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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
फैलाकर कायोत्सर्ग करना।
चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा-कडजुम्मे, तेयोए, यो युगनिपीडितबलीवर्दवत ग्रीवां प्रसार्य तिष्ठति कायोत्सर्गेण दावरजुम्मे, कलिओए।
(स्था ४.३६४) तस्य युगदोषः।
(मू ६७० वृ)
यूका युगलक
क्षेत्र-मापन का एक प्रकार। आठ लिक्षा की एक यूका होती वह युगल (मिथुनक), जिसका जन्म एक साथ होता है। और मृत्यु भी एक साथ होती है तथा जिसके जीवननिर्वाह ...."अट्ठ भरहेरवयाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा, का साधन है कल्पवृक्ष।
(जं २.४९) अट्ठलिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ठ जूयाओ से एगे जवमझे, (द्र यौगलिक)
अट्ठ जवमज्झा से एगे उस्सेहंगुले॥ (अनु ३९९)
(द्र बालाग्र) युगसंवत्सर संवत्सर का एक प्रकार। पांच संवत्सरों का एक युगसंवत्सर
योग होता है। इसमें तीन चन्द्रसंवत्सर और दो अभिवर्द्धित संवत्सर १. समाधि-वह प्रणिधान, जिसके द्वारा निरवद्य क्रिया होते हैं।
विशेष का अनुष्ठान किया जाता है। जुगसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-चंदे, चंदे,
निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं सयोगः समाधिः, सम्यक्अभिवड्डिते, चंदे, अभिवड्डिते चेव। (स्था ५.२११)
प्रणिधानमित्यर्थः।
(तवा ६.१२) युगं पञ्चसंवत्सरम्।
(आवहावृ १ पृ १७२)
२. आत्मप्रदेशों का मानसिक, वाचिक और कायिक परिस्पन्दन। (द्र प्रमाणसंवत्सर, लक्षणसंवत्सर)
वीर्यान्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम से तथा शरीरनामकर्म के
उदय से निष्पन्न और शरीर, भाषा एवं मन की वर्गणा के युगान्तकरभूमि
संयोग से होने वाला शरीर, वचन एवं मन की प्रवृत्तिरूप युगप्रमित अन्तकर भूमि-समय, पुरुषान्तरभूमि । गुरु-शिष्य
आत्मा का परिणमन। प्रशिष्य आदि के रूप में होने वाली क्रमभावी परुषपरम्परा
जोगो णाम किं? मणवयणकायपोग्गलालंबणेण जीवको युग कहा गया है, जैसे--अर्हत् मल्लि के बीसवें पुरुषयुग
पदेसाणं परिफंदो।
(धव पु ७ पृ १७) अर्थात् बीसवीं शिष्यपरम्परा तक युगान्तकरभूमि रही-सिद्ध वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमशरीरनामकर्मोदयजन्यः कायहोने का क्रम चला। (ज्ञा १.८.२३३ वृ प १६१) भाषामनोवर्गणापेक्षः कायवाङ्मनःप्रवृत्तिरूपः आत्मअंतकरभूमि त्तिभूमी–कालो, सो दुविधो-पुरिसं- परिणाम: योगोऽभिधीयते। (जैसिदी ४.२५ ७) तकरकालो य परियायतकरकालो य। जाव अज्जजंबुणामो ३. करना, कराना, अनुमोदन करना। ताव सिवपहो, एस जुगंतकरकालो"। ततिए पुरिसजुगे ..."जोगं न करेमिच्चाइ सावजं॥ जुगंतकरभूमी।
(दशाचू प ६५) योगं न करोमीत्यादि संबध्यते-नकरेमि, नकारवेमि, करतं (द्र पर्यायान्तकरभूमि)
पि अण्णं ण समणुजाणामि। (विभा ३५२९ वृ) युग्म
योग-अप्रमत्त १. सम संख्या वाली राशि, जैसे-कृतयुग्म और द्वापर। १. जो मनोगुप्ति, वाग्गुप्ति, कायगुप्ति से गुप्त है। २. राशि-विशेष, जिसमें से चार-चार घटाने पर शेष चार, २. जो अकुशल मन-वचन-काययोग से निवर्तन और कुशल तीन या दो रहे अथवा एक शेष रहे।
मन-वचन-काययोग में प्रवर्तन करता है। ""जुम्म त्ति इह गणितपरिभाषया समो राशिर्युग्ममुच्यते ३. जो इन्द्रियविषयों में आसक्त नहीं है। विषमस्त्वोजः । द्वौ राशी युग्मशब्दवाच्यौ।।
जोगअप्पमत्तो मणवयणकायजोगेहिं तिहिं व गुत्तो। अहवा
(भग १८.८९७) अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं वा, मणसो वा .."चत्वारोऽष्टौ द्वादशेत्यादिसंख्यावान् राशिः क्षुल्लकः एगत्तीभावकए। एवं वइए वि, एवं काए वि। तहा इंदिएसु कृतयुग्मोऽभिधीयते।
(भग ३१.१ ७) सोइंदियविसयपयारनिरोहो वा सोइंदियविसयपत्तेसु वा Jain Education International For Private & Personal Use Only
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