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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
केइ पुरिसे आयहेउं वा णाइहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेडं वा सयमेव मुसं वयति, अण्णेण वि मुसं वयावेइ, मुसं वयं पि अण्णं समणुजाणति। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ। छठे किरियट्ठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिए।
(सूत्र २.२.८)
मृषावाद आश्रव असत्य के द्वारा कर्म को आकर्षित करने वाली आत्मा की अवस्था।
(स्था ५.१२८) झूठ बोलै तिण नै कह्यो जी, आसव मृषावाद ताय। आय लागै असुभ कर्म छै जी, सात आठ दुखदाय॥
(झीच २२.६)
मृषावाद पाप पापकर्म का दूसरा प्रकार। झूठ बोलने की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध। (आवृ प ७२) मृषावाद पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मृषावाद में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, बोलै झूठ अयाण। तिण कर्म नै कहियै सही जी, मुषावाद पापठाण॥
(झीच २२.५) मृषावादविरमण दूसरा महाव्रत। असत्यभाषण के परित्याग से होने वाली विरति। मृषा-अलीकं वदनं वादो मृषावादः तस्माद्विरमणंविरति-रिति।
(स्था ५.१ वृ प २७६)
गमन कर सकता है। अविराहिदूण जीवे अपुकाए बहुविहाण मेघाणं। जं उवरि गच्छइ मुणी सा रिद्धी मेघचारणा णाम॥
(त्रिप्र ४.१०४३) मेधा अवग्रह की पांचवीं अवस्था, जिसमें उत्तरोत्तर धर्म की जिज्ञासा के काल में विशेष सामान्य अर्थ का अवग्रहण होता है। उत्तरुत्तरविसेससामण्णत्थावग्गहेसु जाव मेरया धावइ ताव मेधा भण्णइ।
(नन्दी ४३ चू पृ ३६) मेधावी १. सूत्र और अर्थ का ग्रहण करने वाली पटु मति से सम्पन्न । २. पूर्व अधीत सूत्र और अर्थ को धारण करने वाली मति से सम्पन्न। ३. आचारविषयक मर्यादा की मति से सम्पन्न । ४. सत् और असत् का विवेक रखने वाला, श्रुतसम्पन्न मुनि। ५. विवेकसम्पन्न, मर्यादावान्, सम्पूर्ण समाधि के गुणों को जानने वाला मुनि। उग्गहण धारणाए, मेरए चेव होइ मेधावी। तिविहम्मि अहीकारो, मेरासंजुत्तो मेहावी॥
___(बृभा ७५९) मेधावी सदसद्विवेकः सश्रुतिकः। (सूत्र १.७.६ वृ प १५६) मेधावी-विवेकी मर्यादावान वा सम्पर्णसमाधिगणं जानानः।
(सूत्र १.१०.९ वृ प १९२) ६. जो अरति का निवर्तन करता है, संयमपथ को स्वीकार कर उसमें रमण करता है। अरइं आउट्टे से मेहावी।
(आ २.२७) ७. जो सत्य की आज्ञा (आगम और सूक्ष्म पदार्थ-परिज्ञान) में उपस्थित होता है। सच्चस्स आणाए उवट्टिए से मेहावी"। (आ ३.६६)
मृषोपदेश स्थूलमृषावादविरमण व्रत का एक अतिचार।दूसरों को अनजान में अथवा कपटपूर्वक मिथ्या बात बतलाना। मुषोपदेशः-परेषामसत्योपदेशः सहसाकारानाभोगादिना व्याजेन वा।
(उपा १.३३ वृ पृ११) मेघचारण चारण ऋद्धि का एक प्रकार । इस ऋद्धि के द्वारा साधक जल के जीवों का उपघात किए बिना बादलों का आलम्बन लेकर
मेरु
(जं ४.६०) (द्र मन्दरपर्वत) मैत्री भावना
। दुःख न हो-इस प्रकार की भावना।
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