________________
१२०
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जिनकल्पस्थिति
जिनशासन जिन (तीर्थङ्कर) का अनुसरण करने वाली और विशिष्ट । द्वादशांग, तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त। ज्ञानसम्पन्न एकलविहारी मुनि की आचार-संहिता। जिनशासनं-जिनागमम्। (उ २.६ शावृ प ८८) एगारसंगधारी एआई धम्मसुक्कझाणी य।
जिनेन्द्र चत्तासेसकसाया मोणवई कंदरावासी॥ बहिरंतरंगगंथचुवा णिण्णेहा णिप्पिहा य जइवइणो।
(समप्र २२४.६) जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणा॥ (द्र तीर्थंकर)
(भासं १२२, १२३)
जिह्वेन्द्रिय असंवर (आश्रव) जिनकल्पिक
कर्म-आकर्षण की हेतुभुत रसनेन्द्रिय की प्रवत्ति । जिनकल्प की आचारसंहिता का पालन करने वाला मुनि।
(स्था १०.११) (बृभा १३९१) जिनधर्म
जिह्वेन्द्रियनिग्रह जैन धर्म। जिन-अनुत्तरज्ञानी अर्हत् द्वारा प्रज्ञप्त धर्म, जो प्रिय-अप्रिय रसों में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह, इसके श्रुत और चारित्र रूप है।
द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की "बोधि:-जिनधर्मोअर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रुतचारित्र
निर्जरा होती है। रूपस्य"।
जिब्भिंदियनिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसुरसेसुरागदोसनिग्गहं वत्थुपयासणसूरो अइसयरयणाण सायरो जयइ।
जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुवबद्धं च निजरेइ। सव्वजयजीवबंधुरबंधू दुविहो वि जिणधम्मो॥
(उ २९.६६) (स्थावृप ३०६)
जिहेन्द्रिय प्रत्यक्ष जिनमुद्रा
इन्द्रियप्रत्यक्ष का एक प्रकार। जिह्वेन्द्रिय की सहायता से होने १. दोनों पांवों के मध्य में आगे चार अंगुल का और पीछे वाला रस का ज्ञान। इससे कुछ कम अंतर करके दोनों भुजाओं को प्रलम्बित (द्र इन्द्रियप्रत्यक्ष) रखते हुए (साथल से सटाकर), खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना।
जिह्वेन्द्रियरागोपरति चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाई जत्थ पच्छिमओ। पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिणमुद्दा॥
अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ रस में राग का __ (पञ्चा ११४)
वर्जन और अमनोज्ञ रस में द्वेष का वर्जन। (सम २५.१.२४) २. दृढ़ संयम मुदा और ज्ञान मुद्रा के साथ इन्द्रिय मुद्रा
(द्र चक्षुरिन्द्रियरागोपरति) इन्द्रिय विजय की स्थिति और कषायमुद्रा-कषाय विजय जिह्वेन्द्रिय संवर की स्थिति।
रसनेन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्म-निरोध । जिनवचन
(स्था ५.१३७) जिनवाणी, जिसके द्वारा विषयसुखों की लालसा का विरेचन
जीत होता है और जन्म, मरण, व्याधि तथा सर्व दुःखों का क्षय अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा सहचिन्तन पूर्वक निर्मित मर्यादा। होता है।
जीतं नाम प्रभूतानेकगीतार्थकृतमर्यादा। जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
(व्यभा ७वृ प ६) जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥ बहुजणमाइण्णं पुण जीतं....॥ (व्यभा ९)
(दप्रा १७)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org