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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अङ्गप्रविष्टश्रुत श्रुतज्ञान का एक भेद, जो वक्ता की अपेक्षा से किया गया है, जो द्वादशाङ्ग---गणिपिटक में समाहित है। सुयनाणपरोक्खं चोद्दसविहं......अंगपविटुं, अणंगपविटुं॥
(नन्दी ५५) अंगपविट्ठ दुवालसविहं पण्णत्तं.... ॥ (नन्दी ८०)
प्रकार। वह तीन प्रकार का है-आत्माङ्गल, उत्सेधाङ्गल, प्रमाणाङ्गल। से किं तं विभागनिप्फण्णे? विभागनिप्फण्णेगाहअङ्गल विहत्थि रयणी......॥ से कि तं अङ्गले ? अङ्गले तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयङ्गले, उस्सेहङ्गुले पमाणाङ्गुले॥ (अनु ३८८, ३८९) (द्र उत्सेधाङ्गुल) अङ्गष्ठ प्रश्न वह प्रश्नविद्या, जिसके माध्यम से अंगुष्ठ पर देवता को अवतीर्ण कर प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया जाता है। (द्र क्षौमकप्रश्न)
अङ्गबाह्य अनंगप्रविष्टश्रृत (उपाङ्ग), स्थविरों द्वारा निर्मित औपपातिक आदि आगम। (द्र अङ्ग)
अङ्गबाह्यश्रुत श्रुतज्ञान का एक भेद। तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-अंगपवि₹, अंगबाहिरं च॥
(नन्दी ७३) (द्र अङ्गबाह्य)
अङ्गार मांडलिक दोष का एक प्रकार, जो स्वादिष्ट भोजन और । उसके दाता की प्रशंसा करने से उत्पन्न होता है। इस दोष का सेवन करने वाला मुनि राग की अग्नि से चारित्र रूपी ईंधन को अङ्गारा बना देता है। तं होइ सइंगालं जं आहारेइ मुच्छिओ संतो। (पिनि ६५५) स्वाद्वन्नं तद्दातारं वा प्रशंसन् यद् भुङ्क्ते स रागाग्निना चारित्रेन्धनस्याङ्गारीकरणादङ्गारो दोषः ।
(योशा १.३८ वृ पृ१३८) अङ्गारकर्म कर्मादान का एक प्रकार। अग्नि के महारंभ वाला उद्योगकोयला बनाने और उसको बेचने का उद्योग। इंगाला निद्दहितुं विक्किणति। (आवहावृ २ पृ २२६) अंगाराणां करणविक्रयस्वरूपम् एवमग्निव्यापाररूपं यदन्यदपीष्टकापाकादिकं कर्म तदङ्गारकर्मोच्यते।
(भग ८.२४२ वृ)
अचक्षुर्दर्शन चक्ष के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों तथा मन से होने वाला सामान्य अवबोध। अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं-स्वस्वविषये सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम्। (प्रज्ञा २९. ३ वृ प ५२७) अचक्षुर्दर्शनावरण दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अचक्षुदर्शन
आवृत होता है। ...."अचक्षुर्दर्शनं तस्यावरणीयमचक्षदर्शनावरणीयम्।
(प्रज्ञा २३. १४ वृ प ४६७) अचरम जो जिस अवस्था को पुनः प्राप्त करेगा, वह उसके लिए अचरम है। जो जं पाविहिति पुणो भावं, सो तेण अचरिमो होइ।
(भग १८.३६) अचरमसमयनिर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थ) का एक प्रकार । ग्यारहवें-उपशान्तमोह अथवा बारहवें-क्षीणमोह गुणस्थान के अन्तिम समय को छोडकर शेष समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ। (द्र यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ) अचलित कर्म जीवप्रदेशों के द्वारा गृहीत होकर जो कर्म-पुद्गल स्थित हो
अङ्गुल माप की एक इकाई। विभागनिष्पन्न क्षेत्र-प्रमाण का एक
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