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मिच्छत्तपरिणदप्पा तिव्वकसाएण सुट्टु आविट्ठो । जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि
बहिरप्पा ॥ (काअ १९३) बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिः । (सश ५) २. वह व्यक्ति, जो प्रथम तीन गुणस्थानों में विद्यमान है और जो इन्द्रिय-सुखों में आसक्त है। मिथ्यासासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्यन्यूनाधिकभेदेन (बृद्रसंवृ पृ ३८) स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तवसुखात् प्रतिपक्षभूतेनेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा, तद्विलक्षणोऽन्तरात्मा ।
बहिरात्मा ।
(बृद्रसं १४ वृ पृ ३६)
बहिर्लेश्या
वह अप्रशस्त भावधारा, जिसके कारण व्यक्ति संयम में अथवा आत्मा में रमण नहीं कर पाता । संजमनिग्गतभावो बहिलेस्सो भवति ।'' अहवा अप्पसत्थाओ लेस्साओ संजमस्स बाहिं वहतीतिकाउं सो बहिलिस्सो भवति । (आ ६.१०६ चू पृ २४१ )
बहिर्विहार
मोक्ष, जो संसार के बाहर है।
बहिः संसाराद् विहारः - स्थानं बहिर्विहारः, स चार्थान्मोक्षः । (उशावृ प ३९७) जाईजरामच्चुभयाभिभूया, बहिंविहाराभिनिविट्ठचित्ता । ...... ( उ १४.४)
बहिस्ताद् आदानविरमण
बाह्य वस्तुओं के ग्रहण का संयम करना। मैथुन और परिग्रह से विरति । बहिर्द्धा
--.....आदीयत इत्यादानं - परिग्राह्यं वस्तु | (स्था ४.१३७ वृ प १९० ) -परिग्रहस्तयोर्द्वन्द्वैबहिर्द्धा - मैथुनं परिग्रहविशेषः, आदानंच-1 कल्वम् । (स्था ४.१३६ वृ प १९० )
बहुअवग्रहमि
१. व्यावहारिक अर्थावग्रह का एक प्रकार। बहु का अवग्रहण करना, , जैसे- तत, वितत, घन, भेरी आदि के शब्दों को एक साथ ग्रहण करना ।
नाणासद्दसमूहं बहु पिहं मुणइ भिन्नजाईयं । (विभा ३०८)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
'युगपत्ततविततघनसुषिरादिशब्दश्रवणाद् बहुशब्दं गृह्णाति ।
( तवा १.१६.१६) य एष औपचारिकोऽवग्रहस्तमङ्गीकृत्य बहु अवगृह्णातीत्येतदुच्यते, न त्वेकसमयवर्तिनं नैश्चयिकमिति, एवं बहुविधादिषु सर्वत्रौपचारिकाश्रयणाद्। (तभा १.१६ वृ पृ ६४ ) २. पांच, छह अथवा सात सौ ग्रंथों (श्लोकों) को एक बार में ही ग्रहण कर लेना ।
बहुगं पुण, पंच व छस्सत्तगंथसया ।
बहुअस्थिक
वह फल, जिसमें बहुत बीज हों।
(द्र अस्थिक)
(व्यभा ४१०६)
बहुआगम
जो मुनि अनेक आगमों के अर्थ का विशेषज्ञ होता है, वह बह्वागम है ।
(द ५.१.७३)
बहुसुत- बहुआगमिया, सुत्तत्थविसारदा धीरा ॥ बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बह्वागमः ।
बहुजन
आलोचना का एक दोष। एक के पास आलोचना कर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना । बहवो जना - आलोचनाचार्याः यस्मिन्नालोचने तद्बहुजनः । (स्था १०.७० वृ प ४६१ )
(द्र क्रियमाण-कृत)
(व्यभा १४७८ वृ)
बहुमान
ज्ञानाचार का एक प्रकार । ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनुराग । बहुमानः प्रीतिस्तद्विषये, यतो बहुमानेनैव - आन्तरचित्तप्रमोदलक्षणेन पठनादि विधेयम् । (प्रसा २६७ वृ प ६४)
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बहुरतवाद
प्रवचननिह्नव का प्रथम प्रकार । यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार द्रव्य की निष्पत्ति एक समय में नहीं होती, किन्तु दीर्घकाल में होती है। इसमें क्रियमाण-कृत के दृष्टिकोण का अस्वीकार है । 'बहुरय' त्ति एकेन समयेन क्रियाध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुत्पत्तेः प्रभूतसमयैश्चोत्पत्तेः बहुषु समयेषु रताः - सक्ता बहुरताः दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः ।
(स्था ७.१४० वृ प ३८९)
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