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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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उत्तरवैक्रिय
तिर्यगलोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति। वैक्रिय शरीर वाले जीव के द्वारा निर्मित वैक्रिय शरीर।
(भ २.११८ वृ) पूर्ववैक्रियापेक्षयोत्तराणि-उत्तरकालभावीनि वैक्रियाणि
उत्पाद उत्तरवैक्रियाणि।
(भग ३.११२७)
त्रिपदी का एक अंग। द्रव्य के अवस्थान्तर अथवा पर्यायान्तर उत्तराध्ययन
(उत्तर पर्याय) का आविर्भाव उत्पाद कहलाता है। जैसेकालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें साध्वाचार, जीवनवृत्त मृत्पिण्ड का घटपर्याय में उत्पाद। और तत्त्वविद्या का प्रतिपादन है। प्राचीनकाल में इसका चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत उभयअध्ययन आचारांग के अध्ययन के पश्चात् किया जाता था,
निमत्तिवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः, मृत्पिण्डस्य इसलिए इसका नाम उत्तराध्ययन है। (नन्दी ७८)
घटपर्यायवत्।
(ससि ५.३०) अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबद्धसंवाया। (उनि ४)
द्रव्यनयाभिप्रायेणाकारान्तराविर्भावमात्रमुत्पाद औपचारिकः, आचारात् परतः पूर्वकाले यस्मादेतानि पठितवन्तो यतयस्तेन
परमार्थतो न किञ्चित्पद्यते सततमवस्थितद्रव्यांशमात्रत्वात्। उत्तराध्ययनानि। (तभा १.२० वृ)
(तभा ५.२९ वृ)
एगे उप्या।"उप्प त्ति प्राकृतत्वादुत्पादः, स चैक एकसमये उत्थान
एकपर्यायापेक्षया, न हि तस्य युगपदुत्पादव्ययादिरस्ति। वह सामर्थ्य, जिसके द्वारा प्राणी कार्य की निष्पत्ति के लिए
(स्था १.२२ वृ प १९) प्रस्तुत होता है।
(द्र त्रिपदी) उत्थानं-चेष्टाविशेषः।
(स्थावृ प २१)
उत्पादन दोष उत्थानं-ऊर्वीभवनम्।
(भग १.१४६ वृ)
गोचरचर्या में की जाने वाली मुनि की अनाचरणीय प्रवृत्ति । उत्थानश्रुत
सोलस उग्गमदोसे गिहिणो उ समुट्ठिए वियाणाहि। कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसका एक, दो अथवा तीन उप्पायणाए दोसे साहूउ समुट्ठिए जाण ॥ बार परावर्तन करने से ग्राम, राजधानी अथवा कुल उजड़
(पिनि ४०३) जाता है।
उत्पाद पूर्व 'उदाणसुतं' ति अज्झयणं परियट्रेति एक्कं दो तिण्णि वा वारे
पहला पूर्व। इसमें सर्व द्रव्यों व पर्यायों के उत्पादन का ताहे से गामे वा जाव रायधाणी वा कुलं वा उदेति।
प्रज्ञापन किया गया है। (नन्दी ७८ चू पृ ६०)
पढमं उप्पायपुव्वं ति, तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जवाण य उत्पन्नज्ञानदर्शन
उप्पायभावमंगीकाउंपण्णवणा कता। अतीन्द्रियज्ञान या प्रत्यक्षज्ञान। किसी बाह्य आलम्बन के
(नन्दी १०४ चू पृ ७५) बिना आत्मा से उपजने वाला ज्ञान।
उत्सर्ग समिति उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली.....।
त्रस और स्थावर जीवों से रहित स्थान पर निरीक्षण और (भग १.२०९)
प्रमार्जनपूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्म आदि का उत्सर्जन करना। पच्चक्खनाणाणि आयसमुत्थाणी पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं स्थण्डिले स्थावरजंगमजन्तुवर्जिते निरीक्ष्य प्रमुज्य च लेस्साहिं विसुज्झमाणाहिं उप्पन्जंति। (आचू पृ २२१) मूत्रपुरीषादीनामुत्सर्ग उत्सर्गसमितिः। (तभा ९.५) उत्पातपर्वत
उत्सर्ग सूत्र वह पर्वत, जहां से तिर्यगलोक में जाने के लिए देव उडान
वह सूत्र, जिसमें आचारविषयक सामान्य विधि का प्रतिपादन भरते हैं।
(बृभा ३२१) Jain Education International For Private & Pe(द्र अपवाद सूत्र)
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है।