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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
घ्राणेन्द्रियरागोपरति अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ गंध में राग का वर्जन और अमनोज्ञ गंध में द्वेष का वर्जन। (सम २५.१.२३) (द्र चक्षुरिन्द्रियरागोपरति) घ्राणेन्द्रिय संवर घ्राणेन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्मनिरोध ।
(स्था ५.१३७)
चक्ररत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो सभी आयुधों में श्रेष्ठ तथा दुर्दम शत्रु पर विजय पाने में समर्थ होता है। चक्रं समस्तायुधातिशायिदुर्दमरिपुजयकरम्।
(प्रसा १२१४ वृ प ३५०) चक्रवर्ती शलाकापुरुष का एक प्रकार। भरत क्षेत्र के छ: खण्ड भूमि का स्वामी, सार्वभौम सम्राट, इसका अस्त्र है चक्र। चक्री चालीस लाख अप्टापद की शक्ति से युक्त होता है। 'चक्रवर्ती' षट्खण्डभरताधिपः। (उशावृ प ३५०) चक्रवाल श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार। वह श्रेणि, जिसमें केवल पुद्गल (परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि) मंडलाकार (गोलाकार) में घूमकर उत्पन्न होता है। (देखें चित्र पृ३४३) 'चक्कवाल'त्ति चक्रवालं-मण्डलं, ततश्च यया मण्डलेन परिभ्रम्य परमाण्वादिरुत्पद्यते सा चक्रवाला, सा चैवम्।
(भग २५.९१ वृ)
तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा रूप का ग्रहण करता है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् पश्यत्यनेनात्मेति चक्षुः। (तवा २.१९) चक्षुरिन्द्रिय असंवर कर्म-आकर्षण की हेतुभूत चक्षुरिन्द्रिय की प्रवृत्ति।
(स्था १०.११) चक्षुरिन्द्रियनिग्रह प्रिय, अप्रिय रूप में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह। इसके द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। चक्खिदियनिग्गहेणं मणुनामणुन्नेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ॥
(उ २९.६४) चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष का एक प्रकार । चक्षुरिन्द्रिय की सहायता से होने वाला रूप का ज्ञान। (द्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष) चक्षुरिन्द्रिय प्राण वह प्राण, जो देखने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है।
(प्रसा १०६६) चक्षुरिन्द्रिय रागोपरति अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ रूप में राग का वर्जन और अमनोज्ञ रूप में द्वेष का वर्जन करना।
(सम २५.१.२२) पञ्चानामिन्द्रियार्थानां स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दानां मनोज्ञानां प्राप्तौ गाद्धर्यवर्जनममनोज्ञानां प्राप्तौ द्वेषवर्जनम्।
(तभा ७.३) चक्षुरिन्द्रिय संवर चक्षुरिन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्मनिरोध ।
(स्था ५.१३७)
चक्रवाल सामाचारी प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि नित्य कर्म का समाचरण। पडिलेहणा पमन्जण भिक्खिरियाऽऽलोगभुंजणा चेव। पत्तगधुवण वियारा थंडिल आवस्सयाईया।।
(प्रसा ७६८)
चक्षुरिन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (चक्षु) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम
चक्षुह्यविवर्जन ब्रह्मचर्य गुप्ति का चतुर्थ प्रकार।
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