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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
गिम्हि अभावा अजोगिणो अबंधया। (धव पु ७ पृ८)
अबहिर्लेश्य वह मुनि, जिसकी भावधारा संयम में लीन हो, संयम से बाहर न जाए। 'अबहिल्लेस'त्ति संयमादबहिर्भूतमनोवृत्तयः।
(औप २५ वृ प ६२) अबाधाकाल कर्म की सत्ताकालीन अवस्था. जिसमें कर्म अपने उदय से जीव को बाधित नहीं करता। यावत् न किञ्चिदपि स्वोदयतो जीवस्य बाधामुत्पादयति।"अबाधाकालपरिज्ञानोपायश्चायं-यस्य यावत्यः सागरोपमकोटीकोट्यस्तस्य तावन्ती वर्षशतान्यबाधा।।
(प्रज्ञावृ प ४७९)
यः स्वभावात्सुखैषिभ्यो, भूतेभ्यो दीयते सदा। अभयं दुःखभीतेभ्योऽभयदानं तदुच्यते॥
(ग अधि २) अभवसिद्धिक वह जीव, जिसमें मुक्त होने की योग्यता नहीं होती। इसे अभव्य कहते हैं। अभव्यत्व पारिणामिक भाव है, अनादिअनंत है। अभवसिद्धिका:-अभव्याः। (प्रज्ञा ३.११३ वृ प १४०) जीवत्वमभव्यत्वं चानादिरनन्तः। (विभामवृ१ पृ७३४) (द्र भवसिद्धिक)
अबुद्ध जागरिका वह जागृत अवस्था, जो छद्मस्थ मुनि को प्राप्त है। जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिट्ठावणियासमिया मणसमिया वइसमिया कायसमिया मणगुत्ता वइगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिंदिया गुत्तबंभचारी-एए णं अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति।
(भग १२. २१) अबुद्धिपूर्वा निर्जरा वह निर्जरा, जो आत्मशुद्धि की बुद्धि के बिना कर्मफल के अनुभव के रूप में होती है। इसे विपाकी निर्जरा भी कहते ।
अभव्य (द्र अभवसिद्धिक) अभाषक वह जीव, १. जिसे भाषा-पर्याप्ति के अभाव में बोलने की क्षमता प्राप्त न हो, जैसे एकेन्द्रिय। अभाषका-भाषालब्धिहीनाः। (प्रज्ञावृप १३९) २. जिसमें भाषा पर्याप्ति होने पर भी बोलने की क्षमता न हो, जैसे गूंगा। ३. भाषा पर्याप्ति और बोलने की क्षमता होने पर भी जो नहीं बोल रहा हो, जैसे मौन अवस्था वाला। ४. जो अयोगी-चतुर्दश गुणस्थानवर्ती हो।
हैं।
नरकादिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा। (तवा ९.७) अभक्तार्थ सूरे उग्गए अभत्तटुंपच्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं....।
(आव ६.७) (द्र उपवास, चतुर्थभक्त)
अभिगमकुशल वह मुनि, जो साधु और आचार्य का आदर-सम्मान और भक्ति करने में कुशल है। साधणमायरियाणंजा विणयपडिवत्ती सो अभिगमो भण्णड, तंमि कुसले।
(द ९.३.१५ जिचू प ३२४) अभिगमरुचि १. रुचि का एक प्रकार, सूत्र के अर्थ का अवगाहन करने से उत्पन्न होने वाली रुचि। २. अभिगमरुचि सम्पन्न व्यक्ति। सो होइ अभिगमरुई, सुयनाणं जेण अत्थओ दिटुं। एक्कारस अंगाई, पइण्णगं दिट्टिवाओ य॥
(उ २८. २३)
अभयदान जीवों को अपनी ओर से भय-मुक्त करना-अभय प्रदान करना। जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारित्वादभयदानं श्रेष्ठम्।
(सूत्र १.६.२३ वृ)
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