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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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मूढा-अविभागत्था गुप्ता नया जंमि अत्थि तं मूढणतिय।।
(आवचू १ पृ ३८०)
णाई, जम्मणाणि"केवलनाणप्पयओ, तित्थपवत्तणाणि. एवमाई भावा मूलपढमाणुओगे कहिया। (नंदी १२०) मूल प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का एक प्रकार। प्रगाढतर अपराध होने पर संयमपर्याय का मूल से विच्छेद करना-नई दीक्षा देना। मूलं पगाढतरावराहस्स मूलतो परियातो छिज्जति।
(आवचू २ पृ २४७) सव्वं परियायमवहारिय पुणो दिक्खणं मूलं णाम पायच्छित्तं।
(धव पु १२ पृ६२) मूलं-महाव्रतानां मूलत आरोपणम्। (योशा ४.९० वृ)
मूलसूत्र दो आगमिक ग्रन्थों का एक समूह-दशवैकालिक और उत्तराध्ययन।
(समाचारी शतक)
मृग
वह मुनि, जो गीतार्थ नहीं है, अध्ययनपरायण नहीं है। 'मृगा' अगीतार्थाः।
(बृभा २९०१ वृ)
वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त द्रव्य, पुद्गल। ""पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो॥ रूवादिगुणो
(बृद्रसं १५) । मूलकर्म उत्पादन दोष का एक प्रकार। १. कार्मण (कामण), वशीकरण, गर्भस्तम्भन आदि के उपाय बताकर भिक्षा लेना।
(पिनि ४०९) २. वियुक्त व्यक्ति का संयोग कराकर भिक्षा लेना। कार्मणं मूलकर्म।
(अचि ६.१३४) गर्भस्तम्भ-गर्भाधान-प्रसव-स्नपनक-मूल-रक्षा-बन्धनादि भिक्षार्थं कुर्वतो मूलकर्मपिण्डः। (योशा १.३८ वृ पृ१३६) अवसाणं वसियरणं, संजोजयणं च विप्पजुत्ताणं। भणिदं तु मूलकमं॥
(मू ४६१) मूलगुण १. प्राणातिपातनिवृत्ति आदि आचार के मूल नियम, जो उत्तरगुणों के आधारभूत हैं। मूलगुणा:-प्राणातिपातनिवृत्त्यादयः। (प्रसावृप २१२) मूलगुणाः प्रधानानुष्ठानानि उत्तरगुणाधारभूतानि""सर्वोत्तरगुणाधारतां गतानाचरणविशेषान्"। (मू १ वृ) २. पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों का निरोध, केशलोच, षड्आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े-खड़े भोजन और एक बार आहार-इन अठाईस गुणों को मूलगुण कहा गया है। पंच य महव्वयाई समिदीओ पंच जिणवरुद्दिद्वा। पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोचो। आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव। ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु॥
(मू २,३) मूलप्रथमानुयोग अनुयोग का एक विभाग, जिसमें अर्हतों के जीवन का वर्णन
मृताची
१. मृतयाची-अचित्त की याचना करने वाला, याचितभोजी। २. प्रासुकभोजी। मृतयाजी मडाई मृतासी वा। (भग २.१३ चू) मृतादी-प्रासुकभोजी।
(भग २.१३ वृ) ""मृतं तु याचितम्।
(अचि ३.५३०) मृन्मुखी शतायु जीवन की एक दशा, नौवां दशक । इस अवस्था में मनुष्य का शरीर जरा से आक्रांत हो जाता है। जीवन-भावना नष्ट हो जाती है। णवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो, जीवो वसइ अकामओ॥
(दहावृ प ९)
मृषाप्रत्यय क्रियास्थान का एक प्रकार। स्व और स्व से संबद्ध व्यक्तियों के लिए असत्य वचन का प्रयोग।
मूलपढमाणुओगे णं अरहंताणं भगवंताणं पुव्वभवाचव
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