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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
द्वेषप्रत्यया क्रिया
धर्म क्रिया का एक प्रकार। द्वेष के कारण होने वाली प्रवृत्ति । १. जो आत्मशुद्धि का साधन है, आत्मोदय करने वाला है द्वेषः क्रोधमानलक्षणः। (स्था २.३५ वृ प ४०) तथा जो लोकधर्म से भिन्न है।
आत्मशुद्धिसाधनं धर्मः॥ द्वैक्रियवाद
आत्मोदयकारकत्वेन लोकधर्मादसौ भिद्यते॥ प्रवचननिह्नव का पांचवा प्रकार। यथार्थ का अपलाप करने
(जैसिदी ८.३,१२) वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार एक ही क्षण में एक साथ (द्र लोकधर्म) दो क्रियाओं का अनुवेदन हो सकता है।
२. जो गतिसहायक द्रव्य है। सूत्रेऽभिहितमेका क्रियैकदा वेद्यते शीता वोष्णा वा, अहं गइलक्खणो उ धम्मो...।
(उ २८.९) च द्वे क्रिये वेदयामि अतो द्वे क्रिये समयेनैकेन वेद्यते इति।
(द्र धर्मास्तिकाय) (स्था ७.१४० वृ प ४१२)
३. जो वस्तु का स्वभाव है। धम्मो सभावो लक्खणं।
(दअचू पृ १०)
धर्मकथा धनधान्यप्रमाणातिक्रम
स्वाध्याय का पांचवां प्रकार।
(उ २९.२४) इच्छापरिमाण व्रत का एक अतिचार। धन और धान्य के । (द्र धर्मोपदेश) प्रमाण का अतिक्रमण करना, अनजान में अथवा अतिलोभ
धर्मकथी के कारण स्वीकृत प्रमाण से अतिरिक्त धनराशि को किसी
वह मुनि, जो धर्मकथा की प्रवृत्ति में नियुक्त होता है। दूसरे के पास धरोहर के रूप में रखना। तीव्रलोभाभिनिवेशादतिरेकाः प्रमाणातिक्रमाः।
(व्यभा १९४३) (तवा ७.२९)
धर्मजागरिका 'धणधण्णपमाणातिक्कमे' त्ति अनाभोगादेरथवा लभ्यमानं
मध्यरात्रि में किया जाने वाला धर्मचिन्तनपूर्वक जागरण। धनाद्यभिग्रहावधिं यावत्परगृह एव बन्धनबद्धं कृत्वा धारय
धर्माय धर्मचिन्तया वा जागरिका-जागरणं धर्मजागरिका। तोऽतिचारोऽयमिति। दुपयचउप्पयपमाणातिक्कमे'त्ति अय
(भग १२.१५ वृ) मपि तथैव।
(उपा १.३६ वृ पृ१४)
धर्मदान धरणा
वह दान, जो संयमी को दिया जाता है। धारणा की पहली अवस्था, जिसमें अवधारित विषय की
धर्मकारणं यत्तद्धर्मदानं धर्मे एव वा, उक्तं चअंतर्मुहूर्त तक अविच्युति बनी रहती है।
समतृणमणिमुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः। अवायाणंतरं तमत्थं अविच्चुतीए जहण्णुक्कोसेणं अंतमुहुत्तं
अक्षयमतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्माय॥ धरेंतस्स धरणा भण्णति। (नन्दी ४९ चू पृ३७)
(स्था १०.९७ वृ प ४७१) धरणोपपात
धर्मदेव कालिक श्रुत का एक प्रकार। वह अध्ययन, जिसमें धरण
वह मनुष्य, जो मुनि-दीक्षा में दीक्षित होता है, समितिनामक देव की वक्तव्यता है, जिसका परावर्तन करने से धरण
गुप्ति से युक्त होता है। नामक देव उपस्थित हो जाता है।
धर्मप्रधाना देवा धर्मदेवाः-चारित्रवन्तो देवानां मध्ये अति(नन्दी ७८ मवृ प २०६) शयवन्तो देवाः।
(स्था ५.५५३ वृ प २८८) (द्र अरुणोपपात)
जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया जाव गुत्तबंभयारी। से..."धम्मदेवा॥
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