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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
जो
'सुणइ सव्वओ मुणइ सव्वविसए व सव्वसोएहिं । सुणइ बहुए व सद्दे भिन्ने संभिन्नसोओ सो ॥
(विभा ७८३)
(द्र सम्भिन्नश्रोतृत्व)
संयम
श्रमणधर्म अथवा उत्तमधर्म का एक प्रकार। वह प्रवृत्तिनिरोध, जो नए कर्मास्रव के संवर का हेतु बनता है।
अपूर्वकर्मा श्रवसंवरहेतुः संयमो वर्तते ।
(ओनिवृ प १२)
संयमकुशल
१. वह मुनि, जो सतरह प्रकार (पृथ्वीकायसंयम आदि) के संयम में कुशल है।
२. वह मुनि, जो आदाननिक्षेप (समिति), एषणा (समिति), शय्या, आहार आदि में स्मृतिमान् (जागरूक) है, जो इन्द्रियनिग्रह, कषायनिग्रह और आस्रवनिरोध करता है, प्रशस्त योगों में प्रवृत्त होता है तथा प्रशस्त ध्यान में आलीन रहता
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...पुढवादिसंजमम्मी, सत्तरसे भवे कुसलो ॥
अथवा गहणे निसिरण, एसण सेज्जा निसेज्ज उवधी य । आहारे वि य सतिमं, पसत्थजोगे य जुंजणया ॥ इंदियकसायनिग्गह, पिहितासव जोगझाणमल्लीणो । संजमकुलगुणनिधी, तिविधकरण भावसुविसुद्धो ॥
(व्यभा १४८८ - १४९० )
संयोजना
परिभोगैषणा ( मांडलिक) दोष का एक प्रकार । स्वादवृत्ति से खाद्यपदार्थों को मिलाकर खाना ।
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संजोयणाए दोसो जो संजोएइ भत्तपाणं 'तु । दव्वाई रहे संयोजना प्रायश्चित्त
एकजातीय, युगपत् लगने वाले अनेक अतिचारों के लिए प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त, जैसे- शय्यातरपिण्डइ-वह आधाकर्मी भी, अभ्याहत भी ।
संयोजनम् — एकजातीयातिचारमीलनं संयोजना यथाशय्यातरपिण्डो गृहीतः सोऽप्युदकार्ब्रहस्तादिना सोऽप्यभ्याहृतः सोऽप्याधाकर्मिकस्तत्र यत् प्रायश्चित्तं तत् संयोजनाप्राय(स्था ४. १३३ वृ प १८९)
श्चित्तम् ।
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(पिनि ६३८)
संरम्भ
जीववध आदि का संकल्प । संरम्भ: - संकल्पः ।
प्राणातिपातादिसंकल्पावेश: संरम्भः ।
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(उ२४.२१ शावृ प ५१८) (तभा ६.९ वृ)
संलीनता
बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार । इन्द्रिय, मन आदि का बाह्य विषयों से प्रतिसंहरण कर उन्हें अन्तर्मुखी बनाना । इंदियकसायजोगे पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा ।
( उ ३०.८ शावृ प ६०८ )
(द्र प्रतिसंलीनता)
संलेखना
शरीर और कषाय को कृश करने के लिए किया जाने वाला तप । इसका उत्कृष्ट कालमान बारह वर्ष, मध्यम एक वर्ष और जघन्य छः मास है ।
सम्यक्कायकषायलेखना संलेखना । (तवा ७.२२) बारसेव उ वासाई संलेहुक्कोसिया भवे । संवच्छरं मज्झिमिया छम्मासा य जहन्निया ॥
( उ ३६.२५१)
संलेखना श्रुत
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें मारणान्तिक संलेखना का निरूपण है।
वाघातो निव्वाघातो वा भत्तसंलेहो कसायादिभावसंलेहो य जो जहा कातव्व तहा वण्णिज्जते जत्थऽज्झयणे तमज्झयणं संलेहणासुतं । (नंदी ७७ चू पृ ५८)
संवर
नौ तत्त्वों में एक तत्त्व । चेतना की वह अवस्था, जिसमें नए कर्मों के प्रवेश का निरोध होता है - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का निरोध होता है, जो गुप्ति, समिति, श्रमणधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप की साधना से सिद्ध होती है। आश्रवनिरोधः संवरः ।
सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः । (तसू ९.१, २) अपूर्वकर्मावयवप्रवेशनिवारणाय तु संवरमेव ।
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मिच्छादंसणाविरइकसायपमायजोगनिरोहो संवरो ।
(तभा ९.१ वृ पृ १८० )
(जीचू पृ. ५)
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