषः परुषान्तर: तत्कतं"।
."पुरुषान्तरकृतम्' अन्यार्थं कृतं "अविशोधिकोटिर्यथा तथा पुरुषयुग
न कल्पते, विशोधिकोटिस्तु पुरुषान्तरकृतात्मीकृतादिविशिष्टा शिष्य-प्रशिष्य के क्रम में व्यवस्थित पुरुषयुग।
कल्पते।
(आवृ प ३२५, ३२६) पुरुषा:-शिष्यप्रशिष्यादिक्रमव्यवस्थिता युगानीव-काल
मूलगुणदुष्टा तु पुरुषान्तरस्वीकृतापिन कल्पते। विशेषा इव क्रमसाधर्म्यात् पुरुषयुगानि।
(आवृप ३६१) (सम ४४.२ वृ प ६४)
पुरोहितरत्न पुरुषलिंगसिद्ध
चक्रवर्ती के सात पंचेन्द्रिय रत्नों में से एक रत्न, जो शांतिकर्म वह सिद्ध, जो पुरुष की शरीर-रचना में मुक्त होता है। आदि करता है। पुल्लिङ्गे शरीरनिर्वृत्तिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते
पुरोहितः-शान्तिकर्मादिकृत्। (प्रसावृ प ३५०) पुल्लिङ्गसिद्धाः।
(नन्दी ३१ मवृ प १३३) पुरुषवेद
भिक्षा का एक दोष । साधु को देखकर भिक्षा देने के निमित्त नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । पुरुषवेदमोहकर्म पहले सजीव जल से हाथ, कड़छी आदि धोना। के उदय से पुरुष में स्त्री के प्रति होला वासनात्मक पुरेकम्मं नाम जं साधूणं दट्ठणं हत्थं भायणं धोवइ तं पुरेकम्म संवेदन।
भण्णइ।
(द ५.१.३२ जिचू पृ १७८) पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि पुरुषवेदः। (प्रज्ञा १८.६१ वृ प ४६८,४६९)
पुलाक पुरिसवेदेदवग्गिजालसमाणे पण्णत्ते। (जीवा २.९८)
निर्ग्रन्थ का पहला प्रकार । संयम को कुछ असार करने वाला।
संयमवानपि मनाक् तमसारं कुर्वन् पुलाकः इत्युच्यते। पुरुषादानीय
(भग २५.२७८ वृ) लोकमान्य, जनता के द्वारा जिसका आदर्श और जिसकी पुलाएपंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाणपुलाए, दंसणवाणी आदेय होती है। अर्हत् पार्श्व का एक विशेषण। पुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहुमपुलाए नामं 'पुरिसादाणीयस्स' त्ति पुरुषाणां मध्ये आदीयत इत्यादानीय पंचमे॥
(भग २५.२७९) उपादेयः। (स्था ८.३७ वृ प ४०८)
पुलाक लब्धि पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एक्कं वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे"।
लब्धि का एक प्रकार। वह योगज विभूति, जो इन्द्र के (सम १००.४)
समान ऋद्धि वाली तथा चक्रवर्ती की विशालतम सेना का पुरुषान्तकरभूमि
ध्वंस करने में समर्थ होती है।
(प्रसा ६९३) (दशाचू प ६५) लद्धिपुलाओ पुण जस्स देविंदरिद्धिसरिसा रिद्धी। सो (द्र युगान्तकरभूमि)
सिंगणायिकज्जे समुप्पण्णे चक्कवट्टि पि सबलवाहणं चुण्णेउं समत्थो।
(उशावृ प २५६) पुरुषान्तरकृत
(द्र लब्धिपुलाक) वह वस्तु (क्रीत वस्त्र आदि), जो साधु के लिए अग्राह्य है, वह किसी गृहस्थ के द्वारा परिभुक्त/प्रयुक्त होने पर ग्राह्य हो पुष्करवरद्वीपार्ध जाती है।
अर्धतृतीय द्वीप का एक भाग। वह द्वीपार्ध, जो कालोद
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१८२
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
समुद्र को घेरे हुए है और जो मानुषोत्तर पर्वत से परिक्षिप्त है। उवंगाणं तच्चस्स वग्गस्स पुफियाणं..। (पु १.२) कालोदसमुद्रः पुष्करवरद्वीपार्धन परिक्षिप्तः, पुष्करवरद्वीपा)
पूतिकर्म मानुषोत्तरेण पर्वतेन परिक्षिप्तम्। (तभा ३.८)
उद्गम दोष का एक प्रकार। आधाकर्म से मिश्रित आहार। (द्र अर्धतृतीय द्वीप, समयक्षेत्र)
शुद्धस्याशुद्धावयवेन पूतेरपवित्रस्य करणं पूतिकर्म। पुष्पचारण
(प्रसा ५६४ उवृ) चारण ऋद्धि का एक प्रकार, जिसके द्वारा साधक पुष्पों के जीवों की विराधना न करके उनके ऊपर से गमन कर सकता
१. पूर्वगत के चौदह विभाग, जिन्हें आगमों से पूर्व प्रतिपादित अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहुविहाण पुप्फाणं।
होने के कारण पूर्व कहा गया। उवरिम्मि जं पसप्पदि सा रिद्धी पुप्फचारणा णामा॥
समस्तश्रुतात्पूर्वं करणात् पूर्वाणि, तानि चोत्यादपूर्वादीनि (त्रिप्र ४.१०३९) चतुर्दशेति।
(स्था ४.१३१ वृ प १८८)
यस्मात तीर्थंकरस्तीर्थप्रवर्तनकाले गणधराणां सर्वसत्रापुष्पचूलिका
धारत्वेन पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थं भाषते तस्मात् पूर्वाणीति भणितानि। कालिक श्रुत का एक प्रकार । उपाङ्ग का चौथा वर्ग, जिसमें अर्हत् पार्श्व की दस शिष्याओं का वर्णन है। (नंदी ७८)
(प्रसावृ प २०८) उवंगाणं"चउत्थस्स णं भंते! वग्गस्स पुष्फचूलियाणं "दस
२. चौरासी लाख वर्ष (पूर्वाङ्ग) को चौरासी लाख वर्ष से अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
गुणन करने पर प्राप्त होने वाली संख्या, जिसका परिमाण सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति, बुद्धि-लच्छी य होइ बोद्धव्वा।
इस प्रकार है-७०५६०००००००००० वर्ष । इलादेवी सुरादेवी, रसदेवी गंधदेवी य॥
.."चउरासीइं पुव्वंगसयसहस्साइं से एगे पुव्वे। (अनु ४१७) (पुष्प १.१,२)
एगं पुव्वंगं चलुसीतीए सयसहस्सेहिं गुणितं एगं पुव्वं भवति।
तस्सिम परिमाणं-दस सुण्णा छप्पण्णं च सहस्सा कोडीणं पुष्पवृष्टि
सत्तरि लक्खा य।
(अनुचू पृ ३८) महाप्रातिहार्य का एक प्रकार । अर्हत् के भास्वर ऊर्ध्वमुखी चुलसीदिहदं लक्खं पुव्वंग होदि तं पि गुणिदव्वं । जलज और स्थलज पंचवर्ण प्रचुर पुष्पों का घुटने जितना चउसीदीलक्खेहिं णादव्वं पुब्बपरिमाणं॥ ऊंचा उपचार (राशिकरण) होता है।
(त्रिप्र ४.२९३) जल-थलय-भासुर-पभूतेणं विंटट्ठाइणा दसद्धवण्णेणं (द्र पूर्वाङ्ग) कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते पुष्फोवयारे कजइ।
पूर्वगत (सम ३४.१.१८)
दृष्टिवाद का एक प्रकार । चतुर्दश पूर्व । पुष्पसूक्ष्म
पुव्वगए चउद्दसविहे पण्णत्ते, तं जहा-उप्यायपुव्वं अग्गेबरगद आदि के फूल, जो दुर्जेय होते हैं।
णीयं।
(नन्दी १०४) पुष्फसुहुमं नाम वडउम्बरादीनि संति पुष्फाणि, तेसिं सरि
(द्र दृष्टिवाद) वन्नाणि दुव्विभावणिज्जाणि ताणि सुहुमाणि। (द ८.१५ जिचू पृ २७८)
पूर्वधर
वह मुनि, जिसे पूर्वश्रुत का ज्ञान प्राप्त है। पुष्पिका
पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधरा। (विभा ३२३ वृ) कालिक श्रुत का एक प्रकार। उपांग का तीसरा वर्ग, जिसमें संयम और सम्यक्त्व की आराधना और विराधना का वर्णन
पूर्वपश्चात्संस्तव (नन्दी ७८)
उत्पादन दोष का एक प्रकार। अपने पितृपक्ष और श्वसुरपक्ष
का परिचय देकर ली जाने वाली भिक्षा।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
पूर्वसंस्तवं जननी - जनकादिद्वारेण पश्चात्संस्तवं श्वश्रूश्वसुरादिद्वारेणात्म-परवयोऽनुरूपं संबन्धं भिक्षार्थं घटयतः पूर्वपश्चात्संस्तवपिण्डः । ( योशा १.३८ वृ पृ १३५ )
पूर्वरतपूर्वक्रीडितविरतिसमिति
(द्र पूर्वरतानुस्मरणवर्जन)
पूर्वरतानुस्मरणवर्जन
ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। पूर्व भुक्त कामभोग की स्मृति का वर्जन ।
प्रव्रज्यापर्यायात् पूर्वी गृहस्थपर्यायस्तत्र रतं - क्रीडितं विलसितं यदङ्गनाभिः सह तस्यानुस्मरणात् कामाग्निस्तत्स्मरणेन्धनानुसन्धानतः सन्धुक्षते, अतस्तद्वर्जनं श्रेय इति भावयेत् । (तभा ७.३ वृ)
( प्रश्न ९.१० )
पूर्वरात्र - अपरात्र पूर्व रात्रि का अंतिम भाग और पश्चिम रात्रि का पूर्व भाग, मध्यरात्रि का समय । (भग २.६६ )
पूर्ववत् अनुमान
पूर्वपरिचित लिङ्ग के द्वारा होने वाला वस्तु का प्रत्यभिज्ञान, जैसे- मेघघटा को देखकर वर्षा का अनुमान करना। पूर्वोपलब्धेनैव लिंगेण नाणकरणं । ( अनु ५१९ चू पृ ७५) पूर्वविद्
(द्र पूर्वधर)
पूर्वाङ्ग
चौरासी लाख वर्ष (८४०००००) ।
( तवा ९.३७)
चउरासीइं वाससयसहस्साइं से एगे पुव्वंगे। ( अनु ४१७) इच्छयमाणेण गुण पणसुण्णं चउरासीतिगुणितं वा । काऊण तत्तिवारा पुव्वंगादीण मुण संखं ॥ पुव्वंगे परिमाणं पण सुण्णा चउरासीती य । (अनुचू पृ ३७)
पूर्वानुपूर्वी
औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का एक प्रकार। अनुलोम क्रमप्रथम से गणना प्रारम्भ करना ।
प्रथमात्प्रभृति आनुपूर्वी अनुक्रमः परिपाटी पूर्वानुपूर्वी ।
(द्र आनुपूर्वी)
पूर्वार्द्ध
१८३
( अनु १४७ हावृ पृ ४१ )
(आव ६.३)
(द्र पुरिमार्द्ध)
पृथक्त्व
१. एक सामयिकी संज्ञा, जो दो से लेकर नौ तक की संख्या के लिए व्यवहृत होती है ।
पुहुत्सद्दी दोसु आरद्धो जाव णव लब्धंति । (आवनि ३२ चू पृ ४१ ) पृथक्त्वं च समयपरिभाषया द्विप्रभृत्यानवभ्यः सर्वत्र द्रष्टव्यम् । (विभा ६०८ वृपृ २७३ ) २. पर्याय का एक लक्षण । संयुक्त पदार्थों में भिन्नता की प्रतीति का कारणभूत पर्याय, जैसे- यह इससे भिन्न है । पृथक्त्वं - संयुक्तेषु भेदज्ञानस्य कारणभूतं पृथक्त्वम्, यथा -अयमस्मात् पृथक् । (जैसिदी १.४६ वृ)
पृथक्त्व अनुयोग
अनुयोग की एक व्याख्यापद्धति, जिसके अनुसार द्रव्यानुयोग आदि का विभक्तीकरण किया गया है और जिसमें नयपद्धति से विचार करना अनिवार्य नहीं है।
अहत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो । हत्ताणुओगकरणे ते य तओ वि वोच्छिन्ना ॥ .......जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो कओ चउहा ॥ (विभा २२८६, २२८८)
पार्थक्येन व्यवस्थापने सति नास्त्यसौ नयावतारः । (विभा ९५० वृ)
पृथक्त्व विक्रिया
विक्रिया का एक प्रकार। अपने शरीर से भिन्न प्रासाद, मण्डप आदि का निर्माण करना ।
पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यत्वेन प्रासादमण्डपादिविक्रिया । ( तवा २.४९ )
पृथक्त्व-वितर्क सविचार शुक्लध्यान का एक प्रकार । पृथक्त्व का अर्थ-भेद, वितर्क
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का अर्थ- श्रुत और विचार का अर्थ-व्यञ्जन और योगों (मन, वचन, काय) का संक्रमण है। किसी एक वस्तु को ध्यान का विषय बनाकर दूसरे सब पदार्थों से उसके भिन्नत्व का चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्क है और उसमें एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर, अर्थ से शब्द पर, शब्द से अर्थ पर एवं एक योग से दूसरे योग पर परिवर्तन होना सविचार है। पृथक्त्वं-भेदः । वितर्कः-श्रुतम्। विचार:-अर्थव्यञ्जनयोगानां संक्रमणम्।
(जैसिदी ६.४४ वृ)
'पेसुन्ने' प्रच्छन्नमसदोषविष्करणम्। (भग १.२८६ वृ) पैशुन्य पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव पैशुन्य में प्रवृत्त होता है।
(झीच २२.२२) पोट्टपरिहार एक शरीर से मरकर पुनः उसी शरीर में उत्पन्न होकर उसका परिभोग करना। यह परावर्त केवल वनस्पतिकाय में होता है। पउट्टपरिहारो नाम परावर्त्य तस्मिन्नेव सरीरके उववञ्जति" तं एवं वणप्फईणं पउट्टपरिहारो। (आवचू १ पृ २९९) (द्र परिवर्त परिहार)
पृथ्वी लोकस्थिति का एक प्रकार। रत्नप्रभा आदि पृथ्वियां, जो उदधिप्रतिष्ठित हैं और त्रस-स्थावर जीवों का आधार है। उदहिपइडिया पुढवी। पुढविपइट्ठिया तसथावरा पाणा।
(भग १.३१०)
पृथ्वीकाय षड्जीवनिकाय का पहला प्रकार। (आचूला १५.४२) (द्र पृथ्वीकायिक) पृथ्वीकायिक वह जीव, जिसका शरीर मिट्टी, खनिज आदि है। पृथिवी-काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता सैव कायः-शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः, पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः।
(द ४ सूत्र ३ हावृ प १३८) पृष्ठतः अन्तगत अवधिज्ञान अंतगत आनुगामिक अवधिज्ञान का एक प्रकार। शरीर के पृष्ठवर्ती भाग से उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान। मग्गओ अंतगयं-से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चुडलियं वा अलायं वा मणिं वा जोइंवा पईवं वा मग्गओ काउं अणुकञमाणे-अणकडेमाणे गच्छेज्जा। सेत्तं मग्गओ अंतगयं॥
(नन्दी १३) 'मग्गतो' त्ति पिट्ठतो 'अणुकङ्कणं' ति हत्थग्गहितस्स दंडग्गहितस्स वा अणु-पच्छयो कड्डणं ति। (नन्दीचू पृ १७) पैशुन्य पाप पापकर्म का चौदहवां प्रकार। चुगली की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म-बंध।
(आवृ प ७२)
पोतज आवरणरहित शिशुरूप में जन्म लेने वाला जीव, जैसेवल्गुली आदि। पोतमिव सूयते पोतजा वल्गुलीमादयः।
(द ४.९ अचू पृ ७७) (द्र जरायुज) पौराणिक बहुत वृद्ध होने के कारण बहुविध बातों का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति। पुराणो-वृद्धः, स च चिरजीवित्वाद् दृष्टबहुविधव्यतिकरत्वान्नैपुणिक इति पुराणं वा-शास्त्रविशेष: तज्ज्ञो निपुणप्रायो भवति।
(स्था ९.२८ वृ प ४२८) पौरुषी प्रत्याख्यान का एक प्रकार। सूर्योदय से लेकर दिन के एक चौथाई भाग (प्रहर) में खाद्य-पेय पदार्थों का पूर्ण संयम। सूरे उग्गए पोरिसिं पच्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं।
(आव ६.२) पौरुषीमण्डल उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें प्रहरों के कालमान का प्रतिपादन है। मंडले-मंडले अण्णोण्णा पोरिसी जत्थ अज्झयणे दंसिजति तमज्झयणं पोरिसिमंडलं। (नन्दी ७७ चू पृ ५८)
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पौषध अष्टमी आदि पर्वतिथियां। पौषध:-पर्वदिनमष्टम्यादि।
(स्थावृ प २२५)
आयारनामधेज्जा, वीसतितमे पाहडच्छेदा॥
(व्यभा ४३५) उग्घायमणुग्घाया, मासचउम्मासिया उ पच्छित्ता। पुव्वगते च्चिय एते, णिज्जूढा जे पकप्पम्मि।
(निभा ६६७५) (द्र निशीथ)
पौषधशाला धर्मजागरिका तथा पौषधोपवास आदि के लिए निर्धारित धर्मस्थान। पोसहसालाए पोसहिए बंभचारी पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणे विहरइ।
(भग १२.६)
प्रकल्पधर निशीथ का अधिकत वेत्ता। प्रकल्पो निशीथाध्ययनं तद्धारिणः। (व्यभा ४०३ ) तिविहो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव।..."
(निभा ६६७६) (द्र प्रकल्प)
पौषधोपवास श्रावक का ग्यारहवां व्रत। आहार, शरीर-संस्कार और सावध व्यापार का त्याग कर ब्रह्मचर्यपूर्वक एक दिन-रात तक किया जाने वाला साधना का विशेष प्रयोग। उद्दिष्टेत्यमावास्या परिपूर्णमिति-अहोरात्रं यावत् आहारशरीरसंस्कारत्यागब्रह्मचर्याव्यापारलक्षणभेदोपेतम्।
(स्था ४.३६२ वृप २२५) पोसहोववासे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-आहारपोसहे सरीरसक्कारपोसहे बंभचेरपोसहे अव्वावारपोसहे।
(आव परि २३)
पौषधोपवास सम्यग् अननुपालन पौषधोपवास व्रत का एक अतिचार। पौषधोपवास की आराधना के समय आहार, शरीरसंस्कार, अब्रह्मचर्य और व्यापार का चित्त की अस्थिरता के कारण अभिलाषात्मक चिन्तन करना। कतपौषधोपवासस्यास्थिरचित्ततयाऽऽहारशरीरसंस्काराब्रह्मव्यापाराणामभिलषणादननुपालना पोषधस्येति।
(उपा १.४२ वृ पृ १९)
प्रकीर्णक १. वे आगम ग्रंथ, जिनका स्थविर अर्हत्-उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण कर निर्वृहण करते हैं। अरहंतमग्गउवदिढे जं सुतमणुसरित्ता किंचि णिज्जूहंते ते सव्वे पइण्णगा।
(नंदी ७९ चू पृ ६०) २. वे देव, जो नागरिकजनों के सदृश होते हैं। प्रकीर्णकाः पौरजनपदस्थानीयाः। (तभा ४.४) ३. सौधर्म आदि कल्पों का एक प्रकार का विमान। (द्र क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति) प्रकीर्ण तप श्रेणी आदि निश्चित पदों की रचना बिना ही अपनी शक्ति के अनुसार किया जाने वाला तप। 'प्रकीर्णतप:' यच्छ्रेण्यादिनियतरचनाविरहितं स्वशक्त्यपेक्षं यथाकथञ्चिद्विधीयते। (उ ३०.११ शावृ प ६०१) प्रकृति बन्ध बंध का एक प्रकार । सामान्य रूप से ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों का स्वभाव। सामान्योपात्तकर्मणां स्वभावः प्रकृतिः। (जैसिदी ४.८) प्रक्षेपाहार कवलाहार, मुख तथा किसी अन्य माध्यम से प्रक्षिप्त किया जाने वाला आहार। """पक्खेवाहारो पुण, कावलिको होति नायव्वो॥
(सूत्रनि १७२)
पा
प्रकरण सूत्र वह सूत्र, जिसमें प्रश्नोत्तर अथवा संवाद-शैली का प्रयोग होता है। पगरणओ पुण सुत्तं, जत्थ उ अक्खेवनिन्नयपसिद्धी।
(बृभा ३१८) प्रकल्प निशीथ (आचारप्रकल्प) सूत्र, जो प्रत्याख्यान पूर्व के तीसरे आचारवस्तु के बीसवें प्राभृतछेद से निर्मूढ है, जिसमें उद्घातिक तथा अनुद्घातिक प्रायश्चित्त प्रतिपादित हैं। निसीध नवमा पुव्वा, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ।
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प्रगृहीता पिण्डैषणा का एक प्रकार, जिसमें मुनि देने अथवा खाने के लिए कड़छी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेते हैं।
पग्गहिया जं दाउं भुक्त्तुं व करेण असणाई ।
प्रचला
दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से बैठेबैठे अथवा खड़े-खड़े नींद आती है।
उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलत्यस्यां स्वापावस्थायामिति
प्रचला ।
(स्था ९.१४ वृ प ४२४)
(प्रसा ७४२)
प्रचलाप्रचला
दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से चलतेफिरते नींद आ जाती है। प्रचलातिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, सा हि चंक्रमणादि कुर्वतः स्वतुर्भवति । (स्था ९.१४ वृ प ४२४)
प्रच्छनी
असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार । अज्ञात अथवा संदिग्ध विषय की जानकारी के लिए प्रयुक्त की जाने वाली प्रश्नात्मक भाषा ।
पृच्छनी अविज्ञातस्य सन्दिग्धस्य कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्श्वे चोदना । (प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९)
प्रज्ञप्ति
वह प्रतिपत्ति अथवा व्याख्या, जिसके द्वारा स्वसमय और परसमय की प्ररूपणा की जाती है।
प्रज्ञप्तिर्नाम स्वसमयपरसमयप्ररूपणा ।
प्रज्ञा
(व्यभा १४७७ वृ प २७)
प्रज्ञप्तिकुशल
में
जीव- अजीव, बंध-मोक्ष, गति आगति आदि की प्ररूपणा कुशल। स्वसमय और परसमय के प्रतिपादन में निपुण । जीवाजीवा बंधं, मोक्खं गतिरागतिं सुहं दुक्खं । पण्णत्तीकुसलविदू, परवादिकुदंसणे महणो ॥ पण्णत्तीकुसलो खलु, जह खुड्डुगणी मुरुंडरायस्स । पुट्ठो कह न वि देवा, गयं पि कालं न याणंति ॥
(व्यभा १५००, १५०१)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
१. विषय की समग्रता का ज्ञान । प्रज्ञा- अशेषविशेषविषयं ज्ञानम् ।
(भग १.१६५ वृ)
२. विशिष्ट क्षयोपशमजन्य मति, जो वस्तुगत धर्मों का यथार्थ पर्यालोचन करती है।
प्रज्ञानं प्रज्ञा - विशिष्ट क्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा मतिः । ( आवनि १२ हावृ पृ १२) ३. अदृष्ट, अश्रुत विषय के परिज्ञान की क्षमता, जो शिक्षा के बिना होती है।
अदिट्ठ-अस्सुदेसु असु णाणुप्पायणजोगत्तं पण्णा णाम ।' णादुजीवसत्ती गुरूवएसणिरवेक्खा पण्णा णाम । (धव पु९ पृ ८३, ८४) ४. शतायु जीवन की एक दशा, पांचवां दशक। इस अवस्था में मनुष्य धन, स्त्री आदि की चिन्ता करने लगता है और कुटुम्बवृद्धि की अभिकांक्षा करता है।
पंचमं तु दसं पत्तो, आणुपुव्वीइ जो नरो । इच्छित्थं विचिंते, कुडुंबं वाभिकखइ ॥
( दहावृ प ९ ) ५. वह बुद्धि, जिसके द्वारा पहले ही जान लिया जाता है कि क्या होगा ।
प्रागेव ज्ञायते अनयेति प्रज्ञा ।
(उच् पृ २१० )
प्रज्ञापक दिशा
प्रज्ञापक जिस दिशा की ओर अभिमुख होकर सूत्र आदि की व्याख्या करता है, वह पूर्व दिशा है, शेष दक्षिण आदि दिशाएं हैं।
ras जदभिमुोसा पुव्वा सेसिया पयाहिणओ । ( विभा २७०२)
प्रज्ञापना
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। यह तत्त्वमीमांसा और दर्शन का ग्रन्थ है। (नन्दी ७७)
प्रज्ञापनी
असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार शिष्यों के लिए यथार्थ का प्रज्ञापन करने वाली भाषा ।
प्रज्ञापनी - विनीतविनयस्य विनेयजनस्योपदेशदानं, यथा प्राणि-वधान्निवृत्ता भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घायुष इत्यादि ।
(प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९)
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प्रज्ञा परीषह
परीषह का एक प्रकार ।
१. ज्ञान का प्रकर्ष न होने पर उत्पन्न खिन्नता, जो मुनि के लिए सहनीय होती है ।
से नूणं मए पुव्वं कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केणइ कण्हुई | अह पच्छा उइज्जति कम्माणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ॥
( उ २.४०, ४१ ) २. 'मैं आगमविशारद हूं, सर्वशास्त्रनिपुण हूं, मेरे समक्ष अपर जन नगण्य हैं' – इस रूप में प्रज्ञा का मद करना, जो मुनि द्वारा निरसनीय है ।
अङ्ग-पूर्व-प्रकीर्णकविशारदस्य शब्दन्यायाध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतखद्योतोद्योतवन्नितरां नावभासन्त इति विज्ञानमदनिरास: प्रज्ञापरीषहजयः प्रत्येतव्यः । (ससि ९.९ )
प्रज्ञाश्रवण
बुद्ध ऋद्धि का एक प्रकार । श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के प्रकृष्ट विलय ( क्षयोपशम) से प्राप्त लब्धि, जिसके द्वारा विशिष्ट अध्ययन के बिना ही सूक्ष्म तत्त्वों का निरूपण किया जाता
I
वीरियंतरायाए ।
पगडीए सुदणाणावरणाए उक्कस्सखउवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणद्धी ॥ पण्णासवणद्धिजुदो चोद्दसपुव्वीसु विसयसुहुमत्तं । सव्वं हि सुदं जादि अकअज्झअणो विणियमेण ॥ (त्रि ४.१०१७, १०१८) अतिसूक्ष्मार्थतत्त्वगहने चतुर्दशपूर्विण एव विषयेऽनुयुक्ते अनधीतद्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वस्य प्रकृष्टश्रुतावरणवीर्यान्तराय
-क्षयोपशमाविर्भूताऽसाधारणप्रज्ञाशक्तिलाभान्निः संशयं
निरूपणं प्रज्ञाश्रवणत्वम् ।
( तवा ३.३६)
(द्र प्राज्ञ श्रमण )
प्रणिधान
१.
. निश्चित आलम्बन में शरीर, वाणी और मन को स्थापित करने की क्रिया ।
'पणिहाणे' त्ति प्रकर्षेण नियते आलम्बने धानं - धरणं मनः(भग १८.१२५ वृ)
प्रभृतेरिति प्रणिधानम् । २. एकाग्रता
प्रणिहितिः प्रणिधानम् - एकाग्रता । (स्था ३.९६ वृप ११५ ) ३. समाधि ।
.....अवधानसमाधानप्रणिधानानि तु समाधौ स्युः ।
१८७
(अचि ६.१४)
४. चित्त की निर्मलता ।
प्रणिधि
योगसंग्रह का एक प्रकार, जिसमें राग-द्वेषमुक्त भाव में चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास किया जाता है।
(सम ३२.१.३)
प्रणीतआहारविरतिसमितियोग
आहारपणीय- निद्धभोयण-विवज्जए संजते एवं पणीयाहारविरतिसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा |
( प्रश्न ९.११ )
(द्र प्रणीत आहारविवर्जन)
प्रणीत आहारविवर्जन
ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। मांस, मेद आदि का उपचय करने वाले भोजन का वर्जन करना ।
प्रणीतो - वृष्यः स्निग्धमधुरादिरसः क्षीरदधिनवनीतसर्पिर्गुडतैलपिशितमद्यापूपादिस्तदभ्यवहारो -- भोजनं ततो मेदोमज्जाशुक्राद्युपचयस्तस्मादपि मोहोद्भवः, अतः सतताभ्यासतः प्रणीतरसाभ्यवहारो वर्जनीय इत्यात्मानं भावयेद् ब्रह्मचर्यमिच्छन्निति । (तभा ७.३ वृ)
प्रतर तप
वह तप, जो श्रेणीतप के सब क्रम-प्रकारों के मिलन से होता है। श्रेणी तप के पदों को उतने ही पदों से गुणा करने पर प्रतर तप प्राप्त होता है। चार पदों की श्रेणी को चार से गुणा करने पर सोलह पदात्मक प्रतर तप होता है। श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतर उच्यते, तदुपलक्षितं तपः ( उ ३०.१० शावृ प ६०१ )
प्रतरतपः ।
(द्र श्रेणी तप, घन तप )
प्रतिक्रमण
आवश्यक सूत्र का चौथा अध्ययन, जो आत्मालोचन का प्रयोग है, जिसके द्वारा अतीत के दोषों की निवृत्ति की जाती है। प्रतिक्रमण (षडावश्यक) का प्रयोग सूर्योदय से पूर्व
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
और सर्यास्त के बाद में किया जाता है। (नन्दी ७५) स्खलितस्य निन्दा प्रतिक्रमणार्थाधिकारः।
(अनु ७४ हावृ पृ २५) अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणम्। (तवा ६.२४.११) 'प्रतिक्रमणं' उभयकालं षड्विधावश्यककरणयुक्तो धर्मः।
(बृभा ३४२५ वृ) प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का एक प्रकार । प्रवचन आदि में अथवा आवश्यक कार्यों में सहसा नियमों का अतिक्रमण होने पर दूसरों से प्रेरित हो या स्वयं स्मृति कर 'मिच्छा मि दुक्कडं' का प्रयोग करना। पडिक्कमणं पुण पवयणमादिसु आवस्सगकंमे वा सहसा अतिक्कमणे पडिचोतितो सयं वा सरितुण मिच्छा दुक्कडं करेति एवं तस्स सुद्धी। (आवचू २ पृ २४६) प्रतिक्रमणमण्डली मण्डली का एक विभाग, जिसकी व्यवस्था के अनुसार । श्रमण गुरु की सन्निधि में अवस्थित होकर सामूहिक प्रतिक्रमण (षडावश्यक) करते हैं। (द्र मण्डली) प्रतिज्ञा साध्य का निर्देश करना। साध्यनिर्देश: प्रतिज्ञा।
(प्रमी २.१.११)
संदेहों का निवर्तन करने के लिए जिज्ञासा की जाती है। पडिपुच्छणयाए णं सुत्तत्थतदुभयाई विसोहेइ।
(उ २९.२१) प्रतिप्रच्छना सामाचारी गुरु के द्वारा किसी कार्य के लिए नियुक्त किए जाने पर उसे प्रारम्भ करते समय पुनः गुरु की अनुमति लेना। गुरुनियुक्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरुं, स हि कार्यान्तरमप्यादिशेत् सिद्धं वा तदन्यतः स्यात्।
(उ २६.५ शावृप५३४) प्रतिबुद्धजीवी मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्ति पर नियन्त्रण रखने वाला, धृतिमान, संयमी और जितेन्द्रिय। जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं। तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा, आइन्नओ खिप्पमिवक्खलीणं। जस्सेरिसा जोग जिइंदियस्स, धिइमओ सप्पुरिसस्स निच्चं। तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी, सो जीवइ संजमजीविएणं॥
(दचूला २.१४, १५) प्रतिमा संकल्प और विधिपूर्वक किया जाने वाला साधना का एक विशेष प्रयोग। द्रव्यक्षेत्रकालभावैः प्रतिमीयमानः साधनाविशेषः प्रतिमा।
(जैसिदी ६.२५) प्रतिमान विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण का एक प्रकार, जिससे स्वर्ण, रजत आदि मूल्यवान वस्तुएं तोली जाती हैं। पडिमाणे-जण्णं पडिमिणिज्जइ। एएणं पडिमाणप्पमाणेणं सुवण्ण-रजत-मणि-मोत्तियसंख-सिल-प्पवालादीणं दव्वाणं पडिमाणप्यमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ।
(अनु ३८५) प्रतिमास्थायी कायक्लेश का एक प्रकार। भिक्षु-प्रतिमाओं की विविध मुद्राओं में स्थित रहने वाला। प्रतिमास्थायी-भिक्षप्रतिमाकारी। (स्था ७.४९ ७ प ३७८)
प्रतिपाति अवधिज्ञान अवधिज्ञान का एक प्रकार, जो कुछ काल तक अवस्थित रहकर फिर प्रदीप की तरह बुझ जाता है। पडिवाइ ओहिनाणं-जण्णं"पासित्ताणं पडिवएज्जा।
(नन्दी २०) यदुत्पन्नं सत् क्षयोपशमानुरूपं कियत्कालं स्थित्वा प्रदीप इव सामस्त्येन विध्वंसमुपयाति तत् प्रतिपाति।
(नन्दी २० मवृ प ८२) प्रतिपूर्ण पौषध
(स्था ४.३६२) (द्र पौषधोपवास)
प्रतिप्रच्छना स्वाध्याय का दूसरा प्रकार, जिसमें सूत्र और अर्थ से संबंधित
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प्रतिरूपकव्यवहार
ये नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता अनियतेन्द्रियाः कथञ्चित्किञ्चि(तसू ७.२२)
देवोत्तरगुणेषु-पिण्डविशुद्धिसमितिभावनातपःप्रतिमाभि(द्र तत्प्रतिरूपक व्यवहार)
ग्रहादिषु विराधयन्तः सर्वज्ञाज्ञोल्लङ्घनमाचरन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीला:।
(स्था ५.१८४ वृप ३२०) प्रतिरूपज्ञ
(द्र कुशील) विनय के औचित्य को जानने वाला। यथोचितप्रतिपत्तिरूपस्तं जानातीति प्रतिरूपज्ञः।
प्रतिषेवणा प्रायश्चित्त (उ २३.१५ शावृ प ५००)
अकृत्य का सेवन करने पर प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त।
प्रतिषेवणम्-आसेवनमकृत्यस्येति प्रतिषेवणा"इति प्रतिषेप्रतिरोधक कर्म
वणाप्रायश्चित्तम्। (स्था ४.१३३ वृप १८९) अन्तराय कर्म, जो आत्मा की शक्ति का प्रतिघात करता है। शक्तेः प्रतिघातस्य हेतु भवति। (जैसिदी ४.२ वृ)
प्रतिष्ठा शक्तिप्रतिघातकम्-अन्तरायः। (जैसिदी ४.३ वृ)
धारणा की चौथी अवस्था, जिसमें अवधारित अर्थ प्रभेदपूर्वक
हृदय (मस्तिष्क) में प्रतिष्ठित होता है। प्रतिलेखना
'पति' त्ति सो च्चित अवधारितत्थो हितयम्मि प्रभेदेन अहिंसा की दृष्टि से वस्त्र-पात्र आदि को यथासमय
पइट्ठातमाणो पतिट्ठा भण्णति। (नन्दी ४९ चू पृ ३७) सावधानीपूर्वक देखना। अक्षरानुसारेण प्रतिनिरीक्षणमनुष्ठानं च यत्सा प्रतिलेखना।
प्रतिसंलीनता (ओभा ३ वृ प६)
(स्था ६.६५)
(द्र संलीनता) प्रतिवासुदेव वह राजा, जो चक्रयोधी होता है तथा वासुदेव का शत्रु होता
प्रतिसारिणी है।
पदानुसारिणी बुद्धि का एक प्रकार । गुरु के उपदेश से आदि, आसग्गीवे". जरासिंधू॥
मध्य अथवा अंत के एक बीजपद को ग्रहण करके अधस्तन त्रिपृष्ठादीनां नवानामपि वासुदेवानां यथाक्रमं प्रतिशत्रवः, (पीछे वाले) ग्रंथ को जानने वाली योगज विभूति। तथा सर्वेऽपि चक्रयोधिनः, सर्वेऽपि च हताः स्वचक्रैः""। आदिअवसाणमझे गुरूवदेसेण एक्कबीजपद। (प्रसा १२१३ वृ प ३४९) । गेण्हिय हेट्ठिमगंथं बुज्झदि जा सा च पडिसारी॥
(त्रिप्र ४.९८२) प्रतिषेध वस्तु का अविद्यमान अंश।
प्रतिसेवना प्रतिषेधोऽसदंशः। (प्रनत ३.५७)
(व्यभा ४१ वृ)
(द्र प्रतिषेवणा) प्रतिषेवणा प्राणातिपात आदि का आसेवन करना।
प्रतिसेवी पुलाक प्रतिषेवणा प्राणातिपाताद्यासेवनम्।
पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । ज्ञान आदि की विराधना (स्था १०.६९ वृ प ४५९) करने वाला।
(भग २५.२७८ वृ) प्रतिषेवणा कुशील
प्रतिहतपापकर्मा कुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो इन्द्रियजयी
वह मुनि, जो अपने तपोबल से अतीत में अर्जित कर्मों का नहीं है और उत्तर गुणों की विराधना करता है।
प्रतिहनन अथवा विशोधन कर चुका है। पडिहयपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्माण पत्तेयं
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
पत्तेयं जेण हयाणि सो पडिहयपावकम्मो।
अपूर्वाधिकरणोत्पादनात् प्रात्यायिकी क्रिया। (तवा ६.५) (द ४.१८ जिचू पृ १५४)
प्रत्याख्यातपापकर्मा प्रतीच्छक
वह मुनि, जो अपनी संवर-साधना के बल से आश्रव-द्वारों वह मुनि, जो अन्य गण से आकर श्रृत आदि के लिए को निरुद्ध कर चुका है। उपसम्पदा स्वीकार करता है।
पच्चक्खायपावकम्मो नाम निरुद्धासवदुवारो भण्णति। पडिच्छे त्ति येऽन्यतो गच्छान्तरादागत्य साधवस्तत्रोपसम्पदं
(द ४.१८ जिचू पृ १५४) गृह्णन्ति ते प्रतीच्छकाः।
(व्यभा ९५७ वृ) प्रत्याख्यान प्रतीच्छकः-परगणवर्ती सूत्रार्थतदुभयग्राहकः।
१. प्रवृत्ति के निरोध का संकल्प। अनागत काल में अमुक
(व्यभा १६८२ वृ) प्रकार का सावध कार्य नहीं करूंगा, इस प्रकार का संकल्प। प्रतीत्य सत्य
आगामी काल में होने वाले दोषों के निमित्तभूत भावों का
प्रतिषेध करना। सत्य का एक प्रकार। सापेक्ष सत्य-एक वस्तु की अपेक्षा
प्रत्याख्यानं–निरोधप्रतिज्ञानम्। (भग १७.४९ वृ) दूसरी को छोटा, बड़ा, हल्का, भारी आदि कहना।
प्रत्याख्यानं नाम अनागतकालविषयां क्रियां न करिष्याप्रतीत्य-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्यं प्रतीत्यसत्यम्।
मीति संकल्पः।
(भआ ११६ विवृ) (स्था १०.८९ वृ प ४६५)
२. आवश्यक का छठा अध्ययन, जिसका प्रतिपाद्य विषय प्रत्यक्ष ज्ञान
है-गुणधारणा। इसमें मूलगुण-उत्तरगुण की स्वीकृति तथा इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सीधा आत्मा से होने उसकी निरतिचार पालना के लिए विशिष्ट गुणों का आधान वाला ज्ञान।
किया जाता है।
(नन्दी ७५) इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनः साक्षात् प्रवृत्तिमत्प्रत्यक्षम्। छठे जहा मूलुत्तरगुणपडिवत्ती निरतियारधारणं च जधा
(आवमवृ प १६) तेसिं भवति तथा अत्थपरूवणा। (अनु ७४ चू पृ१८)
गुणधारणा प्रत्याख्यानार्थाधिकारः। (अनुहाव पृ २५) प्रत्यक्ष प्रमाण विशद ज्ञान, जिसे सिद्ध करने के लिए किसी दसरे प्रमाण प्रत्याख्यानपरिज्ञा की अपेक्षा नहीं है।
पापकर्म को जानकर उसका आचरण नहीं करना। विशदः प्रत्यक्षम्।
पच्चक्खाणपरिण्णा नाम पावं कम्मं जाणिऊण तस्स पावस्स प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम्।
जं अकरणं सा पच्चक्खाणपरिण्णा भवति। (प्रमी १.१.१३,१४)
(दजिचू पृ ११६)
(द्र ज्ञपरिज्ञा) प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष और स्मृति के योग से होने वाला संकलनात्मक ज्ञान। प्रत्याख्यान पूर्व यह चार प्रकार का होता है, जैसे-यह वही है, यह उसके नौवां पूर्व, जिसमें सर्व प्रत्याख्यान के स्वरूप का प्रज्ञापन समान है, यह उससे भिन्न है, यह उससे दूर या पास, छोटा किया गया है। या बड़ा आदि है।
णवमं पच्चक्खाणं, तम्मि सव्वपच्चक्खाणसरूवं वण्णिदर्शनस्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रति- ज्जति।
(नन्दी १०४ चू पृ७६) योगीत्यादिसंकलनं प्रत्यभिज्ञानम्। (प्रमी १.२.४)
प्रत्याख्यानावरण कषाय प्रत्ययक्रिया
चारित्रमोहनीय कर्म की वह प्रकृति-कषाय चतुष्टयी (क्रोधक्रिया का एक प्रकार । नये-नये अधिकरणों को उत्पन्न करना। मान-माया-लोभ), जिसके उदयकाल में सर्वविरति की
चेतना जागृत नहीं होती।
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तइयकसायाणुदए पच्चक्खाणावरणनामधिज्जाणं । देसिक्कदेसविरइं चरित्तलंभं न उ लहंति ॥
प्रत्याख्यानावरण क्रोध
चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । यह क्रोध बालू की रेखा के समान अल्पकाल तक टिकने वाला होता है।
(स्था ४.३५४)
""वालुयराइसमाणे
(द्र प्रत्याख्यानावरण कषाय)
*********
(आवनि ११० )
प्रत्याख्यानावरण मान
चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । यह मान काष्ठ के स्तम्भ के समान अल्प स्तब्ध होता है।
........दारुथंभसमाणं ॥
(द्र प्रत्याख्यानावरण कषाय)
(स्था ४.२८३)
प्रत्याख्यानावरण माया
चारित्रमाहनीय कर्म की एक प्रकृति । यह चलते हुए बैल की मूत्रधार के समान अल्प वक्र होती है। गोमुत्तिकेतणासमाणा ।
(स्था ४.२८२)
(द्र प्रत्याख्यानावरण कषाय )
प्रत्याख्यानावरण लोभ
चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । यह लोभ गाड़ी के खंजन के राग से रञ्जित वस्त्र के समान अल्प आसक्ति वाला होता है।
खंजणरागरत्तवत्थसमाणे ।
(द्र प्रत्याख्यानावरण कषाय)
(स्था ४.२८४)
प्रत्याख्यानी
असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार, जो याचना करने वालों को निषेध करने के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा है।
याचमानस्य प्रतिषेधवचनं प्रत्याख्यानी ।
(प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९ )
प्रत्याजाति
एक भव से च्युत होकर पुनः उसी भव में जन्म लेना । प्रत्याजाति मनुष्य और तिर्यंच के होती है।
१९१
जत्तो चुओ भवाओ, तत्थेव पुणो वि जह हवति जम्मं । सा खलु पच्चाजाती, मणुस्स- तेरिच्छिए होइ ॥ (दशानि १३२)
प्रत्यावर्त्तन
अवाय की दूसरी अवस्था, जिसमें निर्णीयमान अर्थ के स्वरूप की बार-बार आलोचना होती है। हणभावनियट्टस्स वितमत्थमालोयंतस्स पुणो पुणो णियट्टणं पच्चाउट्टणं भणति । (नन्दी ४७ चू पृ ३६)
प्रत्येकजीव
वह वनस्पति, जिसके एक शरीर में एक जीव होता है । पत्ता पत्तेयजिया... ॥ (प्रज्ञा १.४८. ९)
(द्र प्रत्येकशरीरी)
प्रत्येकबुद्ध
वह मुनि, जो किसी एक बाह्य निमित्त से प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा स्वीकार करता है।
पत्तेयं – बाह्यं वृषभादिकारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येक(नन्दी ३१ चू पृ २६)
बुद्धाः ।
प्रत्येकबुद्धता
बुद्धि ऋद्धि का एक प्रकार, जिसके द्वारा परोपदेश के बिना अपनी विशिष्ट शक्ति से ज्ञान तथा संयम का विशिष्ट विकास होता है।
परोपदेशमन्तरेण स्वशक्तिविशेषादेव ज्ञानसंयमविधाननिपुणत्वं प्रत्येकबुद्धता | ( तवा ३.३६)
प्रत्येकबुद्धसिद्ध
वह सिद्ध, जो प्रत्येकबुद्ध की अवस्था में मुक्त होता है । (नन्दी ३१)
(द्र प्रत्येकबुद्ध)
प्रत्येकशरीर
एक ही जीव का शरीर । वह शरीर, जिसका निर्माण एक करता है एक्कस्सेव जीवस्स जं शरीरं तं पत्तेयसरीरं ।
|
(धव पु१४ पृ २२५ ) पुढविक्काइयाणं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयं सरीरं बंधंति । (भग १९.५)
(द्र साधारण शरीर)
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प्रत्येकशरीरनाम
प्रदेशा एव-पुद्गला एव यस्य वेद्यन्ते न यथाबद्धो रसनामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से एक जीव को एक
स्तत्प्रदेशमात्रतया वेद्यं कर्म प्रदेशकर्म। शरीर मिलता है।
(स्था २.२६५ वृ प ६३) यदुदयात् जीवं जीवं प्रति भिन्नं शरीरं तत्प्रत्येकनाम। (द्र अनुभावकर्म) (प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४)
प्रदेशत्व एकात्मोपभोगकारणशरीरता यतस्तत्प्रत्येकशरीरनाम।
सामान्य गुण का एक प्रकार । द्रव्य का अवयवात्मक स्वरूप। (तवा ८.११)
प्रदेशत्वमविभागी पुद्गल: स्वाश्रयावधिः। (द्रत ११.४) प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिक
(द्र प्रदेश, प्रदेशवत्त्व)
(प्रज्ञा १.३२) (द्र प्रत्येकशरीरी)
प्रदेशनामनिधत्तायु
आयुबंध का एक प्रकार। आयष्य कर्म के प्रदेशों के साथ प्रत्येकशरीरी
होने वाला आयु का निषेचन। वह जीव, जिसका प्रत्येक (पृथग्भूत) शरीर होता है, जैसे- तत्प्रदेशनाम, अनेन विपाकोदयमप्राप्तमपि अस्मिन् भवे एकेन्द्रिय (साधारण वनस्पति को छोड़कर), तीन विकलेन्द्रिय प्रदेशतोऽनुभूयते परिगृहीतं, तेन प्रदेशनाम्ना सह निधत्तमायुः और पञ्चेन्द्रिय।
प्रदेशनामनिधत्तायुः। (प्रज्ञा ६.११८ वृ प २१८) पत्तेयं पुधभूदं सरीरं जेसिं ते पत्तेयसरीरा।
प्रदेशनिवृत्तसंस्थान
(धव पु १४ पृ २२५) प्रत्येकशरीरिणश्च नारकामरमनुष्यद्वीन्द्रियादयः पृथिव्या
मुक्त जीव के आत्मप्रदेशों से निर्मित होने वाला संस्थान।
आत्मप्रदेश: न तु बाह्यपुद्गलैः शरीरपञ्चकस्यापि सर्वात्मना दयः। कपित्थादितरवश्च। (पंसं ३.८ मवृ पृ ११६)
त्यक्तत्वात् निर्वत्तं -निष्यन्नं संस्थानं येषां ते प्रदेशनिर्वत्त(द्र साधारण जीव)
संस्थानाः।
(प्रज्ञा २.६७.१ वृ प १०८) प्रथमसमयनिर्ग्रन्थ
प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थ) का एक प्रकार । अन्तर्मुहूर्त की स्थिति
द्रव्यप्रमाण का एक प्रकार। वह माप, जो वस्तु के अपने वाले उपशांतमोह अथवा क्षीणमोहगुणस्थान के प्रथम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थ)।
प्रदेशों से निष्पन्न होता है। इसमें मेय और मापक पृथक्
पृथक् नहीं होते। वस्तुगत प्रदेश (अवयव) ही उसके (द्र यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ)
मापक बनते हैं, जैसे-परमाणु, द्विप्रदेशी, स्कन्ध यावत्, प्रथमसमवसरण
अनन्त प्रदेशी स्कन्ध। वर्षावास, चातुर्मासिक काल।
प्रदेशनिष्पन्नं परमाण्वाद्यनन्तप्रदेशिकान्तं, स्वात्मनिष्पन्नवर्षाकालाख्ये प्रथमे ओसरणे' समवसरणे द्वितीये तु ऋतुबद्धा त्वादस्य चाण्वादिमानमिति"विविधो भागः विभाग:ख्ये...।
(बृभा ४२३५ वृ) विकल्पस्ततोनिवृत्तमित्यर्थः। (अहावृ पृ ७५) प्रदेश
प्रदेशबन्ध द्रव्य का अविभाज्य अंश।
बंध का एक प्रकार। आत्मा के साथ मिलने वाले कर्मपुद्गलों निरंशः प्रदेशः।
(जैसिदी १.३१) की राशि। जीवप्रदेशों के साथ प्रत्येक प्रकृति पर प्रतिनियत
परिमाण वाले अनन्तानन्त कर्मप्रदेशों का संबंध होना। प्रदेशकर्म
दलसंचयः प्रदेशः।
(जैसिदी ४.११) वह कर्म, जिसके पुद्गलों का ही वेदन होता है, अनुभाव
जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृतिप्रतिनियतका वेदन नहीं होता।
परिमाणानां बन्धः-सम्बन्धनं प्रदेशबन्धः ।
(स्था ४.२९० व प २०९)
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प्रदेशवत्त्व द्रव्य का वह सामान्य गुण, जिसके कारण उसके प्रदेशों का माप होता है। अवयवपरिमाणता प्रदेशवत्त्वम। (जैसिदी १.३८ )
प्रभावना सम्यक्त्व का आठवां आचार। तीर्थ (धर्मसंघ) की उन्नति के लिए किया जाने वाला उपक्रम। प्रभावना"""स्वतीर्थोन्नतिहेतचेष्टास प्रवर्त्तनात्मिका।
(उ २८.३१ शावृ प ५६७)
प्रदेशाग्र १. सभी कर्मों के अनंतानंत कर्मपुदगल, जिनके द्वारा जीव का प्रत्येक प्रदेश वेष्टित-परिवेष्टित होता है। सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणंतगं। (उ ३३.१७) २. प्रदेशपरिमाण। प्रदेशाग्रेण-प्रदेशपरिमाणेनेति। (स्था ४.४९५ ७ प २४०)
प्रदेशार्थ प्रदेश की संख्या की दृष्टि से किया जाने वाला विचार। धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए"पदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा"॥
(प्रज्ञा ३.११५) प्रदेशोदय कर्म का वह उदय, जिसका वेदन केवल आत्मप्रदेशों में होता है। केवलं प्रदेशवेदनम्-प्रदेशोदयः। (जैसिदी ४.५) (द्र विपाकोदय)
प्रमत्त १. वह व्यक्ति, जो कषाय से आविष्ट होकर हिंसा के कारणों में प्रवृत्त होता है, अहिंसा के लिए प्रयत्न नहीं करता। जीवस्थानयोन्याश्रयविशेषानविद्वान् कषायोदयाविष्टः हिंसाकारणेषु स्थितः अहिंसायां सामान्येन न यतत इति प्रमत्तः।
(तवा ७.१३.२) २. वह व्यक्ति, जो विकथा, कषाय और इन्द्रिय-विषयों में
परिणत होता है। __ चतसृभिः विकथाभिः कषायचतुष्टयेन पञ्चभिरिन्द्रियैः निद्राप्रणयाभ्यां च परिणतो यः स प्रमत्त इति कथ्यते।
(तवा ७.१३.३)
प्रमत्तसंयत जीवस्थान जीवस्थान/गणस्थान का छट्रा प्रकार। साध-जीवन की प्रारम्भिक अवस्था, जिसमें सर्वविरति का विकास होता है
और प्रमाद की विद्यमानता भी रहती है। किञ्चित्प्रमादवान् सर्वविरतः। (सम १४.५ वृ प २६)
प्रध्वंसाभाव अभाव (प्रतिषेध) का दूसरा प्रकार । लब्धात्मलाभ (उत्पन्न । कार्य) का विनाश होना। जैसे-छाछ में दही का न होना। लब्धात्मलाभस्य विनाश: प्रध्वंसः। (भिक्षु ३.३१)
प्रपञ्चा शतायु जीवन की एक दशा, सातवां दशक। इस अवस्था में मुंह से थूक गिरने लगता है, कफ बढ़ जाता है और बारबार खांसना पड़ता है। सत्तमिं च दसं पत्तो, आणुपुव्वीइ जो नरो। निट्ठहइ चिक्कणं खेलं खासइ य अभिक्खणं॥
(दहावृ प ९)
प्रमाण १. वह ज्ञान, जिससे स्व और पर का निश्चय होता है। प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम।... (न्याया १) २. वह ज्ञान, जिससे अर्थ का सम्यक् निर्णय होता है। सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्।
(प्रमी १.१.२) ३. न्याय का एक अंग, साधन । यथार्थ ज्ञान, जो संशय और विपर्यय से रहित होता है। प्रमाणम्-साधनम्।
(भिक्षु १.२ वृ) यथार्थज्ञानं प्रमाणम्। प्रकर्षण-विपर्ययाद्यभावेन मीयतेऽर्थो येन तत् प्रमाणम्।
(भिक्षु १.१० वृ)
प्रबला शतायु जीवन की चतुर्थ दशा। (द्र बला)
(निभा ३५४५)
प्रमाणपद १. पद का एक प्रकार। श्लोक का एक चरण-अष्ट
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अक्षरात्मक समूह। अट्ठवखरनिष्फण्णं पमाणपदं। (धव पु १३ पृ २६६) (द्र मध्यमपद) २. सौ, हजार आदि। सदं सहस्समिच्चादीणि पमाणपदणामाणि।
(धव पु९ पृ १३६)
प्रमाणप्रमाद प्रतिलेखना का एक दोष। प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण (नौ नौ बार करना) बतलाया है, उसमें प्रमाद करना। प्रमाणे-प्रस्फोटादिसंख्यालक्षणे प्रमादम्।
(उ २६.२२ शावृ प ५४२) (द्र गणनोपग)
प्रमाता-परीक्षकः।
(भिक्षु १.२ वृ) प्रमाद १. अरति आदि मोह के उदय से अध्यात्म के प्रति होने वाला अनुत्साह। अरत्यादिमोहोदयात् अध्यात्मं प्रति अनुत्साहः प्रमादः।
(जैसिदी ४.२१) २. करणीय कार्य के प्रति होने वाली विस्मृति। ३. कुशल अनुष्ठानों के प्रति होने वाला अनुत्साह और अप्रवृत्ति। ४. शरीर, वाणी और मन का दुष्प्रणिधान। प्रमादः स्मृत्यनवस्थानं, कुशलेष्वनादरः, योगदुष्प्रणिधानं चेत्येष प्रमादः।
(तभा ८.१ वृ) ५. चेतना की वह अवस्था, जो मन, वचन और शरीर की मोहात्मक प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है। से णं भंते! पमादे किंपवहे? गोयमा! जोगप्पवहे।
(भग १.१४२)
प्रमाणसंवत्सर संवत्सर का एक प्रकार, जो दिवस आदि के परिमाण से उपलक्षित होता है, जैसे---नक्षत्र, चन्द्र, ऋत, आदित्य, अभिवर्धित। प्रमाणं परिमाणं दिवसाऽऽदीनां, तेनोपलक्षितो नक्षत्रसंवत्सराऽऽदिः प्रमाणसंवत्सरः। (स्था वृ प ३२७)
प्रमाणाङ्गल माप की एक इकाई। वह माप, जो भगवान् महावीर के अर्धअंगुल को हजारगुना करने पर होता है। समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं, तं सहस्सगुणियं पमाणंगुलं भवइ।
(अनु ४०८) प्रमाणातिरेक दोष मांडलिक दोष का एक प्रकार। अधिक मात्रा में बार-बार
और आवश्यकता के बिना गरिष्ठ या अतिस्निग्ध आहार करना। पगामं च निगामं च, पणीयं भत्तपाणमाहरे। अइबहुयं अइबहुसो, पमाणदोसो मुणेयव्वो॥
(पिनि ६४४)
प्रमाद आश्रव आत्मा का प्रमादरूप परिणाम, जो कर्म-पुदगलों के आश्रवण का हेतु बनता है।
(स्था ५.१०९) प्रमादाचरित अनर्थदण्ड का एक प्रकार। प्रयोजन के बिना सावध कर्म करना, जैसे-वृक्ष आदि का छेदन, भूमि का खनन और जल का सिञ्चन। विकथा करना, तेल के पात्र को खुला रखना आदि। एवं प्रमादचरितमपि, नवरं प्रमादो, विकथारूपोऽस्थगिततैलभाजनधरणादिरूपो वा। (उपा १.३० व पृ९)
प्रमादाप्रमाद उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें प्रमाद, अप्रमाद का वर्णन किया गया है। मज्जादियो पंचविहो पमातो, तेसु चेव आभोगपुब्विया उवरती अप्पमातो, एते जत्थ सवित्थरत्था दंसिर्जति तमज्झयणं पमादप्पमादं।
(नंदी ७७ चू पृ ५८) प्रमिति न्याय का एक अंग। प्रमाण का फल, जो साध्य रूप में होता
प्रमाता १. आत्मा, जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध है। प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा। (प्रनत ७.५५) २. न्याय का एक अंग। परीक्षक-प्रमाण करने वाला।
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प्रमितिः-फलम्। फलञ्च साध्यमिति।
(भिक्षु १.२ वृ) (भिक्षु ६.१४ ७)
प्रमेय न्याय का एक अंग। प्रमाण का विषय, अनेकान्तात्मक वस्तु। प्रमेयं-वस्तु।
(भिक्षु १.२ वृ) तस्य (प्रमाणस्य) विषयः सामान्यविशेषाद्यनेकान्तात्मकं वस्तु।
(प्रनत ५.१) (द्र वस्तु)
प्रमेयत्व सामान्य गुण का एक प्रकार। वस्तु का प्रमाण द्वारा ज्ञेय होना। प्रमाणेन परिच्छेद्यं प्रमेयं प्रणिगद्यते। (द्रत ११.३) प्रमाणविषयता-प्रमेयत्त्वम्। (जैसिदी १.३८ वृ) प्रमोद भावना वन्दन, स्तुति, वर्णवाद, मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा प्रकट होने वाला मानसिक हर्षोल्लास और अन्तर्भक्तिकृत
प्रयोगगतिः इयं देशान्तरप्राप्तिलक्षणा द्रष्टव्या, सत्यमन:प्रभृतिपुद्गलानां जीवेन व्यापार्यमाणानां यथायोगमल्पबहुदेशान्तरगमनात्।
(प्रज्ञा १६.१८ वृ प ३२८) प्रयोगपरिणाम वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से होने वाला जीव का चेष्टारूप परिणाम। प्रयोगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमात् क्षयाद् वा चेष्टास्वरूप: परिणामः प्रयोगपरिणामः ।
(तभा १०.५ वृ) प्रयोगबन्ध जीव के द्वारा अपने आत्मप्रदेशों की प्रयत्नजन्य संरचना तथा पौद्गलिक वस्तुओं की व्यवस्था। प्रयोगो-जीवव्यापारस्तेन घटितो बन्धः प्रायोगिकः औदारिकादिशरीरजतुकाष्ठादिविषयः। (तभा ५.२४ वृ) प्रयोगसम्पदा गणिसम्पदा का एक प्रकार। वाद-कौशल, जिसका प्रयोग क्षेत्र आदि की स्थिति को देखकर किया जाता है। पओगसंपदा चउव्विधा पण्णत्ता, तं जहा-आतं विदाय वादं पउंजित्ता भवति, परिसं विदाय वादं पउंजित्ता भवति, खेत्तं विदाय वादं पउंजित्ता भवति, वत्थु विदाय वादं पउंजित्ता भवति।से तं पओगसंपदा।
(दशा ४.१२)
राग।
अपास्ताशेषदोषाणां वस्ततत्त्वावलोकिनाम। गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः॥
(योशा ४.११९) वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रमोदः।
(तवा ७.११.२)
प्रलम्ब प्रतिलेखना का एक दोष । वस्त्र को विषमता से पकड़ने के कारण कोनों का लटकना। प्रलम्बो-यद्विषमग्रहणेन प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रकोणानां लम्बनम्।
(उ २६.२७ शावृ प ५४१)
प्रयोग १. वह क्रिया, जो जीव के प्रयत्न से होती है। प्रयोगः-परिस्पन्दक्रिया आत्मव्यापार इति।
(प्रज्ञा १६.१ ७ प ३१७) । २. सम्यक्त्व आदि से होने वाला मन, वचन और शरीर का व्यापार। प्रयोगः सम्यक्त्वादिपूर्वो मनःप्रभृतिव्यापारः।
(स्थावृ प १४१) (द्र योग)
प्रवचन द्वादशांग, आगम। पवयणं पुण दुवालसंगे गणिपिडगे। (द्र तीर्थ)
(भग २०.७५)
प्रयोगगति जीव के द्वारा प्रवृत्ति में प्रयुक्त होने वाले पुद्गलस्कन्धों की । गति।
प्रवचनकुशल वह मुनि, जो सूत्र-अर्थ के प्रतिपादन में पट है, जो नयभंगों से गहन, दुर्द्धर प्रवचन को धारण करता है, उसे पुन:पुनः परावर्तित करता है, जो वाचना देने में समृद्ध है तथा प्रवचन का अहित करने वालों का निग्रह करने में समर्थ है।
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सुत्तत्थहेतुकारण, वागरणसमिद्धचित्तसुतधारी। पोराणदुद्धरधरो, सुतरयणनिधाणमिव पुण्णो॥ धारिय-गुणितय समीहिय, निज्जवणा विउलवायणसमिद्धो। पवयणकुसलगुणनिधी, पवयणऽहियनिग्गहसमत्थो॥
(व्यभा १४९५, १४९६)
जो संसार-भय से उद्विग्न हो थोडा भी पाप करना नहीं चाहता। पवियक्खणा णाम वज्जभीरू भण्णंति, वज्जभीरुणो णाम संसारभयउव्विग्गा थोवमवि पावं णेच्छंति।
__(द २.११ जिचू पृ ९२) प्रविचक्षणा:-चरणपरिणामवन्तः।
(द २.११ हावृ प ९९)
प्रवचननिह्नव आगमसम्मत किसी एक विषय का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण। प्रवचनं-आगमं निह्नवते-अपलपन्त्यन्यथा प्ररूपयन्तीति प्रवचननिह्नवाः।
(स्था ७.१४ वृ प ३८९)
प्रवचनमाता १. वे आठ माताएं (आठ समितियां). जो चारित्र रूपी पत्र की सुरक्षा करती हैं। एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं। रक्खंति सदा मुणिओ माया पुत्तं च वयदाओ॥
(भआ ११९९) २. पांच समिति और तीन गुप्ति-चारित्र के ये आठ प्रकार, जिनमें द्वादशांग समाया हुआ है। एयाओ अट्ट समिईओ, समासेण वियाहिया। दवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उपवयणं ।।
(उ २४.३)
प्रव्रज्या दीक्षा, महाव्रतों का स्वीकरण, विरति का परिणाम, जिसमें सम्पूर्ण सावध योग से निवृत्ति होती है। विरतिपरिणामः सकलसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपः प्रव्रज्या।
(पञ्चव १६४ वृ) पव्वयणं पव्वज्जा पावाओ सुद्धचरणजोगेसु। इय मोक्खं पड़ गमणं कारण कज्जोवयाराओ॥
(स्था ३.१८० वृ प १२३) (द्र दीक्षा)
प्रव्राजक वह आचार्य, जो प्रव्रज्या देता है. सामायिक आदि का आरोपण करता है। प्रव्राजक:-सामायिकव्रतादेरारोपयिता। (तभा ९.६व)
प्रव्राजनाचार्य
(स्था ४.४२२)
(द्र प्रव्राजक)
प्रवर्तक धर्मसंघ में सात पदों में से एक पद। वह मुनि, जो तप, संयम और योग साधना में योग्य व्यक्ति को प्रवृत्त और असमर्थ को निवृत्त करता है तथा गण की चिंता करता है। तवसंजमजोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ। असहं च नियत्तेइ गणतत्तिल्लो पवत्तओ।
(प्रसा २४) (द्र उपाध्याय)
प्रव्राजनान्तेवासी वह शिष्य, जो प्रव्रज्या ग्रहण की दृष्टि से प्रव्राजक आचार्य का अन्तेवासी होता है। प्रव्राजनया-दीक्षया अन्तेवासी प्रव्राजनान्तेवासी दीक्षित इत्यर्थः।
(स्था ४.४२४ वृप २३०)
प्रवर्तिनी वह साध्वी, जो गण की सब साध्वियों का नेतृत्व करती है। 'प्रवर्तिनी' सकलसाध्वीनां नायिका। (बृभा ४३३९ वृ)
प्रशम सम्यक्त्व का एक लक्षण । राग-द्वेष का उपशमन। रागादीनामनुद्रेकः प्रशमः।
(तवा १.२.३०) (द्र शम)
प्रविचक्षण सम्यक् चारित्र से युक्त वह मुनि, जो पापभीरु होता है और
प्रशास्तृदोष वाद-दोष का एक प्रकार । प्रशास्ता-सभानायक की द्वेषवृत्ति
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अथवा उपेक्षावृत्ति के कारण होने वाला दोष। प्रशास्ता-अनुशासको मर्यादाकारी सभानायकः सभ्यो वा तस्माद् द्विष्टादुपेक्षकाद्वा दोषः प्रतिवादिनो जयदानलक्षणो विस्मृतप्रमेयप्रतिवादिनः प्रमेयस्मरणादिलक्षणो वा प्रशास्तृदोषः।
(स्था १०.९४ वृ प ४६७)
प्रस्तारा:---प्रायश्चित्तस्य रचनाविशेषाः।
(स्था ६.१०१ वृ प ३५२) पत्थारो उ विरचणा, सो जोतिस छंद गणित पच्छित्ते। पच्छित्तेण तु पगयं, तस्स तु भेदा बहुविगप्पा॥
(बृकभा ६१३०)
प्रश्न व्यक्ति के अंगूठे और बाहु को देखकर उसके शुभाशुभ का निर्देश करने वाली मंत्रविद्या। तत्रागुष्ठबाहुप्रश्नादिका मंत्रविद्याः प्रश्नाः।
(सम ९८ वृ प ११५)
प्रस्फोटना प्रतिलेखना का एक दोष। प्रतिलेखन करते समय रज से लिप्त वस्त्र को वेग से झटकना। 'प्रस्फोटना' प्रकर्षेण रेणगण्डितस्येव वस्त्रस्य झाटना।
(उ २६.२६ शावृ प ५४१)
प्रश्नव्याकरण द्वादशांग श्रुत का दसवां अंग, जिसमें प्रश्न, अप्रश्न, प्रश्नाप्रश्न तथा अनेक दिव्य विद्या संबंधी विषयों का आख्यान किया गया है। पण्हावागरणेसु णं अठुत्तरं पसिणसयं, अठुत्तरं अपसिणसयं अठुत्तरं पसिणापसिणसयं, अण्णे य विचित्ता दिव्वा विज्जाइसया, नागसुवण्णेहिं सदिव्वा संवाया आघविजंति। से णं अंगट्ठयाए दसमे अगे."संखेज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं ।
(नन्दी ९०)
प्रहर दिन अथवा रात्रि का १/४ भाग। (ओनिवृ प २०६ ) प्राकाम्य विक्रिया ऋद्धि का एक प्रकार । इस ऋद्धि के द्वारा जल में भूमि की तरह चलने की तथा भूमि पर जल की तरह उन्मज्जन-निमज्जन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। अप्सु भूमाविव गमनं भूमौ जलं इवोन्मज्जननिमज्जनकरणं प्राकाम्यम्।
(तवा ३.३६ पृ २०३)
प्रश्नव्याकरणदशाधर वह मुनि, जो प्रश्नव्याकरणदशा के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया पण्हावागरणदसाधरा। (औप ४५)
प्रागभाव अभाव (प्रतिषेध) का पहला प्रकार। कारण के निवृत्त होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है। इस नियम के अनुसार कारण में कार्य का प्रागभाव है, जैसे-मत्पिण्ड में घट का। यन्निवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभावः। यथा मृत्पिण्डनिवृत्तावेव समुत्पद्यमानस्य घटस्य मृत्पिण्डः।
(प्रनत ३.५९,६०)
प्रश्नाप्रश्न वह विद्या, जिससे प्रश्न पूछने पर अथवा न पूछने पर शुभाशुभ का निर्देश मिल जाता है। तथाङ्गुष्ठादिप्रश्नभावं तदभावं च प्रतीत्य या विद्याः शुभाशुभं कथयन्ति ताः प्रश्नाप्रश्नाः । (सम ९८ वृ प ११५)
प्रस्तार प्रायश्चित्त की रचना का विकल्प, जिसकी दोष के अनुरूप रचना होती है। प्रायश्चित्त की उत्तरोत्तर वृद्धि । जो अपने अपराध का निह्नवन करता है और जो अपने झूठे आरोप को साधने का प्रयत्न करता है-दोनों के उत्तरोत्तर प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है।
प्रारभारा शतायु जीवन की एक दशा, आठवां दशक । इस अवस्था में चमड़ी में झुर्रियां पड़ जाती है, बुढ़ापा घेर लेता है। मनुष्य नारीवल्लभ नहीं रहता। संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमिं दसं। णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ।
(दहावृ प ९) प्राजापत्यस्थावरकाय प्राजापत्य से संबंधित होने के कारण वनस्पति का अपर नाम
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है-प्राजापत्य स्थावरकाय।
(स्था ५.१९) (द्र इन्द्रस्थावरकाय) प्राजापत्यस्थावरकायाधिपति वह देव, जो वनस्पतिकायसंज्ञक स्थावरकाय का अधिपति
(स्था ५.२० वृ प २७९) (द्र इन्द्रस्थावरकायाधिपति)
प्राज्ञश्रमण ..."अनधीतद्वादशांगचतुर्दशपूर्वा अपि सन्तो यमर्थं चतुर्दशपूर्वी निरूपयति तस्मिन् विचारकृच्छ्रेऽप्यर्थेऽतिनिपुणप्रज्ञाः प्राज्ञश्रमणाः।
(योशा १.८ वृ पृ ४१) (द्र प्रज्ञाश्रवण)
हिंसा की प्रवृत्ति के द्वारा कर्म को आकर्षित करने वाली आत्मा की अवस्था।
(स्था ५.१२८) प्राणातिपातक्रिया वह क्रिया, जिसके द्वारा आयु, इन्द्रिय, बल आदि प्राणों का वियोग होता है। आयुरिन्द्रियबलप्राणानां वियोगकरणात् प्राणातिपातिकी।
(तवा ६.५.८) प्राणातिपात पाप पापकर्म का पहला प्रकार । प्राणी के प्राणवियोजन की प्रवत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध। (आवृ प ७२) प्राणातिपात पापस्थान पापस्थान का पहला प्रकार। वह कर्म. जिसके उदय से जीव प्राणातिपात में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, हणै कोई पर प्राण। तिण कर्म नै कहियै सही जी, प्राणातिपात पापठाण॥
(झीच २२.३)
प्राण १. पर्याप्ति के द्वारा पैदा होने वाली जैविक ऊर्जा। जीवनशक्तिः प्राणाः।
(जैसिदी ३.१२) २. दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीव । (द्र सत्त्व) ३. प्राणशक्ति को गति देने वाले वायु का एक प्रकार। नासाग्र, हृदय, नाभि और पैरों के अंगूठे तक व्याप्त रहने । वाला वायु , जिसका वर्ण नीला होता है। प्राणापान-समानोदान-व्यानाः पञ्च वायवः॥ नासाग्र-हृदय-नाभि-पादांगुष्ठान्तगोचरो नीलवर्णः प्राणः॥
(मनो ५.१,२)
प्राणत दसवां स्वर्ग । कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की दसवीं आवास भूमि।
(उ ३६.२११) (देखें चित्र पृ ३४६)
प्राणातिपातविरमण पहला महाव्रत। प्राणातिपात के परित्याग से होने वाली विरति।
(स्था ५.१) (द्र सर्वप्राणातिपातविरमण, स्थूलप्राणातिपातविरमण) प्राणापान पर्याप्ति
(प्रसावृप ३८७) (द्र आनापान पर्याप्ति) प्राणायु पूर्व बारहवां पूर्व, जिसमें आयु आदि प्राणों का भेद सहित प्रज्ञापन किया गया है। बारसमं पाणायुं, तत्थ आयुं-प्राणविधाणं सव्वं सभेदं अण्णे य प्राणा वण्णिता। (नन्दी १०४ चू पृ७६) प्रातिहारिक मुनि द्वारा गृहीत वह वस्तु, जिसका प्रत्यर्पण किया जा सके, गृहस्थ को वापिस दिया जा सके, जैसे-पीठ, फलक आदि। भुक्तोद्वरितं भूयोऽस्माकं प्रत्यर्पणीयमिति यत् प्रतिज्ञातं तत् प्रातिहारिकम्।
(बृभा ३६५७ वृ)
प्राणसूक्ष्म ऐसा सूक्ष्म जीव, जिसे स्थिर अवस्था में जानना कठिन है
और जो चलता हुआ दिखाई देता है। पाणसुहुमं अणुद्धरी कुंथू जा चलमाणा विभाविज्जइ थिरा दुव्विभावा।
(द ८.१५ जिचू पृ २७८) प्राणातिपात
(स्था १.९५) (द्र वध) प्राणातिपात आश्रव
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हावाणि।
प्रातिहार्य
भूमि पर बैठकर अंगुलि के अग्रभाग से सूर्य, चांद आदि इन्द्र-नियुक्त देवों द्वारा कृत तीर्थंकर के आठ अतिशय, जैसे- तथा मेरुशिखर आदि का स्पर्श कर सकता है। छत्र, चामर आदि।
भूमीए चेतॄतो अंगुलिअग्गेण सूरससिपहुदिं। प्रतिहारा:-सुरपतिनियुक्ता देवास्तेषां कर्माणि कृत्यानि मेरुसिहराणि अण्णं जं पावदि पत्तिरिद्धी सा॥ प्राति-हार्याणि। (प्रसा ४४० वृ प १०६)
(त्रिप्र ४.१०२८) अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च।
प्राप्यकारी इन्द्रिय भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम्॥
(नन्दीमवृ प ४१)
स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र--इन चार इन्द्रियों का अपने
विषय के साथ उपश्लेष होता है. इसलिए ये प्राप्यकारी हैं। (द्र छत्र, महाप्रातिहार्य)
स च विषयेण सहोपश्लेषः प्राप्यकारिष्वेव स्पर्शन-रसनप्रातीच्छिक
घ्राण-श्रोत्र-लक्षणेषु चतुरिन्द्रियेषु भवति, न तु नयनमनसोः। ज्ञान आदि की विशिष्ट आराधना के लिए दूसरे गण से
(विभा २०४ वृ) आकर अन्य गण के आचार्य की उपसंपदा स्वीकार करने
(द्र अप्राप्यकारी इन्द्रिय) वाला।
प्राभृत ये गच्छान्तरवासिनः स्वाचार्यं पृष्ट्वा गच्छान्तरेऽनुयोगश्रव- १. पूर्व के वस्तु का एक अध्याय। णाय समागच्छन्ति अनुयोगाचार्येण च प्रतीच्छ्यन्ते अन्
प्राभृतादयः पूर्वान्तर्गताः श्रुताधिकारविशेषाः। मन्यन्ते ते प्रातीच्छिका उच्यन्ते। (नन्दी ४२ मवृ प५४)
(अनुमवृ प २१६) प्रातीत्यिकी क्रिया
२. सारभूत ग्रंथ। बाह्य वस्तु के सहारे होने वाली प्रवृत्ति ।
'पाहुडं' प्राभृतं सारभूतं शास्त्रम्। (चाप्रा २ श्रुवृ) बाह्य वस्तु प्रतीत्य-आश्रित्य भवा प्रातीत्यिकी।
प्राभृतप्राभृतिका (नन्दी २ मवृ प ३९)
अध्याय का अवान्तर प्रकरण। (अनु ५७२ टि पृ ३२७) प्रादुष्करण उद्गम दोष का एक प्रकार। देय वस्तु को अंधकार से
प्राभृतिका हटाकर प्रकाशित स्थान में रखना, अंधकारयुक्त स्थान को
१. उद्गम दोष का एक प्रकार । साधु को मोदक आदि का प्रकाशित करने के लिए दीवार में छिद्र करना अथवा मणि,
दान देने के लिए विवाह आदि के प्रसंगों को निर्धारित समय दीपक, अग्नि आदि से उसे प्रकाशित करना।
से पहले अथवा पश्चात् करना। प्रादुष्करणं सान्धकारस्थितस्य वस्तुनो दीपादिना प्रकाशकरणं साधुविषये साधूनामागमनं ज्ञात्वा कोऽप्येवं करोति, प्रतिष्ठिमध्याद् बहिः सप्रकाशे स्थापनं वा। (प्रसा ५६४ उवृ)
तलग्नात् पूर्वं पश्चाद् वा साधूनां मोदकादिप्रतिलाभनार्थम्। यदन्धकारव्यवस्थितस्य द्रव्यस्य वह्नि-प्रदीप-मण्यादिना
(पिनिवृ प ५५) भित्त्यपनयनेन वा बहिर्निष्कास्य द्रव्यधारणेन वा प्रकटकरणं २. अध्याय का एक प्रकरण। (अनु ५७२ टि पृ ३२७) तत् प्रादुष्करणम्। (योशा १.३८ वृ पृ १३३)
३. इन्द्र आदि सुरगण के द्वारा की गई समवसरण की रचना,
महाप्रातिहार्य आदि। प्रादोषिकी क्रिया
प्राभृतिका सुरेन्द्रादिकृता समवसरण-रचना। मात्सर्य, क्रोध आदि के निमित्त से होने वाली प्रवृत्ति।
(बृभा ९९६ वृ) प्रद्वेषो-मत्सरस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी।
जा तित्थगराण कता, वंदणया वरिसणादि पाहुडिया।
(स्था २.८ वृ प ३८) या तीर्थकराणां सुरवरैर्भक्त्या वन्दना वर्षणादिका आदिप्राप्ति ऋद्धि
शब्दात् पुष्पवृष्टिप्राकारत्रयादिकरणपरिग्रहः प्राभृतिका कृता। विक्रिया ऋद्धि का एक प्रकार । इस ऋद्धि से सम्पन्न साधक
(व्यभा ३७६८ वृ प ११)
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प्राभृतिक-सुरविरचितसमवसरणमहाप्रातिहार्यादिपूजालक्षणाम्।
(बृभा ४९७६ वृ)
प्रावचनी तीर्थंकर। अरहा ताव नियम पावयणी।
(भग २०.७५)
प्रावृट्काल वर्षावास का एक प्रकार । श्रावण और भाद्रपदमास । वासावासो दुविहो, पाउस वासा य.....। पाउसो सावणो भद्दवओ य, वासारत्तो आसोओ कत्तियओ अत्ति।
(बृभा २७३४ चू)
प्रामाण्य ज्ञान का अपने प्रमेय के साथ अव्यभिचारी (निश्चित) संबंध होना। ज्ञानस्य प्रमेयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम्। (प्रनत १.१८) । प्रामित्य उद्गम दोष का एक प्रकार । साधु को देने के लिए कोई वस्तु दूसरों से उधार लेना। प्रामित्यं-साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम्। (दहावृप १७४) यत् साध्वर्थमन्नादि उद्यतकं गृहीत्वा दीयते तत् प्रामित्यकम्।
(योशा १.३८ वृ पृ १३४) प्रायश्चित्त आभ्यन्तर तप का एक प्रकार । दोष-विशुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न। आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं। जे भिक्ख वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं॥
(उ ३०.३१) अतिचारविशुद्धये प्रयत्नः प्रायश्चित्तम्। (जैसिदी ६.३७) प्रायश्चित्तकरण योगसंग्रह का एक प्रकार, दोष-विशुद्धि का अनुष्ठान करना। 'पायच्छित्तकरणे' इति प्रायश्चित्तकरणं च कार्यम्।
(सम ३२.१.५ वृ प ५५)
प्रासुक १. अचित्त, जीवरहित।
(भग १.४३८) पगदा असओ जम्हा तम्हादो दव्वदो त्ति तं दव्वं । फासुगमिदि...॥
(मू ४८५) प्रासुकं-स्वकायपरकायशस्त्रोपहतत्वेनाचित्तीभूतम्।
(प्रसा ८८२ वृ) २. अभिलषणीय। (द्र स्पर्शक) प्रासुकविहार मुनि द्वारा प्रासुक-एषणीय (अचित्त-कल्पनीय) पीठ-फलक
और शय्यासंस्तारक का ग्रहण। """फासुएसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, सेत्तं फासुयविहारं॥ (भग १८.२१२) प्रीतिदान धर्माचार्य के आगमन पर सूचना देने वाले कर्मचारी को दिया जाने वाला दान। स्वनगरे भगवदागमननिवेदकाय नियुक्तायानियुक्ताय वा हर्षप्रकर्षाधिरूढमानसैर्दीयते तत् प्रीतिदानम्।
(बृभा १२०७ वृपृ ३७४) प्रेक्षा असंयम असंयम का एक प्रकार । स्थान, उपकरण आदि को नहीं देखना अथवा विधिपूर्वक नहीं देखना। प्रेक्षायामसंयमो."स च स्थानोपकरणादीनामप्रत्युपेक्षणमविधिप्रत्युपेक्षणं वा।
(सम १७.१ ७ प ३२) प्रेक्षाध्यान एक ध्यानपद्धति।
प्रायोपगमन अनशन यावत्कथिक अनशन का तीसरा प्रकार। पादपोपगमन, जो निष्प्रतिकर्म होता है। इसे स्वीकार करने वाला साधक जहां अनशन स्वीकार करता है, वहां निश्चेष्ट होकर लेटा रहता
(भग २.४९)
पाओवगमणे"नियमा अप्पडिकम्मे। (द्र पादपोपगमन)
प्रायोपगमन मरण मरण का एक प्रकार। समाधिमरण के लिए उपगमन करना अथवा उपवेशन करना।
(सम १७.९) (द्र प्रायोपगमन अनशन)
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१. राग-द्वेष, प्रियता - अप्रियता के प्रकम्पनों से मुक्त रहकर देखना- जानना । आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना - ज्ञानचेतना के द्वारा दीनता, चंचलता आदि वृत्तियों को देखना । संपिक्खए अप्पगमप्पएणं । (दचूला २.१२) संधिं समुप्पेहमाणस्स एगायतणरयस्स । (आ ५.३० ) २. वह ध्यान, जिसमें आत्मदर्शन के द्वारा निर्विकल्प समाधि सिद्ध होती है।
अन्तर्लक्ष्यात्मकेन अनिमेषप्रेक्षाध्यानेन निर्विकल्पसमाधिः सिद्ध्यति । (आभा. ९.१.५) आयंसघरपवेसो भरहे । ताहे अप्पाणं पेच्छति । ईहावूहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स अपुव्वकरणं झाणं अणुपविट्टो केवलणाणं उप्पाडेति । (आवचू १ पृ २२७ ) प्रेक्षा संयम
संयम का एक प्रकार । स्थान, निषीदन और शयन के स्थान का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना ।
पेहासंजमो - जत्थ ठाण- निसीयण तुयट्टणं काउकामो पडि-लेहिय पमज्जिय करेमाणस्स संजमो भवति । (दअचू पृ १२)
प्रेक्ष्य संयम
प्रेक्ष्य क्रियामाचरन् संयमेन युज्यते । प्रेक्ष्येति चक्षुषा दृष्ट्वा स्थण्डिलं बीजजन्तुहरितादिरहितं पश्चादूर्ध्वनिषद्यात्वग्वर्तनस्थानानि विदधीतेत्येवमाचरतः संयमो भवति ।
(तभा ९.६ वृ पृ १९८)
(द्र प्रेक्षा संयम )
प्रेम
(द्र प्रेयस्पाप)
(भग १.२८६ वृ)
प्रेयस्पाप
पापकर्म का दसवां प्रकार । रागात्मक प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध।
(आवृ प ७२) 'पेज्जे' त्ति प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेम, तच्चानभिव्यक्तमायालो भलक्षणभेदस्वभावमभिष्वङ्गमात्रम् ।
(स्था १.१०० वृ प २४)
प्रेयस्प्रत्यया क्रिया क्रिया का एक प्रकार । राग के कारण होने वाली प्रवृत्ति ।
प्रेम - रागो मायालो भलक्षणः ।
प्रेषक
वह मुनि, जो संदेशवाहक के रूप में नियुक्त होता है। (व्यभा १९४३)
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प्रेष्य प्रतिमा
उपासक प्रतिमा का नौवां प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक कर्मकरों के द्वारा भी आरंभ (हिंसा) नहीं कराता, वह अपने कुटुम्ब का कार्यभार दूसरों को सौंप देता है, इसलिए वह उससे निवृत्त रहता है
नवमी – प्रेष्यारम्भवर्जनप्रतिमा भवति, यस्यां नव मासान् यावत् पुत्रभ्रातृप्रभृतिषु न्यस्तसमस्तकुटुम्बादिकार्यभारतया धनधान्यादिपरिग्रहेष्वल्पाभिष्वङ्गतया च प्रेष्यैरपि - कर्मकरादिभिरपि आस्तां स्वयमारम्भान् सपापव्यापारान् महतः कृष्यादीनिति भावः । (प्रसा ९९० वृप २९५ )
(स्था २.३५ वृ प ४० )
प्रेष्यप्रयोग
देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार । संकल्पित देश से बाहर व्यापार आदि के प्रयोजन से प्रेष्य को भेजना। बलाद्विनियोज्यः प्रेष्यस्तस्य प्रयोगो, यथाभिगृहीतप्रविचारदेशव्यतिक्रमभयात् 'त्वयाऽवश्यमेव तत्र गत्वा मम गवाद्यानेयम् इदं वा तत्र कर्तव्यम्' इत्येवंभूतः प्रेष्यप्रयोगः । (उपा १.४१ वृ पृ १९ )
प्रोषधोपवास
पर्व तिथियों में किया जाने वाला उपवास ।
प्रोषधशब्दः पर्व पर्यायवाची । प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः । (तवा ७.२१.१०)
(द्र पौषधोपवास)
फ
फलचारण
चारण ऋद्धि का एक प्रकार, जिसके द्वारा साधक फलों के जीवों की विराधना न करते हुए उनके ऊपर से गमन कर सकता है।
वहिदू जीवे तल्लीणे वणफलाण विविहाणं । वरम्मि जं पधावदि स च्चिय फलचारणा रिद्धी ॥
(त्रिप्र ४.१०३८)
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फलजृम्भक
जृम्भक देव का एक प्रकार, जो फलों की रक्षा के लिए नियुक्त है।
(भग १४.११९)
फलप्राप्त
उदय प्राप्त, फल देने में समर्थ कर्म-पुद्गल । 'फलप्राप्तस्य' फलं दातुमभिमुखीभूतस्य ततः सामग्री(प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९)
वशादुदयप्राप्तस्य ।
फलिकोपहृत
मुनि को ऐसा भोजन देना, जो खाने के लिए (अतिथि को) थाली आदि में परोसा हुआ है।
उपहृतमुपहितम्, भोजनस्थाने ढौकितं भक्तमिति भावः, फलिकं - प्रहेणकादि, तच्च तदुपहृतं चेति फलिकोपहृतं अवगृहीताभिधानपञ्चमपिण्डैषणाविषयभूतम् ।
(स्था ३.३७९ वृ प १३८)
ब
बकुश
निर्ग्रन्थ का दूसरा प्रकार । वह निर्ग्रन्थ, जो शरीर और उपकरणों की विभूषा में रत रहता है, जो ऋद्धि और यश की कामना करने वाला, सातगौरव (सुविधावाद) में संलग्न, परिवार में आसक्त तथा शबल (धब्बे युक्त) चारित्र से युक्त होता है।
बकुशं - शबल: कर्बुरं, ततश्च बकुशसंयमयोगाद् बकुशः । (भग २५.२७८ वृ) शरीरोपकरणविभूषाऽनुवर्तिनः ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिता अविविक्तपरिवाराः छेदशबलयुक्ताः निर्ग्रन्था बकुशाः । (तभा ९.४८)
बद्ध
जीव के द्वारा राग-द्वेष के परिणामवश कर्मरूप में परिणमित कर्मवर्गणा के पुद्गल । कर्म की वह अवस्था, जिसकी बंधक्रिया सम्पन्न हो चुकी है।
जीवेन बद्धस्य - रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिणमितस्य । (प्रज्ञा २३.१३ वृप ४५९) बद्धा उपरतबन्धक्रियाः । (विभा २९६२ मवृ)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
बद्धस्पर्शस्पृष्ट
कर्म की वह अवस्था, जिसमें बद्ध कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ गाढतर संश्लेष हो जाता है।
जीवेन बद्धस्य – रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिणमितस्य स्पृष्टस्य - आत्मप्रदेशैः सह संश्लेषमुपगतस्य बद्धफासपुटुस्से त्ति पुनरपि गाढतरं बद्धस्यातीव स्पर्शेन स्पृष्टस्य (प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९)
च।
बद्धस्पृष्ट
घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के विषयभूत गंध, रस और स्पर्श, जो जल की भांति स्पृष्ट होकर आत्मप्रदेशों के साथ आश्लिष्ट होते हैं।
'बद्धस्पृष्टमिति ' - आश्लिष्टं तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतमित्यर्थः''''आलिङ्गितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतमित्यर्थः । (नन्दी ५४.४ हावृ पृ ५७)
बद्धायुष्क
वह जीव, जिसके भावी जन्म का आयुष्य बंध चुका है। यत्र भवे वर्तते स एवैको भवः शङ्खेषूत्पत्तेरन्तरेऽस्तीतिकृत्वा, एवं शङ्खप्रायोग्यं बद्धमायुष्कं येन स बद्धायुष्कः । ( अनु ५६८ मवृ प २१३)
बध्यमान
कर्म की वह अवस्था, जिसकी बंधक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है ।
बध्यमानाः प्रारब्धबन्धक्रियाः ।
(विभा २९६२ मवृ)
बन्ध
१. नौ तत्त्वों में एक तत्त्व। जीव के द्वारा कर्म-पुद्गलों का
ग्रहण |
जीवस्य कर्मपुद्गलानामादानम् - क्षीरनीरवत् परस्पराश्लेषः बन्धोऽभिधीयते । (जैसिदी ४.६ वृ)
२. स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार। अपने आश्रित पशु अथवा मनुष्य आदि को रज्जु आदि से बांधना । 'बंधे' त्ति बन्धो द्विपदादीनां रज्ज्वादिना संयमनम् ।
(उपा १.३२ वृ पृ १०) ३. पुद्गल का एक पर्याय । संश्लेष - पुद्गल का पुद्गल के साथ मिलना ।
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संश्लेषः - बन्धः |
बन्धक
कर्म का बंध करने वाला।
(जैसिदी १.१५ वृ)
बंधस्स दव्व-भावभेदभिण्णस्स जे कत्तारा ते बंधया णाम । (धव पु१४ पृ २)
बन्धन
कर्मकरण का एक प्रकार । वीर्यविशेष के द्वारा कर्मपुद्गलों को आत्मप्रदेशों के साथ अन्योन्य अनुगत करना, संश्लिष्ट करना ।
बध्यते जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगतीक्रियतेऽष्टप्रकारं कर्म (कप्र पृ ४८)
येन वीर्यविशेषेण तद्बन्धनम् ।
बन्धनच्छेदनगति जीव और शरीर के परस्पर संबंध-विच्छेद के पश्चात् होने वाली जीव और पुद्गल की गति । बंधणच्छेदणगती - जेणं जीवो वा सरीराओ, सरीरं वा जीवाओ।
बन्धनस्य छेदनं बन्धनच्छेदनं तस्मात् गतिर्बन्धनच्छेदनगतिः, सा च जीवन विमुक्तस्य शरीरस्य शरीराद्वा विच्युतस्य जीवस्यावसातव्या । (प्रज्ञा १६.२३ वृ प ३२८)
बन्धनप्रतिघात
प्रशस्त औदारिक आदि शरीर की प्राप्ति का अवरोध, जो अशुभ आचरण के द्वारा निष्पन्न होता है।
बन्धनं नामकर्म्मण उत्तरप्रकृतिरूपमौदारिकादिभेदतः पञ्चविधं तस्य प्रक्रमात् प्रशस्तस्य प्राग्वत् प्रतिघातो बन्धनप्रतिघातो.... । (स्था ५.७० वृ प २८९)
बन्धनप्रत्ययिक
सादि विस्रसा बंध का एक प्रकार। स्निग्ध और रूक्ष गुणों के आधार पर होने वाली पुद्गलों की संरचना । जणं परमाणुपोग्गलदुप्पदेसिय-तिप्पदेसिय जाव दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसियाणं खंधाणं वेमायनिद्धयाए, वेमायलुक्खयाए, वेमायनिद्धलुक्खयाए, बंधणपच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ, जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । सेत्तं बंधणपच्चइए । (भग ८.३५१)
बन्धनविमोचनगति
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आम आदि फलों के पक जाने पर किसी व्याघात के बिना स्वभाव से नीचे की ओर होने वाली गति ।
जण्णं अंबाण वा पक्काणं परियागयाणं बंधणाओ विप्पमुक्काणं णिव्वाघाएणं अहे वीससाए गती पवत्तइ । से तं बंधणविमोयणगती । (प्रज्ञा १६.५५ )
बल
१. वह सामर्थ्य, जिसका शरीर के द्वारा प्रयोग होता है। (भग १.१४६ वृ)
बलं - शारीरः प्राणः ।
बलं च शरीरसामर्थ्यम् ।
(स्थावृ प २१ )
२. वह प्राण, जो मन, वचन और शरीर की शक्ति के लिए उत्तरदायी है। (प्रसा १०६६)
बलदेव
शलाकापुरुष का एक प्रकार । वासुदेव से आधे बल से युक्त, दस लाख अष्टापद शक्ति से युक्त, इनका अस्त्र है हल और मुसल । (स्था ५.१६८) बलदेवस्स सारीरबलसामत्थरिद्धी वासुदेवसारीरबलसामत्थरिद्धीतो अद्धप्पमाणा''''। (आवचू १ पृ ६९)
(द्र शलाकापुरुष)
बला
शतायु जीवन की एक दशा, चतुर्थ दशक। इसमें बलप्रदर्शन की क्षमता होती है।
चउत्थी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ । समत्थो बलं दरिसिउं, जइ होइ निरुवद्दवो ॥
(दहावृ प ८ )
बहिःपुद्गलप्रक्षेप देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार । संकल्पित देश से बाहर अवस्थित व्यक्ति को व्यापार आदि की प्रवृत्ति का संकेत देने के लिए ढेला आदि फेंकना। 'बहिया पोग्गलपक्खेवे' त्ति अभिगृहीतदेशाद् बहिः प्रयोजनसद्भावे परेषां प्रबोधनाय लेष्ट्वादिपुद्गलप्रक्षेप इति (उपा १.४१ वृ पृ १९ )
भावना ।
बहिरात्मा
१. वह व्यक्ति, जो भ्रान्तिवश शरीर और आत्मा के भेद की अनुभूति नहीं करता ।
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मिच्छत्तपरिणदप्पा तिव्वकसाएण सुट्टु आविट्ठो । जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि
बहिरप्पा ॥ (काअ १९३) बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिः । (सश ५) २. वह व्यक्ति, जो प्रथम तीन गुणस्थानों में विद्यमान है और जो इन्द्रिय-सुखों में आसक्त है। मिथ्यासासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्यन्यूनाधिकभेदेन (बृद्रसंवृ पृ ३८) स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तवसुखात् प्रतिपक्षभूतेनेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा, तद्विलक्षणोऽन्तरात्मा ।
बहिरात्मा ।
(बृद्रसं १४ वृ पृ ३६)
बहिर्लेश्या
वह अप्रशस्त भावधारा, जिसके कारण व्यक्ति संयम में अथवा आत्मा में रमण नहीं कर पाता । संजमनिग्गतभावो बहिलेस्सो भवति ।'' अहवा अप्पसत्थाओ लेस्साओ संजमस्स बाहिं वहतीतिकाउं सो बहिलिस्सो भवति । (आ ६.१०६ चू पृ २४१ )
बहिर्विहार
मोक्ष, जो संसार के बाहर है।
बहिः संसाराद् विहारः - स्थानं बहिर्विहारः, स चार्थान्मोक्षः । (उशावृ प ३९७) जाईजरामच्चुभयाभिभूया, बहिंविहाराभिनिविट्ठचित्ता । ...... ( उ १४.४)
बहिस्ताद् आदानविरमण
बाह्य वस्तुओं के ग्रहण का संयम करना। मैथुन और परिग्रह से विरति । बहिर्द्धा
--.....आदीयत इत्यादानं - परिग्राह्यं वस्तु | (स्था ४.१३७ वृ प १९० ) -परिग्रहस्तयोर्द्वन्द्वैबहिर्द्धा - मैथुनं परिग्रहविशेषः, आदानंच-1 कल्वम् । (स्था ४.१३६ वृ प १९० )
बहुअवग्रहमि
१. व्यावहारिक अर्थावग्रह का एक प्रकार। बहु का अवग्रहण करना, , जैसे- तत, वितत, घन, भेरी आदि के शब्दों को एक साथ ग्रहण करना ।
नाणासद्दसमूहं बहु पिहं मुणइ भिन्नजाईयं । (विभा ३०८)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
'युगपत्ततविततघनसुषिरादिशब्दश्रवणाद् बहुशब्दं गृह्णाति ।
( तवा १.१६.१६) य एष औपचारिकोऽवग्रहस्तमङ्गीकृत्य बहु अवगृह्णातीत्येतदुच्यते, न त्वेकसमयवर्तिनं नैश्चयिकमिति, एवं बहुविधादिषु सर्वत्रौपचारिकाश्रयणाद्। (तभा १.१६ वृ पृ ६४ ) २. पांच, छह अथवा सात सौ ग्रंथों (श्लोकों) को एक बार में ही ग्रहण कर लेना ।
बहुगं पुण, पंच व छस्सत्तगंथसया ।
बहुअस्थिक
वह फल, जिसमें बहुत बीज हों।
(द्र अस्थिक)
(व्यभा ४१०६)
बहुआगम
जो मुनि अनेक आगमों के अर्थ का विशेषज्ञ होता है, वह बह्वागम है ।
(द ५.१.७३)
बहुसुत- बहुआगमिया, सुत्तत्थविसारदा धीरा ॥ बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बह्वागमः ।
बहुजन
आलोचना का एक दोष। एक के पास आलोचना कर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना । बहवो जना - आलोचनाचार्याः यस्मिन्नालोचने तद्बहुजनः । (स्था १०.७० वृ प ४६१ )
(द्र क्रियमाण-कृत)
(व्यभा १४७८ वृ)
बहुमान
ज्ञानाचार का एक प्रकार । ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनुराग । बहुमानः प्रीतिस्तद्विषये, यतो बहुमानेनैव - आन्तरचित्तप्रमोदलक्षणेन पठनादि विधेयम् । (प्रसा २६७ वृ प ६४)
बहुरतवाद
प्रवचननिह्नव का प्रथम प्रकार । यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार द्रव्य की निष्पत्ति एक समय में नहीं होती, किन्तु दीर्घकाल में होती है। इसमें क्रियमाण-कृत के दृष्टिकोण का अस्वीकार है । 'बहुरय' त्ति एकेन समयेन क्रियाध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुत्पत्तेः प्रभूतसमयैश्चोत्पत्तेः बहुषु समयेषु रताः - सक्ता बहुरताः दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः ।
(स्था ७.१४० वृ प ३८९)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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बहुविध अवग्रहमति
करना तथा छोटे दोषों को छिपा लेना। १. व्यावहारिक अर्थावग्रह का एक प्रकार। बहुविध का बादरमेवातिचारजातमालोचयति न सूक्ष्मम्। अवग्रहण करना, जैसे-किसी एक वाद्य के शब्द के दो,
(स्था १०.७० वृ प ४६०) चार, संख्येय, असंख्येय आदि पर्यायों को एक साथ ग्रहण
बादर काय करना।
(स्था ४.४९४) ""बहुविहमणेगभेयं, एक्केक्कं निद्धमहुराई। (विभा ३०८)
(द्र बादर जीव) ""ततादिशब्दविकल्पस्य प्रत्येकमेकद्वित्रिचतुःसंख्येयासंख्येयानन्तगुणस्यावग्राहकत्वात् बहुविधमवगृह्णाति।
बादर जीव
(तवा १.१६.१६) बादर नामकर्म के उदय से निष्पन्न बादर शरीर वाले जीव, २. अनेक प्रकार का अवग्रहण, जैसे-स्वयं कुछ लिख रहा जो चक्षु द्वारा ग्राह्य हैं। है. उस समय दूसरे द्वारा कथित वचनों को सुन रहा है, बादरनामकर्मोदयाद् बादराः। (प्रज्ञावृ प २४) वस्तुओं की गणना कर रहा है, आख्यान (कथा) कह रहा
यदयाज्जीवानां चक्षुाह्यशरीरत्वलक्षणं बादरत्वं भवति।
(कप्र पृ २१) बहुविह णेगपयारं, जह लिहतिऽवधारए गणेति विय। अक्खाधगं कहेती, सद्दसमूहं व णेगविहं।।
बादरतेजस्कायिक (व्यभा ४१०७)
बादर नामकर्म के उदय से निष्पन्न स्थूल शरीर वाले
तैजसकायिक जीव, जो अलग-अलग होने पर दृश्य नहीं बहुश्रुत
होते, असंख्य शरीर समुदित होने पर दृश्य बन जाते हैं। १. वह मुनि, जो द्वादशाङ्ग का विशिष्ट ज्ञाता है।
(प्रज्ञा १.२४) परिसमत्तगणिपिडगज्झयणस्सवणेण य विसेसेण य
(द्र बादरपृथ्वीकायिक) बहुस्सुतो।
_(दअचू पृ २५६) २. विविध आगमों के श्रवण-अध्ययन से जिसकी बुद्धि बादरनाम निर्मल हो गई है।
नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव के स्थूल बहुश्रुता विविधागमश्रवणावदातीकृतमतयः।
शरीर का निर्माण होता है। उस पर दूसरे जीवों का उपघात (उ ११.१५ शावृ प २५३) और अनुग्रह हो सकता है। ३. छेदसूत्र आदि आगमों में कुशल-विशेषज्ञ ।
बादरनाम यदुदयाज्जीवा बादरा भवन्ति। 'बहुश्रुतं' छेदग्रन्थादिकुशलम्। (बृभा ५५६६ वृ)
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) ४. जो आगम-वृद्ध हो।
बादरनिगोद 'बहुश्रुतम्' आगमवृद्धम्। (दहावृ प २३५)
(जीवावृ प ४२३) बादर अप्कायिक
(द्र साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिक) बादर नामकर्म के उदय से निष्पन्न स्थूल शरीर वाले
बादरपृथ्वीकायिक अप्कायिक जीव, जो अलग-अलग होने पर दृश्य नहीं
बादर नामकर्म के उदय से निष्पन्न स्थूल शरीरवाले पृथ्वीहोते, असंख्य शरीर समुदित होने पर दृश्य बन जाते हैं।
कायिक जीव, जो अलग-अलग होने पर दृश्य नहीं होते, (प्रज्ञा १.२१)
असंख्य शरीर समुदित होने पर दृश्य बन जाते हैं। (द्र बादरपृथ्वीकायिक)
बादरनाम यदुदयाज्जीवा बादरा भवन्ति, बादरत्वं परिणामबादर आलोचना
विशेष: यवशात् पृथिव्यादेरेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुआलोचना का एक दोष। केवल बड़े दोषों की आलोचना
ह्यत्वाभावेऽपि बहूनां समुदाये चक्षुषा ग्रहणं भवति।
(प्रज्ञा १.१६ व प २४).org
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बादरवनस्पतिकायिक
बादरनामकर्म के उदय से निष्पन्न स्थूल शरीरवाले वन
(प्रज्ञा १.३० )
स्पतिकायिक जीव । (द्र बादरपृथ्वीकायिक)
बादरवायुकायिक
बादर नामकर्म के उदय से निष्पन्न स्थूल शरीरवाले वायुकायिक जीव, जो अलग-अलग होने पर दृश्य नहीं होते, असंख्य शरीर समुदित होने पर दृश्य बन जाते हैं।
( प्रज्ञा १.२७)
(द्र बादरपृथ्वीकायिक)
बादरसम्पराय संयत
प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, निवृत्तिबादर और अनिवृत्तिबादरइन चार जीवस्थानों में वर्तमान मुनि, जिसके स्थूल कषाय उदय में रहता है।
सम्परायः ।
बादरः - स्थूलः सम्परायः - कषायस्तदुदयो यस्यासौ बादर(तभा ९.१२ वृपृ २३० ) प्रमत्तादीनां संयतानां सामान्यग्रहणम् - बादरः साम्परायो यस्य सोऽयं बादरसाम्परायः । ( तवा ९.१२)
बाल
१. वह जीव, जो सर्वथा अविरत है, व्रत की चेतना से शून्य है.
अविरई पडुच्च बाले आहिज्जइ । (सूत्र २.२.७५) बालः - अज्ञस्तद्वद् यो वर्त्तते विरतिसाधकविवेकविकलत्वात् स बालः - असंयतः । (स्था ३.५१९ वृ प १६५ ) २. वह व्यक्ति, जिसका आशय मिथ्याज्ञान से उपरक्त होने के कारण शिशु की तरह हित की प्राप्ति और अहित के परिहार से विमुख होता है ।
(द्र बालतप)
बालतप
मिथ्याज्ञान से उपरक्त आशय वाले तपस्वियों द्वारा किया जाने वाला अग्निप्रवेश आदि तप । मिथ्याज्ञानोपरक्ताशया बालाः शिशव इव हिताहितप्राप्तिपरिहारविमुखाः, तपो – जलानलप्रवेशे भृगुप्रपातादिलक्षणं, तेन तादृशा तपसा बालानां योगो बालसम्बन्धित्वाद्वा तपोऽपि बालम् । (तभा ६.१३ वृ)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
बालपण्डित
संयतासंयत, वह जीव, जो आंशिक रूप में विरत है, व्रताव्रती है ।
विरयाविरइं पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ । ( सूत्र २.२.७५) अविरतत्वेन बालत्वाद् विरतत्वेन च पण्डितत्वाद् बालपण्डितः - संयतासंयत इति । (स्था ३.५१९ वृप १६५) (द्र विरताविरत)
बालपण्डितमरण
देशविरत - व्रताव्रती का करण ।
.....बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ॥
( उनि २२२ )
बालपण्डित वीर्य
वीर्यलब्धि का एक प्रकार । देशविरत का संयमासंयममय पुरुषार्थ ।
(द्र बालवीर्य)
बालमरण
मरण का एक प्रकार । १. असंयति का मरण ।
अविरयमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं विंति ।
( उनि २२२)
२. बाल व्यक्ति अथवा अविरत व्यक्ति के आत्मघाती प्रयत्न, निदान और आर्त्त - रौद्रध्यान की दशा में होने वाला मरण । (भग २.४९ भा)
बालवीर्य
का एक प्रकार । अविरत का असंयममय पुरुषार्थ और सामर्थ्य, जो चारित्रमोह के उदय और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्राप्त होता है।
बालस्य - असंयतस्य यद्वीर्यं - असंयमयोगेषु प्रवृत्तिनिबन्धनभूतं तस्य या लब्धिश्चारित्रमोहोदयाद् वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च सा तथा, एवमितरे अपि यथायोगं वाच्ये, नवरं पण्डितः - संयतो, बालपण्डितस्तु संयतासंयत इति ॥ (भग ८.१४५ वृ)
बालवैयावृत्त्यकर
वह मुनि, जो बाल- शैक्ष साधु-साध्वियों की सेवा में नियुक्त होता है। (व्यभा १९४३)
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बाला शतायु जीवन की एक दशा, प्रथम दशक। इस शिशुवय में सुख-दुःख की अनुभूति तीव्र नहीं होती। जायमित्तस्स जंतुस्स, जा सा पढमिया दसा। ण तत्थ सुहदुक्खाई, बहुं जाणंति बालया।
(दहावृ प८)
वह विद्या, जिसके माध्यम से बाहु पर देवता को अवतीर्ण कर प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया जाता है। 'पसिणाई' ति प्रश्नविद्याः यकाभिः क्षौमकादिषु देवतावतार: क्रियत इति,"तत्र बाहवो-भुजा इति।
(स्था १०.११६ वृ प ४८५) बाह्य तप वह तप, जो स्थूल शरीर के माध्यम से कर्म-शरीर (सूक्ष्म शरीर) को प्रभावित कर कर्म-क्षय का हेतु बनता है। बाह्यतपः बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वात्।
(समवृ प १२)
बालाग्र क्षेत्र-मापन का एक प्रकार। मनुष्य के बाल का अग्रभाग। ८ रथरेणु-१ देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों का बालाग्र। ८ देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों का बालाग्र = १ हरिवास-रम्यकवास के मनुष्यों का बालाग्र । ८ हरिवास-रम्यकवास के मनुष्यों का बालाग्र = १ हेमवत-हैरण्यवत के मनुष्यों का बालाग्र। ८ हेमवत-हैरण्यवत के मनुष्यों का बालाग्र = १ पूर्वविदेह-अपरविदेह के मनुष्यों का बालाग्र। ८ पूर्वविदेह-अपरविदेह के मनुष्यों का बालाग्र = १ भरत-ऐरवत के मनुष्यों का बालाग्र। ८ भरत -ऐरवत के मनुष्यों का बालाग्र -१लिक्षा। अट्ठ रहरेणूओ देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ठ देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं मणुस्साणं । वालग्गा हरिवास-रम्मगवासाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अढ हरिवास-रम्मगवासाणं मणुस्साणं वालग्गा हेमवयहेरण्ण- वयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ट हेमवयहेरण्णवयाणं मणुस्साणं वालग्गा पुव्वविदेह-अवरविदेहाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ठ पुव्वविदेह-अवरविदेहाणं मणुस्साणं वालग्गा भरहेरवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ठ भरहेरवयाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा।
(अनु ३९९)
बाह्याबाह्य द्रव्यानुयोग का एक प्रकार । बाह्य-विशेष तथा अबाह्यसामान्य गुण के आधार पर पदार्थों का विचार करना। जीवद्रव्यं बाह्यं चैतन्यधर्मेणाकाशास्तिकायादिभ्यो विलक्षणत्वात् तदेवाबाह्यममूर्त्तत्वादिना धर्मेण अमूर्त्तत्वादुभयेषामपि।
(स्था १०.४६ वृप ४५७) बिन्दुसार पूर्व (द्र लोकबिन्दुसार) जो चोद्दसपुव्वी तस्स सामादियादि बिंदुसारपज्जवसाणं सव्वं नियमा सम्मसुतं।
(नंदी ६६ चू पृ ४९) बीजबुद्धि लब्धि का एक प्रकार। एक अर्थपद के आधार पर शेष अर्थपदों को जानने वाली योगज विभूति। जो अत्थपएणत्थं अणुसरइ स बीयबुद्धी उ॥ (विभा ८००)
बालुकाप्रभा नरक की तीसरी पृथ्वी (शैला) का गोत्र, जो बालुका रूप में प्रख्यात है।
(देखें चित्र पृ ३४६) (द्र रत्नप्रभा) बालुका त्ति बालुकारूपेण प्रख्यातेति बालुकाप्रभा।
(अनुचू पृ ३५)
बीजरुचि १. रुचि का एक प्रकार। सत्य के एक अंश के सहारे अनेक अंशों में फैलने वाली रुचि। २. बीजरुचि से सम्पन्न व्यक्ति। एगेण अणेगाई, पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं। उदए व्व तेल्लबिंदू सो बीयरुइत्ति नायव्वो॥
(उ २८.२२) यथोदकैकदेशगतोऽपि तैल-बिन्दुः समस्तमुदकमाक्रामति तथा तत्त्वैकदेशोत्पन्नरुचिरप्यात्मा तथाविधक्षयोपशमवशादशेषतत्त्वेषु रुचिमान् भवति, स एवंविधो बीजरुचितिव्यः।
(उशावृ प ५६५)
बाहुप्रश्न
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
बीजसूक्ष्म सरसों आदि के अग्रभाग पर होने वाली कणिका। सरिसवादि सालिस्स वा मुहमूले जा कणिया सा बीयसुहुमं।
(द ८.१२ जिचू पृ २७८)
२. अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान, जिसके औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार हैं। उप्पत्तिया वेणइया, कम्मया पारिणामिया। बुद्धी चउव्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भइ॥
(नन्दी ३८)
१. बोधिसम्पन्न, आत्मबोध से सम्पन्न। २. उपायज्ञ-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की चिन्ता करने वाला। तिविहा बुद्धा पण्णत्ता, तं जहा-णाणबुद्धा, दंसणबुद्धा, चरित्तबुद्धा।
(स्था ३.१७७) ३. केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों से युक्त। केवलज्ञानाद्यनन्तगुणसहितत्वात् बुद्धः। (बृद्रसंवृ पृ६३) ४. अर्हत्, जो उत्पन्नज्ञान-दर्शन के धारक, सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी
बुद्धि ऋद्धि ऋद्धि का एक प्रकार। अवगम (ज्ञान) विषयक ऋद्धि, जिसके बीजबुद्धि आदि अठारह प्रकार हैं। बुद्धिरवगमो ज्ञानं तद्विषया अष्टावदशविधा ऋद्धयः ।
(तवा ३.३६.३)
हैं।
(द्र बुद्धजागरिका) बुद्ध जागरिका जागृत अवस्था, जो केवलज्ञानी को प्राप्त है। उप्पण्णनाणदंसणधरा अरहा जिणे केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागयवियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी एएणं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति।
(भग १२.२१)
बुद्धपुत्र वह शिष्य, जो आचार्य के पुत्रतुल्य होता है। बुद्धानाम्-आचार्यादीनां पुत्र इव पुत्रो बुद्धपुत्रः।
(उ १.४ शावृ प ४६) बुद्धबोधितसिद्ध वह सिद्ध, जो तीर्थंकर आदि के द्वारा प्रतिबोध पाकर मुक्त होता है। जे सतंबुद्धेहिं तित्थकरादिएहिं बोहिता, पत्तेयबुद्धेहिं वा कविलादिएहिं बोधिता ते बुद्धबोधिता।
(नन्दी ३१ चू पृ २६) बुद्धि १. अवाय की चौथी अवस्था, जिसमें अवधारित अर्थ का स्थिर रूप में स्पष्ट बोध होता है। पुणो पुणो तमत्थावधारणावधारितं बुझतो बुद्धी भवइ।
(नन्दी ४३ चू पृ ३६)
बोधि १. अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म-वीतरागमार्ग की प्राप्ति। बोधि:-जिनधर्मलाभः। (स्था २.४२० वृ प ९१) २. सम्यग्दर्शन, जो दर्शनमोह कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होता है। ""दर्शनमोहनीयम् ""बोधेः सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात् तल्लाभस्य च तत्क्षयोपशम-जन्यत्वादिति। (भग ९.१२ वृ) ३. अप्राप्त सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति। ४. सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति के उपाय का चिन्तन। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिः।
(बृद्रसंवृ पृ ११४) उप्पजदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स। चिंता हवेइ बोही...॥
(द्वाअ ८३) (द्र जिनधर्म) बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा बारहवीं अनुप्रेक्षा । बोधि की दुर्लभता का अनुचिन्तन करना। बोधिदुर्लभत्वमनुचिंतयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवतीति बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा।
(तभा ९.७) ब्रह्मचर्य १. सुचारित्र । आचार। २. नौ गुप्तियुक्त मैथुनविरति। ३. गुरुकुलवास। ४. आत्मरमण।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
थं विहाय इह सिक्खमाणो उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा । सोभणं बंभचेरं वसेज्जा सुचारित्रमित्यर्थः, गुप्तिपरिसुद्धं वा मैथुनं भरं वुच्चति, गुरुपादमूले जावज्जीवाए वसे । (सूत्र १.१४.१ चू पृ २२८ ) ब्रह्मचर्यम् — आत्मरमणम्, उपस्थसंयमः, गुरुकुलवासश्च । (आभा ५.३५)
५. आत्मविद्या और तदाश्रित आचरण । ब्रह्मचर्यम् - आत्मविद्या तदाश्रितमाचरणं वा ।
(आभा पृ १५ ) ६. प्रथम अंग - आचारांग, जिसके नौ अध्ययन हैं। जे भिक्खू व बंभचेराई अवाएत्ता उत्तमसुयं वाएति ॥ (नि १९.१७) नव बंभचेरा पण्णत्ता''। (सम ९.३ ) कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्यं तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि तानि चाचाराङ्गप्रथम श्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानि । (समवृ प १६ ) ७. जिनप्रवचन, जिसमें सत्य, दया, इन्द्रियनिग्रह आदि धर्मों का अनुष्ठान किया जाता है।
ब्रह्म - सत्यभूतदयेन्द्रियलक्षणं तच्चर्यते - अनुष्ठीयते यस्मिन् तन्मौनीन्द्रप्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते ।
( सूत्र २.५.१ वृ प ११९)
ब्रह्मचर्य - गुप्
ब्रह्मचर्य - मैथुनविरमणव्रत की रक्षा के लिए निर्दिष्ट नव प्रकार के सुरक्षात्मक अभ्यास, जिनका पालन ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है ।
नवबंभचेरगुत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा -...... ब्रह्मचर्यस्य - मैथुनव्रतस्य गुप्तयो ब्रह्मचर्यगुप्तयः ।
(स्था ९.3 ) - रक्षाप्रकारा:
(स्था ८.३ वृ प ४४५)
ब्रह्मचर्य धर्म
श्रमणधर्म अथवा उत्तमधर्म का एक प्रकार । व्रत - परिपालन, ज्ञान की वृद्धि और कषाय के उपशम की साधना के लिए गुरु की अधीनता में रहना । व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकायच गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यमस्वातन्त्र्यं गुर्वधीनत्व.' ।
(तभा ९.६.१० )
ब्रह्मचर्य महाव्रत
(द्र सर्वमैथुनविरमण)
ब्रह्मचर्यवास
गुरुकुलवास, आजीवन गुरु के अनुशासन में रहना अथवा प्रव्रजित जीवन में रहना ।
...... उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा ।
पडिवज्जति ताव वसे ।
(द्र ब्रह्मचर्य धर्म)
ब्रह्मचर्य संवर
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गुरुपादमूले जावज्जीवाए जाव अब्भुज्जतविहारंण (सूत्र १. १४.१ चू पृ २८४)
( उ २१.१२)
(द्र सर्वमैथुनविरमण)
ब्रह्मप्रतिमा
उपासक प्रतिमा का छठा प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक दिन और रात्रि में सर्वथा मैथुन का परित्याग करता है। षष्ठ्यां अब्रह्मवर्जनप्रतिमायां दिवापि रजन्यामपि च सर्वथापि मैथुनप्रतिषेधः । (प्रसा ९८० वृप २९५ )
( प्रश्न ६.१.२ )
ब्रह्मलोक
पांचवां स्वर्ग । कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की पांचवीं आवासभूमि । ( उ ३६.२१० )
भ
ब्रह्मस्थावरकाय
ब्रह्म से संबंधित होने के कारण अप्काय का अपर नाम हैब्रह्मस्थावरकाय । (स्था ५.१९)
(द्र इन्द्रस्थावरकाय)
ब्रह्मस्थावरकायाधिपति
वह देव, जो अप्कायसंज्ञक स्थावरकाय का अधिपति है । (स्था ५.२० वृप २७९ )
(द्र इन्द्रस्थावरकायाधिपति )
भङ्ग
वह व्यवस्था, जिसके द्वारा किसी वस्तु में होने वाले संभावित विकल्पों का न्यास किया जाता है।
(अनु ११७)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
भक्तपानव्युच्छेद स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार । १. पालतू पशुओं को समय पर चारा, पानी आदि नहीं देना। २. क्रोध आदि के आवेश में तथा दर्भावनावश अपने आश्रित कर्मकरों की वृत्ति (आजीविका) का विच्छेद करना। 'भत्तपाणवोच्छेए'त्ति अशनपानीयाद्यप्रदानम्।
(उपा १.३२ वृ पृ१०) नराणां गोमहिष्यादितिरश्चां वा प्रमादतः। तृणाद्यन्नादिपातानां निरोधो व्रतदोषकृत्॥
(लासं ४.२७१) भक्तपानसम्भोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। आहार-पानी का लेन-देन। साम्भोगिकः साम्भोगिकेन सार्द्धमदगमोत्पादनैषणादोषैविशुद्धं गृह्णन् शुद्धः। (सम १२.२ ७ प २१)
(द्र शुश्रूषा विनय) अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः ।
(तवा ६.२४.१०) भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का एक विशेषण, जो वर्तमान में उसके पर्यायवाची नाम के रूप में प्रसिद्ध है। वियाहपण्णत्तीए णं भगवतीए चउरासीइं पयसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता।
(सम८४.११) (द्र व्याख्या)
भजना नियम का प्रतिपक्ष 'हो भी सकता है और नहीं भी' इस प्रकार का विकल्पयुक्त वचन। भयणाए त्ति 'भजनया' विकल्पनया।
(भग १.२३४ वृ) (द्र नियम)
भक्तप्रत्याख्यान यावत्कथिक अनशन का पहला प्रकार, जिसमें भक्त-भोजन का प्रत्याख्यान होता है, चंक्रमण आदि क्रिया की वर्जना नहीं होती। भत्तपच्चक्खाणं णाम केवलमेव भत्तं पच्चक्खातं, ण तु चंक्रमणादिक्रिया।
(उचू पृ१२९) (द्र इंगिनीमरण भक्तप्रत्याख्यानमरण)
भणक वह मुनि, जो कालिक, उत्कालिक आदि आगमों का अनवरत प्रतिपादन करता है। 'भणकं कालिकादिसूत्रार्थमनवरतं भणति-प्रतिपादयतीति भणः, भण एव भणकः। (नंदी २८ मवृ प ५०)
भक्तप्रत्याख्यान मरण वह मरण, जिसका समाधि की स्थिति में ॐ किया जाता है। भक्तप्रत्याख्यानं तु गच्छमध्यवर्तिनः, स कदाचित् त्रिविधाहारप्रत्याख्यायीति, कदाचिच्चतुर्विधाहारप्रत्याख्यायी, पर्यन्ते कृतसमस्तप्रत्याख्यानः समाश्रितमृदुसंस्तारकः समुत्सृष्टशरीराद्युपकरणममत्वः स्वयमेवोद्ग्राहितनमस्कारः समीपवर्तिसाधुदत्तनमस्कारो वा उद्वर्तनपरिवर्तनादि कुर्वाणः समाधिना करोति कालमेतद् भक्तप्रत्याख्यानं मरणमिति।
(तभा ९.१९ व)
भद्रा प्रतिमा प्रतिमा का एक प्रकार। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की ओर मुख कर प्रत्येक दिशा में चार-चार प्रहर तक कायोत्सर्ग करना। श्रमण महावीर ने भद्रा आदि प्रतिमाओं की साधना की थी। भद्रा-पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं प्रहरचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्रद्वयमानेति। (स्था २.२४५ वृ प ६१) भदं च महाभदं पडिमं तत्तो य सव्वओभई।। दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासी य अणुबद्धं ॥ भई पडिमं ठाति. पुव्वाहुत्तो दिवसं अच्छति पच्छा रत्तिं दाहिणहुत्तो, अवरेण दिवसं उत्तरेण रत्तिं, एवं छटेण भत्तेण णिद्विता। "महाभदं ठाति, सा पुणपुव्वाए दिसाए अहोरत्तं, एवं चउसु वि चत्तारि अहोरत्ता, एवं दसमेण णिट्ठित... सव्वतोभदं पडिमं ठाति।सा पुण सव्वतोभद्दा इंदाए अहोरत्तं, पच्छा अग्गेयाए, एवं दससु वि दिसासु सव्वासु, विमलाए
भक्ति वह भावशुद्धियुक्त अनुराग, जो अर्हत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में होता है।
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जाई उडलोतियाणि दव्वाणि ताणि झाति, तमाए हिट्ठिल्लाई""एवं एसा दसहिं दिवसेहिं बावीसइमेण णिट्ठाति।।
(आवनि ५३० चू पृ३००) (द्र महाभद्र)
भावयेत्।
(तभा ७.३ वृ) न भाइयव्वं भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा अण्णस्स वा एवमादियस्स।एवं धेज्जेण भाविओ भवइ अंतरप्पा।
(प्रश्न ७.२०)
भद्रासन बैठने की वह मुद्रा, जिसमें एक पदतल नीचे, बीच में मुष्क । (अण्डकोष) अथवा जननेन्द्रिय भाग, उस पर दूसरा पदतल स्थापित किया जाता है तथा नाभि के पास एक हाथ पर दूसरा हाथ रखा जाता है। सम्पुटीकृत्य मुष्काग्रे तलपादौ तथोपरि। पाणिकच्छपिकां कुर्याद् यत्र भद्रासनं तु तत्॥
(योशा ४.१३०) भय नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से भयरहित व्यक्ति में भी भय उत्पन्न होता है। यदुदयेन भयवर्जितस्यापि जीवस्येहलोकादिसप्तप्रकारं भयमुत्पद्यते तद् भयकर्म। (स्था ९.६९ ७ प ४४५) २. मोहनीय कर्म की एक प्रकृति से उत्पन्न होने वाला आत्मा का भयात्मक परिणाम। मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणाम: भयम्।
(स्था ७.२७ वृ प ३६९)
भयसंज्ञा भयवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला भयात्मक संवेदन। भयमोहनीयोदयात् भयोद्धान्तस्य दृष्टिवदनविकाररोमाञ्चो दादिक्रिया भयसंज्ञा। (प्रज्ञा ८.११ वृ प २२२) भरतक्षेत्र हिमवान और पूर्व, दक्षिण व पश्चिम तीन समुद्रों का मध्यवर्ती क्षेत्र, जो गङ्गा, सिन्धु और वैताढ्य (हिमालय) के द्वारा छः भागों में विभक्त है। वह कर्मभूमि क्षेत्र, जिसका नामकरण 'भरत चक्रवर्ती' के नाम से जुड़ा हुआ है। हिमवतोऽद्रेस्त्रयाणां समुद्राणां पूर्वदक्षिणाऽपराणां मध्ये भरतो वेदितव्यः। स पुनर्गङ्गासिन्धूभ्यां विजयार्धेन च षड्भागसंविभक्तः।
(तवा ३.१०.३) भरतो नामाद्यश्चक्रधरः षट्खण्डाधिपतिः। अवसर्पिण्यां राज्यविभागकाले तेनादौ भुक्तत्वात, तद्योगाद् भरत इत्याख्यायते वर्षः।
(तवा ३.१०.१) (द्र महाविदेह)
भय दान वह दान, जो भय से दिया जाता है। भयाद् यद्दानं तद् भयदानम्। (स्था १०.१७ वृ प ४७०) भय प्रतिषेवणा प्रतिषेवणा का एक प्रकार। भयवश होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन। भयंच-भीतिः नपचौरादिभ्यः प्रद्वेषश्च-मात्सर्यं भयप्रद्वेष तस्माच्च प्रतिषेवा भवति। (स्था १०.६९ वृ प ४६०) भयविवेक सत्य महाव्रत की एक भावना। भय का विवेचन करना, भय का प्रत्याख्यान करना तथा अभय से स्वयं को भावित करना। भयशीलो भीरुस्तच्चैहिकादिभेदात सप्तधा मोहनीयकर्मोदयजनितमुदयाच्च तस्यानृतभाषणं सलभं भवतीत्यभीरुत्वं
भव चार गतियों में से किसी एक गति में जन्म लेना। आयुष्यकर्म और नामकर्म के उदय के निमित्त से होने वाला जीव का पर्याय। आयर्नामकर्मोदयविशेषापादितपर्यायो भवः।
(तवा १.२१.१) भवआयुष्य
(स्था २.२६२) (द्र भवस्थिति) भवधारणीय कर्म वे कर्म, जो भवधारणा में योगभूत हैं, जिनका क्षय होने पर जीव मुक्त होता है। जोगे निरंभिऊण सेलेसिं पडिवज्जड. भवधारणिज्जकम्मखयट्ठाए।"खवेउं सिद्धिं गच्छइ। (दजिचू पृ १६३)
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(द्र भवोपग्राही कर्म
भवधारणीय शरीर
१. स्वाभाविक वैक्रियशरीर। वैक्रिय शरीरवाले (देव और नारक) जीव का वह शरीर, जो जीवन पर्यन्त रहता है। औपपातिकं वैक्रियं शरीरं, तन्निमित्तत्वादवधिवत् सहजम्, तच्च सामर्थ्यान्नारकदेवानामेव । (तभा २.४७ वृ पृ २०७) 'भवधारणिज्ज' त्ति, भवधारणं - निजजन्मातिवाहनं प्रयोजनं येषां तानि भवधारणीयानि, आजन्मधारणीयानीत्यर्थः । (भग १.२२६ वृ) २. वह अम्बापैतृक शरीर, जो मनुष्य आदि भव धारण करने में उपग्राहक होता है- माता-पिता के अङ्गों से प्रभावित होता है।
अम्मापे जावइयं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए अव्वावन्ने भवइ एवतियं कालं संचिट्ठ (भग १.३५२) 'भवधारणीयं' भवधारणप्रयोजनं मनुष्यादिभवोपग्राहक
मित्यर्थः ।
(भग १.३५२ वृ)
भवनपति
(द्र भवनवासी)
भवनवासी
चार देवनिकायों में से पहला देवनिकाय, जिसका आवास रत्नप्रभा पृथ्वी के गर्भ में भवनों में है । प्रथमो देवनिकायो भवनवासिनः । तत्र भवनानि रत्नप्रभायां बाहल्यार्धमवगाह्य मध्ये भवनेषु वसन्तीति भवनवासिनः । (तभा ४.११ )
(स्था १.२०० )
(द्र भौमेय देव)
भवप्रत्यय अवधिज्ञान
वह अवधिज्ञान, जिसकी उत्पत्ति का मुख्य हेतु भव बनता है । यह देवों और नैरयिकों के होता है।
भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तद्भवप्रत्ययम् ।
( नन्दी २२.१ हावृ पृ २९ ) दुहं भवपच्चइयं तं जहा - देवाण य नेरइयाण य ।
( नन्दी ६)
भवविपाक
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
(कग्र ५.२० )
(द्र भवविपाकिनी)
भवविपाकिनी
वह कर्म-प्रकृति, जिसका आयुबंध के अनुरूप भव में विपाक होता है । जैसे-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भव । भवे नारकादिरूपे स्वयोग्ये विपाकः फलदानाभिमुख्यं यासां ताः भवविपाकिन्यः । ( क प्र पृ३५)
भववीर्य
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में होने वाली जन्मजात साधारण अथवा असाधारण शक्ति ।
भववीरियं णिरयभवादिसु । तत्थ णिरयभववीरियं इमं जंतासिकुंभिचक्ककंदुपयणभट्ठसोल्लणसिंबलिसूलादीसु भिज्जमाणाणं महंतवेदणोदये वि जं ण विलिज्जति । तिरियाण य वसभातीण महाभारुव्वहणसामत्थं । मणुयाण सव्वचरणपडि वत्तिसामत्थं । देवाण वि पंचविहपज्जत्पत्तणंतरमेव जहाभिलसियरूवविउव्वसामत्थं । (निभा ४७ चू)
भवसिद्धिक
वह जीव, जो भव्य है, जिसमें मुक्त होने की योग्यता है । भविष्यतीति भवा भवसिद्धिः - निर्वृत्तिर्येषां ते भवसिद्धिकाः भव्याः इत्यर्थः । (भग १.२९२ वृ)
(द्र भव्य )
भवस्थकेवलज्ञान
वह केवलज्ञान, जो शरीरधारी मनुष्य के होता है । भवे तिष्ठतीति भवस्थः, तस्य केवलज्ञानं भवस्थकेवलज्ञानम् । (नंदी २६ हावृ पृ ३७)
भवस्थिति
भवायु - वर्तमान जीवन के आयुष्य का कालमान । भवे भवरूपा वा स्थितिः भवस्थितिर्भवकाल इत्यर्थः । (स्था २.२५९ वृ प ६२)
(तु. कायस्थिति )
भवादेश
जीव का वह प्रज्ञापन, जो भव (जन्मग्रहण) की अपेक्षा से किया जाता
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'भवादेसेणं' ति भवप्रकारेण भवमाश्रित्येत्यर्थः।
(भग ११.३० वृ)
करना। 'भाडीकम्मे' त्ति भाट्या--भाटकेन कर्म अन्यदीयद्रव्याणां शकटादिभिर्देशान्तरनयनं गोगृहादिसमर्पणं वा भाटीकर्म।
(भग ८.२४२ वृ)
भवायु भवस्थिति-वह आयु, जिसके आधार पर जीव एक जन्म में एक अवधि तक जीता है। भवप्रधानमायुर्भवायुः, यद् भवात्यये अपगच्छत्येव न कालान्तरमनुयाति।
(स्था २.२६२ वृ प ६३) भवोपनाही कर्म केवलीवीतराग के विद्यमान चार कर्म (वेदनीय, नाम, गोत्र, आयुष्य), जो भवस्थिति के उपग्राहक हैं। जंपति य वीयरागो य भवोवग्गाहिकम्मुणो उदया। तेणेव पगारेणं वेदिज्जति जंतयं कम्मं ।।
(धसं १२९१) (द्र भवधारणीय कर्म) भवोपपातगति नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भव के उपपात से संबद्ध । गति। उपपात"भवः-कर्मसम्पर्कजनितो नैरयिकत्वादिकः पर्यायः, भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः ।
(प्रज्ञा १६.३१ वृ प ३२८)
भामण्डल महाप्रातिहार्य का एक प्रकार । अर्हत् के मस्तक के पीछे होने वाला आभावलय। ईसिं पिट्ठओ मउडठाणमि तेयमंडलं अभिसंजायइ, अंधकारे विय णं दस दिसाओ पभासेइ। (सम ३४.१.१२) तीर्थकरकायतः प्रकृतिभास्वरात्तदीयनिरुपमरूपाच्छादकमतुच्छं प्रभापटलं सम्पिण्ड्य जिनशिरस: पश्चाद्भागे मण्डलायमानं भामण्डलमातन्यते।
(प्रसावृप १०६)
भाव १.कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होने वाला जीव का स्पन्दन। २. स्वभाव और प्रयत्न से होने वाला जीव और अजीव का परिणमन। मोहृदयखओवसमोवसमखयजजीवफंदणं भावो।
(गोजी ५३६)
भव्य भव्या अनादिपारिणामिकसिद्धिगमनयोग्यतायुक्ताः, तद्विपरीता अभव्याः।
(नन्दीमवृ प २४७) (द्र भवसिद्धिक)
कर्मणामुदयविलयजनितः चेतनापरिणामो भावः। परिणमनं वा।
(जैसिदी २.४१,४२) भावअवमोदरिका कषाय का अल्पीकरण। भावोमोदरिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-अप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोहे, अप्पसद्दे, अप्पझंझे।
(औप ३३)
भव्यद्रव्यदेव वह जीव, जो मृत्यु के बाद देवगति में उत्पन्न होगा। भव्या-भाविदेवपर्याययोग्या अत एव द्रव्यभूताः ते च ते देवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवाः-वैमानिकादिदेवत्वेनानन्तरभवे ये उत्पत्स्यन्ते।
(स्था ५.५३ ७ प २८८) जे भविए पंचिंदयतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु । उववन्जित्तए। से"भवियदव्वदेवा॥ (भग १२.१६४) भाटककर्म कर्मादान का एक प्रकार। भाड़ा लेकर माल की ढुलाई
भाव आत्मा १. भाव रूप आत्मा, ज्ञान-दर्शन-चरणमयी आत्मा। भावाया तिन्नि नाणमाईणि।.... 'भावात्मानो' भावरूपा आत्मानः""आत्मनो हि पारमार्थिकं स्वस्वरूपं ज्ञानदर्शनचरणात्मकम्। (पिनि १०४ वृ प ४२) २. द्रव्य आत्मा की विविध अवस्थाएं, गुण-पर्यायात्मक आत्मा। (द्र भाव जीव)
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भावआश्रव वह आत्मपरिणाम, जिससे पुदगलद्रव्य कर्मरूप में परिणत होकर आत्मा के साथ संबंध करते हैं। आसवदि जेण कम्मं परिणामणप्पणो स विण्णेओ। भावासवो जिणुत्तो . । (बृद्रसं २९) मिच्छत्ताइचउक्कं जीवे भावासवं भणियं। (नच १५१) (द्र द्रव्यआश्रव)
भावकर्म १. द्रव्यकर्म की फलदान की शक्ति। २. कर्म के विपाक से होने वाली औदयिक अवस्था। पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु। (गोक ६) । कार्ये कारणोपचारात्तु शक्तिजनिताज्ञानादिर्वा भावकर्म भवति।
(गोकजीप्र ७.७.९)
प्राणियों का व्यपदेश किया जाता है। दिश्यते अयममुकः संसारीति यया सा दिक भाव:पृथिवीत्वादिलक्षण: पर्यायः। (आवमवृ प ४३९) दिश्यते नारकादित्वेनास्यां संसारीति दिक।
(उशावृ प २७६) २. वे दिशाएं-उत्पत्ति स्थान, जिनमें जीव कर्म के वशीभूत होकर भ्रमण करता है। अट्ठारस भावदिसा जीवस्स गमागमो जेसु॥ पुढवि-जल-जलण-वाया मूला-खंध-ग्ग-पोरबीया य। बि-ति-चउ-पंचिंदिय-तिरिय-नारगा देवसंघाया। संमुच्छिम-कम्माऽकम्मभूमगनरा तहंतरद्दीवा। भावदिसा दिस्सइ जं संसारी निययमेयाहिं।
(विभा २७०२-२७०४) भावदेव वह जीव, जो देव-आयुष्य का अनुभव कर रहा है। जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा देवगतिनामगोयाई कम्माइं वेदेति।से तेणद्वेणंभावदेवा।
(भग १२.१६८) भावधुत वह साधक, जो देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च संबंधी उपसर्गों को सहन कर कर्मों का धनन करता है। अहियासित्तुवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। जो विहुणइ कम्माई, भावधुतं तं वियाणाहि।
(आनि २५२)
भावग्रासैषणा भोजन करते समय अपने आपको अनुशासित करना। अंगार, धूम, संयोजना, प्रमाणातिरेक और कारण-इन पांच माण्डलिक दोषों का वर्जन करना। अह होइ भावघासेसणा उ अप्पाणमप्पणा चेव। साहू भुंजिउकामो अणुसासइ निज्जरट्ठाए।
(ओनि ५४४) """संजोयणा पमाणं च। इंगाल धूम कारण ॥ (पिनि १) घासेसणा उ भावे, होइ पसत्था तहेव अपसत्था। अपसत्था पंचविहा, तव्विवरीया पसत्था उ॥
(पिनि ६३५) (द्र परिभोगैषणा)
भाव जीव द्रव्य जीव की ज्ञान आदि गुणों में परिणति। ज्ञानादिगुणपरिणतिभावत्वेन विवक्षितो भावजीवः।
__(तभा १.५ वृ पृ ४५) द्रव्य तो जीव सासतो एक, तिण रा भाव कह्या छै अनेक। भाव ते लखण गुण परज्याव, ते तो भावे जीव छै ताय॥
(नवप १.२५) (द्र भाव आत्मा)
भावना १. लक्ष्य के अनुरूप होने का पुनः पुनः अभ्यास करना। संकल्प के द्वारा चित्त को भावित करने की प्रक्रिया। पुनः पुनरासेवनमभ्यासो वा भावना। (जैसिदी ६.२०) भाव्यते-आत्मसान्नीयतेऽनयाऽऽत्मेति भावना।
(उ ३६.२६३ शावृ प ७१०) २. चित्त की शुद्धि, मोह-विलय और विशिष्ट संस्कारों को स्थापित करने के लिए किया जाने वाला वैराग्य आदि का अभ्यास। चेतोविशुद्धये मोहक्षयाय स्थैर्यापादनाय विशिष्टसंस्काराधानं भावना।
__(मनो ३.१८) ३. ध्यान का अभ्यास करने के लिए चित्त को ध्यान के
भाव दिशा १. वह दिशा. जिससे पथ्वी नारक आदि के रूप में संसारी
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अनुरूप भावित करने की प्रक्रिया । भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः ।
( आवहावृ २ पृ ६२ ) ४. वह अभ्यास, जिसके द्वारा महाव्रतों को परिपक्व किया जा सकता है।
भावनाः ।
भाव्यन्ते वास्यन्ते गुणविशेषमारोप्यन्ते महाव्रतानि यकाभिस्ता ( योशा १.२५ वृ पृ १२१ ) ५. संक्लेशयुक्त चित्त से होने वाला व्यवहार और आचरण । कंदप्पमाभिओगं, किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च । एयाओ दुग्गईओ मरणम्मि विराहिया होंति ॥
(उ ३६.२५६)
भावनिक्षेप
निक्षेप का एक प्रकार । विवक्षित क्रिया में परिणत वस्तु । जैसे- उपाध्यायत्व का कार्य करने वाला उपाध्याय । विवक्षितक्रियापरिणतो भावः ।
(जैसिदी १०.९)
भावनिर्जरा
शुद्ध परिणाम से होने वाली कालों की आत्मा से विच्युति । कर्म - पुद्गलों की कर्मत्वरूप से विच्युति । आत्मनः शुद्धभावेन गलत्येतत्पुराकृतम् । वेगाद् भुक्तरसं कर्म सा भवेद् भावनिर्जरा ॥
(जम्बूच १३.१२७)
भावनिर्जरा नाम कर्मत्वपर्यायविगमः पुद्गलानाम् । (भआ १८४१ विवृ)
भावपरमाणु
वर्ण, गंध, रस, स्पर्श लक्षण वाला ।
भावपरमाणू वणमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते ।
(भग २०.४१ )
भावपाप
वह अशुभ कर्मपुद्गलसमूह, जो उदय-अवस्था में आ रहा है ।
अनुदयमानाः सदसत्कर्मपुद्गला बन्धः - द्रव्यपुण्यपापे, तत्फलानर्हत्वात्। उदयमानाश्च ते क्रमशो भावपुण्यपापे, तत्फलार्हत्वाद् । (जैसिदी ४.१५ वृ)
भावपुण्य
वह शुभ कर्मपुद्गलसमूह, जो उदय-अवस्था में आ रहा है । (जैसिदी ४.१५ वृ)
(द्र भावपाप)
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भावप्रमाण
वह भाव, जिससे वस्तु की प्रमिति की जाती है। भाव एव प्रमाणं भावप्रमाणं, भावसाधनपक्षे प्रमितिःवस्तुपरिच्छेदस्तद्धेतुत्वाद् भावस्य प्रमाणताऽवसेया, तच्च भावप्रमाणम् । ( अनु ५०६ मवृ प १९४) भावप्राणातिपात
( दहावृ प १४५)
(द्र भावहिंसा) भावबन्ध
जीव का वह परिणाम, जिससे कर्मपुद्गलों का ग्रहण होता
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(द्र द्रव्यबन्ध)
भावमन
जीव का वह परिणाम, जिसके द्वारा मनोवर्गणा के सहयोग से मननात्मक प्रवृत्ति होती है।
जीवो
पुणमणपरिणामक्रियावण्णे भावमणो। एस उभयरूपो मणदव्वालंबणो जीवस्स नाणवावारो भावमणो भण्णति । (नन्दीचू पृ ३५ )
(द्र मन)
भावलेश्या
१. योगवर्गणा के अन्तर्गत पुद्गलों की सहायता से होने वाला आत्मपरिणाम, शुभ और अशुभ रूप जीव का परिणाम । कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मन: परिणामविशेषः ।
२. चैतसिक आभामण्डल । (द्र द्रव्यलेश्या)
भावलेश्या तु शुभाशुभरूपो जीवपरिणामः ।
(प्रज्ञावृ प ३३० )
(बृभा १६४० वृ)
भावलोक
लोक का वह स्वरूप, जिसकी व्याख्या भाव - पर्याय के आधार पर की जाती है।
भावा
-औदयिकादयस्तद्रूपो लोको भावलोकः ।
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जन पारिभाषिक शब्दकाश
है।
'ओदइए उवसमिए खइए य तहा खओवसमिए य।
भावादेश परिणामसन्निवाए य छव्विहो भावलोगो उ॥'
वस्तु का वह निरूपण, जो भाव (पर्याय) की अपेक्षा से (भग ११.९० वृ)
किया जाता है। भावव्युत्सर्ग
'भावादेसेण' त्ति एकगुणकालकत्वादिना 'सव्वपोग्गला व्युत्सर्ग का एक प्रकार। इसमें कषाय, संसार और कर्म का
सपएसावी' त्यादि।
(भग ५.२०२ वृ) विसर्जन किया जाता है।
भावार्थ भावविउस्सग्गे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-कसायविउस्सग्गे
भाव-पर्याय की दृष्टि से किया जाने वाला विचार। संसारविउस्सग्गे कम्मविउस्सग्गे।
(औप ४४)
'भावट्ठयाए'त्ति नारकादिपर्यायत्वेनेत्यर्थः। (द्र व्युत्सर्ग)
(भग ७.५९ वृ) भावशस्त्र
(आभा पृ ३४)
भावितात्मा (द्र शस्त्र)
१. वह अनगार, जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और
विविध प्रकार की अनित्य आदि भावनाओं से भावित होती भावश्रुत इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला द्रव्यश्रुतानुसारी
सम्मइंसणेण बहुविहेहि य तवोजोगेहि अणिच्चयादिभावज्ञान।
णाहि य भावितप्पा। (दचूला १.९ अचू पृ २५६) इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं।
२. वह अनगार, जो अर्धपर्यस्तिका आसन में बैठकर अथवा निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं"
शीर्षासन की मुद्रा में आकाश में उड़ सकता है। (विभा १००)
......"अणगारे वि भावियप्पा एगओ पल्हत्थियकिच्चगएणं (द्र द्रव्यश्रुत)
अप्पाणेणं उर्दु वेहासं उप्पएन्जा। (भग ३.२०५) भावसत्य
से जहानामए वग्गुली सिया, दो वि पाए उल्लंबिया-उल्लंबिया
उड्ढपादा अहोसिरा चिट्ठज्जा, एवामेव अणगारे विभाविअप्पा १. अन्तरात्मा की पवित्रता।
वग्गुलीकिच्चगएणं अप्पाणेणं उ8 वेहासं उप्पएज्जा। २. वह चेतना, जो परमार्थ के अनुकूल होती है।
(भग १३.१५२ वृ) 'भावसत्येन' शुद्धान्तरात्मतारूपेण पारमार्थिकावितथत्वेन।
(उ २९.५१ शावृ प ५९१) भाविताभावित ३. सत्य का एक प्रकार, व्यक्त पर्याय के आधार पर वस्तु का द्रव्यानुयोग का एक प्रकार। द्रव्यान्तर से प्रभावित या प्रतिपादन करना, जैसे-बलाका सफेद है।
अप्रभावित होने के आधार पर द्रव्यों का विचार करना। भावं-भूयिष्ठशुक्लादिपर्यायमाश्रित्य सत्यं भावसत्यम्। 'भावियाभाविए' त्ति भावितं-वासितं द्रव्यान्तरसंसर्गतः यथा शुक्ला बलाकेति, सत्यपि हि पञ्चवर्णोत्कटत्वात् अभावितमन्यथैव यत्, यथा जीवद्रव्यं भावितं किञ्चित्, शुक्लेति।
तच्च प्रशस्तभावितमितरभावितं च, तत्र प्रशस्तभावितं (स्थावृ प ४६५)
संविग्नभावितमप्रशस्तभावितं चेतरभावितं, तत् द्विविधमपि
वामनीयमवामनीयं च, तत्र वामनीयं यत्संसर्गजं गुणं दोषं वा भावहिंसा
संसर्गान्तरेण वमति, अवामनीयं त्वन्यथा, अभावितं जीववध का संकल्प। जैसे कोई व्यक्ति मंद प्रकाश में रज्जु त्वसंसर्गप्राप्त प्राप्तसंसर्ग वा वज्रतन्दुलकल्पं न वासयितुं को सांप समझकर उसका छेदन करता है।
शक्यमिति, एवं घटादिकं द्रव्यमपि, ततश्च भावितं च जहा केवि पुरिसे मंदमंदप्पगासप्पदेसे संठियं ईसिवलि- अभावितंच भाविताभावितम्, एवम्भतो विचारो द्रव्यानयोग अकायं रज्जु पासित्ता एस अहि त्ति तव्वहपरिणामपरिणए
(स्था १०.४६ वृप ४५६) णिकड्डियासिपत्ते दुअं दुअंछिंदिज्जा एसा भावओ हिंसा न दव्वओ।
(दहावृ प २४,२५) Für Vate & Personal Use Only
इति।
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भाविनैगम नैगमनय का एक प्रकार। वर्तमान में भविष्य का संकल्प, जैसे-यह नवजात शिशु विद्वान् है। भाविनैगमः-वर्तमाने भविष्यत्संकल्पः, जातोऽयं विद्वान्।
(भिक्षु ५.५ वृ) भावेन्द्रिय इन्द्रिय-ज्ञान की शक्ति और उसका उपयोग। 'भाविंदियाई' ति लब्ध्युपयोगलक्षणानि।
(भग १.३४१ वृ)
भिक्षु वह मुनि, जो परदत्तभोजी है, अहं भावना और हीनता से ग्रस्त नहीं है, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय पा लेता है और अध्यात्मयोग में लीन है। एत्थ विभिक्खू-अणुण्णते णावणते दंते दविए वोसट्ठकाए संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्ठिए ठिअप्पा संखाए परदत्तभोई 'भिक्खू' त्ति वच्चे॥
(सूत्र १.१६.५)
भाषक वह प्राणी, जिसमें बोलने की क्षमता हो। भाषकाः भाषालब्धिसम्पन्नाः। (प्रज्ञा ३.१०८ वृप १३९) भाषा पर्याप्ति छह पर्याप्तियों में पांचवीं पर्याप्ति। भाषा के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने वाली पौदगलिक शक्ति की संरचना। वइजोग्गे पोग्गले घेत्तूण भासत्ताए परिणामेत्ता वइजोगत्ताए निसिरणसत्ती भासापज्जत्ती। (नन्दीचू पृ २२) भाषाप्रायोग्यपुद्गल-ग्रहण-परिणमनोत्सर्गरूपं पौद्गलिकसामर्थ्योत्पादनं भाषापर्याप्तिः। (जैसिदी ३.११ वृ) भाषावर्गणा वह पुद्गलसमूह, जो भाषा के प्रायोग्य होता है।
(विभा ६३१) भाषा समिति हित, मित, असंदिग्ध और अनवद्य अर्थ का प्रतिपादन करने वाला वचन बोलना। हितमितासंदिग्धानवद्यार्थनियतं भाषणं भाषासमितिः।
(तभा ९.५) भिक्षाचर्या संयमजीवन के निर्वाहार्थ की जाने वाली भिक्षा की प्रवृत्ति।
(सूत्र २.१.५३) भिक्षार्थं चर्या-चरणमटनं भिक्षाचर्या ।
(स्था ६.६५ वृप ३४६) (द्र वृत्तिसंक्षेप)
साधना का विशेष प्रयोग, जो नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु को जानने वाले अथवा असंपूर्ण दशपूर्वी भिक्षु के द्वारा किया जाता है। पडिवन्जइ एयाओ, संघयणं-धिइजुओ महासत्तो। पडिमाउ भावियप्या, सम्मं गुरुणा अणुण्णाओ॥ गच्छे च्चिय णिम्माओ, जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा। णवमस्स तइयवत्थू , होइ जहण्णो सुयाहिगमो॥
(पंचा १८.४, ५) भिन्नदशपूर्वी १. वह मुनि, जो असम्पूर्ण दशपूर्वी हो। (नन्दी ६६) 'भिन्ने' त्ति असम्पूर्णदशपूर्वधारिणः। (बृभा १११४ वृ) २. वह मुनि, जो दसवें पूर्व का अध्ययन समाप्त होने पर प्राप्त होने वाली सर्वविद्याओं में लुब्ध हो जाता है। (द्र अभिन्नदशपूर्वी) भिन्नमुहूर्त एक समयन्यून एक मुहूर्त। समऊणेक्कमुहुत्तं भिण्णमुहुत्तं.। (त्रिप्र ४.२८८) भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी वह चतुर्दशपूर्वी, जिसे प्रत्येक अक्षर के श्रुतगम्य पर्यायों का भिन्न-परिस्फुट ज्ञान होता है। श्रुतज्ञान विषयक कोई संशय नहीं होने के कारण वह आहारक लब्धि का प्रयोग नहीं करता। वही श्रुतकेवली कहलाता है। (द्र चतुर्दशपूर्वी) भिन्नाचार खण्डित चारित्र वाला मुनि, जो जाति आदि बताकर जीविका
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चलाता है, जैसे-कुशील श्रमण। भिन्नायार कुसीलो॥
(व्यभा १५२२) भिन्नावलिका अन्तरावलिका, अपूर्ण आवलिका। एक समय, दो समय आदि से न्यून आवलिका। आवलिकान्तः"भिन्नामावलिकामित्यर्थः "न्यूनां समयादिना।
_ (आवनि ३२ हावृ पृ २१)
हिताय प्रवृत्त हो। भूतिः-मंगलं सर्वमंगलोत्तमत्वेन वृद्धिर्वा वृद्धिविशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रज्ञा-बुद्धिरस्येति भूतिप्रज्ञः।
(उ १२.३३ शावृ प ३६८)
भूत १. जीव 'था, है और होगा' इसलिए वह भूत है। जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए त्ति वत्तव्वं सिया।
(भग २.१५) २. वनस्पतिकायिक जीव। भूतास्तु तरवः स्मृताः।
(नन्दीहातप १००) ३. वानमन्तर देवों का सातवां प्रकार। इस जाति के देव नीली तथा काली आभा वाले, रूपवान, सौम्य, परिपुष्ट शरीर वाले और नाना प्रकार के विलेपन करने वाले होते हैं। उनका चिह्न है-सुलस। भूताः श्यामाः सुरूपाः सौम्या आपीवरा नानाभक्तिविलेपनाः सुलसध्वजाः कालाः।
(तभा ४.१२ वृ) भूतनैगम नैगम नय का एक प्रकार। अतीत में वर्तमान का संकल्प, जैसे-आज भगवान महावीर का निर्वाण दिन है। भूतनैगमः-अतीते वर्तमानसंकल्पः, वीरनिर्वाणवासरोऽद्य।
(भिक्षु ५.५)
भोग १. इन्द्रियविषयों का आसेवन। २. शब्द आदि इन्द्रियविषय। भोगा-सद्दादयो विसया। (द २.३ जिचू पृ ८२) ३. वह पदार्थ, जिसका एक बार उपयोग किया जाता है, जैसे–माला, चंदन, अगर आदि। (द्र भोगान्तराय) भोगप्रतिघात भोग की प्राप्ति का अवरोध, जो प्रशस्त गति आदि के अभाव में होता है। प्रशस्तगतिस्थितिबन्धनादिप्रतिघाताद भोगानां-प्रशस्तगत्याद्यविनाभूतानां प्रतिघातो भोगप्रतिघातः।
(स्था ५.७० वृ प २८९) भोगान्तराय अंतराय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से पदार्थ के होने पर भी व्यक्ति उसका भोग नहीं कर पाता। सकृदुपभुज्य यत् त्यज्यते पुनरुपभोगाक्षमं माल्यचन्दनागुरुप्रभृति, तच्च सम्भवादपि यस्य कर्मण उदयाद् यो न भुङ्क्ते तस्य भोगान्तरायकर्मोदयः।
(तभा ८.१४ वृ) भोजनमण्डली मण्डली का एक विभाग। साधुओं द्वारा एक साथ बैठकर की जाने वाली भोजन-व्यवस्था। (प्रसा ६९२ वृ प १९२) (द्र मण्डली) भौम अष्टाङ्ग महानिमित्त का एक प्रकार। भूमि की स्निग्धता, रूक्षता आदि से लाभ-हानि, जय-पराजय का तथा भूमिगत स्वर्ण आदि द्रव्यों के ज्ञान का प्रतिपादक शास्त्र। भुवो घनशुषिरस्निग्धरूक्षादिविभावनेन वृद्धिहानिजयपराजयादिविज्ञानं भूमेरन्तर्निहितसुवर्णरजतादिसंसूचनं च भौमम्।
(तवा ३.३६)
भूतवाद
(स्था १०.९२) (द्र दृष्टिवाद) भूतिकर्मा मंत्रित राख आदि देकर ज्वर आदि को दूर करने में निपुण। ज्वरादिरक्षानिमित्तं भूतिदानं भूतिकर्म तत्र निपुणः।
(स्था ९.२८ वृ प ४२८) भूतिप्रज्ञ जिसकी बुद्धि सर्वोत्तम मंगल, सर्वश्रेष्ठ वृद्धि या सर्वभूत
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भौमेय देव भवनवासी देव। वह देवनिकाय, जो कुमार की भांति भंगारप्रिय और क्रीडापरायण होता है और जिसका आवासक्षेत्र अधोलोक
मण्डलप्रवेश उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें चन्द्र और सूर्य का दक्षिण और उत्तर मंडलों में-एक मण्डल से दूसरे मण्डल में प्रवेश का वर्णन है। चंदस्स सूरस्स य दाहिणुत्तरेसुमंडलेसु जहा मंडलातो मंडले पवेसो तहा वणिज्जति जत्थऽज्झयणे तमज्झयणं मंडलप्पवेसो।
(नंदी ७७ चू पृ५८)
'भोमिन्ज' त्ति भूमौ पृथिव्यां भवा: भौमेयका:-भवनवासिनः।
(उ ३६.२०४ शावृप७०१) कुमारवदेते कान्तदर्शना सुकुमारा मृदुमधुरललितगतयः श्रृंगाराभिजातरूपविक्रियाः"क्रीडनपराः। (तभा ४.११) (द्र भवनवासी)
म मंगल शास्त्र की निर्विघ्न समाप्ति (पारगामिता), प्राप्त अर्थ की स्थिरता और शिष्य-प्रशिष्य-परम्परा की अव्यवच्छित्ति के लिए किया जाने वाला उपक्रम। बहुविग्घाई सेयाई तेण कयमंगलोवयारेहिं। तं मंगलमाईए मझे पज्जंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाऽविग्घपारगमणाय निद्रिं॥ तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं, अंतिम पि तस्सेव। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स।
(विभा १२-१४) प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थं, फलादित्रितयं स्फुटम्। मंगलं चैव शास्त्रादौ वाच्यमिष्टार्थसिद्धये।
(आवहावृ१ पृ १)
मण्डलबन्ध प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार । नियमित क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना। मण्डलं-इडितं क्षेत्रं तत्र बन्धो-नास्मात् प्रदेशाद् गन्तव्यमित्येवं वचनलक्षणम्। (स्था ७.६६ वृ प ३७८) मण्डली वह कार्यप्रणाली, जो श्रमणों की सामूहिक चर्या के लिए निर्धारित है, जैसे-सूत्रमण्डली, अर्थमण्डली आदि। सुत्ते अत्थे भोयण काले आवस्सए य सज्झाए। संथारे चेव तहा सत्तेया मंडली जइणो॥ सूत्रे-सूत्रविषयेऽर्थे–अर्थविषये, भोजने, काले-कालग्रहे, आवश्यके-प्रतिक्रमणे, स्वाध्यायप्रस्थापने, संस्तारके चैव सप्तैता मण्डल्यो यतेः, एतासु चैकैकेनाचाम्लेन प्रवेष्टुं लभ्यते नान्यथेति।
(प्रसा ६९२ वृ प १९६)
मघा अधोलोक (नरक) की छठी पृथ्वी का नाम।
(स्था ७.२३) (द्र अञ्जना)
मणिरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जिसका प्रकाश बारह योजन तक के क्षेत्र तक फैलता है। यह रत्नधारक को सभी प्रकार के उपद्रवों और रोगों से बचाता है। मणिरत्नं वैडर्यमयं द्वादशयोजनानि यावत्पर्वापरपरतोरूपास तिसष दिक्ष निबिडतममपि तमस्तोममपहरति, यस्य च हस्ते शिरसि वा बद्ध्यते तस्य दिव्यतिर्यग्मनुष्यकृतसमस्तोपद्रवसमस्तरोगापहारं करोति। (प्रसावृप ३५०)
मण्डली-उपजीवी वह मुनि, जो मण्डली में भोजन आदि कार्य करता है। दुविहो य होइ साहू, मंडलिउवजीवओ य इयरो य। मंडलिमुवजीवंतो, अच्छइ जा पिंडिया सव्वे॥
(ओनि ५२२) मतिअज्ञान वह मति, जिसका स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है। मिच्छदिट्ठिस्स मई मइअण्णाणं। (नन्दी ३६) मतिज्ञान वह ज्ञान, जो केवल इन्द्रिय, केवल मन तथा इन्द्रिय और मन दोनों के निमित्त से होता है। इन्द्रियनिमित्तमेकम, अपरमनिन्द्रियनिमित्तम, अन्यदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।
(तभा १.१४ वृ)
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मतभङ्गदोष
वाद-दोष का एक प्रकार । तत्त्व की विस्मृति हो जाना । स्वस्यैव मतेः – बुद्धेर्भङ्गो - विनाशो मतिभङ्गो - विस्मृत्यादिलक्षणो दोषो मतिभङ्गदोषः ।
-
(स्था १०.९४ वृ प ४६७ )
मतिसम्पदा
गणिसम्पदा का एक प्रकार । अवग्रह, ईहा, अवाय और
धारणा का पाटव।
मतिसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - ओग्गहमतिसंपदा, ईहामतिसंपदा, अवायमतिसंपदा, धारणामतिसंपदा ।
(दशा ४.९)
मत्सरिता अतिथिसंविभाग व्रत का एक अतिचार । 'अमुकव्यक्ति ने दान दिया है, क्या मैं उससे कम हूं ?' - इस प्रकार ईर्ष्या की भावना से आहार देना।
अपरेणेदं दत्तं किमहं तस्मादपि कृपणो हीनो वा अतोऽहमपि ददामि इत्येवंरूपो दानप्रवर्तकविकल्पो मत्सरिता ।
(उपा १.४३ वृ पृ २० )
मदनकाम
शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों की कामना ।
मदनकाम: - शब्दादीनामिन्द्रियविषयाणां कामना ।
(आभा २.१२१)
(द्र इच्छाकाम)
मध्यगत अवधिज्ञान
आनुगामिक अवधिज्ञान का एक प्रकार। वह ज्ञान, जो स्थूल शरीर के मध्यवर्ती चैतन्यकेन्द्रों से विकसित होता है और सब दिशाओं में स्थित ज्ञेय को जानता है । ओरालियसरीरमज्झे फड्डुगविसुद्धीतो सव्वातप्पदेसविसुद्धीतो वा सव्वदिसोवलंभत्तणतो मज्झगतो त्ति भण्णति ।
(नन्दी १० चू पृ १६)
मध्यप्रदेश
१. जीव के वे आठ प्रदेश, जो सर्वअवगाहना के मध्य में स्थित हैं, अवस्थित (अचल) हैं।
२. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और
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जीवास्तिकाय के मध्यवर्ती आठ-आठ प्रदेश ।
पयोगबंधे अणादी अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपसाणं । (भग ८.३५४) अटु धम्मत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता | अधम्मत्थिकायस्स'' ||आगासत्थिकायस्स एवं चेव ॥ अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता ॥ (भग २५.२४०-२४३) 'जीवत्थिकायस्स' त्ति प्रत्येकं जीवानामित्यर्थः, ते च सर्वस्यामवगाहनायां मध्यभाग एव भवन्तीति मध्यप्रदेशा उच्यन्ते । (भग २५.२४३ वृ)
(द्र रुचकप्रदेश)
मध्यम आतापना
गोदोहिका, उत्कटुकासन और पर्यङ्कासन की स्थितमुद्रा में लिया जाने वाला सूर्य का आतप ।
अनिष्पन्नस्य मध्यमा अनिप्पन्नातापनाऽपि त्रिधा गोदोहिका उत्कटुकासनता पर्यङ्कासनता चेति । (औपवृ पृ ७५)
मध्यम गीतार्थ
वह मुनि, जो कल्पधर, व्यवहारधर, दशाश्रुतस्कंधधर आदि होता है।
कल्प-व्यवहार-दशाश्रुतस्कन्धधरादयो मध्यमाः ।
मध्यम चिरप्रव्रजित
वह मुनि, जो पांच वर्षों से दीक्षित है। पञ्चवर्षप्रव्रजितो मध्यमः ।
(बृभा ६९३ वृ)
(बृभा ४०३ वृ)
मध्यमपद
पद का एक प्रकार । सोलह सौ चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार आठ सौ अट्ठासी (१६३४८३०७८८८) अक्षरों का समवाय ।
सोलससदचोत्तीसकोडि-तेसीदिलक्खअट्टहत्तरिसयअट्ठासीदिअक्खरेहिं एवं मज्झिमपदं होदि ।
(धव पु९ पृ१९५)
मध्यम बहुश्रुत
१. वह मुनि, जो कल्प और व्यवहार- इन दो छेद सूत्रों का धारक होता है।
मध्यमः ' कप्प' त्ति कल्प-व्यवहारधरः । (बृभा ४०२ वृ) २. वह मुनि, जो निशीथ और चौदह पूर्वो का मध्यवर्ती ज्ञाता हो ।
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जहणो जेण पकप्पज्झयणं अधीतं, उक्कोसो चोद्दसपुव्वधरो, तम्मझे मज्झिमो । ( निभा ४९५ चू पृ १६५ )
मध्वास्स्रव
लब्धि का एक प्रकार । वक्ता के वचनों को मधु के समान मधुर एवं आनंददायी बनाने वाली योगज विभूति । मधुवत्सर्वदोषोपशमनिमित्तत्वादाह्लादकत्वाच्च तद्वचनस्य । (औपवृ पृ ५३)
मन
१. जिसके द्वारा सब विषयों का ग्रहण किया जाता है और जो त्रिकालवर्ती (भूत, भविष्य तथा वर्तमान) विषयों को
जानता
1
२. मनोवर्गणा के पुद्गलों से उपरंजित चित्त ही मन है। तदेव (चित्तं) मनोद्रव्योपरंजितं मनः । (अनुचू पृ १३, १४) (द्र द्रव्यमन, भावमन)
मन असंयम
अकुशल मन की प्रवृत्ति करना ।
मनोवाक्कायानामसंयमास्तेषामकुशलानामुदीरणानि ।
(सम १७.१ वृ प ३२)
मन असंवर
कर्म - आकर्षण की हेतुभूत मानसिक प्रवृत्ति ।
(स्था १०.११ )
मनः परिचारक
प्राण और अच्युत कल्प के इन्द्र तथा आनत, प्राणत, आरण व अच्युत - इन चार कल्पों के देव, जिनकी कामेच्छा मानसिक संकल्प मात्र से शांत हो जाती है।
दो इंदा मणपरियारगा पण्णत्ता, तं जहा - पाणए चेव, अच्चुए चेव । (स्था २.४६० )
आणदपाणदकप्पे आरणकप्पे य अच्चुदे य तहा। मणपडिचारा णियमा एदेसु य होंति जे देवा ॥
(मू ११४४)
मनः पर्यवज्ञान
वह अतीन्द्रिय ज्ञान, जिससे मनोद्रव्यों (मनन रूप में परिणत पुद्गलों) का परिच्छेद होता है।
मणपज्जवनाणं मनसि मनसो वा पर्यवः मनः पर्यवः -
सर्वतोमनोद्रव्यपरिच्छेदः । मनांसि - मनोद्रव्याणि पर्येतिसर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनः पर्यायम् । (नन्दी २३ मवृ प ६६)
मनः पर्यवज्ञानावरण
ज्ञानावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से मन: पर्यव ज्ञान आवृत होता है। ''मनःपर्यायज्ञानसंज्ञस्तस्यावरणं मनः पर्यायज्ञानावरणम् । (तभा ८.७ वृ)
मनः पर्यवज्ञानी
वह जीव, जो मनः पर्यवज्ञानयुक्त है। (द्र मनः पर्यवज्ञान) मनः पर्याप्ति
मनः पर्यायज्ञान
(द्र मनः पर्यवज्ञान)
२२१
छह पर्याप्तियों में छठी पर्याप्ति। मन के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करने वाली पौद्गलिक शक्ति की संरचना ।
मणजोग्गे पोग्गले घेत्तूण मणत्ताए परिणामेत्ता मणजोगत्ताए निसिरणसत्ती मणपज्जत्ती । (नन्दीचू पृ २२)
(भग ६.४५)
मनः पुण्य
पुण्य का एक प्रकार । गुणी (संयमी) के प्रति तोषभाव के प्रयोग से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध । मनसा गुणिषु तोषात् वाचा प्रशंसनात् कायेन पर्युपासनानमस्काराच्च यत्पुण्यं तन्मनः पुण्यादीनि ।
(स्था ९.२५ वृ प ४२८ )
मनः प्रश्नविद्या
मन में उठे हुए प्रश्नों का उत्तर देने वाली विद्या । मनः प्रश्नविद्याश्च - मनः प्रश्नितार्थोत्तरदायिन्यः ।
वा।
मनः संयम
अकुशल मन का निरोध और कुशल मन का प्रवर्त्तन । अभिद्रोह, अभिमान, ईर्ष्या आदि से होने वाली मन की निवृत्ति और धर्मध्यान में प्रवृत्ति ।
मणोसंजमो णाम अकुसलमणणिरोहो वा कुसलमणउदीरणं (दअचू पृ १२) मनसोऽभिद्रोहाभिमानेर्ष्यादिभ्यो निवृत्तिर्धर्मध्यानादिषु च
(समप्र ९८ वृप ११५ )
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२२२
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
प्रवृत्तिर्मन:संयमः।
(योशाव पृ८९३)
मनःसंवर मन की प्रवृत्ति का निरोध।
(स्था १०.१०)
मनः समाधारणा मन का श्रुत में व्यवस्थापन या नियोजन। मनसः समिति-सम्यग् आडिति-मर्यादयाऽऽगमाभिहितभावाभिव्याप्त्याऽवधारणा-व्यवस्थापनं मन:समाधारणा।
(उ २९.५७ शावृ प ५९२)
मनःसमिति
(सम २५.१.२)
(द्र मन:समितियोग)
मनुष्यायुष्क आयुष्य कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव मनुष्यभव को प्राप्त करता है। आयुरेवायुष्कम् मनुष्याः संमूर्छनगर्भजास्तेषामिदं मानुषम्।
(तभा ८.११ वृ) मनोगुप्ति १. सावध संकल्प का निरोध। २. कुशल संकल्प का प्रयोग। ३. मन के कुशल और अकुशल संकल्प का निरोध। सावद्यसंकल्पनिरोधः कुशलसंकल्प: कुशलाकुशलसंकल्पनिरोध एव वा मनोगुप्तिः।
(तभा ९.४) मनोदण्ड मन का दुष्प्रयोग। मन के द्वारा होने वाला अशभ चिन्तन। मन एव दुष्प्रयुक्तो दंडो भवति,.."जं असुभं मणे चिंतेति सो मणदंडो।
(आवचू २ पृ७७) मनोदुष्प्रणिधान मन की वह अवस्था, जिसमें आर्तध्यान और रौद्रध्यान से संबद्ध एकाग्रता होती है। तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणदुप्पणिहाणे, वयदुष्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे। (स्था ३.९९) दुष्प्रणिधानम्-अशुभमनःप्रवृत्त्यादिरूपम्।
(स्था ३.९९ वृ प ११५)
मनःसमितियोग अहिंसा महाव्रत की एक भावना। संक्लेशकारक चिन्तन न करना। न कयावि मणेण पावएणं पावगं किंचि वि झायव्वं । एवं मणसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा। (प्रश्न ६.१८)
मनोबल वह प्राण, जो चिन्तन की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६)
मनःसुप्रणिधान मन की वह अवस्था, जिसमें आत्मा की शुद्धि के लिए एकाग्रता होती है। (द्र कायसुप्रणिधान) मनसा शापानुग्रहसमर्थ वह मुनि, जिसमें मन से ही शाप देने और अनुग्रह करने की शक्ति होती है। मनसैव परेषां शापानुग्रहौ कर्तुं समर्थाः इत्यर्थः एवं वाचा कायेन।
(औप २४ वृ पृ५२) मनुष्यक्षेत्र
(भग ९.४) (द्र समयक्षेत्र, अर्धतृतीय द्वीप) मनुष्यगति गतिनाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव मनुष्यपर्याय का वेदन करता है। (प्रज्ञा २३.३९ वृ प ४६३) (द्र नरकगति)
मनोबली वह लब्धिधारी मुनि, जो ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के प्रकृष्ट क्षयोपशम के कारण अन्तर्मुहूर्त में चतुर्दशपूर्व का अवगाहन कर लेता है। प्रकृष्टज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषेण वस्तूद्धृत्यान्तर्मुहूर्तेन सकलश्रुतोदध्यवगाहनावदातमनसो मनोबलिनः।
(योशावृ पृ ४२) मनोयोग मनोवर्गणा के आलम्बन से होने वाला जीव का मानसिक
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पराक्रम।
रणान्मथिसदृशं मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणम्। आत्मना शरीरवता सर्वप्रदेशैर्गृहीता मनोवर्गणायोग्यस्कन्धाः
(औप १७४ वृ पृ २०९) शुभादिमननार्थं करणभावमालम्बन्ते, तत्सम्बन्धाच्चात्मनः (द्र केवलिसमुद्घात) पराक्रमविशेषो योगः।
(तभा ६.१७)
मन्दरपर्वत मनोयोग प्रतिसंलीनता
वह पर्वत, जो जंबूद्वीप के मध्य में अवस्थित है, जो उत्तरकुरु अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की प्रवृत्ति। के दक्षिण में देवकुरु के उत्तर में, पूर्वविदेह के पश्चिम में, अकुसलमणणिरोहो वा, कुसलमणउदीरणं वा।से तं मण- अपरविदेह के पूर्व में है। जोगपडिसंलीणया।
(औप ३७) उत्तरकुरुए दक्खिणेणं, देवकुरुए उत्तरेणं, पुव्वविदेहस्स
वासस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरथिमेणं मनोवर्गणा
जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहुमझदेसभाए, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे पुदगल की वह वर्गणा, जिसका आलम्बन लेकर चिन्तन
मंदरे णामं पव्वए पण्णत्ते।
(जं ४.२१३) मनन किया जाता है।
(विभा ६३१)
मन्दा मनोविनय
शतायु जीवन की एक दशा, तृतीय दशक। इस अवस्था में विनयार्ह आचार्य आदि के प्रति कुशल मन का प्रयोग करना।
मनुष्य कामभोग भोगने में समर्थ हो जाता है। परोक्ष होने पर भी उनका संकीर्तन, स्मरण करना।
तइयं च दसं पत्तो, पंच कामगुणे नरो। मनोवाक्कायविनयास्तु मनःप्रभृतीनां विनयाहेषु कुशल- समत्थो भुंजिउं भोगे, जड़ से अस्थि घरे धुवा। प्रवृत्त्यादिः। (स्था ७.१३० वृ प ३८८)
(दहावृ प८) परोक्षेष्वपि कायवाङ्मनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानु
मन्दानुभाव स्मरणादिः।
(तवा ९.२३.७)
१. वह कर्म-बंध, जिसका अनुभाव (विपाक) मंद होता
है, त्रिस्थानिक रसवाला होता है। मन्त्र जो देवाधिष्ठित होता है, जिसके आदि में 'ॐ' और अन्त
२. वह कर्म-बंध, जिसके तीव्र अनुभाव को मंद अनुभाव में 'स्वाहा' होता है, जो 'ह्रीं' आदि वर्ण-विन्यासात्मक
वाला किया जाता है। होता है।
तीव्रानुभावाश्चतुःस्थानिकरसत्वेन मन्दानुभावाः त्रिस्था
निकरसत्वाद्यापादनेन प्रकरोति। (उ २९.२३ शाख प५८५) नरदेवतः पाठसिद्धो मन्त्रः। (प्रसा ५६७ वृ प १४८) 'मन्त्रम्'ऊँकारादिस्वाहापर्यन्तो ह्रींकारादिवर्णविन्यासात्मक
(द्र तीव्रानुभाव) स्तम्।
(उशावृ प ४१७) मरण मन्त्रपिण्ड
जीवनकाल को निष्पन्न करने वाले आयुष्यकर्म के परमाणुउत्पादन दोष का एक प्रकार। मंत्र (देव-अधिष्ठित) का
स्कन्धों की परिसमाप्ति, प्राणत्याग। जीव की वह अवस्था, प्रयोग कर भिक्षा लेना। (योशा १.३८ वृ पृ १३६)
जिसमें पर्याप्तियों और प्राणों का वियोग होता है। (द्र चूर्णपिण्ड)
(द्र जीवन) मन्थ
मरणभय केवलि-समुद्घात के तीसरे और छठे समय में दक्षिण और
देहासक्ति के कारण देहत्याग की कल्पना से होने वाला उत्तर दिशाओं में लोकान्त तक आत्मप्रदेशों के फैलने से
भयात्मक प्रकम्पन।
(स्था ७.२७) मंथान के आकार में होने वाली आत्मप्रदेशों की रचना।
मरणविभक्ति 'मंथं' ति तृतीये समये तदेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसा
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। इस अध्ययन में मरण का For Private &P विभागयुक्त वर्णन है।
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महल्लियण्णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स"भोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अद्वारसमेणं पारे।।
(व्य ९.४१) (द्र क्षुद्रिका मोकप्रतिमा)
महाकल्पश्रुत उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । वह आगम, जो महान् अर्थ और महान आकार वाला विधि-निषेधात्मक आचार-शास्त्र
मरणं-पाणपरिच्चागो, विभयणं विभत्ती, पसत्थमपसस्थाणि सभेदाणि मरणाणि जत्थ वण्णिजंति अज्झयणे तमज्झयणं मरणविभत्ती। (नन्दी ७७ चू पृ५८) मरणाशंसाप्रयोग संलेखना का एक अतिचार। संलेखना-काल में कष्ट होने पर शीघ्र मरण की आकांक्षा करना। 'मरणाशंसाप्रयोग' उक्तस्वरूपपूजाद्यभावे भावयत्यसौ यदि शीघ्रं म्रियेऽहम्' इति स्वरूप इति। (उपा १.४४ वृ पृ २१) मर्कटतन्तुचारण चारण ऋद्धि का एक प्रकार। इस ज्ञद्धि के द्वारा साधक मकड़ी के जाल का आलम्बन लेकर गमन कर सकता है। मक्कडयतंतुपंती उवरिं अदिलघुओ तुरियपदखेवे। गच्छेदि मुणिमहेसी सा मक्कडतंतुचारणा रिद्धी॥
(त्रिप्र४.१०४५)
कप्पं जत्थ सुते वण्णितं तं कप्पसुतं, अणेगविहचरणकप्पणाकप्पयं च कप्पसुतं । तं दुविहं-चुल्लं महंतं च।" महत्थं महागंथं च महाकप्पसुतं। (नन्दी ७७ चू प ५७)
महाकाल १. महानिधि का एक प्रकार। लोहे, चांदी, स्वर्ण आदि धातुओं की उत्पत्ति का प्रतिपादक शास्त्र। लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकाले आगराणं च। रुप्पस्स सुवण्णस्स य, मणि-मोत्ति-सिलप्पवालाणं॥
(स्था ९.२२.८) २. परमाधार्मिक देव का एक प्रकार। वे असुर देव, जो नैरयिकों के मांस के छोटे-छोटे खण्ड करते हैं. पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं तथा उनको स्वयं का मांस खिलाते हैं। कप्पंति कागिणीमंसगाणि छिंदंति सीहपुच्छाणि। खावंति य नेरइया, महाकाला पावकम्मरता॥
(सूत्रनि ७५)
मर्म शरीर के वे अवयव, जहां आत्मप्रदेशों की बहुलता होती है, प्राणों का विशेष रूप से अनुबंध होता है तथा जिनके भीतर चैतन्यकेन्द्र होते हैं। बहुभिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता देहावयवाः मर्माणि।
(स्यामवृ पृ७७) मर्मस्थानेषु प्राणस्य बाहुल्यमस्ति।"यानि चैतन्यकेन्द्राणि तानि मर्मस्थानवर्तीन्येव।
(आभा ५.२०) (द्र चैतन्यकेन्द्र) मल परीषह
(तसू ९.९) (द्र जल्ल परीषह) महती मोकप्रतिमा स्व-मूत्रपान के आधार पर की जाने वाली तपस्या का विशेष प्रयोग। महती मोकप्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधक यदि भोजन करके आरोहण करता है तो उसकी समाप्ति सात उपवास से होती है, यदि भोजन किए बिना उसका आरोहण करता है तो उसकी समाप्ति आठ उपवास से होती
महाघोष
परमाधार्मिक देव का एक प्रकार । वे असुर देव, जो भयभीत होकर पलायन करते हुए नैरयिकों को चारों ओर से घेरकर वहीं रोक लेते हैं, जैसे पशुवध में वधक दौड़ते हुए पशुओं को रोक लेता है। भीते पलायमाणे, समंततो ते तत्थ णियत्तेंति। पसुणो जधा पसुवधे, महाघोसा तत्थ नेरइया॥
(सूत्रनि ८२) महातपस्वी तपोऽतिशय ऋद्धि से सम्पन्न मुनि, जो सिंहनिष्क्रीडित आदि महान् तप करता है।
है।
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सिंहनिष्क्रीडितादिमहोपवासानुष्ठानपरायणा यतयो महा(तवा ३.३६ पृ २०३)
तपसः ।
महातमः प्रभा
नरक की सप्तम पृथ्वी का (माघवती) का गोत्र। यह अतीव कृष्ण अन्धकारमय है 1 (देखें चित्र पृ ३४६)
(द्र रत्नप्रभा)
अतीवकृष्णमहत्तम इवाभाति महातमः प्रभा। (अनुचू पृ ३५) महानिधि
राज्यव्यवस्था, समाजव्यवस्था आदि विद्याओं के आकर ग्रन्थ, जो देवताधिष्ठित होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के नौ महानिधि होते हैं- नैसर्प, पाण्डुक, पिंगल, सर्वरत्न, महापद्म, काल, महाकाल, माणवक, शंख ।
पण्णत्ता ।
एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स णव महाणिहिओ (स्था ९.२२) पलिओवमट्ठिया, णिहिसरिणामा य तेसु खलु देवा । (जं ३.१६७.१३)
महानिमित्तज्ञता
अंतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न और स्वप्नइस अष्टांग महानिमित्त में प्राप्त निपुणता ।
अष्टौ महानिमित्तानि अन्तरिक्ष - भौम- अङ्ग - स्वर - व्यञ्जन - लक्षण- छिन्न-स्वप्ननामानि । एतेषु महानिमित्तेषु कौशलमष्टाङ्गमहानिमित्तज्ञता । (तवा ३.३६) (द्र निमित्त )
महानिर्जर
वह व्यक्ति, जो अपने आचरण से महान् निर्जरा करता है । महानिर्जरो - बृहत्कर्मक्षयकारी । (स्थावृ प २८५)
महानिशीथ
कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें निशीथ की अपेक्षा विस्तृत वर्णन है।
जं इमस्स निसीहस्स सुत्तत्थेहिं वित्थिण्णतरं तं महाणिसीहं । (नन्दी ७८ चूं पृ ५९)
महापद्म
महानिधि का एक प्रकार । वस्त्रनिर्माण की विधि का प्रतिपादक शास्त्र ।
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वत्थाण य उप्पत्ती, णिष्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं । रंगाण य धोयाण य, सव्वा एसा महापउमे ॥ (स्था ९.२२.६)
महापान
वह ध्यान, जिसमें पूर्वगत श्रुत के अर्थपदों का पान/ज्ञान / मनन किया जाता है। आचार्य भद्रबाहु ने चौदह पूर्वो का अध्ययन कर यह साधना की थी।
इय पुव्वगताधीते, बाहु सनामेव तं मिणे पच्छा। पियति त्ति व अत्थपदे, मिणति त्ति व दो वि अविरुद्धा ॥ पिबति अर्थपदानि यत्रस्थितस्तत्पानं, महच्च तत्पानं च महापानम् । (व्यभा २७०३ वृ)
(द्र महाप्राण)
महाप्रज्ञ
१. वह मुनि, जिसने महान् प्रज्ञा - केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है।
'महापण्णे' त्ति महती - निरावरणतयाऽपरिमाणा प्रज्ञाकेवलज्ञानात्मिका संवित् अस्येति महाप्रज्ञः ।
(उ५.१ शावृ प २४१ ) २. वह भिक्षु, जिसकी बुद्धि विपुल होती है । महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञो - विपुलबुद्धिः ।
(सूत्र १.११.१३ वृ प २०४) ३. वह व्यक्ति, जिसकी प्रज्ञा महान् होती है, जो सम्यक् ज्ञान- दर्शन सम्पन्न होता है।
महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञः सम्यग्दर्शनज्ञानवान् । (सूत्र १. ११.३८ वृ प २१० )
महाप्रज्ञापना
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें प्रज्ञापना की अपेक्षा प्रज्ञापनीय विषय विस्तार से बतलाए गए हैं। पण्णवणत्थो सवित्थरो । अण्णे य सवित्थरत्था जत्थ भणिता सा महापण्णवणा । (नन्दी ७७ चू पृ ५८)
महाप्रत्याख्यान
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें चरम अवस्था में कराए जाने वाले प्रत्याख्यान का विस्तृत वर्णन है ।
लढा हा वि जहाजुत्तं संलेहं करेत्ता निव्वाघातं सचेट्ठा चैव भवचरिमं पच्चक्खंति, एतं सवित्थरं जत्थऽज्झयणे
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सव्वं गेहिं परिण्णाय, एस पणए महामुणी। पणतो महंतं मुणेति संसारं, पहाणो वा मुणी।
(आ ६.३७ चू पृ २१२),
वणिज्जति तमज्झयणं महापच्चक्खाणं।
(नन्दी ७७ चू पृ५८) महाप्रश्नविद्या वाणी के द्वारा प्रश्न करने पर उत्तर देने वाली विद्या। विविधमहाप्रश्नविद्याश्च-वाचैव प्रश्ने सत्युत्तरदायिन्यः महाप्रश्नविद्याः।
(समप्र ९८ वृ प ११५)
महाप्राण परम समाधि और पूर्ण कायोत्सर्ग की अवस्था। वह सूक्ष्मध्यान, जिसकी साधना सम्पन्न होने पर चतुर्दशपूर्वी मुनि प्रयोजन उपस्थित होने पर अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो की अनुप्रेक्षा कर सकता है-अपक्रम-व्युत्क्रम से उनका परावर्तन कर सकता
है।
भद्दबाहुस्सामी अच्छंति चोद्दसपुव्वी भणंति-दुक्कालनिमित्तं महापाणं ण पविट्ठो मि, इयाणिं पविट्ठो मि"।" महापाणं किर तदा अतिगतो होति, ताहे उप्पण्णे कज्जे अंतोमुहुत्तेण चोद्दस वि पुव्वाणि अणुप्पेहेन्जंति, उक्कइओवइयाणि चरेति।
(आवचू २ पृ १८७) महाप्रातिहार्य तीर्थंकर के आठ चामत्कारिक अतिशय। चउतीसातिसयमिदे अट्ठ महापडिहेरसंजुत्ते। मोक्खयरे तित्थयरे॥
(त्रिप्र ४.९२८) (द्र प्रातिहार्य)
महायान महापथ, क्षपकश्रेणि। महायानम्-महापथः क्षपकश्रेणिरिति तात्पर्यम।
(आभा ३.७८) महाविकृति मानसिक विकार का हेतुभूत रस, जैसे-नवनीत, मद्य, मांस
और मधु। चत्तारि महावियडी य होंति णवणीदमजमंसमधू। कंखापसंगदप्यासंजमकरीओ एदाओ॥ (मू३५३) (द्र विकृति) महाविदेह जम्बूद्वीप द्वीप का वह कर्मभूमि क्षेत्र, जो नीलवान् वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, निषध वर्षधर पर्वत से उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में अवस्थित है। णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते। (जं ४.९८) मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतविदेहाः पञ्चदश कर्मभूमयो भवन्ति।
(तभा ३.१६) महाविमानप्रविभक्ति कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें सौधर्म आदि कल्पों के आवलिका और प्रकीर्णक दोनों प्रकार के विमानों का विस्तृत वर्णन है। आवलिकाप्रविष्टानामितरेषां वा विमानानां प्रविभक्तिःप्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा विमानप्रविभक्तिः, सा चैका स्तोकग्रन्थार्था द्वितीया महाग्रन्थार्था, तत्राऽऽद्या क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिः द्वितीया महाविमानप्रविभक्तिः।
(नन्दी ७८ मवृ प २०६) महावीथि
महाभद्रा प्रतिमा पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर-इन चारों दिशाओं में एकएक अहोरात्र तक कायोत्सर्ग करना। इसका कालमान चार दिन-रात का होता है। चार दिन के उपवास से यह प्रतिमा पूर्ण होती है। महाभद्रायां पूर्वदिश्येकमहोरात्रं, एवं शेषदिक्ष्वपि, एषा दशमेन पूर्यते।
(आवनि ५३० चू१ पृ२८६) (द्र भद्रा प्रतिमा) महामुनि १. जो समग्र कामासक्ति को छोड़कर धर्म के प्रति समर्पित होता है। २. प्रधान मुनि, जो महान् संसार को जानता है।
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१. संबोधि का मार्ग। सिद्धि का मार्ग।
बड़े शरीर का निर्माण किया जा सकता है। महावीधिं..जो हेट्ठा संबोहणमग्गो भणितो "तत्र द्रव्यवीधी मेरोरपि महत्तरशरीरविकरणं महिमा। (तवा ३.३६) नगर-ग्रामादिपथाः, भाववीधी तु सिद्धिपन्थाः।
महैषी __ (सूत्र १.२.२१ चू पृ७४)
वह व्यक्ति, जो महान् मोक्ष की एषणा करने वाला होता है। २. अहिंसा और समता का पथ, जिसके प्रति पराक्रमशाली वीर समर्पित होते हैं।
महानिति मोक्षो तं एसंति महेसिणो। (द ३.१ अचू पृ५९) पणया वीरा महावीहिं॥
महोरग अहिंसा महती वीथिर्विद्यते।
(आभा १.३७)
वानमन्तर देवों का तीसरा प्रकार। इस जाति के देव श्याम ३. कुण्डलिनी-प्राणधारा।
आभा वाले होते हैं। उनकी गति त्वरित और शरीर विशाल महाव्रत
होता है। वे नाना प्रकार के विलेपन, नाना प्रकार के आभूषणों हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का तीन योग
का प्रयोग करते हैं। उनका चिह्न होता है-नागवक्ष।।
महोरगा: श्यामावदाता महावेगा: सौम्याः सौम्यदर्शना महा(करना, कराना और अनुमोदन करना) और तीन करणमन, वचन और काया से परित्याग।
कायाः पृथुपीनस्कन्धग्रीवा विविधविलेपना विचित्राभरणमनोवाक्कायकृतकारितानुमत्या हिंसा-असत्य-स्तेयाब्रह्म
भूषणा नागवृक्षध्वजाः।
(तभा ४.१२ वृ) परिग्रहेभ्यो विरतिर्महाव्रतम्। (जैसिदी ६.६७) माकार
प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार। 'आगे ऐसा मत करना' महाशुक्र सातवां स्वर्ग। कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की सातवीं आवास
कहना।
'मा' इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं-अभिधानं माकारः। भूमि।
(उ ३६.२११) (देखें चित्र पृ ३४६)
(स्था ७.६६ वृ प ३७८)
(द्र हाकार) महास्थण्डिल शवपरिष्ठापनभूमि।
माघवती 'महास्थण्डिलं'शवपरिष्ठापनभूमिलक्षणं"।
अधोलोक (नरक) की सातवीं पृथ्वी का नाम। (बृभा १५०५ वृ)
(स्था ७.२३)
(द्र अञ्जना) महाहिमवान् वर्षधर वह वर्षधर पर्वत, जो हरिवर्ष के दक्षिण में, हैमवतवर्ष के माणवक उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवण- महानिधि का एक प्रकार । राजनीति, युद्धनीति, दण्डनीति समुद्र के पूर्व में अवस्थित है। यह हैमवत और हरिवर्ष- तथा आयुधनिर्माण की विधि का प्रतिपादक शास्त्र। इन दोनों के मध्य विभाजन-रेखा का काम करता है। जोधाण य उप्पत्ती, आवरणाणं च पहरणाणं च। हरिवासस्स दाहिणेणं, हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरस्थिम- सव्वा य जुद्धनीती, माणवए दंडणीती य॥ लवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चस्थिमलवणसमुद्दस्स
(स्था ९.२२.१०) पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते।
(जं ४.६२)
माण्डलिक दोष हैमवतस्य हरिवर्षस्य च विभक्ता महाहिमवान्।
(द्र परिभोगैषणा)
(तभा ३.११ वृ) मातृकानुयोग महिमा
द्रव्यानुयोग का एक प्रकार, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप विक्रिया ऋद्धि का एक प्रकार, जिसके द्वारा मेरु पर्वत से भी मातृकापद के आधार पर द्रव्यों की विचारणा करना।
बाना
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मातृकेव मातृका-प्रवचनपुरुषस्योत्पादव्ययधौव्यलक्षणा उत्पादन दोष का एक प्रकार । दूसरे मुनि के द्वारा उत्साहित पदत्रयी तस्या अनुयोगः। (स्था १०.४६ वृप ४५६) करने पर गृहस्थ के अभिमान को उत्तेजित कर भिक्षा लेना।
लब्धिप्रशंसोत्तानस्य परेणोत्साहितस्यावमतस्य वा गृहस्थामातृकापद
भिमानमुत्पादयतो मानपिण्डः। (योशावृ पृ १३५) दृष्टिवाद के विकास की हेतुभृत त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य।
मानप्रत्यय सकलवाङ्मयस्य अकारादिमातृकापदानीव दृष्टिवादार्थ- क्रियास्थान का एक प्रकार । जाति, कुल, बल आदि के मद प्रसवनिबन्धनत्वेन मातृकापदानि उत्पादविगमध्रौव्यलक्ष- से ग्रस्त होकर दूसरे को हीन और अपने आपको उत्कृष्टरूप णानि।
(सम ४६.१ वृ प ६५) में प्रस्तुत करने की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति। (द्र त्रिपदी)
जाइमदेण वा कुलमदेण वा बलमदेण वा...."चंडे थद्धे
चवले माणी यावि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं मातृग्राम
ति आहिज्जइ।
(सूत्र २.२.११) स्त्री अथवा स्त्रीवर्ग।
मानप्रत्यया क्रिया इत्थी माउग्गामो भण्णति। (निचू २ पृ ३७१)
द्वेषप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। मान के निमित्त से होने मातृग्रामे नाम समयपरिभाषया स्त्रीवर्गः । (बृभा २०९६ वृ)
वाली क्रिया।
(स्था २.३७) माध्यस्थ्य भावना
मानविजय राग-द्वेषपूर्वक होने वाले पक्षपात का अभाव।
वह साधना, जिससे मृदुता का विकास होता है, मानवेदनीय रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताऽभावो माध्यस्थ्यम्।
कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध मानवेदनीय कर्म की (तवा ७.११.४) निर्जरा होती है।
माणविजएणं महवं जणयइ। माणवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, मान
पुव्वबद्धं च निज्जरेड़।
(उ २९.६९) १. कषाय का एक प्रकार । आत्मा का वह अध्यवसाय, जो उत्कर्ष से उत्पन्न होता है।
मानसंज्ञा उत्कर्षाध्यवसायो मानः ।
(आभा ३.७१) मानवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला अभिमानात्मक २. विभागनिष्पन्न द्रव्य प्रमाण का एक प्रकार, जिससे लम्बाई संवेदन। और चौड़ाई का माप किया जाता है। (अनु ३७३) । मानोदयादहङ्कारात्मिका उत्सेकादिपरिणतिर्मानसंज्ञा।
(प्रज्ञा ८.१ वृ प २२२) मान पाप पापकर्म का सातवां प्रकार । मान की प्रवृत्तिसे होने वाला कर्म मानसिक ध्यान का बंध।
__ (आवृ प ७२) किसी एक आलम्बन अथवा वस्तु पर मन को एकाग्र करना।
मानसं त्वेकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता। मान पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मान में प्रवृत्त होता है।
(बृभा १६४२ वृ) जिण कर्म नै उदय करी जी, मान तप्त जीव रा प्रदेश। मानुषोत्तर पर्वत तिण कर्म नै कहियै सही जी, मान पापठाणो रेस ।। वह पर्वत, जो पुष्करद्वीप के अर्धभाग में स्थित है, मनुष्य मायादिक पापठाणां तिकैजी, इमहिज कहियै विचार।
लोक की सीमा करता है और स्वर्णमय है। ज्यांरा उदय थी जे-जे नीपजै जी, ते कहियै आस्रव द्वार।
मानुषोत्तरो नाम पर्वतो मानुषलोकपरिक्षेपी सुनगरप्राकारवृतः (झीच २०,२२) पुष्करवरद्वीपार्धविनिविष्टः काञ्चनमयः सप्तदशैक
विंशतियोजनशतान्युच्छितः। मानपिण्ड
(तभा ३.१३)
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(द्र पुष्करद्वीपार्ध)
(द्र आत्मभाववक्रता, परभाववक्रता)
माया कषाय का एक प्रकार। आत्मा का वह अध्यवसाय, जो वञ्चना से उत्पन्न होता है। वञ्चनाध्यवसायो माया।
(आभा ३.७१)
मायाक्रिया ज्ञान, दर्शन आदि के क्षेत्र में छल-कपट करना। ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया। (तवा ६.५.११)
मायामृषा पाप पापकर्म का सतरहवां प्रकार। १. वञ्चनायुक्त मृषा की प्रवृत्ति से बंधने वाला पापकर्म।
(आवृ प ७२) २. वेषान्तर और भाषान्तर के द्वारा दूसरों को ठगने की प्रवृत्ति। 'मायामोसे' तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः संयोगः। अथवा वेषान्तरभाषान्तरकरणेन यत्परवञ्चनं तन्मायामषेति।
(भग १.२८६ वृ) मायामृषा पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मायामृषा में प्रवृत्त होता है। (द्र माया पापस्थान)
माया पाप पापकर्म का आठवां प्रकार । माया की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध।
(आवृ प ७२) माया पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव माया में प्रवृत्त होता है।
(झीच २२.२२) (द्र मान पापस्थान)
माया विजय वह साधना, जिससे ऋजुता का विकास होता है, मायावेदनीय कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध मायावेदनीय कर्म की निर्जरा होती है। मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ, मायावेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ। (उ २९.७०)
मायापिण्ड उत्पादन दोष का एक प्रकार । मंत्र के प्रयोग से रूपपरिवर्तन कर भिक्षा ग्रहण करना। मन्त्रयोगकुशलो रूपपरावर्त्तादिना यल्लभते स मायापिण्डः।
(प्रसा ५६६ वृ)
मायाप्रत्यय क्रियास्थान का एक प्रकार। अपने दोषपूर्ण स्वरूप को छिपाने
था दोषों से निवत्त होने के लिए आलोचना (पायश्चित्त द्वारा शद्धि) न करने की मनोवत्ति और प्रवत्ति । जे इमे भवंति गूढायारा तमोकासिया"एवमेव माई मायं कट्ट णो आलोएइ"।
(सूत्र २.२.१३) मायाप्रत्यया क्रिया प्रेय:प्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । माया के निमित्त से होने वाली क्रिया। पेज्जवत्तिया किरिया दविहा पण्णत्ता.तं जहा-मायावत्तिया चेव लोभवत्तिया चेव। (स्था २.३६) माया-शाठ्यं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया व्यापारस्य वा सा तथा। (स्था २.१७७ प३८)
मायाशल्य शल्य का एक प्रकार। वह भावात्मक आयुध, जो मायापूर्ण आचरण के रूप में उदित होकर आत्मिक सरलता को बाधित करता है। माया-निकृतिः सैव शल्यं मायाशल्यम्।
(स्था ३.३८५ वृ प १३९) माया संज्ञा मायावेदनीय कर्म के उदय से होने वाला वञ्चनात्मक संवेदन। मायावेदनीयेनाशुभसंक्लेशादनृतसंभाषणादिक्रिया मायासंज्ञा।
(प्रज्ञा ८.९ वृ प २२२) मायिमिथ्यादृष्टि मायाशल्ययुक्त मिथ्यादृष्टि वाला व्यक्ति। (भग ५.१०२)
मायी वह व्यक्ति, जो आभियोगिकी भावना से भावित होकर मंत्र,
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योग, भूतिकर्म आदि का प्रयोग करता है । माई विकुव्वइ, नो अमाई विकुव्वइ ।
मारणान्तिक आराधना
योगसंग्रह का एक प्रकार। वह आराधना, जो मृत्यु के आसन्न काल में की जाती है ।
'आराहणा य मरणंते' त्ति आराधना 'मरणान्ते' मरणरूपोऽन्तो (सम ३२.१.५ वृ प ५५ )
मरणान्तः ।
(भग ३.१९० )
मारणान्तिक उदय
योगसंग्रह का एक प्रकार । मारणान्तिक वेदना का उदय होने पर भी क्षुब्ध न होना, शान्त और प्रसन्न रहना । 'उदए मारणंतिए' त्ति मारणान्तिकेऽपि वेदनोदये न क्षोभः कार्यः । (सम ३२.१.४ वृ प ५५ )
मारणान्तिक समुद्घात मृत्यु से पूर्व अन्तर्मुहूर्त्त की कालावधि में आत्मप्रदेशों का शरीर से बाहर निकल आगामी उत्पत्तिस्थान तक फैलना । मारणान्तिकसमुद्घातोऽन्तर्मुहूर्त्तशेषायुष्ककर्माश्रयो जीवप्रदेशान् शरीराद्बहिर्निष्काश्य । (सम ७.२ वृप १२)
मारुतचारण
(त्रि १०४७)
(द्र वायुचारण)
मारुती धारणा
पिण्डस्थ ध्यान का एक प्रकार, जिसमें साधक यह अनुभव करता है कि नाभिकमल में दोषों के जलने से निष्पन्न हुई भस्म को तेज हवा का झौंका उड़ाकर ले जा रहा है, चेतना निर्मल हो रही है।
(मनो ४.२० ) दग्धमलापनयनाय चिन्तनं मारुती । ततस्त्रिभुवनाभोगं पूरयन्तं समीरणम् । चलयन्तं गिरीनब्धीन् क्षोभयन्तं विचिन्तयेत् ॥ तच्च भस्मरजस्तेन शीघ्रमुद्धूय वायुना । दृढाभ्यासः प्रशान्तिं, तमानयेदिति मारुती ॥
(योशा ७.१९,२०)
(द्र आग्नेयी धारणा )
मार्गणा
१. ईहा की दूसरी अवस्था, जिसमें विशेष अर्थ के अन्वयधर्म
और व्यतिरेकधर्म का समालोचन होता है।
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
तस्सेव विसेसत्थस्सा अण्णय-वइरेगधम्मसमालोयणं मग्गणा भण्णति । (नन्दी ४५ चू पृ ३६)
२. अन्वयधर्म का अन्वेषण करना । मार्गणमन्वयधर्मान्वेषणं मार्गणा ।
(विभा ३९६ वृ)
मार्गाच्यवन
रत्नत्रय की साधना में संलग्न रहना श्रद्धान, स्वाध्याय और चारित्र में जागरूक रहना ।
मार्गो-रत्नत्रयं मुक्तेः पन्थाः तस्मादच्यवनम् - अप्रच्यवनमनपेतत्वम् । तदिति मार्गस्य सम्बन्धः, तस्यानुष्ठानंश्रद्धानं स्वाध्यायक्रिया चरणम् ।
(तभा ९.७ वृ)
मार्दव धर्म
श्रमणधर्म अथवा उत्तमधर्म का एक प्रकार । जाति, कुल, ऐश्वर्य, बुद्धि, श्रुत आदि के आवेशवश होने वाले अभिमान को छोड़ देना । जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दवम् ।
(ससि ९.६ )
मालापहृत
उद्गम का एक दोष । निसैनी आदि के द्वारा मचान, स्तम्भ या प्रासाद पर चढ़कर अथवा भूगृह में उतर कर लाई गई तथा छींके से उतारी हुई वस्तु मुनि को देना । यदुपरिभूमिकातः शिक्यादेर्भूमिगृहाद्वा आकृष्य साधुभ्यो दानं तन्मालापहृतम् । ( योशा १.३८ वृ पृ १३४)
मासकल्प
वर्षावास के अतिरिक्त शेष काल में एक क्षेत्र में मुनि के निवास की उत्कृष्ट अवधि |
एकत्र मासावस्थितिरूपे समाचारे ।
(बृभा २०३५ वृ)
मासक्षपण
मासखमण । वह तप, जिसकी अवधि एक मास है । पक्षद्वयात्मकमासपर्यन्ते निराहारे ।
(क ३.५ वृ)
माहन
१. वह मुनि, जो प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति (रतिअरति), मायामृषा और मिथ्यादर्शन शल्य से विरत है ।
इतिविरतसव्वपावकम्मे पेज्ज- दोस- कलह अब्भक्खाणपेसुण्ण- परपरिवाद - अरतिरति मायामोस-मिच्छादंसण
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
सल्लविरते समिए सहिए सया जए, णो कुज्झे णो माणी 'माहणे' त्ति वच्चे। (सूत्र १.१६.३ ) २. अहिंसक । वह मुनि, जो जीवों की हिंसा न करता है, कराता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। ......अणण्णं चर माहणे! |
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से ण छणे, ण छणावए, छणतं णाणुजाण ।
(आ ३.४५,४६) ३. जो स्वयं अहिंसक है और अहिंसा का उपदेष्टा है। मा हणह सव्वसत्तेहिं भणमाणो अहणमाणो य माहणो भवति । (सूत्र १. १६. ३ चू पृ २४६ ) माहणेणं ति मा जन्तून् व्यापादयेत्येवं विनेयेषु वाक्प्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनो भगवान् वर्द्धमानस्वामी ।
(सूत्र १.९.१ वृ प १७७)
माहेन्द्र
चौथा स्वर्ग। कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की चौथी आवासभूमि । यह ईशान देवलोक के ऊपर स्थित है ।
(देखें चित्र पृ ३४६)
कहिं णं भंते! माहिंदगदेवा परिव गोयमा ! ईसाणस्स कप्पस्स उपिं ..... । (प्रज्ञा २.५३)
मित
पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अंग । सीखे हुए ग्रन्थ के श्लोक, पद, वर्ण, मात्रा आदि की संख्या का निर्धारण । जं वण्णतो तनुगुरुयबिंदुमत्ताहि पयसिलोगादीहि य संखितं तं मितं भण्णति । (अनु १३ चू पृ ७)
मित्रदोषप्रत्यया
क्रिया का एक प्रकार । स्वल्प अपराध होने पर भी स्वजनवर्ग के प्रति कठोर दंड का प्रयोग । मित्तदोसवत्तिए केइ पुरिसे माईहिं वा पिईहिं वा तेसिं अण्णयरंसि अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंडं णिव्वत्तेति । (सूत्र २.२.१२)
मित्रानुराग
मारणान्तिक संलेखना का एक अतिचार। बचपन के मित्र के साथ की हुई क्रीडा आदि का स्मरण करना । पूर्वकृतसहपांशुक्रीडनाद्यनुस्मरणान्मित्रानुरागः ।
(तवा ७.३७)
मिथ: कथा
२३१
१. कामकथा ।
२. परस्पर होने वाली आहार आदि की कथा । मिथःकथा – कामकथा, परस्परं जायमाना भक्तादीनां कथा (आभा ९.१.१० )
वा।
मिथुनक
(द्र यौगलिक)
महाशरीरा हि देवकुर्व्वादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण । (भग १.८७ वृ)
मिथ्याकार सामाचारी
सामाचारी का एक प्रकार । मिथ्या आचरण होने पर 'मैंने मिथ्या आचरण किया है' - इस प्रकार अपनी निंदा करना । मिथ्येदमिति प्रतिपत्तिः, सा चात्मनो निन्दा - जुगुप्सा तस्यां, वितथाचरणे हि धिगिदं मिथ्या मया कृतमिति निन्द्यत एवात्मा विदितजिनवचनैः । (उ २६.३ शावृ प ५३५ )
मिथ्यात्व
दर्शनमोह के उदय से अयथार्थ में यथार्थ की प्रतीति, मिथ्यादर्शन |
दर्शन मोहोदयाद् अतत्त्वे तत्त्वप्रतीतिः मिथ्यात्वम् । (जैसिदी ४.१८ वृ)
(द्र मिथ्यात्व आश्रव) मिथ्यात्व आश्रव
आत्मा का मिथ्यात्वरूप (विपरीत तत्त्व श्रद्धारूप ) परिणाम, जो कर्म - पुद्गलों के आश्रवण का हेतु बनता है।
(स्था ५.१०९) ॐध सरधै ति नै कह्योजी, आसव प्रथम मिथ्यात | या तिकै असुभ कर्म छैजी, सात आउ साख्यात ॥ (झीच २२.२४ )
मिथ्यात्व क्रिया
जीवक्रिया का एक प्रकार ।
१. जीव में तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धा की प्रवृत्ति । मिथ्यात्वम् - अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापार एव । (स्था २.३ वृ प ३७) २. मिथ्यात्व की ओर ले जाने वाली क्रिया । वह क्रिया, जिसके द्वारा मिथ्यात्व का संवर्धन होता है । मिथ्यात्वहेतुका प्रवृत्तिर्मिथ्यात्वक्रिया ।
( तवा ६.५ )
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
मिथ्यात्ववेदनीय मिथ्यात्व-पुद्गलों का विशोधन न होने पर जो मोह कर्म सम्यक्त्व को रोकता है। यत्पुनर्जिनप्रणीततत्त्वाश्रद्धानात्मकेन मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते तन्मिथ्यात्ववेदनीयम्। (प्रज्ञा २३.१७ वृ प ४६८) मिथ्यादर्शन तत्त्वार्थ-सत्य अर्थों में होने वाली अश्रद्धा। दर्शनमोहोदयात् तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनम्।
(तवा २.६२) (द्र मिथ्यात्व) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया १. क्रिया का एक प्रकार। मिथ्यादर्शन के निमित्त से होने वाली प्रवृत्ति। मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथा।
(स्था २.१७ वृ प ३८) २. मिथ्यात्वी के कार्यों की प्रशंसा करके उसको मिथ्यात्व में दृढ़ करना। अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभिर्द्रढयति, यथा-साधु करोतीति सा मिथ्यादर्शनक्रिया।
(तवा ६.५) मिथ्यादर्शनशल्य शल्य का एक प्रकार. मिथ्यादर्शन, जो अन्तः प्रविष्ट शस्त्र की भांति कष्ट देता है। शल्यते-बाध्यते अनेनेति शल्यं"मिथ्या-विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनम्।
(स्था ३.३८५ वृ प १३९) मिथ्यादर्शनं शल्यमिव विविधव्यथानिबन्धनत्वान्मिथ्यादर्शनशल्यमिति।
(भग १.२८६ वृ) मिथ्यादर्शनशल्य पाप पापकर्म का अठारहवां प्रकार। मिथ्यादृष्टिकोण रूप प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध (आवृ प ७२) मिथ्यादर्शनशल्य पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मिथ्यादर्शन शल्य में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, ऊधो सरधै कोड जाण।
तिण कर्म नै कह्यो अठारमों जी, मिथ्यादर्शन पापठाण॥
(झीच २२.२३) मिथ्यादृष्टि १. अनंतानुबंधीचतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) और दर्शनत्रिक (सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि)-इस दर्शनसप्तक के उदय से होने वाली दृष्टि। (द्र मिथ्यादर्शन) २. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाले जीव की तत्त्वरुचिक्षायोपशमिक दृष्टि। मिथ्यादृष्ट्यादिजीवानां तत्त्वरुचिरपि क्रमेण मिथ्यादष्टिः, सम्यग्मिथ्यादृष्टिः, सम्यग्दृष्टिश्चेति प्रोच्यते।
(जैसिदी ७.६ वृ) (द्र मिथ्यारुचि) ३. वह जीव, जिसका दृष्टिकोण मिथ्या है, मिथ्यात्वी। मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्यस्यासौ मिथ्यादृष्टिः ।
(सम १४.५ वृ प २६) ४. वह नय, जो केवल अपने पक्ष का समर्थन करता है और दूसरे नयों से निरपेक्ष होता है। तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा।
(सप्र १.२१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान जीवस्थान/गुणस्थान का पहला प्रकार। मिथ्यात्वी-तत्त्व पर मिथ्या श्रद्धा रखने वाले प्राणी की आत्मविशुद्धि, जो दर्शनमोह कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। मिथ्यादृष्टेर्दर्शनमोहक्षयोपशमजन्या विशद्धिर्मिथ्यादष्टिगुणस्थानम्।
(जैसिदी ७.३ वृ) मिथ्याप्रयोग मिथ्यादर्शनपूर्वक होने वाला मन, वचन और शरीर का व्यापार। तिविधे पओगे पण्णत्ते, तं जहा-सम्मपओगे, मिच्छपओगे, सम्मामिच्छपओगे।
(स्था ३.३९४) प्रयोगः सम्यक्त्वादिपूर्वो मन:प्रभृतिव्यापारः।
(स्थावृ प १४१) मिथ्यारुचि तिविहारुई पण्णत्ता, तं जहा-सम्मरुई, मिच्छरुई, सम्मा
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
मिच्छरुई ।
(द्र मिथ्यादृष्टि)
(स्था ३.३९३)
मिथ्या श्रुत
श्रुतज्ञान का एक प्रकार, जो मिथ्यादृष्टि द्वारा स्वच्छन्द मति से रचित है।
मिच्छसुयं - जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छदिट्ठिहिं सच्छंदबुद्धिमविगप्पियं । (नन्दी ६७ )
मिथ्योपदेश
(तसू ७.२१)
(द्र मृषोपदेश)
मिश्रजात
उद्गम दोष का एक प्रकार। गृहस्थ और साधु दोनों के लिए बनाया गया भोजन ।
यदात्मार्थं साध्वर्थं चादित एव मिश्रं पच्यते तन्मिश्रम् । ( योशा १.३८ वृ पृ १३३ )
मिश्र योनि
१. वह उत्पत्ति स्थान, जिसमें सचित्त और अचित्त दोनों का मिश्रण होता है।
सचित्ता जीवप्रदेशाधिष्ठिता । अचित्ता तद्विपरीता । सचित्ताचित्ता प्रस्तुतद्वयस्वभावमिश्रा | (तभा २.३३ वृ)
२. वह उत्पत्ति स्थान, जो शीत और उष्ण – उभयरूप होता
है ।
(द्र शीतोष्ण योनि)
३. वह उत्पत्ति स्थान, जो संवृत और विवृत - उभयरूप होता है।
(द्र संवृत - विवृत योनि)
मिश्राहार
जीवसहित और जीवरहित पुद्गलों का आहार करने वाला। मिश्रमाहारयन्तीति मिश्राहाराः । (प्रज्ञा २८.१ वृ प ५०० )
मुक्त
१. निर्ग्रन्थ- वह जीव, जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथि से रहित होता है।
बाहिरऽब्धंतरेहिं गंथेहिं विप्पमुक्को मुत्तो ।
२३३
(द १.३ अचू पृ २३४ ) २. वह जीव, जो ज्ञानावरणीय आदि कर्मबंधन से मुक्त है और जिसके भवोपग्राही कर्म ( वेदनीय - आयुष्य - नाम - गोत्र ) प्रतिक्षण क्षीण हो रहे हैं, भवस्थकेवली । ज्ञानावरणीयादिकर्मबंधनाद्वियुक्तो मुक्तः ।
(सूत्र १.६.८ वृ प १४५) 'मुच्चइ त्ति' स एव संजातकेवलबोधो भवोपग्राहिकर्मभिः प्रतिसमयं विमुच्यमानो मुच्यत इत्युच्यते । (भग १.४४ वृ) ३. वह जीव, जो समस्त कर्मों से मुक्त होता है, सिद्ध । मुक्तास्तु ज्ञानावरणादिकर्मभिः समस्तैर्मुक्ता एकसमयसिद्धादयः । (तभा १.५ वृ पृ ४९ )
मुक्त शरीर
शरीर की वह पुद्गल-वर्गणा, जो जीव के द्वारा प्रतिक्षण त्यक्त होती है । (प्रज्ञा १२.७ )
मुक्ताशुक्तिमुद्रा
उठे
मौवी की सीप के समान कुछ गर्भित (मध्य में कुछ हुए) दोनों हाथों को ललाट से लगाना । किञ्चित् गर्भितौ हस्तौ समो विधाय ललाटदेशयोजनेन मुक्ताशुक्तिमुद्रा । (निर्वाक पृ३३)
मुक्ति धर्म
(स्था १०.१६)
(द्र शौच धर्म)
मुखपतिका
मुखवस्त्रिका, जिसका उपयोग सम्पातिम जीवों की रक्षा हेतु मुंह पर बांधने के लिए, पृथ्वीकाय के सचित्त रजकणों के प्रमार्जन के लिए, शरीर पर लगने वाले रजकणों के प्रमार्जन के लिए तथा आवासस्थल की सफाई करते समय रजकणों से बचाव के लिए मुख और नासिका को बांधने के लिए किया जाता संपातिमरयरेणू पमज्जणट्ठा वयंति मुहपत्तिं । नासं मुहं च बंधइ तीए वसहिं पमज्जते ॥
1
(ओनि ७१२)
मुखवस्त्रिका
(ओनि ७१२ वृ)
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२३४
(द्रमुखपोतिका)
मुखानन्तक
वह मुखवस्त्र, जो चार अंगुल की चौड़ाई और एक वितस्ति की लम्बाई वाला और चतुष्कोण होता है अथवा जो मुखप्रमाण होता है।
चत्वार्यङ्गुलानि वितस्तिश्चेति एतच्चतुरस्त्रं मुखानन्तकस्य प्रमाणम्, अथवा इदं द्वितीयं प्रमाणं यदुत मुखप्रमाणं कर्त्तव्यं मुहणंतयं । (ओनि ७११ वृ) (द्र मुखपोतिका)
मुधावी
वह मुनि, जो जाति, कुल आदि के सहारे नहीं जीता, भिक्षा ग्रहण नहीं करता ।
मुहाजीवि नाम जं जातिकुलादीहिं आजीवणविसेसेहिं परं न जीवति । (द ५.१.१०० जिचू पृ १९० )
मुधादायी
प्रतिफल की कामना किए बिना निःस्वार्थ भाव से मुनि को दान देने वाला । (द ५.१.१००)
मुधालब्ध
वह भिक्षा, जो तंत्र, मंत्र, औषधि आदि के द्वारा इष्ट सिद्धि किए बिना प्राप्त हो जाए ।
जं कोंटलवेंटलादीणि मोत्तूणमितरहा लद्धं तं मुहालद्धं । (द ५.१.१०० जिचू पृ १९० )
मुनि
१. जो ज्ञानी है, अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है, जगत् की त्रिकालावस्था का मनन करता है। पण्णाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति वच्चे। (आ ३.५) मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः । (दहावृ प २६२ ) २. वह साधु, जो सावद्य कार्यों की प्रेरणा नहीं देता । सावज्जेस मोणवतीति मुणी । (दअचू पृ २३३) ३. वह साधु, जो मौन रहता है तथा सर्वविरति का संकल्प करता है ।
मुणति - प्रतिजानीते सर्वविरतिमिति मुणिः ।
मुसल
(उशावृ प ३५७ )
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
माप का एक प्रकार, जो छियानवे अंगुल के बराबर होता है।
( अनु ४०० )
(द्र युग)
मुहूर्त्त
दो घड़ी (दो नाली) अथवा अड़तालीस मिनिट का कालमान । मुहूर्त्तो घटिकाद्वयम् । (तभा १.७ वृ) (त्रिप्र ४.२८७ )
....बे णालिया मुहुत्तं च ॥
मुहूर्त्तान्तः भिन्न (अपूर्ण) मुहूर्त्त । मुहूर्त्तान्तः - भिन्नं मुहूर्त्तम् । (द्र अन्तर्मुहूर्त्त )
मूढ
१. वह जीव, जो मोहग्रस्त होता है - हित और अहित, कार्य और अकार्य, वर्ज्य और अवर्ज्य के विवेक से शून्य होता है।
(विभा ६०९ वृ पृ २७३ )
मुह्यते स्म अस्मिन्निति मूढः । (निचू १ पृ १७) हिताहितयोः कार्याकार्ययोः वर्ज्यावर्ज्ययोरविवेकः मोहः । मोहं प्राप्तो मूढः ।
(आभा २.१५१) (स्थावृ प १५६)
मूढो - गुणदोषानभिज्ञः ।
२. मन की एक अवस्था, दृष्टिमोह और चारित्रमोह से परिव्याप्त चेतना, जो ध्यान के योग्य नहीं होती । दृष्टिचारित्रमोहपरिव्याप्तं मूढम् ॥ अनर्हमेतद् योगाय ॥
(मनो २.२,३)
मूढनय
वह श्रुत, जिसमें नयविभाग से सब नयों के भेद - प्रभेदों द्वारा विस्तृत निरूपण नहीं है ।
अविभागत्था मूढा नय त्ति' । ( विभा २२८० ) मूढाः - विभागेनाव्यवस्थापिता नया यस्मिन् तद् मूढनयम् । (बृभा ५२३५ वृ)
(द्र मूढनयिक)
मूढनयिक कालिक श्रुत, किया जाता।
जिसकी व्याख्या में नयों का समवतार नहीं
मूढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयरंति इहं ।
( विभा २२७९)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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मूढा-अविभागत्था गुप्ता नया जंमि अत्थि तं मूढणतिय।।
(आवचू १ पृ ३८०)
णाई, जम्मणाणि"केवलनाणप्पयओ, तित्थपवत्तणाणि. एवमाई भावा मूलपढमाणुओगे कहिया। (नंदी १२०) मूल प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का एक प्रकार। प्रगाढतर अपराध होने पर संयमपर्याय का मूल से विच्छेद करना-नई दीक्षा देना। मूलं पगाढतरावराहस्स मूलतो परियातो छिज्जति।
(आवचू २ पृ २४७) सव्वं परियायमवहारिय पुणो दिक्खणं मूलं णाम पायच्छित्तं।
(धव पु १२ पृ६२) मूलं-महाव्रतानां मूलत आरोपणम्। (योशा ४.९० वृ)
मूलसूत्र दो आगमिक ग्रन्थों का एक समूह-दशवैकालिक और उत्तराध्ययन।
(समाचारी शतक)
मृग
वह मुनि, जो गीतार्थ नहीं है, अध्ययनपरायण नहीं है। 'मृगा' अगीतार्थाः।
(बृभा २९०१ वृ)
वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त द्रव्य, पुद्गल। ""पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो॥ रूवादिगुणो
(बृद्रसं १५) । मूलकर्म उत्पादन दोष का एक प्रकार। १. कार्मण (कामण), वशीकरण, गर्भस्तम्भन आदि के उपाय बताकर भिक्षा लेना।
(पिनि ४०९) २. वियुक्त व्यक्ति का संयोग कराकर भिक्षा लेना। कार्मणं मूलकर्म।
(अचि ६.१३४) गर्भस्तम्भ-गर्भाधान-प्रसव-स्नपनक-मूल-रक्षा-बन्धनादि भिक्षार्थं कुर्वतो मूलकर्मपिण्डः। (योशा १.३८ वृ पृ१३६) अवसाणं वसियरणं, संजोजयणं च विप्पजुत्ताणं। भणिदं तु मूलकमं॥
(मू ४६१) मूलगुण १. प्राणातिपातनिवृत्ति आदि आचार के मूल नियम, जो उत्तरगुणों के आधारभूत हैं। मूलगुणा:-प्राणातिपातनिवृत्त्यादयः। (प्रसावृप २१२) मूलगुणाः प्रधानानुष्ठानानि उत्तरगुणाधारभूतानि""सर्वोत्तरगुणाधारतां गतानाचरणविशेषान्"। (मू १ वृ) २. पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों का निरोध, केशलोच, षड्आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े-खड़े भोजन और एक बार आहार-इन अठाईस गुणों को मूलगुण कहा गया है। पंच य महव्वयाई समिदीओ पंच जिणवरुद्दिद्वा। पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोचो। आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव। ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु॥
(मू २,३) मूलप्रथमानुयोग अनुयोग का एक विभाग, जिसमें अर्हतों के जीवन का वर्णन
मृताची
१. मृतयाची-अचित्त की याचना करने वाला, याचितभोजी। २. प्रासुकभोजी। मृतयाजी मडाई मृतासी वा। (भग २.१३ चू) मृतादी-प्रासुकभोजी।
(भग २.१३ वृ) ""मृतं तु याचितम्।
(अचि ३.५३०) मृन्मुखी शतायु जीवन की एक दशा, नौवां दशक । इस अवस्था में मनुष्य का शरीर जरा से आक्रांत हो जाता है। जीवन-भावना नष्ट हो जाती है। णवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो, जीवो वसइ अकामओ॥
(दहावृ प ९)
मृषाप्रत्यय क्रियास्थान का एक प्रकार। स्व और स्व से संबद्ध व्यक्तियों के लिए असत्य वचन का प्रयोग।
मूलपढमाणुओगे णं अरहंताणं भगवंताणं पुव्वभवाचव
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
केइ पुरिसे आयहेउं वा णाइहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेडं वा सयमेव मुसं वयति, अण्णेण वि मुसं वयावेइ, मुसं वयं पि अण्णं समणुजाणति। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ। छठे किरियट्ठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिए।
(सूत्र २.२.८)
मृषावाद आश्रव असत्य के द्वारा कर्म को आकर्षित करने वाली आत्मा की अवस्था।
(स्था ५.१२८) झूठ बोलै तिण नै कह्यो जी, आसव मृषावाद ताय। आय लागै असुभ कर्म छै जी, सात आठ दुखदाय॥
(झीच २२.६)
मृषावाद पाप पापकर्म का दूसरा प्रकार। झूठ बोलने की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध। (आवृ प ७२) मृषावाद पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मृषावाद में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, बोलै झूठ अयाण। तिण कर्म नै कहियै सही जी, मुषावाद पापठाण॥
(झीच २२.५) मृषावादविरमण दूसरा महाव्रत। असत्यभाषण के परित्याग से होने वाली विरति। मृषा-अलीकं वदनं वादो मृषावादः तस्माद्विरमणंविरति-रिति।
(स्था ५.१ वृ प २७६)
गमन कर सकता है। अविराहिदूण जीवे अपुकाए बहुविहाण मेघाणं। जं उवरि गच्छइ मुणी सा रिद्धी मेघचारणा णाम॥
(त्रिप्र ४.१०४३) मेधा अवग्रह की पांचवीं अवस्था, जिसमें उत्तरोत्तर धर्म की जिज्ञासा के काल में विशेष सामान्य अर्थ का अवग्रहण होता है। उत्तरुत्तरविसेससामण्णत्थावग्गहेसु जाव मेरया धावइ ताव मेधा भण्णइ।
(नन्दी ४३ चू पृ ३६) मेधावी १. सूत्र और अर्थ का ग्रहण करने वाली पटु मति से सम्पन्न । २. पूर्व अधीत सूत्र और अर्थ को धारण करने वाली मति से सम्पन्न। ३. आचारविषयक मर्यादा की मति से सम्पन्न । ४. सत् और असत् का विवेक रखने वाला, श्रुतसम्पन्न मुनि। ५. विवेकसम्पन्न, मर्यादावान्, सम्पूर्ण समाधि के गुणों को जानने वाला मुनि। उग्गहण धारणाए, मेरए चेव होइ मेधावी। तिविहम्मि अहीकारो, मेरासंजुत्तो मेहावी॥
___(बृभा ७५९) मेधावी सदसद्विवेकः सश्रुतिकः। (सूत्र १.७.६ वृ प १५६) मेधावी-विवेकी मर्यादावान वा सम्पर्णसमाधिगणं जानानः।
(सूत्र १.१०.९ वृ प १९२) ६. जो अरति का निवर्तन करता है, संयमपथ को स्वीकार कर उसमें रमण करता है। अरइं आउट्टे से मेहावी।
(आ २.२७) ७. जो सत्य की आज्ञा (आगम और सूक्ष्म पदार्थ-परिज्ञान) में उपस्थित होता है। सच्चस्स आणाए उवट्टिए से मेहावी"। (आ ३.६६)
मृषोपदेश स्थूलमृषावादविरमण व्रत का एक अतिचार।दूसरों को अनजान में अथवा कपटपूर्वक मिथ्या बात बतलाना। मुषोपदेशः-परेषामसत्योपदेशः सहसाकारानाभोगादिना व्याजेन वा।
(उपा १.३३ वृ पृ११) मेघचारण चारण ऋद्धि का एक प्रकार । इस ऋद्धि के द्वारा साधक जल के जीवों का उपघात किए बिना बादलों का आलम्बन लेकर
मेरु
(जं ४.६०) (द्र मन्दरपर्वत) मैत्री भावना
। दुःख न हो-इस प्रकार की भावना।
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(उ २८.१४ शावृप ५५५)
अष्टविधकर्मोच्छेदः। (द्र निर्वाण)
मा कार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत कोऽपि दुःखितः। मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते॥ (योशा ४.११८) परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री। (तवा ७.११.१) २. दूसरों के हित का चिन्तन। मैत्री परेषां हितचिन्तनं यद् । (शाभा १३ श्लोक ३) मैथुन आश्रव वेदमोह के उदय से कर्म को आकर्षित करने वाली आत्मा की अवस्था।
(स्था ५.१२८) मिथन सेवै तिण नै कह्यो जी, मिथुन चोथो आसव जाण। आय लागै तिकै अशुभ कर्म छै जी, सात आठ दुखखाण॥
(झीच २२.१०)
मोक्षपथ जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, उनको जानना ज्ञान है और राग आदि का परिहार करना चारित्र है-यही मोक्षपथ है। जीवादीसदहणं, सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं। रायादीपरिहरणं, चरणं एसो द मोक्खपहो।
(ससा १५५) मोक्षमार्ग सम्यक् दर्शन (आठ आचार वाला), सम्यक् ज्ञान (आगमस्वाध्याय) और सम्यक् चारित्र का समुच्चय। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। (तसू १.१)
मोह
मैथुन पाप पापकर्म का चौथा प्रकार । वासनात्मक प्रवृत्ति से बंधने वाला अशुभ कर्म।
(आवृ प ७२) मैथुन पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मैथुन में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, मेथुन सेवै को अयाण।। तिण कर्म ने कहियै सही जी, मिथुन चोथो पापठाण ।।
(झीच २२.९) मैथुनविरमण चतुर्थ महाव्रत। मैथुन के परित्याग से होने वाली विरति। मिथुनं-स्त्रीपुंसद्वन्द्वं तस्य कर्म मैथुनं तस्माद विरमणम्।
(स्था १.११२ वृ प २७७) (द्र सर्वमैथुनविरमण) मैथुनसंज्ञा वेदमोहनीय कर्म के उदय से होने वाला वासनात्मक संवेदन। पुंवेदोदयान्मैथुनाय स्त्र्यालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपनप्रभृतिलक्षणक्रिया मैथुनसञ्ज्ञा।
(प्रज्ञा ८.१ १ प २२२) मोक्ष नौ तत्त्वों में एक तत्त्व। समस्त कर्मों का क्षय कर अपने आत्मस्वभाव में रमण करना। क्षायिकभाव एवात्मनो मुक्तत्वलक्षणो मोक्षः।"मोक्षः
१. चेतना की रागद्वेषात्मक परिणति। रागद्वेषपरिणतिर्मोहः।
(जैसिदी ९.७) २. मोहवेदनीय के उदय से होने वाला अज्ञानात्मक परिणाम। मोहनं वा मोहः, मोहवेदनीयकापादितोऽज्ञानपरिणाम एव।
(पंचसूवृ पृ १) मोहोणाम अन्नाणं।
(आवचू १ पृ २१२) मोहचिकित्सा परिश्रम, आतप-सहन, सेवा आदि के द्वारा मोह का निग्रह करना। निर्विकृतिक, उपवास, स्थान (खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना), देशाटन, अध्ययन-अध्यापन आदि उपायों के द्वारा मोहोदय (कामवासना) का शमन करना। 'मोहचिकित्सा च' परिश्रमाऽऽतपवैयावृत्त्यादिभिर्मोहस्य निग्रहः कृतो भवति।
(बृभा ५३०१७) निव्विति ओम तव वेय, वेयावच्चे तधेव ठाणे य। आहिंडणा य मंडलि..
(व्यभा १६०१) मोहनीय कर्म १. वह कर्म, जो दर्शन और चारित्र को विकृत कर चेतना को मूढ बनाता है। दर्शनचारित्रयोर्विकारापादनाद मोहयति आत्मानमिति मोहनीयम्।
(जैसिदी ४.३ ७)
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२. वह कर्म, जो चेतना को
विकल करता है।
सदसद्विवेकविकलं करोति आत्मानमिति मोहनीयम् ।
सद् और असद्
विवेक से
(प्रज्ञा २३.१ वृ प ४५४)
मोही भावना
संक्लिष्ट भावना का चौथा प्रकार । आत्महत्या आदि की भावना से भावित चित्त वाले व्यक्ति का व्यवहार और आचरण । सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं च जलप्पवेसो य । अणायारभंड सेवा, जम्मणमरणाणि बंधंति ॥ (उ ३६.२६७)
मौखर्य
अनर्थदण्डविरमण व्रत का एक अतिचार । धृष्टतापूर्ण मिथ्या
और असम्बद्ध प्रलाप करना ।
मौखर्यं धार्यप्रायमसत्यासम्बद्धप्रलापित्वमुच्यते ।
(उपा १.३९ वृ पृ १७)
मौशली
प्रतिलेखना का एक दोष । प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे, तिरछे किसी वस्त्र या पदार्थ से संघट्टित करना । 'मोसलि' त्ति तिर्यगूर्ध्वमधो वा घट्टना ।
( उ २६.२६ शावृ प ५४१ )
प्रक्षित
एषणा दोष का एक प्रकार। दान देते समय आहार, चम्मच या देने वाले का हाथ आदि पृथ्वी, पानी, वनस्पति रूप किसी सचित्त वस्तु से छू जाने पर भी भिक्षा ले लेना । शुष्केन सरजस्केनातीवश्लक्ष्णतया भस्मकल्पेन यद्देयं हस्तः पात्रं वा प्रक्षितं आर्द्रेण वा । (पिनिवृ प ९६ )
म्लेच्छ
वे लोग, जो अव्यक्त - अस्फुट बोलते हैं। जिनका कहा हुआ आर्य लोग नहीं समझ पाते ।
मिलक्खूव्वत्तभासी ॥ ( निभा ५७२८) 'मिलेक्खु य'त्ति म्लेच्छा -- अव्यक्तवाचो, न यदुक्तमार्यैरवधार्यते, ते च शकयवनशबरादिदेशोद्भवाः, येष्यवाप्यापि मनुजत्वं जन्तुरुत्पद्यते, एते च सर्वेऽपि धर्माधर्मगम्यागम्यभक्ष्याभक्ष्यादिसकलार्यव्यवहारबहिष्कृतास्तिर्यक्प्राया एव ।
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
( उ १०.१५ शावृ प ३३७ )
य
यक्ष
वानमंतर देव का पांचवां प्रकार। इस जाति का देव श्याम आभा वाला, गंभीर और विशाल उदर वाला होता है, जिसका दर्शन प्रिय और शरीर मान- उन्मान प्रमाण युक्त होता है, उसके हाथ, पैर, नख, तालु, जिह्वा तथा ओष्ठ रक्तिम होते हैं, वह भास्वर मुकुट और नाना रत्नजटित आभूषणों को धारण करता है । उसका चिह्न है वटवृक्ष ।
यक्षाः श्यामावदाता गम्भीरास्तुन्दिला वृन्दारका: प्रियदर्शना मानोन्मानप्रमाणयुक्ता रक्तपाणिपादतलनखतालुजिह्वोष्ठा भास्वरमुकुटधरा नानारत्नविभूषणा वटवृक्षध्वजाः । (तभा ४.१२ वृ)
यतनावरणीय कर्म
वीर्यान्तराय कर्म का एक प्रकार । संयमसाधना में किये जाने वाले प्रयत्नों चारित्राराधना के विशेष प्रयोगों में विघ्न पैदा करने वाला कर्म ।
'जयणावरणिज्जाणं' ति, इह तु यतनावरणीयानि चारित्रविशेषवीर्यान्तरायलक्षणानि मन्तव्यानि । ( भग ९.१८ वृ)
यतिधर्म
उत्तमक्षमा आदि दशविध धर्म, जो अनगार द्वारा आचरणीय है ।
दशप्रकारो यतिधर्मः । उत्तमा गुणा मूलोत्तराख्यास्तेषां प्रकर्षः - पराकाष्ठा तद्युक्तोऽनगाराणां धर्मो भवति । (तभा ९.६ वृ)
(द्र श्रमणधर्म )
यत्रतत्रानुपूर्वी
पूर्वी का एक प्रकार । अनुलोमप्रतिलोमक्रम, तदुभयक्रम । (द्र अनानुपूर्वी) आणुव्वी तिविहा ।
...तं जहा - पुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुव्वी, जत्थतत्थाणुपुवी चेदि ।' जत्थ वा तत्थ वा अप्पणो, इच्छिदमादिं कादूण गणणा जत्थतत्थाणुपुवी होदि । (कप्रा पृ २८)
यथाकृत
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गृहस्थ द्वारा अपने लिए पकाया हुआ भोजन आदि, जो मुनि के कालातीत है, ग्राह्य है। अहागडेसुरीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा॥ 'यथाकृतेषु' आत्मार्थमभिनिर्वर्तितेष्वाहारादिषु।
(द १.४ हावृ प ७२) यथाख्यात चारित्र चारित्र का एक प्रकार। जब क्रोध, मान, माया और लोभ सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्रिक स्थिति। अहसदो जाहत्थे, आडोऽभिविहीए कहियमक्खायं। चरणमकसायमुदितं, तमहक्खायं जहक्खायं॥
(विभा १२७९ )
येनाध्यवसायेन दुर्भेद्यरागद्वेषात्मकग्रन्थिसमीपं गच्छति, स यथाप्रवृत्तिकरणम्।
(जैसिदी ५.८ वृ) यथाभद्रक सुलभबोधि वाला, जो सम्यक्त्व से रहित है किन्तु जिनशासन
और साधुओं के प्रति बहुमान रखने वाला है। 'यथाभद्रकः' सम्यक्त्वरहितः परं सर्वज्ञशासने साधुषु च बहुमानवान्।
(बृभा १९२६ वृ)
यथाच्छन्द शिथिलाचारी श्रमण का एक प्रकार वह मुनि, जो आगमनिरपेक्ष होकर स्वच्छन्द मति से जीवन-यापन करता है और स्वच्छन्दता का प्रज्ञापन करता है। उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो। एसो उ अधाछंदो, इच्छाछंदो त्ति एगट्ठा।
(व्यभा ८५२) सूत्रादूर्ध्वमुत्तीर्णं परिभ्रष्टमित्यर्थः उत्सूत्रं तदाचरन्-स्वयं सेव- मानः उत्सूत्रमेव च यः परेभ्यः प्रज्ञापयन् वर्तते एष यथाच्छन्दः।
(प्रसा १०३ वृप २७)
यथायु वह आयुष्य, जो बीच में त्रुटित नहीं होता, अकाल मृत्यु नहीं होती। यह आयुष्य देव, नैरयिक, असंख्येय वर्ष आयु वाले तिर्यंच, मनुष्य, उत्तम पुरुष (त्रिषष्टिशलाकापुरुष) तथा चरमशरीरी मनुष्य के होता है। दो अहाउयं पालेंति, तं जहा-देवच्चेव, णेरइयच्चेव।
(स्था २.२६६) यथाबद्धमायुर्यथायुः पालयन्ति-अनुभवन्ति नोपक्रम्यते तदिति यावदितिदेवा नेरइयावि, य असंखवासाउया य तिरिमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा य निरुवकमा॥
(स्थावृ प ६३) यथायुर्निर्वृत्तिकाल नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य अथवा देवों ने जितना और जैसा आयुष्य बांधा है, वह है-यथायुर्निवृत्तिकाल। अहाउनिव्वत्तिकाले-जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं ।
(भग ११.१२६)
यथाप्रवृत्त अवधि वह अवधिज्ञान, जो किसी गुण (चारित्र)-प्रतिपत्ति के बिना मेघाच्छन्न आकाश के किसी छिद्र से आने वाली रविरश्मि की भांति क्षयोपशम मात्र से उत्पन्न होता है। गुणमंतरेण जहा गगणब्भच्छादिते अहापवत्तितो छिद्देणं दिणकरणकिरण व्व विणिस्सिता दव्वमुजोवंति तहाऽवधिआवरणखयोवसमे अवधिलंभो अधापवत्तितो विण्णेतो।
(नन्दीचूपृ १५) यथाप्रवृत्ति करण सम्यक्त्व-प्राप्ति की प्रक्रिया का एक अंग। अनादिकालीन रागद्वेषात्मक ग्रंथि का भेदन करने की स्थिति के परिपार्श्व में होने वाला अध्यवसाय।
यथालन्दचारी सतत अप्रमाद की साधना करने वाला मुनि।
(बृभा १४३८ वृ पृ ४३०) (द्र यथालन्दिक)
यथालन्दिक यथालन्दचारी मुनि, जो पांच अहोरात्र तक एक वीथि में रहते हैं, वहीं भिक्षाचर्या करते हैं, उत्कृष्ट लंद (पंचरात्र) का अतिक्रमण नहीं करते। लंदो उ होइ कालो, उक्कोसगलंदचारिणो जम्हा
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.""उत्कृष्ट लन्दं-पञ्चरात्ररूपमेकस्यां वीथ्यां चरणशीला
(भग २५.२८२ वृ) यस्मात् ततोऽमी उत्कृष्टलन्दानतिक्रमो यथालन्दम्, तदस्त्येषाम्' इति व्युत्पत्त्या यथालन्दिका उच्यन्ते।
यथासूक्ष्मबकुश (बृभा १४३८ वृ पृ ४३०)
बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो प्रकट या तिविहं च अहालंदं, जहन्नयं मज्झिमंच उक्कोसं।
अप्रकट में शरीर आदि की सूक्ष्म विभूषा करता है-आंख उदउल्लं च जहण्णं, पणगं पुण होइ उक्कोसं॥
और मुंह का प्रमार्जन करता है। (बृभा ३३०३)
किञ्चित्प्रमादी अक्षिमलाद्यपनयन् वा यथासूक्ष्मबकुशः। (द्र लन्द)
(स्था ५.१८६ वृप ३२०) यथासूक्ष्मकषायकुशील
यदृष्ट आलोचना कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो मानसिक आलोचना का एक दोष। आचार्य आदि के द्वारा जो दोष स्तर पर क्रोध आदि का आसेवन करता है।
देखा गया है, मात्र उसी की आलोचना करना। मणसा कोहाईए, निसेवयं होइ अहसुहुमो॥
'जं दिटुं' ति यदेव दृष्टमाचार्यादिना दोषजातं तदेवालोचयति (भग २५.२८३ वृ) नान्यं दोषम्।
(स्था १०.७० वृ प ४६०) यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ
यन्त्रपीडनकर्म निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थ) का एक प्रकार। अन्तमुहुर्त की स्थिति
कर्मादान का एक प्रकार । कोल्हू में ईख, तिल आदि को वाले उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह गुणस्थान के प्रथम या
पेरना तथा शिला, ऊखल, मसल आदि का व्यवसाय। अन्तिम समय की अपेक्षा किए बिना सामान्य रूप से सभी
'जंतपीलणकम्मे' त्ति यन्त्रेण तिलेक्ष्वादीनां यत्पीडनं तदेव
कर्म यन्त्रपीडनकर्म। समयों में वर्तमान मुनि।
(भग ८.२४२ वृ) णियंठे पंचविहे पण्णत्ते. तं जहा-पढमसमयणियंठे.
यमनीय अपढमसमयणियंठे, चरिमसमयणियंठे, अचरिमसमय
(भग १८.२०६) णियंठे, अहासुहुमणियंठे णामं पंचमे।
(द्र इन्द्रिययमनीय, नोइन्द्रिययमनीय) निर्ग्रन्थः क्षीणकषाय उपशान्तमोहो वा "अन्तर्मुहूर्तप्रमाणाया निर्ग्रन्थाद्धायाः प्रथमे समये वर्तमानः एकः शेषेसु द्वितीयः, यवमध्य अन्तिमे तृतीयः, शेषेसु चतुर्थः, सर्वेषु पञ्चम इति।
क्षेत्र-मापन का एक प्रकार। आठ यूका का एक यवमध्य (स्था ५.१८८ वृ प३२०) होता है।
(अनु ३९९)
(द्र यूका) यथासूक्ष्मपुलाक पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। प्रमादवश अकल्पनीय वस्तु यवमध्या चन्द्रप्रतिमा को ग्रहण करने का चिन्तन करने वाला अथवा कुछ-कुछ वह चन्द्रप्रतिमा, जिसमें प्रतिमाप्रतिपत्ता शुक्ल पक्ष की एकम अतिचारों का सेवन करने वाला।
को भक्त और पान की एक-एक दत्ति लेता है। तिथि-वृद्धि किञ्चित्प्रमादान्मनसाऽकल्प्यग्रहणाद्वा यथासूक्ष्मपुलाकः। के साथ-साथ एक दत्ति बढ़ती जाती है। पूर्णिमा को पन्द्रह (स्था ५.१८५ वृ प ३२०) दत्ति लेता है। कृष्णपक्ष की एकम को चौदह दत्ति और
क्रमश: चतुर्दशी को एक दत्ति और अमावस्या को उपवास यथासूक्ष्मप्रतिषेवणाकुशील
करता है। प्रतिषेवणाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो
जवमझण्णं चंदपडिम पडिवन्नस्स...."अमावासाए से य अपने तप आदि की प्रशंसा सुनकर तुष्ट होता है।
अभत्तद्वैभवइ।
(व्य १०.३) अहसुहुमो पुण तुस्से, एस तवस्सि त्ति संसाए।
यविक
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तओ जामा पण्णत्ता, तं जहा-पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे।
(स्था ३.१६१) २. महाव्रत। (द्र चातुर्याम, पञ्चयाम)
यावत्कथिक अनशन आजीवन किया जाने वाला अनशन। आवकहियं-जावज्जीविगं।
(दअचू पृ१२)
पूर्वगत श्रुत का एक विभाग, जिसमें आयुश्रेणि प्रतिपादित है। इसमें एकाग्र होकर पूर्वधर मुनि मनुष्य, देव आदि का आयुष्य जान लेते हैं। जविएहिं किर भणिया आऊसेढी, तत्थ उवउत्ता आयरिया जाव पेच्छंति आउं वरिससतमहियं दो तिन्नि वा""जाव दो सागरोवमाइं ठिती...। (आवहावृ१ पृ २०६) यशःकीर्तिनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव को यश
और कीर्ति प्राप्त होती है। सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यशः एकदेशगामिनी पुण्यकृता वा कीर्त्तिः ते यदुदयवशाद्भवतस्तद्यशःकीर्त्तिनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७५) याचना परीषह परीषह का एक प्रकार । धर्मयात्रा के निर्वाहार्थ याचना करने में अनुभव होने वाली दीनता, जो मुनि के द्वारा सहनीय है। दुक्करं खलु भो! निच्चं, अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वं से जाइयं होइ, नस्थि किंचि अजाइयं॥ गोयरग्गपविट्ठस्स, पाणी नो सुप्पसारए। सेओ अगारवासु त्ति, इइ भिक्खू न चिंतए॥
(उ २.२८,२९)
याचनी असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार। याचना के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा, जैसे-मुझे वह वस्तु दो। याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति मार्गणम्।
(प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९) यात्रा तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान, आवश्यक आदि योगों में होने वाली प्रवृत्ति। जं मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-झाणावस्सगमादीएसु जोगेसु जयणा, सेत्तं जत्ता। (भग १८.२०७)
यावत्कथिक परिहारविशुद्धिक वह मुनि, जो परिहारविशुद्धि की साधना के अनन्तर जिनकल्प को स्वीकार करता है। ये पुनः कल्पसमाप्त्यनन्तरमव्यवधानेन जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते यावत्कथिकाः।
(प्रज्ञावृ प ६८) यावत्कथिकसामायिकचारित्र यावज्जीवन की अवधि वाला सामायिक चारित्र। मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय में होने वाला चारित्र। 'आवकहिए य'त्ति यावत्कथिकस्य भाविव्यपदेशान्तरायभावात् यावज्जीविकस्य सामायिकस्यास्तित्वाद्यावत्कथिकः स च मध्यमजिनमहाविदेहजिनसंबंधी साधुः ।
(भग २५.४५४ वृ) यावन्तिका वह भोजन, जो किसी नाम-निर्देश के बिना सभी भिक्षाचरों के लिए बनाया जाता है। वह मुनि के लिए अग्राह्य है। यावन्तो भिक्षाचरा आगमिष्यन्ति तावतां दातव्यम् इत्यभिप्रायेण यस्यां दीयते, सा यावन्तिका।
(बृभा ३१८४ वृ) युग १. क्षेत्र-मापन का एक प्रकार। छियानवे अंगुल का एक युग, दण्ड, धनुष, नालिका, अक्ष अथवा मुसल होता है। छन्नउई अंगुलाई से एगे दंडे इ वा धणू इ वा जुगे इ वा नालिया इ वा अक्खे इ वा मुसले इ वा॥ (अनु ४००) २. पांच वर्ष का कालमान। . पंचेहिं वच्छरेहिं जुगं॥
(त्रिप्र ४.२८९) युगदोष कायोत्सर्ग का एक दोष । जुए से पीडित बैल की भांति गर्दन
याम
१. अवस्था का सूचक पद, जैसे-प्रथम याम आठ से तीस वर्ष तक, मध्यम याम तीस से साठ वर्ष तक, पश्चिम याम साठ से अग्रिम वय। जामो त्ति वा वयो त्ति वा एगट्ठा। (आचू प २४४)
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फैलाकर कायोत्सर्ग करना।
चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा-कडजुम्मे, तेयोए, यो युगनिपीडितबलीवर्दवत ग्रीवां प्रसार्य तिष्ठति कायोत्सर्गेण दावरजुम्मे, कलिओए।
(स्था ४.३६४) तस्य युगदोषः।
(मू ६७० वृ)
यूका युगलक
क्षेत्र-मापन का एक प्रकार। आठ लिक्षा की एक यूका होती वह युगल (मिथुनक), जिसका जन्म एक साथ होता है। और मृत्यु भी एक साथ होती है तथा जिसके जीवननिर्वाह ...."अट्ठ भरहेरवयाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा, का साधन है कल्पवृक्ष।
(जं २.४९) अट्ठलिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ठ जूयाओ से एगे जवमझे, (द्र यौगलिक)
अट्ठ जवमज्झा से एगे उस्सेहंगुले॥ (अनु ३९९)
(द्र बालाग्र) युगसंवत्सर संवत्सर का एक प्रकार। पांच संवत्सरों का एक युगसंवत्सर
योग होता है। इसमें तीन चन्द्रसंवत्सर और दो अभिवर्द्धित संवत्सर १. समाधि-वह प्रणिधान, जिसके द्वारा निरवद्य क्रिया होते हैं।
विशेष का अनुष्ठान किया जाता है। जुगसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-चंदे, चंदे,
निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं सयोगः समाधिः, सम्यक्अभिवड्डिते, चंदे, अभिवड्डिते चेव। (स्था ५.२११)
प्रणिधानमित्यर्थः।
(तवा ६.१२) युगं पञ्चसंवत्सरम्।
(आवहावृ १ पृ १७२)
२. आत्मप्रदेशों का मानसिक, वाचिक और कायिक परिस्पन्दन। (द्र प्रमाणसंवत्सर, लक्षणसंवत्सर)
वीर्यान्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम से तथा शरीरनामकर्म के
उदय से निष्पन्न और शरीर, भाषा एवं मन की वर्गणा के युगान्तकरभूमि
संयोग से होने वाला शरीर, वचन एवं मन की प्रवृत्तिरूप युगप्रमित अन्तकर भूमि-समय, पुरुषान्तरभूमि । गुरु-शिष्य
आत्मा का परिणमन। प्रशिष्य आदि के रूप में होने वाली क्रमभावी परुषपरम्परा
जोगो णाम किं? मणवयणकायपोग्गलालंबणेण जीवको युग कहा गया है, जैसे--अर्हत् मल्लि के बीसवें पुरुषयुग
पदेसाणं परिफंदो।
(धव पु ७ पृ १७) अर्थात् बीसवीं शिष्यपरम्परा तक युगान्तकरभूमि रही-सिद्ध वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमशरीरनामकर्मोदयजन्यः कायहोने का क्रम चला। (ज्ञा १.८.२३३ वृ प १६१) भाषामनोवर्गणापेक्षः कायवाङ्मनःप्रवृत्तिरूपः आत्मअंतकरभूमि त्तिभूमी–कालो, सो दुविधो-पुरिसं- परिणाम: योगोऽभिधीयते। (जैसिदी ४.२५ ७) तकरकालो य परियायतकरकालो य। जाव अज्जजंबुणामो ३. करना, कराना, अनुमोदन करना। ताव सिवपहो, एस जुगंतकरकालो"। ततिए पुरिसजुगे ..."जोगं न करेमिच्चाइ सावजं॥ जुगंतकरभूमी।
(दशाचू प ६५) योगं न करोमीत्यादि संबध्यते-नकरेमि, नकारवेमि, करतं (द्र पर्यायान्तकरभूमि)
पि अण्णं ण समणुजाणामि। (विभा ३५२९ वृ) युग्म
योग-अप्रमत्त १. सम संख्या वाली राशि, जैसे-कृतयुग्म और द्वापर। १. जो मनोगुप्ति, वाग्गुप्ति, कायगुप्ति से गुप्त है। २. राशि-विशेष, जिसमें से चार-चार घटाने पर शेष चार, २. जो अकुशल मन-वचन-काययोग से निवर्तन और कुशल तीन या दो रहे अथवा एक शेष रहे।
मन-वचन-काययोग में प्रवर्तन करता है। ""जुम्म त्ति इह गणितपरिभाषया समो राशिर्युग्ममुच्यते ३. जो इन्द्रियविषयों में आसक्त नहीं है। विषमस्त्वोजः । द्वौ राशी युग्मशब्दवाच्यौ।।
जोगअप्पमत्तो मणवयणकायजोगेहिं तिहिं व गुत्तो। अहवा
(भग १८.८९७) अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं वा, मणसो वा .."चत्वारोऽष्टौ द्वादशेत्यादिसंख्यावान् राशिः क्षुल्लकः एगत्तीभावकए। एवं वइए वि, एवं काए वि। तहा इंदिएसु कृतयुग्मोऽभिधीयते।
(भग ३१.१ ७) सोइंदियविसयपयारनिरोहो वा सोइंदियविसयपत्तेसु वा
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अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो। (आवचू २ पृ १३४, १३५) । योग आत्मा आत्मा का मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्त्यात्मक पर्याय। योगा--मनःप्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधान आत्मा योगात्मा।
(भग १२.२०० वृ) योग आस्रव मन, वचन, काया की प्रवृत्ति से होने वाला कर्म का आकर्षण।
(स्था ५.१०९) योगपिण्ड उत्पादन दोष का एक प्रकार। पादलेप, सौभाग्यवर्धक द्रव्यसंघात का प्रयोग कर भिक्षा लेना। योगः पादलेपादिः सौभाग्यादिकरः। (प्रसा ५६७ उव) (द्र चूर्णपिण्ड) योगप्रमत्त १. जो मन, वचन और काय से दुष्प्रणिहित है। २. जो इन्द्रियविषयों में आसक्त है। ३. जो ईर्या आदि समितियों से समित नहीं है तथा शुद्ध आहार, उपधि और स्थान के ग्रहण में जागरूक नहीं है। जोगप्पमत्तो मणदुप्पणिहाणेणं वइदुप्पणिहाणेणं कायदुष्पणिहाणेणं, तथा इंदियेसु सद्दाणुवाती रूवाणुवाती" तथा इरियासमितादीसु पंचसु वि असमितो भवति, तहा आहारउवहिवसहिमादीणि उग्गमउप्पादणेसणाहिं अणुवउत्तो गेण्हति।
(आवचू २ पृ १३४) योगमुद्रा १. दोनों हाथों को कमलकोश के आकार में स्थापित कर तथा अंगुलियों में परस्पर अन्तराल रखकर दोनों कोहनियों को नाभि के पास संस्थित करने का नाम योगमुद्रा। अण्णोण्णंतरिअंगुलिकोसाकारेहिं दोहिं हत्थेहिं। पिट्ठोवरिकोप्परसंठिएहि तह जोगुमुद्दत्ति॥
(पञ्चा ११३) अन्नुन्नंतरिअंगुरलिको सागरेहिं दोहिं हत्थेहिं। पिट्टोवरि कुप्परसंठिएहिं तह जोगमुद्दत्ति॥
(चैत्यवन्दन भा १५) २. पद्मासन आदि में से किसी एक आसन में स्थित होकर
नाभि के नीचे ऊपर की ओर हथेली करके दोनों हाथों को ऊपर नीचे रखना। जिना: पद्मासनादीनामङ्कमध्ये निवेशनम्। उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे॥
(अमिश्रा ८.५५) योगवान् १. वह मुनि, जो एकाग्रमन वाला होता है। योगः-समाधिः सोऽस्यास्तीति योगवान्।
__(उ ११.१४ शावृ प ३४७) २. वह मुनि, जो समितियों और गुप्तियों के प्रति सतत उपयुक्त, निरन्तर जागृत होता है। योगवानिति समिति-गुप्तिषु नित्योपयुक्तः, स्वाधीनयोग इत्यर्थः।
(सूत्र १.२.११ चू पृ ५४,५५) योगवाहिता श्रुतोपधानकारिता, योगवहन करने वाले मुनि की विशिष्ट चर्या, श्रुत के अध्ययन के साथ की जाने वाली तपस्या। योगवाहितया-श्रुतोपधानकारितया, योगे वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही, तद्भावस्तत्ता तया"।
(स्था १०.१३३ वृ प ४८७) (द्र योगवाही) योगवाही वह मुनि, जो आगमों के अध्ययनकाल में विकृतियों यानी प्रणीत और गरिष्ठ भोजन का वर्जन करता है। आगाढमणागाढे, दुविधे जोगे य समासतो होति।"
(निभा १५९४) निक्कारणे न कप्पंति, विगतीओ जोगवाहिणो। कप्पंति कारणे भोत्तुं, अणुण्णाया गुरूहि य॥
(व्यभा २१४२) योगसंग्रह प्रशस्त व्यापाररूप बत्तीस योगों का संग्रह, जिसमें समाधि के सूत्रों का संग्रह किया गया है। प्रशस्तयोगसंग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते।
(सम ३२.१ वृप ५४) योगाना-प्रशस्तव्यापाराणां संग्रहाः योगसंग्रहाः।
(प्रश्न १०.१ ७ प १४६)
योग सत्य
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१. मन, वचन और काया की अवितथ - यथार्थ प्रवृत्ति, परमार्थ के अनुकूल प्रवृत्ति ।
योगाः - मनोवाक्कायास्तेषां सत्यम् - अवितथत्वं योगसत्यम् । (उ२९.५३ शावृ प ५९१ ) २. सत्य का एक प्रकार। किसी वस्तु के संयोग के आधार पर व्यक्ति को संबोधित करना, जैसे-दण्ड धारण करने वाले को दण्डी कहना । 'जोगे' त्ति योगतः - संबन्धतः सत्यं योगसत्यं, यथा दण्डयोगाद् दण्डः, छत्रयोगाच्छत्र एवोच्यते ।
(स्था १०.८९ वृ प ४६५)
योगहीन
ज्ञान का एक अतिचार संबंधरहित उच्चारण करना । सम्यगकृतयोगोपचारम् । (आव ४.८ हावृ पृ १६१ )
योग्य
बंध से पूर्व होने वाली कर्म की एक अवस्था । वह कर्मपुद्गल, जो बंधपरिणाम के अभिमुख होता है।
योग्या बन्धपरिणामाभिमुखाः ।
(विभा २९६२ वृ)
योजन
चार कोस के बराबर का एक माप अथवा ७.८८ माइल ।
(स्था ८.६२ वृ प ४१२ ) ( अनु ४०० )
1
चत्तारि गाउयाइं जोयणं ।
योनि
उत्पत्तिस्थान, जहां एक शरीर का नाश होने पर नए शरीर की रचना के लिए जिन पुद्गलों का ग्रहण और कार्मण शरीर के साथ मिश्रण होता है।
अयमात्मा पूर्वभवशरीरनाशे तदनुशरीरान्तरप्राप्तिस्थाने यान् पुद्गलान् शरीरार्थमादत्ते तान् कार्मणेन सह मिश्रयति तप्तायस्पिण्डाम्भोग्रहणवच्छरीरनिर्वृत्यर्थं बाह्यपुद्गलान् यस्मिन् स्थाने तत् स्थानं योनिः । (तभा २.३३ वृ)
योनिसंग्रह
प्राणियों की उत्पत्ति के स्थानों का संग्रह, जैसे- अण्डज, पोतज, जरायुज आदि । (स्था ८.२)
यौगलिक
निरुपक्रम आयुष्य वाले मनुष्ययुगल और तिर्यंचयुगल, जो
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असंख्यवर्षजीवी होते हैं, छह माह की आयु शेष रहने पर एक युगलक का प्रसव करते हैं तथा मृत्यु के पश्चात् देवलोक में उपपन्न होते हैं।
असंख्येयवर्षायुषो निरुपक्रमायुषः ॥" असंख्यवर्षायुषः - यौगलिका नरास्तिर्यञ्चश्च । (जैसिदी ७.३१ वृ)
...ते णं मणुया छम्मासावसेसाउया जुयलगं पसवंति कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववज्र्ज्जति। (जीवा ३.६३०) महाशरीरा हि देवकुर्व्वादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण । (भग १.८७ वृ)
(द्र युगलक )
रचित
पिण्डैषणा का एक दोष । साधु के निमित्त कांस्यपात्र आदि के मध्य में आहार रखकर उसके परिपार्श्व में नाना प्रकार के व्यञ्जन स्थापित करना ।
रचितं नाम संयतनिमित्तं कांस्यपात्रादौ मध्ये भक्तं निवेश्य पार्श्वेषु व्यञ्जनानि बहुविधानि स्थाप्यन्ते ।
(व्यभा १५२० वृ)
जोहरण
साधु का एक आवश्यक उपकरण, जो ऊन या दूसरे कोमल से बना हुआ होता है तथा जिसका उपयोग प्रमार्जन के लिए किया जाता है।
आयाणे निक्खेवे ठाणनिसीयण तुयट्टसंकोए । पुव्वं पमज्जणट्ठा लिंगट्ठा चेव रयहरणं ॥
(ओनि ७११)
रज्जु
क्षेत्र का एक प्रमाण, जग श्रेणि का सातवां भाग, जिसका मान प्रमाणांगुल - प्रमित असंख्य योजन होता है । '''''जगसेढीए सत्तमभागो रज्जू पभासते । ( त्रिप्र १.१३२) का रज्जू णाम ? तिरियलोगस्स मज्झिमवित्थारो ।
(धव पु ३ पृ ३४)
रति
नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। जिसके उदय से सचित्त, अचित्त आदि बाहरी द्रव्यों में प्रीति पैदा होती है।
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यदुदयेन सचित्ताचित्तेषु बाह्यद्रव्येषु जीवस्य रतिरुत्पद्यते। "अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू। (अनु ३९९)
(स्था ९.६९ ७ प ४४५) (द्र बालाग्र) रतिअरति पाप
रम्यक वर्ष पाप कर्म का सोलहवां प्रकार। संयम में अरुचि और असंयम जम्बूद्वीप द्वीप का वह क्षेत्र, जो नील पर्वत से उत्तर में, में रुचि से होने वाला अशुभ कर्मबंध। (आवृ प७२) रुक्मी पर्वत से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में रतिअरति पापस्थान
और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है।
कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे रम्मए णामं वासे पण्णत्ते? वह कर्म, जिसके उदय से जीव की असंयम में रुचि तथा
गोयमा! णीलवंतस्स उत्तरेणं, रुप्पिस्स दक्खिणेणं, पुरस्थिमसंयम में अरुचि होती है।
(झीच २२.२२)
लवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स (द्र मान पापस्थान)
पुरस्थिमेणं।
(जं. ४.२६५) रत्नत्रय
रस तीन आध्यात्मिक रत्न-सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक
पदगल का एक लक्षण, जो रसनेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। चारित्र, जो मोक्ष की प्राप्ति में हेतु बनते हैं।
रसस्स जिब्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति। ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं ॥ (योशा १.१५)
(उ ३२.६२) सम्मईसणणाणं चरणं, मुक्खस्स कारणं जाणे।...
(द्र गन्ध) रयणत्तयं"।
(बृद्रसं ३९,४०)
रस गौरव रत्नप्रभा
१. स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों की प्राप्ति का अभिमान । नरक की प्रथम पृथ्वी (धर्मा) का गोत्र, जहां अनेक प्रकार ऋद्धिप्राप्त्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशभभावो"रसो के रत्न हैं और जो रत्नों की प्रभा से प्रभासित है।
रसनेन्द्रियार्थो मधुरादिः। (स्था ३.५०५ ७ प १६३) (देखें चित्र पृ ३४६)
२. इष्ट रस का त्याग न करना तथा अनिष्ट रस के प्रति एतासि णं सत्तण्डं पुढवीणं सत्त गोत्ता पण्णत्ता, तं जहा- अनादर का भाव रखना। रयणप्पभा, सक्करप्पभा, वालुअप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, अभिमतरसात्यागोऽनभिमतानादरश्च नितरां रसगौरवम्। तमा, तमतमा। (स्था ७.२४)
(भआ ६१२ विवृ) इंदनीलादिबहुविहरयणसंभवओ रयणप्पभादीसु क्वचित् रत्नप्रभासनसंभवाद्वा रयणप्रभा। (अनु २५४.३ चू पृ ३५)
रसज
छाछ, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले कृमि के आकार रत्नाधिक
वाले सूक्ष्म जीव। (प्रसा १०२ वृ)
रसाज्जाता रसजा:-तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्या(द्र रानिक)
कृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति। (द ४.९ हावृ प १४१) रथरेणु
रसनाम क्षेत्र-मापन का एक प्रकार, जो आठ त्रसरेणु के बराबर होता
नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के रस की
व्यवस्था होती है। उस्सेहंगुले अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा
रस्यते आस्वाद्यते इति रसः, स पञ्चधा-तिक्तकटुकषायापरमाणू तसरेण, रहरेणू अग्गयं च वालस्स।।
म्लमधुरभेदात्, तन्निबन्धनं रसनामापि पञ्चधायदुदयात् लिक्खा जूया य जवो, अट्ठगुण विवड्डिया कमसो॥
जन्तुशरीरेषु तिक्तो रसो भवति यथा मरिचादीनां तत्तिक्त(अनु ३९५.१) रसनाम, एवं शेषाण्यपि रसनामानि भावनीयानि।
(प्रज्ञा २३.४९ वृ प ४७३)
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कर्मादान का एक प्रकार । मद्य, मांस, दूध, दही आदि का विक्रय। 'रसवाणिज्जे'त्ति मद्यादिरसविक्रयः। (भग ८.२४२ ७)
रसनेन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (रसना) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा रस को ग्रहण करती है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात्""रसयत्यनेनात्मेति रसनेन्द्रियम्।
(तवा २.१९) रसनेन्द्रिय असंवर (आश्रव)
(स्था ५.१३८) (द्र जिह्वेन्द्रिय असंवर (आश्रव)) रसनेन्द्रियनिग्रह
(स्था ५.१३८) (द्र जिह्वेन्द्रियनिग्रह) रसनेन्द्रिय प्रत्यक्ष
(नन्दीचू पृ १४) (द्र जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष) रसनेन्द्रियप्राण वह प्राण, जो चखने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६)
रसविपाक वह कर्म-प्रकृति, जिसका विपाक मंद अथवा तीव्र रस के अनुरूप होता है। रसं मुख्यीकृत्य विपाको निर्दिश्यमानो यासांता: रसविपाकाः।
(कप्र पृ ३७) रसविवर्जन बाह्य तप का एक प्रकार । रसों का विवर्जन करना। खीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं। परिवजणं रसाणं तु, भणियं रसविवजणं॥
(उ ३०.३६) (द्र रसपरित्याग)
राक्षस वानमन्तर देव का छठा प्रकार। इस जाति का देव विमल आभा वाला, भयानक आकृति वाला, विशाल शिर वाला, लम्बे और लाल होंठ वाला, स्वर्णाभूषण पहनने वाला, नाना प्रकार के विलेपन करने वाला होता है। उसका चिह्न हैखट्वांग-सोटा या लकड़ी, जिसके सिर पर खोपड़ी जड़ी हो। राक्षसा अवदाता भीमा भीमदर्शनाः शिरःकराला रक्तलम्बौष्ठाः तपनीयविभूषणा नानाभक्तिविलेपनाः खट्वाङ्गध्वजाः।
(तभा ४.१२)
रसनेन्द्रियरागोपरति
(स्था ५.१३७) (द्र जिह्वेन्द्रियरागोपरति) रसनेन्द्रिय संवर
(स्था ५.१३७) (द्र जिह्वेन्द्रिय संवर) रसपरित्याग बाह्य तप का एक प्रकार। घी, दूध, दही आदि रसोंविकृतियों का परित्याग करना, आयंबिल आदि करना। से किं तं रसपरिच्चाए ? रसपरिच्चाए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-निव्विइए, पणीयरसपरिच्चाए, आयंबिलए, आयामसित्थभोई, अरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे, लूहाहारे। से तं रसपरिच्चाए।
(औप ३५) रसवाणिज्य
राग प्रीत्यात्मक जीवपरिणाम, जिसका माया और लोभ के रूप में संवेदन होता है, जैसे-दृष्टिराग, विषयराग, स्नेहराग। जं रायवेयणिज्जं समुइण्णं भावओ तओ राओ। सो दिट्ठि-विसय-नेहाणुरायरूवो अभिस्संगो॥ कुप्पवयणेसु पढमो बिइओ सद्दाइएसु विसएसु। विसयादनिमित्तो वि हु सिणेहराओ सुयाईसु॥
(विभा २९६४, २९६५) रागो विवागपच्चडयो: माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेदाणं दव्वकम्मोदय-जणिदत्तादो। (धव पु१४ पृ ११)
राग पाप
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पापकर्म का दसवां प्रकार। रागात्मक प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध।
(आवृ प७२) (द्र प्रेयस्पाप)
रिष्टा अधोलोक (नरक) की पांचवीं पृथ्वी का नाम ।
(स्था ७.२३) (द्र अञ्जना)
राग पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव राग में प्रवृत्त होता है।
(झीच २२.२२) (द्र मान पापस्थान)
राजपिण्ड अनाचार का एक प्रकार। मूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा लेना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिण्डो।
(द ३.३ अचू पृ६०)
राजप्रश्नीय उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें कुमार श्रमण केशी और राजा प्रदेशी का संवाद है।
(नन्दी ७७)
रात्निक आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु, जो दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हों अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में ज्येष्ठ हों। राइणिएस"आयरिओवज्झायादिसु सव्वसाधुसु वा अप्पणातो पढमपव्वतियेसु । रातिणिया पुव्वदिक्खिता।
(द ८.४० अचू पृ १९५) 'रत्नाधिकेषु' ज्ञानादिभावरत्नाभ्युच्छ्रितेषु।
(दहावृ प २५२,२५३) रत्नाधिकः-पर्यायज्येष्ठः ज्ञानदर्शनचारित्राधिको वा।
(प्रसा १०२ वृ) रात्रिभक्त अनाचार का एक प्रकार। रात्रि में आहार लेना एवं खाना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। यदनाचरितं... रात्रिभक्तं रात्रिभोजनम्।
(द ३.२ हावृ प ११६) राष्ट्रधर्म लोकधर्म का एक प्रकार। राष्ट्र की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता। राष्ट्रधर्मो-देशाचारः। (स्था १०.१३५ वृ प ४८९)
रुक्मी वह वर्षधर पर्वत, जो रम्यक वर्ष से उत्तर में, हैरण्यवत वर्ष से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है। यह रम्यक और हैरण्यवतइन दोनों के मध्य विभाजन-रेखा का काम करता है। रम्मगवासस्स उत्तरेणं, हेरण्णवयवासस्स दक्खिणेणं, पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते।
(जं ४.२६८) रम्यकहैरण्यवतयोर्विभक्ता रुक्मी। (तभा ३.११ वृ) रुचक प्रदेश १. तिरछे लोक के आठ आकाशप्रदेशों की एक विशिष्ट रचना, जहां से दस दिशाएं प्रवाहित होती हैं। (देखें चित्र पृ ३४१) एत्थ णं तिरियलोगमझे अट्ठपएसिए रुयए पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति। (भग १३.५०)
"क्षुल्लकप्रतरयोः"तत्र चोपरितने प्रतरे चत्वारः प्रदेशा गोस्तनवदितरत्रापि चत्वारस्तथैवेति।
(स्था १०.३० वृ प ४५५) .."वियत्प्रदेशाष्टकनिर्माणो रुचकश्चतुरस्राकृतिः।
(तभा ३.१० वृ पृ २५४) २. आठ केन्द्रीय आत्मप्रदेश। (द्र मध्यप्रदेश) रुचि १. शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र पुञ्ज की अवस्था में होने वाला तत्त्वों का श्रद्धान। शुद्धाशुद्धमिश्रपुञ्जत्रयरूपं मिथ्यात्वमोहनीयम् रुचिस्तु तदुदयसम्पाद्यं तत्त्वानां श्रद्धानम्।
(स्था ३.३९३ वृ प १४१) २. सम्यग्दर्शन । तत्त्व के प्रति आकर्षण। रुचिः-तत्त्वाभिलाषरूपा। (उशावृ प५६३)
शाला
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दसविधे सरागसम्मइंसणे पण्णत्ते, तं जहा-""धम्मरुई॥
(स्था १०.१०४)
लेकर किया जाने वाला ध्यान। सर्वमलापगतज्योतिर्मयात्मालम्बि रूपातीतम्। (मनो ४.२४)
रूक्ष १. स्पर्श का एक रूक्षतात्मक गुण। २. परमाणु की ऋणात्मक ऊर्जा । स्निग्धत्वं चिक्कणत्वलक्षण: पर्यायः, तद्विपरीतः परिणामो रूक्षत्वम्।
(तवा ५.३३.२) ३. संयम। रूक्षम्-संयमः।
(आभा ६.११०) (द्र स्निग्ध) रूक्षवृत्ति १. वह मुनि, जो संयम के अनुकूल प्रवृत्ति करता है। २. वह मुनि, जो रूक्ष भोजन की एषणा करता है। लूह-संजमो, तस्स अणुवरोहेण वित्ती जस्स सो लूहवित्ती।।
(द ८.२५ अचू पृ १९१) रूपपरिचारक ब्रह्मलोक और लान्तक कल्पवासी देव, जिनकी कामेच्छा देवी के दर्शन मात्र से शांत हो जाती है। दोसुकप्पेसुदेवा रूवपरियारगा पण्णत्ता, तं जहा-बंभलोगे चेव, लंतगे चेव।
(स्था २.४५८)
रूपानुपात देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार। संकल्पित देश के बाहर स्थित व्यक्ति को व्यापार आदि के लिए हाथ आदि से संकेत करना। अभिगृहीतदेशाद्वहिः प्रयोजनभावे शब्दमनुच्चारयत एव परेषां स्वसमीपानयनार्थं स्वशरीररूपदर्शनं रूपानुपातः।
__ (उपा १.४१ वृ पृ १९) मम रूपं निरीक्ष्य व्यापार-मचिरान्निष्पादयन्ति इति स्वविग्रहप्ररूपणं रूपानुपात इति निर्णीयते। (तवा ७.३१.४) रूपी मूर्त पदार्थ, जिसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श हो। रूपं-मूर्त्तता तदस्ति येषां ते रूपिणः। (भग ७.१२७ वृ) (द्र मूर्त) रोग परीषह परीषह का एक प्रकार । रोग से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। नच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्टिए। अदीणो थावए पण्णं, पुट्ठो तत्थहियासए॥ तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा, संचिक्खत्तगवेसए। एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे॥
(उ २.३२,३३)
रूप सत्य सत्य का एक प्रकार। किसी वेश विशेष के आधार पर किसी व्यक्ति को इस रूप में सम्बोधित करना, जैसे साधु का वेश देखकर किसी व्यक्ति को साधु कहना। 'रूवे त्ति' रूपापेक्षया सत्यं रूपसत्यं, यथा प्रपञ्चयति प्रवजितरूपं धारयन् प्रव्रजित उच्यते न चासत्यताऽस्य।
(स्था १०.८९ वृ प ४६५)
रोचक सम्यक्त्व वह सम्यक्त्व, जिसके होने पर व्यक्ति सद्-अनुष्ठान में श्रद्धा करता है, उसका आचरण नहीं करता। यत्तु सदनुष्ठानं रोचयत्येव केवलम्, न पुनः कारयति तद् रोचकम्।
(विभा २६७५ वृ)
रूपस्थ ध्यान संस्थान (आकृतिविशेष) का आलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान। संस्थानालम्बि रूपस्थम्।
(मनो ४.२३) रूपातीत ध्यान सर्वमलातीत, विशुद्ध आत्मा के अमूर्त स्वरूप का आलम्बन
रोमाहार रोमकूपों के द्वारा लिया जाने वाला आहार। "तयाय फासेण लोमआहारो। (सूत्रनि १७२)
रौद्र
परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। रौद्रकर्मकारी नरकपाल,
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विक्रिया ऋद्धि का एक प्रकार। इस ऋद्धि के द्वारा वायु से भी अधिक लघु (हल्के) शरीर का निर्माण किया जा सकता
वायोरपि लघुतरशरीरता लघिमा।
(तवा ३.३६)
जो क्रन्दन करते हए नैरयिकों को असि, शक्ति, भाला, तोमर, शूल, त्रिशूल, सूई आदि में पिरोते हैं। असि-सत्ति-कोत-तोमर-सूल-तिसूलेसु सूइयग्गेसु। पोयंति कंदमाणे, रुद्दा खलु तत्थ नेरइए॥
(सूत्रनि ७२) रौद्रध्यान हिंसा, असत्य, चोरी और विषयभोगों की रक्षा के निमित्त होने वाली एकाग्रता। हिंसाऽनुतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रम। (तभा ९.३६)
लक्षण १. अष्टाङ्गमहानिमित्त का एक प्रकार। श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, कलश आदि चिह्नों के आधार पर ऐश्वर्य आदि का ज्ञान करने वाली विद्या। श्रीवृक्षस्वस्तिक,गारकलशादिलक्षणवीक्षणात् त्रैकालिक स्थानमानैश्वर्यादिविशेषज्ञानं लक्षणम्। (तवा ३.३६) २. वह धर्म, जो एक वस्तु को दूसरी वस्तुओं से पृथक् करता है। व्यवच्छेदकधर्मो लक्षणम्।
(भिक्षु १.५)
लघुत्व हिंसा आदि पापाचरण की विरति से होने वाला जीव का हल्कापन। पाणाइवायवेरमणेणं मुसावायवेरमणेणं अदिण्णादाणवेरमणेणं मेहुणवेरमणेणं परिग्गहवेरमणेणं कोह-माण-मायालोभ-पेज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवायअरतिरति-मायामोस-मिच्छादसणसल्ल-वेरमणेणं""जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति।
(भग १२.४२) लघु प्रायश्चित्त उदघातिक प्रायश्चित्त । काल से वर्षा व हेमंत ऋत तथा तप से निर्विकृति से षष्ठभक्त पर्यन्त तप लघु प्रायश्चित्त है। (द्र गुरु प्रायश्चित्त) लघुभूतकामी १. जो स्वयं को लघुभूत (हल्का) करने की कामना करता
लक्षणसंवत्सर लक्षणों से जाना जाने वाला संवत्सर, जो पांच प्रकार का होता है-नक्षत्र, चन्द्र, कर्म (ऋतु), आदित्य और अभिवर्धित संवत्सर।
(स्था ५.२१३) (द्र प्रमाणसंवत्सर, युगसंवत्सर)
लक्षणाभास जो लक्षण नहीं है, पर लक्षण जैसा प्रतीत होता है। अतत् तदिव आभासते इति तदाभासः। (भिक्षु १.६ वृ) । लगण्डशायी कायक्लेश का एक प्रकार । भूमि पर सीधे लेटकर लकुट की भांति एड़ियों और सिर को भूमि से सटाकर शरीर के शेष भाग को ऊपर उठाकर सोने वाला। लगण्डशायी-भूम्यलग्नपृष्ठः। (स्था ७.४९ वृप ३७८) लधिमा
२. जो संयम की कामना करता है। आत्मानं लघुभूतं कामयते इति लघुभूतकामी। लघुभूतःसंयमः तं कामयते इति लघुभूतकामी। (आभा ३.४९) लघुभूतविहारी अप्रतिबद्धविहारी मुनि, जो वायु की तरह प्रतिबन्ध रहित विचरण करता है। लघुभूतगामी-अप्रतिबद्धविहारी। (आभा ३.४९) लहू जंण गुरू, स पुण वायू, लहुभूतो लहुसरिसो विहारो जेसिं ते लहुभूतविहारिणो। (द ३.१० अचू पृ ६३) लज्जा दान वह दान, जो लज्जावश दिया जाता है। 'लज्जया' ह्रिया दानं यत्तल्लज्जादानम्।
(स्था १०.९१ वृ प ४७०)
लन्द काल। (जघन्यतः तरुण स्त्री की आर्द्र हथेली को सखने में
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जितना समय लगे, उतना समय, उत्कर्षतः एक कोटि पूर्व।) लंदमिति कालस्तस्य व्याख्या-तरुणित्थीए उदउल्लो करो जावतिएण कालेण सुक्कति जहण्णो लंदकालो, उक्कोसेण पुव्वकोडी।
(निचू ४ पृ५१) समयपरिभाषया लन्दशब्देन कालो भण्यत इत्यर्थः उदकाकरो यावता कालेन 'इह' सामान्येन लोके शुष्यति तावान् कालविशेषो भवति जघन्यः, अस्य चेह जघन्यत्वं प्रत्याख्याननियमविशेषादिष विशेषत उपयोगित्वात्।
(प्रसावृ प १७३) (द्र यथालन्दिक) लब्धि १. कर्म के क्षयोपशम और क्षय से होने वाला ज्ञान आदि गुणों का लाभ। लब्धि:-आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्मक्षयादितो लाभः।
(भग ८.१३९ वृ) २. योगज विभूति। तपोविशेषाद् ऋद्धिप्राप्तिर्लब्धिरित्युच्यते। (तवा २.४७.२) (द्र ऋद्धि) लब्धिअपर्याप्त वह जीव, जो निश्चित रूप से अपर्याप्त अवस्था में मरता है। (पर नियमतः प्रथम तीन पर्याप्तियां पूर्ण कर ही लेता।
सेना को भी हत-प्रहत कर सकता है। संघाइयाण कज्जे चुन्निज्जा चक्कवट्टिमवि जीए। तीए लद्धीए जुओ लद्धिपुलाओ मुणेयव्यो॥
(भग २५.२७८ ) (द्र पुलाकलब्धि) लब्धिवीर्य वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से उत्पन्न अंतर्निहित वीर्यात्मक क्षमता। 'लद्धिवीरिएणं सवीरिय' त्ति वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमतो या वीर्यस्य लब्धि: सैव तद्हेतुत्वाद् वीर्य-लब्धिवीर्य, तेन सवीर्याः।
(भग १.३७६ वृ)
लब्ध्यक्षर अक्षरश्रुत का एक प्रकार । श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला अक्षरात्मक ज्ञान। अक्खरलद्धी जस्सऽस्थि तस्स इंदियमणोभयविण्णाणतो इह जो अक्खरलाभो उप्पज्जति तं लद्धिअक्खरं।
(नन्दी ५६ चू पृ ४५)
लयनपुण्य पुण्य का एक प्रकार। पात्र--संयमी को गह देने से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (द्र अन्नपुण्य)
येऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते न पुनः स्वयोग्यपर्याप्ती: सर्वा अपि समर्थयन्ते, ते लब्ध्यपर्याप्तकाः। तेऽपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते, नार्वाक्।
(नन्दीमवृ प १०५) लब्धि इन्द्रिय भावेन्द्रिय का एक प्रकार। इन्द्रियों के विषय-ग्रहण की शक्ति, जो उनके आवारक कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती ।
लव काल का सात स्तोकप्रमाण माप, जो दो नाली अथवा एक मुहूर्त (अड़तालीस मिनट) का ७७ वां भाग होता है अर्थात्
मुहूर्त सत्तुस्सासो थोवं सत्तत्थोवा लवि त्ति णादव्यो। सत्तत्तरिदलिदलवा णाली बे णालिया महत्तं च॥
(त्रिप्र ४.२८७) तथैकैको मुहूर्त्तः सप्तसप्ततिर्लवान् लवाग्रेण-लवपरिमाणेन प्रज्ञप्तः।
(सम ७७.४ वृ प८०)
लब्धिः-श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदावरणकर्मक्षयोपशमः।
(नन्दीमवृ प ७६)
लब्धिपुलाक पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो संघीय प्रयोजन उपस्थित होने पर अपनी लब्धि के द्वारा चक्रवर्ती की विशाल
लवणसमुद्र वह समुद्र, जो जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए है, जिसका विस्तार चार लाख योजन है। (देखें चित्र पृ ३४१)
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ता जंबुद्दीवं णं दीवं लवणे णामं सुमुद्दे वलये वलयागार- लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण साधुगुणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति संठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति॥
लाढः।
(उ २.१८ शावृ प १०७) ता लवणसमुद्दे"""दो जोयणसतसहस्साई चक्कवाल
लान्तक विक्खंभेणं, पण्णरस जोयणसयसहस्साई एक्कासीइं च
छठा स्वर्ग। कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की छठी आवाससहस्साई सतंच ऊतालं किंचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं आहितेति
भूमि।
(उ३६.२१०) वदेज्जा ॥
(सूर्य १९.२, ४)
(देखें चित्र पृ ३४६) जम्बूद्वीपो लवणसमुद्रेण परिक्षिप्तः। (तभा ३.८)
लाभान्तराय लवसप्तम देव
अन्तराय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से लाभ में वह (अनुत्तरोपपातिक) देव, जिसको यदि पूर्ववर्ती मनुष्यभव
विघ्न पैदा होता है। उदार दाता है, देय वस्तु विद्यमान है में सात लव जितना आयुष्य और मिलता, तो वह उसी भव
और याचनाकशल याचक है-इस स्थिति में भी याचक में केवली होकर मुक्त हो जाता।
कुछ प्राप्त नहीं कर पाता। जे सव्वक्कोसियाए ठितीए वदंति अणत्तरोववातिगा ते यदुदयवशाद्दानगुणेन प्रसिद्धादपि दातुर्गुहे विद्यमानमपि लवसत्तमा इत्यपदिश्यन्ते, जति णंतेसिंदेवाणं एवतियं कालं
देयमर्थजातं याञ्चाकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते आउए पहप्पंते तो केवलं पाविऊण सिझंता।
तल्लाभान्तरायम्।
(प्रज्ञा २३.२३ वृ प ४७५) (सूत्र १.६.२४ चू पृ १५०) । लिङ्ग ""सत्त लवे "तेसिं देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्यते तो
१. वेद मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली कामात्मक णं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिझंता बुझंता मुच्चंता
अभिलाषा। परिनिव्वायंता सव्वदुक्खाणं अंतं करेंता।से तेणटेणं गोयमा!
२. स्त्री, पुरुष आदि की विशेषतासूचक शरीररचना। एवं वुच्चइ-लवसत्तमा देवा। (भग १४.८५)
३. नेपथ्य। लवालव
लिंगं"तं तिविहं-वेदो सरीरनिव्वत्ती णेवच्छं च। योगसंग्रह का एक प्रकार । सामाचारी के पालन में सतत
(नन्दीचू पृ २७) जागरूक रहना अथवा प्रतिक्षण अप्रमाद की साधना करना। वेदोदयापादितोऽभिलाषविशेषो लिङ्गम्। (तवा २.६.३) 'लवालवे' त्ति कालोपलक्षणं तेन क्षणे क्षणे सामाचार्य- ४. वह रजोहरण आदि विशिष्ट वेश, जिससे मुनि की नुष्ठानं कार्यम्। (सम ३२.१.४ वृ प५५)
पहचान होती है।
लिंग्यते साधुरनेनेति लिङ्गं रजोहरणादिधारणलक्षणम्। लाक्षावाणिज्य
(आवनि ११३१ हावृ २ पृ २३) कर्मादान का एक प्रकार । लाक्षा आदि का विक्रय।
५. साध्य के साथ साधन का अविनाभावी संबंध। 'लक्खवाणिज्जं' ति लाक्षाया आकरे ग्रहणतो विक्रयः।
(भग ८.२४२ वृ) अण्णहाणुववत्तिलक्खणं लिंगं..।
(धव पु १३ पृ २४५) लिङ्गकषायकुशील (स्था १०.१६)
कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो लिंग (द्र आकिञ्चन्य धर्म)
(मुनिवेष) के विषय में क्रोध, अहंकार आदि का प्रयोग लाढ
करता है।
(भग २५.२८३ वृ) संयमी, जो प्रासुक-एषणीय आहार अथवा साधु-गुणों के (द्र ज्ञानकषायकुशील) द्वारा जीवन-यापन करता है।
लिङ्ग पुलाक
पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार।
लाघव धर्म
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लश्य
१. शास्त्रविहित उपकरणों से अधिक उपकरण रखने वाला मुनि। २. अकारण अन्य लिंग को धारण करने वाला मनि। यथोक्तलिङ्गाधिकग्रहणात् निष्कारणेऽन्यलिङ्गकरणाद्वा लिङ्गपुलाकः।
(स्था ५.१८५ वृ प३२०) लिङ्गप्रतिषेवणाकुशील प्रतिषेवणाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो लिङ्ग के आधार पर आजीविका करता है।
(स्था ५.१८७ वृ प ३२०) (द्र ज्ञानप्रतिषेवणाकुशील)
लिक्षा
क्षेत्र-मापन का एक प्रकार। भरतक्षेत्र और ऐरवतक्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालाग्र की एक लिक्षा होती है।
(अनु ३९९) (द्र बालान, यूका)
एता
लिप्त एषणा दोष का एक प्रकार । सचित्त वस्तु से लिप्त पात्र आदि से दी जाने वाली भिक्षा लेना। लिप्तं सचित्तफलादिरसेन, यद्वा लिप्तं दुग्धदधितेमनादि।
(प्रसा ५६८७)
जिस लेश्या के पुद्गलों को लेकर जीव मरता है, उसका उसी लेश्यास्थान में उत्पन्न होना। लेस्साणुवायगती-जल्लेस्साइं दव्वाई परियाइत्ता कालं करेति, तल्लेस्सेसु उववज्जति, तं जहा-कण्हलेस्सेसु वा जाव सुक्क-लेस्सेसु वा। लेश्यानुपातगतिरिति लेश्याया अनुपात:-अनुसरणं तेन गतितेश्यानुपातगतिः"यानिलेश्याद्रव्याणि पर्यादाय जीवः कालं करोति तल्लेश्येषूपजायते, न शेषलेश्येषु ततो जीवो लेश्याद्रव्याण्यनुसरति।
(प्रज्ञा १६.५० वृ प ३२९) लोक जो धर्म आदि पांच अस्तिकाय से युक्त है। अथवा आकाश का वह भाग, जहां धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-ये छ: द्रव्य विद्यमान हैं। (देखें चित्र १३४२) "पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोए त्ति पवुच्चइ"।
(भग १३.५५) धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो त्ति पण्णत्तो, ........॥ (उ २८.७) षड्द्रव्यात्मको लोकः।
(जैसिदी १.८) लोक अनुप्रेक्षा ग्यारहवीं अनुप्रेक्षा । तत्त्वज्ञान की विशुद्धि के लिए विविध परिणति वाले लोक का अनुचिन्तन करना। पञ्चास्तिकायात्मकं विविधपरिणाममुत्पत्तिस्थित्यन्यतानुग्रहप्रलययक्तं लोकं चित्रस्वभावमनचिन्तयेत। एवं ह्यस्य चिन्तयतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवतीति लोकानुप्रेक्षा।
(तभा ९.७) लोकधर्म लोकव्यवहार, ग्राम-नगर आदि में विद्यमान आचार और व्यवस्था, जैसे-औचित्य के द्वारा अर्थोपार्जन करना, पारस्परिक सहयोग करना, लोकहितों की सुरक्षा के लिए उपाय करना। ग्राम-नगर-राष्ट्र-कुल-जाति-युगादीनामाचारो व्यवस्था वा लोकधर्मः। ग्रामादिषु जनानामौचित्येन वित्तार्जनव्ययविवाहभोज्यादिप्रथानां पारस्परिकसहयोगादेर्वा आचरणमाचारः। तेषां च हितसंरक्षणार्थं प्रयुज्यमाना उपायाः व्यवस्था।" लोकधर्मः-लौकिको व्यवहार इत्युच्यते।
(जैसिदी ८.१४ वृ)
लेश्या चैतन्य की रश्मि, तैजस शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतना। प्रशस्त-अप्रशस्त भावधारा और उसमें हेतुभूत कृष्ण यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल। लेस्स त्ति-रस्सीओ।
(नन्दीचू पृ ४) लेश्या-अन्तःकरणवृत्तिः। (सूत्र १.४.५२ वृप १२०) कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते॥
(उशावृप६५६) (द्र द्रव्यलेश्या, भावलेश्या) लेश्यागति एक लेश्या का दूसरी लेश्या में परिणमन होना। सम्प्राप्य तद्रूपादितया परिणमन्ति सा लेश्यागतिः।
(प्रज्ञा १६.४९ वृ प ३२९)
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लोकधर्मो देशकालादिभिः परिवर्तनीयस्वरूपः, वर्गविशेषैविभेदमापन्नश्च। धर्मस्तु आत्मोदयकारकः, अपरिवर्तनीयस्वरूप: सर्वसाधारणश्च इत्यनयोर्भेदः।
(जैसिदी ८.१३ वृ) लोकपाल कल्पोपपन्न देव का एक प्रकार । इन्द्र द्वारा नियुक्त आरक्षक के दायित्व का निर्वाह करने वाला देव। लोकपाला आरक्षिकार्थचरस्थानीयाः। (तभा ४.४) लोकबिन्दुसार चौदहवां पूर्व, जिसमें सर्वाक्षरसन्निपात आदि का प्रज्ञापन किया गया है और जो इस लोक में अथवा श्रुतलोक में । अक्षर पर बिन्दु के समान सर्वोत्तम है। चोद्दसमं लोगबिंदुसारं, तं च इमम्मि लोए सुतलोए वा बिंदुमिव अक्खरस्स सव्वुत्तमं सव्वक्खरसण्णिवातपढितत्तणतो लोगबिंदुसारं, तस्स पदपरिमाणं अडतेरस पदकोडीओ।
(नन्दीचू १०४ पृ७६) लोकविपश्यी शरीर की प्रेक्षा करने वाला। लोकः-शरीरम्। तस्य विपश्यी लोकविपश्यी।
(आभा २.१२५)
लोकाकाश के प्रदेशों की पंक्ति। पूर्व-पश्चिम आयत, दक्षिणउत्तर आयत और ऊर्ध्व-अध: आयत-द्रव्य से असंख्यात होती हैं। लोगागाससेढीओ णं भंते! दव्वट्ठयाए किं संखेज्जाओ? अंखेन्जाओ? अणंताओ? गोयमा! नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। पाईणपडीणायताओ णं भंते! लोगागाससेढीओ दवट्टयाए किं संखेन्जाओ? एवं चेव। एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। एवं उड्डमहायताओ वि।
(भग २५.७५, ७६) लोकान्त १. लोक का अन्तिम छोर, जिसके आगे केवल अलोकाकाश
लोकस्यान्तो लोकान्त आलोकान्तादिति। (तवा १०.६.२) २. व्यवसाय का एक प्रकार। लौकिकशास्त्र-अर्थशास्त्र आदि के आधार पर किया जाने वाला निर्णय। लोको-लोकशास्त्रं तत्कृतत्वात् तदध्येयत्वाच्चार्थशास्त्रादिः तस्मादन्तो-निर्णयस्तस्य वा परमरहस्यं पर्यन्तो वेति लोकान्तः। एवमितरावपि, नवरं वेदा ऋगादयः, समया जैनादिसिद्धान्ताः। (स्था ३.५११ वृप १६४) (द्र व्यवसाय) लोकान्तिक
(स्था ३.८६ वृ प १११) (द्र लौकान्तिक)
लोकसंज्ञा १. लौकिक मान्यता। लोकसंज्ञा स्वच्छंदघटितविकल्परूपा लौकिकाचरिता।
(आवृ प २६) २. विशेष बोध। वह संवेदन, जो प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा अपने-अपने विषय के ग्रहण से होता है। सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्योघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोकसंज्ञा।
(स्था १०.१०५ वृप ४७९) (द्र ओघसंज्ञा)
लोकस्थिति विश्वव्यवस्था का नियम। लोकस्य-पञ्चास्तिकायात्मकस्य स्थितिः-स्वभावः लोक-स्थितिः।
(स्था १०.१ ७ प ४४६)
लोकोत्तर उपकार आत्मविकास करने वाले उपकार, जैसे-धर्मोपदेश करना, निरवद्य दान देना। लोकोत्तरः-पारमार्थिक उपकारः, धर्मोपदेशादिरूपो निरवद्य-दानादिरूपो वा। (जैसिदी ९.२० वृ) लोकोत्तर धर्म आत्मोदयकारक धर्म, जो श्रुत और चारित्र रूप है। दुविहो लोगुत्तरिओ, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य।
(दनि ४०) (द्र लोकधर्म) लोकोपचार विनय १. लोक-व्यवहार के अनुसार विनय करना, गुरु के आने पर
लोकाकाश श्रेणि
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खड़ा होना, हाथ जोड़ना आदि।
लोभविजय लोकानामुपचारो-व्यवहारस्तेन स एव वा विनयो लोको- लोभ करने से लोभ का अंत नहीं होता, उसका परिणाम भी पचारविनयः।
(स्था ७.१३० वृ प ३८८) अच्छा नहीं होता-इस प्रकार के चिन्तन से किया जाने २. सुखद व्यवहार का प्रयोग करना (गुरु के अभिप्राय का वाला लोभ के उदय का निरोध । अनुवर्तन करना आदि)।
क्रोधस्य विजयो दुरन्तादिपरिभावनेनोदयनिरोधः क्रोधविजयः उपचारेण सुखकारिक्रियाविशेषण निर्वृत्त औपचारिकः स "एवं"लोभविजयेन"। (उ २९.७१ शाव प५९३) चासौ विनयश्च औपचारिकविनयः। (प्रसावृ प ६८)
लोभविवेक लोभ
सत्य महाव्रत की एक भावना। लोभ का विवेक-प्रत्याख्यान कषाय का एक प्रकार । आत्मा का वह अध्यवसाय, जो तृष्णा
करना। और परिग्रह से उत्पन्न होता है।
लोभः तृष्णालक्षण: कूटसाक्षित्वादिदोषाणामग्रणीः समस्ततृष्णापरिग्रहाध्यवसायो लोभः। (आभा ३.७१)
व्यसनैकराजो जलनिधिरिव दुर्भरः कर्मोदयाविर्भूतो रागलोभ पाप
परिणामस्तदुदयादपि वितथभाषी भवति। अत्र सत्यव्रतमनु
पालयता तदाकारपरिणामः प्रत्याख्येय इति भावनीयम्। पापकर्म का नौवां प्रकार। लोभ की प्रवृत्ति से होने वाला
(तभा ७.३ वृ) अशुभ कर्म का बंध।
(आवृ प ७२) लोभ पापस्थान
लोभसंज्ञा
लोभ वेदनीय कर्म के उदय से होने वाला आसक्त्यात्मक वह कर्म, जिसके उदय से जीव लोभ में प्रवृत्त होता है।
संवेदन। (द्र मान पापस्थान)
लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थना लोभलोभपिण्ड
सञ्जा।
(प्रज्ञा ८.१ १ प २२२) उत्पादनदोष का एक प्रकार। मूर्छावश प्रचुरमात्रा में स्निग्ध
लोल और मधुर भोजन ग्रहण करना।
प्रतिलेखना का एक दोष । प्रतिलेख्यमान वस्त्र का हाथ या यथाभावं-लभ्यमानं खद्धं-प्रचुरं स्निग्धादि' लपनात्री
भूमि से संघर्षण करना। प्रभृतिकं भद्रकरसमितिकृत्वा यद गह्णाति स लोभपिण्डः।
(पिनि ४८१ वृ) लोलो-यभूमौ करे वा प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रस्य लोलनम्।
(उ २६.२७ शावृ प ५४१) अतिलोभाद भिक्षार्थं पर्यटतो लोभपिण्डः। (योशा १.३८ वृ पृ १३५)
लौकान्तिक
पांचवें देवलोक में देवों का एक विशेष वर्ग, जो कृष्णराजियों लोभप्रत्यय
के आठ अवकाशांतरों में विद्यमान लौकान्तिक विमानों में क्रियास्थान का एक प्रकार । जीवनैषणा और कामभोगैषणा
रहता है। यह देववर्ग अनन्तर भव में मुक्त हो जाता है। की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति।
ब्रह्मलोको लोकः, तस्यान्तो लोकान्तः, तस्मिन्भवा लौकाजे इमे भवंति आरण्णिया"अहं ण उद्दवेयव्वो अण्णे
न्तिकाः।
(ससि ४.२४) उद्दवेयव्वा। एवामेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया""एवं खलु
-लोकान्ते वा औदयिकभावलोकावसाने भवा अनन्तरभवे तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ। (सूत्र २.२.१४)
मुक्तिगमनादिति लोकान्तिकाः। (स्था ३.८६ वृप १११) लोभप्रत्यया क्रिया
एएसि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठसु ओवासंतरेसु अट्ठ लोगप्रेयस प्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । लोभ के निमित्त से होने तिगविपाणा पण्णत्ता"।
(भग ६.१०६) वाली क्रिया।
(स्था २.३६) एएसुणं अट्ठसु लोगंतियविमाणेसु अविहा लोगंतिया देवा परिवसंति"।
(भग ६.११०)
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लौकिक उपकार
साधवः।
(प्रसावृप १८३) वह उपकार, जो संयम का हेतु नहीं बनता और जो लौकिक (द्र ऋजुजड) व्यवहार का हेतु बनता है।
वक्रसमाचार लौकिकः-अपारमार्थिक उपकारः। (जैसिदी ९.२१)
१. वह पुरुष, जो गृहत्यागी होकर भी असंयम का आचरण (द्र लोकोत्तर उपकार)
करता है। लौकिकधर्म
२. वह पुरुष, जो संसाराभिमुख है।
(दनि ३८) 'वंकसमायारे' "असंयम समाचरति"आगमपरिभाषायां (द्र लोकधर्म)
ऋजुः-संयमो मोक्षो वा, वक्र:-असंयमः संसारो वा।
(आभा १.९८) लौकिक व्यवसाय सामान्य लोक की अवधारणा के आधार पर किया जाने वचनअसंयम वाला निश्चय और अनुष्ठान। (स्था ३.३९६) अकुशल वचन की प्रवृत्ति करना। (द्र व्यवसाय)
मनोवाक्कायानामसंयमास्तेषामकुशलानामुदीरणानि।
(सम १७.१ ७ प ३२) वंशा
वचनअसंवर अधोलोक (नरक) की दूसरी पृथ्वी का नाम।
कर्म-आकर्षण की हेतुभूत वाचिक प्रवृत्ति। (स्था १०.११) (द्र अञ्जना)
वचनदण्ड वंशीपत्रिका
वाणी का दुष्प्रयोग, सावध भाषा का प्रयोग। योनि का एक प्रकार। बांस की जाली के पत्ते के आकार
वइदंडो सावज्जा भासा। (आवचू २ पृ७७) वाली योनि । यह योनि सामान्य जनों की माता के होती हैं। वंसीवत्तिता णं जोणी पिहज्जणस्स।
वचनदुष्प्रणिधान वंशजाल्याः पत्रकमिव या सा वंशीपत्रिका।
वचन की वह अवस्था, जिसमें मिथ्या वाक् के प्रति अवधान (स्था ३.१०३ वृ प ११६) होता है।
(स्था ३.९९) (द्र कूर्मोन्नता, शंखावर्ता)
(द्र मनोदुष्प्रणिधान) वक्तव्यता
वचननिर्विष एक विषय की प्ररूपणा, प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन। औषधि ऋद्धि का एक प्रकार। अज्झयणाइसु सुत्तपगारेण सुत्तविभागेण वा इच्छा परू- १. इस ऋद्धि से सम्पन्न व्यक्ति के वचनमात्र से तिक्त आदि विजंति सा वत्तव्वता भवति। (अनु १०० चू पृ८५)
___ रस तथा विषमिश्रित अन्न मधुरता और निर्विषता को प्राप्त
हो जाता है।
२. इस ऋद्ध के प्रभाव से बहुत व्याधियों से युक्त जीव वह साधु, जो स्वभाव से वक्र और मति से जड़ होता है,
ऋषि-वचन सुनकर तत्काल नीरोग हो जाता है। उसे धर्म का तत्त्व समझाना कठिन होता है।
तित्तादिविविहमण्णं, विसजुत्तं जीए वयणमेत्तेण। 'वक्कजडा य'त्ति, वक्राश्च वक्रबोधतया जडाश्च तत एव पावेदि णिव्विसत्तं, सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा॥ स्वकानेककुविकल्पतो विवक्षितार्थप्रतिपत्त्यक्षमतया वक्र
अहवा बहुवाहीहिं, परिभूया झत्ति होंति णीरोगा। जडाः। (उ २३.२६ शावृ प५०२)
सोढुं वयणं जीए, सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा॥ वक्रजडा:-शठत्वमुग्धत्वधर्मद्वययुक्ताः केचिच्चरमतीर्थकर
(त्रिप्र १०७४, १०७५)
वक्रजड़
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
वचनपुण्य
वयणसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-आदिज्जवयणे (जैतवि ३.४)
यावि भवति, महुरवयणे यावि भवति, अणिस्सियवयणे यावि (द्र वाक्पुण्य)
भवति, असंदिद्धभासी यावि भवति।से तं वयणसंपदा।
(दशा ४.७) वचनबल १. वह प्राण, जो बोलने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
वचनसुप्रणिधान (प्रसा १०६६)
वचन की वह अवस्था, जिसमें आत्मा की शुद्धि के लिए २. बलालम्बन ऋद्धि का एक प्रकार।
सम्यक् वाक् के प्रति अवधान होता है। (द्र वाग्बली)
(स्था ३.९७)
(द्र कायसुप्रणिधान) वचनयोग
वचसा शापानुग्रहसमर्थ भाषावर्गणा के आलम्बन से होने वाली जीव की वाचिक
वह मुनि, जिसमें वचन से शाप देने और अनुग्रह करने की शक्ति और प्रवृत्ति।
शक्ति होती है।
(औप २४ वृ पृ ५२) वाक्करणेन सम्बन्धादात्मनो यद वीर्यसमुत्थानं भाषकशक्तिः
(द्र मनसा शापानुग्रहसमर्थ) स वाग्योगः।
(तभा ६.१ वृ) वचनयोग प्रतिसंलीनता
वचोगुप्ति
अहिंसा महाव्रत की एक भावना। (सम २५.१.३) अकुशल वचन का निरोध और कुशल वचन की प्रवृत्ति। अकुसलवइणिरोहो वा, कुसलवइउदीरणं वा। सेतं वइजोग
(द्र वाक्समितियोग) पडिसंलीणया।
(औप ३७) वज्रऋषभनाराच संहनन वचनविनय
संहनन का एक प्रकार। वह अस्थिरचना, जो वज्र-कील, विनयार्ह आचार्य आदि के प्रति कुशल वचन का प्रयोग
ऋषभ-वेष्टन, नाराच-दोनों ओर मर्कटबन्ध (परस्पर गूंथी करना। परोक्ष होने पर भी उनका गुणसंकीर्तन करना।
हुई आकृति) वाली हो–जिसमें दो हड्डियों के छोर परस्पर
मर्कटबन्ध से बंधे हुए हों। उन पर तीसरी अस्थि का वेष्टन परोक्षेष्वपि कायवाङ्मनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः।
(तवा ९.२३.६) तथा ऊपर तीनों हड्डियों का भेदन करने वाली कील लगी
(देखें चित्र पृ ३४१) वचनविभक्ति
वज़ं-कीलिका, ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः, नाराचःवचन का विभाग-इस प्रकार का वचन बोलना और इस उभयतो मर्कटबन्धः, यत्र द्वयोरस्थनोरुभयतोमर्कटबन्धेन प्रकार का वचन न बोलना-वक्तव्य और अवक्तव्य का बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि विवेक करना।
तदस्थित्रितयभेदि कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि भवति वचनस्य विभक्तिर्वचनविभक्तिः, विभजनं विभक्तिः-एवं- तद्वऋषभनाराचम्। (स्था ६.३० वृ प ३३९) भूतमनवद्यमित्थंभूतं च सावद्यमित्यर्थः।
वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमा (दनि २३ हावृ प १४)
वह चन्द्रप्रतिमा, जिसमें कृष्ण पक्ष की एकम के दिन भक्त वचनसंवर
और पान की पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां ली जाती हैं और क्रमश: वचन की प्रवृत्ति का निरोध।
(स्था १०.१०)
हीन करते-करते अमावस्या को एक-एक दत्ति ली जाती
है। शुक्लपक्ष की एकम के दिन भक्त-पान की दो-दो वचनसम्पदा
दत्तियां ली जाती हैं। बढ़ाते-बढ़ाते चतुर्दशी को पन्द्रह दत्तियां गणिसम्पदा का एक प्रकार। आदेय, मधुर, अनिश्रित और ।
ली जाती हैं और पूर्णिमा के दिन उपवास किया जाता है। असंदिग्ध वचन का वैभव।
हो।
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वइरमझण्णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स"पुण्णिमाए अभत्तटे भवइ।
(व्यभा १०.५)
आदि का व्यापार। वनकर्म यत् छिन्नानामच्छिन्नानां च तरुखण्डानां पत्राणां पुष्याणां फलानां च विक्रयणं वृत्तिकृते तद्वनकर्म।
(प्रसाव प ६२)
वज्रासन वीरासन की मुद्रा में बैठकर (दायां पैर बायें पैर पर, बायां पैर दायें पैर पर रखकर) पृष्ठ भाग में वज्राकृति में न्यस्त भुजाओं से दोनों पैरों के अंगूठों को पकड़ना। वामोंऽह्रिर्दक्षिणोरूवं, वामोरुपरि दक्षिणः। क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम्॥ पृष्ठे वज्राकृतीभूते दोा वीरासने सति। गृह्णीयात् पादयोर्यत्राङ्गष्ठौ वज्रासनं तु तत्॥
(योशा ४.१२७) उक्तस्वरूपे वीरासने सति पृष्ठे वज्राकाराभ्यां दोभा पादयोर्यत्राङ्गष्ठौ गृह्णीयात् तद् वज्रासनम्। इदं वेतालासनमित्यन्ये।
(योशावृ पृ९६०) (द्र वीरासन)
वनचारी देव व्यन्तर देव। वन, उपवन आदि अनेक स्थानों में क्रीड़ाप्रधान मनोवृत्ति के साथ विचरण करने वाला। वनेषु-विचित्रोपवनादिषूपलक्षणत्वादन्येषु च विविधास्पदेषु क्रीडैकरसतया चरितुं शीलमेषामिति वनचारिणः।
(उ ३६.२०५ शावृ प ७०१) (द्र वानमंतर)
वनस्पतिकाय जीवनिकाय का पांचवां प्रकार। (द्र वनस्पतिकायिक)
(आचूला १५.४२)
वध
वनस्पतिकायिक १. वह प्रवृत्ति, जिसके द्वारा दूसरे के प्राण का वियोजन वे जीव, जिनका शरीर वनस्पति है। किया जाता है, दु:ख और संक्लेश उत्पन्न किया जाता है। वनस्पतिः-लतादिरूपः प्रतीतः, स एव काय:-शरीरं येषां विनाशपरितापसंक्लेशभेदात् त्रिविधो वा, आह च
ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः। तप्पज्जायविणासो दुक्खुप्पाओ य संकिलेसो य।
(द ४ सूत्र ३ हावृ प १३८) एस वहो जिणभणिओ वज्जेयव्वो पयत्तेणं॥
वनीपकपिण्ड (स्था १.९३ वृ प २४) २. स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार। अपने
उत्पादन दोष का एक प्रकार। जो दाता जिस आम्नाय का आश्रित पशु अथवा कर्मकर को लाठी आदि से पीटना।
अनुयायी है, उसकी प्रशंसा कर भिक्षा लेना। 'वहे' त्ति वधो यष्ट्यादिभिस्ताडनम्।
श्रमण-ब्राह्मण-कृपणाऽतिथि-श्वानादिभक्तानां पुरतः
पिण्डार्थमात्मानं तत्तभक्तं दर्शयतो वनीपकपिण्डः। (उपा १.३२ वृ पृ १०)
(योशा १.३८ वृ पृ १३५) वध परीषह
वन्दना परीषह का एक प्रकार। प्रहार से उत्पन्न वेदना, जो मनि के
१. आचार्य आदि के योग्य उचित आदर-सत्कार युक्त व्यवहार द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है।
का प्रयोग। हओ न संजले भिक्खू, मणं पि न पओसए। तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खुधम्मं विचिंतए।
'वन्दनकेन' आचार्याधुचितप्रतिपत्तिरूपेण। समणं संजयं दंतं, हणेज्जा कोइ कत्थई।
__ (उ २९.११ शावृ प ५८०) नस्थि जीवस्स नासु त्ति, एवं पेहेन्ज संजए॥
(द्र कृतिकर्म) (उ २.२६,२७)
२. आवश्यक का तृतीय अध्ययन। चारित्र सम्पन्न गुणिजनों
का वन्दना-नमस्कार द्वारा सम्मान-बहुमान करना। प्रशस्त वनकर्म
मन, वचन और काया के द्वारा स्तुति करना, अभिवन्दना कर्मादान का एक प्रकार। जंगल की कटाई और लकड़ी
करना।
(नन्दी ७५)
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.....गुणवओ य पडिवत्ती । ततिए चरणादिगुणसमूहवतो वंदणणमंसणादिएहिं पडिवत्ती कातव्वा ।
( अनु ७४ चू पृ १८) वन्द्यते - स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारजालेनेति ( आवहावृ २ पृ १४ ) वह अध्ययन, जिसमें
वन्दनम् ।
|
३. अंगबाह्यश्रुत का एक प्रकार । वन्दनीय - अवन्दनीय का निरूपण है वन्दनम् - प्रणामः, स कस्मै कार्यः कस्मै च नेति यत्र वर्ण्यते (तभा १.२० वृ)
तत् वन्दनम् ।
वन्दना मुद्रा
खड़े होकर दोनों कोहनियों को पेट पर रखकर दोनों हाथों को मुकुलित कमल के आकार में रखना । मुकुलीकृतमाधाय जठरोपरि कूर्परम् । स्थितस्य वन्दनामुद्रा करद्वन्द्वं निवेदिता ॥
(अमिश्रा ८.५४)
वमन
अनाचार का एक प्रकार । रोग की संभावना से बचने के लिए, रूप, बल आदि को बनाए रखने के लिए वमन करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है।
वमणं छडणं विरेयणं कसायादीहिं एतानि आरोग्गपडिकम्माणि रूवबलत्थमणातिण्णं । (द ३.९ अचू पृ६२) वरुणोपपात कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें वरुण नामक देव की वक्तव्यता है तथा जिसका परावर्तन करने से वरुण नामक देव उपस्थित हो जाता है।
'वरुणोववाए' जाहे तं अज्झयणं उवउत्ते समाणे अणगारे परियट्टेइ, ताहे से समयनिबद्धत्तणओ
वरेह वरं ति । (नन्दी ७८ चू पृ५९)
(द्र अरुणोपपात)
वर्गचूलिका
श्रुत का एक प्रकार। अंतकृतदशा और अनुत्तरोपपातिकदशा के वर्गों की चूलिका । वो ति विवखावसातो अज्झयणादिसमूहो वग्गो, जहा अंतकडदसाणं अट्ठ वग्गा, अणुत्तरोववातियदसाणं तिण्णि वग्गा, तेसिं चूला वग्गचूला । (नन्दी ७८ चू पृ५९)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
वर्गणा
सजातीय वस्तुओं का समूह ।
सजातीयवस्तुसमुदायो वर्गणा, समूहो, वर्ग:, राशि : इति पर्यायाः । (विभा ६३५ वृ)
वर्गतप
इत्वरिक अनशन का एक प्रकार। घनतप को घनतप से गुणा करने पर होने वाला तप ।
घन एव घनेन गुणितो वर्गो भवति एतदुपलक्षितं तपो वर्गतपः । ( उ ३०.१० शावृ प ६०१ )
वर्गवर्गतप
इत्वरिक अनशन का एक प्रकार। वर्गतप को वर्गतप से गुणा करने पर होने वाला तप ।
वर्ग एव यदा वर्गेण गुण्यते तदा वर्गवर्गो भवति । ( उ ३०.११ शावृ प ६०१ )
वर्ण
पुद्गल का एक लक्षण, जो चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। ( उ २८.१२)
(द्र गन्ध)
वर्णनाम
नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के वर्ण की व्यवस्था होती है ।
वर्ण्यते - अलङ्क्रियते शरीरमनेनेति वर्णः, स च पञ्चप्रकारः श्वेतपीतरक्तनीलकृष्णभेदात्, तन्निबन्धनं नामापि पञ्चधा''यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु श्वेतवर्णप्रादुर्भावो यथा बिशकण्ठिकानां तत् श्वेतवर्णनाम, एवं शेषवर्णनामान्यपि भावनीयानि । (प्रज्ञा २३.४७ वृ प ४७३)
वर्णाक्षर
अक्षर का एक प्रकार ।
वण्णक्खरं - वणिज्जति अणेणाभिहेतो अत्थो इति वण्णो, स चार्थस्य, कुड्ये चित्रवर्णकवत्, अहवा द्रव्ये गुणविशेषवर्णकवत् । वर्ण्यते-अभिलप्यतेऽनेनेति वर्णाक्षरम् । (नन्दीचू पृ ४४ )
(द्र संज्ञाक्षर )
वर्तमाननैगम
नैगम नय का एक प्रकार। अपूर्ण क्रिया में पूर्णता का संकल्प,
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वतिनां मरणं वलन्मरणं। (सम १७.९ वृ प ३२) २. क्षुधा-परीषह से होने वाला मरण। वलंता क्षुधापरीसहेहिं मरंति, ण तु उवसग्गमरणं ति तं वलायमरणं।
(उचू पृ १२८) वशात मरण इन्द्रियों के वशीभूत होकर होने वाला मरण। वशेन-इन्द्रियवशेन ऋतस्य-पीडितस्य दीपकलिकारूपाक्षिप्तचक्षुषः शलभस्येव यन्मरणं तद्वशार्त्तमरणम्।
(भग २.४९ वृ) वस्तिकर्म अनाचार का एक प्रकार। अपान मार्ग से तैल आदि चढाना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। वस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानम्।
(द ३.९ हावृप ११८)
जैसे-ईंधन, जल आदि सामग्री लाने में प्रवृत्त व्यक्ति से पूछने पर वह कहता है-मैं चावल पकाता हूं। वर्तमाननैगमः-अपूर्णायामपि क्रियायां पूर्णतासंकल्पः, यथा-एधोदकाद्याहरणप्रवृत्त ओदनं पचामीति।
(भिक्षु ५.५ वृ) वर्त्तना काल के आश्रय से होने वाली द्रव्य की वृत्ति । सर्वभावानां वर्तना कालाश्रया वृत्तिः। (तभा ५.२२) वर्द्धकिरन चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो सैनिक शिविर तथा सेतु का निर्माण करने में कुशल होता है। वर्धकिः-गृहनिवेशादिसूत्रणाकारी। (प्रसावृ प ३५०) वर्धमान अवधिज्ञान अवधिज्ञान का एक प्रकार । उत्पन्न होकर सब ओर से बढ़ने वाला ज्ञान। बहुबहुतरेन्धनप्रक्षेपादिभिर्वर्द्धमानदहनज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो यथायोगं प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायभावतोऽभिवर्द्धमानमवधिज्ञानं वर्द्धमानकम्। (नन्दी ९ मवृ प ८२) वर्षधरपर्वत वे हिमवान्, महाहिमवान् आदि छः पर्वत, जो जम्बूद्वीप के भरत, हैमवत आदि सात क्षेत्रों का विभाग करते हैं। वर्षाणां विभक्तारः हिमवान् महाहिमवान् निषधो नीलो रुक्मी शिखरीत्येते षड् वर्षधराः पर्वताः। (तभा ३.११) वर्षारात्र वर्षावास का एक प्रकार। आश्विन और कार्तिक मास।
(बृभा २७३४ चू) (द्र प्रावृट्काल) वर्षावास वर्षाकाल में एक स्थान पर चार मास तक रहना। वरिसासु चत्तारि मासा एगत्थ अच्छंतीति वासावासो।
(दशा ४.१३ चू प ५२)
वस्तु १. अध्ययन की भांति नियत अर्थ के अधिकार वाला ग्रन्थविशेष। वस्त नियतार्थाधिकारप्रतिबद्धो ग्रन्थविशेषोऽध्ययनवत।
(समप्र १३.६ वृ प १२२) वस्तूनि-अध्ययनवविभागविशेषः।
(सम १२.६ ७ प २५) २. अनेक प्राभृतों का समुदाय। (अनु ५७२ टि पृ ३२७) ३. प्रमाण का विषय, जो द्रव्यपर्यायात्मक होता है। प्रमाणस्य विषयो द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु। (प्रमी १.१.३०) ४. द्रव्य, जो अर्थक्रिया करने में सक्षम होता है। वस्तुनस्तावदर्थक्रियाकारित्वं लक्षणम्। (स्थावृ प २२) वस्तुत्व १. द्रव्य का वह सामान्य गुण, जिसके कारण द्रव्य में अर्थक्रिया होती है। अर्थक्रियाकारित्वं वस्तुत्वम्। (जैसिदी १.३८ वृ) २. द्रव्य का सामान्यविशेषात्मक स्वरूप। वस्तुत्वं च तथा जातिव्यक्तिरूपत्वमुच्यते॥ (द्रत ११.२)
वलन्मरण १. संयमी जीवन से भ्रष्ट व्यक्ति का मरण। 'वलायमरणे'त्ति संयमयोगेभ्यो वलतां-भग्नव्रतपरिणतीनां
वस्त्रपुण्य पुण्य का एक प्रकार। पात्र-सयंमी को वस्त्र देने से होने
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (द्र अन्नपुण्य) वस्त्रविद्या वह विद्या, जिसमें अभिमंत्रित वस्त्र के द्वारा रोगी के शरीर
का प्रमार्जन किया जाता है और वह स्वस्थ हो जाता है। .या विद्या वस्त्रविषया भवति तया परिजपितेन वस्त्रेण वा प्रमृज्यमान: आतुरः प्रगुणो भवति। (व्यभा १४३९ वृ)
वाग्गुप्ति पृच्छा, प्रश्नोत्तर आदि के विषय में बोलने का नियमन तथा अनृत आदि वचन की निवृत्ति और मौन करना। याचन-पृच्छन-पृष्टव्याकरणेषु वानियमो मौनमेव वा वाग्गुप्तिः।
(तभा ९.४)
वाक्पुण्य पुण्य का एक प्रकार । संयमी की प्रशंसा करने से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (स्था ९.२५ ७ प ४२८) (द्र मनःपुण्य) वाक्यशुद्धि वह वाक्य, जिसके प्रयोग से संयम की शुद्धि होती है, हिंसा नहीं होती, आत्मा में कलुषभाव नहीं आता। (दशवैकालिक के सातवें अध्ययन का नाम।) जं वक्कं वदमाणस्स, संजमो सुज्झई न पुण हिंसा। न य अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धि त्ति॥
(दनि २६४)
वागबली १. वह लब्धिधारी मुनि, जो अन्तर्मुहूर्त में चतुर्दश पूर्वो का उच्चारण करने में समर्थ है। २. वह मुनि, जिसका कण्ठ उच्च स्वर से बोलने में समर्थ होता है। अन्तर्मुहूर्तेन सकलश्रुतवस्तूच्चारणसमर्था वाग्बलिनः । अथवा पदवाक्यालङ्कारोपेतां वाचमुच्चैरुच्चारयन्तोऽविरहितवाक्क्रमाहीनकण्ठा वाग्बलिनः। (योशा १.८ वृ पृ४२) मनोजिह्वाश्रुतावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमातिशये सत्यन्तर्मुहर्ते सकलश्रुतोच्चारणसमर्थाः सततमुच्चैरुच्चारणे सत्यपि श्रमविरहिता अहीनकण्ठाश्च वाग्बलिनः। (तवा ३.३६)
वाक्संयम हिंसाजनक रूक्ष वचन आदि से निवृत्ति और शुभ वचन में । प्रवृत्ति। वाचो हिंम्रपरुषादिवचोभ्यो निवृत्तिः शुभभाषायां च प्रवृत्तिक्संयमः।
(योशा ४.९३ वृ)
वाचक १. पूर्वश्रुत तथा अन्य श्रुत का अध्यापन करने वाला। पूर्वगतं सूत्रमन्यच्च विनेयान् वाचयन्तीति वाचकाः।
(नन्दी गाथा ३० मवृ प५०) २. वह मुनि, जो वाचनाचार्य के रूप में नियुक्त होता है।
(व्यभा १९४३)
वाचना स्वाध्याय का पहला प्रकार। अध्यापन करना। वाचना-पाठनम्। (उ २९.२० शावृप ५८४)
वाचनाचार्य वह आचार्य, जो श्रुत का अध्यापन करता है।
(स्था ४.४२३)
वाक्समाधारणा स्वाध्याय में वचन का नियोजन। 'वाक्समाधारणया' स्वाध्याय एव वाग्निवेशनात्मिकया वाचा समाधारणा वाक्समाधारणा।
(उ २९.५८ शावृ प ५९२) वाक्समितियोग अहिंसा महाव्रत की एक भावना। संक्लेशकारक वचन न बोलना। वतीते पावियाते पावगं न किंचि जि भासियव्वं । एवं । वतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्या।
(प्रश्न ६.१९)
वाचनासम्पदा गणिसम्पदा का एक प्रकार। जो शिष्य जिस ज्ञान के योग्य हो, उसे वैसा अध्ययन कराना। वायणासंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-विजयं उद्दिसति, विजयं वाएति, परिनिव्वावियं वाएति, अत्थनिज्जवए यावि भवति।
(दशा ४.८)
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(निभागा २९)
वाचिक ध्यान १. वाणी का वह प्रयोग, जिसमें उपयोगपूर्वक श्रुत का परावर्तन किया जाता है। श्रुतपरावर्त्तनादिकमुपयुक्तः करोति तद् वाचिकम्।।
(बृभा १६४२ वृ) २. पाप-मुक्त भाषा वक्तव्य है और पाप-युक्त भाषा वर्जनीय है-इस प्रकार विमर्शपूर्वक बोलना। वाचिकंतुमयेदृशी निरवद्या भाषा भाषितव्या, नेदृशी सावद्या' इति विमर्शपुरस्सरं यद् भाषते। (बृभा १६४२ वृ)
वाद तत्त्व का संरक्षण करने के लिए सभापति और सभासदों के सामने साधन और दूषण का कथन। तत्त्वसंरक्षणार्थं प्राश्निकादिसमक्षं साधनदूषणवदनं वादः।
(प्रमी २.१.३०)
वाच्य एक समय में एक धर्म का प्रतिपादन किया जा सकता है, इस अपेक्षा से धर्मी (द्रव्य) वाच्य है। वाग्गोचरं वाच्यम्।
(भिक्षु ६.९) ""एकैकधर्मापेक्षया वाच्यम्। (भिक्षु ६.११ वृ)
वातकुमार वे भवनपति देव, जिनका शरीर स्थिर, 7 ट और गोल आकार वाला होता है, उदर गंभीर होता , जिनका चिह्न है अश्व। स्थिरपीनवृत्तगात्रा निम्नोदरा अश्वचिह्ना अवदाता वातकुमाराः।
(तभा ४.११)
वादी १. वादलब्धि से सम्पन्न। शास्त्रार्थ में निपुण। वादी वादलब्धिसम्पन्नः। (स्था ९.२८ ७ प ४२८) २. वह मुनि, जो परवादियों के साथ बात करने के लिए नियुक्त होता है।
(व्यभा १९४३) वानमन्तर देव देवनिकाय का दूसरा प्रकार, जिसका अवधिज्ञान और ऐश्वर्य सब देवों से अल्प होता है तथा जिसका आवासक्षेत्र मध्यलोक और नरक का एक भाग है।
(उ ३६.२०४) (द्र व्यन्तर देव, वनचारी देव ) वामन संस्थान संस्थान का चौथा प्रकार, जिसमें हाथ, पैर, शिर और गर्दन प्रमाणोपेत होते हैं, शेष अंग प्रमाणयुक्त नहीं होते। 'वामण'त्ति मडहकोष्ठं यत्र हि पाणिपादशिरोग्रीवं यथोक्तप्रमाणोपेतं यत्पुनः शेष कोष्ठं तन्मडभं-न्यूनाधिकप्रमाणं तद्वामनम्।
(स्था ६.३१ वृ प३३९)
वायु
वात्सल्य सम्यक्त्व का सातवां आचार। १. साधर्मिक का आदर करना। वच्छल्लं आदरेत्यर्थः।
(निभा २९ चू) २. जिनप्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग करना। जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता वात्सल्यम्।
(तवा ६.२४.१) ३. भक्ति। वात्सल्यम् भक्तिः।
(जैसिदी ५.११ वृ) ४. गुरु, रुग्ण, बाल, वृद्ध आदि मुनियों की अग्लान भाव से सेवा करना, उन्हें आहार आदि लाकर देना।
वह वायु, जो वायुकायिक जीवों की उत्पत्ति के योग्य है। वायुकायिकजीवसम्पूर्छनोचितो वायुः वायुमात्रं वायुरुच्यते।
(तश्रुव २.१३) वायुकाय १. जीवनिकाय का चौथा प्रकार। (आचूला १५.४२) (द्र वायुकायिक) २. वायुकायिक जीवों के द्वारा मुक्त शरीर, जो संचरणशील
साहम्मि य वच्छल्लं, आहारातीहिं होइ सव्वत्थ। आएसगुरुगिलाणे, तवस्सिबालादि सविसेसं॥
वायुकायिकजीवपरिहृतः सदा विलोडितो वायुर्वायुकायः कथ्यते।
(तश्रुव २.१३)
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२६२
३. वह वायु, जो उत्पत्तिकाल में अचेतन होती है और परिणामान्तर होने पर सचेतन भी हो सकती है। जैसेआक्रांत, ध्मात आदि ।
पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा - अक्कंते, धंते, पीलिए, सरीराणुगते, संमुच्छिमे ।
एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवन्तीति ।
(स्था ५.१८३ वृ प ३१९ )
वायुकायिक
वे जीव, जिनका शरीर वायु है।
वायुः चलनधर्मा प्रतीत एव स एव कायः - शरीरं येषां ते वायुकायाः, वायुकाया एव वायुकायिकाः ।
(द ४ सूत्र ३ हावृ प १३८ )
वायुचारण
चरण ऋद्धि का एक प्रकार । वह मुनि, जो वायु की प्रदेशपंक्ति का आश्रय लेकर अस्खलित रूप से चरणविन्यास करता है । पवनेष्वनेकदिग्मुखोन्मुखेषु प्रतिलोमानुलोमवृत्तिषु तत्प्रदेशावलीमुपादाय गतिमस्खलितचरणविन्यासामास्कन्दन्तो वायुचारणाः । (योशा १.९ वृ पृ ४५)
वायु
वह जीव, जो वायु को शरीररूप में ग्रहण करने के लिए प्रस्थित है - कार्मण काययोग में वर्तमान है।
वायुं कायत्वेन गृहीतुं प्रस्थितो जीवो वायुजीव उच्यते । (तश्रुवृ २.१३)
वारुणी धारणा
पिण्डस्थ ध्यान का एक प्रकार, जिसमें साधक यह अनुभव करता है कि दोषों के दग्ध होने से निष्पन्न हुई भस्म के अवशिष्ट भाग को मेघराशि प्रक्षालित कर रही है। स्मरेद् वर्षत् सुधासारैर्घनमालाकुलं नभः । ततोऽर्धेन्दुसमाक्रान्तं मण्डलं वरुणाङ्कितम् ॥ नभस्तलं सुधाम्भोभिः प्लावयत् तत्पुरं ततः । तद्रजः कायसम्भूतं क्षालयेदिति वारुणी ॥
(योशा ७.२१, २२) महामेघेन तद्भस्मप्रक्षालनाय चिन्तनं वारुणी ।
(मनो ४.२१)
वालुका
परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। वे असुर देव, जो नैरयिकों
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
को वालुकापात्र में चनों की भांति भुनते हैं तथा कदम्बाकार पात्र में उन्हें गिराकर आकाश में उछालते हैं । तडतडतडत्ति भज्जंति, भायणे कलंबवालुगापट्टे । वालूगा नेरइया, लोलंति अंबरतलम्मि ॥ (सूत्रनि ७९)
वासुदेव
अर्द्ध चक्रवर्ती, तीन खण्ड भूमि का स्वामी, जो बीस लाख अष्टापद शक्ति से युक्त होता है, जिसका अस्त्र है चक्र | जं सवस्स उ बलं तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । तत्तो बला बलवगा ॥ वासुदेवाः सप्तरत्नाधिपाः अर्द्धभरतप्रभवः ।
(आवनि ७५)
(आवमवृ प ७९)
जहा से वासुदेवे, संखचक्कगयाधरे । अप्पsिहयबले जोहे ॥
( उ ११.२१)
वास्तुविद्या
वह विद्या, जिसके द्वारा प्रासाद आदि की रचना के आधार पर शुभ - अशुभ का निर्देश किया जाता है।
'वास्तुविद्या' प्रासादादिलक्षणाभिधायिशास्त्रात्मिका । (उशावृ प ४१७ )
विकथा
वह कथा, जिससे संयम में बाधा उत्पन्न होती है, जो चारित्र के विपरीत या विरुद्ध होती है ।
विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा – वचनपद्धतिर्विकथा | (स्था ४.२४१ वृ प १९९) विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्त्र्यादिविषयाः कथा विकथाः ।
(सम ४.३ वृ प ९)
विकल प्रत्यक्ष
वह अतीन्द्रियज्ञान, जिसके द्वारा केवल मूर्त द्रव्यों का साक्षात् ग्रहण होता है, जैसे अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान । मइसुइ परोक्खणाणं ओहीमणं होइ वियलपच्चक्खं । (नच १७० )
विकलादेश नयवाक्य - एक धर्म का प्रतिपादन करने वाला वचन । विकलादेशो नयाधीनः । ( तवा ४.४२.१३) निरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः ।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
नयविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य यदा कालादिभिर्भेदविवक्षा क्रियते तदा एकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रतिपादने सामर्थ्याभावाद् भेदवृत्त्या भेदोपचारेण वा क्रमेण यदभिधायकं वाक्यं स विकलादेशः । (प्रनत ४.४५ वृ)
विकलेन्द्रिय
वे स प्राणी, जो दो, तीन, चार इन्द्रियों वाले होते हैं । विकलेन्द्रियाः द्वित्रिचतुरिन्द्रिया इत्यर्थः । ( प्रसा १०६६ वृ) विकारक कर्म
मोहनीय कर्म, जो दर्शन और चारित्र को विकृत करता है। तत्कर्म दृष्टिचारित्रयोर्विकारस्य ""हेतु भवति ।
(जैसिदी ४.२ वृ)
विकाल
संध्या का समय अथवा संध्या के बाद का समय । सन्ध्यायां तु यत एते विरमन्ति ततः सा विकालः । (बृभा ३०४२ वृ)
विकुर्वणा
वैक्रिय लब्धि अथवा शक्ति के द्वारा विविध आकृतियों का निर्माण करना।
या पुनर्बाह्यपुद्गलपर्यादानपूर्विका सोत्तरवैक्रियरचनालक्षणा, सा च विचित्राभिप्रायपूर्वकत्वाद् वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधशक्तिमत्त्वाच्चैकजीवस्याप्यनेकापि स्यादिति
(स्था १.१८ वृप १८)
पर्यवसितम् ।
विकृति
वह पदार्थ, जो मानसिक विकार पैदा करता है, जैसे- दूध, दही आदि ।
ra विगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - खीरं, दधिं, णवणीतं, (स्था ९.२३)
सप्पिं, तेलं, गुलो, महुं, मज्जं, मंसं । दुद्धं दहि नवणीयं घयं तहा तेल्लमेव गुड मज्जं । महु मंसं चेव तहा ओगाहिमगं च विगईओ ॥ विकृतयो - मनसो विकृतिहेतुत्वात् ।
(द्र महाविकृति)
विकृष्ट तप तेला, चोला आदि तप ।
(प्रसा २१७ वृप ५३ )
विकृष्टं - अष्टमदशमद्वादशादिकं तपः कर्म भवति ।
२६३
(प्रसावृ प २५४)
विक्रिया
(द्र विकुर्वणा)
विक्षिप्ता
प्रतिलेखना का एक दोष । प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों पर रखना अथवा वस्त्र के अञ्चल को इतना ऊंचा उठाना कि उसकी प्रतिलेखना न हो सके। विक्षेपणं विक्षिप्त सा च प्रत्युपेक्षितवस्त्रस्यान्यत्राप्रत्युपेक्षिते क्षेपणं, प्रत्युपेक्षमाणो वा वस्त्राञ्चलं यदूर्ध्वं क्षिपति । ( उ २६.२६ शावृ प ५४०, ५४१ )
( तवा २.३६ )
विक्षेपणी
वह कथा, जिसके द्वारा स्वसमय की स्थापना की जाती है। विक्खेवणी" ससमयं कहेइ, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेड़, परसमयं कहेत्ता ससमयं ठावइत्ता भवति । (स्था ४.२४८) विग्रहगति
१. अंतरालगति, एक स्थान से दूसरे जन्मस्थान में जाते समय होने वाली जीव की गति, जो एकसामयिक, द्विसामयिक, त्रिसामायिक अथवा चतु: सामयिक होती है ।
२. वक्र गति, जो एक जन्म से दूसरे जन्म के अंतराल में, उत्पत्तिस्थान के विश्रेणि में स्थित होने पर होती है । इसमें दो, तीन अथवा चार समय लगते हैं।
उज्जुआयता सेढी उववज्जमाणे एगसमइएणं एगओवंकाए सेढीए''''दुसमइएणं दुहओवंकाए सेढीए'''' तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ।...
....जे भविए विसेदिं उववज्जित्तए, से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । (भग ३४.३, १५)
यदा मरणस्थानाऋज्वायता श्रेणि
विशिष्ट स्थानप्राप्तिहेतुभूता गतिर्विग्रहः पेक्षयोत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां भवति तदा भवति । (भग ३४.२, ३ वृ) विग्गो वक्को कुटिलो त्ति एगट्ठा । (धव पु४ पृ २९) विग्रहगतिः - वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात् । (स्थावृ प ५२) कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिकाकारेण यथाक्रमं द्वित्रिचतुः समय
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२६४
प्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्य । (प्रज्ञावृ प ४७३) ३. वह गति, जो विग्रह (शरीर) - निर्माण के लिए होती है । ४. वह गति, जिसमें नोकर्मपुद्गलों का ग्रहण नहीं होता । विग्रहो देहस्तदर्था गतिर्विग्रहगतिः ।'''''विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघातः, नोकर्मपुद्गलादाननिरोध इत्यर्थः । (तवा २.२५)
विचय ध्यान
ध्यान की वह अवस्था, जिसमें वस्तुसत्य का पर्यालोचना, अन्वेषणा, विवेचना, विचारणा और विचिति की जाती है। आज्ञादीनां विचयः - पर्यालोचनम् । विचयः - अन्वेषणम् । (तभा ९.३७ वृ)
( तवा ९.३६.१ )
विचितिर्विवेको विचारणा विचयः । विचयो विपश्यना प्रेक्षा इत्यनर्थान्तरम्। (जैसिदी ६.४३ वृ)
विचारभूमि
वह स्थान, जहां उत्सर्ग किया जाता है।
विचारभूमिः पुरीषोत्सर्गभूमिः । (द्र उत्सर्ग समिति)
(व्यभा १७६७ वृ. प ८ )
विचिकित्सा
सम्यक्त्व का एक अतिचार । लक्ष्यपूर्ति के साधनों के प्रति संशयशीलता ।
विचिकित्सा - साधनेषु संशयशीलता। (जैसिदी ५.१० वृ)
विचित्र तप
उपवास, बेला, तेला आदि तप ।
'विचित्रं तु' इति विचित्रमेव चतुर्थषष्ठाष्टमादिरूपं तपः । (उ ३६.२५२ शावृ प ७०६ )
विजय
१. महाविदेह क्षेत्र के बत्तीस विभाग हैं। प्रत्येक विभाग को विजय कहा जाता है।
विदेहा मन्दरदेवकुरूत्तरकुरुभिर्विभक्ता क्षेत्रान्तरवद् भवन्ति । पूर्वे चापरे च । पूर्वेषु षोडश चक्रवर्त्तिविजयाः नदीपर्वतविभक्ताः परस्परागमाः । अपरेप्येवंलक्षणाः षोडशैव । (तभा ३.११) २. अनुत्तरविमानवासी देवों का प्रथम विमान, जो सर्वार्थसिद्ध विमान की एक दिशा में अवस्थित है। (द्र अपराजित)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
विज्ञ
जीव जिन नामों से वाच्य होता है, उनमें से एक। जीव तिक्त, कटु, कसैले, अम्ल और मधुर रसों को जानता है, इसलिए वह विज्ञ है ।
जम्हा तित्तकडुकसायंबिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा विष्णु त्ति । (भग २.१५ )
विज्ञान
अवाय की पांचवीं अवस्था, जिसमें अवधारित अर्थ की विशेष प्रेक्षा और अवधारणा होती है।
तम्मि चेवावधारितमत्थे विसेसे पेक्खतो अवधारयतो य विण्णाणे ति भण्णति । (नंदी ४७ चू पृ ३६)
विदारणक्रिया
क्रिया का एक प्रकार । आलस्य से प्रशस्त क्रियाओं को न करना और पर के पाप आदि का प्रकाशन करना । आलस्याद् वा प्रशस्तक्रियाणामकरणं पराचरितसावद्यादिप्रकाशनं विदारणक्रिया । (तवा ६.५.१० )
विदेह
(तसू ३.१० )
(द्र महाविदेह, विजय )
विद्या
वह विद्या, जिसकी अधिष्ठायिका देवी होती है और जो जप, होम आदि के द्वारा साधी जाती है। स्त्रीदेवताधिष्ठिता जपहोमसाध्या विद्या ।
(प्रसा ५६७ वृ प १४८ )
विद्याचरणविनिश्चय
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें विद्या और चारित्र का निरूपण किया गया है।
विज्जत्ति - नाणं, चरणं-चारित्तं, विविधो विसिट्ठी वा णिच्छयो सब्भावो स्वरूपमित्यर्थः, फलं वा निच्छयो, तं जत्थऽज्झयणे वणिज्जति तमज्झयणं विज्जाचरणविणिच्छयो । (नंदी ७७ चू पृ ५८)
विद्याचारण
१. विद्या - पूर्वगत श्रुत की आराधना से प्राप्त आकाशगमन की लब्धि से सम्पन्न मुनि ।
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'विजाचारण' त्ति विद्या-श्रुतं, तच्च पूर्वगतं तत्कृतोप- विद्युत्कुमार काराश्चारणा विद्याचारणाः। (भग २०.७९ वृ) वे भवनपतिदेव, जिनका शरीर स्निग्ध, प्रकाश वाला और २. विद्या-दिव्य शक्ति की साधना से प्राप्त गमनागमन की अवदात होता है। जिनका चिह्न है वज्र। लब्धि से सम्पन्न मुनि।
स्निग्धा भ्राजिष्णवोऽवदाता वज्रचिह्ना विद्युत्कुमाराः। ये पुनर्विद्यावशतः समुत्पन्नगमनागमनलब्धयस्ते विद्या
(तभा ४.११) चारणाः ।
(प्रसावृ प १६८)
विधानादेश विद्यातिशय
व्याख्या का एक कोण, जिसके द्वारा वस्तु के प्रकार जाने स्तम्भनविद्या, स्तोभविद्या, वशीकरण, विद्वेषीकरण, उच्चाटन
जाते हैं। आदि विशिष्ट विद्याएं।
'ओघादेसेणं' ति सामान्यतः, विहाणादेसेणं'ति विधानादेश: विद्यातिशया: स्तम्भस्तोभवशीकरणविद्वेषीकरणोच्चाटना
यत्समुदितामप्येकैकस्यादेशनं तेन। (भग २५.५८ ७) दयः।
(समप्र ९८७ प ११५) विधानम्-प्रकारः।
(जैसिदी १०.११ वृ) विद्याधर
विधि वह मुनि, जिसे प्रज्ञप्ति आदि अनेक विशिष्ट विद्याओं की
वस्तु का विद्यमान अंश। सिद्धि प्राप्त हो।
विधि: सदंशः।
(प्रनत ३.५६) 'विज्जाहरा' त्ति प्रज्ञप्त्यादिविविधविद्याविशेषधारिणः। (औप १.२४ वृ प ५४)
विधिनिर्गत
वह मुनि, जो गुरु की आज्ञा प्राप्त कर संघमुक्त साधना करता विद्याधरश्रमण
है, जैसे-जिनकल्पिक, प्रतिमाप्रतिपन्न, यथालन्दिक और वह श्रमण, जो दशपूर्व का अध्येता है और रोहिणी, प्रज्ञप्ति
शुद्धपारिहारिक। आदि विशिष्ट विद्याओं को धारण करता है।
विधिनिर्गताश्चतुर्धा-जिनकल्पिका: प्रतिमाप्रतिपन्ना यथाअन्येऽधीतदशपूर्वा रोहिणीप्रज्ञप्त्यादिमहाविद्यादिभिरंगुष्ठ
लन्दिकाः शुद्धपारिहारिकाः। (बृभा ५८२५ वृ) प्रसेनिकादिभिरल्पविद्याभिश्चोपनतानां भूयसीनामृद्धीनामवशगा विद्यावेगधारणात् विद्याधरश्रमणाः।
विनय (योशा १.८ वृ पृ ४१) १. संयम, जो आठ कर्मों को दूर करता है।
कर्माष्टकविनयनाद्विनयः-संयमः। (आवृ प ७१) विद्यानुप्रवाद
२. अचौर्य महाव्रत की एक भावना। गुरु, तपस्वी और दसवां पूर्व, जिसमें अतिशायी विद्याओं और मंत्रों की साधना
साधर्मिकों के प्रति तथा अध्ययन, जिज्ञासा आदि के अवसर की विधि का प्रज्ञापन किया गया है।
पर की जाने वाली विनम्रता। दसमं विज्जणुप्पवातं, तत्थ य अणेगे विज्जातिसया वण्णिता।
साहम्मिएसु विणओ पउंजियव्वो,""एवं विणएण भाविओ (नंदी १०४ चू पृ७६) भवति अंतरप्पा।
(प्रश्न ८.१३) विद्यापिण्ड
३. वह अनुकूल आचरण, जो रत्नत्रय युक्त व्यक्तियों के उत्पादन दोष का एक प्रकार। विद्या (देवी अधिष्ठित) का । प्रति; स्वाध्याय, संयम, संघ, गुरु और सब्रह्मचारी के प्रति प्रयोग कर भिक्षा लेना।
किया जाता है। (द्र चूर्णपिण्ड)
रयणत्तयजुत्ताणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए।
(काअ ४५८) विद्याप्रधान
स्वाध्याये संयमे सङ्के गुरौ सब्रह्मचारिणि।
(औप २५ वृ) यथौचित्यं कृतात्मानो विनयं प्राहुरादरम्॥ (द्र विद्याधर)
(उपासका २१३)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
४. आभ्यन्तर तप का एक प्रकार। आशातना न करना और शुक्लध्यान की एक अनुप्रेक्षा । वस्तुओं के विविध परिणामों बहुमान करना।
का चिन्तन करना। अनाशातना बहुमानकरणं विनयः। (जैसिदी ६.३८) 'विपरिणामे' त्ति विविधेन प्रकारेण परिणमनं विपरिणामो ५. ज्ञानाचार का एक प्रकार । ज्ञानप्राप्ति के प्रयत्न में विनम्र वस्तूनामिति गम्यते।
(स्था ४.७२ वृ प १८१) रहना।
विपर्यय विनये-विनयविषये ज्ञानस्य ज्ञानिनां ज्ञानसाधनानां च
जो वस्तु जैसी नहीं है, उसका उस रूप में ज्ञान होना। पुस्तकादीनामुपचाररूपः।
(प्रसावृ प ६४) अतस्मिंस्तदेवेति विपर्ययः।
(प्रमी १.१.७) विनयज्ञ वह मुनि, जो आचार तथा अनुशासन का ज्ञाता है।
विपाकजा निर्जरा विनयः-आचारः अनुशिष्टि। (आभा पृ १२२)
कर्म की कालावधि के समाप्त होने पर निर्धारित समय पर
कर्म के विपाक से होने वाली निर्जरा। विनयसम्पन्नता
क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनप्रविष्टज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा ज्ञानी, दर्शनी और चारित्रवान्
स्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा। के प्रति होने वाला आदर अथवा कषाय की निवृत्ति।
(ससि ८.२३) ज्ञानादिषु तद्वत्सु चादरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता। (द्र अविपाकजा निर्जरा)
(तवा ६.२४.२)
विपाकप्राप्त विनयहीन
कर्म की वह अवस्था, जिसमें फल देने की शक्ति परिपक्व ज्ञान का एक अतिचार । विरामरहित उच्चारण करना।
हो जाती है, कर्म फलदान में प्रवृत्त हो जाता है। अकृतोचितविनयम्। (आव ४.८ हावृ २ पृ १६१) विपाकप्राप्तस्य विशिष्टपाकमुपगतस्य। विनयोपग
(प्रज्ञा २३.१३ वृप ४५९) योगसंग्रह का एक प्रकार। विनम्र होना, अहंकार से मुक्त
विपाक विचय होना।
धर्म्यध्यान का तीसरा प्रकार । कर्म के विविध फलों को ध्येय विनयोपगतो भवेत् न मानं कुर्यात्।
बनाकर उसमें होने वाली एकाग्रता।
विविधो विशिष्टो वा पाको विपाक:-अनुभावः"तस्य (सम ३२.१.२ १ प ५५) विनिघात
विचयः-अनुचिन्तनं मार्गणम्। (तभा ९.३७ वृ) शारीरिक और मानसिक दुःख का उदय अथवा कर्मों का
विपाकश्रुत फलविपाक।
द्वादशाङ्ग का ग्यारहवां अङ्ग, जिसमें शुभ और अशुभ कर्मों अधिको णियतो वा घातः निघातः, विविधो वा घात:शरीर- के बंधन, प्रभाव और परिणामों का वर्णन है। मानसदुःखोदयो अट्ठपगारकम्मफलविवागो वा।
विवागसुए णं सुकडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघ(सूत्र १.७.३ चू पृ १९१) विज्जइ। तत्थ णं दस दुहविवागा, दस सुहविवागा"से णं
अंगट्ठयाए इक्कारसमे अंगे"संखेज्जाइं पयसहस्साई पयविनिवर्तना
ग्गेणं"।
(समप्र ९९) इन्द्रियविषयों से मन को लौटाना। 'विनिवर्तनया'विषयेभ्य आत्मनः पराङ्मुखीकरणरूपया।
विपाकश्रुतधर (उ २९.३३ शावृ प ५८७) वह मुनि, जो विपाकश्रुत के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ
होता है। विपरिणामानुप्रेक्षा
अप्पेगइया विवागसुयधरा।
(औप ४५) For Private & PersonaLUse Only. -...----
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आदि का सापेक्ष प्ररूपण। विभज्यवादो नाम भजनीयवादः। तत्र शंकिते भजनीयवाद एव वक्तव्यः-अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि पुच्छेज्जसि।अथवा विभज्यवादो नाम अनेकांतवादः, स यत्र यत्र यथा युज्यते तथा तथा वक्तव्यः, तद्यथा-नित्यानित्यत्वमस्तित्वं वा प्रतीत्यादि।
__ (सूत्र १.१४.२२ चू पृ २३५) विभाग पर्याय का एक लक्षण । वियुक्त पदार्थों में भिन्नता की प्रतीति
का कारणभूत पर्याय, जैसे-यह उससे विभक्त है। वियुक्तेषु भेदज्ञानस्य कारणभूतो विभागः, यथा अयमितो विभक्तः।
(जैसिदी १.४६ )
विपाकोदय कर्म की वह उदयावस्था, जिसमें उसके विपाक (फल) का अनुभव होता है। यत्र फलानुभवः स विपाकोदयः। (जैसिदी ४.५ वृ) विपुलमतिमन:पर्यव मन के विशेष और विविध पर्यायों को जानने वाला मन:पर्यवज्ञान। विपुला मती विपुलमती, बहुविसेसग्गाहिणि त्ति भणितं भवति।
(नंदी २४ चू पृ २२) विउलमती नाम मणोगयं भावं पडुच्च सपज्जायग्गाहिणी मती।
(आवचू १ पृ ६८) विपुडौषधि लब्धि का एक प्रकार । मल-मूत्र के द्वारा रोग दूर करने वाली योगज विभूति। विट्ठ ओसहिसामत्थजुत्तत्तेण विप्पोसही भन्नति। विप्पोसधी य रोगाभिभूतं अप्पाणं वा परं वा छिवत्ति तं तक्खणा चेव ववगयरोगायंकं करोति।
(आवचू १ पृ६८) विड् उच्चारः""आत्मानं परं वा रोगापनयनबद्धया विडादिभिः स्पृशतः साधोस्तद्रोगापगमः। (विभा ७७९ वृ) विभङ्गज्ञान वह अतीन्द्रिय ज्ञान (अवधिज्ञान), जो मिथ्यादृष्टि को उपलब्ध होता है। तं चेव ओहिण्णाणं मिच्छादिट्ठिस्स वितहभावगाहित्तणेण विभंगणाणं भण्णति।
(आवचू १ पृ६४) मिथ्यादृष्टेरवधिर्विभङ्ग उच्यते। (तभा २.५ वृ) । विभक्तिभाव कर्म के द्वारा होने वाला जीव और जगत-जीवसमूह का नानात्व। कम्मओणं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ।
(भग १२.१२०) विभज्यवाद १. भजनीयवाद, विश्लेषण अथवा विभागपूर्वक प्रयुक्त किया । जाने वाला वचन। २. अनेकान्तवाद। नित्यत्व-अनित्यत्व, अस्तित्व-नास्तित्व
विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण द्रव्य प्रमाण का एक प्रकार। वह माप (या तोल) जिसमें मेय और मापक पृथक्-पृथक होते हैं। जैसे-१ किलो गेहूं, १ क्विटल बाजरा आदि। (अनु ३७२) विभावपर्याय दूसरे के निमित्त से होने वाली अवस्था। परनिमित्तापेक्षो विभावपर्यायः। (जैसिदी १.४५)
विभूषा अनाचार का एक प्रकार । शरीर की विभूषा करना जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। विभूषणं अलंकरणं। __ (द ३.९ अचू पृ६२) विभूषापरिवर्जन ब्रह्मचर्य गुप्ति का नौवां प्रकार । शरीर की विभूषा का वर्जन करना। विभूसं परिवजेज्जा, सरीरपरिमंडणं। बंभचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए॥ (उ १६.९) विमर्श ईहा की पांचवीं अवस्था, जिसमें अर्थ के नित्य, अनित्य आदि धर्मों का विमर्श होता है। "तमेवत्थं णिच्चाऽणिच्चादिएहिं दव्वभावेहिं विमरिसतो वीमंसा भण्णति।
(नन्दी ४५ चू पृ ३६)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
विमान वे आवास स्थान, जहां वैमानिक देव रहते हैं। 'विमानानि' सौधर्मावतंसकादीनि। (द६.६८ हा प २०७)
विमानवासी
(स्था ४.१२४) (द्र वैमानिक देव) विरत १. वह व्यक्ति, जो प्राणवध आदि आश्रव-द्वारों में प्रवृत्त नहीं होता, उनके प्रति जिसमें प्रीति नहीं होती। पाणवधादीहिं आसवदारेहिं न वट्टइ त्ति विरतो।
(द ४ सूत्र १८ जिचू पृ७४) २. वह व्यक्ति, जो बारह प्रकार के तप में रत होता है। विरओ णामऽणेगपगारेण बारसविहे तवे रओ।
(दजिचू पृ १५४) विरताविरत १. देशविरत, श्रावक। २. जीवस्थान/गुणस्थान का पांचवां प्रकार । संयम और असंयम दोनों से युक्त जीव की आत्मविशुद्धि। विरताविरतो-देशविरतः। (सम १४.५ वृ प २६) विरताविरतो मणुयपंचेंदियतिरिएसु देशमूलुत्तरगुणपच्चक्खाणी।
(आवचू २ पृ १३४) विरति संवर सावधवृत्ति-पापकारी प्रवृत्ति और अन्तर्लालसा का त्याग करने से होने वाला कर्म के आगमन का निरोध, अव्रत आश्रव का निरोध। सावद्यवृत्तिप्रत्याख्यानं विरतिः। (जैसिदी ५.१२) विराधक १. वह व्यक्ति, जो रत्नत्रयात्मक अपनी विशुद्ध आत्मा को । छोड़कर पर द्रव्य का विचार करता है। जो रयणत्तयमइओ मुत्तूणं अप्पणो विसुद्धप्पा। चिंतेइ य परदव्वं विराहओ निच्छयं भणिओ॥
(आसा २०) २. लक्ष्य-सिद्धि के लिए सम्यक साधना न करने वाला।
(भग ३.७२)
३. वह व्यक्ति, जो स्वीकृत व्रत का अतिक्रमण करने के बाद उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त नहीं करता।
(भग ८.२५१) विराधना लक्ष्य-सिद्धि के लिए उपयुक्त साधना का भङ्ग करना।
(सम ३.५) विरुद्धराज्यातिक्रम स्थूलअदत्तादानविरमण व्रत का एक अतिचार। दो विरोधी राज्यों की सीमा का अतिक्रमण कर व्यापार करना, आयातनिर्यात करना। विरुद्धनपयो राज्यं तस्यातिक्रमः-अतिलङ्गन विरुद्धराज्यातिक्रमः।
(उपा १.३४ वृ पृ१२) विरुद्धहेत्वाभास विवक्षित साध्य से विपरीत पक्ष में व्याप्त हेतु, जिसका अविनाभाव साध्य से विपरीत के साथ हो, जैसे-शब्द नित्य है, क्योंकि वह कार्य है। साध्यविपर्ययेणैव यस्यान्यथाऽनुपपत्तिरध्यवसीयते स विरुद्धः।
(प्रनत ६.५२) विवक्षितसाध्याद् विपरीते एव व्याप्तो हेतुः-विरुद्धः, यथा-नित्यः शब्दः, कार्यत्वात्। (भिक्षु ३.१८७)
विरेचन अनाचार का एक प्रकार । रोग की संभावना से बचने के लिए तथा रूप, बल आदि बनाए रखने के लिए जलाब आदि का प्रयोग करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। (द्र वमन)
विविक्तवासवसतिसमितियोग अचौर्य महाव्रत की एक भावना। यथाकृत, प्रासुक और विविक्त (एकान्त) उपाश्रय में निवास करना। ""अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियव्वं"एवं विवित्तवासवसहिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा।
(प्रश्न ८.९)
विविक्तशयनासन ब्रह्मचर्यगुप्ति का प्रथम प्रकार। नो इत्थीपसपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ, से
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(उ १६ सूत्र ३)
निग्गंथे। (द्र संसक्तशय्यासनवर्जन)
विवृतयोनि वह उत्पत्ति स्थान, जो चौड़ा होता है। संवृता प्रच्छन्ना सङ्कटा वा। तद्विपरीता विवृता।
(तभा २.३३ वृ)
चासौ कोटिश्च-भेदश्च विशोधिकोटिः।
(पिनिवृ प ११७) आधाकर्म, औद्देशिकत्रिकं, पूतिकर्म, मिश्रजातं, बादरप्राभृतिका, अध्यवपूरश्चैते षडुद्गमदोषा अविशुद्धकोट्यन्तर्गता गृहीताः शेषास्तु विशुद्धकोट्यन्तर्भूताः ।
(आवृ प ११९)
विवेक शुक्लध्यान का एक लक्षण। शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान। देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनं-बुद्धया पृथक्करणं विवेकः। (स्था ४.७० वृप १८१)
विश्रेणि वह आकाशश्रेणि, जो विदिशा में आश्रित होती है। 'विसेढि'त्ति विरुद्धा विदिगाश्रिता श्रेणी यत्र तद्विश्रेणि"।
(भग. २५.९२ वृ प ८६८)
विषय राग राग का एक प्रकार। कामराग, शब्द आदि इन्द्रियविषयों में अनुराग।
(विभा २९६४, २९६५) (द्र राग)
विवेकप्रतिमा प्रतिमा का एक प्रकार। आत्मा और पुद्गल का भेदज्ञान कराने वाली प्रतिमा, जिसमें साधक आत्मा से क्रोध, मान, माया और लोभ की भिन्नता का अनचिंतन करता है।
(स्था २.२४४)
विवेकप्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का एक प्रकार। उद्गम आदि दोषों से अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करने के पश्चात् जानकारी होने पर उस आहार का विसर्जन करना। आहारातीणं उग्गमादिअसुद्धाणं गहिताणं पच्छा विण्णाताणं संपत्ताणं वा विवेगो परिच्चागो। (आव २ प २४६)
विषवाणिज्य कर्मादान का एक प्रकार । सांप, बिच्छू आदि के विष का तथा शस्त्र का विक्रय। विसवाणिज्जं भन्नइ विसलोहप्पाणहणणविक्किणणं। धणुह-सरखग्ग-छुरिआ-परसुय-कुद्दालियाईणं॥
(प्रसावृ प ६२)
विसाम्भोजिक संभोज का अतिक्रमण करने पर जिस मुनि का सभी मंडलियों से संबंध विच्छेद कर दिया गया हो। विसाम्भोगिकं-मण्डलीबाह्यम्। (स्था ९.२ ७ प २८५)
विशेष वह धर्म, जो भेदप्रतीति का निमित्त बनता है, जो सब द्रव्यों में सामान्य रूप से उपलब्ध नहीं होता है, जिसके आधार पर द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध होती है। भेदप्रतीतेर्निमित्तं विशेषः।
(भिक्षु ६.७) (द्र सामान्य)
विस्ताररुचि १.रुचि का एक प्रकार। प्रमाण और नय की विविध भङ्गियों के बोध से उत्पन्न होने वाली रुचि। २. विस्ताररुचिसम्पन्न व्यक्ति। दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा। सव्वाहि नयविहीहि य वित्थाररुड त्ति नायव्वो॥
(उ २८.२४)
विशोधिकोटि वे उद्गम दोष, जिनका किसी स्थिति में शोधन हो सकता है, जिनसे दूषित आहार आदि को पृथक् कर देने पर शेष आहार आदि शुद्ध हो जाते हैं, जैसे-क्रीतकृत आदि। विशुध्यति शेषं शुद्धं भक्तं यस्मिन्नुभृते, यद्वा विशुध्यति पात्रमकृतकल्पत्रयमपि यस्मिन्नुज्झिते सा विशोधिः, सा
वित्रसा बन्ध द्रव्य के प्रदेशों की स्वाभाविक संरचना। १. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के
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प्रदेशों की संरचना-यह अनादि विरसा बंध है। २. परमाणुओं का स्कंध के रूप में निर्माण तथा परमाणस्कंधों का बादल आदि के रूप में परिणमन-यह सादि विस्त्रसा बंध है। धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे, अधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे, आगासस्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे। बंधणपच्चइए-जण्णं परमाणुपोग्गलदुप्पदेसिय .... अणंतपदे-सियाणं खंधाणं बंधे॥ परिणामपच्चइए-जणं अब्भाणं, अब्भरुक्खाणं"बंधे.॥
(भग ८.३४७,३५१,३५३)
य दट्ठव्वा, एतेसिं सवित्थरो विधी जत्थ अज्झयणे (वण्णिज्जति) तमज्झयणं विहारकप्पो। (नन्दी ७७ चू १५८) विहारभूमि वह स्थान, जो मुनि के स्वाध्याय के लिए नियत है। 'विहारभूमौ' स्वाध्यायभूमौ। (बृभा ३२१८ वृ) विहारविकटन बल-वीर्य होने पर भी तप-उपधान आदि में उद्यम न करने की आलोचना। संतम्मि य बलविरिए, तवोवहाणम्मि जं न उज्जमियं। इस विहारवियडणा,"॥
(निभा ६३२२)
वीचिपथ वह मार्ग, जिसका अनुसरण करने वाला जीव कषाययुक्त होता है। कषायाणां जीवस्य च सम्बन्धो वीचिशब्दवाच्यः ततश्च वीचिमतः कषायवतो. पंथे'त्ति मार्गे। (भग १०.११७)
विहायोगति १. जीव और पुद्गल की गतिक्रिया। इसके स्पृशद्गति आदि सत्रह प्रकार हैं। विहायगती सत्तरसविहा पण्णत्ता, तं जहा-फुसमाणगती अफुसमाणगती उवसंपज्जमाणगती अणुवसंपज्जमाणगती पोग्गलगती मंडयगतीणावागतीणयगती छायागती छायाणवायगती लेसागती लेस्साणुवायगती उद्दिस्सपविभत्तगती चउपुरिसपविभत्तगती वंकगती पंकगती बंधणविमोयणगती।
(प्रज्ञा १६.३८) २. नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव गमन करता है। आकाशगमन और उडने में भी इसका योग रहता
विहायसा-नभसा गतिः-प्रवृत्तिर्विहायोगतिः।"प्रशस्ता हंसहस्तिवृषभादीनां, अप्रशस्ता तु खरोष्ट्रमहिषादीनामिति।
(प्रसा वृ प ३६५)
विहार आलोचना
वीजन मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार । पंखे आदि से हवा लेना। वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एव। (द ३.२ हावृ प ११७) वीतराग वह मुनि, जिसके राग-द्वेष सर्वथा उपशांत अथवा क्षीण हो चुके हैं। वीयरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवसंतकसायवीयरागचरित्तारिया य खीणकसायवीयरागचरित्तारिया य॥
(प्रज्ञा १.११५) मोहणीयक्खएण वीयराओ। (धव पु९ पृ११८) वीतरागश्रुत उत्कालिक श्रृत का एक प्रकार, जिसमें मुख्यतया वीतराग के स्वरूप का विवेचन है। सरागो वीतरागो य एतेसिं जत्थ सरूवकहणा, विसेसतो वीतरागस्स, तमज्झयणं वीतरागसुतं।
(नन्दी ७७ चू पृ५८) वीतरागसंयम उपशांत या क्षीण कषाय वाले मुनि का संयम।
(निभा ६३२२)
(द्र विहारविकटन)
विहारकल्प उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें जिनकल्प, स्थविरकल्प, प्रतिमाधारी, यथालन्दक और पारिहारिक-मुनि की इन पांचों श्रेणियों का कल्प विस्तार से प्रतिपादित है। विहरणं विहारो, तस्स कप्पो-विधि त्ति वुत्तं भवति, सो जिणकप्पे थेरकप्पेवा, जिणकप्पे पडिम-अहालंद-परिहारिया
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वीयरागसंजमे दविहे पण्णत्ते, तं जहा-उवसंतकसायवीय- वीर्य आत्मा रागसंजमे चेव, खीणकसायवीयरागसंजमे चेव।
आत्मा का वह पर्याय, जो उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार 'वीयरागे'त्यादि, उपशान्ता:-प्रदेशतोऽप्यवेद्यमानाः कषाया
और पराक्रमरूप होता है। यस्य यस्मिन् वा स तथा साधुः संयमो वेति।
उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणाम्। (भग १२.२०० वृ) (स्था २.११४ वृ प ४९)
वीर्यप्रवाद पूर्व वीतरागसम्यक्त्व
तीसरा पूर्व, जिसमें जीव और अजीव के वीर्य का प्रज्ञापन दर्शनसप्तक (अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक) का
किया गया है। अत्यंत विलय होने पर होने वाली आत्मविशुद्धि ।
ततियं वीरियप्पवायं, तत्थ वि अजीवाणं जीवाण य सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् आत्यन्तिकेऽपगमे सत्यात्मविशुद्धि
सकम्मेतराण वीरियं प्रवदति त्ति वीरियप्पवादं, तस्स वि मात्रमितरद्वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते। (तवा १.२.३१)
सत्तरं पदसतसहस्सा।
(नन्दी १०४ चू पृ७५) वीरासन
वीर्याचार सिंहासन पर बैठकर उसे निकाल देने पर होने वाली शरीर
ज्ञान आदि के विषय में किया जाने वाला शक्ति का सम्यक की मुद्रा।
प्रयोग। सिंहासनाधिरूढस्यासनापनयने सति।
वीर्याचारो ज्ञानादिप्रयोजनेष वीर्यस्यागोपनम्। तथैवावस्थितिर्या तामन्ये वीरासनं विदः॥
(समप्र ८९ वृ प १००) (योशा ४.१२८) (द्र वज्रासन)
वीर्यान्तराय वीरासनिक
अंतराय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से स्वस्थ और
पुष्ट शरीरवाले युवक में भी प्राणशक्ति की अल्पता होती है। कायक्लेश का एक प्रकार । विरासन की मुद्रा में बैठने वाला।
तत्र कस्यचित् कल्पस्याप्युपचितवपुषोऽपि यूनोऽप्यल्पवीरासनिको-यः सिंहासननिविष्टमिवास्ते।
प्राणता यस्य कर्मण उदयात् स वीर्यान्तरायः। (स्था ७.४९ ७ प २७८)
(तभा ८.१४ वृ) (द्र वीरासन)
वृत्तिपरिसंख्यान वीर्य
(तसू ९.१९) १. वह शक्ति, जो शरीर से उत्पन्न होती है।
(द्र वृत्तिसंक्षेप) से णं भंते! वीरिए किंपवहे ? गोयमा! सरीरप्पवहे।
(भग १.१४४)
वृत्तिसंक्षेप २. द्रव्य की वह शक्ति, जो स्वाभाविक होती है।
बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार। विविध प्रकार के अभिग्रहों द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम्। (ससि ६.६) (प्रतिज्ञाओं) से वृत्ति-भिक्षाचर्या का संक्षेपीकरण करना। ३. आत्मा का वह परिणाम, जो वीर्यान्तराय के क्षय और नानाभिग्रहाद् वृत्त्यवरोधो वृत्तिसंक्षेपः। क्षयोपशम से होता है।
(जैसिदी ६.३२) विरियंतरायदेसक्खएण सव्वक्खएण जा लद्धी।
वृद्धवैयावृत्त्यकर अभिसंधिजमियरं वा तत्तो विरियं सलेसस्स॥
वह मुनि, जो वृद्ध साधु-साध्वियों की सेवा में नियुक्त होता (कप्र३)
___ (व्यभा १९४३) वीर्यं वीर्यान्तरायक्षयोपशमक्षयजं खल्वात्मपरिणामः। (आवनि १५१३ हावृ पृ १९५) वृषभ
१. वह मुनि, जो गच्छ के शुभ-अशुभविषयक चिंतन के
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मिश्रात् क्षायिकं गच्छतः तदन्त्यसमये तत्प्रकृतिवेदनात् वेदकम्।
(जैसिदी ५.४)
लिए नियुक्त हो। 'वृषभाः' गच्छस्य शुभाऽशुभकार्यचिन्तानियुक्ताः।
(बृभा २०८५ वृ) २. गीतार्थ, जिसने विकार पर विजय प्राप्त कर ली। गीतार्था अविकारिणो वृषभा उच्यन्ते। (बृभा ५१८७ वृ) वृषीमान् वह मुनि, जो जितेन्द्रिय है और साधुजनोचित गुणों से युक्त
वशे येषामिन्द्रियाणि ते भवंति वुसीम, वसंति वा साधुगुणेहिं वुसीमंतः।
(उ ५.१८ चू पृ १३७) वृष्णिदशा कालिक श्रुत का एक प्रकार । उपांग का पांचवां वर्ग, जिसमें वृष्णिवंश के बारह राजकुमारों की चारित्राराधना तथा सर्वार्थसिद्धि में उत्पत्ति और सिद्धि का निरूपण है। अंधगवण्हिणो जे कुले ते अंधगसद्दलोवातो वण्हिणो भणिया, तेसिं चरियं गती सिज्झणा य जत्थ भणिता ता वण्हिदसातो।
(नन्दी ७८ चू पृ६०) "उवंगाणं पंचमस्स वग्गस्स वण्हिदसाणंदवालस अज्झयणा पण्णत्ता"।
(वृष्णि १.३) वेद १. जीव सुख-दुःख का वेदन करता है इसलिए वह वेद है। जम्हा वेदेति य सुह-दुक्खं तम्हा वेदे त्ति। (भग २.१५) २. विषयाभिलाषा। वेदमोहनीय कर्म के उदय से होने वाली मैथुन की इच्छा, जैसे-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। नामकर्मचारित्रमोहनोकषायोदयाद वेदत्रयसिद्धिः।
(तवा २.५३) आत्मप्रवृत्तेमैथुनसंमोहोत्पादो वेदः। (धव पु ७ पृ७) ३. लिङ्ग-स्त्री और पुरुष के बीच भेदरेखा करने वाला अवयव। वेद्यते इति वेदो लिङ्गमित्यर्थःr"नामकर्मोदयाद योनिमेहनादि द्रव्यलिङ्गमिति।
(तवा २.५३)
वेदना स्वाभाविक रूप से अथवा उदीरणा के द्वारा उदयावलिका में प्रविष्ट कर्मपुद्गलों का अनुभव करना। वेदना-स्वभावेनोदीरणाकरणेन वोदयावलिकाप्रविष्टस्य कर्मणोऽनुभवनम्।
(स्था १.१५ वृ प १७) वेदना भय पीड़ा से उत्पन्न भय। वेदना-पीडा तदभयं वेदनाभयम्।
(स्था ७.२७ वृ प ३६९) वेदना समुद्घात समुद्घात का एक प्रकार। वेदनीय कर्म के उदय के कारण शरीर से आत्मप्रदेशों का बाहर निकलना। वेदनादिपरिणतो हि जीवो बहुन् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः संश्लिष्टान् शातयति।
(सम ७.२ ७ प १२) वेदनीय कर्म वह कर्म, जो सुख-दु:ख के संवेदन का हेतु होता है। सातासातरूपमेव कर्म वेदनीयम्। (प्रज्ञावृ प ४५४) सुखदुःखरूपेणानुभवितव्यत्वाद् वेदनीयमिति।
(तभा ८.५ वृ) वेदान्त व्यवसाय का एक प्रकार । ऋग्वेद आदि वेद के आधार पर किया जाने वाला निर्णय। (द्र लोकान्त, व्यवसाय)
वेदिका प्रतिलेखना का एक दोष। प्रतिलेखना करते समय घुटनों के ऊपर, नीचे या पार्श्व में हाथ रखना अथवा घुटनों को भुजाओं के बीच रखना। वेदिका"उड्डवेतिया अहोवेतिया तिरियवेतिया दुहतोवेतिया एगतोवेतिया।
(उ २६.२६ शावृ प५४१)
वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर जाते समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के अन्तिम समय में सम्यक्त्वमोहनीय का प्रदेशोदय के रूप में होने वाला वेदन।
वेलन्धरोपपात
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कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें वेलन्धर नामक देव की वक्तव्यता है तथा जिसका परावर्तन करने से वेलंधर नामक देव उपस्थित हो जाता है। (नन्दी ७८)
(द्र अरुणोपपात)
वेष्टक
एक प्रकार का छन्द, जिसमें एकार्थक शब्दों का संकलन होता है।
वेष्टकाः - छन्दोविशेषाः एकार्थप्रतिबद्धवचनसंकलिका । (समप्र ८९ वृ प १०१ )
वैक्रियकाययोग
वैक्रियशरीरवर्गणा के आलम्बन से होने वाली जीव की
शारीरिक शक्ति और प्रवृत्ति ।
'... विउव्वियाहारा । उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा. ॥
(कग्र ४.२४)
वैक्रियमिश्रकाययोग
(कग्र ४.२४)
(द्र वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग)
वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग
वैक्रियकाययोग का कार्मणकाययोग और औदारिककाययोग के साथ होने वाला मिश्रण
१. कार्मण योग के साथ होने वाला वैक्रिय शरीर का मिश्रण। देव और नरक में उत्पन्न होने वाला जीव आहार ले लेता है, किन्तु शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं बांधता, उस अवस्था में कार्मण योग के साथ वैक्रिय-मिश्र होता है।
२. औदारिक काययोग के साथ होने वाला वैक्रिय शरीर का मिश्रण । औदारिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यंच अपनी विशिष्ट शक्ति से वैक्रिय रूप बनाते हैं और उसको फिर समेटते हैं परन्तु जब तक औदारिक शरीर पुनः पूर्ण न बन जाए तब तक औदारिक काययोग के साथ वैक्रिय मिश्र काययोग होता है । वैक्रियमिश्रकशरीरकायप्रयोगो देवनारकेषूत्पद्यमानस्यापर्याप्तकस्य, मिश्रता चेह वैक्रियशरीरस्य कार्मणेनैव । लब्धिवैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्ते वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि वैक्रियस्य मिश्रता । (भग ८.६१ वृ)
वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग
२७३
(औप १७६)
(द्र वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग)
वैक्रिय लब्धि
नाना प्रकार के रूपनिर्माण में समर्थ योगजनित शक्ति वैक्रियाऽऽहारकनामादिकर्मोदयसमुत्थास्तावद् वैक्रियाssहारकशरीरकरणादिका लब्धयो भवन्ति ।
(विभा ८०१ मवृ)
वैक्रियवर्गणा
वैक्रिय शरीर के प्रायोग्य पुद्गल - समूह ।
ततश्चैकोत्तरवृद्ध्या वर्धमानाः प्रचुरद्रव्यनिवृत्तत्वात् तथाविधसूक्ष्मपरिणामत्वाच्च वैक्रियशरीरस्य ग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति । (विभा ६३१ )
वैक्रिय शरीर
विविध रूप बनाने में समर्थ शरीर । यह नैरयिक तथा देवों के जन्मजात होता है। वैक्रिय लब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यञ्चों तथा वायुकाय के भी होता है। विविधरूपकरणसमर्थं वैक्रियम्, नारकदेवानां, वैक्रियलब्धिमतां नरतिरश्चां वायुकायिकानाञ्च ।
(जैसिदी ७.२५ वृ)
वैक्रियशरीरबन्धननाम
नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण वैक्रिय शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा तैजस और कार्मण के पुद्गलों के साथ संबंध स्थापित होता है । यदुदयाद् वैक्रियपुदगलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसकार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धः तद्वैक्रियबन्धनम् । (प्रज्ञा २३.४३ वृ प ४७० )
वैक्रिय समुद्घात
समुद्घात का एक प्रकार । विक्रिया करने के लिए आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना । वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराद्वहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च संख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति ।
(सम ७.२ वृप ११)
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वैजयन्त अनुत्तरविमान का द्वितीय स्वर्ग। (द्र अपराजित)
(तभा ४.२०)
वैतरणी परमाधार्मिक देव का एक प्रकार। वे नरकपाल देव, जो नारक जीवों को पीब, रुधिर, केश व हड्डियों से भरी अत्युष्ण । पानी वाली वैतरणी' नामक महाभयानक नदी में बहाते हैं। पूय-रुहिर-केसट्ठी, वाहिणी कलकलंतजलसोया। वेयरणिनरयपाला, नेरइए ऊ पवाहेंति॥
(सूत्रनि ८०) वैतादयगिरि वह पर्वत, जहां विद्याधर रहते हैं और जिससे भरतक्षेत्र दो भागों में विभक्त है-दक्षिण भरत और उत्तर भरत। भरतक्षेत्रमध्ये पूर्वापरायत उभयत: समुद्रमवगाढो वैताढ्यपर्वतः, षड्योजनानि सक्रोशानि धरणिमवगाढः पञ्चाशद् विस्तरतः पञ्चविंशत्युच्छ्रितः॥वैताढ्यपर्वतो दक्षिणोत्तरार्धविभागकारी विद्याधराधिवासः। (तभा ३.११ वृ पृ २५६)
प्रति होने वाली विनम्रता से उत्पन्न बुद्धि, जो भार के निर्वाह में समर्थ, त्रिवर्ग के सूत्र और अर्थ का सार ग्रहण करने वाली तथा उभयलोक फलवती होती है। विनयो-गुरुशुश्रूषा सप्रयोजनमस्या इति वैनयिकी।
(नंदीमवृ प १४४) भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला। उभओलोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धी॥
(नंदी ३८.५) २. वह बुद्धि, जो परोपदेश अथवा शिक्षा से उत्पन्न होती है। विणएण दुवालसंगाइं पढंतस्सुप्पण्णपण्णा वेणइया णाम, परोवदेसेण जादपण्णा वा। (धव पु९ पृ८२) वैमानिक देव देवनिकाय का चौथा प्रकार। वह देवनिकाय, जो विशिष्ट वैक्रिय शक्ति और ऐश्वर्य सम्पन्न होता है तथा जिसका आवास क्षेत्र ऊर्ध्वलोकवर्ती विमान हैं। (उ ३६.२०४) विमानेषु-ऊर्ध्वलोकवर्त्तिषु भवाः वैमानिकाः सौधर्मादिवासिनः।
(स्थावृ प ६२) विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनो मानयन्तीति विमानानि, विमानेषु भवा वैमानिकाः।
(तवा ४.१६.१)
वैदारणिका क्रिया
(स्था २.२९) (द्र विदारणाक्रिया) वैदिक व्यवसाय वेद के आधार पर किया जाने वाला निश्चय और अनुष्ठान।
(स्था ३.३९५) (द्र व्यवसाय) वैधर्म्य दृष्टांत जहां साध्य के अभाव में साधन का अभाव निश्चित रूप से प्रदर्शित होता है, जैसे-अग्नि के अभाव में धआं नहीं होता, जैसे-जलाशय। यत्र तु साध्याभावे साधनस्यावश्यमभावः प्रदर्श्यते, स वैधHदृष्टान्तः।
(प्रनत ३.४७) यथाग्न्यभावे न भवत्येव धूमो, यथा जलाशये।
(प्रनत ३.४८)
वैयावृत्त्य आभ्यन्तर तप का एक प्रकार । दूसरों (संयमीवर्ग) का सहयोग करने के लिए व्याप्त होना। परार्थव्यापृतिर्वैयावृत्त्यम्।
(जैसिदी ६.३९) वैयावृत्त्यसंभोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। आहार, उपधि आदि देना, मत्र आदि का परिष्ठापन करना, कलह का उपशमन करना एवं वृद्ध आदि साधुओं की सेवा करना। 'वेयावच्चकरणे.'त्ति वैयावृत्त्यम्-आहारोपधिदानादिना प्रश्रवणादिमात्रकार्पणादिनाऽधिकरणोपशमनेन सहायदानेन वोपष्टम्भकरणं तस्मिंश्च विषये सम्भोगासम्भोगौ भवत इति।
(सम १२.२ वृ प २२) वैश्रमणोपपात कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें वैश्रमण नामक देव की वक्तव्यता है तथा जिसका परावर्तन करने से वैश्रमण नामक
वैनयिकी बुद्धि १. अश्रूतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार । ज्ञान और ज्ञानी के
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(नन्दी ७८)
देव उपस्थित हो जाता है। (द्र अरुणोपपात)
आदि का ज्ञान करने वाली विद्या। शिरोमुखग्रीवादिषु तिलकमशकलक्ष्यव्रणादिवीक्षणेन त्रिकालहिताहितवेदनं व्यञ्जनम्। (तवा ३.३६)
वैनसिक बन्ध
(जैसिदी १.१५ वृ)
(द्र विस्रसा बन्ध)
व्यञ्जन पर्याय वह पर्याय, जो स्थूल होता है, कालान्तर स्थायी होता है और शब्दों के द्वारा बताया जा सकता है। स्थल: कालान्तरस्थायी शब्दानां संकेतविषयो व्यञ्जनपर्यायः।
(जैसिदी १.४२) (द्र अर्थपर्याय)
वैहायस मरण ऊंचाई से कूदने, वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत से गिरने आदि के कारण होने वाला मरण। विहायसि-व्योमनि भवं वैहायसं, विहायोभवत्वं च तस्य वृक्षशाखाद्युबद्धत्वे सति भावात्। (सम १७.९ ७ प ३३) ऊर्ध्वं वृक्षशाखादौ बन्धनमुबन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मजनितस्य मरणस्य तद्बन्धनादि"गृध्रपृष्ठवैहायसाख्ये मरणे।
(उशावृ प २३४,२३५)
व्यञ्जनाक्षर अक्षरश्रुत का एक प्रकार । अक्षर का व्यक्त उच्चारण। वंजणक्खरं-अक्खरस्स वंजणाभिलावो। (नंदी ५८)
व्यक्त १. अवस्था की दृष्टि से परिपक्व-सोलह वर्ष वाला। २. श्रुत से परिपक्व-गीतार्थ। वयसा व्यक्तः षोडशवार्षिकः । श्रुतेन च व्यक्तो गीतार्थः।
(बृभा ५४७५ वृ) व्यक्तास्तु ये वयश्रुताभ्यां परिणताः।
(सम १८.३ वृ प ३४)
व्यञ्जनावग्रह अवग्रह का एक प्रकार। इन्द्रियों का अर्थ से संबंध होने पर शब्द आदि विषयों का अव्यक्त ज्ञान। व्यञ्जनेन-सम्बन्धेनावग्रहणं सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः।
(नन्दी ४० मत प १६८) (द्र अर्थावग्रह) व्यतिक्रम आचार के अतिक्रमण की दिशा में दूसरा चरण। ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार के प्रतिकूल आचरण का प्रयत्न। तिविधे वइक्कमे पण्णत्ते, तं जहा-णाणवइक्कमे, दंसणवइक्कमे, चरित्तवइक्कमे।
(स्था ३.४४१) (द्र अतिक्रम)
व्यजन विद्या वह विद्या, जिसमें अभिमन्त्रित पंखे से रोगी का अपमार्जन किया जाता है और वह स्वस्थ हो जाता है। व्यजनविषया विद्या यया व्यजनमभिमत्र्य तेनातुरोऽपमृज्यमानः स्वस्थो भवति, सा व्यजनविद्या। (व्यभा २४३९७) व्यञ्जन ज्ञानाचार का एक प्रकार । सम्यक् उपयोगपूर्वक आगम का पाठ करना। व्यञ्जनानि-ककारादीनि “सम्यगुपयोगेन च यतः सूत्रादि पठनीयं नान्यथा।
_(प्रसा २६७ वृ प ६४) व्यञ्जननिमित्त अष्टाङ्ग महानिमित्त का एक प्रकार । सिर, मुंह, गर्दन आदि में तिल, मस्से आदि चिह्नों के आधार पर लाभ-अलाभ
व्यतिरेक
(प्रमी २.१.१२ वृ) (द्र अन्यथानुपपत्ति) व्यत्यानेडित ज्ञान का एक अतिचार । मूल पाठ में अन्यान्य ग्रंथों के पाठों को मिलाना। अण्णोण्णज्झयणसुयक्खंधेसु घडमाणे आलावए विवितुं जोएंते विच्चामेलणा भवति। (निभा २७७६ चू)
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व्यन्तर देव वह देवनिकाय, जो अध:तर्यक् और ऊर्ध्व-तीनों लोकों का स्पर्श करता है, स्वतन्त्रतापूर्वक अथवा दूसरे की अधीनता के कारण गति करता रहता है तथा पर्वत की गुफा, वन-विवर आदि विविध स्थानों में निवास करता है। यस्माच्चाधस्तिर्यगूर्ध्वं च त्रीनपिलोकान् स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात् पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपतन्त्यनियतगतिप्रचाराः, मनुष्यानपि केचिद् भृत्यवदुपचरन्ति। विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्ति, अतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते।।
(तभा ४.१२ ) (द्र वानमन्तर देव)
व्यवसाय वस्तुनिर्णय और पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान। 'व्यवसायो' वस्तुनिर्णयः पुरुषार्थसिद्ध्यर्थमनुष्ठानं वा।
(स्थावृ प १४१) इहलोइए ववसाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-लोइए, वेइए, सामइए।
(स्था ३.३९६)
व्यवसायसभा अध्ययन-कक्ष, जहां इन्द्र अध्ययन करता है। व्यवसायसभा यत्र पुस्तकवाचनतो व्यवसायं-तत्त्वनिश्चयं करोति।
(स्था ५.२३५ वृ प ३३४)
व्यय त्रिपदी का एक अंग। द्रव्य की पूर्व अवस्था का तिरोभाव अथवा विनाश, जैसे-घट की उत्पत्ति होने पर मृत्पिण्ड का विनाश। पूर्वभावविगमनं व्ययः। यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतेः।
(ससि ५.३०) व्ययः तिरोभावलक्षणः, पूर्वावस्थायास्तिरोधानं-विनाशः।
(तभा ५.२९ वृ) 'वियड' त्ति विगतिर्विगमः, सा चैकोत्पादवदिति।
(स्था १.२३ वृ प १९) (द्र उत्पाद)
व्यवहार १. जो जिस प्रायश्चित्त के योग्य हो. उसे वह प्रायश्चित्त देना। व्यवह्रियते यद् यस्य प्रायश्चित्तमाभवति स तद्दानविषयीक्रियतेऽनेनेति व्यवहारः।
(व्यभापी प३) २. साधु के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्धारण का आधार। व्यवहारो-मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः।
(स्था ५.१२४ वृ प ३०२) ३. कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें प्रायश्चित्त, आचार, व्यवहार आदि का विवरण है। चार छेदसूत्रों में से एक।
(नन्दी ७८) ...ववहारे ववहरिया, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥ पडिसेवण संजोयण, आरोवण कंचियं चेव।....
(व्यभा १५३, १५४) दसाकप्पववहारा निज्जूढा पच्चक्खाणपुव्वातो।
(दशाचू प ५)
व्यवदान १. कर्मनिर्जरा, पूर्वकृत कर्म का वह विनाश. जिससे जीव योगनिरोध कर मुक्त हो जाता है। व्यवदानं पूर्वकृतकर्मवनलवनम्।
(स्था ३.४१८ वृप १४६) वोदाणं-कर्मनिर्जरा, कर्मविवेकस्य च प्रयोजनम् असरीरया चेव'।
(आवहावृ१पृ१८७) .."तवेणं वोदाणं जणयह॥"वोदाणेणं अकिरियं जणयह॥
(उ २९.२८,२९) २. तपोजन्य कर्मविलय से होने वाली आत्मा की परम विशुद्धि। व्यवदानं पर्वबद्धकर्मापगमतो विशिष्टां शुद्धिम्।
(उशावृप५८६)
व्यवहारनय १. द्रव्यार्थिकनय अथवा अर्थनय का एक प्रकार । विशेषग्राहीभेद को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण । भेदग्राही व्यवहारः।
(भिक्षु ५.८) ""द्रव्यार्थिकत्वाद् असौ परमाणु यावद् गच्छति, न तु अर्थपर्याये।
(भिक्षु ५.८ वृ) २. लोकप्रसिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करने वाला दृष्टिकोण, जैसे-भौंरा काला होता है।
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लोगव्यवहारपरो ववहारो भणइ कालओ भमरो। परमत्थपरो मण्णइ निच्छइओ पंचवण्णो त्ति॥
व्याख्याचूलिका (विभा ३५८९)
कालिक श्रुत का एक प्रकार । व्याख्याप्रज्ञप्ति-- भगवती की लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहारः।। (भिक्षु ५.१९)
चूलिका। (द्र नैश्चयिक नय)
वियाहो भगवती, तीए चूला वियाहचूला।
(नन्दी ७८ चू पृ ५९) व्यवहार राशि
(जैतवि १.३) (द्र सांव्यवहारिक जीव)
व्याख्याप्रज्ञप्ति
(नन्दी ८०) व्यवहार वाक्योग
(द्र व्याख्या)
(भग २५.६) (द्र असत्यामृषा)
व्याख्याप्रज्ञप्तिधर
वह मुनि, जो व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) के सूत्रपाठ और व्यवहार सत्य
अर्थ का विशेषज्ञ होता है। सत्य का एक प्रकार। लोकव्यवहार में प्रचलित भाषा का
अप्पेगइया विवाहपण्णत्तिधरा।
(औप ४५) प्रयोग, जैसे-पर्वत पर तण आदि के जलने पर भी कहा जाता है कि पर्वत जल रहा है।
व्याप्ति ववहार त्ति व्यवहारेण सत्यं व्यवहारसत्यम्। यथा दह्यते
व्याप्य के होने पर व्यापक का अवश्य होना अथवा व्याप्य गिरिः। ( . १०.८९ वृ प ४६५)
का व्यापक के होने पर ही होना।
व्याप्तिापकस्य व्याप्ये सति भाव एव व्याप्यस्य वा तत्रैव व्यवहारी
भावः।
__ (प्रमी १.२.६) वह मुनि, जिसमें प्रायश्चित्त देने की अर्हता है।
(द्र अविनाभाव) व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारी व्यवहारक्रियाप्रवर्तकः, प्रायश्चित्तदायी।
(व्यभा १ वृ प ३) व्यावहारिक अद्धा पल्योपम
(अनु ४२१) व्याकृता
(द्र अध्वा पल्योपम) असत्यामृषा भाषा का एक प्रकार। भाषा का वह प्रयोग, जिसका अर्थ प्रकट (असंदिग्ध) हो।
व्यावहारिक अद्धा सागरोपम व्याकृता या प्रकटार्थाः। (प्रज्ञा ११.३७ वृप २५९)
(अनु ४२९)
(द्र अध्वा सागरोपम) व्याख्या द्वादशांग का पांचवां अंग (भगवती), जिसमें देव, नरेन्द्र व्यावहारिक अर्थावग्रह और राजर्षि द्वारा पूछे गये छत्तीस हजार प्रश्नों और भगवान् औपचारिक अवग्रह। वह अवग्रह, जिसमें विशेष ज्ञान की महावीर द्वारा दिए गए उत्तरों का वर्णन है।
अपेक्षा होती है और जो अन्तर्मुहूर्त अवधि वाला है। वियाहे णं जीवा'"अजीवा "जीवाजीवा विआहिज्जंति अत्थोग्गहो जहन्नो समयं सेसोग्गहादओ वीसुं। लोयालोए विआहिज्जति।"से ण अंगट्ठयाए पंचमे अंगे"... अंतोमुहुत्तमेगं तु॥
(विभा ३३४) छत्तीसं वागरणसहस्साइं, दो लक्खा अट्ठासीइं पयसहस्साई अतिस्तोककालत्वेन जघन्यो नैश्चयिकोऽर्थावग्रह एकसमयं पयग्गेणं।
(नन्दी ८५) भवति। शेषास्तु""व्यञ्जनावग्रहव्यावहारिकार्थावग्रहहा. वियाहे णं णाणाविह-सुरनरिंदरायरिसि-विविह-संसइय- पृथगेकमेवान्तर्मुहूर्तं भवन्ति। (विभामवृ १ पृ१६८) पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं । (समप्र ९३)
(द्रनैश्चयिक अर्थावत (द्र भगवती)
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व्यावहारिक उद्धार पल्योपम
२. योगसंग्रह का एक प्रकार । शरीर, भक्त, पान, उपधि तथा
(अनु ४२०) कषाय का विसर्जन। (द्र उद्धार पल्योपम)
'विउस्सज्जे'त्ति व्युत्सर्गो द्रव्यभावभेदभिन्नः।
(सम ३२.१.४ प ५५) व्यावहारिक उद्धार सागरोपम
३. कायोत्सर्ग। (अनु ४२२) 'व्युत्सर्गः' कायोत्सर्गः।
(बृभा ५५९६ वृ) (द्र उद्धार सागरोपम)
४. आभ्यन्तर तप का एक प्रकार। व्यावहारिक काल
(द्र द्रव्यव्युत्सर्ग, भावव्युत्सर्ग) समयक्षेत्र अथवा मनुष्यलोक (मनुष्यक्षेत्र) में सूर्य और चन्द्र
व्युत्सर्ग प्रतिमा द्वारा प्रवर्तित दिन-रात, पक्ष-मास आदि कालविभाग।
प्रतिमा का एक प्रकार । विवेक-प्रतिमा के द्वारा हेय वस्तुओं समयक्षेत्रं-मनुष्यलोकः। तत्रैव सूर्यचन्द्रप्रवर्तितो
का भेदज्ञान पुष्ट होने पर कायोत्सर्ग करना-उनके ममत्व व्यावहारिकः कालो विद्यते। (जैसिदी १.३५ वृ)
का विसर्जन करना। व्यावहारिक क्षेत्र पल्योपम
व्युत्सर्गप्रतिमा-कायोत्सर्गकरणमेव। (अनु ४३४)
(स्था २.२४४ वृप ६१) (द्र क्षेत्र पल्योपम)
व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम
प्रायश्चित्त का एक प्रकार। गमनागमन, स्वप्न, नदीसंतरण (अनु ४३४)
आदि प्रसंगों पर कायोत्सर्ग करना। (द्र क्षेत्र सागरोपम)
विओसग्गो कातुस्सग्गो गमणागमणसुविणणईसंतरणादिसु।
___ (आवचू २ पृ २४६) व्यावहारिक नय द्रव्य के स्थल पर्याय को ग्रहण करने वाली नयदष्टि।।
व्युत्सृष्टकाय (भग १८.१०७)
वह व्यक्ति, जो शरीर का प्रतिकर्म नहीं करता, शरीर की (द्र व्यवहार नय)
सार-संभाल नहीं करता।
'वोसट्ठकाए' त्ति अपडिकम्मसरीरो उच्छूढसरीरो त्ति वुत्तं व्याविद्ध
होति।
(सूत्र १.१६.१ चू पृ २४६) ज्ञान का एक अतिचार । आगम पाठ को आगे-पीछे करना। सूत्रमध-उपरिव्यत्यासेन क्रियमाणं व्याविद्धम्।
व्युद्ग्राहित (बृभा २९६ वृ)
वह व्यक्ति, जो पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने के कारण दुर्बोध्य है।
व्युद्ग्राहिताः-कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपर्यासः""उक्तञ्चव्युच्छित्तिनय
पुव्वं कुग्गाहिया केई, बाला पंडियमाणिणो।
नेच्छंति कारणं सोउं, दीवजाए जहा णरे॥ (भग ७.९४)
(स्था ३.४७८ वृ प १५६) (द्र पर्यायार्थिकनय) व्युत्सर्ग
व्युपरतक्रियाअनिवृत्ति
(तसू ९.४१) १. शुक्लध्यान का एक लक्षण । अनासक्त भाव से शरीर और
(द्र समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाति) उपधि का त्याग। निःसङ्गतया देहोपधित्यागो व्युत्सर्गः।
व्रत प्रतिमा
(स्था ४.७० वृ प १८१) उपासकप्रतिमा का दूसरा प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक
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अणुव्रतों को राजाभियोग आदि आकारों (अपवादों) से मुक्त रूप में स्वीकार करता है ।
अणुव्रतानि - स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि उपलक्षणत्वात् गुणव्रतानि शिक्षाव्रतानि च वधबन्धाद्यतिचाररहितानि निरपवादानि च धारयतः सम्यक् परिपालयतो द्वितीया व्रतप्रतिमा भवति । (प्रसा ९८० वृप २९४)
श
शकटकर्म
कर्मादान का एक प्रकार। शकटउनके पुर्जों का निर्माण और विक्रय । शकटानां तदङ्गानां घटनं खेटनं तथा । विक्रयश्चेति शकटजीविका परिकीर्त्तिता ॥
- बैलगाड़ी आदि का तथा
(प्रसावृ प ६२)
शङ्का
T
सम्यक्त्व का एक अतिचार । मति की दुर्बलता के कारण धर्मास्तिकाय आदि सूक्ष्म तत्त्वों के दिय में होने वाला संशय ।
भगवदर्हत्प्रणीतेषु पदार्थेषु धर्मास्तिकायादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिदौर्बल्यात् सम्यगनवधार्यमाणेषु संशयः इत्यर्थः, किमेवं स्यात् नैवमिति संशयकरणं शंका । ( आवहावृ २ पृ २१६ )
शङ्कित
१. एषणा दोष का एक प्रकार । आहार आदि में आधाकर्म आदि दोषों की संभावना होने पर भी उसे लेना । आधाकर्म्मकादिशङ्काकलुषितो यदन्नाद्यादत्ते तच्छङ्कितम् । ( योशा १.३८ वृ पृ १३६ ) २. प्रतिषेवणा का एक प्रकार। एषणीय आहार आदि को शंका- सहित लेने से होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन
।
एषणेऽप्यनेषणीयतया 'जं संके तं समावज्जे ' ।
(स्था १०.६९ वृ प ४६० )
शङ्ख
महानिधि का एक प्रकार । काव्य, नृत्य, नाट्य और वाद्य की विधियों का प्रतिपादक शास्त्र ।
ट्टविहीणाडगविही, कव्वस्स चउव्विहस्स उप्पत्ती । संखे महाणिहिम्मी, तुडियंगाणं च सव्वेसिं ॥
शङ्खार्त्ता
योनि का एक प्रकार । शङ्ख के समान आवर्त्त (घुमाव ) वाली योनि । यह स्त्रीरत्न (चक्रवर्ती की पटरानी) के होती है। शंखस्येवावर्त्तो यस्यां सा शङ्खावर्त्ता ।
(स्था ३.१०३ वृ प ११६ ) (स्था ३.१०३)
सावत्ताणं जोणी इत्थीरयणस्स ।
शनैश्चर संवत्सर
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वह कालमान, जिसमें शनिश्चर एक नक्षत्र अथवा बारह राशियों का भोग करता है।
यावता कालेन शनैश्चरो नक्षत्रमेकमथवा द्वादशापि राशीन् भुंक्ते । (स्था ५.२१० वृ प ३२७)
शबल
१. वह आचरण अथवा आचरणकर्त्ता, जो चारित्र को धब्बे युक्त बना देता है।
शबलं - कर्बुरं चारित्रं यैः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात् साधवोऽपि । (सम २१.१ वृप ३८) २. परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार । वे असुर देव, जो पुण्यहीन नैरयिकों के आंतों के मांस को, हृदय, कलेजे, फेफड़े और वृक्क (गुर्दा ) को बाहर निकाल देते हैं । अंतगयफिम्फिसाणिय, हिययं कालेज्ज फुप्फुसे वक्के । सबला नेरइयाणं कङ्केति तहिं अपुण्णाणं ॥ (सूत्रनि ७१ )
शब्द
पुद्गल का एक धर्म । पुद्गलों की संहति और भेद से होने वाला ध्वनिरूप परिणमन, जो स्वाभाविक सामर्थ्य और संकेत द्वारा अर्थबोध का हेतु बनता है। साहणंताणं चेव पोग्गलाणं सहुप्पाए सिया, भिज्जंताणं चेव पोग्गलाणं सद्दुप्पाए सिया । (स्था २.२२० ) स्वाभाविक सामर्थ्य समयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्दः । (प्रनत ४.११)
शब्द नय
१. काल आदि के भेद से ध्वनि के अर्थभेद को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण | कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदकृच्छब्दः । ( भिक्षु ५.११) २. वे नय, जिनमें शब्द प्रधान होते हैं और अर्थ गौण, जैसे - शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय ।
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शेषास्तू त्रयः शब्दवाच्यार्थगोचरतया शब्दनया:।
(प्रनत ७.४५)
शब्दपरिचारक महाशुक्र और सहस्रार कल्पवासी देव, जिनकी कामेच्छा । देवी के शब्दश्रवण मात्र से शांत हो जाती है। दोसुकप्पेसुदेवा सद्दपरियारगा पण्णत्ता,तं जहा-महासुक्के चेव, सहस्सारे चेव।
(स्था २.४५९) शब्दाकुलक आलोचना आलोचना का एक दोष। जोर-जोर से बोलकर, दूसरे अगीतार्थ साधु सुनें, वैसे आलोचना करना। 'सद्दाउलयं' ति शब्देनाकुलं शब्दाकुलं-बृहच्छब्द, तथा महता शब्देनालोचयति यथाऽन्येऽप्यगीतार्थास्ते शृण्वन्ति।
(स्था १०.७० वृ प ४६०)
सेज्जा वसती"सेज्जातरो, तस्स भिक्खा सेज्जातरपिंडो।
(द ३.५ अचू पृ ६१) शय्या परीषह परीषह का एक प्रकार। कोमल या कठोर, ऊंचे या नीचे स्थान में शयन से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। उच्चावयाहिं सेज्जाहिं, तवस्सी भिक्ख थामवं। नाइवेलं विहन्नेज्जा, पावदिट्ठी विहन्नई। पइरिक्कुवस्सयं लद्धं, कल्लाणं अदु पावर्ग। किमेगरायं करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासए॥
(उ २.२२, २३) शय्यासमितियोग सर्वअदत्तादानविरमण (अचौर्य महाव्रत) की एक भावना। मुनि के लिए वृक्ष आदि का छेदन-भेदन किया हो, वैसी शय्या और आसन का प्रयोग न करना। पीढ-फलग-सेज्जासंथारगट्ठयाए रुक्खा न छिंदियव्वा, न य छेदणेण भेयणेण य सेज्जा कारेयव्वा "एवं सेज्जासमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्या। (प्रश्न ८.११)
शब्दानुपात देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार। संकल्पित देश के बाहर स्थित व्यक्ति को व्यापार आदि के लिए शब्द से संकेत करना। ..""व्यापारकरान् पुरुषान् उद्दिश्याभ्युत्कासिकादिकरणं शब्दानुपात इति शब्द्यते।
(तवा ७.३१.३)
शम सम्यक्त्व का एक लक्षण। क्रोध आदि कषायों की शान्ति। कषायविजय और इन्द्रियविजय की चेतना। शम:-शान्तिः ।
(जैसिदी ५.९ वृ) शमः कषायेन्द्रियजयः। (योशा २.४० वृ पृ २७०)
शयनपुण्य पुण्य का एक प्रकार। पात्र (संयमी) को शय्या-संस्तारक देने से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (द्र अन्नपुण्य)
शरीर शरीरनामकर्म के उदय से औदारिक आदि वर्गणाओं से निष्पन्न होने वाली आकृतिरचना, जो पौद्गलिक सुख-दुःख के अनुभव का साधन तथा ज्ञान का हेतु है। सुखदुःखानुभवसाधनं शरीरम्। (जैसिदी ७.२४) शरीरनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव औदारिक शरीर आदि के प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिक शरीर आदि के रूप में उन्हें परिणत कर आत्मप्रदेशों के साथ उनका परस्पर सम्बन्ध कर देता है। यदुदयादौदारिकशरीरप्रायोग्यान् पुदगलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमयति परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सह परस्परानुगमरूपतया सम्बन्धयति तदौदारिकशरीरनाम, एवं शेषशरीरनामान्यपि भावनीयानि। (प्रज्ञा २३.४१ वृप ४६९) शरीरपरिग्रह शरीर के प्रति होने वाला ममत्व। (भग १८.१२३)
शय्यातर सागारिक, स्थानदाता, उपाश्रय देने वाला। शय्यातरः-साधुवसतिदाता। (दहावृ प ११७) शय्यातरपिण्ड १. मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार । स्थानदाता के घर से भिक्षा लेना।
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शरीरपर्याप्ति छह पर्याप्तियों में दूसरी पर्याप्ति। शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करने वाली पौद्गलिक शक्ति की संरचना। सत्तधातुतया परिणामणसत्ती शरीरपज्जत्ती। (नन्दीचू प २२) सामान्येन गृहीतस्य योग्यपुद्गलसंघातस्य शरीराङ्गोपाङ्गतया संस्थापनक्रिया--विरचनक्रिया तस्याः पर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः।
(तभा ८.१२ वृ पृ १६१) शरीरबकुश बकुश निग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जा पर, नख, मुह आदि शरीर के अवयवों की विभूषा में प्रवृत्त रहता है। चरणनखमुखादिदेहावयवविभूषाऽनुवर्ती शरीरबकुशः।
(भग २५.२७९ वृ) (द्र यथासूक्ष्मबकुश) शरीरबन्धननाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से औदारिक शरीर वर्गणा के गृहीत और गृह्यमाण पुदगलों का परस्पर तथा तैजस और कार्मण के पुदगलों के साथ संबंध स्थापित होता
बहुपडिपुण्णिंदिए यावि भवति।
(दशा ४.६) शरीराङ्गोपाङ्गनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के अंगसिर, छाती, उदर, पीठ, दो भुजाएं, दो ऊरु और उपांगअंगुली आदि की रचना होती है। 'शरीराङ्गोपाङ्गनामे' ति शरीरस्थाङ्गान्यष्टौ शिरःप्रभृतीनि, उक्तं च–'सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू ऊरुया य अटुंगा इति' उपाङ्गानि अङ्गावयवभूतान्यङ्गुल्यादीनि शेषाणि तत्प्रत्यवयवभूतान्यगुलिपर्वरेखादीनि अङ्गोपाङ्गानि."यदुदयवशादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गो पाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तदौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम।
(प्रज्ञा २३.४२ वृ प ४६९,४७०) शर्कराप्रभा अधोलोक (नरक) की दूसरी पृथ्वी (वंशा) का गोत्र, जहां शर्करोपल जैसी आभा है। (देखें चित्र पृ ३४६) सक्करोपलस्थितपटलमधोऽधः एवंविधस्वरूपेण प्रभाव्यत इति सर्कराप्रभा।
(अनुचू पृ ३५) (द्र रत्नप्रभा)
यदौदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिपुदगलैर्वा सह सम्बन्धजनकं तद्बन्धननाम।
(प्रज्ञा २३.४३ वृ प ४६९) (द्र औदारिकशरीरबन्धननाम) शरीरसंघातनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीरवर्गणा के गृहीत और गृह्यमाण पुद्गलों की शरीररचना के अनुरूप व्यवस्था होती है। सात्यन्ते पिण्डीक्रियन्ते औदारिकादिपुद्गला येन तत्संघातं तच्च तन्नाम च संघातनाम। (प्रज्ञा २३.४४ वृप ४७०)
शलाकापुरुष वह पुरुष, जो विशिष्ट लक्षणसम्पन्न, मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा दूसरों के लिए मानदण्ड होता है। ये संख्या में तिरेसठ हैंचौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासदेव, नौ प्रतिवासुदेव। एत्तो सलायपुरिसा तेसट्टी सयलभवणविक्खादा। जायंति भरहखेत्ते णरसीहाकेण॥ तित्थयरचक्कबलहरिपडिसत्तु णाम विस्सुदा कमसो। बिउणियबारसबारस पयत्थणिधिरंधसंखाए।
(त्रिप्र ४.५१०,५११)
शरीरसम्पदा गणिसम्पदा का एक प्रकार। लम्बाई, चौड़ाई तथा परिपूर्ण इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला शारीरिक वैभव। सरीरसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-आरोहपरिणाहसंपन्ने यावि भवति, अणोतप्पसरीरे, थिरसंघयणे,
शल्य वह भाव, जो अन्त:प्रविष्ट होकर शरीर और मन को पीडित करता रहता है। शृणाति हिनस्तीति शल्यं शरीरानुप्रवेशि काण्डादिप्रहरणम्, शल्यमिव शल्यं यथा तत् प्राणिनो बाधाकर तथा शारीरमानसबाधाहेतुत्वात्कर्मोदयविकारः शल्यमित्युपचर्यते।
(ससि ७.१८)
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१. वह द्रव्य, जिसके प्रयोग से प्राणी प्राण से च्युत हो जाता
२. शिक्षाव्रत सात हैं-१. दिगविरति २. उपभोगपरिभोगविरति ३. अनर्थदण्डविरति ४. सामायिक ५. देशावकाशिक ६. पौषधोपवास ७. यथासंविभाग। कहीं कहीं ऐसी व्यवस्था भी मिलती है कि इन सात व्रतों में शेष चार व्रत ही अभ्यासात्मक होने के कारण शिक्षाव्रत हैं। पहले तीन व्रत अणुव्रतों के गुणवर्धक होने के कारण गुणव्रत
मारकं वस्तु द्रव्यशस्त्रम्।
(आभा पृ ३४) २. असंयम। असंयमश्च भावशस्त्रम्।
(आभा पृ ३४) ३. दुष्प्रवृत्ति। """दुप्पउत्तो मणो वाया, काओ भावो य अविरती।
(स्था १०.९३)
हैं।
शायनी शतायु पुरुष की दसवीं (अंतिम) दशा । दसवां दशक, जिसमें व्यक्ति निद्राघूर्णित जैसा बन जाता है, हीनस्वर, भिन्नस्वर, दीन, चित्तशन्य-सा और दःखित हो जाता है। हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ। दुब्बलो दुक्खिओ सुवइ, संपत्तो दसमिंदसं॥
(दहावृ प ९)
दिगपभोगपरिभोग-अनर्थदण्डविरति-सामायिक-देशावकाशिक-पौषधोपवास-यथासंविभागा: शिक्षाव्रतम्।
(जैसिदी ६.२४) एषु शेषचतुष्कमेव भूयोऽभ्यासात्मकत्वात् शिक्षाव्रतम्। आद्यत्रयञ्च अणुव्रतानां गुणवर्धकत्वाद् गुणव्रतम्-क्वचिदित्यपि व्यवस्था।
(जैसिदी ६.२४ ) (द्र सप्तशिक्षावतिक)
शाश्वताशाश्वत द्रव्यानुयोग का एक प्रकार, जिसके आधार पर द्रव्य के शाश्वत, अशाश्वत का विचार किया जाता है। 'सासयासासए'त्ति शाश्वताशाश्वतं, तत्र जीवद्रव्यमनादिनिधनत्वात् शाश्वतं तदेवापरापरपर्यायप्राप्तितोऽशाश्वतमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति। (स्था १०.४६ वृ प ४५७) शिक्षा योगसंग्रह का एक प्रकार। आगमों का अध्ययन और अभ्यास । 'सिक्ख'त्ति योगसङ्ग्रहाय शिक्षाऽऽसेवितव्या, सा च सूत्रार्थग्रहणरूपा प्रत्युपेक्षाद्यासेवनात्मिका च इति।
(सम ३२.१.१ वृ प ५५) सा पुण दुविहा सिक्खा गहणे आसेवणे य नायव्वा। गहणे सुत्ताहिज्मण आसेवण तिप्पकप्पाई।
(विभा ७ वृ) शिक्षाव्रत १. पांच अणुव्रतों के सहयोगी व्रत, जिनका पुनः-पुनः अभ्यास किया जाता है, जैसे-सामायिक आदि। चत्तारि सिक्खावयाणि पुणो पुणो अब्भसिजंति।
(आव २ पृ २९८)
शिक्षित १. पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अंग। प्रारंभ से लेकर अन्त तक पढ़ा हुआ ग्रन्थ । जं आदितो आरब्भ पढ़तेणं अंतं णीतं तं सिक्खितं।
(अनु १३ चू पृ७) २. सीख लेना, उच्चारण की शुद्धि करना। शिखरी वह वर्षधर पर्वत, जो हैरण्यवत क्षेत्र के उत्तर में, ऐरावत क्षेत्र के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है। यह हैरण्यवत और ऐरावत-- इन दोनों के मध्य विभाजन-रेखा का काम करता है। कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे सिहरी णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा! हेरण्णवयस्स उत्तरेणं, एरावयस्स दाहिणेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवण-समुदस्स पुरथिमेणं। एवं जह चेव चुल्लहिमवंतो तह चेव सिहरीवि। (जं ४.२७४) हैरण्यवतैरावतयोर्विभक्ता शिखरी। (तभा ३.११ वृ) शिथिलबन्धनबद्ध कर्म वह कर्मबंध, जो अपवर्तन आदि कर्मकरण के योग्य होता
'शिथिलबन्धनबद्धाः'-अपवर्त्तनादिकरणयोग्याः ।
(उ २९.२३ शावृप५८५)
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शिल्पस्थावरकाय शिल्प से संबंधित होने के कारण तेजस्काय का अपर नाम है-शिल्पस्थावरकाय।
(स्था ५.१९) (द्र इन्द्रस्थावरकाय) शिल्पस्थावरकायाधिपति वह देव, जो तेजस्कायसंज्ञक स्थावरकाय का अधिपति है।
(स्था ५.२० वृ प २७९) (द्र इन्द्रस्थावरकायाधिपति)
शीतीभूत वह मनि, जिसका क्रोध आदि कषाय उपशान्त है। सीतभतेण सीतो उवसंतो, जधा निसण्णो देवो. अतो सीतभूतेण उवसंतेण अप्पणा। (द ८.५९ अचू पृ २००) शीतीभूतेन क्रोधाद्यग्न्यपगमात् प्रशान्तेन। (दहावृ प २३८)
शीतोष्ण योनि वह उत्पत्ति स्थान, जो शीतोष्ण होता है।
(तभा २.३३ वृ) (द्र उष्ण योनि)
शीतगृह वर्धकिरत्न के द्वारा निर्मित चक्रवर्ती का घर, जो वर्षा ऋतु में बरसाती हवा से अप्रभावित, सर्दी में गरम और गर्मी में ठण्डा रहता है। शीतगृहं नाम-वर्द्धकिरत्ननिर्मितं चक्रवर्तिगृहम्, तच्च वर्षासु निवातप्रवातं शीतकाले सोष्मं ग्रीष्मकाले शीतलम्।
(बृभा २७१६ वृ) शीततेजोलेश्या अनुग्रह करने वाली तथा उष्णतेजोलेश्या का प्रतिकार करने वाली तेजोलेश्या। ....प्रसन्नस्त शीततेजसाऽनगहाति। (तभा २.३७०) सीयलियाए तेयलेस्साए"उसिणा तेयलेस्सा पडिहया।
(भग १५.६८) शीत परीषह परीषह का एक प्रकार । ठण्ड से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। चरंतं विरयं लूहं सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं मुणी गच्छे सोच्चाणं जिणसासणं॥ न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जई। अहं तु अग्गिं सेवामि, इइ भिक्खू न चिंतए॥
(उ २.६,७)
शीर्षप्रहेलिका गणित-विषय की अंतिम संख्या, जो कुल १९४ अंकों की होती है (५४ अंक और उसके ऊपर १४० शून्य होते हैं)। अंक इस प्रकार हैं-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७ ९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६इस संख्या के आगे १४० शून्य। सीसपहेलियाए चत्तालं सुण्णसयं ततो छ णव दो ति अटू एक्को सुण्णं अट्ठ सुण्णं अट्ठ चतु अट्ठ छ छ णव अट्ठ एक्को दो छ सुण्णं चतु छ पण छ णव सत्त णव णव छ पण ति सत्त णव सत्त पण एक्को एक्को चतु दो सुण्णं एक्को सुण्णं ति सत्त सुण्णं ति पण दो ति छ दो अट्ठ पण सत्त य ठवेज्जा ।
(अनुचू पृ३९, ४०)
शुक्लध्यान निर्मल प्रणिधान वाला ध्यान। १. निर्मल प्रणिधान-समाधि-अवस्था को शुक्ल ध्यान कहते हैं। उसके चार भेद हैं-पृथक्त्ववितर्कसविचार, एकत्ववितर्कअविचार, सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति, समुच्छिन्नक्रियाअनिवृत्ति। निर्मलं प्रणिधानं शक्लम। (जैसिदी ६.४४ ) पृथक्त्ववितर्क सविचार-एकत्ववितर्काऽविचार-सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति-समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्तीनि शुक्लम्।
(जैसिदी ६.४४) २. पूर्वधर मुनि के पूर्व श्रुत के आधार पर होने वाला ध्यान। ""आद्ये शुक्ले ध्याने पूर्वविदो भवतः। (तभा ९.३९) ३. योगनिरोधात्मक ध्यान, जो केवली के होता है। परे द्वे शुक्लध्याने केवलिन एव भवतः, न छद्मस्थस्य।
(तभा ९.४०)
शीत योनि वह उत्पत्ति स्थान, जो शीतल होता है।
(तभा २.३३ वृ)
(द्र उष्ण योनि)
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भवित्ता तओ पच्छा सिज्झति....॥ शुक्लो नामाभिन्नवृत्तोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति। निरतिचारचरण इत्यन्ये। सुक्काभिजाइ'त्ति शुक्लाभिजात्यः परमशुक्ल इत्यर्थः ।....एतच्च श्रमणविशेषमेवाश्रित्योच्यते न पुनः सर्व एवैवंविधो भवतीति।.....शुक्ल उक्तः, स च तत्त्वतः केवली। (भग १४.१३६,१३७ वृ)
शुचि
योगसंग्रह का एक प्रकार । पवित्रता, सत्य, संयम का आचरण । 'सुइ' त्ति शुचिः सत्यं संयम इत्यर्थः ।
(सम ३२.१.२ वृ प५५)
हा हा
शुक्लपाक्षिक अपार्धपुद्गलपरावर्त तक संसार में रहकर मुक्त होने वाला। जीव।
(स्था १.१८७) (द्र कृष्णपाक्षिक, पुद्गल परिवर्त) शुक्ललेश्या प्रशस्त लेश्या का तीसरा प्रकार। १. प्रशस्ततम भावधारा, जितेन्द्रियता, प्रशान्तता, अप्रमत्तता
और धर्म्यध्यान-शुक्लध्यानलीनता से संबंधित चैतन्य की एक रश्मि। अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दंतप्या, समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ।। सरागे वीयरागे वा, उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे॥
(उ ३४.३१,३२) (द्र भावलेश्या) २. प्रशस्ततम भावधारा की उत्पत्ति में हेतुभूत श्वेत वर्ण वाले पुद्गल। संखंककुंदसंकासा, खीरपूरसमप्पभा। रययहारसंकासा, सुक्कलेसा उ वण्णओ॥
(उ ३४.९) (द्र द्रव्यलेश्या) शुक्लाभिजात्य १. वह श्रमणोपासक, जो मुनित्व को स्वीकार कर अभिन्न चारित्र वाला, अमत्सरी, कृतज्ञ, सत्प्रवृत्ति वाला और हित का अनुबंध रखने वाला होता है तथा मृत्यु को प्राप्त कर देवरूप में उपपन्न होता है। "इच्चेतेसमणोवासगा सुक्का, सुक्काभिजातीया भवित्ता॥ ..."सुक्क' त्ति शुक्ला अभिन्नवृत्ता अमत्सरिणः कृतज्ञाः सदारम्भिणो हितानुबन्धाश्च सुक्काभिजाइय'त्ति शुक्लाभिजात्याः शुक्लप्रधानाः। (भग ८.२४२ वृ) २. वह विशिष्ट श्रमण, जो एकवर्षीय मुनिपर्याय में अनुत्तरोपपातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर निरतिचार चारित्र-पालन करता हुआ परमशुक्ल-केवली हो जाता है, सिद्ध हो जाता है। ....बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए
शुद्ध तप प्रायश्चित्त का एक प्रकार। वह तप, जो परिहार तप की भांति कर्कश नहीं है, जिसमें संभाषण, संभोजन आदि वर्जित नहीं हैं। आलावण पडिपुच्छणं, परियट्टट्ठाण वंदणग मत्ते। पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव॥ आलवणादी उ पया, सुद्ध तवे तेण कक्खडो न भवे। इतरम्मि उ ते नत्थी, कक्खडओ तेण सो होति॥
(व्यभा ५५०,५५८) शुद्धपृथ्वी वह पृथ्वी, जो सचित्त है, शस्त्र से अनुपहत है। असत्थोवहता सुद्धपुढवी। (द ८.५ अचू पृ १८५) शुद्धोपहृत मुनि को ऐसा भोजन देना, जो दाता द्वारा अपने निमित्त लाया गया है तथा जो लेपरहित है। शुद्धम्-अलेपकृतं शुद्धौदनं च, तच्च तदुपहृतं चेति शुद्धोपहृतम्।
(स्था ३.३७९ वृ प १३८) (द्र फलिकोपहत, संसृष्टोपहत )
शुभनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं। यदुदयान्नाभेरुपरितना अवयवाः शुभा जायन्ते तत् शुभनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) शुभ प्रकृति वह कर्म-प्रकृति, जो शुभ (प्रमोद के निमित्तभूत) रस से
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युक्त होती है, जैसे-सात वेदनीय, तीर्थङ्करनाम, वज्रऋषभनाराच संहनन आदि। जीवप्रमोदहेतुरसोपेताः प्रकृतयः शुभाः। (कप्र पृ३४) शुभ योग मन, वचन और शरीर की शुभ प्रवृत्ति, जिससे कर्म की निर्जरा होती है और प्रासंगिक रूप से पुण्य का बंध होता है। शुभयोगः-सत्प्रवृत्तिः, स च शुभकर्मपुदगलान् आकर्षति। """अशुभकर्माणि त्रोटयतीति निर्जराकारणं तु समस्त्येव।
(जैसिदी ४.२६,२७ वृ)
शुश्रूषणा विनय दर्शनविनय का एक प्रकार। सत्कार, सम्मान, अभ्युत्थान, हाथ जोडना आदि के रूप में गरु के प्रति किया जाने वाला विनम्र व्यवहार। सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मान आसननिमन्त्रणा तथा च। आसनसंक्रामणं कृतिकर्म अञ्जलिग्रहश्च ॥ आगच्छतोऽभिव्रजनं स्थितस्य तथा पर्युपासना भणिता। गच्छतोऽनुव्रजनं एष
(स्थावृ प३८७)
सेसवं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसएणं॥
(अनु ५२१) शैक्ष १. नवदीक्षित मुनि, जिसे छेदोपस्थापनीय चारित्र में उपस्थापित न किया गया हो। २. श्रुतज्ञान की शिक्षा-ग्रहणशिक्षा और आसेवन शिक्षा का अभ्यास करेन वाला। 'शैक्षः' अभिनवदीक्षितः। (बृभा ६४११ वृ) सेहे छठेवुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया। (बृभा ६४१३) .."कतिचिदहानि प्रतिपन्नस्य सामायिकस्य गतानि यस्य प्रव्रजितः। अनारोपितविविक्तव्रतो वा ग्रहणासेवनशिक्षामुभयींसोऽचिर प्रव्रजित: शिक्षयितव्यः शिक्षः। शिक्षामर्हतीति वा शिक्षाशीलो वा शैक्षः। (तभा ९.२४ ७ प २५७) शैक्षभूमि सामायिक चारित्र का कालमान (नवदीक्षित मुनि के लिए), जो उत्कृष्ट छह मास का, मध्यम चार मास का, जघन्य सात अहोरात्र का है। तओ सेहभूमीओपण्णत्ताओ, तं जहा-उक्कोसा"छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहण्णा सत्तराइंदिया। सेध्यते--निष्याद्यते यः स सेधः शिक्षा वाऽधीत इति शैक्षः तस्य भूमयो-महाव्रतारोपणकाललक्षणाः अवस्थापदव्य इति सेधभूमयः शैक्षभूमयो वा। (स्था ३.१८६ वृप १२४) शैक्षस्थापना अकल्प १. शैक्ष द्वारा आनीत या याचित आहार, वसति और वस्त्रपात्र ग्रहण करना। २. वर्षाकाल में किसी को प्रव्रजित करना अथवा ऋतुबद्धकाल में अयोग्य को प्रव्रजित करना। सेहट्ठवणाकप्पो नाम जेण पिंडणिज्जुत्तीण सुता तेसुआणियं न कप्पइ भोत्तुं, जेण सेज्जाओ ण सुयाओ तेण वसही उग्गमिता ण कप्पड़, जेण वत्थेसणा ण सुया तेण वत्थं । उडुबद्धे अणला ण पव्वाविजंति, वासास सव्वेऽवि।
(दजिचू पृ २२६) (द्र शैक्षस्थापना कल्प)
शूरहक वह मुनि, जो कलह आदि करने वालों को समझाने में समर्थ हो। 'शूरहकः' कलहादिकुर्वतां शिक्षा कर्तुं समर्थः ।
(बृभा ४४१० वृ) शृङ्गनादित संघकार्य। वह कार्य, जो सब कार्यों में शृङ्गभूत-मुख्य होता
है।
कज्जेसु सिंगभूयं, तु सिंगनादिं भवे कजं॥ (बृभा ३८८) ""शृङ्गनादितकार्यम्""तादृशे कार्य उत्पन्ने शृङ्गनादः-शृङ्गापूरणपूर्वकं संघमिलनलक्षण: स सञ्जातो यत्र तच्च तत् कार्य"संघकार्यमुच्यते। (नन्दीहावृ पृ १६२,१६३)
शेषवत् अनुमान कार्य, कारण, गुण, अवयव और आश्रय से होने वाला अनुमान, जैसे उफनती हुई नदी को देखकर वर्षा के होने का अनुमान करना।
शैक्षस्थापना कल्प दीक्षा के लिए अयोग्य व्यक्ति को दीक्षित न करना।
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अट्ठारसेव पुरिसे, वीसं इत्थीओ दस णपुंसा य। दिक्खेति जो ण एते, सेहट्ठवणाए सो कप्पो॥
(बृभा ६४४३ वृ) (द्र शैक्षस्थापना अकल्प)
श्याम परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार । वे असुर देव, जो पुण्यहीन नैरयिकों के अंगोंपांगों का छेदन करते हैं, उन्हें नीचे गिराते हैं, शूल में पिरोते हैं, रज्जु से बांधते हैं, लात से प्रहार कर उन्हें व्यथित करते हैं। साडण-पाडण-तोदण-विंधण रज्जूलतप्पहारेहिं। सामा नेरइयाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं॥
(सूत्रनि ७०)
शैला अधोलोक (नरक) की तीसरी पृथ्वी का नाम।
(स्था ७.२३) (द्र अञ्जना)
शैलेशी अवस्था योगनिरोध की अवस्था, अयोगिकेवली (चौदहवें जीवस्थान) की अवस्था, जिसमें जीव शैलेश-मेरु की भांति निष्प्रकम्प हो जाता है, पांच हस्व अक्षर-क, ख, ग, घ, के उच्चारणकाल जितनी स्थिति में अयोगीकेवली रहकर फिर सब कर्मों से मुक्त हो जाता है। अजोगीकेवली नाम सेलेसिं पडिवन्नओ।सो यतीहिं जोगेहिं विरहितो जाव कखगघङ इच्चेताई पंचहस्सक्खराई उच्चारिजंति एवतियं कालमजोगिकेवली भवितूण ताहे सव्वकम्मविणिमुक्को सिद्धो भवति। (आवचू २ ११३६) शोक १. नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृति। जिसके उदय से व्यक्ति सकारण अथवा अकारण शोकाकुल हो जाता है। यदुदयेन शोकरहितस्यापि जीवस्याक्रन्दनादिः शोको जायते तच्छोककर्मेति।
(स्था ९.६९ वृ प ४४५) । २. मानसिक वेदना, जिसके द्वारा संताप (तनाव) पैदा होता ।
श्रद्धा १. तत्त्वों के प्रति श्रद्धान, प्रतीति करना। २. सम्यग् अनुष्ठान करने की इच्छा। तत्त्वानि जीवादीनि "तेषां श्रद्धानं तेषु प्रत्ययावधारणम्।
(तभा १.२) श्रद्धा-तत्त्वश्रद्धानं सदनुष्ठानचिकीर्षा वा।
(भग ११.१७२ वृ) श्रमण १. चतुर्विध श्रमणसंघ का एक अंग, जो प्राणातिपात, मृषावाद, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेयस्, द्वेष से विरत और व्युत्सृष्ट काय वाला है-देहाध्यास से ऊपर उठा हुआ है।
(भग २०.७४) एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिन्द्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेज्जं च दोसं च-इच्चेव जतो-जतो आदाणाओ अप्पणो पदोसहेऊ ततो-ततो आदाणाओ पव्वं पडिविरते सिआ दंते दविए वोसट्ठकाए 'समणे'त्ति वच्चे। (सूत्र १.१६.४) (द्र श्रमणसंघ) २. वह व्यक्ति जो श्रम-तपस्या करता है। श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः। (दहावृ प ६८) श्रमणधर्म श्रमणों द्वारा आचरणीय क्षति, मुक्ति आदि दस धर्म। दसविधेसमणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे।
(स्था १०.१६) (द्र यतिधर्म)
जेणं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसिणं जीवाणं सोगे।
(भग १६.२९)
शोधि प्रायश्चित्त। वह तप, जिससे दोष की विशुद्धि होती है। 'शोधि:' प्रायश्चित्तम्।
(बृभा ४९४२ वृ) शौच धर्म श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार। लोभ का वर्जन। अलोभः शौचलक्षणम्।
(तभा ९.६४)
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श्रमणभूत प्रतिमा उपासक प्रतिमा का ग्यारहवां प्रकार। प्रतिमाधारी उपासक इस प्रतिमा में मुनि की भांति समिति, गुप्ति का सम्यक् पालन करता है। स श्रमणभूतः साधुकल्प इत्यर्थः विहरेत्-गृहान्निर्गत्य निखिलसाधुसामाचारीसमाचरणचतुरः समितिगुप्त्यादि सम्यगनुपालयन्"। (प्रसा ९८० वृ प २९५) श्रमणसंघ जैनशासन का वह संगठन, जिसमें चार वर्ण होते हैं-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका। .."चाउवण्णे समणसंघे, तं जहा-समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ॥
(भग २०.७४)
२. वह श्रमणोपासक, जो बारह व्रतों का आंशिक पालन करता है। सकलचरणकरणाक्षमो गृहस्थयोग्यमनुगुणशिक्षाव्रतलक्षणं धर्ममनुतिष्ठति यथाशक्ति वा द्वादशप्रकारस्य धर्मस्यैकदेशानुष्ठाय्यपि श्रावक एव।
(तभा ९.४७ वृ) श्राविका चतुर्विध श्रमणसंघ का एक अङ्ग। वह स्त्री, जो बारह व्रतों का पालन करती है।
(भग २०.७४) (द्र श्रमणसंघ)
श्रुत १. द्वादशांग गणिपिटक।
(दअचू पृ११)
श्रमणी चतुर्विध श्रमणसंघ का एक अङ्ग। महाव्रतों को धारण करने वाली स्त्री।
(भग २०.७४) (द्र श्रमणसंघ)
(द्र श्रुतधर्म) २. प्रवचन।
(तभा ६.१४ वृ पृ २७)
(द्र साङ्गोपाङ्ग श्रुत)
श्रमणोपासक श्रावक, तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रमणों की उपासना करने वाला। से जहाणामए समणोवासगा भवंति, उपासंति तत्त्वज्ञानार्थमित्युपासकाः।
(सूत्र २.२.७२ चू पृ ३६७) ।
श्रवण अवग्रह की तीसरी अवस्था, जिसमें एक समय की अवधि वाला सामान्य अर्थ का अवग्रहण होता है। एगसामइगसामण्णत्थावग्गहकाले सवणता भण्णति।
(नन्दी ४३ चू पृ ३५)
श्रुतअज्ञान १. अज्ञान का एक प्रकार । मिथ्यादृष्टि का श्रुतज्ञान। मति-श्रुत-विभंगा मिथ्यात्वसाहचर्यादज्ञानम्। मिथ्यात्विनां ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्योऽपि बोधो मिथ्यात्वसहचारित्वात् अज्ञानमुच्यते। (जैसिदी २.३२ वृ) २. वह श्रुतशास्त्र, जो मिथ्यादृष्टि के द्वारा परिगृहीत है, सम्मत है। मिच्छदिट्ठस्स सुयं सुयअण्णाणं। (नन्दी ३६)
श्रुतकेवली भिन्नाक्षरचतुर्दशपूर्वी, समग्र श्रुत का पारगामी। श्रुत के आधार पर सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का ज्ञाता।। सयलागमपारगया सुदकेवलिणामसुप्पसिद्धा जे। एदाण बुद्धिरिद्धी चोद्दसपुव्वि त्ति णामेण॥
(त्रिप्र ४.१००१) "दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ। ""सव्वं खेत्तं""सव्वं कालं"सव्वे भावे जाणइ पासइ।
(नन्दी १२४)
श्राद्ध
वह श्रावक, जो साधुओं की सामाचारी जानने में निपुण होता
श्राद्धाः-साधुसामाचारीकोविदाः। (बृभा ३५८३ वृ)
श्रावक १. चतुर्विध श्रमणसंघ का एक अङ्ग। वह श्रमणोपासक, जो बारह व्रतों का पालन करता है। (भग २०.७४) (द्र श्रमणसंघ)
श्रुतज्ञान १. शाब्दज्ञान। वह ज्ञान, जो एक व्यक्ति से शब्द, संकेत
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आदि के माध्यम से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचता है। पायदुगं जंघोरू गातदुगद्धं तु दो य बाहूयो। द्रव्यश्रुतम्-शब्दसंकेतादिरूपम्, तदनुसारेण परप्रत्यायनक्षम गीवा सिरं च पुरिसो बारसअङ्गो सुतविसिट्ठो॥ ज्ञानं श्रुतमभिधीयते। (जैसिदी २.२२ वृ)
(नन्दीचू पृ ५७) (द्र द्रव्यश्रुत, भाव श्रुत)
(द्र द्वादशाङ्ग) २. सामायिक (आचाराङ्ग) से बिंदुसार (चौदहवां पूर्व) पर्यंत शास्त्र । द्वादशाङ्ग।
श्रुत व्यवहार सामाइयमाईयं सुयनाणं बिंदुसाराओ।"
व्यवहार का एक प्रकार। भावे खओवसमिए दुवालसंगं पि होइ सुयनाणं" १. आचारप्रकल्प (निशीथ), कल्प और व्यवहार श्रुत, जो
(आवनि ९३, १०४) विधि और निषेध का प्रतिपादक है। श्रुतज्ञानावरण
आचारप्रकल्पादिश्रुतम्। (स्था ५.१२४ वृ प ३०२)
"पकप्पकप्पो य ववहारो॥ ज्ञानावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके द्वारा श्रुतज्ञान
(व्यभा ४१७३) आवृत होता है।
२. श्रुतधर से प्राप्त प्रवृत्ति और निवृत्ति का निर्देश। श्रुतज्ञानं "तस्यावृतिः श्रुतज्ञानावरणम्। (तभा ८.७ वृ)
श्रुतव्यवहारी
जो आचारप्रकल्प, कल्प और व्यवहार के सूत्र-अर्थ को श्रुतधर्म द्वादशांग में प्रतिपादित भावों का स्वाध्याय।
निपुणता से जानता है तथा संघ में कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का
व्यवहार उपस्थित होने पर इन श्रुतग्रंथों के निर्देशानुसार सुतधम्मो-वालसंगं गणिपिडगं, तस्स धम्मो जाणितव्वा
व्यवहारविधि का प्रयोग करता है। भावा।
(दअचू पृ ११)
जो सुतमहिज्जति बहु, सुत्तत्थं च निउणं वियाणाति। श्रुतनिश्रितमति
कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सुतधराणं॥ वह मतिज्ञान, जो शास्त्र के अध्ययन से परिष्कृत मति वाले तं चेवऽणुमजंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं। व्यक्ति में ज्ञान की उत्पत्ति के समय शास्त्र की पर्यालोचना एसो सुतववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं॥ के बिना उत्पन्न होता है।
(व्यभा ४४३३,४४३६) शास्त्रपरिकर्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमन
श्रुतसमुद्देष्टा पेक्ष्यैव यदुपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम्।
आचार्य का एक प्रकार। वह आचार्य, जो शिष्य को पठित (नन्दी ३७ मत प १४४)
अध्ययन के स्थिरीकरण का निर्देश देता है। श्रुतपुरुष
(द्र श्रुतोद्देष्टा) वह काल्पनिक पुरुष, जिसकी रचना बारह अङ्गों के आधार
श्रुतसम्पदा पर होती है
गणिसम्पदा का एक प्रकार । श्रत के विशिष्ट अध्ययन और दो चरण - आचार, सूत्रकृत
अध्यापन से उपलब्ध होने वाला वैभव। दो जंघा - स्थान, समवाय
सुतसंपदा चउब्विहा पण्णत्ता, तंजहा-बहुसुते यावि भवति, दो ऊरु - व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातधर्मकथा
परिचितसुते यावि भवति, विचित्तसुते यावि भवति, घोसउदर - उपासकदशा
विसुद्धिकारए यावि भवति।से तं सुतसंपदा ॥ (दशा ४.५) पीठ - अन्तकृतदशा दो भुजा - अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण
श्रुतसम्भोज ग्रीवा - विपाकश्रुत
सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार । सिर - दृष्टिवाद।
सांभोजिक अथवा उपसम्पदाप्राप्त अन्य सांभोजिक साधु को (देखें चित्र पृ ३४५)
विधिपूर्वक शास्त्र पढ़ाना।
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'सय' त्ति साम्भोगिकस्यान्यासांभोगिकस्य वोपसम्पन्नस्य श्रुतस्य वाचनाप्रच्छनादिकं विधिना कुर्वन् तथा शुद्धः"।
(सम १२.२ वृ प २२)
श्रुतस्कन्ध अध्ययनों का समूह, जैसे-सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध (प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्ययन, दूसरे में सात अध्ययन)।
(अनु ५७१) श्रुतस्थविर श्रुतज्ञान की अपेक्षा से ज्येष्ठ मुनि, स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग का धारक श्रमण-निर्ग्रन्थ। ठाणसमवायधरे णं समणे णिग्गंथे सयथेरे।
(स्था ३.१८७) श्रुतोद्देष्टा आचार्य का एक प्रकार। वह आचार्य, जो शिष्य को श्रुत पढ़ने का निर्देश देता है। श्रुतोद्देष्टा-श्रुतम्-आगममुद्दिशति यः प्रथमतः । एवमुद्दिष्टगुर्वादेरपाये तदेव श्रुतं समुद्दिशत्यनुजानीते वा यः स्थिरपरिचितकारयितृत्वेन सम्यग् धारणानुप्रवचनेन च स श्रुतसमुद्देष्टा।
(तभा ९.६ वृ पृ २०८) (द्र उद्देश, समुद्देश) श्रुतोपधान (द्र उपधान, योगवाहिता) श्रुत्वाकेवली सोच्चाकेवली-धर्म सुनने का अवसर और आन्तरिक विशुद्धि का प्रकर्ष-इन दोनों के कारण जिसे केवलज्ञान प्राप्त हुआ
हैं। श्रेणियां सात हैं। 'सेढी' इत्यादि, श्रेणीशब्देन च यद्यपि पंक्तिमात्रमुच्यते तथाऽपीहाकाशप्रदेशपंक्तयः श्रेणयो ग्राह्यः।
(भग २५.७३ वृ प ८६५) २. अध्यात्म-विकास (गुणस्थान-आरोहण) का विशेष उपक्रम। निवृत्तिबादर गुणस्थान से दो श्रेणियों का प्रारम्भ होता है-उपशम श्रेणि, क्षपक श्रेणि। निवृत्तिबादरजीवस्थानात् श्रेणिद्वयं जायते-उपशमश्रेणिः, क्षपक श्रेणिश्च।
(जैसिदी ७.१२ वृ) (द्र उपशम श्रेणि, क्षपक श्रेणि) श्रेणिचारण चारण ऋद्धि का एक प्रकार। जिस ऋद्धि के द्वारा साधक पर्वतश्रेणी के आधार पर ऊपरनीचे गमन कर सकता है। चतर्योजनशतोच्छितस्य निषधस्य नीलस्य च गिरेष्टच्छिन्नां श्रेणिमुपादायोपर्यधो वा पादपूर्वकं उत्तरणावतरणनिपुणाः श्रेणिचारणाः।
(प्रसावृ प १६८)
श्रेणितप इत्वरिक अनशन का एक प्रकार उपवास से लेकर छह मास तक क्रमपूर्वक किया जाने वाला तप। श्रेणि:-पंक्तिस्तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपः, चतुर्थादिक्रमेण क्रियमाणमिह षण्मासान्तं परिगह्यते।
(उ ३०.१० शावृ प ६००, ६०१)
जस्सणं"सोच्चा केवलिस्स वा जाव"केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं उप्पाडेन्जा॥
(भग ९.५४) (द्र अश्रुत्वाकेवली) श्रेणि १. आकाश-प्रदेशों की वह पंक्ति जिसके माध्यम से जीव और पुद्गलों की गति होती है। जीव और पुद्गल श्रेणि के अनुसार ही गति करते हैं-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाते
श्रोत्रग्राह्यविवर्जन ब्रह्मचर्य गप्ति का पांचवां प्रकार । स्त्रियों के गीत आदि शब्दों का वर्जन करना। कुइयं रुइयं गीयं, हसियं थणियकंदियं। बंभचेररओ थीणं, सोयगिझं विवज्जए॥
(उ १६ गा ५) श्रोत्रेन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (श्रोत्र) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्गनामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा शब्द को सुनती है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात्"शृणोत्यनेनात्मेति श्रोत्रम्। (तवा २.१९)
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श्रोत्रेन्द्रिय असंवर (आश्रव) कर्म-आकर्षण की हेतभत श्रोत्र इन्द्रिय की प्रवृत्ति ।
(स्था १०.११) श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह प्रिय, अप्रिय शब्दों में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह, इसके । द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की । निर्जरा होती है। सोइंदियनिग्गहेणं मणुनामणुन्नेसु सद्देसुरागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ॥
(उ २९.६३) श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष का एक प्रकार। श्रोत्रेन्द्रिय की सहायता से होने वाला शब्द का ज्ञान।
(नन्दी ५) (द्र इन्द्रियप्रत्यक्ष)
भरतो नामाद्यश्चक्रधर: षट्खण्डाधिपतिः।"भरतो "स पुनर्गङ्गासिन्धुभ्यां विजयार्धेन च षड्भागसंविभक्तः।
(तवा ३.१० पृ १७१) षट्पूर्व प्रतिलेखनविधि का एक प्रकार । वस्त्र के दोनों ओर तीनतीन विभाग कर उसका प्रस्फोटन करना, उसे झटकाना। छप्पुरिम त्ति षट्पूर्वाः पूर्वं क्रियमाणतया तिर्यक् कृतवस्त्रप्रस्फोटनात्मका: क्रियाविशेषाः येषु ते षट्पूर्वाः ।
(उ २६.२५ शावृ प ५४१) (द्र गणनोपग) षट्स्थानपतित तुलनात्मक न्यूनता और अधिकता को बताने वाले छः गणितीय मान, जैसे-अनंतभागहीन, असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन, संख्येयगुणहीन, असंख्येयगुणहीन, अनंतगुणहीन। अनंतभागअधिक, असंख्येयभागअधिक, संख्येयभागअधिक, संख्येयगुणअधिक, असंख्येयगुणअधिक, अनंतगुणअधिक। वड़ी वा हाणी वाणंतासंखिज्जसंखभागाणं। संखिज्जासंखिज्जाणंतगुणा चेति छब्भेया॥
(विभा ७२९) भावापेक्षया हीनत्वाभ्यधिकत्वचिन्तायां हानौ वृद्धौ च प्रत्येक षट्स्थानपतितत्वमवाप्यते। (प्रज्ञा ५.५ व प १८२)
श्रोत्रेन्द्रिय प्राण वह प्राण, जो सुनने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६) श्रोत्रेन्द्रियरागोपरति अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ शब्द में राग का वर्जन और अमनोज्ञ शब्द में द्वेष का वर्जन करना।
(सम २५.१.२१) (द्र चक्षुरिन्द्रिय रागोपरति) श्रोत्रेन्द्रिय संवर श्रोत्रेन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्मनिरोध ।
(स्था ५.१३७)
षडावश्यक छह विभाग वाला आवश्यक सूत्रा, जैसे-सामायिक, चतुर्विंश-तिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। आवस्सयं छव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो, पच्चक्खाणं।
(नन्दी ७५)
षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती, जो भरतक्षेत्र के छह भूखण्डों का स्वामी होता है। भरतक्षेत्र विजयार्ध (वैताढ्यगिरि), गंगानदी और सिन्धुनदी से छह भागों में विभक्त है। चक्रवर्त्तिप्रभृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः'षट्खण्डभरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति।
(बृभा ६६९ वृ)
षड्जीवनिकाय जीवों के छह वर्ग, जैसे-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय। ""छज्जीवनिकायाई"तं जहा-पुढविकाए, आउकाए, तेउ
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काए, वाउकाए, वणस्सइकाए, तसकाए।
(आचूला १५.४२)
षष्ठभक्त दो दिन का उपवास (बेला)। षष्ठं द्वावुपवासौ।
(प्रसावृप १६९)
को दिया जाता है। संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च नारका भवन्तीति।
(तभा २.३३ वृ) संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्या आतापना, क्षांतिक्षमा और निर्जल तप से उत्पन्न वह विस्तीर्ण तैजस शक्ति, जो अप्रयोग की स्थिति में संक्षिप्त अवस्था में (अन्तर्लीन) रहती है। तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संखित्तविउलतेउलेस्से भवति, तं जहा-आयावणताए, खंतिखमाए, अपाणगेणं तवोकम्मेणं। संक्षिप्ता-लघूकृता विपुलापि-विस्तीर्णापि सती अन्यथादित्यबिम्बवत् दुर्दर्शः स्यादिति तेजोलेश्या-तपोविभूतिजं तेजस्वित्वं तैजसशरीरपरिणतिरूपं महाज्वालाकल्पं येन स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः। (स्था ३.३८६ ७ प १३९) (द्र तेजोलब्धि, तेजोलेश्या)
संकेतक प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान का एक प्रकार । संकेत या चिह्नसहित किया जाने वाला प्रत्याख्यान, जैसे-जब तक मेरी मुट्ठी नहीं खुलेगी, तब तक मैं कुछ नहीं खाऊंगा। 'संकेयगं.."केतनं केत:-चिह्नमङ्गष्ठमष्टिग्रन्थिगृहादिकं स एव केतकः सह केतकेन सकेतकं ग्रन्थादिसहितमित्यर्थः।
(स्था १०.१०१ वृ प ४७३)
संक्रमण कर्मकरण का एक प्रकार। सजातीय कर्म प्रकृतियों का आपस में होने वाला परिवर्तन। सजातीयप्रकृतीनां मिथ: परिवर्तनं-संक्रमणा। यथा-अध्यवसायविशेषेण सातवेदनीयम् असातवेदनीयरूपेण असातवेदनीयं च सातवेदनीयरूपेण परिणमति। आयुषः प्रकृतीनां दर्शनमोहचारित्रमोहयोश्च मिथः संक्रमणा न भवति।
(जैसिदी ४.५ वृ) संक्रामण दोष वाद-दोष का एक प्रकार । प्रस्तुत प्रमेय को छोड़कर अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना। संक्रामणं-प्रस्तुतप्रमेयेऽप्रस्तुतप्रमेयस्य प्रवेशनं प्रमेयान्तरगमनमित्यर्थः।
(स्था १०.९४ वृ प ४६७) संक्लिष्ट लेश्यामरण बालमरण का एक प्रकार, जिसमें अशुद्ध लेश्या अधिक संक्लिष्ट हो जाती है। संक्लिश्यमानाः संक्लेशमागच्छन्ति", सा लेश्या यस्मिंस्तत्तथा।
___(स्था ३.५२० वृ प १६५) संक्लिष्टासुरोदीरित दुःख वह दुःख, जो संक्लिष्ट चित्त वाले असुरों द्वारा नारक जीवों
संक्षेपरुचि १. रुचि का एक प्रकार । मिथ्या आग्रह के अभाव में स्वल्प ज्ञान से होने वाली रुचि। २. संक्षेपरुचिसम्पन्न व्यक्ति। अणभिग्गहियकुदिट्ठी, संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो। अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिओ य सेसेस।
(उ २८.२६) संख्यान १. गणित। २. निपुण गणितज्ञ। संख्यानं-गणितं तद्योगात्पुरुषोऽपि तथा, संख्याने वा विषये निपुण इति।
(स्था ९.२८ प ४२८) संख्येय गणनासंख्या का एक प्रकार। दो से लेकर उत्कृष्ट संख्येय तक। से किं ते गणणसंखा? गणणासंखा-एक्को गणणं न उवेइ, दुप्पभिइ संखा, तं जहा-संखेज्जए असंखेज्जए अणंतए॥
(अनु ५७४) संख्येयजीवी वह वनस्पति, जिसके एक शरीर में संख्येय जीव होते हैं।
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जे केइ नालियाबद्धा पुण्फा संखेज्जजीविया भणिता।"
(प्रज्ञा १.४८.४१)
संख्येयप्रदेशिक वह पुद्गलस्कंध, जो संख्येय परमाणुओं से निष्पन्न होता है।
(प्रज्ञा ३.१७९)
सङ्ग
१. आसक्ति। संग:-आसक्तिः ।
(आभा ६.१०८) २. विघ्न, विक्षेप। संगो त्ति वा विग्यो त्ति वा वक्खोडि त्ति वा।
(आ ६.१०८ चू पृ२४१) सङ्गपरिज्ञा योगसंग्रह का एक प्रकार। आसक्ति का त्याग। 'संगाणं च परिणाय' त्ति संगानां च ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदभिन्ना परिज्ञा कार्या। (सम ३२.१.५ व प ५५)
जिसका विषय अंतिम सामान्य अथवा अवान्तर सामान्य होता है। सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः। (प्रनत ७.१३) पज्जवणयवोक्कंतं वत्थं दव्वट्टियस्स वयणिज्जं। जाव दविओवओगो अपच्छिमवियप्पनिव्वयणो। दव्वढिओ त्ति तम्हा नत्थि णओ नियम सुद्धजाईओ। ण य पज्जवदिओ णाम कोइ भयणाय उ विसेसो॥
(सप्र१.८,९) संग्रहपरिज्ञासम्पदा गणिसम्पदा का एक प्रकार। संघव्यवस्था का कौशल। संगहपरिण्णासंपदा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा-बहुजणपाओग्गताए वासावासासु खेत्तं पडिले हित्ता भवति, बहुजणपओग्गताए पाडिहारियपीढफलगसेज्जासंथारयं ओगेण्हित्ता भवति। कालेणं कालं समाणइत्ता भवति, अहागुरु संपूएत्ता भवति । से तं संगहपरिण्णासंपदा।
(दशा ४.१३)
सङ्क
संग्रहकुशल वह मुनि, जो परस्पर सहयोग करने में प्रवण है, गुरु के १. धर्माराधना करने वालों का वह संगठन, जिसमें ज्ञान, क्लांत होने पर स्वयं वाचना देता है, सारणा वारणा में
दर्शन और चारित्र का समन्वय होता है। निपुण है, जो यथार्ह गुरुजनों की पूजा करता है, दुःखार्त के
संघो गुणसंघाओ संघो य विमोचओ य कम्माणं। प्रति अनुकम्पाशील है, भक्तपान, उपधि आदि लाकर देता
दंसणणाणचरित्ते संघायंतो हवे संघो॥ (भआ ७१३) है, वस्त्र-सीवन, पात्रलेपन आदि अपेक्षाओं को स्वेच्छा से
२. अनेक गणों का समुदाय। पूर्ण करता है।
सङ्घः 'गणसमुदायः।'
(बृभा २७८० वृ) साहिल्ल वयण-वायण, अणुभासण-देस-कालसंसरणं।
सङ्घ धर्म अणुकंपणमणुसासण, पूयणमब्भंतरं करणं॥
१. संघ (राज्य) की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता। संभुंजणसंभोगे, भत्तोवधि अन्नमन्नसंवासो। संगहकुसलगुणनिधी, अणुकरणकरावण निसग्गो॥
२. मुनियों के संघ की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता।
संघधर्मो गोष्ठीसमाचारः। आर्हतानां वा गणसमुदायरूप(व्यभा १५०७,१५०८)
श्चतुर्वर्णो वा संघस्तद्धर्म:-तत्समाचारः। संग्रहदान
(स्था १०.१३५ वृ प ४८९) वह दान, जो विपत्ति आदि में सहायता के लिए दिया जाता
सङ्घाटक संग्रहणं संग्रहः-व्यसनादौ सहायकरणं तदर्थं दानं
दो साधुओं का समूह। संग्रहदानम्।
'सङ्घाडगे' त्ति सङ्घाटकेन-साधुयुग्मेन। (बृभा १६९६ वृ) (स्था १०.९७ वृ प ४७०) संज्ञा संग्रहनय
१. प्रत्यभिज्ञा। सामान्य मात्र को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण। वह नय,
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संज्ञाज्ञानं नाम यत्तैरेवेन्द्रियैरनुभूतमर्थं प्राक् पुनर्विलोक्य स एवायं यमहमद्राक्षं पूर्वाह्न इति संज्ञाज्ञानमेतत्।
__ (तभा १.१३ वृ) २. कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञान, जैसे-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाली आभिनिबोधिकज्ञानसंज्ञा। खओवसमिया णाणावरणखओवसमेण आभिणिबोहियनाणसण्णा भवति।
(आवचू २ पृ८०) ३. कर्मों की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के उदय से होने वाली आहार आदि संज्ञाएं। आहारादिविषयाभिलाषः संज्ञेति। (ससि २.२४.१८२) ४. देव, गुरु और धर्मविषयक यथार्थ ज्ञान। संज्ञा नाम-देव-गुरु-धर्मतत्त्वानां यथावत् परिज्ञानम्।
(बृभा २५६२ वृ) ५. संवेदन-इन्द्रिय और मन के बिना होने वाला सामान्य
संज्ञिश्रुत श्रुतज्ञान का एक प्रकार। कालिक्युपदेश, हेतूपदेश और दृष्टिवादोपदेश संज्ञा से युक्त प्राणी का श्रुत। सण्णिसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालिओवएसेणं हेउवएसेणं दिट्ठिवाओवएसेणं। (नन्दी ६१) संज्ञी १. अवधिज्ञानी। २. जातिस्मृतिज्ञानसम्पन्न। ३. मानसिक पटुता वाला। संज्ञी-अवधिज्ञानी जातिस्मर: सामान्यतो विशिष्टमन:पाटवोपेतो वा।
(प्रज्ञावृ प २५३) ४. अविरतसम्यग्दृष्टि, चतुर्थ गुणस्थान का अधिकारी। 'संज्ञी' अविरतसम्यग्दृष्टिः । (बृभा १९११ वृ) ५. अणुव्रतों को स्वीकार करने वाला श्रावक। 'संज्ञी' गृहीताणुव्रतः।
(बृभा १९२६ वृ) ६. श्रावक, जिसमें देव, गुरु और धर्म रूप तत्त्वों का यथार्थ परिज्ञान होता है। देव-गुरु-धर्मतत्त्वानां यथावत् परिज्ञानं सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, श्रावकाः।
(बृभा २५६२ वृ) ७. समनस्क-मन-सहित। संज्ञिन: समनस्काः ।
(तसू २.२५) समनस्का:-दीर्घकालिकविचारणात्मिकया संज्ञया युक्ताः संज्ञिन इति।
(जैसिदी ३.६ ७)
ज्ञान।
(द्र ओघसंज्ञा)
संज्ञाक्षर अक्षरश्रुत का एक प्रकार । अक्षर का आकार या लिपि। सण्णक्खरं-अक्खरस्स संठाणागिई। (नन्दी ५७) संज्ञा सूत्र वह सूत्र, जिसमें सामयिकी संज्ञा-आगम के सांकेतिक शब्दों का प्रयोग होता है। यत् सामयिक्या संज्ञया सूत्रं भण्यते तत् संज्ञासूत्रम्।
(बृभा ३१६ वृ) संज्ञिपञ्चेन्द्रिय वह पञ्चेन्द्रिय जीव, जो मनसहित होता है।
(भग २४.३००) संज्ञिनः-गर्भजतिर्यड्मनुष्या देवनारकाश्च।
(बृभा १११२ वृ) (द्र संज्ञी)
संज्वलन कषाय चारित्रमोहनीय कर्म की वह प्रकृति-कषायचतुष्टयी (क्रोध, मान, माया, लोभ), जिसके उदयकाल में वीतराग-चेतना जागृत नहीं होती और जो सर्वविरत मुनि को भी किञ्चित् ज्वलित करती है। संज्वलन:-यथाख्यातचारित्रावारकः ।
(स्था ४.२८४ वृ प १८३)
संज्ञिभूत १. समनस्क योनि से मरकर पुनः समनस्क योनि में पैदा होने वाला जीव।
(प्रज्ञा १७.९) २. मस्तिष्कीय विकास के पूर्ण होने पर जिसका मन व्यक्त हो चुका हो।
संज्वलन क्रोध चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकति । यह क्रोध जल की रेखा के समान अत्यल्प काल तक टिकने वाला होता है। उदगराइसमाणे।
(स्था ४.३५४) (द्र संज्वलनकषाय)
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संज्वलन मान चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकति। यह मान सीसम जातीय लता के समान अत्यल्प स्तब्ध होता है। (द्र संज्वलनकषाय) तिणिसलताथंभसमाणे।
(स्था ४.२८३)
उठने वाले शब्दों को सुनकर जिससे प्रत्युत्तर दिया जाता है, वह ऋद्धि। सोदिंदियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि॥ सोदक्करस्सखिदीदो बाहिं संखेन्जजोयणपएसे। संठियणरतिरियाणं बहुविहसद्दे समुटुंते॥ अक्खरअणक्खरमए सोदूणं दसदिसासुपत्तेक्कं। जं दिज्जदि पडिवयणं तं चिय संभिण्णसोदित्तं॥
(त्रिप्र ४.९८४-९८६) (द्र सम्भिन्नश्रोतोलब्धि)
संज्वलन माया चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । यह माया छिलते बांस । की छाल के समान अत्यल्प वक्र होती है। अवलेहणिय केतणासमाणा।
(स्था ४.२८२) (द्र संज्वलनकषाय)
सम्भिन्नश्रोतो लब्धि संभिन्नश्रोतोलब्धिसम्पन्न पुरुष वह है• जो शरीर के किसी एक भाग से पांचों इन्द्रिय-विषयों को
जान लेता है। • जो बारह योजन विस्तृत चक्रवर्ती की सेना में एक साथ बोले जाने वाले नानाविध शब्दों को एक साथ सुनकर उनको पृथक्-पृथक् जान लेता है। जो किसी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रिय-विषयों को जान लेता है। • जो सर्व अंग-उपांगों से सभी इन्द्रिय-विषयों को जानता
संज्वलन लोभ चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । यह लोभ हल्दी के रंग के समान अत्यल्प आसक्ति वाला होता है। हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणे।
(स्था ४.२८४) (द्र संज्वलनकषाय) संनिषद्यासम्भोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। दो सांभोजिक आचार्यों का निषद्या पर बैठकर श्रुतपरिवर्तना आदि करना। संनिषद्यागत आचार्यो निषद्यागतेन सम्भोगिकाचार्येण सह श्रुतपरिवर्त्तनां करोति शुद्धः। (सम १२.२ ७ प २३) संभिन्नलोकनाडी सम्पूर्ण लोकनाडी, जो चौदह रज्जु प्रमाण है और कन्याचोलक संस्थान में संस्थित है। (देखें चित्र पृ ३४२) 'संभिण्णलोगनालिं'संभिन्नलोकनाडी चतुर्दशरज्जवात्मिकां कन्यकाचोलकसंस्थानम्"। (आवनि ५० हावृप २७) (द्र त्रसनाडी) (देखें चित्र पृ ३४२)
•जो चक्रवर्ती की सेना में एक साथ सनाई देने वाली सभी
वाद्यों की ध्वनियों को पृथक्-पृथक् जान लेता है। • जो सर्वतः सुनता है, सब श्रोतों-इन्द्रियों से सब विषयों
को जानता है अथवा एक साथ अनेक प्रकार के शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप में (अपने-अपने गणधर्मों के अनुरूप)
सुन लेता है। संभिन्नसोयरिद्धी नाम जो एगतरेणवि सरीरदेसेण पंच वि इंदियविसए उवलभति, सो संभिन्नसोय त्ति भन्नति। """इंदियत्थे उवलभति। अहवा सव्वेहिं अंगोवंगेहिं। अहवा चक्कवट्टिखंधावारे सव्वतूराणं विसेसं उवलभति।
(आवचू१ पृ.६८,७०) द्वादशयोजनायामे नवयोजनविस्तारे चक्रधरस्कन्धावारे गजवाजिखरोष्ट्रमनुष्यादीनाम् अक्षरानक्षररूपाणां नानाविधशब्दानां युगपदुत्पन्नानांतपोविशेषबललाभापादित सर्वजीवप्रदेशश्रोत्रेन्द्रियपरिणामात् सर्वेषामेककालग्रहणं संभिन्नश्रोतृत्वम्।
(तवा ३.३६ पृ २०२)
सम्भिन्नश्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धि का एक प्रकार। श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा शरीराङ्गो-- पाङ्गनाम कर्म का उदय होने पर श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र से बाहर दशों दिशाओं में संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्य एवं तिर्यंचों के अक्षर-अनक्षरात्मक बहुत प्रकार के
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जो
'सुणइ सव्वओ मुणइ सव्वविसए व सव्वसोएहिं । सुणइ बहुए व सद्दे भिन्ने संभिन्नसोओ सो ॥
(विभा ७८३)
(द्र सम्भिन्नश्रोतृत्व)
संयम
श्रमणधर्म अथवा उत्तमधर्म का एक प्रकार। वह प्रवृत्तिनिरोध, जो नए कर्मास्रव के संवर का हेतु बनता है।
अपूर्वकर्मा श्रवसंवरहेतुः संयमो वर्तते ।
(ओनिवृ प १२)
संयमकुशल
१. वह मुनि, जो सतरह प्रकार (पृथ्वीकायसंयम आदि) के संयम में कुशल है।
२. वह मुनि, जो आदाननिक्षेप (समिति), एषणा (समिति), शय्या, आहार आदि में स्मृतिमान् (जागरूक) है, जो इन्द्रियनिग्रह, कषायनिग्रह और आस्रवनिरोध करता है, प्रशस्त योगों में प्रवृत्त होता है तथा प्रशस्त ध्यान में आलीन रहता
I
...पुढवादिसंजमम्मी, सत्तरसे भवे कुसलो ॥
अथवा गहणे निसिरण, एसण सेज्जा निसेज्ज उवधी य । आहारे वि य सतिमं, पसत्थजोगे य जुंजणया ॥ इंदियकसायनिग्गह, पिहितासव जोगझाणमल्लीणो । संजमकुलगुणनिधी, तिविधकरण भावसुविसुद्धो ॥
(व्यभा १४८८ - १४९० )
संयोजना
परिभोगैषणा ( मांडलिक) दोष का एक प्रकार । स्वादवृत्ति से खाद्यपदार्थों को मिलाकर खाना ।
.................................... ||
संजोयणाए दोसो जो संजोएइ भत्तपाणं 'तु । दव्वाई रहे संयोजना प्रायश्चित्त
एकजातीय, युगपत् लगने वाले अनेक अतिचारों के लिए प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त, जैसे- शय्यातरपिण्डइ-वह आधाकर्मी भी, अभ्याहत भी ।
संयोजनम् — एकजातीयातिचारमीलनं संयोजना यथाशय्यातरपिण्डो गृहीतः सोऽप्युदकार्ब्रहस्तादिना सोऽप्यभ्याहृतः सोऽप्याधाकर्मिकस्तत्र यत् प्रायश्चित्तं तत् संयोजनाप्राय(स्था ४. १३३ वृ प १८९)
श्चित्तम् ।
(पिनि ६३८)
संरम्भ
जीववध आदि का संकल्प । संरम्भ: - संकल्पः ।
प्राणातिपातादिसंकल्पावेश: संरम्भः ।
२९५
(उ२४.२१ शावृ प ५१८) (तभा ६.९ वृ)
संलीनता
बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार । इन्द्रिय, मन आदि का बाह्य विषयों से प्रतिसंहरण कर उन्हें अन्तर्मुखी बनाना । इंदियकसायजोगे पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा ।
( उ ३०.८ शावृ प ६०८ )
(द्र प्रतिसंलीनता)
संलेखना
शरीर और कषाय को कृश करने के लिए किया जाने वाला तप । इसका उत्कृष्ट कालमान बारह वर्ष, मध्यम एक वर्ष और जघन्य छः मास है ।
सम्यक्कायकषायलेखना संलेखना । (तवा ७.२२) बारसेव उ वासाई संलेहुक्कोसिया भवे । संवच्छरं मज्झिमिया छम्मासा य जहन्निया ॥
( उ ३६.२५१)
संलेखना श्रुत
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें मारणान्तिक संलेखना का निरूपण है।
वाघातो निव्वाघातो वा भत्तसंलेहो कसायादिभावसंलेहो य जो जहा कातव्व तहा वण्णिज्जते जत्थऽज्झयणे तमज्झयणं संलेहणासुतं । (नंदी ७७ चू पृ ५८)
संवर
नौ तत्त्वों में एक तत्त्व । चेतना की वह अवस्था, जिसमें नए कर्मों के प्रवेश का निरोध होता है - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का निरोध होता है, जो गुप्ति, समिति, श्रमणधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप की साधना से सिद्ध होती है। आश्रवनिरोधः संवरः ।
सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः । (तसू ९.१, २) अपूर्वकर्मावयवप्रवेशनिवारणाय तु संवरमेव ।
मिच्छादंसणाविरइकसायपमायजोगनिरोहो संवरो ।
(तभा ९.१ वृ पृ १८० )
(जीचू पृ. ५)
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संवर अनुप्रेक्षा अष्टम अनुप्रेक्षा—कर्मागमन के मार्गों को रोकने के लिए संवर के गुणों का चिन्तन करना। संवरांश्च महाव्रतादीन् गुप्त्यादिपरिपालनाद् गुणतश्चिन्तयेत्।
(तभा ९.७) कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबन्ध इति संवरगुणानुचिन्तनं संवरानप्रेक्षा।
(तवा ९.७.७)
संवरद्वार कर्म-निरोध का हेतु, उपाय। संवरणं-जीवतडागे कर्मजलस्य निरोधनं संवरस्तस्य द्वाराणि-उपायाः। (स्था ५.११० वृ प ३०१)
संवृतचारी।
(सूत्र १.१.५६ चू पृ ३८) संवृत बकुश बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो छिप-छिपकर शरीर आदि की विभूषा करता है। शरीरोपकरणभूषयोः प्रच्छन्नकारी संवृतबकुशः।
(स्था ५.१८६ वृ प ३२०) संवृत योनि वह उत्पत्ति स्थान, जो संकड़ा, प्रच्छन्न होता है।
(तभा २.३३ वृ) (द्र संवृतविवृत योनि) संवृतविवृत योनि वह उत्पत्ति स्थान, जो कुछ संकड़ा और कुछ चौड़ा होता है। संवृता प्रच्छन्ना सङ्कटा वा। तद्विपरीता विवृता। मिश्रोभयस्वभावा।
(तभा २.३३ वृ)
संविग्न १. चैत्यवासी परम्परा से पृथग्भुत संविग्न-परम्परा का साधु, आगमोक्त आचार का अनुसरण करने वाला मुनि। २. मुनि के लिए निर्धारित निवास की मर्यादा के अनुसार वार्षिक यात्रा-मासकल्प करने वाला। 'संविग्नाः'उद्यतविहारिणः । (बृभा १११४ वृ) (द्र चैत्यवासी)
संवेग सम्यक्त्व का एक लक्षण। १. संसार से उद्विग्नता। २. मोक्ष की अभिलाषा। संवेगो-भवभयं मोक्षाभिलाषो वा। (भग ११.१७२ ७)
संवित्ति आत्मानुभव के क्षण में होने वाला निर्विकल्प आन्तरिक सुख। लक्खणदो णियलक्खं अणुहवमाणस्स जं हवे सोक्खं। सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण णिद्दहणा॥
(नच ३५१)
संवेदनी कथा कथा का एक प्रकार । जीवन की नश्वरता और दुःखबहुलता तथा शरीर की अशुचिता दिखाकर वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा। संवेगयति-संवेगं करोतीति संवेद्यते वा–संबोध्यते संवेज्यते वा-संवेगं ग्राह्यते श्रोताऽनयेति संवेदनी संवेजनी
(स्था ४.२४६ वृ प २००)
वेति।
संवृत वह भिक्षु, जो मन, वाणी और काय के संवर से युक्त होता है, आश्रवद्वारों का निरोध करता है। "मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू॥ (द १०.७) आश्रवद्वाराणां रोधेनेन्द्रियनिरोधेन च संवृतः।
(सूत्रवृ प २०४)
संव्यवहार प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान। इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं।
(विभा ९५)
संवृतचारी संयम का उपक्रम करने वाला। वह मुनि, जो प्रत्येक प्रवृत्ति को संयमपूर्वक करता है। संवृतचारिणो नाम संवृतः संयमोपक्रमः तच्चरणशील:
संशय दो धर्मों से रहित वस्तु में दो धर्मों का स्पर्श करने वालास्थाणु है या पुरुष-इस प्रकार का ज्ञान । __ अनुभयत्रोभयकोटिस्पर्शी प्रत्यय: संशयः। (प्रमी १.१.५)
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संसार जीव का भव-भवान्तर में गमन--परिभ्रमण, जो स्व-कृत कर्म के कारण होता है। आत्मोपचितकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्ति: संसारः ।
(तवा २.१०.१)
संशयकरणी असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार। अनेकार्थवाचक शब्द प्रयोग वाली भाषा, जो संशय पैदा करती है, जैसेसैंधव लाओ। संशयकरणी या वाक् अनेकार्थाभिधायितया परस्य संशयमुत्पादयति, यथा सैन्धवमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दोलवणवस्त्रपुरुषवाजिषु। (प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९) संशुद्धज्ञानदर्शनधर स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था । अर्हत. जिसने केवलज्ञान
और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। यह स्नातक निर्ग्रन्थ के निरावरण ज्ञान और दर्शन की सूचक है। ज्ञानान्तरेणासम्पृक्तत्वात् संशुद्धज्ञानदर्शनधर: पूजार्हत्वादर्हन्।
(स्था ५.१८९ वृ प ३२०)
संसार अनुप्रेक्षा तीसरी अनुप्रेक्षा । संसार के कष्टमय स्वरूप का चिन्तन करना तथा जन्म-मरण के चक्र से मक्ति पाने के लिए द:खमय संसार का चिन्तन करना। कष्टस्वभावः संसार इति चिन्तयेत्। एवं ह्यस्य चिन्तयतः संसारभयोद्विग्नस्य निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय घटत इति संसारानुप्रेक्षा।
(तभा ९.७)
संसक्त शिथिलाचारी श्रमण का एक प्रकार। १. असंक्लिष्ट-वह श्रमण, जिसमें आचार के गुणों और दोषों का मिश्रण होता है। वह जिसके साथ मिलता है, उसके सदृश हो जाता है-पार्श्वस्थ के साथ मिलकर पार्श्वस्थ
और यथाच्छंद के साथ मिलकर यथाच्छंद हो जाता है। २. संक्लिष्ट-वह श्रमण, जो हिंसा आदि पांच आश्रवों में प्रवृत्त है, स्त्री, ऋद्धि, रस आदि से प्रतिबद्ध है। गुणैर्दोषैश्च संसज्यते मिश्रीभवतीति संसक्तः।
(प्रसा १०३ वृ प २७) गोभत्तालंदो विव, बहुरूवनडो व्व एलगो चेव। संसत्तो सो दुविधो, असंकिलिट्ठो व इतरो य॥ पासत्थ-अधाछंदे, कुसील-ओसण्णमेव संसत्ते। पियधम्मो पियधम्मे, असंकिलिट्ठो उ संसत्तो॥ पंचासवप्पवत्तो, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो। इस्थि-गिहिसंकिलिट्ठो, संसत्तो सो य नायव्वो॥
(व्यभा८८८-८९०)
संसारचक्र जन्म-मरण का चक्र, जिसके छह अर-विभाग हैं-जाति, जरा, सुख, दु:ख, जीवन और मरण। संसारचक्कं छव्विहं, तं जहा--जाती जरा सुहं दुक्खं जीवितं मरणं।
(उ १४.४ चू पृ २२२) संसारपरीत वह जीव, जिसका संसार (जन्म-मरण) परिमित हो गया हो, कुछ कम अपार्धपुद्गलपरिवर्त्त जितना रह गया हो। कृतपरिमितसंसार: स संसारपरीतः।
(प्रज्ञा १८.१०६ वृ प ३९४) संसारपरित्ते"कालओ"जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणंअणंतं कालं जाव अवटुं पोग्गलपरियट्टे देसूणं॥
(जीवा ९.७८)
संसारस्थ जीव बद्धजीव, जन्म-मरण की परम्परा में परिभ्रमण करने वाला जीव, जैसे-नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। संसारो-गतिचतुष्टयात्मकस्तत्र तिष्ठन्तीति संसारस्था:नरकादिगतिवर्तिनः। (उ ३६.४८ शावृ प ६७७)
संसक्तशयनासन वर्जन ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का वर्जन करना। ब्रह्मचर्यस्य स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तशयनासनवर्जनम्।
(तभा ७.३)
संसृष्ट पिण्डैषणा का एक प्रकार। देय वस्तु से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार लेना। संसट्ठा हत्थमत्तएहिं।
(प्रसा ७४०)
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संतिष्ठतेऽनेन रूपेण पुद्गलात्मकं वस्त्विति संस्थानम्आकारविशेषः।
(उसुवृ प २७)
संसृष्टोपहत मुनि को ऐसा भोजन देना, जो दाता द्वारा खाने के लिए हाथ में उठाया हुआ हो। संसृष्टं नाम-भोक्तुकामेन गृहीतकूरादौ क्षिप्तो हस्तः क्षिप्तो न तावत् मुखे क्षिपति तच्च लेपालेपकरणस्वभावमिति, तदेवंभूतमुपहृतं संसृष्टोपहृतम्। (स्था ३.३७९ वृ प १३८) (द्र शुद्धोपहत) संसेकिम चतुर्थभक्त (उपवास) वाले मुनि के द्वारा ग्राह्य पानकं का एक प्रकार । घटिया अन्न, कैर आदि के धोने, भिगोने और उबालने के बाद रहा हुआ पानी। संसेकेन निर्वृत्तमिति संसेकिमं-अरणिकादिपत्रशाकमुक्ताल्यो येन शीतलजलेन संसिच्यते तदिति।
(स्था ३.३७६ वृ प १३७)
संस्थान नाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर की आकृतिरचना होती है। आकारविशेषस्तेष्वेव गृहीतसंघातितबद्धेषु औदारिकादिषु पदगलेषु संस्थानविशेषो यस्य कर्मण उदयाद् भवति तत्संस्थानम्।
(प्रज्ञा २३.४६ वृप ४७२)
संस्थान विचय धर्म्यध्यान का चतुर्थ प्रकार । लोक अथवा द्रव्यों की विविध आकृतियों को ध्येय बनाकर उसमें होने वाली एकाग्रता । संस्थानविचयं नाम चतुर्थं धर्मध्यानमुच्यते, संस्थानम्आकारविशेषो लोकस्य द्रव्याणां च। (तभा ९.३७ वृ) संस्वेदज पसीने से उत्पन्न जीव, जैसे-खटमल, जूं आदि। संस्वेदाज्जाता इति संस्वेदजा-मत्कुण-यूका-शतपदिकादयः।
(द ४.९ हावृ प १४१)
संस्तव उत्पादन दोष का एक प्रकार। परस्पर परिचय-प्रशंसा कर भिक्षा लेना। द्विविधः खलु संस्तवः-परिचयरूपः श्लाघारूपश्च, तत्र परिचयरूपः-सम्बन्धिसंस्तवः, श्लाघारूपो-वचनसंस्तवः।
(पिनि ४८४ वृ प ८९) संस्तारकमण्डली मण्डली का एक विभाग। इस व्यवस्था के अनुसार श्रमण विधिपूर्वक शयन करते हैं। (द्र मण्डली)
संस्तृत वह मुनि, जिसे पर्याप्त भक्त-पान उपलब्ध हो जाता है। भत्तपाणं पज्जत्तं लभंतो संथडो भण्णति। (निचू ३ पृ७४) संस्थान १. आकृति, जो शरीर के अवयवों की रचना से निष्पन्न होती है। संस्थानं-शरीराकृतिरवयवरचनात्मिका।
(स्था ६.३१ वृ प ३३९) २. पौद्गलिक वस्तुओं अथवा पुद्गलस्कन्धों के विविध आकार।
संहनन १. अस्थि-रचना अथवा शरीर में कठोर भाग की रचना, जिसके आधार पर शरीर का ढांचा बनता है, जैसेवज्रऋषभनाराच आदि छह संहनन। संहननम्-अस्थिसञ्चयः। (स्था ६.३० वृ प ३३९) संहननम्-अस्थिरचनाविशेषः। (प्रज्ञा २३.२५ वृप ४७०) वजरिसभणारायं पढमं बितियं च रिसभणारायं। णाराय अद्धणारायं कीलिया तह य छेव१॥
(आवहाव १ पृ २२५) २. अस्थिसंचय से उपमित शक्तिविशेष. जैसे-देवों का शरीर। इह चेत्थंभूतास्थिसञ्चयोपामितः शक्तिविशेषः संहननमच्यते न त्वस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वात्।
(आवहावृ प २२५) संहनन नाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से औदारिक शरीर में
अस्थि तथा कठोर भाग की रचना होती है। यदुदयादस्थिबन्धनविशेषस्तत् संहननम्। (तवा ८.११.९)
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संहननबन्ध
अवयवों तथा पृथक्-पृथक् वस्तुओं का संघात । बैलगाड़ी के अवयवों का संयोजन देशसंहनन बंध और दूध - पानी की भांति मिलन सर्वसंहनन बंध है ।
संहननं - अवयवानां तद्रूपो यो बन्धः स संहननबन्धः । (भग ८.३५६ वृ) शकटाङ्गादीनामिवेति देशसंहननबन्धः, क्षीरनीरादीनामिवेति सर्वसंहननबन्धः ।
(भग ८.३६० वृ)
संहिता
पदों का ऐसा सम्पर्क अथवा उच्चारण, जो शीघ्रता से अर्थबोध देने वाला होता है।
यो द्वयोर्बहूनां वा पदानां 'परः' अस्खलितादिगुणोपेतो विविक्ताक्षरो झटिति मेधाविनामर्थप्रदायी' सन्निकर्ष: ' सम्पर्कः संहिता । (बृभा ३०३ वृ)
संहृत
एषणा दोष का एक प्रकार। मुनि को देय वस्तु देने के लिए अदेय-सचित्त वस्तु को अलग कर भिक्षा देना । येन मात्रकेण दास्यति दात्री तत्रादेयं किमप्यस्ति अशनादिकं सचित्तपृथ्वीकायादिकं वा ततस्तददेयमन्यत्र स्थानान्तरे क्षिप्त्वा ददाति । (पिनि ५२० वृप १०२ )
सकल प्रत्यक्ष
केवलज्ञान, जिसके द्वारा मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों का साक्षात् ग्रहण होता है।
केवलणाणं च तहा अणोवमं सयलपच्चक्खं ।
(नच १७० )
सकलादेश
एक धर्म के माध्यम से अनन्तधर्मात्मक वस्तु का युगपत् प्रतिपादन करने वाला वचन । प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेश: । (प्रनत ४.४४ )
सकाम निर्जरा
मोक्ष - प्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली निर्जरा ।
सह कामेन मोक्षाभिलाषेण विधीयमाना निर्जरा सकामा ।
(जैसिदी ५.१८ वृ)
सकाम मरण
(द्र पण्डितमरण)
सकेतक प्रत्याख्यान
(द्र संकेतक प्रत्याख्यान )
सचित्त
वह द्रव्य, जिसमें चेतना होती है।
सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् ।
२९९
(उ ५.१७)
सचित्त प्रतिमा
उपासक प्रतिमा का सातवां प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक चतुर्विध सचित्त आहार का त्याग करता है। इसका साधनाका
सात मास का
1
सत्तमि सत्त उ मासे नवि आहारइ सचित्तमाहारं ।
(द्र मिश्र योनि)
सचित्ताचित्त योनि
(ससि ७.३५)
सचित्त महास्कन्ध
वह जीव-अधिष्ठित कर्म- पुद्गलमय महास्कन्ध, जो केवलीसमुद्घात के चौथे समय में होता है तथा जो लोकव्यापी और चतुःस्पर्शी होता है।
जैनसमुद्घाते यः सचेतनजीवाधिष्ठितत्वात् सचित्तः कर्मपुद्गलमयो महास्कन्धः । चतुर्थे समये द्वावपि लोकक्षेत्रं व्याप्नुतः, अष्टसामयिकं च कालं द्वावपि तिष्ठतः, वर्णपञ्चक-गन्धद्वय-रसपञ्चक-स्पर्शचतुष्टयलक्षणगुणयुक्तौ
(विभा ६४४ वृ)
( प्रसा ९८९ )
च द्वावपि भवतः ।
सचित्त योनि
वह उत्पत्तिस्थान, जो जीव के प्रदेशों से अधिष्ठित होता है। (तभा २.३३ वृ)
(द्र मिश्र योनि)
सचित्ताहार
जीव- सहित पुद्गलों का आहार करने वाला ।
(तभा २.३३)
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सचित्तमाहारयन्तीति सचित्ताहाराः।
(प्रज्ञा २८.१ वृ प ५००)
सचेलक साधना की वह व्यवस्था, जिसके अनुसार मुनि वस्त्र रखता
वह सत्त्व है। जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्ते त्ति।
(भग २.१५) २. पृथ्वी, पानी, अग्नि और वाय के जीव। प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः॥
(उशावृप५८४)
सचेलकः चेलान्वितः।
(उशावृ प ९२) सञ्चित वे कर्मपरमाणु, जिनका अबाधाकाल पूरा होने पर वेदन के लिए जिनकी निषेकरचना हो चुकी। 'सञ्चितस्य' अबाधाकालातिक्रमेणोत्तरकालवेदनयोग्यतया निषिक्तस्य।
(प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९)
सत्य धर्म श्रमणधर्म अथवा उत्तमधर्म का एक प्रकार । असत्य, परुषवचन
और चुगली का वर्जन तथा हित, मित और प्रशस्त वचन का प्रयोग। सत्यर्थे भवं वचः सत्यं, सद्भ्यो वा हितं सत्यम्, तदननृतमपरुषमपिशुनमनसभ्यमचपलमनाविलमविरलमसम्भ्रान्तं मधुरमभिजातमसन्दिग्धं स्फुटमौदार्ययुक्तमग्राम्यपदार्थाभिव्याहारमसीभरमरागद्वेषयुक्तम्।
(तभा ९.६)
सत् अस्तित्व, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।
(तसू ५.२९)
सत्यप्रतिज्ञ व्यवहार वह व्यवहार, जो भिक्षु के वचन को प्रमाण मानकर किया जाता है, जैसे-एक कहता है मैंने इसके साथ दोष-सेवन नहीं किया है और दूसरा कहता है मैंने इसके साथ दोषसेवन किया है। इस स्थिति में प्रथम के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं और दूसरे के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया जाता
सत्कार स्तवन-स्तुति करना, वन्दना करना। सत्कार:-स्तवनवन्दनादि। (स्था ७.१३० वृ प ३८७) सत्कारपुरस्कार परीषह परीषह का एक प्रकार । सत्कार और सम्मान मिलने पर हर्ष और न मिलने पर अनुताप से उत्पन्न बाधा, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। अभिवायणमब्भुटाणं, सामी कुज्जा निमंतणं। जे ताई पडिसेवंति, न तेसिं पीहए मुणी॥ अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अण्णाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा, नाणुतप्पेज्ज पण्णवं॥
(उ २.३८,३९)
सत्यप्रतिज्ञा व्यवहारास्तीर्थकृद्भिरुपदिष्टास्तस्मात् यत् रत्नाधिको ब्रूते"न मया प्रतिसेवितमिति तत्प्रमाणत: शुद्धः एष न प्रायश्चित्तभागिति, यदपि चावमरत्नाधिको वक्ति मया प्रतिसेवितमिति तदपि प्रमाणमतस्तस्य मूलं प्रायश्चित्तम्।
(व्य २.२४ वृ प ६१)
सत्ता १. अबाधाकाल-कर्म के बंध और उदय का मध्यवर्ती काल। २. विद्यमानता। अबाधाकालो विद्यमानता च सत्ता। (जैसिदी ४.५ )
सत्यप्रवाद पूर्व छठा पूर्व, जिसमें सत्य-संयम अथवा सत्यवचन का प्रज्ञापन किया गया है। छटुं सच्चप्पवादं, सच्चं-संजमो सच्चवयणं वा, तं सच्चं जत्थ सभेदं सपडिवक्खं च वणिज्जति तं सच्चप्पवाद।
(नन्दी १०४ चू पृ७५,७६)
सत्यमहाव्रत
सत्त्व १. जीव शुभ और अशुभ कर्मों का अनुभव करता है इसलिए
(उ २१.२)
(द्र सर्वमृषावादविरमण)
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सत्यवचन संवर
(प्रश्न ६.१.२)
(द्र सर्वमृषावादविरमण)
सन्दिग्ध अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। विषय का संशययुक्त ग्रहण करना, जैसे-स्पर्श के आधार पर संशय होना कि यह स्त्री है या नहीं? यदा तमेव स्पर्श संशयापन्नः परिच्छिनत्ति स्पर्शोऽयं भवति एवं तु न निश्चिनोति-योषित एवायं, विलोमधर्मादपीदशो भवति स्पर्श इति संशयप्रादुर्भावात्। (तभा १.१६ वृ) सन्धि १. अतीन्द्रिय चेतना के जागरण में हेतुभूत कर्मविवर। २. शरीरवर्ती करण, चैतन्यकेन्द्र अथवा चक्र, जो अप्रमत्तअध्यवसाय की निरन्तरता को बनाए रखने वाले हैं। ३. ज्ञान-दर्शन-चारित्र की समन्वित आराधना। .."अतीन्द्रियचैतन्योदयहेतुभूतं कर्मविवरं सन्धिः । अप्रमादाध्यवसायसन्धानभूतं शरीरवर्तिकरणं चैतन्यकेन्द्रं चक्रमिति यावत्। "सन्धिर्विवरं ज्ञानदर्शनचारित्राराधना वा। (आभा २.१२७)
सत्यामृषा भाषा मिश्र भाषा, जिसमें सत्य और असत्य का मिश्रण होता है। यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणेन सत्या, विपरीतस्वरूपा मृषा, उभयस्वभावा सत्यामृषा। (प्रज्ञा ११.२ ७ प २४८) सदृशकल्पी वह मुनि, जो स्थितकल्प, स्थापनाकल्प और उत्तरगुणकल्प में समानधर्मा है। ठितकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविहमण्णतरे। उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिसकप्यो स सरिसो उ॥
(निभा ५९३२) (द्र सम्भोज, साम्भोजिक) सद्भावपदार्थ अनुपचरित या पारमार्थिक वस्तु। सद्भावेन-परमार्थेनानुपचारेणेत्यर्थः पदार्था-वस्तूनि सद्भावपदार्थाः।
(स्था ९.६ वृ प ४२३) सद्भाव प्रत्याख्यान परमार्थ रूप से होने वाला प्रत्याख्यान, जो चौदहवें गुणस्थान में अयोगी केवली की अवस्था में होता है। सद्भावेन-सर्वथापुनर्करणासंभवात्परमार्थेन प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानम्। (उ २९.४२ शावृ प ५८९) सद्भूत व्यवहारनय धर्म और धर्मी में भेद का प्रतिपादन करने वाला दृष्टिकोण। त्रयश्चोपनयास्तत्र, प्रथमो धर्मधर्मिणोः। भेदाच्छुद्धस्तथाशुद्धः सद्भूतव्यवहारवान्। (द्रत ७.१) सधूम
(भग ७.२२) (द्र धूम)
सन्निकर्ष इन्द्रिय और अर्थ का संबंध, इन्द्रिय के साथ विषय का सामीप्य, उचित देश में अवस्थान। सन्निकर्ष इन्द्रियार्थसंबन्धः।
(प्रनत १.४७)
सन्निधि मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार। औषध, भैषज्य तथा खाने-पीने की वस्तुओं का संग्रह करना अथवा रातबासी रखना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। ""ओसह-भेसज्ज, भत्त-पाणं च तं पि सन्निहिकयं।
(प्रश्न २.५) 'सन्निधी' नाम एतेसिं दव्वाणं जा परिवासणा सा सन्निधी भण्णति।
(द ३.३ जिचू पृ २२०) सपर्यवसित श्रुत श्रुतज्ञान का एक प्रकार। द्वादशाङ्ग श्रुत, जो व्युच्छित्ति नय की अपेक्षा से सपर्यवसित है। वुच्छित्तिनयट्ठयाए साइयं सपज्जवसियं। (नन्दी ६८) सप्तभंगी 'स्यात्' शब्द से युक्त सात प्रकार का वचन प्रयोग, जो एक
सनत्कुमार तीसरा स्वर्ग। कल्पोपन्न वैमानिक देवों की तीसरी आवासभूमि।
(उ ३६.२१०) (देखें चित्र पृ ३४६)
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वस्तु में एक-एक धर्म के विधि और निषेध के विकल्प द्वारा किया जाता है।
एकत्र वस्तुन्येकैक धर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगी । (प्रनत ४.१४ )
सप्तशिक्षाव्रतिक
वह धर्म, जिसका भगवान् महावीर ने गृहस्थ के लिए सात शिक्षाव्रत के रूप में प्रज्ञापन किया था । .......समणोवासगाणं पंचाणुव्वतिए सत्तसिक्खावतिएदुवालसविधे सावगधम्मे पण्णत्ते । (स्था ९.६२) (द्र शिक्षाव्रत)
सप्रतिक्रमण धर्म
वह धर्म अथवा शासनव्यवस्था, जिसके अनुसार प्रातः, सायं - दोनों संध्याओं में प्रतिक्रमण (आवश्यक) करना अनिवार्य हो । प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन में यह व्यवस्था होती है।
......समणाणं णिग्गंथाणं पंचमहव्वतिए सपडिक्कमणे अचेल धम्मे पण्णत्ते । (स्था ९.६२ ) सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण, जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥ 'सप्रतिक्रमणः ' उभयकालं षड्विधावश्यककरणयुक्तो धर्मः पूर्वस्य पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे भवति ।
(बृभा ६४२५ वृ पृ १६९२ )
समकव्यवच्छिद्यमानबन्धोदय
वे कर्म-प्रकृतियां, जिनके बंध और उदय का व्यवच्छेद एक साथ होता है, जैसे- संज्वलन लोभ, हास्य आदि । समकमेककालं व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदयौ यासां ताः समकव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः । (कप्र पृ ४१ )
समचतुरस्त्र संस्थान
शरीर का वह संस्थान, जो चतुष्कोणीय होता है, समचतुरस्र संस्थान वाले व्यक्ति के सब अवयव प्रमाणयुक्त होते हैं। सर्वेऽप्यवयवाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाव्यभिचारिणो यस्य न तु न्यूनाधिक प्रमाणास्तत्तुल्यं समचतुरस्रम् ।
(स्था ६.३१ वृ प ३३९, ३४० )
समण
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
१. श्रमण, चतुर्विध श्रमणसंघ का एक अंग । वह पुरुष, जो महाव्रतों का पालन करता है।
२. समन - सब जीवों को आत्मतुला की दृष्टि से देखने
वाला ।
३. शमन - कषाय को उपशान्त करने वाला ।
जह मम न पिये दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं ।
न हाइ न हणावेइ य, सममणई तेण सो समणो ॥ (दनि १५४)
(द्र श्रमण, श्रमणी )
समनस्क
भूत, भविष्य और वर्तमानकाल का विचार-विमर्श करने वाला जीव ।
सम्प्रधारणसंज्ञायां ये वर्तन्ते जीवास्ते समनस्का भवन्ति । (तभा २.२५ वृ)
(द्र संज्ञी, सम्प्रधारण संज्ञा )
समनुज्ञ
वह मुनि, जो दार्शनिक दृष्टि और वेश से साधर्मिक है, सहभोजन की अपेक्षा से समसमाचारी वाला नहीं है। समनुज्ञः - दृष्टिलिङ्गाभ्यां साधर्मिकः, न तु सहभोजनेन । (आभा ८.१ )
समन्तानुपातक्रिया
क्रिया का एक प्रकार । स्त्री, पुरुष, पशु आदि से व्याप्त स्थान में मलोत्सर्ग करना ।
स्त्रीपुरुषपशुसंपातिदेशे अन्तर्मलोत्सर्गकरणं समन्तानुपात - क्रिया । ( तवा ६.५.९)
समपादपुता
निषद्या का एक प्रकार। दोनों पैरों और पुतों को समरेखा में भूमि से सटाकर बैठना ।
समौ - समतया भूलग्नौ पादौ च पुतौ च यस्यां सा समपादपुता । (स्था ५.५० वृप २८७)
समभिरूढ नय
एकार्थक शब्दों में निरुक्त के भेद से भिन्न अर्थ को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण। जैसे- भिक्षु वह होता है, जो भिक्षा लेता है; वाचंयम वह होता है, जो वाणी का नियमन करता
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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पर्याये निरुक्तिभेदेनार्थभेदकृत् समभिरूढः। यथा-भिक्षते इत्येवंशीलो भिक्षुः, वाचं यच्छतीति वाचंयमः, तपस्यतीति तपस्वी।
(भिक्षु ५.१२ वृ)
निरूपण करना। प्रतिनियतषट्तयद्रव्यपर्यायाणामागमगम्यानां याथात्म्याविष्करणं यद्वचः तत् समयसत्यम्। (तवा १.२० पृ७५)
समयान्त व्यवसाय का एक प्रकार। जैन सिद्धान्त अथवा श्रामणिक ग्रन्थों के आधार पर किया जाने वाला निर्णय।
(स्था ३.३९६) (द्र लोकान्त, व्यवसाय)
समय १. काल की सूक्ष्मतम इकाई, निमेष का असंख्यातवां भाग। परमनिकृष्टः काल: समयोऽभिधीयते।
(आवहावृ १ पृ १७२) निमेषस्यासंख्येयतमो भागः समयः, कमलपत्रभेदायुदाहरणलक्ष्यः ।
(जैसिदी १.२२ वृ) परमाणुस्स णियट्ठिदगयणपदेसस्सदिकमणमेत्तो। जो कालो अविभागी होदि पुढं समयणामा सो॥
(त्रिप्र ४.२८५) (द्र असंख्येय) २. आत्मा, जीव, जो चैतन्य स्वभाव वाला है। चित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः।
(ससा २ आख्या पृ९) ३. संकेत, जो शब्द के अर्थबोध का हेतु बनता है। सहजसामर्थ्यसमयाभ्यां शब्दोर्थऽप्रतिपत्तिहेतुः॥ ..........समयः संकेत:..........।
(भिक्षु ४.५ वृ) ४. सिद्धान्त। 'समयोक्तिः'-सिद्धान्तभणितिः। (प्रसावृ प २१६)
समयक्षेत्र अढाई द्वीप और दो समुद्र-जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदसमुद्र, पुष्करवरद्वीपार्ध-समयक्षेत्र कहलाता है, जहां सूर्य और चन्द्रमा की गति के आधार पर काल का निर्धारण होता है।
अडाइज्जा दीवा, दो य समुद्दा, एस णं एवइए समयखेत्तेति पवुच्चति।
(भग २.१२२) (द्र अर्धतृतीय द्वीप)
समवसरण १. तीर्थंकर का प्रवचन-स्थल। समवसरणशब्दस्तीर्थकृतः सभायां"।
(पिनि २ अव प १) २. विशेष अवसर पर अनेक साधुओं का मिलनस्थल। जिनस्नपनरथानुयानपट्टयात्रादिषु यत्र बहवः साधवो मिलन्ति तत्समवसरणम्।
(सम १२.२.२ वृ प २२) ३. मिलन, इसके अनेक रूप होते हैं
• सूत्र और अर्थ का एक साथ होना। • जीव आदि नव पदार्थों का एक साथ समाकलन। • द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का समाकलन। समोसरणं णाम मेलओ, सोय सुत्तत्थाणं, अहवा जीवादिणवपदत्थभावाणं, अहवा दव्वखेत्तकालभावा, एए जत्थ समोसढा सव्वे अस्थि त्ति वुत्तं भवति, तं समोसरणं भण्णति।
(निभा ६१८१ चू) ४. वादसंगम, अनेक दर्शनों या दृष्टियों का संगम। समवसरंति जेसु दरिसणाणि दिदीओ वा ताणि समोसरणाणि।
(सूत्र १.१२.१ चू पृ २०७) समवसरण सम्भोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। वह स्थान, जहां साधु चातुर्मास, शेषकाल या स्थिरवास में इकट्ठे होकर रहते हैं। यत्र बहवः साधवो मिलन्ति तत्समवसरणं""तद्यथा--- वर्षावग्रह ऋतुबद्धावग्रहो वृद्धवासावग्रहश्चेति।
(सम १२.२.२ वृ प २२)
समयज्ञ वह मुनि, जो दूसरों के, स्वयं के तथा दोनों के सिद्धान्तों का ज्ञाता होता है। स समयज्ञो भवति"आत्मपरतदुभयसमयं जानाति।
(आभा २.११०)
समवहत समुद्घात की क्रिया में प्रवृत्त जीव।
(प्रज्ञा ३.१७४)
समयसत्य सत्यवचन का एक प्रकार। आगमगम्य पदार्थों का यथार्थ
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समवाय द्वादशाङ्ग श्रुत का चौथा अङ्ग, जिसमें एक से लेकर संख्यावृद्धि के आधार पर विविध विषयों पर विचार किया गया
है।
१. मन की एकाग्रता। समाधिश्च शुभचित्तैकाग्रता। (उशावृ प २९६) २. योगसंग्रह का एक प्रकार । चैतसिक स्वास्थ्य, चित्त की निर्मलता। समाधिश्च-चेतः स्वास्थ्यम्। (सम ३२.१.२ वृ प५५) ३. राग आदि के अभाव से उत्पन्न समता की चेतना। समाधिः-समता सामान्यतो रागाद्यभाव इत्यर्थः।
(स्था १०.१३ वृ प ४४८)
समवाए णं एकादियाणं एगत्थाणं एगुत्तरियपरिवुड्डीय"।
(समप्र ९२)
समवायधर वह मुनि, जो समवायाङ्ग सूत्र के पाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया समवायधरा।
(औप ४५) समस्तगणिपिटकधर वह मुनि, जो समस्त गणिपिटक का धारक होता है। गणिन-आचार्यस्य पिटकं गणिपिटक-प्रकीर्णकश्रुतादेशश्रतनिर्यक्त्यादियुक्तं जिनप्रवचनं समस्तम्-अनन्तगमपर्यायो-पेतं गणिपिटकं धारयन्ति येते तथा।
(औप १.२६ वृ प ६४)
समाधिवीर्य वह शक्ति, जो कायिक, वाचिक और मानसिक समस्याओं को सुलझाने वाली होती है, जो केवलज्ञान की उत्पत्ति अथवा सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में जाने का हेतु बनती है। समाहिवीरियं णाम-मणादीणं एरिसं मणादिसमाहाणमुप्पज्जति जेण केवलमुप्पाडे ति सव्वट्ठसिद्धिदेवत्तं वा णिव्वत्तेति।
(निभा ४७ चू)
समा कालमर्यादा। समा-कालविशेषः। (द्र कालचक्र)
समारंभ मुट्ठी आदि से किया जाने वाला प्रहार, जो परिताप का हेतु बनता है। समारंभः-परितापकरो मष्ट्याद्यभिघातः।
(उ २४.२१ शावृ प ५१९)
(स्था २.७४ ७ प ४४)
समाचार शिष्टजनसम्मत आचरण। समाचार:-शिष्टाचरितः क्रियाकलापः।
(आवहावृ १ पृ १७२)
समारोप जो वस्तु जिस प्रकार की नहीं है, उसमें होने वाला उस प्रकार का अध्यवसाय। अतस्मिंस्तदध्यवसायः समारोपः। (प्रनत १.८)
समादान क्रिया संयम धारण करने पर भी अविरति की तरफ झुकाव। संयतस्य सत: अविरतिं प्रत्याभिमुख्यं समादानक्रिया।
(तवा ६.५.७) समादेश औद्देशिक (उद्गम दोष) का एक प्रकार । निग्रंथों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार। "निम्गंथाणं समादेसो॥
(निभा २०२०)
समिता परिषद् इन्द्र की आभ्यन्तर परिषद्, जो प्रयोजन होने पर भी इन्द्र के द्वारा बुलाने पर ही आती है। अभिंतरिता समिता।
(स्था ३.१४३) प्रयोजनेष्वप्याहूता एवागच्छन्ति सा अभ्यन्तरा परिषद्।
(स्थावृ प १२२) (द्र जाता परिषद्, चण्डा परिषद्) समिति चारित्र के अनुकूल होने वाली प्रवृत्ति, जो प्राणातिपात आदि की वर्जना के द्वारा सम्यक् बनती है।
समाधि
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चारित्रानुकूला प्रवृत्तिः समितिः। (जैसिदी ६.१२ व) 'पासंडाणं भवे समुद्देसो।
(निभा २०२०) परप्राणिपीडाहारेच्छया सम्यगयनं समितिः। (तवा ९.२)
सम्पातिम समुचिता शक्ति
१. अन्तरिक्ष से गिरने वाला जल। आसन्नकार्ययोग्य शक्ति, जैसे दूध में घृत होने की शक्ति। आपश्च-द्रवलक्षणा जीवास्तदाश्रिताश्च प्राणा: सम्पाआसन्नकार्ययोग्यत्वाच्छक्तिः समुचिता परा। (द्रत २.६) । तिमाः।
(सूत्र १.७.७ वृ प १५७) किं च दुग्धादिभावेन प्रोक्ता लोकसुखप्रदा॥ (द्रत २.७) २. अन्तरिक्ष में उड़ने वाले जीव-जंतु।
तिर्यक्सम्पतन्तीति तिर्यक्सम्पाताः-पतङ्गादयः। समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति
(दहावृ प १६४) (औप ६९) (द्र समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति)
सम्बन्ध
(भिक्षु ३.११ वृ) समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति
(द्र व्याप्ति) शुक्लध्यान का चौथा प्रकार, इसमें सूक्ष्म क्रिया का भी। निरोध हो जाता है, यह अप्रतिपाति है।
सम्भिन्नज्ञानदर्शन समुच्छिन्ना क्रिया-कायिक्यादिका शैलेशीकरणनिरुद्ध- केवली, जिसका ज्ञान-दर्शन सर्व द्रव्य-पर्यायों का ग्राहक योगत्वेन यस्मिस्तत्तथा अप्रतिपाति-अनुपरतस्वभावम्।
(भग २५.६०९ वृ)
सम्भिन्ने-सर्वद्रव्यपर्यायग्राहके ज्ञानदर्शने यस्य स सम्भिन्नज्ञानदर्शनः।
(तभा १.३१ वृ) समुत्थानश्रुत कालिक श्रृत का एक प्रकार, जिसका परावर्तन करने से
सम्भिन्नश्रोता ग्राम, नगर आदि पुनः बस जाते हैं।
१. जिसके श्रोत (इन्द्रियां) परस्पर संभिन्न-एकरूपता को से चेव समणे"तुडे समाणे पसण्णे पसण्णलेस्से उवउत्ते प्राप्त हैं, जैसे-चक्षुकार्यकारित्व के कारण श्रोत्र चक्षुरूप हो समुट्ठाणसुतं परियट्टेइ एक्कं दो तिणि वा वारे ताहे से गामे जाता है। वा जाव रायहाणी वा आवासेति। समुवट्ठाणसुये त्ति वत्तव्वे श्रोतांसि-इन्द्रियाणि, संभिन्नानि-परस्परत एकरूपतावगारलोवातो समुट्ठाणसुये त्ति भणितं।
मापन्नानि यस्य स तथा, श्रोत्रं चक्षुःकार्यकारित्वात् चक्षुरूप(नंदी ७८ चू पृ६०)
तामापन्नं, चक्षुरपि श्रोत्रकार्यकारित्वात् तद्रूपतामापन्न
मित्येवं संभिन्नानि यस्य परस्परमिन्द्रियाणि स संभिन्नश्रोताः। समुद्घात
(आवमवृ प ७८) वेदना आदि की स्थिति में आत्मप्रदेशों का शरीर से स्वत:
२. जो शरीर के एक भाग से अथवा समस्त शरीर से शब्द अथवा प्रयत्नपूर्वक बहिर्निर्गमन।
सुनता है, रूप देखता है, गंध सूंघता है, रस चखता है, वेदनादिभिरेकीभावेनात्मप्रदेशानांतत इतः प्रक्षेपणं समुद्घातः। स्पर्शों का संवेदन करता है।
(जैसिदी ७.२९)
दस इंदियत्था पडुप्पण्णा पण्णत्ता, तं जहा-देसेण वि एगे समुद्देश
सद्दाई सुणेति। सव्वेण वि एगे सद्दाई सुर्णेति।"रूवाई
पासंति"गंधाई जिंघंति"रसाइं आसादेंति फासाइं पडि१. प्राचीन अध्ययन पद्धति का दूसरा चरण । पढ़े हुए ज्ञान के
संवेदेति।
(स्था १०.४) स्थिरीकरण का निर्देश।
(द्र संभिन्न श्रोतोलब्धि) एवंविधं स्थिरपरिचितं कुर्विति समनुज्ञा समुद्देशः।
(अनु ३ हावृ पृ २)
सम्भोज २. औद्देशिक (उद्गम दोष) का एक प्रकार । पाषण्डियों के १. एक मण्डली में भोजन करना।
उद्देश्य से निष्पन्न आहार।
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२. शास्त्रविहित विधिविधान के अनुसार सदृशकल्पी साधुओं की आहार, उपधि आदि से संबंधित पारस्परिक व्यवहार की व्यवस्था। सम्भोगः-एकमण्डल्यां समद्देशादिरूपः। (क ४.१९७) एकत्रभोजनं संभोगः। अहवा समं भोगो संभोगो यथोक्तविधानेनेत्यर्थः।
(नि ५.६४ चू) (द्र साम्भोजिक)
सम्मत सत्य सत्य का एक प्रकार। व्युत्पत्तिभेद होने पर भी पर्यायवाची शब्दों का एक अर्थ में प्रयोग करना, जैसे- कुमुद, कुवलय आदि पङ्क में उत्पन्न होते हैं फिर भी पङ्कज का प्रयोग अरविन्द के लिए सम्मत है। 'समय' त्ति संमतं च तत् सत्यं चेति सम्मतसत्यं, तथाहि- कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समाने पङ्कसम्भवे गोपालादीनामपि सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति अतस्तत्र संमततया पङ्कजशब्दः सत्यः कुवलयादावसत्योऽसंमतत्वादिति।
(स्था १०.८९ वृ प ४६४)
जन्म का एक प्रकार। वह जन्म, जिसमें गर्भधारण की आवश्यकता नहीं होती, उत्पत्तिस्थान के पुद्गलों से शरीर का निर्माण हो जाता है। सम्पूर्णीमात्रं सम्मूर्च्छनम्, यस्मिन् स्थाने स उत्पत्स्यते जन्तुस्तत्रत्यपुद्गलानुपसृज्य शरीरीकुर्वन् सम्मूर्च्छनं जन्म लभते, तदेव हि तादृक् सम्मूर्च्छनं जन्मोच्यते। (तभा २.३२ वृ) जराय्वण्डपोतजनारकदेवेभ्यः शेषाणां सम्मूर्च्छनं जन्म।
(तभा २.३६) सम्मूर्च्छिम अगर्भज जीव। वह प्राणी, जो गर्भ के बिना उत्पन्न होता है, उत्पत्तिस्थान के पुद्गलों का ग्रहण कर अपने शरीर की समन्ततः (चारों ओर से) मूर्च्छना (शारीरिक अवयवों की रचना) कर लेता है। सम्मृद्धिंमा अगर्भजाः। (स्था ३.३६ वृ प १०८) त्रिषु लोकेषूर्ध्वमधस्तिर्यक् च देहस्य समन्ततो मूर्च्छनं सम्मूर्छनम्-अवयवप्रकल्पनम्। (तवा २.३१) सम्मूर्छिम मनुष्य वह अमनस्क मनुष्य, जो मनुष्यक्षेत्र में गर्भज मनुष्य के मल-मूत्र आदि अशुचिस्थानों में उत्पन्न होता है, जो अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्त अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। सम्मुच्छिममणुस्सा एगागारा पण्णत्ता॥ ......"अंतोमणुस्सखेत्ते..."गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगतजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएसु वा गामणिद्धमणेसु वा णगरणिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइएसु ठाणेसु वा, एत्थ णं सम्मुच्छिम-मणुस्सा सम्मुच्छंति। अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए असण्णी मिच्छद्दिट्ठी अण्णाणी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति।
(प्रज्ञा १.८३,८४)
सम्मतिस्थावरकाय सम्मति से संबंधित होने के कारण वायुकाय का अपर नाम है-सम्मति स्थावरकाय।
(स्था ५.१९) (द्र इन्द्रस्थावरकाय) सम्मतिस्थावरकायाधिपति वह देव, जो वायुकायसंज्ञक स्थावरकाय का अधिपति है।
(स्था ५.२०) (द्र इन्द्रस्थावरकायाधिपति)
सोमबागोस वा
भागम
सम्मा प्रतिलेखना का एक दोष। प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस प्रकार पकड़ना कि उसके बीच में सलवटें रहें अथवा प्रतिलेखनीय उपधि पर बैठकर प्रतिलेखन करना। संमर्दनं संमर्दा "वस्त्रान्तःकोणसंचलनमुपधेर्वा उपरि निषदनम्।
(उ २६.२६ शावृ प ५४१)
सम्मान वस्त्र आदि का उपहार देना। सम्मानो-वस्त्रपात्रादिपूजनम्। (स्था ७.१३० वृप ३८७)
सम्यक् चारित्र मोक्ष-मार्ग का एक अङ्ग। वह आचरण, जिसके द्वारा असत् क्रिया की निवृत्ति और सत् क्रिया की प्रवृत्ति होती है। सम्यक्चारित्रं तु ज्ञानपूर्वकं चारित्रावृतिकर्मक्षयक्षयोपशमो
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
पशमसमुत्थं सामायिकभेदं सदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्ति
लक्षणम् ।
(तभा १.१ वृ)
सम्यक्त्व (नैश्चयिक )
तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
(तसू १.२) तत्त्वे तत्त्वश्रद्धा सम्यक्त्वम् । (जैसिदी ५.३) अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहनीयत्रिकस्य चोपशमे पशमिकम् । तत्क्षये क्षायिकम् । तन्मिश्रे च क्षायोपशमि(जैसिदी ५.४ वृ)
कम् ।
(द्र सम्यग्दर्शन नैश्चयिक)
सम्यक्त्व ( व्यावहारिक )
देव, गुरु और तत्त्व में श्रद्धा करना ।
अरहंतो मह देवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्तं इय सम्मत्तं मए गहियं ॥
या देवे देवताबुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीरः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥
( श्राप्र ४.२ )
( योशा २.२ )
सम्यक्त्वक्रिया
क्रिया का एक प्रकार । सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली क्रिया । सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया सम्यक्त्वक्रिया ।
(तवा ६.५)
सम्यक्त्व मोहनीय
( तवा ८.९ )
(द्र सम्यक्त्ववेदनीय)
सम्यक्त्ववेदनीय
तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों का श्रद्धानात्मक सम्यक्त्व के रूप में जिस दर्शनमोह का वेदन किया जता है वह सम्यक्त्व वेदनीय है। जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानात्मकेन सम्यक्त्वरूपेण यद् वेद्यते तत् सम्यक्त्ववेदनीयम्। (प्रज्ञा २३.१७ वृ प ४६८) सम्यक्त्व संवर सम्यक्त्व के कारण होने वाला दर्शन मोहनीय कर्म के आगमन का निरोध, मिथ्यात्व आश्रव का निरोध । (स्था ५.११० )
सम्यक्त्व सद्भाव
वह नय, जो अपने पक्ष का समर्थन करता हुआ भी परस्पर सापेक्ष है।
अण्णोण्णणिस्सिया उण, हवंति सम्मत्तसब्भावा ।
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व्यापार ।
सम्यक्त्वादिपूर्वी मनःप्रभृतिव्यापारः ।
सम्यक्प्रयोग
सम्यग्दर्शनपूर्वक होने वाला मन, वचन और शरीर का
( सप्र १.२१ )
(स्था ३.३९४ वृ प १४१ )
सम्यक् श्रद्धान
अर्हत् के द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में होने वाली रुचि । रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते । ( योशा १.१७) (द्र सम्यक्त्व (व्यावहारिक))
सम्यक् श्रुत
श्रुतज्ञान का एक प्रकार । अर्हतों द्वारा प्रणीत द्वादशांग गणिपिटक ।
सम्मसुयं - जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं । (नन्दी ६५)
सम्यग्ज्ञान
मोक्ष-मार्ग का एक अङ्ग । द्वादशाङ्गी का अध्ययन, जिससे संशय और विपर्यय से रहित यथार्थ बोध की प्राप्ति होती है। (तभा १.१ )
सम्यग्दर्शन (नैश्चयिक )
१. अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क और दर्शनमोहनीयत्रिकइस दर्शनसप्तक के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होने वाली जीव की यथार्थ श्रद्धा । अर्हदभिहिताशेषद्रव्यपर्यायप्रपञ्चविषया तदुपघातिमिथ्यादर्शनाद्यनन्तानुबन्धिकषायक्षयादिप्रादुर्भूता रुचिर्जीवस्यैव सम्यग्दर्शनमुच्यते । (तभा १.१ वृ)
(द्र सम्यक्त्व नैश्चयिक)
२. वे नय, जो परस्पर सापेक्षता के सूत्र में पिरोए हुए होते हैं, जैसे एक सूत्र में पिरोई हुई मणियां हार कहलाती हैं। जह पुण ते चेव मणी जहागुणविसेसभागपडिबद्धा। 'रयणावलि' त्ति भण्णइ जहंति पाडिक्कसण्णाउ ॥
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तह सव्वे णयवाया जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा । सम्पद्दंसणसद्दं लहंति ण
विसेत्तसण्णाओ ॥
( सप्र १.२४, २५)
सम्यग्दर्शन ( व्यावहारिक )
मोक्ष मार्ग का एक अङ्ग । तीर्थंकर के द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में होने वाली रुचि, तत्त्वार्थ श्रद्धान, जिसका लक्षण हैप्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । प्रशम- संवेग-निर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
(तभा १.२ )
सम्यग्दृष्टि
१. सम्यग्दृष्टि की तत्त्वरुचि ।
२. वह जीव, जो सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होता है ।
सम्यग् अविपर्यस्ता दृष्टि: जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य ( प्रज्ञा १९.१ वृप २४० )
स सम्यग्दृष्टिः । (द्र मिथ्यादृष्टि)
सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय मिथ्यात्वपुद्गलों के अर्द्ध शुद्ध होने पर जिस मोह कर्म से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रण होता है, तत्त्व के प्रति न पूर्णत: श्रद्धा का भाव होता है और न पूर्णतः कुत्सा का
भाव ।
मिश्ररूपेण - जिनप्रणीततत्त्वेषु न श्रद्धानं नापि निन्देत्येवलक्षणेन वेद्यते तन्मिश्रवेदनीयम् ।
(प्रज्ञा २३.१७ वृ प ४६८)
सम्यग्मिथ्यादर्शन
(द्र सम्यग्मिथ्यात्व वेदनीय)
सम्यग्मिथ्यादृष्ट
१. जीवस्थान/गुणस्थान का तीसरा प्रकार। सम्यग् और मिथ्या दोनों से मिश्रित रुचि वाले जीव की आत्मविशुद्धि । सम्यग् च मिथ्या च दृष्टिरस्येति सम्यग्मिथ्यादृष्टिः । (सम १४.५ वृप २६ ) २. मिथ्यात्वपुदगलों के अर्द्धशुद्ध होने पर मिश्रमोहनीय के उदय से होने वाली दृष्टि । सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव के होने वाली तत्त्वरुचि ।
(भग १.२३३)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
तत्त्वार्थश्रद्धानाश्रद्धानरूपः सम्यङ्मिथ्यादृष्टिरित्युच्यते ।
( तवा ९.१.१४)
३. वह जीव, जो सम्यग्गमिथ्यादृष्टि वाला होता है। सम्यग्मिथ्याप्रयोग सम्यक्मिथ्यादर्शनपूर्वक होने वाला मन, वचन और शरीर (स्था ३.३९४ )
का व्यापार ।
सम्यग्मिथ्यारुचि
(द्र सम्यक्मिथ्यादृष्टि)
सम्यचि
(स्था ३.३९३)
(स्था ३.३९३)
(द्र सम्यक्त्व, सम्यग्दृष्टि )
सयोगिकेवली
जीवस्थान/गुणस्थान का तेरहवां प्रकार। मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति से युक्त केवली की आत्मविशुद्धि । सयोगी केवली - मनःप्रभृतिव्यापारवान् केवलज्ञानी । (सम १४.५ वृ प २७)
सरद्रहतडागपरिशोषण
कर्मादान का एक प्रकार सर, द्रह और तालाब को सुखा कर आजीविका चलाना ।
सरसः - स्वयंभूतजलाशयविशेषस्य हृदस्य – नद्यादिषु निम्नतरप्रदेशलक्षणस्य तडागस्य - - कृत्रिमजलाशयविशेषस्य परिशोषणम् ।
(भग ८.२४२ वृ)
सरागसंयम
वह संयम, जो कषाययुक्त मुनि के होता है। सरागसंयमेन - सकषायचारित्रेण
।
(स्था ४.६३१ वृ प २७२ )
सराग सम्यक्त्व
वह सम्यक्त्व, जो शम, संवेग आदि लक्षणों से अभिव्यक्त होता है।
प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तलक्षणं प्रथमम् । सरागसम्यक्त्वमित्युच्यते । ( तवा १.२.३० ) (द्र सराग सम्यग्दर्शन)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
सराग सम्यग्दर्शन
वह सम्यग् दर्शन, जिसका स्वामी उपशांत और क्षीण मोह वाला नहीं है। दसवें गुणस्थान तक का सम्यग्दर्शन । सरागस्य-: -अनुपशान्तक्षीणमोहस्य यत्सम्यग्दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्तथा, अथवा सरागं च तत्सम्यग्दर्शनं चेति विग्रहः सरागं सम्यग्दर्शनमस्येति वेति । (स्था ६.१३ वृ प ४७७ ) (द्र सराग सम्यक्त्व)
सर्पिराव
रसऋद्धि का एक प्रकार ।
1
१. इस लब्धि से सम्पन्न मुनि के हाथ में रखा हुआ रूक्ष आहार भी घृत की भांति स्निग्ध हो जाता है २. इस लब्धि से सम्पन्न मुनि की वाणी श्रोता के लिए घृत के समान स्निग्ध, मधुर और आनंददायी होती है । येषां पाणिपात्रगतमन्नं रूक्षमपि सर्पीरसवीर्यविपाकानाप्नोति, सर्पिरिव वा येषां भाषितानि प्राणिनां सन्तर्पकाणि भवन्ति ते सर्पिरास्त्रविणः । (तवा ३.३६.३)
सर्व अदत्तादानविरमण
तृतीय महाव्रत । सर्वतः - तीन करण और तीन योग से अदत्तादान (चोरी) का यावज्जीवन परित्याग ।
अहावरे तच्चे भंते! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं । सव्वं भंते! अदिन्नादाणं पच्चक्खामि नेव सयं अदिन्नं हेज्जा नेवनेहिं अदिन्नं गेण्हावेज्जा अदिन्नं गेण्हंते वि अन्ने न समजा जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न समजाणामि । (द ४ सू १३)
सर्वआराधक
१. वह व्यक्ति, जो शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी
I
...' से णं पुरिसे सीलवं सुयवं - उवरए, विण्णायधम्मे। एस गोमा ! म पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते । (भग ८.४५०) २. वह मुनि, जो चतुर्विध धर्मसंघ तथा अन्यतीर्थिक और के अप्रिय व्यवहार को सम्यक् सहन करता है। गृहस्थ जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंति मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म
सहइ खमइ तितिक्खड़ अहियासेड़ - एस णं मए पुरिसे सव्वआराहए पण्णत्ते । (ज्ञा ११.९)
३०९
सर्वकामविरक्तता
योगसंग्रह का एक प्रकार। समस्त विषयों से विमुखता । 'सव्वकामविरत्तय' त्ति समस्तविषयवैमुख्यम् ।
(सम ३२.१.३ वृ प ५५ )
सर्वघाति
घाती कर्म की वह प्रकृति, जो आत्मा के गुणों का पूर्णतया घात करती है, जैसे- केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण आदि । स्वविषयं कार्त्स्न्येन घ्नन्ति यास्ताः सर्वघातिन्यः ।
केवलजुयलावरणा पणनिद्दा बारसाइमकसाया । मिच्छं ति सव्वघाई चउणाणतिदंसणावरणा ॥ संजण नोकसाया विग्धं इय देसघाइय..... |
(कप्र पृ ३१ )
(कग्र ५.१३, १४)
सर्वतोभद्रा प्रतिमा
प्रतिमा का एक प्रकार । पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं, चारों विदिशाओं तथा ऊर्ध्व और अधः- इन दश दिशाओं में एक-एक अहारोत्र तक कायोत्सर्ग करना और दस दिन उपवास करना ।
सर्वतोभद्रा तु दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशकप्रमाणेति । (स्था २.२४६ वृ प ६१ ) (द्र भद्रा प्रतिमा)
सर्वपरिग्रहविरमण
पंचम महाव्रत । सर्वतः - तीन करण और तीन योग से परिग्रह रखने का यावज्जीवन परित्याग ।
अहावरे पंचमे भंते! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं । सव्वं भंते! परिग्गहं पच्चक्खामि नेव सयं परिग्गहं परिगेण्हेज्जा नेवन्नेहिं परिग्गहं परिगेण्हावेज्जा परिग्गहं परिगेण्हंते वि अन्ने न समणु-जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न समजाणामि । (द ४ सू १५ )
सर्वप्राणातिपातविरमण
प्रथम महाव्रत । सर्वतः - तीन करण और तीन योग से प्राणातिपात (हिंसा) का यावज्जीवन परित्याग ।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
हो।
पढमे भंते! महब्बए पाणाइवायाओ वेरमणं। सव्वं भंते!
सर्वरात्रिभोजनविरमण पाणाइवायं पच्चक्खामि "नेव सयं पाणे अइवाएज्जा नेवन्नेहिं पाणे अइवायावेज्जा पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणु
मुनि का छठा व्रत। सर्वतः-तीन करण और तीन योग से जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए
रात्रिभोजन का यावज्जीवन परित्याग। काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि।
अहावरे छटे भंते! वए राईभोयणाओ वेरमणं। सव्वं भंते! (द ४ सू ११)
राईभोयणं पच्चक्खामि "जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं
मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं सर्वभाषानुगामी
न समणुजाणामि।
(द ४ सू १६) वह मुनि, जो अनेक भाषाओं का ज्ञाता हो अथवा लब्धिविशेष के कारण किसी की भी भाषा को समझने की शक्ति वाला
सर्वविराधक
१. वह व्यक्ति, जो न शीलसम्पन्न है, न श्रुतसम्पन्न है। 'सव्वभासाणुगामिणो'त्ति सर्वभाषा:--आर्यानार्यामरवाचः
""से णं पुरिसे असीलवं असुयवं-अणुवरए, अविण्णायअनुगच्छन्ति-अनुकुर्वन्ति तद्भाषाभाषित्वात् स्वभाषयैव वा
धम्मे। एस णं गोयमा! मए परिसे सव्वविराहए पण्णत्ते। लब्धिविशेषात्तथाविधप्रत्ययजननात्। (औप २६ वृ पृ६४)
(भग ८.४५०)
२. वह मुनि, जो चतुर्विध धर्मसंघ, अन्यतीर्थिक और गृहस्थ सर्वमृषावादविरमण
को सम्यक् सहन नहीं करता। द्वितीय महाव्रत। सर्वतः-तीन करण और तीन योग से जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मृषावाद (असत्य भाषण) का यावज्जीवन परित्याग। मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं अहावरे दोच्चे भंते! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं। सव्वं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं भंते! मुसावायं पच्चक्खामि"नेव सयं मुसं वएज्जा नेवन्नेहिं बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्म सहइ जाव मुसं वायावेज्जा मुसं वयंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा नो अहियासेइ-एस णं मए परिसे सव्वविराहए पण्णत्ते॥ जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न
(ज्ञा ११.७) करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि।
__ (द ४ सू १२)
सर्वाक्षरसन्निपात
वह विद्या, जिसके द्वारा सब अक्षरों के सब संयोगों का ज्ञान सर्वमैथुनविरमण
हो जाता है।
(नन्दीचू पृ ७६)
(नन्दा चतुर्थ महाव्रत। सर्वतः-तीन करण और तीन योग से मैथुन का यावज्जीवन परित्याग।।
सर्वाक्षरसन्निपाती अहावरे चउत्थे भंते! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं। सव्वं भंते!
सब अक्षरों के संयोग का ज्ञाता। मेहुणं पच्चक्खामि "नेव सयं मेहुणं सेवेज्जा नेवन्नेहिं मेहुणं। सर्वेषां वाऽक्षराणां सन्निपाताः सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य सेवावेज्जा मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जी- ज्ञेयतया सन्ति स सर्वाक्षरसन्निपाती। (भग १.९ वृ) वाए तिविहं तिविहेणं मणणं वायाए काएणं न करेमि न
सर्वार्थ अप्रतिलोमता कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि।
(द ४ सू १४)
लोकोपचार विनय का एक प्रकार । सब विषयों में अनुकूल
आचरण करना। सर्वरत्न
सर्वार्थेष्वप्रतिलोमता-आनुकूल्यमिति। महानिधि का एक प्रकार। चौदह रत्नों की उत्पत्ति का प्रतिपादक
(स्था ७.१३७ वृ प ३८८) शास्त्र।
सर्वार्थसिद्ध रयणाई सव्वरयणे, चोद्दसपवराईचक्कवद्रिस्स।
अनुत्तरविमान का पांचवां स्वर्ग। इस विमान में शब्द आदि उप्पजंति एगिंदियाई, पंचिंदियाइं च॥
इन्द्रिय-विषय अतिशय रमणीय होते हैं और अभ्युदय के
(स्था ९.२२.५)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
न चएड नियत्तेउं पायं सहसाकरणमेयं॥
(स्था १०.६९ वृ प ४६०)
सब अर्थ सिद्ध होते हैं, इसलिए इसका नाम है सर्वार्थसिद्ध। इस विमान में रहने वाला देव प्रतनु कर्म वाला होता है, इसलिए भूख आदि से पराजित नहीं होता। सर्वेष्वभ्युदयार्थेषु सिद्धा: सर्वार्थश्च सिद्धाः सर्वे चैषामभ्युदयार्थाः सिद्धा इति सर्वार्थसिद्धाः। (तभा ४.२०) (द्र अपराजित)
सहस्त्रार आठवां स्वर्ग। कल्पोपन्न वैमानिक देवों की आठवीं आवासभूमि।
(उ ३६.२११) (देखें चित्र पृ ३४६) सांव्यवहारिक जीव वह जीव, जो निगोद-वनस्पति की अवस्था से उद्वर्तन कर पृथ्वीकायिक आदि जीव-जाति में जन्म ले चुका है। ये निगोदावस्थात उद्वत्य पृथिवीकायिकादिभेदेष वर्तन्ते ते लोकेषु दृष्टिपथमागताः सन्तः पृथिवीकायिकादिव्यवहारमनुपतन्तीति व्यवहारिका उच्यन्ते। (प्रज्ञावृप ३८०) (द्र असांव्यवहारिक जीव)
सर्वावधि वह अवधिज्ञान, जो उत्कृष्ट परमावधि के क्षेत्र से बाहर असंख्यात लोकक्षेत्रों को जानने की क्षमता रखता है। यह अविकल्प है, भवान्तर अनुगामी नहीं है क्योंकि इसके पश्चात् केवलज्ञान उत्पन्न होता है। मणूसाणं "देसोही वि सव्वोही वि॥ (प्रज्ञा ३३.३३) सर्वावधिविकल्पत्वादेक एव।"उत्कृष्टपरमावधिक्षेत्राद् बहिरसंख्यातक्षेत्रः सर्वावधिःस एष न वर्धमानो नहीयमानो नानवस्थितो न प्रतिपाती भवान्तरं प्रत्यननुगामी देशान्तरं प्रत्यनुगामी।
(तवा १.२२.४) (द्र देशावधि) सर्वेन्द्रिय समाहित जिसकी सब इन्द्रियां समाहित हों-अंतर्मखी हों. बाह्य विषयों से विरत होकर आत्मलीन बन गई हों। सव्विंदियसमाहितो सव्वेहिं इंदिएहिं एएसिं परिहरणे सम्म आहितो समाहितो। (द ५.१.२६ अचू पृ १०७)
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान, जो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप होता है। इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवग्रहहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम्।
(प्रमी १.१.२०)
सौषधि लब्धि का एक प्रकार । मल, मूत्र, नख, केश आदि के स्पर्श मात्र से रोगों को दूर करने वाली योगज विभूति। 'सव्वोसहि'त्ति सर्व एव विड्-मूत्र-केश-नखादयोऽवयवाः सुरभयो व्याध्यपनयनसमर्थत्वादौषधयो यस्यासौ सौषधिः ।
(विभा ७७९ वृ)
सांशयिक मिथ्यात्व का एक प्रकार । वह दृष्टिकोण, जिसके द्वारा देव, गुरु और धर्म के प्रति यह सम्यक् है अथवा यह' इस प्रकार का संशय होता है। सांशयिकं देवगुरुधर्मेषु अयमयं वा' इति संशयानस्य भवति।
(योशा २.३ वृ पृ १६५) साकार उपयोग ज्ञानोपयोग. विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान। उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक द्रव्य के ध्रौव्य को गौणकर उत्पाद और व्यय को ग्रहण करने वाला ज्ञान । उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकस्य द्रव्यस्य ध्रौव्यं गौणीकृत्य उत्पादव्यययोग्राहकं ज्ञानं साकार उपयोग इत्युच्यते।
(जैसिदी २.५ वृ)
सहसाकार वह प्रवृत्ति, जो अकस्मात् की जाती है अथवा हो जाती है; जैसे-बिना देखे पैर रखा हो और फिर उसे उठाने की शक्यता न हो। सहसाकारे-अकस्मात्करणे सति, सहसाकारलक्षणं चेदम्-- पुव्वं अपासिऊणं पाए छूढमि जं पुणो पासे।
साकारप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान का एक प्रकार।वह प्रत्याख्यान. जिसमें परिस्थिति आदि की छूट रखी गई हो।
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
मानसिक सुख का वेदन होता है। यस्योदयात् शारीरं मानसं च सुखं वेदयते तत्सातवेदनीयम्।
(प्रज्ञा २३.१५ वृ प ४६७)
प्रत्याख्यानापवादहेतवोऽनाभोगाद्यास्तैराकारैः सहेति साकारम्।
(स्था १०.१०१ वृ प ४७२) सागरोपम उपमा काल का एक प्रकार। वह कालखण्ड, जो दस कोटाकोटि पल्योपम के बराबर होता है। अह दस पल्लककोडाकोडीतो एगं सागरोवमं।
(अनुचू पृ ५७) (द्र अद्धा, उद्धार, क्षेत्र सागरोपम) सागारिक
(बृभा २३४६) (द्र शय्यातर) सागारिका १. वह वसति, जहां रहने से कामोत्पत्ति होती है। २. वह वसति, जहां स्त्री-पुरुष एक साथ रहते हैं। जत्थ वसहीए ठियाणं मेहणब्भवो भवति, सा सागारिका। .""जत्थ इस्थिपुरिसा वसंति, सा सागारिका।
(निचू ४ पृ १) साङ्गार
(भग ७.२२) (द्र अङ्गार) साङ्गोपाङ्ग श्रुत आचार आदि बारह अंग और औपपातिक आदि बारह उपांग सहित श्रुत। अङ्गानि द्वादशाचारादीनि दृष्टिवादान्तानि उपाङ्गान्यौपपातिकप्रभृतीन्यङ्गार्थानुवादीनि। सहाङ्गोपाङ्गैर्वर्तत इति साङ्गोपाङ्गम्। तस्य च श्रुतस्य-प्रवचनस्य"।
(तभा ६.१४ वृ पृ २७) सातगौरव एक प्रकार का गौरव । सुख-सुविधाओं का अभिमान। गुरोर्भावः कर्म वेति गौरवं"अभिमानादिद्वारेण गौरवं. सातं-सुखम्। (स्था ३.५०५ वृ प १६३)
सातवेदनीय | वेदनीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शारीरिक और
सातानुग इहलोक और परलोक से निरपेक्ष होकर केवल सुख के पीछे दौड़ने वाला। सायं अणुगच्छंतीति सायाणुगा इहलोगपरलोगनिरवेक्खा।
(सूत्र १.२.५८ चू पृ ७०) सातिचारछेदोपस्थापनीय चारित्र वह छेदोपस्थापनीय चारित्र, जो किसी विशिष्ट अतिचारसेवन के बाद पुनः स्वीकृत किया जाता है। सातिचारस्य यदारोप्यते तत्सातिचारमेव छेदोपस्थापनीयम्।
(भग २५.४५४ वृ) सादिक विस्त्रसा बन्ध द्रव्य के प्रदेशों की वह स्वाभाविक संरचना, जिसका आदि बिन्दु हो, जैसे-परमाणुओं की स्कन्ध रूप में निर्मिति।
(भग ८.३५०) (द्र विस्त्रसा बन्ध) सादि पारिणामिक पारिणामिक भाव का एक प्रकार। वह परिणमन, जिसकी आदि है, जैसे-गति, बंध, आकृति आदि।। गतिबन्धसंस्थानादयः सादिः। (जैसिदी २.४९) सादि श्रुत श्रुतज्ञान का एक प्रकार । द्वादशाङ्ग श्रुत, जो व्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से सादि है। वुच्छित्तिनयट्ठाए साइयं।
(नन्दी ४.६८) (द्र सपर्यवसित श्रुत) सादि संस्थान वह संस्थान, जिसमें नाभि के नीचे का भाग प्रमाणोपेत हो, ऊपर का भाग प्रमाणोपेत न हो। नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते तेनादिना शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाजा सह वर्त्तते यत् तत् सादि। (स्था ६.३१ वृ प ३३९)
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रणपिंडवायलाभे समितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा।
(प्रश्न ८.१२)
साधारणभक्तपानअनुज्ञातपरिभोजन अचौर्य महाव्रत की एक भावना। साधारण भक्तपान का आचार्य आदि को अनुज्ञापित कर परिभोग करना। साधारणं-सामान्यं यद्भक्तादि तदनुज्ञाप्याचार्यादिकं तस्य परिभोजनम्।
(सम २५.१.१५ वृ प ४३)
साधारण शरीर वह शरीर, जिसका निर्माण अनन्त जीव समुदित होकर करते
हैं।
अणंता वणस्सइकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति।
(भग १९.२३) (द्र अनन्तजीव)
साधन जिसका साध्य के साथ अविनाभावी संबंध रहता है, जो नियमत: साध्य के अभाव में उत्पन्न नहीं होता। निश्चितसाध्याविनाभावि साधनम्। (भिक्षु ३.१०) साधर्मिक समान आचार और समान सामाचारी वाला मुनि। 'साहम्मिय' त्ति समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरन्तीति साधमिकाः-साधवः। (स्था १०.१७ वृ प ४४९) साधर्मिकअवग्रहअनुज्ञात परिभोजन अचौर्य महाव्रत की एक भावना। साधर्मिकों द्वारा याचित अवग्रह (स्थान) का उनकी अनुज्ञा लेकर उपयोग करना। साधर्मिकाणां-गीतार्थसमुदायविहारिणां संविग्नानामवग्रहो मासादिकालमानत: पञ्चक्रोशादिक्षेत्ररूप: साधर्मिकावग्रहस्तं तानेवाऽनुज्ञाप्य तस्य परिभोजनता -अवस्थानं साधर्मिकाणां क्षेत्रे वसतौ वा तैरनुज्ञाते एव वस्तव्यम्।
(सम २५.१.१४ वृ प ४३) साधर्म्य दृष्टांत जहां साधन धर्म के विद्यमान होने पर साध्य धर्म की विद्यमानता निश्चित रूप से प्रदर्शित हो, जैसे-जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां अग्नि है, जैसे-रसोईघर। यत्र साधनधर्मसत्तायामवश्यं साध्यधर्मसत्ता प्रकाश्यते, स साधर्म्यदृष्टान्तः। यथा-यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निर्यथा महानसे।
(प्रनत ३.४५,४६) साधारण जीव एक ही शरीर में विद्यमान अनन्त जीव, निगोद जीव, जिनकी उत्पत्ति, शरीर-निष्पत्ति, आनापान, उच्छ्वास-निःश्वास, आहार-ये सब क्रियाएं एक साथ होती हैं। साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाणगहणं च। साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एयं॥
(प्रज्ञा १.४८.५५) (द्र अनन्तजीव) साधारणपिण्डपातलाभसमितियोग अचौर्य महाव्रत की एक भावना । सामुदानिक भिक्षा मिलने पर मुनि का विधिपूर्वक भोजन करना। साहारणपिंडपातलाभे भोत्तव्वं संजएण समियं"एवं साहा
साधारणशरीरनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अनन्त जीवों को एक शरीर मिलता है। यदुदयवशात् पुनरनन्तानां जीवानामेकं शरीरं भवति तत्साधारणनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) यतो बह्वात्मसाधारणोपभोगशरीरं तत्साधारणशरीरनाम।
(तवा ८.११)
साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिक वह बादरवनस्पतिकाय, जिसके एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं। समानं-तुल्यं प्राणापानाद्युपभोगं यथा भवति एवमासमन्तादेकीभावेनानन्तानां जन्तूनां धारणं-संग्रहणं येन तत्साधारणं, साधारणं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः, ते च ते बादरवनस्पतिकायिकाश्च साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः।
(प्रज्ञा १.३२ वृ प ३०)
साधु १. सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के योग से अपवर्गमोक्ष की साधना करने वाला। साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः।
(द १.५ हावृ प ७९) २. जो छह जीवनिकाय का अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त कर
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उनकी हिंसा करने, कराने और अनुमोदन करने से सर्वथा । सामानिक विरत होता है।
वह देव, जो प्रभुता के अतिरिक्त इन्द्र के समकक्ष होता है। साधवः प्रव्रजिताः षड्जीवनिकायपरिज्ञानेन कृतकारितादि
समानया-इन्द्रतुल्यया ऋद्ध्या चरन्तीति सामानिकाः । परिवर्जनेन। (दहावृ प ६३)
(भग ३.४ वृ) साध्य
इन्द्रसमाना: सामानिका: अमात्यपितृगुरूपाध्याय-महत्तरवत् जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरुद्ध नहीं है, बाधित नहीं है
केवलमिन्द्रत्वहीनाः।
(तभा ४.४) और जिसे सिद्ध करना अभीप्सित है।
सामान्य अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम्। (प्रनत ३.१४)
वह धर्म, जो अभेद की प्रतीति का निमित्त बनता है। सिसाधयिषितं साध्यम्।
(भिक्षु ३.९) अभेदप्रतीतेर्निमित्तं सामान्यम्।
(भिक्षु ६.६) सान्तरबन्धिनी
(द्र विशेष) वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध जघन्यतः एक समय मात्र
सामान्य गुण और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त तक होता है, अन्तर्मुहूर्त के पश्चात्
वह गुण, जो सब द्रव्यों में समान रूप से व्याप्त रहता है, नियमतः बंध-विच्छेद हो जाता है. जैसे-असाता वेदनीय।
जैसे-अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशवत्त्व और यासां प्रकृतीनां जघन्यतः समयमात्रं बन्धः, उत्कर्षतः समया
अगुरुलघुत्व। दारभ्य यावदन्तर्मुहूर्तं न परत: ताः सान्तरबन्धाः।
द्रव्येषु समानतया परिणत: सामान्यः। व्यक्तिभेदेन परिणतो (कप्र पृ ४३) विशेषः।
(जैसिदी १.३७ वृ) सान्निपातिक भाव
अस्तित्व-वस्तुत्व-द्रव्यत्व-प्रमेयत्व-प्रदेशवत्त्व-अगुरुभाव का एक प्रकार, मिश्रित भाव, जो औदयिक आदि भावों
लघुत्वादिः सामान्यः।
(जैसिदी १.३८) के संयोग से निष्पन्न होता है।
सामायिक सन्निवाइए-एएसिं चेव उदइय-उवसमिय-खइय-खओव
१. श्रावक का नौवां व्रत। एक मुहूर्त तक सावद्य प्रवृत्ति का समिय-पारिणामियाणं भावाणं दुगसंजोएणं तिगसंजोएणं
त्याग, समता का अभ्यास। चउक्कसंजोएणं पंचगसंजोएणं जे निप्पज्जइ सव्वं से
सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं सन्निवाइए नामे। (अनु २८९)
(आवपरि पृ २२) सामयिकी संज्ञा
२. चारित्र का एक प्रकार । यावज्जीवन तीन करण तीन योग (द्र संज्ञासूत्र)
से सर्व सावद्ययोग का प्रत्याख्यान।
करेमि भंते! सामाइयं-सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि, सामयिक व्यवसाय
जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं-मणेणं वायाए काएणं, न सांख्य आदि श्रमणों के सिद्धान्त के आधार पर होने वाला
करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। निश्चय और अनुष्ठान।
__ (आव १.२) (द्र व्यवसाय)
३. षडावश्यक में प्रथम आवश्यक, सामायिक अध्ययन, सामाचारी
जिसका प्रतिपाद्य है-सावद्य प्रवृत्ति से विरति। मुनि-संघ का व्यवहारात्मक आचार, जैसे-इच्छाकार, सावज्जजोगविरई"""पढमे सामादियज्झयणे पाणादिवायामिथ्याकार आदि।
दिसव्वसावज्जजोगविरती कायव्वा। (अनु ७४ चू पृ१८) सामाचारी तां-यतिजनेतिकर्तव्यतारूपाम्।
४. अङ्गबाह्यश्रुत का एक प्रकार। वह अध्ययन, जिसमें
समभाव का निरूपण है। (उ २६.४ शावृ प ५३३) (द्र ओघ सामाचारी)
च।
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अंगबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा - सामायिकं ।
(तभा १.२० ) समभावो यत्राध्ययने वर्ण्यते तत्तेन वर्ण्यमानेनार्थेन निर्दिशति- सामायिकमिति । (तभा १.२० वृ पृ९० ) ५. आचाराङ्ग सूत्र का पर्यायवाची नाम । यह समता का प्रतिपादक है इसलिए इसका नाम सामायिक है । आचाराङ्गं समताया: प्रतिपादकं सूत्रं वर्तते, अत एवास्य 'सामायिकम्' इति नाम विद्यते । (आभा पृ १६० )
सामायिक कल्पस्थिति
सामायिक चारित्र वाले साधुओं की कल्प मर्यादा । सामायिकं - सर्व सावद्ययोगविरतिरूपं तत्प्रधाना ये संयताः - साधवस्तेषां कल्पस्थितिः । (बृभा ६३४९ वृ)
सामायिक चारित्र
यावज्जीवन सर्व सावद्ययोग की विरति ।
'सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं' ति कट्टु सामाइयं चरितं पडिवज्जइ । (आचूला १५.३२) सावज्जजोगविरइत्ति तत्थ सामाइयं... | (विभा १२६३) (द्र सामायिक)
सामायिक प्रतिमा
उपासकप्रतिमा का तीसरा प्रकार | प्रतिमाधारी इस प्रतिमा में सावद्य प्रवृत्ति के परिवर्जन और निरवद्य प्रवृत्ति के आसेवन के प्रति जागरूक रहता है। प्रतिदिन दोनों सन्ध्याओं में (प्रात: और सायं) सामायिक की साधना करता है। सामायिकं - सावद्ययोगपरिवर्जननिरवद्ययोगासेवनस्वभावं कृतं विहितं देशतो येन स सामायिककृतः ''अप्रतिपन्नपौषधस्य दर्शनव्रतोपेतस्य प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं तृतीया प्रतिमा । (प्रसा ९८० वृप २९४)
सामुच्छेदिकवाद प्रवचननिह्नव का चौथा प्रकार । यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार प्रत्येक पदार्थ का सम्पूर्ण विनाश माना जाता है।
प्रसूत्यनन्तरं सामस्त्येन प्रकर्षेण च छेदः समुच्छेदो - विनाशः । समुच्छेदं ब्रुवत इति सामुच्छेदिकाः, क्षणक्षयिक भाव(स्था ७.१४० वृ प ३८९)
प्ररूपकाः ।
सामुदानिक भिक्षा
सामूहिक घरों से प्राप्त होने वाली भिक्षा। माधुकरी वृत्ति से प्राप्त भिक्षा - मधुकर की भांति सर्वत्र थोड़ा-थोड़ा लेकर की जाने वाली भिक्षा ।
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सामुदानिकं समुदानं भिक्षासमूहस्तत्र भवं सामुदानिकम्, एतदुक्तं भवति - मधुकरवृत्त्याऽवाप्तं सर्वत्र स्तोकं स्तोकं गृहीतम् । (सूत्र २.१.६६ वृ प ३९ ) (द्र गोचरचर्या)
साम्भोगक
(द्र साम्भोजिक)
साम्भोजिक
समसामाचारी वाला मुनि, जिसका भोजनमण्डली अथवा भोजन, स्वाध्याय आदि सभी मण्डलियों के साथ संबंध हो । साम्भोगिकं - एक भोजनमण्डलीकादिकम् ।
(स्था ९.१ वृप २८५) साम्भोगिकाः - परस्परमेकसामाचारीकाः ।
(बृभा १६१७ वृ)
(द्र सदृशकल्पी) सारूपिक
वह मुनि, जो श्रमण की आचार मर्यादा से मुक्त होकर तुम्बा लेकर भिक्षाटन करता है, सफेद वस्त्र रखता है, मुण्डित सिर वाला और रजोहरण-रहित होता है । वह भार्यासहित अथवा भार्यारहित दोनों प्रकार का होता है।
सारूपिको शिरोमुण्डो रजोहरणरहितो अलाबुपात्रेण भिक्षामटति सभार्योऽभार्यो वा । (व्यभा ३६७१ वृ) 'सारूपिकाः नाम 'श्वेतवाससः क्षुरमुण्डितशिरसो भिक्षाटनोपजीविनः । (बृभा १११४ वृ)
सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीवस्थान जीवस्थान/गुणस्थान का दूसरा प्रकार। औपशमिक सम्यक्त्व से गिरते हुए प्राणी की मिथ्यात्व - प्राप्ति से पूर्ववर्ती छ:आवलिका प्रमाण अंतराल अवस्था ।
उवसमसंमत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसंमत्तं
तदंतरालंमि
छावलियं ॥
(विभा ५३१)
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सिंह वह मुनि, जो गीतार्थ होता है। 'सिंहाः' गीतार्थाः।
(बृभा २९०१ वृ) सिंहासन महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। चौंतीस अतिशयों में से एक।। स्फटिकमय सिंहासन, जिस पर बैठकर अर्हत् धर्मोपदेश करते हैं। आगासफालियामयं सपायपीढं सीहासणं। (सम ३४.१.९)
यष्टि रखता है। सिद्धपुत्रो नाम सकेशो भिक्षामटति वा न वा वराटकैः विटलकं करोति यष्टिं धारयति। (व्यभा ३६७१ ७) सिद्धशिला १. ईषत्प्रारभारा नामक आठवीं पृथ्वी, जहां मुक्त जीवों का निवास होता है। अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रयणप्पभा"ईसिपब्भारा।
(स्था ८.१०८) २. वह शिलातल, जिस पर साधना करने वाला क्षेत्र के प्रभाव से अथवा देवानुभाव से सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। सिद्धसिल त्ति जत्थ सिलातले साहवो तवकम्मिया सयमेव गंतुं भत्तपरिणिगिणिं पादवगमणं वा बहवे पवण्णपुव्वा पडिवजंति तत्थ य खेत्तगुणतो अहाभद्दियदेवतागुणेण वा आराहणा सिद्धी य जत्थावस्सं भवति सा सिद्धसिला।
(अनु १६ चूपृ९) सिद्धादिगुण मुक्त होने के प्रथम क्षण में अस्तित्व में आने वाले गुण। सिद्धानामादौ-सिद्धत्वप्रथमसमय एव गुणाः सिद्धादिगुणाः ।
(सम ३१.१.१ वृ प५३)
सिद्ध वह आत्मा, जिसके संपूर्ण कर्म समाप्त हो जाते हैं, जो परमसुखी और कृतकृत्य हो जाता है। सिद्धास्तु अशेषनिष्ठितकर्मांशाः परमसुखिनः कृतकृत्याः।
(आवनि १७९ हावृ पृ७९) (द्र सिद्ध जीव) सिद्धकेवलज्ञान मुक्त जीवों का केवलज्ञान। सिद्धस्य"यत्केवलज्ञानं तत्। (स्था २.८८ वृ प ४५) सिद्धगति मुक्त जीव की अवस्थिति।
(प्रज्ञा ६.५) अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यादिस्वस्वभावगुणोपलब्धिरूपायाः सिद्धेर्गतिः प्राप्तिः जीवस्य भवति, परमप्रकर्षप्राप्तरत्नत्रयपरिणतशुक्लध्यानविशेषसंपादितपरमसंवर-निर्जराभ्यां सकलकर्मक्षयादात्मनो मुक्तव्यपदेशभाजः स्वाभाविकोर्ध्वगमनसभावाल्लोकाग्रप्राप्तस्य सिद्धपरमेष्ठिपर्यायरूपसिद्धगतिर्भवतीत्यर्थः ।
(गोजी पृ २८२) सिद्ध जीव जन्म और मरण के चक्र से मुक्त जीव। संसरन्ति भवान्तरमिति संसारिणः, तदपरे सिद्धाः।
___ (जैसिदी ३.२ वृ) (द्र सिद्ध) सिद्धपुत्र वह मुनि, जो श्रमण की आचार-मर्यादा से मुक्त होकर भिक्षाटन करता है। वह केशसहित होता है और हाथ में
सुख १. पापकर्म का निर्जरण। जे निज्जिणे से सुहे।
(भग ७.१६०) २. इष्ट के संयोग और अनिष्ट के वियोग से होने वाला आह्लाद। इष्टसंयोगाऽनिष्टनिवृत्तेराह्लादः सुखम्। (जैसिदी ९.२२) ३. इन्द्रिय सुख-इन्द्रिय के संवेदन से होने वाला सुख। ४. मानसिक सुख-मन की अभिलाषा की पूर्ति से होने वाला सुख। ५. प्रशम सुख-राग और द्वेष के उपशम से होने वाला सुख। ६. आत्मिक सुख-आत्मदर्शन और आत्मानुभूति से होने वाला सुख। इंदियमणस्स पसमज आदुत्थं तहय सोक्खं चउभेयं। इंदियलक्खणदो णियलक्खं अणुहवणे होइ आदुत्थं ॥
(नच ४००)
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सुखशय्या मनि-जीवन में समाधि उत्पन्न करने वाली चित्त की अवस्था। ये चार हैं-निर्ग्रन्थप्रवचन में श्रद्धा, अपने लाभ में संतुष्टि, भोगविरक्ति और वेदना के प्रति सहिष्णुता। चत्तारिसुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ"णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते णिक्कंखिते""'"सएणं लाभेणं तुस्सति "दिव्वमाणुस्सए कामभोगे णो आसाएति""ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं वेयणं सम्म सहमाणस्स"एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति-चउत्था सुहसेज्जा। (स्था ४.४५१)
सुगति सद्गति, वह गति, जिसमें जीव सम्यक्त्व आदि सद्गुणों से युक्त होता है, जैसे--सिद्धगति, देवगति, मनुष्यगति। तओ सुगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सिद्धसोगती, देवसोगती, मणुस्ससोगती। (स्था ३.३७३) सुदक्षुजागरिका वह जागृत अवस्था, जो तपस्या के द्वारा अपने आपको भावित करने वाले श्रमणोपासकों को प्राप्त है। जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मे हिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति-एएणं सुदक्खुजागरियं जागरंति। (भग १२.२१) सुधर्मासभा वह कक्ष, जहां इन्द्र शयन करता है। सुधासभा यस्यां शय्या। (स्था ५.२३५ वृ प ३३४) सुपर्णकुमार भवनपति देवनिकाय का एक प्रकार । वह देववर्ग, जिसकी ग्रीवा और वक्षस्थल का भाग अति सुन्दर होता है, जिसका शरीर श्याम आभा वाला होता है, जिसका चिह्न है गरुड। अधिकप्रतिरूपग्रीवोरस्का: श्यामावदाता गरुडचिह्नाः सुपर्णकुमाराः।
(तभा ४.११) सुप्रणिहितयोगी वह योगी, जो अपने प्रणिधान के द्वारा शुभ और अशुभ के विपाक को जानता है। जो पुण सुपणिहियजोगी सो सुभासुभविवागं जाणइ।
(दजिचू पृ २७०)
सुप्रतिष्ठकसंस्थान लोक का आकार, जो त्रिशरावसम्पुटाकार है, जैसे-एक शराव अधोमुख, उसके ऊपर दूसरा ऊर्ध्वमुख और उसके ऊपर तीसरा पुनः अधोमुख। (देखें चित्र पृ ३४२) सुप्रतिष्ठकसंस्थान: त्रिशरावसम्पुटाकारो, यथा-एकः शरावोऽधोमुखस्तदुपरि द्वितीय ऊर्ध्वमुखस्तदुपरि पुनश्चैकोऽधोमुखः।
___ (जैसिदी १.८ वृ) (देखें चित्र पृ ३४२) सुभगनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से किसी प्रकार का उपकार किए बिना और संबंध के बिना भी जीव दूसरों को प्रिय लगता है। यदुदयवशादनुपकृदपि सर्वस्य मन:प्रियो भवति तत्सुभगनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) सुलभबोधिक जिसके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ है। (भग ३.७२) सुविधि योगसंग्रह का एक प्रकार। सद् अनुष्ठान । 'सुविहि' त्ति सदनुष्ठानम्। (सम ३२.१.३ वृ प ५५) सुषमदुष्षमा काल का सुख-दु:खमय विभाग, अवसर्पिणी का तीसरा तथा उत्सर्पिणी का चौथा अर। इसका कालमान दो कोटाकोटि सागरोपम होता है।
(स्था १.१३०) दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसुमदूसमा।
(भग ६.१३४)
सुषमसुषमा काल का एकान्त सुखमय विभाग, अवसर्पिणी का प्रथम तथा उत्सर्पिणी का अन्तिम अर। इसका कालमान चार कोटाकोटि सागरोपम होता है। सुष्ठु समा सुषमा अत्यन्तं सुषमा सुषमसुषमा अत्यन्तसुखस्वरूपस्तस्या एव प्रथमारक इति। (स्था १.१४० वृ प २५) चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा।
(भग ६.१३४)
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सुषमा
जीव।
(प्रज्ञा १.२१) काल का सुखमय विभाग, अवसर्पिणी का दूसरा तथा (द्र सूक्ष्मनाम) उत्सर्पिणी का पांचवां अर। इसका कालमान तीन कोटाकोटि सागरोपम होता है।
(स्था १.१३९)
सूक्ष्मआनप्राण लब्धि तिण्णि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा।
वह लब्धि, जिससे सम्पन्न मुनि अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो
का परावर्तन कर सकता है। (भग ६.१३४)
चतुर्दशापि सूक्ष्माणप्राणलब्धिसम्पन्नोऽन्तर्मुहूर्तेन (द्र सुषमसुषमा)
परावर्त्तयति।
(ओनिवृ प १७८) सुष्ठुदत्त
सूक्ष्म आलोचना ज्ञान का एक अतिचार । योग्यता से अधिक ज्ञान देना।
आलोचना का एक दोष। केवल छोटे दोषों की आलोचना सुष्ठु दत्तं गुरुणा। (आव ४.८ हावृ २ पृ१६१)
करना तथा बड़े दोषों को छिपा लेना। सुसंवृत
सूक्ष्ममेव वाऽतिचारमालोचयति। वह मुनि, जिसके प्राणातिपात आदि समस्त आश्रवद्वारों का
(स्था १०.७० वृप ४६०) निरोध हो गया हो।
सूक्ष्म उद्धार पल्योपम सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं"।स्थगितसमस्ताश्रवद्वारः सुसंवृतः।
(अनु ४२२, ४२४) (उ १२.४२ शावृ प ३७१) (द्र उद्धार पल्योपम) सुसमाहित
सूक्ष्म उद्धार सागरोपम वह मुनि, जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्यक् रूप से
(अनु ४२३, ४२४) भावित होता है।
(द्र उद्धार सागरोपम) नाण-दसण-चरित्तेसु सुट्ट आहिता सुसमाहिता।
(द ३.१२ अचू पृ६३)
सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति
शुक्लध्यान का एक प्रकार। तेरहवें जीवस्थान की अन्तिम सुस्वरनाम
अवस्था, जिसमें उच्छ्वास-नि:श्वास की सूक्ष्म क्रिया शेष नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव का स्वर
रहती है, उस अवस्था का निवर्तन-ह्रास नहीं होता, इसलिए प्रीतिकारक होता है।
वह अनिवृत्ति है। यदुदयवशात् जीवस्य स्वरः श्रोतृणां प्रीतिहेतुरुपजायते
सक्ष्मा क्रिया यत्र निरुद्धवाग्मनोयोगत्वे सत्यर्द्धनिरुद्धतत्सुस्वरनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४)
काययोगत्वात्तत्सूक्ष्मक्रियं न निवर्त्तत इत्यनिवर्त्ति वर्द्धमानसूक्ष्म अध्वा पल्योपम
परिणामत्वात्, एतच्च निर्वाणगमनकाले केवलिन एव स्यात्। (अनु ४२७, ४२९)
(भग २५.६०९ वृ)
सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिनि केवलं सूक्ष्मा उच्छवासनिःश्वास(द्र अध्वा पल्योपम)
क्रियैव अवशिष्यते।
(जैसिदी ६.४४ वृ) सूक्ष्म अध्वा सागरोपम
सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति (अनु ४३०, ४३१)
(जैसिदी ६.४४) (द्र अध्वा सागरोपम)
(द्र सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति) सूक्ष्मअप्कायिक
सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम सक्ष्मनाम कर्म के उदय से निष्पन्न सक्ष्म शरीर वाले अप्कायिक
(अनु ४३६-४३९) For Private & Pe (द्र क्षेत्र एल्योपम)
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सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम
(अनु ४३९)
(द्र क्षेत्र सागरोपम)
सूक्ष्म जीव वे जीव, जो आंखों से देखे न जा सकें। सूक्ष्मनाम कर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव। सूक्ष्मनामकर्मोदयोपजनितविशेषाः सूक्ष्माः।
(धव पु १ पृ २६९)
सूक्ष्मतेजस्कायिक सूक्ष्मनाम कर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले तेजस्कायिक जीव।
(प्रज्ञा १.२४) (द्र सूक्ष्मनाम) सूक्ष्मध्यान ध्यानसंवरयोग। वह ध्यान, जो महाप्राणध्यान के सदृश है, जिसमें ध्याता कायनिरोध करता है, निश्चल और उच्छ्वास शून्य हो जाता है तथा जिससे प्राण की सूक्ष्मता हो जाती है। परिस्थितिवश ध्याता बीच में ही ध्यान सम्पन्न कर सकता है, यदि गीतार्थ द्वारा उसके बाएं अंगूठे का स्पर्श किया । जाए। ""अज्जपूसभूई य।आयाणपूसमित्ते सुहुमे झाणे॥ वसुभूती आयरिया बहुसुता"पूसमित्तो बहुस्सुतो"तेसिं आयरियाणं चिंता जाता-सुहुमज्झाणं पविस्सामि, तं महापाणसरिसयं, तं किर जाहे पविसति ताहे एवं जोगसंनिरोधं करोति जथा किंचि विण चेतेति।"आयरिओ न चलति न फंदति, ऊसासनीसासो वि नत्थि, सुहुमो किर एवं।"पुव्वं भणितो सो"जाहे"अच्चयो होज्जा ताहे वामंगुट्ठाए छिवेज्जासि त्ति, छित्तो, तो पडिबुद्धो।
(आवनि १३१७ चू २ पृ २१०) (द्र महाप्राण)
सूक्ष्मनाम, यदुदयाद्बहूनामपि समुदितानां जन्तुशरीराणां चक्षुर्ग्राह्यता न भवति। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) यदुदयादन्यजीवानुपग्रहोपघाताऽयोग्यसूक्ष्मशरीरनिर्वृत्तिर्भवति तत् सूक्ष्मनाम।
(तवा ८.११.२९) सूक्ष्मनिगोद निगोद के वे जीव, जो सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। सक्ष्मनिगोदाः सर्वलोकापन्नाः। (जीवा ५.३८ व प ४२३) .."सुहुमणिगोदाणं जलथलआगासेसु सव्वत्थ तेसिं जोणिदंसणादो।
(धव पु १४ पृ २३२) (द्र सूक्ष्मजीव) सूक्ष्मपृथ्वीकायिक सूक्ष्मनामकर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले पृथ्वीकायिक जीव।
(प्रज्ञा १.१६) (द्र सूक्ष्मनाम) सूक्ष्मवनस्पतिकायिक सूक्ष्मनामकर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले वनस्पतिकायिक जीव।
(प्रज्ञा १.३०) (द्र सूक्ष्मनाम) सूक्ष्मवायुकायिक सूक्ष्मनामकर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले वायुकायिक जीव।
(प्रज्ञा १.२७) (द्र सूक्ष्मनाम) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र चारित्र का एक प्रकार । दसवें गुणस्थान में होने वाला चारित्र, जहां सूक्ष्म कषाय (लोभ) अवशेष रहता है। उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी में आरूढ़ साधक सूक्ष्म लोभाणुओं का वेदन करता है, उस समय की चारित्रिक स्थिति। कोवाइ संपराओ तेण जओ संपरीइ संसारं। तं सुहुमसंपरायं, सुहुमो जत्थावसेसो सो॥ लोभाणू वेयंतो जो खलु उवसामओ व खवओ वा। सो सुहमसंपराओ अहक्खाया ऊणओ किंचि॥
(विभा १२७७, १३०२)
सूक्ष्मनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से निष्पन्न शरीर समुदित अवस्था में भी अदृश्य (चक्षु के द्वारा अग्राह्य) होते हैं, जिन पर दूसरे जीवों के अनुग्रह और उपघात का प्रभाव । नहीं होता।
सूक्ष्मसम्पराय जीवस्थान जीवस्थान/गुणस्थान का दसवां प्रकार । संज्वलन लोभ के
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सूत्रधर
है।
सूत्र
सूक्ष्म अंश से युक्त जीव की आत्मविशुद्धि।
दर्शन और अन्य दर्शनों का प्रतिपादन किया गया है। संचलनलोभासंख्येयखण्डरूप: सम्पराय:-कषायो यस्य स सूयगडे णं ससमया सूइज्जति परसमया सूइज्जंति ससमयसूक्ष्मसम्परायः। (समवृ प २७) परसमया सूइज्जति।
(समप्र ९०) सूचीकुशाग्र असंवर ( आश्रव)
सूत्रकृतधर आश्रव का एक प्रकार । सूई और कुशाग्र जैसे शरीरोपघातक । वह मुनि, जो सूत्रकृताङ्ग के सूत्र-पाठ और अर्थ का विशेषज्ञ उपकरणों को असावधानी से रखना। यह द्रव्य असंवर है। होता है। (स्था १०.११) अप्पेगइया सूयगडधरा।
(औप ४५) सूचीकुशाग्र संवर संवर का एक प्रकार । शरीर का उपघात करने वाले सूची, केवल सूत्र को कण्ठस्थ करने वाला मुनि। कुशाग्र आदि उपकरणों का संवरण। यह व्यावहारिक संवर
(स्था वृप १८६)
(द्र सूत्रधर-अर्थधर) सूच्याः कुशाग्राणां च शरीरोपघातकत्वाद्यत्संवरणं-सङ्गोपनं स सूचीकुशाग्रसंवरः, एष तूपलक्षणत्वात् समस्तौपग्रहि
सूत्रधर-अर्थधर कोपकरणापेक्षः। (स्था १०.१० वृ प ४४८)
सूत्र और अर्थ दोनों को धारण करने वाला मुनि। सूत्रधर:- पाठकः, अर्थधरो-बोद्धाः, अन्यस्तूभयधरः ।
(स्थावृप १८६) १. दृष्टिवाद का एक प्रकार, जिसमें सब द्रव्यों और पर्यायों
सूत्रमण्डली की सूचना मिलती है। इसके बाईस प्रकार हैं, जो पूर्वगत
मण्डली का एक विभाग। श्रमणों के लिए एक साथ बैठकर श्रुत और उसके अर्थ के सूचक हैं।
सत्र के आलापकों के श्रवण-ग्रहण-अवधारण और परावर्तन ताणि य सुत्ताई सव्वदव्वाण सव्वपज्जवाण सव्वणताण
करने की व्यवस्था। सव्वभंगविकप्याण य देसगाणि, सव्वस्स य पुव्वगतसुतस्स
इय सुद्धसुत्तमंडलि, दाविज्जति अस्थमंडली चेव। अत्थस्स य सूयग त्ति, अतो ये सूयणत्तातो सुत्ता भणिता।
(व्यभा १४२९) (नन्दीचू पृ७४)
(द्र अर्थमण्डली) २. वह रचनाशैली, जो अर्थ की सूचक है। वह रचनाशैली, जिसमें अनेक अर्थों का संघात है। एकेनापि सूत्रेण बहवोऽर्थाः सङ्घात्यन्त इति सूत्रमिव सूत्रम्।। १. रुचि का एक प्रकार । आगम के अध्ययन से उत्पन्न रुचि। अर्थस्य सूचनाद्वा सूत्रम्।
(बृभा ३१० वृ) २. सूत्ररुचि सम्पन्न व्यक्ति।
जो सुत्तमहिज्जंतो, सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं। सूत्रकल्पिक
अंगेण बाहिरेण व, सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो॥ आवश्यक से लेकर आचाराङ्ग तक के आगम-सूत्रों का
(उ २८.२१) ज्ञाता। आवश्यकमादिं कृत्वा यावदाचारस्तावत् सर्वोऽपि सूत्रस्य । सूरप्रज्ञप्ति कल्पिको भवति।
(बृभा ४०६ वृ) उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। इसमें देवताओं और सूर्य का (द्र अर्थकल्पिक)
ज्योतिष संबंधी विवेचन है।
सूरचरितं पण्णविज्जते जत्थ सा सूरपण्णत्ती। सूत्रकृत द्वादशाङ्ग श्रुत का दूसरा अंग, जिसमें मुख्य रूप से आहत
(नन्दी ७७ चू पृ ५८)
सूत्ररुचि
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सूर्य ज्योतिष्क देव का एक प्रकार।
(उ ३६.२०८)
सूर्यप्रज्ञप्ति
(नन्दी ७७ चू पृ५८) (द्र सूरप्रज्ञप्ति) सृपाटिका संहनन वह अस्थि-रचना, जिसमें त्वचा और मांस के द्वारा हड्डियां जुड़ी रहती हैं। सपाटिकानाम कोटिद्वयसंगते ये अस्थिनी चर्मस्नायुमांसावबद्धे तत् सपाटिकानाम कीर्त्यते।
(तभा ८.१२ वृ पृ १५४) (द्र सेवार्त्त संहनन) सेनापतिरत्न चक्रवर्ती के चौदहरत्नों में से एक रत्न, जो दलनायक होता
संघात से होने वाला स्कन्ध, जैसे- प्रत्येक तन्तु स्कन्ध है। उनको समुदित करने से एक स्कन्ध बन जाता है। तदेकीभाव: स्कन्धः।
(जैसिदी १.१८) तभेदसंघाताभ्यामपि। स्कन्धस्य भेदतः संघाततोऽपि स्कन्धो भवति, यथाभिद्यमाना शिला, संहन्यमानाः तन्तवश्च ।
(जैसिदी १.१९ वृ) २. अविभागी अस्तिकाय के लिए भी स्कन्ध शब्द का व्यवहार होता है, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय स्कन्ध हैं। अविभागिनि अस्तिकायेऽपि स्कन्धशब्दो व्यवहियते, यथाधर्माधर्माकाशजीवास्तिकाया स्कन्धाः।
(जैसिदी १.१९ वृ) स्तनितकुमार भवनपति देवनिकाय का एक प्रकार। वह देववर्ग, जिसका नाद स्निग्ध और गंभीर होता है, जिसका वर्ण कृष्ण आभा वाला तथा जिसका चिह्न है वर्धमान। स्निग्धाः स्निग्धगम्भीरानुनादमहास्वनाः कृष्णा वर्धमानचिह्नाः स्तनितकुमाराः।
(तभा ४.११ वृ)
सेनापतिः-दलनायकः।
(प्रसाव प ३५०)
सेवार्त्त संहनन वह अस्थि-रचना, जिसमें दो हड्डियों के पर्यन्त भाग परस्पर एक दूसरे का स्पर्श कर रहे हों। अस्थिद्वयपर्यन्तस्पर्शनलक्षणां सेवामा सेवामागतमिति सेवार्तम्।
(स्था ६.३० वृ प ३३९) (द्र सृपाटिका संहनन)
स्त्यानगृद्धि दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति। प्रगाढतम निद्रा, इस अवस्था में व्यक्ति जागृत अवस्था में पाली हई आकांक्षा को क्रियान्वित कर देता है। स्त्याना-बहुत्वेन सङ्घातमापन्ना गृद्धिः अभिकांक्षा जाग्रदवस्थाऽध्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः।
(स्था ९.१४ वृ प ४२४)
सोपक्रम आयु
(तभा २.५२) (द्र अपवर्तनीय आयु) सौधर्म पहला स्वर्ग। कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की पहली आवासभूमि।
(उ ३६.२१०) (देखें चित्र पृ ३४६)
स्त्रीकथाविरति समितियोग ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। .."एवं इत्थीकहविरति-समितिजोगेण भावितो भवति अंत
(प्रश्न ९.८) (द्र नोस्त्रीकथा)
रप्पा।
स्कन्ध १. वह पुद्गल-समूह, जो परमाणुओं के एकीभाव से होता है। स्कन्ध का भेद और संघात होने से भी स्कन्ध होता है। भेद से होने वाला स्कन्ध, जैसे-एक शिला एक स्कन्ध है।
उसके टूटने से अनेक स्कन्ध बन जाते हैं।
स्त्रीकथा विवर्जन ब्रह्मचर्य गुप्ति का दूसरा प्रकार। मणपल्हायजणणिं, कामरागविवड्डणिं। बंभचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए॥
(उ १६ गा २) (द्र नोस्त्रीकथा)
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स्त्री परीषह परीषह का एक प्रकार । साध्वी का पुरुष के प्रति और साधु का स्त्री के प्रति होने वाले आकर्षण से उत्पन्न संवेदन, जो मुनि के द्वारा सहनीय है। संगो एस मणुस्साणं जाओ लोगंमि इथिओ। जस्स एया परिणाया सुकडं तस्स सामण्णं॥ एवमादाय मेहावी पंकभूया उ इथिओ। नो ताहिं विणिहन्नेज्जा चरेज्जत्तगवेसए॥
(उ २.१६,१७)
थेरो-जातिसुयपरियाएहिं वृद्धो जो वा गच्छस्स संथितिं करेति।
(द ९.४.१ अचू पृ १५) (द्र उपाध्याय) स्थविरकल्पस्थिति संघबद्ध साधना करने वाले मुनि की आचार संहिता।
(स्था ६.१०३)
स्थान द्वादशांग श्रुत का तीसरा अंग, जिसमें आगमिक विषयों का वर्णन एक से दश तक की संख्या के आधार पर किया गया
स्त्रीरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न। अत्यन्त कामसुख देने वाले गुण से युक्त स्त्री। स्त्रीरत्नमत्यदभतकामसखनिधानम्। (प्रसाव प३५०)
एक्कविहवत्तव्वयं दुविहवत्तव्वयं जाव दसविहवत्तव्वयं।
(समप्र ९१)
स्त्रीरूपविरति समितियोग ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। एवं इत्थीरूवविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्या।
(प्रश्न ९.९) (द्र इन्द्रियालोकवर्जन)
स्थानगुण एक विशेष गुण, जिसके द्वारा अधर्मास्तिकाय स्थितिपरिणत जीव और पुद्गलों की स्थिति का हेतु बनता है। 'ठाणगुणे' त्ति जीवपुद्गलानां स्थितिपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भहेतुः।
(भग २.१२६ वृ)
स्थानधर वह मुनि, जो स्थानाङ्ग सूत्र के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया ठाणधरा।
(औप ४५)
स्त्रीलिंगसिद्ध वह सिद्ध, जो स्त्री की शरीर-रचना में मुक्त होता है। इत्थीए लिंगं इथिलिंगं"तम्मि सरीरनिव्वत्तिलिंगे ठिता सिद्धा तातो वा सिद्धा इथिलिंगसिद्धा। (नंदी ३१ चू पृ २७) स्त्रीवेद नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । स्त्रीवेदमोहकर्म के उदय से पुरुष के प्रति होने वाला वासनात्मक
स्थानायतिक कायक्लेश का एक प्रकार। कायोत्सर्ग में स्थिर होना। स्थानायतिकः स्थानातिगः स्थानातिदोवा-कायोत्सर्गकारी।
(स्था ७.४९ वृ प ३७८)
संवेदन।
स्त्रियाः पुमांसं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि
स्थापना स्त्रीवेदः। (प्रज्ञा १८.६० वृ प ४६८)
१. धारणा की तीसरी अवस्था, जिसमें अवाय से अवधारित
अर्थ पूर्वापर आलोचनापूर्वक हृदय (मस्तिष्क) में स्थापित स्थविर
होता है। १. धर्मसंघ में सात वेदों में से एक पद। मुनियोग्य प्रवृत्ति में 'ठवण' त्ति ठावणा, सा य अवायावधारियमत्थं पुव्वाविषाद प्राप्त व्यक्ति को स्थिर करने वाला मुनि।
वरमालोइयं हितयम्मि ठावयंतस्स ठवणा भण्णति। २. वय, श्रुत तथा संयम पर्याय में वृद्ध मुनि।
(नंदी ४९ चू पृ ३७) थिरकरणा पुण थेरो पवत्तिवावारिएसु अत्थेसुं।
२. उद्गम दोष का एक प्रकार। यह वस्तु साधु को देना है' जो जत्थ सीयइ जई संतबलो तं थिरं कुणइ॥
इस भावना से देय वस्तु को कुछ समय तक स्थापित कर
(प्रसावृ प २४) रखना।
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साधुभ्यो देयमितिबुद्ध्या देयवस्तुन: कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना।
(पिनिवृ प ३५)
स्थापनाकल्प १. अकल्पिक मुनि, जिसने पिण्डैषणा के सूत्र और अर्थ का अध्ययन नहीं किया है, उससे आहार आदि की गोचरी न करवाना। २. अयोग्य व्यक्ति को दीक्षित न करना। .""ठवणाकप्पे दुविहमण्णतरे।" आहार उवहि सेज्जा, अकप्पिएणं तु जो ण गिण्हावे। ण य दिक्खेति अणटा, अडयालीसं पि पडिकुट्टे॥
(निभा ५९३२,५९३४) (द्र अकल्पस्थापनाकल्प, शैक्षस्थापनाकल्प)
स्थाप्य वह ज्ञान, जो शब्दातीत है, शाब्दिक व्यवहार से परे है और स्वार्थ है। 'ठप्पाई' ति असंववहारियाई ति वृत्तं भवति।
(अनु २ चू पृ २) स्थावर जीव वे जीव, जो स्थावरनामकर्मोदय के कारण गति नहीं कर सकते। स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीला: स्थावरा:-पृथिव्यादयः।
(स्था ३.३२७ वृ प ३६)
स्थापना कुल १. वह कुल, जो स्थाप्य-अभोज्य है। २. विशिष्ट कुल, जो गीतार्थ द्वारा स्थापित है। ठप्पा कुला ठवणाकुला अभोज्जा इत्यर्थः, साधुठवणाए वा ठविजंति त्ति ठवणाकुला।
(नि ४.२१ चू) (द्र पारिहारिक कुल) स्थापना निक्षेप निक्षेप का एक प्रकार। मूल अर्थ से शून्य वस्तु को उसी के अभिप्राय से स्थापित करना । जैसे-उपाध्याय की प्रतिमा। तदर्थशून्यस्य तदभिप्रायेण प्रतिष्ठापनं स्थापना।
(जैसिदी १०.७) जं पुण तयत्थसुनं तयभिपाएण, तारिसागारं। कीरइ वा निरागारं इत्तरमियरं वसा ठवणा॥
(विभा २६)
स्थावरनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव गर्मी, सर्दी
आदि से व्यथित होने पर भी अपना स्थान नहीं छोड़ सकते, इच्छापूर्वक गति नहीं कर सकते। यह एकेन्द्रिय जाति में जन्म लेने का हेतु बनता है। यदुदयादुष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा जायन्ते तत् स्थावरनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४) यन्निमित्त एकेन्द्रियषु प्रादुर्भावः तत् स्थावरनाम।
(तवा ८.११.२२) स्थित पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अङ्ग। सीखे हुए ग्रन्थ को मन में धारण कर लेना, जमा लेना अथवा उसकी अविस्मृति करना। स्थितमिति चेतसि स्थितम् , न प्रच्युतमिति यावत्।
(अनु १३ हावृ पृ९)
स्थापना सत्य सत्य का एक प्रकार। प्रतीकात्मक सत्य। मूल वस्तु के न होने पर भी किसी दूसरी वस्तु में उसका आरापेण करना। जैसे-लेप्य कर्म में अर्हत् अथवा राम, कृष्ण आदि का आरोपण करना, शतरंज में हाथी, घोड़े, वजीर की कल्पना कर मोहरों को उन-उन नामों से बुलाना। 'ठवणं' ति स्थाप्यत इति स्थापना। यल्लेप्यादिकाल्दादिविकल्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं स्थापनासत्यम्।
(स्था १०.८९ वृ प ४६४)
स्थितकल्प अवस्थित आचारमर्यादा। मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय शय्यातर-पिण्ड, चातुर्यामधर्म का पालन, पुरुष-ज्येष्ठत्व और कृतिकर्म-इस चतुर्विध कल्प के सतत आसेवन की अनिवार्यता है। प्रथम तथा अंतिम तीर्थंकर के समय आचेलक्य, औद्देशिक, राजपिंड, शय्यातरपिंड, कृतिकर्म, व्रत (पांच महाव्रत), पुरुष-ज्येष्ठत्व, प्रतिक्रमण, मासकल्प और पर्युषणाकल्प-इस दसविध कल्प की अनिवार्यता है।
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सह निधत्तायुः स्थितिनामनिधत्तायुः।
(प्रज्ञा ६. ११८ वृ प २१७, २१८)
सिज्जायरपिंडे या, चाउज्जामे य पुरिसजेटे य। कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्या॥
(बृभा ६३६१) आचेलक्कुदेसिय, सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे। वत जेटु पडिक्कमणे, मासं-पज्जोसवणकप्पे।
(बृभा ६३६४) एष च दशविधोऽपि सततासेवनेन प्रथमचरमजिनसाधूनामवस्थितः कल्पः।"स्थित:-अवस्थितः, कल्प:-मर्यादा।
(प्रसावृप १८४) (द्र अस्थितकल्प)
स्थितिप्रतिघात १. कर्म की स्थिति का अल्पीकरण, जो उदीरणा के द्वारा निष्पन्न होता है। २. अध्यवसाय-विशेष के कारण शुभ देवगति-प्रायोग्य कर्मों के बंधनकाल के तत्काल बाद अध्यवसाय-विशेष के द्वारा दीर्घकाल की स्थिति का ह्रस्वीकरण। स्थिते:-शुभदेवगतिप्रायोग्यकर्मणां बद्ध्वैव प्रतिघात: स्थितिप्रतिघातः, भवति चाध्यवसायविशेषात्स्थितेः प्रतिघातो, यदाह-दीहकालठिइयाओ हस्सकालठिइयाओ पकरे।
(स्था ५.७० वृ प २८९)
स्थितलेश्य मरण १. बालमरण का एक प्रकार, जिसमें अशुद्ध लेश्याएं जैसी हैं, वैसी ही रहती हैं। २. पण्डितमरण का एक प्रकार, जिसमें कुछ लेश्याएं जैसी हैं, वैसी ही रहती हैं। ३. बालपण्डितमरण का एक प्रकार। स्थिर लेश्या वाला मरण। बालमरणे "ठितलेस्से"। पंडियमरणे"ठितलेस्से । बालपंडियमरणे "ठितलेस्से। स्थिता-अवस्थिता अविशुध्यन्त्यसंक्लिश्यमाना च लेश्या कृष्णादिर्यस्मिन् तस्थितलेश्यः।
(स्था ३.५२०-५२३ वृ प १६५)
स्थितिबन्ध बंध का एक प्रकार । कर्मप्रकृति की अवस्थिति-कालावधि का निवर्तन। कर्मणः प्रकृतयः""तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नं तस्या बन्धो-निवर्त्तनं स्थितिबन्धः।
(स्था ४.२९० वृप २०९)
स्थिरनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के अवयवसिर, अस्थि, दांत स्थिर रहते हैं। यदुदयवशात् शरीरावयवानां शिरोस्थिदन्तानां स्थिरता भवति तत्स्थिरनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४)
स्थितात्मा वह मनुष्य, जिसकी आत्मा ज्ञान. दर्शन और चारित्र में स्थित होती है। णाणदंसणचरित्तेस ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा।
(द १०.१७ जिचू पृ ३४७) स्थितिकल्याण वह देव, जो उत्कृष्ट या मध्यम स्थिति वाला होता है। ठितिकल्लाणे त्ति उक्कोसिया द्विती अजहण्णमणुक्कोसा वा।
(सूत्र २.२.६९ चू पृ ३६७) स्थितिनामनिधत्तायु आयुबंध का एक प्रकार । एक भव की स्थिति-कालमान के साथ होने वाला आयु का निषेचन। स्थितियतेन भवेन स्थातव्यं तत्प्रधानं नाम स्थितिनामतेन
स्थिरीकरण सम्यक्त्व का छठा आचार। धर्ममार्ग से विचलित हो रहे व्यक्तियों को धर्म में पुनः स्थिर करना।। स्थिरीकरणं च अभ्युपगमधर्मानुष्ठानं प्रति विषीदतां स्थैर्यापादनम्।
(उ २८.३१ शावृ प ५६७) स्थूलअदत्तादानविरमण गृहस्थ धर्म का तीसरा व्रत। स्थूल-देशतः चोरी का त्याग। थूलयं अदिण्णादाणं पच्चक्खाइ। (उपा १.२६) स्थूलमेव स्थूलकं स्थूलकं च तद् अदत्तादान चेति समासः तच्छ्मणोपासकः प्रत्याख्याति। (आवहावृ पृ २२१) (द्र स्थूलप्राणातिपातविरमण)
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और गिरने के साथ ही जो समाप्त हो जाता है। अत्थि णं भंते! सदा समितं सुहुमे सिणेहकाए पवडइ ? हंता अस्थि॥ .""से णं खिप्यामेव विद्धंसमागच्छइ।
(भग १.३१४, ३१६)
स्थूलप्राणातिपातविरमण गहस्थ धर्म का पहला व्रत । स्थल-देशत: हिंसा का त्याग। थूलयं पाणाइवायं पच्चक्खाइ।
(उपा १.२४) 'थूलगं' ति त्रसविषयम्।
(उपा १.२६) स्थूला एव स्थूलकास्तेषां प्राणा:-इन्द्रियादयः तेषामतिपात: स्थूलप्राणातिपातः तं श्रमणोपासकः श्रावक इत्यर्थः प्रत्याख्याति, तस्माद विरमत इति भावना।
(आवहावृ२ पृ २१९) बालपंडिए णं मणुस्से"सोच्चा निसम्म देसं उवरमइ, देसं णो उवरमइ।
(भग १.३६३) 'देसं' स्थूलं प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याति।
(भग १.३६३ वृ) स्थूलमृषावादविरमण गृहस्थ धर्म का दूसरा व्रत । स्थूल-देशतः असत्य का त्याग। थूलयं मुसावायं पच्चक्खाइ।
(उपा १.२५) (द्र स्थूलप्राणातिपातविरमण)
स्नेहराग राग का एक प्रकार । पुत्र आदि के प्रति होने वाला अनुराग। स्नेहरागस्तु विषयादिनिमित्तविकलोऽविनीतेष्वप्यपत्यादिषु यो भवति।
(आवहावृ १ पृ२५९) (द्र राग)
स्नेहसूक्ष्म जल का सूक्ष्म रूप, जैसे-ओस, भूमि से निकलता हुआ जलबिन्दु आदि। सिणेहसुहुमं पंचपगारं, तं जहा-ओसा, हिमए, महिया, करए, हरतणुए।
(द ८.१५ जिचू पृ २७८)
स्नातक निर्ग्रन्थ का पांचवां प्रकार। मोहनीय आदि चार घाती कर्मों का विनाश करने वाला। मोहणिज्जाइघातियचउकम्मावगतो सिणातो भण्णति।
(उचू पृ १४४)
स्नान अनाचार का एक प्रकार । मुनि के लिए देशस्नान या सर्वस्नान करना अनाचरणीय है। सिणाणं दुविहं देसतो सव्वतो वा। (द ३.२ अचू १६०) (द्र देशस्नान)
स्पर्धक वर्गणा का अवन्तर विभाग। वर्गणासमुदाये।
(क प्र१) अविभागपरिच्छिन्नकर्मप्रदेशभागप्रचयपङ्क्तेः क्रमवृद्धिः क्रमहानिः स्पर्धकम्।
(तवा २.५.४) स्पर्धक अवधि अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न वह अवधिज्ञान, जिसकी ज्ञानरश्मियों का निर्गमन स्पर्धकों के माध्यम से होता है। जेसिं जीवाणं केसु वि आगासपदेसेसु ओही उप्पण्णो केसु वि न उप्पण्णो, तत्थ जेसु उप्पण्णो ते फड्डगा भण्णंति।
(आवचू १ पृ६१) इह फडकानि अवधिज्ञाननिर्गमद्वाराणि अथवा गवाक्षजालादिव्यवहितप्रदीपप्रभाफडकानीव फडकानि।
(आवनि ६० हावृ पृ २९) स्पर्धकं च नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः ।
(नन्दीमवृ प ८३) (द्र करण, चैतन्यकेन्द्र, सन्धि)
स्निग्ध १. स्पर्श का एक स्नेहात्मक गुण। स्नेहो हि गुणः स्पर्शाख्यः, तत्परिणामः स्निग्धः ।
(तभा ५.३२ वृ) (द्र रूक्ष) २. परमाणु की धनात्मक ऊर्जा ।
स्नेहकाय जल का सूक्ष्मतम रूप, जिसका प्रपात प्रतिक्षण होता रहता है
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स्पर्धकपति गण के अवान्तर विभाग का नायक।
(व्यभा २३४)
स्पर्श पुद्गल का एक लक्षण, जो स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। कायस्स फासं गहणं वयंति"।
(उ ३२.७४) फासस्स कायं गहणं वयंति"।
(उ ३२.७५) (द्र गन्ध)
स्पर्शनेन्द्रिय असंवर (आश्रव) कर्म-आकर्षण की हेतुभूत स्पर्शनेन्द्रिय की प्रवृत्ति।
(स्था १०.११) स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह प्रिय, अप्रिय स्पर्श में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह, जिसके द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। .""फासिंदियनिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसु फासेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ॥
(उ २९.६७)
स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष का एक प्रकार । स्पर्शनेन्द्रिय की सहायता से होने वाला स्पर्श का ज्ञान। (द्र इन्द्रियप्रत्यक्ष)
स्पर्शनक्रिया क्रिया का एक प्रकार । प्रमादवश छूने की प्रवृत्ति । प्रमादवशात् स्पृष्टव्यसञ्चेतनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया।।
(तवा ६.५.९) स्पर्शना अवगाढ क्षेत्र के बाहर भी अपने पार्श्ववर्ती आकाशप्रदेशों का स्पर्श, जैसे----एक परमाणु की स्पर्शना सात आकाशप्रदेशों की होती है। ""एगपएसं खेत्तं सत्तपएसा य सा फुसणा॥ यत्रावगाढस्तत् क्षेत्रमुच्यते, यत्त्ववगाहनातो बहिरप्यतिरिक्तं क्षेत्रं स्पृशति सा स्पर्शनाऽभिधीयते।
(विभा ४३२ वृ पृ २०८) आकाशप्रदेशैः पर्यन्तवर्तिभिः सह यः स्पर्शस्तत् स्पर्शनम्।
(तभा १.८ वृ)
स्पर्शनेन्द्रिय प्राण वह प्राण, जो छूने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६) स्पर्शनेन्द्रियरागोपरति अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ स्पर्श में राग का वर्जन और अमनोज्ञ स्पर्श में द्वेष का वर्जन करना।
(सम २५.१.२५) (द्र चक्षुरिन्द्रियरागोपरति) स्पर्शनेन्द्रिय संवर स्पर्शनेन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्मनिरोध ।
(स्था १०.१०)
स्पर्शनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के स्पर्श की व्यवस्था होती है। स्पृश्यते इति स्पर्शः,""स च कर्कशमृदुलघुगुरु-स्निग्धरूक्षशीतोष्णभेदादष्टप्रकार:, तन्निबन्धनं स्पर्शनामाप्यष्टप्रकारम्। तत्र यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु कर्कशः स्पर्शो भवति यथा पाषाणविशेषादीनां तत्कर्कशस्पर्शनाम, एवं शेषाण्यपि स्पर्शनामानि भावनीयानि।
(प्रज्ञा २३.५० वृ प ४७२)
स्पर्शनेन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (स्पर्शन) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा स्पृश्य का स्पर्श करती है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनाम- लाभावष्टम्भात् स्पर्शत्यनेनात्मेति स्पर्शनम्। (तवा २.१९)
स्पर्शपरिचारक सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव, जिनकी कामेच्छा देवी के स्पर्शमात्र से शांत हो जाती है। दोसुं कप्पेसु देवा फासपरियारगा पण्णत्ता, तं जहासणंकुमारे चेव माहिंदे चेव। (स्था २.४५७) स्पर्शादिपरिचारकाः स्पर्शादेरेवोपशान्तवेदोपतापा भवन्ति।
(स्थावृ प ९५) स्पर्शक
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अचित्त होने के कारण मुनि के लिए अभिलषणीय।
(भग १.४३८ भा) (द्र प्रासुक)
स्पृशद्गति वह गति, जिसमें एक परमाणुपुद्गल दूसरे परमाणुपुद्गलों व स्कंधों का स्पर्श करते हुए गति करता है। फुसमाणगती-जण्णं परमाणुपोग्गले दुपदेसिय जाव अणंत-पदेसियाणं खंधाणं अण्णमण्णं फुसित्ता णं गती पवत्तइ।
(प्रज्ञा १६.३९) तत्र परमाण्वादिकं यदन्येन परमाण्वादिकेन परस्परं संस्पृश्यसंस्पृश्य-संबंधमनुभूयानुभूयेत्यर्थः इति भावः गच्छति सा स्पृशद्गतिः।
(प्रज्ञावृ प ३२८)
और जिसका उपयोग 'वह' इस आकार में होता है। वासनोबोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः। (प्रमी १.२.३) २. वह चैतन्य-परिणति, जिसके द्वारा इन्द्रियों से परिच्छिन्न विषय की, कालान्तर में विनष्ट हो जाने पर भी स्मृति होती है। इन्द्रियैः यः परिच्छिन्नो विषयो रूपादिस्तं यत् कालान्तरेण विनष्टमपि स्मरति तत् स्मृतिज्ञानम्। (तभा १.१३ वृ) ३. वह चैतन्य-परिणति, जिसका आलम्बन अतीत की वस्तु है, जिसका कर्त्ता एक ही व्यक्ति होता है, जिसका अपर नाम मनोज्ञान है। अतीतवस्त्वालम्बनमेककर्तृकं चैतन्यपरिणतिस्वभावं मनोज्ञानमितियावत्।
(तभा १.१३ वृ) स्मृतिवर्जन ब्रह्मचर्य गुप्ति का छठा प्रकार। (स्था ९.३) (द्र पूर्वरतानुस्मरणवर्जन) स्मृति समन्वाहार प्रणिधानविशेष, स्मृति अथवा मन की एकतानता। किसी एक विषय में चित्त का निवेशन। स्मृतिसमन्वाहारो नाम “य आत्मनः प्रणिधानविशेषः स समन्वाहारः स्मृते: ।स्मृतिहेतुत्वाद् वा स्मृतिर्मनः। तस्याः स्मृतेः प्रणिधानरूपायाः समन्वाहरणं समन्वाहारः। "एकतानमनोनिवेशनम्।
(तभा ९.३१ वृ) अर्थान्तरचिन्तनादाधिक्येनाहरणमेकत्रावरोधः समन्वाहारः। स्मृतेः समन्वाहार: स्मृतिसमन्वाहारः। (तवा ९.३०)
स्पृष्ट १. वह कर्मपुद्गल, जिसका आत्मप्रदेशों के साथ संश्लेष हो
चुका।
कर्मरूपतया परिणमितस्य स्पृष्टस् आत्मप्रदेशैः सह संश्लेष-मुपगतस्य। (प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९) २. श्रोत्रेन्द्रिय का विषयभूत शब्द, जिसका ग्रहण श्रोत्र के स्पर्श मात्र से होता है। पुटुं सुणेइ सई"।
(नन्दी ५४.४) 'स्पृष्टमिति' आलिङ्गितम्, तनौ रेणुवत्, 'शृणोति' गृह्णाति।
(नंदीहावृ पृ ५७) स्फोटन कर्म कर्मादान का एक प्रकार। १. भूमि का खनन। २. यव आदि धान्यों का सत्तू आदि बनाकर किया जाने वाला विक्रय। 'फोडि'त्ति स्फोटनकर्म-वापीकूपतडागादिखननं यद्वा हलकुद्दालादिना भूमिदारणं पाषाणादिघट्टनं वा, यवादिधान्यानां सक्त्वादिकरणेन विक्रयो वा। (प्रसावृ प ६२) ३. पटाखे, आतिशबाजी आदि बारुद की चीजों से आजीविका करना।
स्यात् क्रियाप्रतिरूपक अव्यय । द्रव्यमीमांसा में इसका प्रयोग अपेक्षा की सूचना के लिए किया जाता है। णियमणिसेहणसीलो णिपादणादो य जो ह खल सिद्धो। सो सियसहो भणिओ जो सावेक्खं पसाहेदि॥
(नच २५३)
स्याद् अवक्तव्य एक वस्त, जिसके अनेक पर्यायों की वक्तव्यता एक साथ नहीं की जा सकती, जैसे--द्विप्रदेशी स्कन्ध के स्व-पर स्वरूप तथा वर्तमान, भूत और भावी पर्याय को एक साथ कहा नहीं जा सकता, इस अपेक्षा से स्यात् अवक्तव्य है।
स्मृतिज्ञान १. वह ज्ञान, जिसकी उत्पत्ति का हेतु है संस्कारों का जागरण
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्वं दुपएसिए खंधे-आयाति य नोआयाति य।
(भग १२.२१९)
स्वभाव पर्याय वस्तु का वह परिणमन, जो निसर्ग से होता है, जिसमें किसी परनिमित्त की अपेक्षा नहीं होती। परनिमित्तानपेक्षः स्वभावपर्यायः। (जैसिदी १.४४)
स्याद्वाद एक धर्म की अपेक्षा और शेष सब धर्मों की उपेक्षा कर अनन्त धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादन की पद्धति। अर्पणानर्पणाभ्यामनेकान्तात्मकार्थप्रतिपादनपद्धतिः स्याद्वादः।
(भिक्षु ४.७)
स्याद्वाद श्रुत वह श्रुत, जिसके द्वारा सम्पूर्ण अर्थ (अनेकान्तात्मक वस्तु) का निश्चय होता है। नयानामेकनिष्ठानां, प्रवृत्तेः श्रुतवर्त्मनि। सम्पूर्णार्थविनिश्चायि, स्याद्वादश्रुतमुच्यते॥
(न्याया ३०)
स्वयंबुद्ध वह मुनि, जो बाह्य निमित्त के बिना प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा स्वीकार करता है। बाह्यप्रत्ययमन्तरेण ये प्रतिबुद्धास्ते स्वयंबुद्धा।
. (नन्दीचू पृ २६) स्वयंबुद्धसिद्ध वह सिद्ध, जो स्वयंबुद्ध की अवस्था में मुक्त होता है।
(नन्दी ३१) (द्र स्वयंबुद्ध) स्वयमेव अवग्रह अनुग्रहण अचौर्य महाव्रत की एक भावना। अनुज्ञात अवग्रह को स्वयं स्वीकार करना, उसमें रहना। ज्ञातायां च सीमायां स्वयमेव उग्गहण' मिति अवग्रहस्यानुग्रहणता पश्चात्स्वीकरणमवस्थानमित्यर्थः ।
(सम २५.१.१३ वृ प ४३)
स्वकायशस्त्र वह सजीव अथवा निर्जीव द्रव्य, जिसके प्रयोग से अपनी ही जाति (काय) के प्राणी का प्राण-वियोजन होता है, जैसे-काली मिट्टी पीली मिट्टी का शस्त्र है। स्वकायशस्त्रम्-यथा कृष्णमत्तिका पीतमत्तिकायाः। परकायशस्त्रम्-यथा अग्निः । तदुभयशस्त्रम्-यथा मृत्तिकामिश्रितजलम्।
(आभा १.१९)
स्वदारसंतोष गृहस्थधर्म का चौथा व्रत, जिसमें स्वपत्नी (स्व पति) के अतिरिक्त मैथुन विधि का प्रत्याख्यान किया जाता है। सदारसंतोसीए परिमाणं करेइ नन्नत्थ एक्काए सिवनंदाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहणविहिं पच्चक्खाइ।
(उपा १.२७) स्वप्ननिमित्त अष्टांगमहानिमित्त का एक प्रकार। पश्चिम रात्रि के समय आने वाले स्वप्नों के आधार पर भावी सुख-दुःख का निश्चय करने वाला शास्त्र। वातपित्तश्लेष्मदोषोदयरहितस्य पश्चिमरात्रिभागे चन्द्रसूर्यधराद्रिसमुद्रमुखप्रवेशन""आगामिजीवितमरणसुखदुःखाद्याविर्भावकः स्वप्नः।
(तवा ३.३६)
स्वयम्भूरमण तिर्यग् लोक में विद्यमान असंख्येय समुद्रों में अंतिम समुद्र। ..."असंख्येया द्वीपसमुद्राः स्वयम्भूरमणपर्यन्ता वेदितव्याः।
(तभा ३.७) स्वरनिमित्त अष्टांगमहानिमित्त का एक प्रकार। स्वर-अक्षरात्मक शब्दों अथवा पशु-पक्षियों के अनक्षरात्मक शब्दों के आधार पर इष्ट-अनिष्ट फल का निरूपण करने वाला शास्त्र। अक्षरानक्षरशुभाशुभशब्दश्रवणेनेष्टानिष्टफलाविर्भावनं महानिमित्तं स्वरम्।
(तवा ३.३६)
स्वलक्षण दोष वाददोष का एक प्रकार। वस्तु के निर्दिष्ट लक्षण में अव्याप्त अथवा अतिव्याप्त दोष होना। लक्ष्यते तदन्यव्यपोहेनावधार्यते वस्त्वनेनेति लक्षणं, स्वं च
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश 329 ससमयवत्तव्वया। (अनु 606) तल्लक्षणंच स्वलक्षणं"लक्षणदोषोऽव्याप्तिरतिव्याप्तिर्वा। (स्था 10.94 व प 467) स्वलिंगसिद्ध वह सिद्ध, जो जैन मुनि के वेश में मुक्त होता है। 'सलिंगसिद्धा' दव्वलिंगंप्रति रजोहरण-मुहपोत्ति-पडिग्गहधारणं सलिंगं, एतम्मि दव्वलिंगे द्विता एतातो वा सिद्धा सलिंगसिद्धा। (नन्दी 31 चू पृ 27) स्वस्मृति वह स्मृति, जिससे पूर्वजन्म का स्मरण होता है। .."सहसम्मुइयाए। (आ 1.3) केचिच्छिशवः बाल्यावस्थायामेव पूर्वजन्मनः सहसां स्मृति प्राप्ता भवन्ति। (आभा पृ१९) स्वहस्त क्रिया क्रिया का एक प्रकार / दूसरे के द्वारा करने योग्य क्रिया के अभिमानवश स्वयं करना। स्वहस्तक्रिया अभिमानारूषितचेतसाऽन्यपरुषप्रयत्ननिर्वत्य या स्वहस्तेन क्रियते। (तभा 6.67) स्वसमय 1. वह आत्मा, जो अपने स्वभाव में वर्तमान है, ज्ञानदर्शन-चारित्र में स्थित है, मोह आदि में परिणत नहीं है। जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिगत्ति णिद्दिट्ठा। आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा॥ (प्रव 2.2) जीवो चरित्तदंसणणाणट्रिउ, तं हि ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च, तं जाण परसमयं // (ससा 2) 2. जैन सिद्धांत। (औप 26 वृ प 63) (द्र आत्मवाद) स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया पारितापनिकी क्रिया का एक प्रकार / अपने हाथ से अपने य पराए शरीर को परिताप देना। स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपारितापनिकी। (स्था 2.10 वृ प 38) स्वसमयपरसमयवक्तव्यता प्रज्ञापन की वह विधा, जिसमें अपने व दूसरे दार्शनिक सिद्धान्तों का तुलनात्मक प्रतिपादन किया जाता है। जत्थ ससमए परसमए आघविज्जइ पण्णविज्जइसे तं ससमयपरसमयवत्तव्वया। (अनु 608) स्वाख्यात धर्म वह धर्म, जो श्रुतअध्ययन, एकाग्रता और तप से युक्त है। तिविहे भगवता धम्मे पण्णत्ते, तं जहा-सुअधिज्झिते सुन्झा- इते, सुतवस्सिते।"से सुअधिज्झिते "सुयक्खाते ण भगवता धम्मे पण्णत्ते। (स्था 3.507) .""यदेतत् स्वधीतादित्रयं भगवता वर्द्धस्वामिना धर्मः प्रज्ञप्त 'से' त्ति स स्वाख्यातः सुष्ठूक्तः सम्यग्ज्ञानक्रियारूपत्वात्। (स्थावृ प 163, स्वसमयप्रज्ञापक वह मुनि, जो इन्द्रियगम्य अथवा स्थूल विषयों के लिए हेतु या तर्क का प्रयोग करता है और अतीन्द्रिय अथवा सूक्ष्म विषयों के लिए आगम अथवा अहेतुवाद का प्रयोग करता जो हेउवायपक्खंमि हेउओ, आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ, सिद्धंतविराहओ अन्नो॥ (सप्र 3.45) स्वादिम 1. आहार का एक प्रकार / स्वाद अथवा मुखशुद्धि के लिा प्रयुक्त की जाने वाली वस्तुएं, जैसे-लौंग, इलायची आदि स्वादः प्रयोजनमस्येति स्वादिमं–ताम्बूलादि। (स्था 4.288 वृ प 220 2. लेह्य पदार्थ। (तवा 7.21 (द्र खादिम, उपवास) स्वसमयवक्तव्यता प्रज्ञापन की वह विधा. जिसमें अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है। जत्थ णं ससमए आघविजइ पण्णविज्जइ... से तं स्वाद्य (द्र स्वादिम)
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________________ 330 जैन पारिभाषिक शब्दकोश स्वाध्याय आभ्यन्तर तप (निर्जरा) का एक प्रकार। श्रुतग्रंथों का अध्ययनअध्यापन। श्रुतस्याध्ययनं स्वाध्यायः। (जैसिदी 6.40) हडो णाम वणस्सइविसेसो, सो दहतलागादिसु छिन्नमूलो भवति तथा वातेण य आइद्धो इओ इओ य निज्जाइ। (द 2.9 जिचू पृ८९) हरितसूक्ष्म वह अंकुर, जो पृथ्वी के समान वर्ण वाला और दुर्जेय होता सुहुमं। स्वाध्याय मण्डली मण्डली का एक विभाग। इस व्यवस्था के अनुसार श्रमण गुरु के साथ विधिपूर्वक सामूहिक स्वाध्याय करते हैं। (द्र मण्डली) स्वानुदयबन्धिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध अपने अनुदय-काल में ही होता है, जैसे-देवायु, तीर्थंकर नामकर्म आदि। स्वस्यानुदय एव बन्धो यासां ताः स्वानुदयबन्धिन्यः / (कप्र पृ 40) स्वार्थानुमान हेतु के ग्रहण और व्याप्ति के स्मरण से होने वाला साध्य का विज्ञान। तत्र हेतुग्रहणसंबंधस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम्। (प्रनत 3.10) (द्र परार्थानुमान) स्वोदयबन्धिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध अपने उदय-काल में ही होता है, जैसे-मतिज्ञानावरण, मिथ्यात्वमोहनीय आदि। स्वोदय एव बन्धो यासां ताः स्वोदयबन्धिन्यः। (कप्र पृ४०) जो अहुणुट्ठियं पुढविसमाणवण्णं दुविभावणिज्जं तं हरिय (द 8.15 जिचू पृ 278) हरिवर्ष जम्बूद्वीप द्वीप का वह क्षेत्र, जो निषध वर्षधरपर्वत के दक्षिण में, महाहिमवान् वर्षधरपर्वत के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में स्थित है। इस क्षेत्र के निवासी मनुष्य सिंह के वर्णवाले होते हैं। णिसहस्सवासहरपब्वयस्स दक्खिणेणं, महाहिमवंतस्सवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते। (जं 4.81) हरिः सिंहस्तस्य शुक्लरूपपरिणामित्वात् तद्वर्णमनुष्याधुषितत्वाद्धरिवर्ष इत्याख्यायते। (तवा 3.10.8) हस्तिरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न। अत्यन्त वेग और महान् पराक्रम से युक्त हाथी। (आवचू 1 पृ 184) (द्र अश्वरत्न) हाकार प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार। 'हा! तूने यह क्या किया?' ऐसा कहना। 'ह' इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हक्कारः। (स्था 7.66 वृ प 378) hoo हक्कार प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार। (स्था 7.66 वृ प 378) (द्र हाकार) हाडहडा आरोपणा प्रायश्चित्त का एक प्रकार। प्राप्त प्रायश्चित्त को शीघ्र देना। पविता ठविता या कसिणाकसिणा तहेव हाडहडा। आरोवणा पंचविहा॥ (व्यभा 599) (द्र आरोपणा प्रायश्चित्त) वह मूलरहित वनस्पति, जो द्रह, तालाब आदि में होती है तथा वायु के द्वारा प्रेरित होकर इधर-उधर हो जाती है।
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश 331 हायनी हिंस्रप्रदान शतायु जीवन की छठी दशा। छठा दशक, जिसमें मनुष्य अनर्थदण्ड का एक प्रकार / दूसरों को हिंसाकारक शस्त्र आदि भोगों से विरक्त होने लगता है और इन्द्रियबल तथा बाहुबल समर्पित करना। क्षीण हो जाता है। हिंस्त्रं-हिंसाकारि शस्त्रादि तत्प्रदान-परेषां समर्पणम्। छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। (उपा 1.30 वृ पृ९) विरज्जइ य कामेसु, इंदिएसु य हायई।। हिमवान् वर्षधर (दहावृ प८) हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षुर्वा हायणी। (दशाचू प 3) (द्र क्षुद्रहिमवान् वर्षधर) हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम हास्य इच्छापरिमाण व्रत का एक अतिचार / स्वर्ण, रजत आदि के नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय स्वीकृत परिमाण का अनजान में अथवा अतिलोभ के कारण से सनिमित्त या अनिमित्त हास्य उत्पन्न होता है। किया जाने वाला अतिक्रमण। यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तत्कर्म हास्यम्। (उपा 1.36) (स्था 9.69 वृ प 445) हीनप्रेषण हास्यविवेक आज्ञा की अवहेलना करने वाला, जो आचार्य की आज्ञा को सत्य महाव्रत की एक भावना। हास्य का विवेक करना, देश, काल आदि के बहाने से हीन कर देता है। हीणपेसणं णाम जो य पेसण आयरिएहिं दिन्नं तं देसहास्य का प्रत्याख्यान करना। कालादीहिं हीणं करेति त्ति हीणपेसणे। हास्यं हसनं-मोहोद्भवः परिहासस्तत्परिणतो ह्ययमात्मा परि-हसन् परेण सार्धमलीकमपि ब्रूयात्, तस्य परिजिहीर्षया (द 9.2.22 जिचू पृ 317) च हास्यप्रत्याख्यानमभ्युपेयम्। (तभा 7.3 7) हीनाक्षर हासंन सेवियव्वं"एवं मोणेण भाविओ भवड अंतरप्या। ज्ञान का एक अतिचार। अक्षरों को न्यून कर उच्चारण करना। (प्रश्न 7.21) (आव 4.8) हिंसा हीयमान अवधिज्ञान प्रमत्त योग से किसी जीव के प्राणों का व्यपरोपण करना। अवधिज्ञान का एक प्रकार, जो उत्पन्न होकर संक्लिष्ट परिणाम प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। (तसू 7.13) के कारण घट जाता है। हायमाणयं ओहिनाणं-अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणट्ठाणेहिं हिंसादण्ड वट्टमाणस्स वट्टमाणचरित्तस्स, संकिलिस्समाणस्स संकिलिक्रिया का एक प्रकार प्रतिशोध, प्रतिकार और संभावना की स्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओही परिहायइ। दृष्टि से की जाने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति। (नन्दी 19) अण्णं वा अणियं वा हिंसिंसु वा हिंसंति वा हिंसिस्संति हुण्ड वा तं दंडं'"हिंसादंडवत्तिए त्ति आहिए। (सूत्र 2.2.5) वह अपलक्षणयुक्त पात्र, जो कहीं से निम्न और कहीं से हिंसानुबन्धी उन्नत होता है। ऐसा पात्र चारित्र का भेदन करता है अतः रौद्रध्यान का एक प्रकार, जिसमें हिंसा का अनुबन्ध-सतत धारणीय नहीं है। प्रवर्तन हो। अपलक्षणोपेतमुच्यते- 'हुण्डं' क्वचिन्निम्नं क्वचिदुन्नतं 'हिंसाणुबंधि'."हिंसा-सत्त्वानां वधबन्धनादिभिः प्रकारैः / यत्तदधारणीयं"। (ओनिवृ प 211) पीडामनुबध्नाति-सततप्रवृत्तं करोतीत्येवंशीलं यत्प्रणिधानं हुंडे चरित्तभेदो। (ओनि 688) हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तद्धिंसानुबन्धि रौद्रध्यान। (स्था ४.६३वप१७८te & Personal use only " का
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________________ 332 जैन पारिभाषिक शब्दकोश हुण्डक संस्थान संस्थान का एक प्रकार / असंतुलित शरीर-रचना। यत्र पादाद्यवयवा यथोक्तप्रमाणविसंवादिनः प्रायस्तद्धण्डकसंस्थानम्। (तभा 8.12 वृ) हुण्डावसर्पिणी अवसर्पिणीकाल का वह सर्वाधिक दुःखबहुल कालखण्ड, जो असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल के व्यतीत होने पर आता है। अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकालसलाया गदे यसंखाणिं। हुंडावसप्पिणी सा एक्का जाएदि // (त्रिप्र 4.1615) सव्वोसप्पिणीहितो अहमा हुंडोसप्पिणी। (धव पु 3 पृ९८) हताहतिका चोर द्वारा हरण की हुई वस्तु को ग्रहण करना। स्तेनानीतप्रतीच्छा हताहतिका भण्यते स्तेनैर्हतस्य स्तेनहरणं"। (व्यभा 3767 वृ) हेतु साधन का कथन, जिसकी अन्यथानुपपत्ति निश्चित हो, जैसेअग्नि का अभाव होने पर धूम का न होना। साधनवचनं हेतुः। (प्रमी 2.1.12) निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः। (प्रनत 3.11) तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा॥ भविओ सम्मइंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नो। णियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स। (सप्र 3.43,44) हेतुविपाक कर्मप्रकृति का एक प्रकार। वह कर्म-प्रकृति, जिसका विपाक द्रव्य, क्षेत्र आदि हेतुओं के आधार पर होता है। हेतमधिकृत्य विपाको निर्दिश्यमानो यासांता: हेतविपाकाः। (कप्र पृ 37) हेतूपदेश संज्ञिश्रुतज्ञान का एक प्रकार। पूर्वापर विमर्श कर प्रवृत्तिनिवृत्ति करने की शक्ति। हेऊवएसेणं-जस्स णं अस्थि अभिसंधारणपुब्विया करणसत्ती-से णं सण्णीति लब्भड़। (नंदी 63) हेतुगम्य वह पदार्थ, जो हेतु अथवा तर्क का विषय बनता है। (जैमी 1.6 पृ 140) हेतुदोष वाददोष का एक प्रकार। हेतु का दूषित होना, जैसे-असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक। हेतुदोषोऽसिद्धविरुद्धानैकान्तिकत्वलक्षणः / (स्था 10.94 वृ प 467) हेत्वाभास जो हेतु नहीं है, किन्तु हेतु के समान प्रतीत होता है। अहेतवो हेतुवदाभासमानाः हेत्वाभासाः। (प्रमी 2.16) (द्र हेतुदोष) हैमवत जम्बूद्वीप द्वीप का वह क्षेत्र, जो महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वत के उत्तर में तथा पूर्व लवणसमुद्र के पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में अवस्थित है। महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरस्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चस्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते। (जं 4.55) हैरण्यवतवर्ष जम्बूद्वीप द्वीप का वह क्षेत्र, जो रुक्मी पर्वत के उत्तर में, शिखरी पर्वत के दक्षिण में, पूर्वी लवण समुद्र के पश्चिम में और पश्चिमी लवण समुद्र के पूर्व में स्थित है। रुप्पिस्स उत्तरेणं सिहरिस्स दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेरण्णवए वासे पण्णत्ते। (जं 4.271) हेतुवाद प्ररूपणा का वह सिद्धांत, जहां दृष्टांत, हेतु अथवा तर्क का / प्रयोग किया जाता है। दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य।
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ह्रस्वकालस्थितिक वह कर्मबंध, जिसकी कालावधि ह्रस्व होती है, शुभ अध्यवसाय के द्वारा जिसकी दीर्घकालिक स्थिति के कण्डकों का अपहार किया जाता है। दीर्घकालस्थितिका ह्रस्वकालस्थितिका: प्रकरोतीति, शुभाध्यवसायवशास्थितिखण्डकापहारेणेति भावः। (उ 29.23 शावृ प५८५) ह्रीमनःसत्त्व वह पुरुष, जो विकट वेला में भी मन से विचलित नहीं होता। ह्रीमनःसत्त्वः-विकटवेलायामपि न मनसा कायरतां व्रजति। (आभा 6.45) (द्र ह्रीसत्त्व) ह्रीमना संयमी, जिसका मन अनाचार का सेवन करते हुए गरुजनों तथा लोकव्यवहार से लज्जा का अनुभव करता है। ह्री-लज्जा संयमो“तत्र मनो यस्यासौ ह्रीमनाः यदि वा अनाचारं कुर्वन्नाचार्यादिभ्यो लज्जते सः / (सूत्र 1.13.6 वृ प 240) ह्रीसत्त्व वह पुरुष, जो विकट परिस्थिति में भी लज्जावश कायर नहीं होता। ह्रीसत्त्वः-विकटपरिस्थितावपि लज्जावशात् न कातरतां व्रजति। (आभा 6.45) / 000 //
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________________ प्रयुक्त ग्रंथ सूची क्र. सं. ग्रन्थ का नाम लेखक, संपादक, अनुवादक संस्करण प्रकाशन अंगसुत्ताणि (भाग-१) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) अंगुसत्ताणि (भाग-२) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) अंगसुत्ताणि (भाग-३) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) वा. प्र. आचार्य तुलसी वि. सं. 2049 सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी वि. सं. 2031 सं. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी वि. सं. 2037 सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. गणाधिपति तुलसी 1996 आचार्य महाप्रज्ञ पं. आशाधर 1977 जिनदास महत्तर 1928 अणुओगदाराई जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) अनगार धर्मामृत अनुयोगद्वार चूर्णि अनुयोगद्वारवृत्ति अनुयोगद्वारवृत्ति अभिधान चिन्तामणि आचारांगभाष्यम् आचारांगवृत्ति हरिभद्र (द्र अनुयोगद्वार चूर्णि) मलधारी हेमचन्द्रसूरि 1939 हेमचन्द्राचार्य 1996 भाष्यकार-आचार्य महाप्रज्ञ 1994 श्री शीलांकाचार्य 1934 भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी ऋषभदेवजी, केशरीमलजी, श्वेताम्बर संस्था, रतलाम केशरीमलजी केशरदेवी, ज्ञानमंदिर, पाटन चौखाम्बा विद्याभवन, वाराणसी जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) श्रीसिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, मुम्बई ऋषभदेवजी, केशरीमलजी, श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) श्री भैरुलाल, कन्हैयालाल कोठारी, धार्मक ट्रस्ट, बम्बई 10. आवश्यक चूर्णि जिनदासगणी सन् 1929 11. आवश्यक नियुक्ति भद्रबाहु वि. सं. 2038 12. 13. आवश्यकनियुक्तिवृत्ति आवश्यकनियुक्तिवृत्ति उत्तरज्झयणाणि हरिभद्रसूरि श्री मलयगिरि वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. आचार्य महाप्रज्ञ गोपालगणिमहत्तर शिष्य 1928 2000 आगमोदय समिति, मुम्बई जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) - उत्तराध्ययन चूर्णि 1998 ऋषभदेवजी, केशरीमलजी श्वे. संस्था, रतलाम श्री देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भांडागार, बम्बई 16. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति शान्त्याचार्य 1972, 73
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________________ 336 जैन पारिभाषिक शब्दकोश/प्रयुक्त ग्रंथ सूची 17. 18. उत्तराध्ययन सुखबोधा वृत्ति श्री नेमीचन्द्र उपासकाध्ययन सोमदेव सूरि उवंगसुत्ताणि खण्ड 1,2 वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ओघनियुक्ति भद्रबाहु स्वामी 1937 1964 2044, 2045 सेठ पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र, बालापुर भारतीय ज्ञानपीठ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) 20. 1957 वि. सं. 1994 21. 22. औपपातिक वृत्ति कर्मग्रन्थ अभयदेवसूरि सुखलालजी सिंघवी श्रीमद् विजयदान सूरीश्वरजी जैन ग्रन्थमाला पं. दयाविमलजी जैन, ग्रन्थमाला श्री वर्धमान स्थानकवासी, जैन धार्मिक शिक्षा समिति, बड़ौत (मेरठ) 23. कर्मप्रकृति कषायपाहुड़ सं. प. फूलचन्द, कैलाशचन्द्र 1958 भारतीय दिगम्बर जैन संघ चौरासी, मथुरा परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास श्री सेन्ट्रल जैन पब्लिकेशन 25. 26. कार्तिकेयानप्रेक्षा गोम्मटसार जीवकाण्ड स्वामिकुमार 1990 नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती 1927 हाउस 27. जम्बृद्धोपप्रज्ञप्ति वृत्ति शान्तिचन्द्रसूरिजी 1920 28. जीवाजीवाभिगमवृत्ति मलयगिरि 1919 29. 30. W AUU जैन तत्त्व विद्या आचार्य तुलसी जैन दर्शन : मनन और मीमांसा आचार्य महाप्रज्ञ जैन सिद्धान्त दीपिका आचार्य तुलसी ज्ञातधर्मकथा वृत्ति अभयदेवसूरि 1994 1995 1998 1951 सेठ देवचन्द्र लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई सेठ देवचन्द्र लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई आदर्श साहित्य संघ, चूरू आदर्श साहित्य संघ, चूरू आदर्श साहित्य संघ, चूरू श्रीसिद्धचक्र साहित्यप्रचारक समिति जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) 0 32. m 1985 वि. सं. 2033 34. ठाणं 35. 1953, 1957 भारतीय ज्ञानपीठ, काशी झीणी चर्चा जयाचार्य सं. मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) तत्त्वार्थवार्तिक भाग 1,2 / / अकलंक देव सं. प्रो. महेन्द्रुमार जैन तत्त्वार्थ वृत्ति श्रुतसागरसूरि तत्त्वार्थाधिगम भाष्यवृत्ति सिद्धसेनगणि भाग 1,2 तिलोयपण्णत्ती यति वृषभाचार्य 36. तृ. सं. 2802 1926, 1930 37. भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी देवचन्द्र लालभाई जैन, पुस्तकोद्धार फण्ड,, बम्बई जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर 38. 1999
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश/प्रयुक्त ग्रंथ सूची 337 39. दसवेआलियं जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) 40. दसवेकालियसुत्तं नियुक्ति, चूर्णिसहित दशवैकालिक चूर्णि वा. प्र. आचार्य तुलसी 1974 सं. मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) भद्रबाहु स्वामी 1973 चू अगस्त्यसिंह स्थविर जिनदास महत्तर 1933 1983 42. 43. दशवैकालिक नियुक्ति दशवैकालिक वृत्ति / हरिभद्रसूरि प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, अहमदाबाद श्रीऋषभदेव केशरीमलजी, श्वे. संस्था, रतलाम प्राकृत ठेवस्टसोसायटी, अहमदाबाद देवचन्द्र लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई परश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, आगास श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी 44. द्रव्यानुयोगातर्कणा श्रीमद् भोजकवि 1977 45. द्वादशारनयचक्रम् मुनि जम्बूविजय ई. सन् 1988 धवला वीरसेनाचार्य 1985 नयचक्र 1971 माइल्लधवल सं. कैलाशचन्द्रशास्त्री आचार्य भिक्षु 48. नवपदार्थ 1961 1917 1966 जैन विश्व भारती, संस्थान लाडनूं (राज.). गोम्मटसार जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं (राज.) प्राकृत ग्रंथ परिषद् वाराणसी, अहमदाबाद प्राकृत टेस्ट सोसायटी, वाराणसी आगमोदय समिति, सूरत जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) 51. 1966 1919 2057 नन्दी वा. प्र. गणाधिपति तुलसी सं. आचार्य महाप्रज्ञ नन्दीचूर्णि (नन्दीसुत्तं) जिनदासगणी सं. मुनि पुण्यविजयजी नन्दी वृत्ति हरिभद्रसूरि नन्दी वृत्ति मलयगिरि नवसुत्ताणि वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ नायाधम्मकहाओ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ नियमसार कुन्दकुन्दाचार्य नियुक्ति पंचक, दशवै, उत्त., वा. प्र. आचार्य तुलसी आचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रुतस्कन्ध निर्वाणकलिका पादलिप्त 54. 2003 जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) वि. सं. 2023 1999 मूलचंद किसनदास कापड़िया जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) 57.
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________________ 338 जैन पारिभाषिक शब्दकोश/प्रयुक्त ग्रंथ सूची 58. निशीथ सूत्रम् भाष्य व चूर्णिसहित न्यायकुमुदचन्द्र सं. उपाध्याय कविश्री अमरमुनि 1982 मुनि श्री कन्हैयालाल कमल आ. प्रभाचन्द्र सन् 1938 सं. 1995 59. न्यायदीपिका 2001 61. ه upurww न्यायावतार पंचसंग्रह पंचाशक पिण्ड नियुक्ति सिद्धसेन दिवाकर हीरालाल जैन हरिभद्रसूरि भद्रबाहु स्वामी 1976 2017 1997 1958 ه ه 65. प्रज्ञापना वृत्ति श्रीमन्मलयगिरि 1918 सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई अभिनव धर्मभूषणयति प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली परमश्रुत प्रभावक मंडल भारतीय ज्ञानपीठ, काशी पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी देवचन्द्र लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार आगमोदय समिति, मेहसाणा, गुजरात सरस्वती पुस्तक भंडार, अहमदाबाद जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ, गोपीपुरा, संघसूरत आगमोदय समिति आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर, गुजरात 66. प्रमाण मीमांसा हेमचन्द्राचार्य 1989 67. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार वादिदेवसूरि 1967 8. प्रवचनसारोद्धार श्रीमन्नेमिचन्द्रसूरि टी. सिद्धसेनसूरि उदयप्रभसूरि 69. प्रवचनसारोद्धार 1988 70. 71. प्रश्नव्याकरण वृत्ति बृहत्कल्पभाष्यम् अभयदेवूसरि 1919 स्थविर आर्यभद्रबाहु (स्वोपज्ञनियुक्ति, संघदासगणि सं. भाष्यसहित) नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव 1989 72. बृहद्रव्य संग्रह श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, आगास 73. 74. बृहत् संग्रहणी भगवई विआहपण्णत्ती (खण्ड-१,२,३,४) जैन विश्व भारती, संस्थान, लाडनूं (राज.) वा. प्र. गणाधिपति तुलसी ई. सन् 1994, भाष्यकार-आचार्य महाप्रज्ञ 2000,2005, 2007 आचार्य श्री शिवार्य 1978 जिनदास महत्तर अभयदेवसूरि 15 जैन संस्कृति संरक्ष्सक संघ 76. 77. भगवती आराधना भगवती चूर्णि भगवती वृत्ति आगमोदय समिति, बम्बई
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश/प्रयुक्त ग्रंथ सूची 339 78. भावसंग्रह भिक्षुन्यायकर्णिका मनोनुशासनम् मूलाचार योगशतक योगशास्त्र 85. राजप्रश्नीय वृत्ति विशेषावश्यक भाष्य विशेषावश्यक वृत्ति 87. व्यवहार भाष्य श्रीमद्देवसेन रावजी सखाराम दोशी फलटण गली, सोलापुर आचार्य तुलसी 1970 आदर्श साहित्य संघ, चूरू आचार्य तुलसी 1998 आदर्श साहित्य संघ, चूरू वट्टकेरस्वामी 1998 भारतवर्षीयअनेकांतविद्वद् परिषद् हरिभद्रसूरि हेमचन्द्रसूरि जैन साहित्य विकास मण्डल, मुम्बई मलयगिरि 1994 शंभुलाल शाह, अहमदाबाद जिनभद्रगणी वी. सं. 2489 दिव्यदर्शन कार्यालय, अहमदाबाद मलधारी हेमचन्द्रसूरि वी. सं. 2489 दिव्यदर्शन कार्यालय अहमदाबाद वा. प्र. गणाधिपति तुलसी 1996 जैन विश्व भारती, संस्थान, सं. आचार्य महाप्रज्ञ लाडनूं (राज.) मलयगिरि 1928 वकील त्रिकमलाल, अगरचन्द, सं. मुनि माणेक अहमदाबाद कर्ता-पुष्पदन्त भूतबलि, सन् 1942 सेठ शीतलराय लक्ष्मीचन्द्र वीरसेनाचार्यकृत धवला टीका अमरावती (महाराष्ट्र) सं. हीरालाल जैन हरिभद्र सूरि वि. सं. 2038 सिद्धसेन दिवाकर आचार्य कुन्दकुन्द सन् 1989 भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी पं. पन्नालाल जैन 1974 परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास वा. प्र. आचार्य तुलसी 1984 जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ अभयदेवसूरि 1938 सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद आचार्य पूज्यपाद 1974 जैन संस्कृति संरक्षक संघ, व्यवहारभाष्यवृत्ति 89, षट्खण्डागम धवला टीका सहित 91. 92. षड्दर्शन समुच्चय सन्मतितर्क प्रकरण समयसार समयसारप्राभृत समवाओ समवाओ वृत्ति 96. समाधिशतक सोलापुर 97. 98. सर्वार्थसिद्धि सूत्रकृतांग चूर्णि आचार्य पूज्यपाद जिनदासगणि सन् 2005 1998 भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी श्रीऋषभदेवजी केशरमलजी श्वे. संस्था, रतलाम गोड़ी पार्श्व जैन ग्रन्थमाला जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) सूत्रकृतांग वृत्ति 100. सूयगडो भाग 1 शीलंकाचार्य 1950 वा. प्र. आचार्य तुलसी 1984 सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
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________________ 340 जैन पारिभाषिक शब्दकोश/प्रयुक्त ग्रंथ सूची 101. सूयगडो भाग 2 1986 वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. आचार्य महाप्रज्ञ अभयदेवसूरि 102. स्थानांगसूत्रवृत्ति 1937 अनेकांत शोधपीठ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास 103. स्याद्वादमञ्जरी मल्लिषेणसूरि सन् 1992 सं. 2098
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश/चित्र 341 अधोलोक अर्धचक्रवाल श्रेणि ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी ऊर्ध्वलोक + ---- ऋजुआयता श्रेणि एकत:खा श्रेणि एकतोवक्रा श्रेणि छत्र + Right Upper cosmos Trasanidi SW Left + वसनाड़ी Lower cosmos द्विधाखा श्रेणि रुचक प्रदेश द्विधावक्रा श्रेणि 2lakh Yojana /1lakh Yojant वज्रऋषभनाराच संहनन LS पल्य लवणसमुद्र
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________________ 342 जैन पारिभाषिक शब्दकोश/चित्र संभिन्नलोकनाडी Loka लोक सुप्रतिष्ठक संस्थान - कृष्णराजि त्रिकोण कृष्णराजी 8. सुप्रतिष्ठाम चतुष्कोण कृष्णराजी 6. सूराम चतुष्कोण कृष्णराजी 7. शुक्राम 1. अर्चि E.रिष्ट पश्चिमा षट्कोण कृष्णराजी षट्कोण कृष्णराजी 3. वैरोचन | चतुष्कोण कृष्णराजी 2. अर्चिमाली og lan 8 - - lakta
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश/चित्र 343 तपदिन पारणा पारणा सर्वदिन 1616 2 28|14|14| سه تن سهم انه لن 20 2 | 2 | 2/2/2/2/2/10 - गुणरत्नसंवत्सर तप O S तिर्यग्लोक चक्रवाल श्रेणि कपाट
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश/चित्र तमस्काय ईशान अब नामक विमान হই। अचिपाली विमान 2 आदित्यदेवर, प्रथप युगल 700 देवतो अग्नि परिवार विमान 1000 देव परिवार अव्यायाध देव पशुमि र अग्नेय देव सुविधा दिमान 7 बहन देव वेगेदन वरुणेन्द्र देव 2 अरिष्टान दिमान के दास 200 देव का परिवार रेष्टाभविमान গ্রাম दक्षिण उनकती कलाकार पर Alists प्रभकर विमान में द्वितीय युग्म 14000 SHAITaleraooo Hausite नैकल्य पश्चिम द्वितीय प्रत्तर 2 प्रथम प्रत्तर 1, T माहेन्द्र'४ सनतकुमार 3 | ईशाण२ सोधर्म१ पह...असंबर यातापसमूह वार होकर, वड महाNTS योजन मार्गावरता BAR र मालपासको में अरुणवर समुह मेरु बासर बम देवता के काम the योजन जाने के 22nly Rasib15
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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश/चित्र 345 श्रुतपुरुष दृष्टिवाद विपाकसूत्र प्रश्नव्याकरण अनुत्तरोपपातिक अन्तकृतदशा उपासकदशा ज्ञाताधर्मकथा व्याख्याप्रज्ञप्ति समवायांग स्थानांग सूत्रकृतांग आचारांग
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________________ 346 जैन पारिभाषिक शब्दकोश/चित्र देवलोक और नरकभूमि अनुत्तरविमान ग्रैवेयक आरण अच्युत प्राणत आनत सहस्रार महाशुक्र 26 देवलोक लान्तक ब्रह्मलोक माहेन्द्र सनत्कुमार ईशान सौधर्म मध्यलोक रत्नप्रभा R180,000 yojanas thenght: / शर्कराप्रभा 132,0001 बालुकाप्रभा 128,000 पप्रभा 7 नरकभूमि धूमप्रभा 118,000 तम:प्रभा ................... 108.0001
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________________ गणरस सारमाया जैन विश्व भारती जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय - 341306 (राज.)