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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जा सकता, वह पल्य की उपमा से जाना जाता है।
है, ऐसी लब्धि से सम्पन्न मुनि। जिनकल्पिक के यह लब्धि जंकालप्पमाणंण सक्कइ घेत्तं तं उवमियं भवति । धण्णपल्ल होती हैं। इव तेण उवमा जस्स तं पल्लोवमं भण्णति।
.."अच्छिद्दपाणिपादा, वइरोसभसंघतणधारी।
(अनु ४१९ चू पृ५७) वग्गुलिपक्खसरिसगं, पाणितलं तेसि धीरपुरिसाणं॥ (द्र पल्य, अध्वा पल्योपम, उद्धार पल्योपम, क्षेत्र पल्योपम) माएज्ज घडसहस्सं, धारेज्ज व सो तु सागरा सव्वे।
जो एरिसलद्धीए सो पाणिपडिग्गही होति॥ पल्लवान
(जीभा २१६६-२१६८) (द्वादशांग का) पर्यवपरिमाण । अक्षर के पर्याय और अर्थ के पर्याय। ये अनंत हैं।
पाणिप्राणविशोधनी समवाए."दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे अप्रमाद प्रतिलेखना का एक गुण, हाथों से सावधानीपूर्वक समासिज्जइ।
(नन्दी ८४) जीवों को हटाना। अक्खरपज्जवेहिं अत्थपज्जवेहिंय अणतं। (नन्दीचू पृ६२)
पाणे:-हस्तस्योपरि प्राणानां-प्राणिनां कुन्थ्वादीनामित्यर्थः
'विसोहणि'त्ति विशोधना प्रमार्जना प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रेणैव पश्चात्कृत
कार्या नवैव वाराः।
(स्था ६.४६ वृप ३४४) वह व्यक्ति, जिसने मुनित्व को छोड़ पुनः गृहवास को स्वीकार कर लिया है।
पाण्डुक 'पश्चात्कृतः' चारित्रं परित्यज्य गहवासं प्रतिपन्नः।
महानिधि का एक प्रकार । गणित तथा बीजों के मान और (बृभा १९२६ वृ)
उन्मान का प्रमाण तथा धान्य और बीजों की उत्पत्ति का पश्चानुपूर्वी
प्रतिपादक शास्त्र। औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का एक प्रकार। प्रतिलोम क्रम,
गणियस्स य बीयाणं, माणुम्माणस्स जं पमाणं च। अन्तिम से गणना प्रारम्भ करना।
धण्णस्स य बीयाणं, उप्पत्ती पंडुए भणिया॥ पाश्चात्त्यात्-चरमादारभ्य व्यत्ययेनैवानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी।
(स्था ९.२२.३) (अनु १४७ हावृ पृ ४१)
पाताल (द्र आनुपूर्वी)
लवणसमुद्र में विद्यमान कलशाकार रसातल। पश्यक
'पातालाणं' ति पातालकलशानाम्। वह पुरुष, जो वस्तु-सत्य को देखता है।
(अनु ४१० मवृ प १५९) यः वस्तुसत्यं पश्यति स पश्यकः। (आभा २.७३)
पात्रकेसरिका पश्यत्ता
वह वस्त्रखण्ड, जिसके द्वारा पात्र को साफ किया जाता है। दीर्घकालिक और परिस्फुट अवबोध।
पात्रकेसरिका-पात्रकमुखवस्त्रिका। (ओनिवृ प ४७१) साकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रदीर्घकालं अनाकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रकृष्टं परिस्फुटरूपमीक्षणम्। पादपोपगमन (प्रज्ञा ३०.१ वृप५३०) यावत्कथिक अनशन का तीसरा प्रकार, प्रायोपगमन, जिसमें
अनशनकर्ता चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक पेड़ की भांति पाणिपतद्ग्राही
निस्पन्द रहता है। जिसका पाणिपात्र निश्छिद्र है, करतल बगुली के पक्षों के
पादस्येवोपगमनम्-अस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोपगमनम्, इदं सदृश है, जिसके हाथ में हजार घडों का द्रव्य समा सकता
च चतुर्विधाहारपरिहारनिष्पन्नमेव भवति। ...
(औपवृ प ७१)
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