________________
२८८
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
आदि के माध्यम से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचता है। पायदुगं जंघोरू गातदुगद्धं तु दो य बाहूयो। द्रव्यश्रुतम्-शब्दसंकेतादिरूपम्, तदनुसारेण परप्रत्यायनक्षम गीवा सिरं च पुरिसो बारसअङ्गो सुतविसिट्ठो॥ ज्ञानं श्रुतमभिधीयते। (जैसिदी २.२२ वृ)
(नन्दीचू पृ ५७) (द्र द्रव्यश्रुत, भाव श्रुत)
(द्र द्वादशाङ्ग) २. सामायिक (आचाराङ्ग) से बिंदुसार (चौदहवां पूर्व) पर्यंत शास्त्र । द्वादशाङ्ग।
श्रुत व्यवहार सामाइयमाईयं सुयनाणं बिंदुसाराओ।"
व्यवहार का एक प्रकार। भावे खओवसमिए दुवालसंगं पि होइ सुयनाणं" १. आचारप्रकल्प (निशीथ), कल्प और व्यवहार श्रुत, जो
(आवनि ९३, १०४) विधि और निषेध का प्रतिपादक है। श्रुतज्ञानावरण
आचारप्रकल्पादिश्रुतम्। (स्था ५.१२४ वृ प ३०२)
"पकप्पकप्पो य ववहारो॥ ज्ञानावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके द्वारा श्रुतज्ञान
(व्यभा ४१७३) आवृत होता है।
२. श्रुतधर से प्राप्त प्रवृत्ति और निवृत्ति का निर्देश। श्रुतज्ञानं "तस्यावृतिः श्रुतज्ञानावरणम्। (तभा ८.७ वृ)
श्रुतव्यवहारी
जो आचारप्रकल्प, कल्प और व्यवहार के सूत्र-अर्थ को श्रुतधर्म द्वादशांग में प्रतिपादित भावों का स्वाध्याय।
निपुणता से जानता है तथा संघ में कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का
व्यवहार उपस्थित होने पर इन श्रुतग्रंथों के निर्देशानुसार सुतधम्मो-वालसंगं गणिपिडगं, तस्स धम्मो जाणितव्वा
व्यवहारविधि का प्रयोग करता है। भावा।
(दअचू पृ ११)
जो सुतमहिज्जति बहु, सुत्तत्थं च निउणं वियाणाति। श्रुतनिश्रितमति
कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सुतधराणं॥ वह मतिज्ञान, जो शास्त्र के अध्ययन से परिष्कृत मति वाले तं चेवऽणुमजंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं। व्यक्ति में ज्ञान की उत्पत्ति के समय शास्त्र की पर्यालोचना एसो सुतववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं॥ के बिना उत्पन्न होता है।
(व्यभा ४४३३,४४३६) शास्त्रपरिकर्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमन
श्रुतसमुद्देष्टा पेक्ष्यैव यदुपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम्।
आचार्य का एक प्रकार। वह आचार्य, जो शिष्य को पठित (नन्दी ३७ मत प १४४)
अध्ययन के स्थिरीकरण का निर्देश देता है। श्रुतपुरुष
(द्र श्रुतोद्देष्टा) वह काल्पनिक पुरुष, जिसकी रचना बारह अङ्गों के आधार
श्रुतसम्पदा पर होती है
गणिसम्पदा का एक प्रकार । श्रत के विशिष्ट अध्ययन और दो चरण - आचार, सूत्रकृत
अध्यापन से उपलब्ध होने वाला वैभव। दो जंघा - स्थान, समवाय
सुतसंपदा चउब्विहा पण्णत्ता, तंजहा-बहुसुते यावि भवति, दो ऊरु - व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातधर्मकथा
परिचितसुते यावि भवति, विचित्तसुते यावि भवति, घोसउदर - उपासकदशा
विसुद्धिकारए यावि भवति।से तं सुतसंपदा ॥ (दशा ४.५) पीठ - अन्तकृतदशा दो भुजा - अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण
श्रुतसम्भोज ग्रीवा - विपाकश्रुत
सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार । सिर - दृष्टिवाद।
सांभोजिक अथवा उपसम्पदाप्राप्त अन्य सांभोजिक साधु को (देखें चित्र पृ ३४५)
विधिपूर्वक शास्त्र पढ़ाना। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org