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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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जैन अर्हत्-उपासक। वह व्यक्ति, जिसका आराध्य जिनेन्द्र देव है। जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जितः। (षस ४५) सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैनाः।
(निसातावृ १३९) जैनधर्म (द्र जिनधर्म)
छेदनभेदनवित्रंसनादिक्रियापरत्वम्, अन्येन चारम्भे क्रियमाणे प्रहर्ष आरम्भक्रिया।
(तवा ६.५) जीवास्तिकाय समस्त जीवों का समूह, जो उपयोग गुण वाला है। दव्वओ णं जीवस्थिकाए अणंताई जीवदव्वाई।
(भग २.१२८) (द्र जीव) जीविताशंसाप्रयोग संलेखना का एक अतिचार। संलेखना-काल में प्रतिष्ठा प्राप्त होने पर 'मैं और अधिक जीऊं'-इस प्रकार की आकांक्षा करना। 'जीविताशंसाप्रयोगो' जीवितं-प्राणधारणं तदाशंसायाःतदभिलाषस्य प्रयोगो 'यदि बहुकालमहं जीवेयम्..."यथा जीवितमेव श्रेयः, प्रतिपन्नानशनस्यापि यत एवंविधा मदुद्देशेन विभूतिर्वर्तते"
(उपा १.४४ वृ पृ२१) जीवोदयनिष्पन्न जीव में कर्म के उदय अथवा कर्मविपाक से निष्पन्न पर्याय, जैसे-नैरयिक आदि। जीवे कम्मोदएण जो जीवस्स भावो णिव्वत्तितो जहाणेरइते इत्यादि।
(अनु २७४ चू पृ ४२)
जैनशासन धर्म का वह अनुशासन, जो तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित है। (द्र जिनशासन)
जैन समुद्घात जैनसमुद्घातः केवलिसमुद्घात इत्यर्थः ।
(विभा ३८३ वृ पृ १८७) (द्र केवली समुद्घात) ज्ञपरिज्ञा ज्ञानात्मक परिज्ञा, किसी वस्तु को समग्रता से जानने की क्षमता। जाणणापरिण्णा णाम जो जं किंचि अत्थं जाणइ, सा तस्स जाणणापरिण्णा भवति।
(दजिचू पृ ११६) (द्र प्रत्याख्यानपरिज्ञा)
जुगुप्सा नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृति, जिसके उदय से व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति घृणा उत्पन्न होती है। यदुदयेन च विष्ठादिबीभत्सपदार्थेभ्यो जुगुप्सते तज्जुगुप्साकर्म।
(स्था ९.६३ वृ प ४४५) जृम्भक देव वह व्यन्तर देव, जो अत्यंत क्रीडारसिक होता है और सदा प्रमुदित रहता है। जंभगा णं देवा निच्चं पमुदित-पक्कीलिया कंदप्परति- मोहणसीला।जे णं ते देवे कुद्धे पासेज्जा, से णं पुरिसे महंतं अयसं पाउणेज्जा....तुढे पासेज्जा, महंतं जसं पाउणेज्जा। 'जंभग' त्ति जृम्भन्ते-विजृम्भन्ते स्वच्छन्दचारितया चेष्टन्ते ये ते जृम्भकाः तिर्यग्लोकवासिनो व्यन्तरदेवाः।
(भग १४.११८ वृ)
ज्ञातधर्मकथा द्वादशांग श्रुत का छठा अंग, जिसमें ज्ञात–दृष्टान्त और धर्मकथा का संग्रह किया गया है। णाय त्ति-आहरणा, दिटुंतियो वा णज्जति जेहऽत्थो ते णाता। अहिंसादिलक्खणस्स धम्मस्स कहा धम्मकहा।
(नन्दी ८६ चू पृ६६)
ज्ञातधमकथाधर वह मुनि, जो ज्ञातधर्मकथा के सत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया नायाधम्मकहाधरा।
(औप ४५)
ज्ञान १. ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से उत्पन्न
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