________________
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
१२७
आलोचना का एक दोष। अपने समान दोषसेवी गुरु के सामने दोषों का निरूपण करना। ये दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्तस्य पुरतो यदालोचनं स तत्सेविलक्षण आलोचनादोषः।
(स्था १०.७० वृ प ४६१) तथाकार सामाचारी सामाचारी का एक प्रकार। प्रतिश्रवण (गुरु द्वारा प्राप्त उपदेश की स्वीकृति) के लिए तथाकार (यह ऐसे ही है) का प्रयोग करना। ""तहक्कारो य पडिस्सुए॥
(उ २६.६)
ज्ञानाचार का एक प्रकार । स्वाध्यायकाल में सूत्र और अर्थ दोनों का बोध करना, सम्यक् उपयोगपूर्वक आगम के पाठ
और अर्थ का अध्ययन करना। तदुभयं च-व्यञ्जनार्थयोरुभयं सम्यगुपयोगेन च यतः सूत्रादि पठनीयम्।
(प्रसा २६७ वृ प६४) तदुभयकल्पिक वह मुनि, जो आवश्यक आदि आगमों के सूत्र और अर्थ का एक साथ अध्ययन करने में सक्षम है। यो द्वावपि सूत्राऽौँ युगपद्ग्रहीतुं समर्थः स तदुभयकल्पिकः ।
(बृभा ४०९ वृ) तदुभय प्रायश्चित्त वह प्रायश्चित्त, जिसमें मूलगुण अथवा उत्तरगुणों के अतिक्रमण में संदेह होने पर अथवा जानबूझकर अतिक्रमण करने पर आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों का प्रयोग किया जाता
तथाज्ञान द्रव्यानुयोग का एक प्रकार। द्रव्य का यथार्थ-जैसा है. वैसा विचार करना। यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथाज्ञानम्।
(स्था १०.४६ वृ प ४५७)
तथोपपत्ति साध्य के होने पर ही साधन का होना, जैसे-अग्नि के होने पर धूम का होना। सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिः तथोपपत्तिः। यथा-अग्निमानयं पर्वतः, तथैव धूमोपपत्तेः।
(प्रनत ३.३०)
मूलुत्तरगुणातिक्कमसंदेहे आउत्तेण वा कए आलोयणपडिक्कमणमुभयं।
(आवचू २ पृ २४६) तदुभयशस्त्र वह सजीव अथवा निर्जीव द्रव्य, जिसके प्रयोग से अपनी जाति और अपने से भिन्न जाति के प्राणी का प्राणवियोजन होता है, जैसे-मिट्टीमिश्रित जल दूसरी मिट्टी का शस्त्र है।
(आभा १.१९) (द्र स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र)
तथ्य पदार्थ, जिनका अस्तित्व वास्तविक है, जैसे-जीव, अजीव आदि। तथ्याः अवितथा निरुपचरितवत्तयः। (उशाव प ५६२) जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निन्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव॥
(उ २८.१४) (द्र तत्त्व)
तदुभयागम वह आगम, जिसमें सूत्र और अर्थ दोनों एक साथ संकलित हो। सूत्रार्थोभयरूपस्तु तदुभयागमः। (अनु ५५० मवृप २०२)
तदन्यमन मन का एक प्रकार। लक्ष्य के बाहर किसी अन्य में लगा हुआ मन।
(स्था ३.३५७ ७ प १३२) (द्र तन्मन)
तद्भव मरण वह मरण, जिसमें तिर्यञ्च या मनुष्य भव में विद्यमान प्राणी पुनः तद्भव योग्य–तिर्यञ्च या मनुष्य भव-योग्य आयुष्य का बंध कर मरता है। तस्मै भवाय मनुष्यादेः सतो मनुष्यादावेव बद्धायुषो यन्मरणं तत्तद्भवमरणम्।
(भग २.४९ वृ)
तदुभय (सूत्र-अर्थ)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org