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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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पराक्रम।
रणान्मथिसदृशं मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणम्। आत्मना शरीरवता सर्वप्रदेशैर्गृहीता मनोवर्गणायोग्यस्कन्धाः
(औप १७४ वृ पृ २०९) शुभादिमननार्थं करणभावमालम्बन्ते, तत्सम्बन्धाच्चात्मनः (द्र केवलिसमुद्घात) पराक्रमविशेषो योगः।
(तभा ६.१७)
मन्दरपर्वत मनोयोग प्रतिसंलीनता
वह पर्वत, जो जंबूद्वीप के मध्य में अवस्थित है, जो उत्तरकुरु अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की प्रवृत्ति। के दक्षिण में देवकुरु के उत्तर में, पूर्वविदेह के पश्चिम में, अकुसलमणणिरोहो वा, कुसलमणउदीरणं वा।से तं मण- अपरविदेह के पूर्व में है। जोगपडिसंलीणया।
(औप ३७) उत्तरकुरुए दक्खिणेणं, देवकुरुए उत्तरेणं, पुव्वविदेहस्स
वासस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरथिमेणं मनोवर्गणा
जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहुमझदेसभाए, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे पुदगल की वह वर्गणा, जिसका आलम्बन लेकर चिन्तन
मंदरे णामं पव्वए पण्णत्ते।
(जं ४.२१३) मनन किया जाता है।
(विभा ६३१)
मन्दा मनोविनय
शतायु जीवन की एक दशा, तृतीय दशक। इस अवस्था में विनयार्ह आचार्य आदि के प्रति कुशल मन का प्रयोग करना।
मनुष्य कामभोग भोगने में समर्थ हो जाता है। परोक्ष होने पर भी उनका संकीर्तन, स्मरण करना।
तइयं च दसं पत्तो, पंच कामगुणे नरो। मनोवाक्कायविनयास्तु मनःप्रभृतीनां विनयाहेषु कुशल- समत्थो भुंजिउं भोगे, जड़ से अस्थि घरे धुवा। प्रवृत्त्यादिः। (स्था ७.१३० वृ प ३८८)
(दहावृ प८) परोक्षेष्वपि कायवाङ्मनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानु
मन्दानुभाव स्मरणादिः।
(तवा ९.२३.७)
१. वह कर्म-बंध, जिसका अनुभाव (विपाक) मंद होता
है, त्रिस्थानिक रसवाला होता है। मन्त्र जो देवाधिष्ठित होता है, जिसके आदि में 'ॐ' और अन्त
२. वह कर्म-बंध, जिसके तीव्र अनुभाव को मंद अनुभाव में 'स्वाहा' होता है, जो 'ह्रीं' आदि वर्ण-विन्यासात्मक
वाला किया जाता है। होता है।
तीव्रानुभावाश्चतुःस्थानिकरसत्वेन मन्दानुभावाः त्रिस्था
निकरसत्वाद्यापादनेन प्रकरोति। (उ २९.२३ शाख प५८५) नरदेवतः पाठसिद्धो मन्त्रः। (प्रसा ५६७ वृ प १४८) 'मन्त्रम्'ऊँकारादिस्वाहापर्यन्तो ह्रींकारादिवर्णविन्यासात्मक
(द्र तीव्रानुभाव) स्तम्।
(उशावृ प ४१७) मरण मन्त्रपिण्ड
जीवनकाल को निष्पन्न करने वाले आयुष्यकर्म के परमाणुउत्पादन दोष का एक प्रकार। मंत्र (देव-अधिष्ठित) का
स्कन्धों की परिसमाप्ति, प्राणत्याग। जीव की वह अवस्था, प्रयोग कर भिक्षा लेना। (योशा १.३८ वृ पृ १३६)
जिसमें पर्याप्तियों और प्राणों का वियोग होता है। (द्र चूर्णपिण्ड)
(द्र जीवन) मन्थ
मरणभय केवलि-समुद्घात के तीसरे और छठे समय में दक्षिण और
देहासक्ति के कारण देहत्याग की कल्पना से होने वाला उत्तर दिशाओं में लोकान्त तक आत्मप्रदेशों के फैलने से
भयात्मक प्रकम्पन।
(स्था ७.२७) मंथान के आकार में होने वाली आत्मप्रदेशों की रचना।
मरणविभक्ति 'मंथं' ति तृतीये समये तदेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसा
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। इस अध्ययन में मरण का Jain Education International For Private &P विभागयुक्त वर्णन है।
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