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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
२. कापोतलेश्या के परिणमन में आधारभूत कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल ।
(द्र द्रव्यलेश्या)
कामगुण
इच्छा को उद्दीप्त करने वाले शब्द आदि विषय | कामस्य वा - मदनस्योद्दीपका गुणाः कामगुणाः -
शब्दादयः ।
(सम ५.३ वृ प १० )
सद्दे रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य ।
पंचविहे कामगुण.....
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( उ १६ गा १० )
कामभोगतीव्राभिलाषा
स्वदार संतोष व्रत का अतिचार । कामभोग की तीव्र इच्छा करना ।
कामौ - शब्दरूपे, भोगाः - गन्धरसस्पर्शास्तेषु तीव्राभिलाषः - अत्यन्तं तदध्यवसायित्वं कामभोगतीव्राभिलाषः । ( उपा १.३५ वृ पृ १३ )
कामभोगाशंसाप्रयोग
संलेखना का एक अतिचार । कामभोग की आकांक्षा करना, जैसे- अच्छा हो, मुझे मानुष अथवा दिव्य कामभोग प्राप्त हो जाएं ।
कामभोगाशंसाप्रयोगो यदि मे मानुष्यकाः कामभोगा दिव्या वा सम्पद्यन्ते तदा साधु इति विकल्परूपः ।
(उपा १.४४ वृ पृ २१)
काम राग
भोग्य वस्तु के प्रति होने वाला राग । मणपल्हायजणणिं, कामराग विवड्ढणिं । बंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवज्जए ॥ कामरागो - विषयाभिष्वङ्गङ्ग ।
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( उ १६, गा. २ शावृ प १८९ )
काय असंवर (आव)
कर्म-आकर्षण की हेतुभूत कायिक प्रवृत्ति । (स्था १०.११)
कायक्लेश
बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार । वीरासन आदि विविध प्रकार के आसनों द्वारा शरीर को साधना ।
ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उगा जहा धरिज्जंति, कायकिलेसं तमाहियं ॥
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(उ ३०.२७)
कायगुप्ति
१. कायचेष्टा का नियमन करना - आगमोक्त विधि से शयन, आसन, चंक्रमण आदि रूप प्रवृत्ति करना ।
२. असत् प्रवृत्ति से निवर्तन करना ।
३. पूर्णत: कायोत्सर्ग करना - सत् - असत् प्रवृत्तिमात्र का निरोध
करना ।
शयनसनादाननिक्षेपस्थानचङ्कमणेषु कायचेष्टानियमः कायगुप्तिः ।
(तभा ९.४)
कायस्य गुप्तिः - संरक्षणं उन्मार्गगतेरागमतः ।...... गमनादिविषयेषु कायकृतचेष्टायाः - कायव्यापारस्य नियमो - व्यवस्था निग्रहः - एवं कर्त्तव्यम् एवं न कर्त्तव्यामिति । उक्तं
च
'कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गे शरीरगुप्ति स्यात् । ' (तभा ९.४ वृ पृ १८४, १८५ )
(द्र गुप्ति)
दोषेभ्यो वा हिंसादिभ्यो विरतिस्तयोर्गुप्तिः ॥ (तभा ९.४ वृ) कायदण्ड
शरीर का दुष्प्रयोग- शरीर की अशुभ परिणति और प्रमत्त अवस्था में किया जाने वाला कर्म ।
कायेण असुभपरिणतो पमत्तो वा जं करेति सो कायदंडो । (आवचू २ पृ७७)
काय दुष्प्रणिधान
शरीर की वह अवस्था, जिसमें मिथ्या आचरण के प्रति अवधान होता है।
(द्र मनोदुष्प्रणिधान)
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कायपरिचारक
सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव, जिनकी कामेच्छा शारीरिक संभोग से शांत होती है।
दोसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा पण्णत्ता, तं जहा- सोहम्मे चेव, ईसाणे चेव । (स्था २.४५६ ) 'कायपरियारग' त्ति परिचरन्ति सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः कायतः परिचारकाः कायपरिचारकाः ।
(स्थावृप ४५)
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