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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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निह्नव
(विभा २२९९) (द्र प्रवचननिह्नव) नीचगोत्र गोत्र कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव जाति, कुल आदि की हीनता का अनुभव करता है। यदुदयवशात् पुनर्ज्ञानादिसम्पन्नोऽपि निन्दा लभते हीनजात्यादिसम्भवं च तत् नीचैर्गोत्रम्। (प्रज्ञा २३.५७७ प ४७५)
नीरज वह आत्मा, जो आठ कर्मों से मुक्त है। णीरया नाम अट्टकम्मपगडीविमुक्का भण्णंति।
(द ४.२४ जिचू पृ ११७)
नील
कर्म-पुद्गलों की वह रचना, जो प्रतिसमय होने वाले अनुभाव के अनुरूप होती है। अबाधाकाल पूर्ण होने पर उदयाभिमुख कर्म-पुद्गलों की प्रथम समय में बहु, दूसरे में विशेष हीन, तीसरे में हीनतर, उससे आगे के समयों में हीनतम-इस प्रकार होने वाली रचना या व्यवस्था निषेक है। कर्मनिषेको नाम कर्मदलिकस्यानुभवनार्थं रचनाविशेषः। तत्र च प्रथमसमये बहुकं निषिञ्चति द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुत्कृष्टस्थितिकं कर्मदलिकं तावद् विशेषहीनं निषिञ्चति। (भग ६.३४ वृ) निष्कांक्षित सम्यक्त्व का दूसरा आचार। सर्वज्ञ-प्रणीत दर्शन से भिन्न दर्शनों को ग्रहण करने की इच्छा का न होना। कांक्षितं-युक्तियुक्तत्वादहिंसाद्यभिधायित्वाच्च शाक्योलुकादिदर्शनान्यपि सुन्दराण्येवेत्यन्यान्यदर्शनग्रहात्मकं तदभावो निष्कांक्षितम्। (उ २८.३१ शावृ प५६७) निष्प्रतिकर्मता योगसंग्रह का एक प्रकार । शरीर की सारसंभाल का त्याग। 'निप्पडिकम्मय'त्ति तथैव निष्प्रतिकर्मता शरीरस्य विधेया।
(सम ३२.१.१ वृ. प ५५) निसर्ग क्रिया क्रिया का एक प्रकार । पापादान आदि की प्रवृत्ति को स्वीकार करना। पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुज्ञानं निसर्गक्रिया।(तवा ६.५) निसर्गरुचि १. रुचि का एक प्रकार। परोपदेश के बिना यथार्थ ज्ञान से जीव आदि तत्त्वों पर होने वाली रुचि। २. निसर्गरुचिसम्पन्न व्यक्ति। भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च। सहसम्मुझ्यासवसंवरो य रोएड उ निसग्गो।।
(उ २८.१७) निसर्गसम्यग्दर्शन अनुपदेशात्सम्यग्दर्शनमुत्पद्यत इत्येतन्निसर्गसम्यग्दर्शनम्।
(तभा १.३) (द्र निसर्गरुचि)
वह वर्षधर पर्वत, जो महाविदेह से उत्तर में, रम्यक् वर्ष से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है। यह महाविदेह वर्ष और रम्यक् वर्ष-इन दोनों के मध्य विभाजन-रेखा का काम करता है। महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं, रम्मगवासस्स दक्खिणेणं, पुरथिमिल्ललवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे णीलवंते णाम वासहरपव्वए।
__ (जं ४.२६२) विदेहरम्यकयोर्विभक्ता नीलः। (तभा ३.११ वृ)
नीललेश्या अप्रशस्त लेश्या का दूसरा प्रकार । १. अप्रशस्त भावधारा, चैतन्य की एक रश्मि, जिसका संबंध सांसारिक सुखों से है। इस्साअमरिसअतवो, अविज्जमाया अहीरिया य। गेद्धी पओसे य सढे, पमत्ते रसलोलुए सायगवेसए य॥ आरंभाओ अविरओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो। एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे॥
(उ ३४.२३,२४) (द्र भावलेश्या) २. नीललेश्या के परिणमन में आधारभूत नील वर्ण वाले पुद्गल।
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