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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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'सय' त्ति साम्भोगिकस्यान्यासांभोगिकस्य वोपसम्पन्नस्य श्रुतस्य वाचनाप्रच्छनादिकं विधिना कुर्वन् तथा शुद्धः"।
(सम १२.२ वृ प २२)
श्रुतस्कन्ध अध्ययनों का समूह, जैसे-सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध (प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्ययन, दूसरे में सात अध्ययन)।
(अनु ५७१) श्रुतस्थविर श्रुतज्ञान की अपेक्षा से ज्येष्ठ मुनि, स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग का धारक श्रमण-निर्ग्रन्थ। ठाणसमवायधरे णं समणे णिग्गंथे सयथेरे।
(स्था ३.१८७) श्रुतोद्देष्टा आचार्य का एक प्रकार। वह आचार्य, जो शिष्य को श्रुत पढ़ने का निर्देश देता है। श्रुतोद्देष्टा-श्रुतम्-आगममुद्दिशति यः प्रथमतः । एवमुद्दिष्टगुर्वादेरपाये तदेव श्रुतं समुद्दिशत्यनुजानीते वा यः स्थिरपरिचितकारयितृत्वेन सम्यग् धारणानुप्रवचनेन च स श्रुतसमुद्देष्टा।
(तभा ९.६ वृ पृ २०८) (द्र उद्देश, समुद्देश) श्रुतोपधान (द्र उपधान, योगवाहिता) श्रुत्वाकेवली सोच्चाकेवली-धर्म सुनने का अवसर और आन्तरिक विशुद्धि का प्रकर्ष-इन दोनों के कारण जिसे केवलज्ञान प्राप्त हुआ
हैं। श्रेणियां सात हैं। 'सेढी' इत्यादि, श्रेणीशब्देन च यद्यपि पंक्तिमात्रमुच्यते तथाऽपीहाकाशप्रदेशपंक्तयः श्रेणयो ग्राह्यः।
(भग २५.७३ वृ प ८६५) २. अध्यात्म-विकास (गुणस्थान-आरोहण) का विशेष उपक्रम। निवृत्तिबादर गुणस्थान से दो श्रेणियों का प्रारम्भ होता है-उपशम श्रेणि, क्षपक श्रेणि। निवृत्तिबादरजीवस्थानात् श्रेणिद्वयं जायते-उपशमश्रेणिः, क्षपक श्रेणिश्च।
(जैसिदी ७.१२ वृ) (द्र उपशम श्रेणि, क्षपक श्रेणि) श्रेणिचारण चारण ऋद्धि का एक प्रकार। जिस ऋद्धि के द्वारा साधक पर्वतश्रेणी के आधार पर ऊपरनीचे गमन कर सकता है। चतर्योजनशतोच्छितस्य निषधस्य नीलस्य च गिरेष्टच्छिन्नां श्रेणिमुपादायोपर्यधो वा पादपूर्वकं उत्तरणावतरणनिपुणाः श्रेणिचारणाः।
(प्रसावृ प १६८)
श्रेणितप इत्वरिक अनशन का एक प्रकार उपवास से लेकर छह मास तक क्रमपूर्वक किया जाने वाला तप। श्रेणि:-पंक्तिस्तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपः, चतुर्थादिक्रमेण क्रियमाणमिह षण्मासान्तं परिगह्यते।
(उ ३०.१० शावृ प ६००, ६०१)
जस्सणं"सोच्चा केवलिस्स वा जाव"केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं उप्पाडेन्जा॥
(भग ९.५४) (द्र अश्रुत्वाकेवली) श्रेणि १. आकाश-प्रदेशों की वह पंक्ति जिसके माध्यम से जीव और पुद्गलों की गति होती है। जीव और पुद्गल श्रेणि के अनुसार ही गति करते हैं-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाते
श्रोत्रग्राह्यविवर्जन ब्रह्मचर्य गप्ति का पांचवां प्रकार । स्त्रियों के गीत आदि शब्दों का वर्जन करना। कुइयं रुइयं गीयं, हसियं थणियकंदियं। बंभचेररओ थीणं, सोयगिझं विवज्जए॥
(उ १६ गा ५) श्रोत्रेन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (श्रोत्र) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्गनामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा शब्द को सुनती है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात्"शृणोत्यनेनात्मेति श्रोत्रम्। (तवा २.१९)
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