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________________ २२४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश महल्लियण्णं मोयपडिमं पडिवन्नस्स"भोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अद्वारसमेणं पारे।। (व्य ९.४१) (द्र क्षुद्रिका मोकप्रतिमा) महाकल्पश्रुत उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । वह आगम, जो महान् अर्थ और महान आकार वाला विधि-निषेधात्मक आचार-शास्त्र मरणं-पाणपरिच्चागो, विभयणं विभत्ती, पसत्थमपसस्थाणि सभेदाणि मरणाणि जत्थ वण्णिजंति अज्झयणे तमज्झयणं मरणविभत्ती। (नन्दी ७७ चू पृ५८) मरणाशंसाप्रयोग संलेखना का एक अतिचार। संलेखना-काल में कष्ट होने पर शीघ्र मरण की आकांक्षा करना। 'मरणाशंसाप्रयोग' उक्तस्वरूपपूजाद्यभावे भावयत्यसौ यदि शीघ्रं म्रियेऽहम्' इति स्वरूप इति। (उपा १.४४ वृ पृ २१) मर्कटतन्तुचारण चारण ऋद्धि का एक प्रकार। इस ज्ञद्धि के द्वारा साधक मकड़ी के जाल का आलम्बन लेकर गमन कर सकता है। मक्कडयतंतुपंती उवरिं अदिलघुओ तुरियपदखेवे। गच्छेदि मुणिमहेसी सा मक्कडतंतुचारणा रिद्धी॥ (त्रिप्र४.१०४५) कप्पं जत्थ सुते वण्णितं तं कप्पसुतं, अणेगविहचरणकप्पणाकप्पयं च कप्पसुतं । तं दुविहं-चुल्लं महंतं च।" महत्थं महागंथं च महाकप्पसुतं। (नन्दी ७७ चू प ५७) महाकाल १. महानिधि का एक प्रकार। लोहे, चांदी, स्वर्ण आदि धातुओं की उत्पत्ति का प्रतिपादक शास्त्र। लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकाले आगराणं च। रुप्पस्स सुवण्णस्स य, मणि-मोत्ति-सिलप्पवालाणं॥ (स्था ९.२२.८) २. परमाधार्मिक देव का एक प्रकार। वे असुर देव, जो नैरयिकों के मांस के छोटे-छोटे खण्ड करते हैं. पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं तथा उनको स्वयं का मांस खिलाते हैं। कप्पंति कागिणीमंसगाणि छिंदंति सीहपुच्छाणि। खावंति य नेरइया, महाकाला पावकम्मरता॥ (सूत्रनि ७५) मर्म शरीर के वे अवयव, जहां आत्मप्रदेशों की बहुलता होती है, प्राणों का विशेष रूप से अनुबंध होता है तथा जिनके भीतर चैतन्यकेन्द्र होते हैं। बहुभिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता देहावयवाः मर्माणि। (स्यामवृ पृ७७) मर्मस्थानेषु प्राणस्य बाहुल्यमस्ति।"यानि चैतन्यकेन्द्राणि तानि मर्मस्थानवर्तीन्येव। (आभा ५.२०) (द्र चैतन्यकेन्द्र) मल परीषह (तसू ९.९) (द्र जल्ल परीषह) महती मोकप्रतिमा स्व-मूत्रपान के आधार पर की जाने वाली तपस्या का विशेष प्रयोग। महती मोकप्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधक यदि भोजन करके आरोहण करता है तो उसकी समाप्ति सात उपवास से होती है, यदि भोजन किए बिना उसका आरोहण करता है तो उसकी समाप्ति आठ उपवास से होती महाघोष परमाधार्मिक देव का एक प्रकार । वे असुर देव, जो भयभीत होकर पलायन करते हुए नैरयिकों को चारों ओर से घेरकर वहीं रोक लेते हैं, जैसे पशुवध में वधक दौड़ते हुए पशुओं को रोक लेता है। भीते पलायमाणे, समंततो ते तत्थ णियत्तेंति। पसुणो जधा पसुवधे, महाघोसा तत्थ नेरइया॥ (सूत्रनि ८२) महातपस्वी तपोऽतिशय ऋद्धि से सम्पन्न मुनि, जो सिंहनिष्क्रीडित आदि महान् तप करता है। है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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