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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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वीयरागसंजमे दविहे पण्णत्ते, तं जहा-उवसंतकसायवीय- वीर्य आत्मा रागसंजमे चेव, खीणकसायवीयरागसंजमे चेव।
आत्मा का वह पर्याय, जो उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार 'वीयरागे'त्यादि, उपशान्ता:-प्रदेशतोऽप्यवेद्यमानाः कषाया
और पराक्रमरूप होता है। यस्य यस्मिन् वा स तथा साधुः संयमो वेति।
उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणाम्। (भग १२.२०० वृ) (स्था २.११४ वृ प ४९)
वीर्यप्रवाद पूर्व वीतरागसम्यक्त्व
तीसरा पूर्व, जिसमें जीव और अजीव के वीर्य का प्रज्ञापन दर्शनसप्तक (अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक) का
किया गया है। अत्यंत विलय होने पर होने वाली आत्मविशुद्धि ।
ततियं वीरियप्पवायं, तत्थ वि अजीवाणं जीवाण य सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् आत्यन्तिकेऽपगमे सत्यात्मविशुद्धि
सकम्मेतराण वीरियं प्रवदति त्ति वीरियप्पवादं, तस्स वि मात्रमितरद्वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते। (तवा १.२.३१)
सत्तरं पदसतसहस्सा।
(नन्दी १०४ चू पृ७५) वीरासन
वीर्याचार सिंहासन पर बैठकर उसे निकाल देने पर होने वाली शरीर
ज्ञान आदि के विषय में किया जाने वाला शक्ति का सम्यक की मुद्रा।
प्रयोग। सिंहासनाधिरूढस्यासनापनयने सति।
वीर्याचारो ज्ञानादिप्रयोजनेष वीर्यस्यागोपनम्। तथैवावस्थितिर्या तामन्ये वीरासनं विदः॥
(समप्र ८९ वृ प १००) (योशा ४.१२८) (द्र वज्रासन)
वीर्यान्तराय वीरासनिक
अंतराय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से स्वस्थ और
पुष्ट शरीरवाले युवक में भी प्राणशक्ति की अल्पता होती है। कायक्लेश का एक प्रकार । विरासन की मुद्रा में बैठने वाला।
तत्र कस्यचित् कल्पस्याप्युपचितवपुषोऽपि यूनोऽप्यल्पवीरासनिको-यः सिंहासननिविष्टमिवास्ते।
प्राणता यस्य कर्मण उदयात् स वीर्यान्तरायः। (स्था ७.४९ ७ प २७८)
(तभा ८.१४ वृ) (द्र वीरासन)
वृत्तिपरिसंख्यान वीर्य
(तसू ९.१९) १. वह शक्ति, जो शरीर से उत्पन्न होती है।
(द्र वृत्तिसंक्षेप) से णं भंते! वीरिए किंपवहे ? गोयमा! सरीरप्पवहे।
(भग १.१४४)
वृत्तिसंक्षेप २. द्रव्य की वह शक्ति, जो स्वाभाविक होती है।
बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार। विविध प्रकार के अभिग्रहों द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम्। (ससि ६.६) (प्रतिज्ञाओं) से वृत्ति-भिक्षाचर्या का संक्षेपीकरण करना। ३. आत्मा का वह परिणाम, जो वीर्यान्तराय के क्षय और नानाभिग्रहाद् वृत्त्यवरोधो वृत्तिसंक्षेपः। क्षयोपशम से होता है।
(जैसिदी ६.३२) विरियंतरायदेसक्खएण सव्वक्खएण जा लद्धी।
वृद्धवैयावृत्त्यकर अभिसंधिजमियरं वा तत्तो विरियं सलेसस्स॥
वह मुनि, जो वृद्ध साधु-साध्वियों की सेवा में नियुक्त होता (कप्र३)
___ (व्यभा १९४३) वीर्यं वीर्यान्तरायक्षयोपशमक्षयजं खल्वात्मपरिणामः। (आवनि १५१३ हावृ पृ १९५) वृषभ
१. वह मुनि, जो गच्छ के शुभ-अशुभविषयक चिंतन के Jain Education International For Private & Personal Use Only
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