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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं"जीवप्रदेशान् शरीराद् बहिर्निष्काश्य। (सम ७.२ ७ प १२) कषः कर्म भवेत् तस्य आयो-लाभ: प्राप्तिः कषायः। (तभा ६.५ वृ) ३. चेतना को अपने रंग में रंग देने वाला मोह का आवेश। कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषायाः। (प्रज्ञा १४.१ ७ प २९०) कषाय आत्मा आत्मा का राग-द्वेषात्मक पर्याय। क्रोधादिकषायविशिष्ट आत्मा कषायात्मा अक्षीणानुपशान्तकषायाणाम्। (भग १२.२०० वृ) कांक्षा सम्यक्त्व का एक अतिचार । लक्ष्य के विपरीत दृष्टिकोण के प्रति अनुरक्ति। काङ्कितं-युक्तियुक्तत्वादहिंसाद्यभिधायित्वाच्च शाक्योलूकादिदर्शनान्यपि सुन्दराण्येवेत्यन्यान्यदर्शनग्रहात्मकम्। (उशावृ प ५६७) कांक्षामोहनीय 'इस मत को स्वीकार करूं या उस मत को स्वीकार करूं' इस प्रकार की अभिलाषात्मक मनोदशा। कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः उपलक्षणत्वाच्चास्य शंकादिपरिग्रहः। ततः कांक्षाया मोहनीयं कांक्षामोहनीयम्। (भग १.११८ वृ) कान्दी भावना संक्लिष्ट भावना का एक प्रकार । कामकथा आदि से भावित चित्त वाले व्यक्ति का व्यवहार और आचरण। कंदप्पकोक्कुइयाइं तह, सीलसहावहासविगहाहिं। विम्हावेंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ॥ (उ ३६.२६३) कषाय आश्रव आत्मा का कषायरूप परिणाम, जो कर्म पुद्गलों के आश्रवण का हेतु बनता है। (स्था ५.१०९) कषायकुशील कुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जिसके संज्वलन कषाय की उदीरणा होती है। येषां तु संयतानामपि सतां कथञ्चित्सञ्चलनकषाया उदीर्यन्ते ते कषायकुशीलाः। (स्थावृ प ३२०) (द्र कुशील) कषायप्रतिसंलीनता प्रतिसंलीनता का एक प्रकार। क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय का निरोध, उदय में आए हए कषाय का विफलीकरण। कोहस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, माणस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं, मायाउदयणिरोहो वा उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरणं, लोहस्सुदयणिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरणं। से तं कसायपडिसंलीणया। (औप ३७) कषायवेदनीय कषाय के रूप में किया जाने वाला संवेदन। क्रोधादिकषायरूपेण वेद्यते तत् कषायवेदनीयम्। (प्रज्ञा २३.१७ वृप ४६८) कषायसमुद्घात समुद्घात का एक प्रकार। कषाय की तीव्रता से आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना। काकिणीरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो चक्रवर्ती के स्कन्धावार को प्रकाशित करता है। काकिणीरत्नमष्टसौवर्णिकं"यत्र चन्द्रप्रभा सूर्यप्रभा वह्निदीप्तिर्वा न तमःस्तोममपहर्तुमलं भवति तत्र तमिस्रगुहायामतिनिबिडतिमिरतिरस्करणदक्षं"यच्च सर्वकालं चक्रवर्ती निजस्कन्धावारे रात्रौ स्थापयति। (प्रसावृ प ३५०) कापोतलेश्या अप्रशस्त लेश्या का तीसरा प्रकार । १. अप्रशस्त भावधारा, वक्रता से संबंधित चेतना की एक रश्मि । वंके वंकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचग ओवहिए मिच्छदिदी अणारिए॥ (उ ३४.२५) (द्र भावलेश्या) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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