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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जीतकल्प
१. वह छेदसूत्र, जिसमें जीत नामक व्यवहार का निरूपण है। (साशआ)
२. व्यवहार का एक प्रकार। जिस विधि-निषेध और प्रायश्चित्त का आगम में स्पष्ट निर्देश नहीं, उस स्थिति में संविग्न गीतार्थ द्वारा निर्धारित व्यवहार ।
जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराए अविरुद्धं । जोगाय बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ ॥ वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो अणुवत्तिउ महाणेणं । एसो उ जीयकप्पो, पंचमओ होइ ववहारो ॥
जीत व्यवहार
(द्र जीतकल्प)
जीव
१. जीव जीता है, जीवत्व और आयुष्य कर्म का अनुभव करता है इसलिए वह जीव है ।
जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा (भग २.१५ )
जीवे त्ति वत्तव्वं सिया ।
२. वह प्राणी, जिसके पांच इन्द्रियां होती हैं।
जीवा: पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः ..... || (उशावृ प ५८४) ३. आत्मा, असंख्येय चैतन्यप्रदेशों का समूह, जो नौ तत्त्वों में एक तत्त्व है और जिसका लक्षण है- उपयोग । असंखेज्जा "लोगागासप्पदेसउल्लपदेसे तु जीवे ति वत्तव्वं । ( आवचू १ पृ ४२० )
(भग १३.५९ )
(व्यभा १२, ४५२१ )
(व्य १०.६)
उवयोगलक्खणे णं जीवे ॥ (द्र उपयोग)
जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे ॥ जीवचैतन्ययोः परस्परेणाविनाभूतत्वाज्जीवश्चैतन्यमेव चैतन्यमपि जीव एव । (भग ६. १७४ वृ)
४. जीवास्तिकाय का एक अंश (देश) । उपयोगगुण जीवास्तिकाय: तदंशभूतो जीवः ।
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(भग २.१३५ वृ)
जीव क्रिया
क्रिया का एक प्रकार । जीव के द्वारा की जाने वाली प्रवृत्ति, जो कर्मबंध की हेतुभूत है।
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जीवस्य क्रिया - व्यापारो जीवक्रिया। (स्था २.२ वृप ३६)
जीवदृष्टिजा क्रिया
दृष्टिजा क्रिया का एक प्रकार । प्राणियों को देखने के लिए होने वाली रागात्मक प्रवृत्ति ।
या अश्वादिदर्शनार्थं गच्छतः ।
(स्था २.२१ वृप ३९ )
जीवन
जीव की वह अवस्था, जिसमें पर्याप्तियों और प्राणों का योग होता है।
पर्याप्तीनां प्राणानां च योग एव जीवनं, तेषां वियोगश्च मृत्युः । (जैसिदी ३.१३ वृ)
जीवनै सृष्टिकी क्रिया
सृष्टिकी क्रिया का एक प्रकार जीव अर्थात् जल को यन्त्र आदि के द्वारा फेंकने से होने वाली क्रिया । राजादिसमादेशाद्यदुदकस्य यन्त्रादिभिर्निसर्जनं सा जीवनैसृष्टिकी । (स्था २.२८ वृ प ३९)
जीवपारिग्रहिकी क्रिया
पारिग्रहिकी क्रिया का एक प्रकार। सजीव परिग्रह की सुरक्षा के लिए प्रवृत्ति । (स्था २.१६)
जीवप्रातीत्यिकी क्रिया
प्रातीत्यिकी क्रिया का एक प्रकार । जीव के सहारे होने वाली कर्मबंध की हेतुभूत प्रवृत्ति |
जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा तथा ।
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(स्था २.२४ वृ प ३९ )
जीवप्रादेशिकवाद
प्रवचननिह्नव का दूसरा प्रकार । यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जो जीव के असंख्य प्रदेशों को जीव स्वीकार नहीं करता, किन्तु उसके चरम प्रदेश को जीव स्वीकार करता है।
प्रदेश जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां ते तथा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिणः । (स्था ७.१४० वृ प ३८९) जीवप्रादोषिकी क्रिया प्रदोषकी क्रिया का एक प्रकार । मनुष्य के प्रति होने वाले मात्सर्य की प्रवृत्ति ।
जीवे प्रद्वेषाज्जीवप्राद्वेषिकी ।
(स्था २.९ वृ प ३८)
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