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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
(द्र द्रव्यलेश्या) ३. तपोविभूतिजन्य तेजस्विता-तैजस ज्वाला, इसके द्वारा सैकड़ों योजनों में अवस्थित वस्तु को भस्म किया जा सकता
संक्षिप्ता-शरीरान्तर्लीनत्वेन ह्रस्वतां गता, विपुलाविस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वातेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला।
(भग १.९ वृ) (द्र तेजोलब्धि, संक्षिप्तविपलतेजोलेश्या)
अन्न, पान आदि से होने वाले अशुद्ध भाव का त्याग। बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरान्नपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः।
(तभा ९.६.८) त्यागी वह व्यक्ति, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनका उपभोग नहीं करता और अपनी स्वतन्त्र इच्छा से उनका त्याग करता है। जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिटिकुव्वई। साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइ॥ (द २.३)
तैजसवर्गणा तैजस शरीर के प्रायोग्य पुद्गलसमूह। (विभा ६३१) तैजसशरीर तैजस परमाणुओं द्वारा निष्पन्न शरीर, जिसके द्वारा दीप्ति, पाचन तथा आभामण्डल का निर्माण होता है और जो तेजोलब्धि का निमित्त बनता है। 'तेयए' त्ति तेजसो भावस्तैजसं, ऊष्मादिलिङसिद्धं, उक्तं
त्रसकाय जीवनिकाय का छठा प्रकार।
(आचूला २.४१) (द्र त्रसकायिक, त्रस जीव) त्रसकायिक वह जीव, जिसका शरीर ही त्रस (त्रसनशील) होता है। त्रसनशीलास्त्रसा: प्रतीता एव, त्रसा: कायाः-शरीराणि येषां ते त्रसकायाः, जसकाया एव त्रसकायिकाः।
(दहावृ प १३८) (द्र त्रस जीव)
सव्वस्स उम्हसिद्धं रसादिआहारपागजणगं च। तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायव्वं ॥
(स्था ५.२५ ७ प २८१)
तैजसशरीरबन्धननाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण तैजस शरीर के पुदगलों का परस्पर तथा कार्मण शरीर के साथ संबंध स्थापित होता है। यदयात्तैजसपुद्गलानां गृहीतानां गह्यमाणानां च परस्परं कार्मणपुद्गलैश्च सह संबंधस्तत्तैजसशरीरबन्धननाम।
(प्रज्ञा २३.४३ वृ प ४७०) तैजससमुद्घात तैजस शरीर का विसर्पण करना। इसका प्रयोजन है अनुग्रह
और निग्रह। यह तैजस नामकर्म के आश्रित होता है। वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्घात: शरीरनामकर्माश्रयाः।
(समवृ प १२) त्यागधर्म श्रमणधर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार। शरीर, उपधि,
त्रस जीव चलने-फिरने वाले प्राणी, जो इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति के लिए इच्छापूर्वक गति करते हैं। हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थं गमनशीलास्त्रसाः, तदितरे स्थावराः।
(जैसिदी ३.३ वृ) त्रसनाडी लोकाकाश का वह क्षेत्र, जहां त्रस जीव रहते हैं। लोक के बहुमध्यभाग में स्थित एक रज्जु लम्बा-चौड़ा और कुछ कम (३२१६२२४१ धनुष कम) तेरह रज्जु ऊंचा क्षेत्र त्रसनाड़ी कहलाता है।
(देखें चित्र पृ ३४१) लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा। तेरसरज्जुच्छेहा किंचूणा होदि तसनाली॥
(त्रिप्र २.६)
त्रसनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव में इच्छापूर्वक
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