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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अनिःसृत अवग्रहमति
(तवा १.१६)
(द्र अनिश्रित अवग्रहमति)
अनित्य द्रव्य का पर्यायात्मक स्वरूप, जिसका परिणमन होता रहता है, उत्पाद-व्यय होता रहता है। परिणमनमनित्यम्।
(भिक्षु ६.५) अनित्य अनुप्रेक्षा प्रथम अनुप्रेक्षा। शरीर, व्यक्ति और पदार्थ का संयोग अनित्य है, ऐसा पुनः पुनः चिन्तन करना अथवा अभ्यास करना। बाह्याभ्यन्तराणि शरीरशय्याऽऽसनवस्त्रादीनि द्रव्याणि सर्वसंयोगाश्चानित्या इत्यनुचिन्तयेत्। (तभा ९.७)
वह मुनि, जो चिन्तन किए बिना शरीर और उपकरण की विभूषा करता है। शरीरोपकरणभूषयो: "सहसाकारी अनाभोगबकुशः।
(स्था ४.१८६ वृ प३२०) अनाभोग मिथ्यात्व अमनस्क जीव अथवा विचारशून्य व्यक्ति के अज्ञान के कारण होने वाला मिथ्या दृष्टिकोण। अनाभोगिकं विचारशून्यस्यैकेन्द्रियादेर्वा विशेषविज्ञानविकलस्य भवति।
(योशा २. ३ वृ पृ १६५) अनायुक्तप्रमार्जनता क्रिया अनाभोगप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। असावधानी से पात्र आदि के प्रमार्जन की प्रवृत्ति। अनायुक्तस्यैव पात्रादिविषया प्रमार्जनता अनायुक्तप्रमार्जनता।
(स्था २.३३ वृ प ४०) अनायुक्तादानता क्रिया अनाभोगप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । असावधानी से वस्त्र आदि लेने की प्रवृत्ति। अनायुक्त:-अनाभोगवाननुपयुक्त इत्यर्थः तस्याऽऽदानतावस्त्रादिविषये ग्रहणता अनायुक्तादानता।
(स्था २.३३ वृ प ४०) अनाशातना विनय दर्शनविनय का एक प्रकार । अर्हत् आदि की भक्ति, बहुमान और गुणोत्कीर्तन करना। अणासायणाविणतो."अरहंताणं भत्ती अरहंताणं बहुमाणो अरहंताणं वण्णसंजलणता।
(दअचू पृ १५)
अनिदा वेदना मानसज्ञानशून्य (अथवा विवेकविकल) अवस्था में अनुभव की जाने वाली वेदना। दुविहा वेदणा पण्णत्ता, तं जहा--णिदा य अणिदा य॥ अनिदा चित्तविकला सम्यगविवेकविकला वा।
(प्रज्ञा ३५.१६ वृ प ५५७)
अनिदान जो ऋद्धि आदि के निमित्त तप, संयम नहीं करता। जो किए हुए तप के बदले में ऐहिक फल की कामना नहीं करता। माणुसरिद्धिनिमित्तं तवसंजमं न कुव्वइ, से अनियाणे।
(द १०.१३ जिचू पृ ३४५) अनिदानो भाविफलाशंसारहितः। (दहावृ प २६७) (द्र निदान)
अनाश्रव संवर, नए कर्म के आश्रव का निरोध। अनाश्रवो-नवकर्मानुपादानम्। (भग २.१०० वृ)
अनाहारक १. ओज आदि आहार-पुद्गलों का भी आहरण (ग्रहण) न । करने वाला। अनाहारका ओजाद्याहाराणामन्यतमेनापि नाहारयन्ति।
(श्राप्रवृ प १६८) २. तैजस और कार्मण वर्गणा के अतिरिक्त अन्य पुद्गलों का ग्रहण न करने वाला जीव।
अनिन्द्रिय १. मन, अन्तःकरण, जो मतिज्ञान में निमित्त बनता है। मनोऽन्तःकरणमनिन्द्रियमित्युच्यते। (तवा १.१४) २. ओघज्ञान, चेतना के अनावरण की स्वतंत्र क्रिया, जो इन्द्रिय और मन से पृथक् है।। अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्तिरोघज्ञानं च। (तभा १.१४) (द्र ओघसंज्ञा) ३. अशरीरी-सिद्ध, जिसके इन्द्रियां नहीं होती।
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