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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २५५ लौकिक उपकार साधवः। (प्रसावृप १८३) वह उपकार, जो संयम का हेतु नहीं बनता और जो लौकिक (द्र ऋजुजड) व्यवहार का हेतु बनता है। वक्रसमाचार लौकिकः-अपारमार्थिक उपकारः। (जैसिदी ९.२१) १. वह पुरुष, जो गृहत्यागी होकर भी असंयम का आचरण (द्र लोकोत्तर उपकार) करता है। लौकिकधर्म २. वह पुरुष, जो संसाराभिमुख है। (दनि ३८) 'वंकसमायारे' "असंयम समाचरति"आगमपरिभाषायां (द्र लोकधर्म) ऋजुः-संयमो मोक्षो वा, वक्र:-असंयमः संसारो वा। (आभा १.९८) लौकिक व्यवसाय सामान्य लोक की अवधारणा के आधार पर किया जाने वचनअसंयम वाला निश्चय और अनुष्ठान। (स्था ३.३९६) अकुशल वचन की प्रवृत्ति करना। (द्र व्यवसाय) मनोवाक्कायानामसंयमास्तेषामकुशलानामुदीरणानि। (सम १७.१ ७ प ३२) वंशा वचनअसंवर अधोलोक (नरक) की दूसरी पृथ्वी का नाम। कर्म-आकर्षण की हेतुभूत वाचिक प्रवृत्ति। (स्था १०.११) (द्र अञ्जना) वचनदण्ड वंशीपत्रिका वाणी का दुष्प्रयोग, सावध भाषा का प्रयोग। योनि का एक प्रकार। बांस की जाली के पत्ते के आकार वइदंडो सावज्जा भासा। (आवचू २ पृ७७) वाली योनि । यह योनि सामान्य जनों की माता के होती हैं। वंसीवत्तिता णं जोणी पिहज्जणस्स। वचनदुष्प्रणिधान वंशजाल्याः पत्रकमिव या सा वंशीपत्रिका। वचन की वह अवस्था, जिसमें मिथ्या वाक् के प्रति अवधान (स्था ३.१०३ वृ प ११६) होता है। (स्था ३.९९) (द्र कूर्मोन्नता, शंखावर्ता) (द्र मनोदुष्प्रणिधान) वक्तव्यता वचननिर्विष एक विषय की प्ररूपणा, प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन। औषधि ऋद्धि का एक प्रकार। अज्झयणाइसु सुत्तपगारेण सुत्तविभागेण वा इच्छा परू- १. इस ऋद्धि से सम्पन्न व्यक्ति के वचनमात्र से तिक्त आदि विजंति सा वत्तव्वता भवति। (अनु १०० चू पृ८५) ___ रस तथा विषमिश्रित अन्न मधुरता और निर्विषता को प्राप्त हो जाता है। २. इस ऋद्ध के प्रभाव से बहुत व्याधियों से युक्त जीव वह साधु, जो स्वभाव से वक्र और मति से जड़ होता है, ऋषि-वचन सुनकर तत्काल नीरोग हो जाता है। उसे धर्म का तत्त्व समझाना कठिन होता है। तित्तादिविविहमण्णं, विसजुत्तं जीए वयणमेत्तेण। 'वक्कजडा य'त्ति, वक्राश्च वक्रबोधतया जडाश्च तत एव पावेदि णिव्विसत्तं, सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा॥ स्वकानेककुविकल्पतो विवक्षितार्थप्रतिपत्त्यक्षमतया वक्र अहवा बहुवाहीहिं, परिभूया झत्ति होंति णीरोगा। जडाः। (उ २३.२६ शावृ प५०२) सोढुं वयणं जीए, सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा॥ वक्रजडा:-शठत्वमुग्धत्वधर्मद्वययुक्ताः केचिच्चरमतीर्थकर (त्रिप्र १०७४, १०७५) वक्रजड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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