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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
खरस्वर परमाधार्मिक देव का एक प्रकार । वे असुर देव, जो वज्र जैसे कांटों से आकुल शाल्मलि वृक्ष का निर्माण कर, उस पर नारकों को आरोपित कर, उन्हें खींचते हैं। कप्पंति करकएहि, तच्छिंति परोप्परं परसुएहिं। सिंव्वलितरुमारुहंति, खरस्सरा तत्थ नेरइया॥
(सूत्रनि ८१)
खेदज्ञ समस्त प्राणियों के कर्मजन्य दु:खों का ज्ञाता तथा उनको नष्ट करने का उपाय बताने वाला। खेदं-संसारान्तर्वर्तिनां प्राणिनां कर्मविपाकजं दःखं जानातीति खेदज्ञो दुःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात्।।
(सूत्र १.६.३ वृ प १४३)
खलिन कायोत्सर्ग का एक दोष। रजोहरण को आगे कर खड़ा होना। ठाइ य खलिणं व जहा रयहरणं अग्गाओ काउं॥
(आवनि १५४६ हावृ पृ २०५)
गच्छ १. एक आचार्य के नेतृत्व में वर्तमान साघुसमुदाय। एकाचार्यप्रणेयसाधुसमूहो गच्छः। (तभा ९.२४ वृ) २. साधुओं का वह संगठन, जिसमें कुल, गण और संघ का समावेश होता है। गच्छः साधुसमूहरूपो..."गच्छग्रहणेन कुल-गण-संघरूपो गच्छः ।
(बृभा २८६५ वृ)
खलुङ्क
गजरत्न
(उशा वृ प ३५०)
(द्र हस्तिरत्न)
वह शिष्य, जो गुरु का प्रत्यनीक, पिशुन और अविश्वस्त होता है। जे किर गुरुपडिणीया, सबला असमाहिकारगा पावा। अहिगरणकारगं वा, जिणवयणे ते किर खलङ्का॥ पिसुणा परोवतापी, भिन्नरहस्सा परं परिभवंति। निव्वय-निस्सील-सढा, जिणवयणे ते किर खलुङ्का॥
(उनि ४८८,४८९) खादिम आहार का एक प्रकार। १. खाद्यपदार्थ, जैसे-फल और मेवा। खादः प्रयोजनमस्येति खादिम-फलवर्गादि।
(स्था ४.२८८ वृ प २१९) २. भक्ष्य पदार्थ।
(तवा ७.२१) (द्र स्वादिम, उपवास)
गण १. परस्पर सापेक्ष अनेक कुलों का समुदाय। 'गणः' परस्परसापेक्षानेककुलसमुदायः । (बृभा २७८० वृ) २. समान वाचनाकल्प और सामाचारी वाला साधुसमुदाय। गण इति–एकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायः।
(आवनि २११ हावृ पृ९०) ३. श्रुतस्थविरपरम्परा की संस्थिति। 'गणः' स्थविरसन्ततिसंस्थितिः । स्थविरग्रहणेन श्रुतस्थविरपरिग्रहः...तेषां सन्ततिः-परम्परा, तस्याः संस्थानं-वर्तनं अद्यापि भवनं संस्थतिः।
(तभा ९.२४ वृ)
खेचर पञ्चेन्द्रियतिर्यंच का एक प्रकार । चर्म पक्षी, रोम पक्षी, समुद्ग पक्षी और वितत पक्षी। पंचिंदियतिरिक्खाओ।"खहहयरा य बोद्धव्वा"। चम्मे उ लोमपक्खी य, तइया समुग्गपक्खिया। विययपक्खी य बोद्धव्वा, पक्खिणो य चउव्विहा॥
(उ ३६.१७०,१७१,१८८)
गणधर १. धर्मसंघ में सात पदों में से एक पद। वह मुनि, जो आचार्य के समान होता है तथा जो आचार्य के आदेश से साधुसंघ को लेकर पृथक् विहरण करता है। यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग विहरति स गणधरः।
(आवृ प २३६) (द्र उपाध्याय)
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