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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। (स्था ३.९७) कायेन।
(औप २४ वृ पृ ५२) कायस्थिति
कायोत्सर्ग वह काल, जिसमें जीव जन्म-मृत्यु करता हुआ भी उसी १. षडावश्यक में पांचवां आवश्यक । प्रतिक्रमण आदि प्रवृत्तियों निकाय-अवस्था में रहता है, जैसे-मनुष्य मरकर पुनः । में नियत कालावधि तक चतुर्विंशतिस्तवयुक्त किया जाने मनुष्य बन जाता है। पृथ्वी आदि जीव असंख्य काल तक वाला देह के ममत्व का विसर्जन। अपनी अपनी योनि में रह सकते हैं।
देवस्सियणियमादिस जहत्तमाणेव उत्तकालम्हि। काये-निकाये पृथिव्यादिसामान्यरूपेण स्थितिः काय- जिणगुणचिंतणजुत्तो काउस्सग्गो तणुविसग्गो॥ स्थिति: असंख्योत्सर्पिण्यादिका।
(मूला २८) (स्था २.२५९ वृ प ६२)
(द्र षडावश्यक)
२. शरीर की वह अवस्था, जिसमें चंचलता और ममत्व का कायिक
विसर्जन किया जाता है। नैपुणिक (पुरुष) का एक प्रकार। शरीर में रहे हुए इड़ा,
काय:-शरीरं तस्योत्सर्गः-आगमोक्तनीत्या परित्यागः पिंगला आदि प्राणतत्त्वों का ज्ञाता।
कायोत्सर्गः।
(उशावृप ५८१) कायिक-शारीरिकम, इडापिंगलादि प्राणतत्त्वं"तज्ज्ञो निपुणप्रायो भवति। (स्था ९.२८ वृ प ४२८)
कायोत्सर्ग प्रतिमा (द्र नैपुणिक)
उपासक प्रतिमा का पांचवां प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक
कायोत्सर्ग की सघन साधना करता है। कायिक ध्यान
पञ्च मासांश्चतुष्वपा गृहे तद्वारे चतुष्पथे वा परीषहो१. शरीर की वह अवस्था, जिसमें कछुए की भांति अंगोपांग
पसर्गादिनिष्प्रकम्पकायोत्सर्गः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानं पालयन् का संगोपन किया जाता है।
सकलां रात्रिमास्त इति पञ्चमी। (योशा ३.१४८७ प्र७६२) कर्मवद वा संलीनाङोपाङस्तिष्ठति। (बभा १६४२व) २. शरीर की चेष्टा, जिसमें किसी व्याक्षेप के बिना भंगों की
कारक गणना की जाती है।
१. वह मुनि, जो आगमोक्त प्रतिलेखना आदि क्रियाकलाप कायिकं नाम यत् कायव्यापारेण व्याक्षेपान्तरं परिहरन्नुप
का आचरण करता है अथवा करवाता है। युक्तो भङ्गकचारणिकां करोति। (बृभा १६४२ वृ)
भणगं करगं झरगं"। वंदामि अज्जमगुं..॥
'कारकं' कालिकादिसूत्रोक्तमेवोपधिप्रत्युपेक्षणादिरूपं कायिकी क्रिया
क्रियाकलापं करोति, कारयतीति वा। क्रिया का एक प्रकार।
(नन्दी गा २८ मवृ प ५०) १. काया की प्रवृत्ति।
कारकसम्यक्त्व कायेन निर्वत्ता कायिकी-कायव्यापारः।
वह सम्यक्त्व, जिसके होने पर व्यक्ति सद्-अनुष्ठान में
(स्था २.५ वृ प ३८) २. प्रद्वेष की अवस्था में होने वाली शारीरिक चेष्टा।
श्रद्धा करता है, उसका आचरण करता है और करवाता है।
यस्मिन् सम्यक्त्वे सति सदनुष्ठानं श्रद्धत्ते, सम्यक् करोति प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिकी क्रिया। (तवा ६.५.८)
च, तत् कारयति सदनुष्ठानमिति कारकं सम्यक्त्वमुच्यते।
(विभा २६७५ वृ पृ१४२) कायेन शापानुग्रहसमर्थ
कारकसूत्र वह मुनि, जिसमें काय से ही शाप देने और अनुग्रह करने ।
आप्तपुरुष की वाणी होने के कारण आगम स्वतः सिद्ध हैं, की शक्ति होती है। मनसैव परेषां शापानुग्रहौ कर्तुं समर्था इत्यर्थः, एवं वाचा ।
फिर भी हेतुप्रदर्शनपूर्वक उनकी सिद्धि करने वाला सूत्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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