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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
गोलकः। ते च गोलका असंख्येयाः। (बृसंवृ प १२८ अ) का ग्रहण करना। गोला य असंखिज्जा, अस्संखनिगोअओ हवड़ गोलो। एवं तु गविट्ठस्स उग्गमउप्पायणाविसुद्धस्स। एक्कएक्कम्मि निगोए, अणंतजीवा मुणेयव्वा॥ गहणविसोहिविसुद्धस्स होइ गहणं तु पिंडस्स॥ (बृसं ३०१)
(पिनि ५१३)
ग्रहणैषणायां शोधयेच्छङ्कितादिदोषत्यागतः। गौरव अभिमान और लोभ के कारण होने वाली बड़प्पन अथवा
(उशावृप५१७) गर्व की अनुभूति।
ग्रामधर्म गौरवाणि-अभिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशुभभावगुरुत्वानि। गांव की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता।
(सम ३.४ वृ प ८) ग्रामा-जनपदाश्रयास्तेषां तेष वा धर्म:-समाचारो गौरव दान
व्यवस्थेति ग्रामधर्मः। (स्था १०.१३५ वृ प ४८८) वह दान, जो गर्वपूर्वक यश के लिए दिया जाता है। ग्रासैषणा गौरवेण-गर्वेण यद्दीयते तद् गौरवदानमिति, उक्तं च- पंचविध माण्डलिक दोष।
(ओनि ५५१) नटनर्तमुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धुमित्रेभ्यः।
(द्र परिभोगैषणा) यद्दीयते यशोथं गर्वेण तु तद्भवेद्दानम्॥
ग्रैवेयक (स्था १०.९७ वृ प ४७१)
देवों का वह आवासस्थल, जो लोकपुरुष के गर्दन स्थान पर ग्रह
होता है।
(देखें चित्र पृ ३४६) ज्योतिष्क देवनिकाय का एक प्रकार। ये संख्या में अठासी लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थानीयत्वात् ग्रीवाः, ग्रीवासु भवानि हैं, जैसे-बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि आदि। ग्रैवेयकाणि विमानानि।
(तवा ४.१९.२) (त्रिप्र ७.१५-२२) (द्र ज्योतिष्क)
ग्लानवैयावृत्त्यकर
वह मुनि, जो रुग्ण साधु-साध्वियों की सेवा में नियुक्त होता ग्रहणगुण
(व्यभा १९४३) वह विशेष गुण, जिसके द्वारा पुद्गल में समुदित होने की तथा जीव के साथ संबंध स्थापित करने की क्षमता होती है।
घ पोग्गलत्थिकाए....गुणओ गहणगुणो।।
घन तप ग्रहणं-परस्परेण सम्बन्धनं जीवेन वा औदारिकादिभिः
इत्वरिक अनशन का एक प्रकार। जितने पदों की श्रेणी है, प्रकारैरिति।
(भग २.१२९ वृ)
प्रतर को उतने पदों से गुणा करने से होने वाला तप। यहां ग्रहणशिक्षा
चार पदों की श्रेणी है। अतः सोलह पदात्मक प्रतर तप को १. ज्ञान ग्रहण करने का उपदेश । गुरुमुख अथवा पुस्तक से। चार से गुणा करने से अर्थात् उसे चार बार करने से घन तप अध्ययन करना।
होता है। घन तप के चौंसठ पद बनते हैं। द्वादशवर्षाणि यावत् सूत्रं त्वयाऽध्येतव्यमित्युपदेशो अत्र च षोडशपदात्मकः प्रतरः पदचतुष्टयात्मिकया श्रेण्या ग्रहणशिक्षा।
(विभा ७ वृ पृ८) गणितो घनो भवति, आगतं चतुःषष्टिः (६४), स्थापना तु २. वह शिक्षा, जिसके द्वारा ज्ञान का विकास होता है। पूर्विकैव नवरं बाहल्यतोऽपि पदचतुष्टयात्मकत्वं विशेषः (द्र आसेवनशिक्षा)
एतदुपलक्षितं तपो घनतप उच्यते।
(उ ३०.१० शावृ प ६०१) ग्रहणैषणा
(द्र श्रेणी तप, प्रतर तप) उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित विशुद्ध आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only
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है।