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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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ता जंबुद्दीवं णं दीवं लवणे णामं सुमुद्दे वलये वलयागार- लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण साधुगुणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति संठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति॥
लाढः।
(उ २.१८ शावृ प १०७) ता लवणसमुद्दे"""दो जोयणसतसहस्साई चक्कवाल
लान्तक विक्खंभेणं, पण्णरस जोयणसयसहस्साई एक्कासीइं च
छठा स्वर्ग। कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की छठी आवाससहस्साई सतंच ऊतालं किंचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं आहितेति
भूमि।
(उ३६.२१०) वदेज्जा ॥
(सूर्य १९.२, ४)
(देखें चित्र पृ ३४६) जम्बूद्वीपो लवणसमुद्रेण परिक्षिप्तः। (तभा ३.८)
लाभान्तराय लवसप्तम देव
अन्तराय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से लाभ में वह (अनुत्तरोपपातिक) देव, जिसको यदि पूर्ववर्ती मनुष्यभव
विघ्न पैदा होता है। उदार दाता है, देय वस्तु विद्यमान है में सात लव जितना आयुष्य और मिलता, तो वह उसी भव
और याचनाकशल याचक है-इस स्थिति में भी याचक में केवली होकर मुक्त हो जाता।
कुछ प्राप्त नहीं कर पाता। जे सव्वक्कोसियाए ठितीए वदंति अणत्तरोववातिगा ते यदुदयवशाद्दानगुणेन प्रसिद्धादपि दातुर्गुहे विद्यमानमपि लवसत्तमा इत्यपदिश्यन्ते, जति णंतेसिंदेवाणं एवतियं कालं
देयमर्थजातं याञ्चाकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते आउए पहप्पंते तो केवलं पाविऊण सिझंता।
तल्लाभान्तरायम्।
(प्रज्ञा २३.२३ वृ प ४७५) (सूत्र १.६.२४ चू पृ १५०) । लिङ्ग ""सत्त लवे "तेसिं देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्यते तो
१. वेद मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली कामात्मक णं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिझंता बुझंता मुच्चंता
अभिलाषा। परिनिव्वायंता सव्वदुक्खाणं अंतं करेंता।से तेणटेणं गोयमा!
२. स्त्री, पुरुष आदि की विशेषतासूचक शरीररचना। एवं वुच्चइ-लवसत्तमा देवा। (भग १४.८५)
३. नेपथ्य। लवालव
लिंगं"तं तिविहं-वेदो सरीरनिव्वत्ती णेवच्छं च। योगसंग्रह का एक प्रकार । सामाचारी के पालन में सतत
(नन्दीचू पृ २७) जागरूक रहना अथवा प्रतिक्षण अप्रमाद की साधना करना। वेदोदयापादितोऽभिलाषविशेषो लिङ्गम्। (तवा २.६.३) 'लवालवे' त्ति कालोपलक्षणं तेन क्षणे क्षणे सामाचार्य- ४. वह रजोहरण आदि विशिष्ट वेश, जिससे मुनि की नुष्ठानं कार्यम्। (सम ३२.१.४ वृ प५५)
पहचान होती है।
लिंग्यते साधुरनेनेति लिङ्गं रजोहरणादिधारणलक्षणम्। लाक्षावाणिज्य
(आवनि ११३१ हावृ २ पृ २३) कर्मादान का एक प्रकार । लाक्षा आदि का विक्रय।
५. साध्य के साथ साधन का अविनाभावी संबंध। 'लक्खवाणिज्जं' ति लाक्षाया आकरे ग्रहणतो विक्रयः।
(भग ८.२४२ वृ) अण्णहाणुववत्तिलक्खणं लिंगं..।
(धव पु १३ पृ २४५) लिङ्गकषायकुशील (स्था १०.१६)
कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो लिंग (द्र आकिञ्चन्य धर्म)
(मुनिवेष) के विषय में क्रोध, अहंकार आदि का प्रयोग लाढ
करता है।
(भग २५.२८३ वृ) संयमी, जो प्रासुक-एषणीय आहार अथवा साधु-गुणों के (द्र ज्ञानकषायकुशील) द्वारा जीवन-यापन करता है।
लिङ्ग पुलाक
पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। Jain Education International
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लाघव धर्म
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