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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
थं विहाय इह सिक्खमाणो उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा । सोभणं बंभचेरं वसेज्जा सुचारित्रमित्यर्थः, गुप्तिपरिसुद्धं वा मैथुनं भरं वुच्चति, गुरुपादमूले जावज्जीवाए वसे । (सूत्र १.१४.१ चू पृ २२८ ) ब्रह्मचर्यम् — आत्मरमणम्, उपस्थसंयमः, गुरुकुलवासश्च । (आभा ५.३५)
५. आत्मविद्या और तदाश्रित आचरण । ब्रह्मचर्यम् - आत्मविद्या तदाश्रितमाचरणं वा ।
(आभा पृ १५ ) ६. प्रथम अंग - आचारांग, जिसके नौ अध्ययन हैं। जे भिक्खू व बंभचेराई अवाएत्ता उत्तमसुयं वाएति ॥ (नि १९.१७) नव बंभचेरा पण्णत्ता''। (सम ९.३ ) कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्यं तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि तानि चाचाराङ्गप्रथम श्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानि । (समवृ प १६ ) ७. जिनप्रवचन, जिसमें सत्य, दया, इन्द्रियनिग्रह आदि धर्मों का अनुष्ठान किया जाता है।
ब्रह्म - सत्यभूतदयेन्द्रियलक्षणं तच्चर्यते - अनुष्ठीयते यस्मिन् तन्मौनीन्द्रप्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते ।
( सूत्र २.५.१ वृ प ११९)
ब्रह्मचर्य - गुप्
ब्रह्मचर्य - मैथुनविरमणव्रत की रक्षा के लिए निर्दिष्ट नव प्रकार के सुरक्षात्मक अभ्यास, जिनका पालन ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है ।
नवबंभचेरगुत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा -...... ब्रह्मचर्यस्य - मैथुनव्रतस्य गुप्तयो ब्रह्मचर्यगुप्तयः ।
(स्था ९.3 ) - रक्षाप्रकारा:
(स्था ८.३ वृ प ४४५)
ब्रह्मचर्य धर्म
श्रमणधर्म अथवा उत्तमधर्म का एक प्रकार । व्रत - परिपालन, ज्ञान की वृद्धि और कषाय के उपशम की साधना के लिए गुरु की अधीनता में रहना । व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकायच गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यमस्वातन्त्र्यं गुर्वधीनत्व.' ।
(तभा ९.६.१० )
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ब्रह्मचर्य महाव्रत
(द्र सर्वमैथुनविरमण)
ब्रह्मचर्यवास
गुरुकुलवास, आजीवन गुरु के अनुशासन में रहना अथवा प्रव्रजित जीवन में रहना ।
...... उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा ।
पडिवज्जति ताव वसे ।
(द्र ब्रह्मचर्य धर्म)
ब्रह्मचर्य संवर
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गुरुपादमूले जावज्जीवाए जाव अब्भुज्जतविहारंण (सूत्र १. १४.१ चू पृ २८४)
( उ २१.१२)
(द्र सर्वमैथुनविरमण)
ब्रह्मप्रतिमा
उपासक प्रतिमा का छठा प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक दिन और रात्रि में सर्वथा मैथुन का परित्याग करता है। षष्ठ्यां अब्रह्मवर्जनप्रतिमायां दिवापि रजन्यामपि च सर्वथापि मैथुनप्रतिषेधः । (प्रसा ९८० वृप २९५ )
( प्रश्न ६.१.२ )
ब्रह्मलोक
पांचवां स्वर्ग । कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की पांचवीं आवासभूमि । ( उ ३६.२१० )
भ
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ब्रह्मस्थावरकाय
ब्रह्म से संबंधित होने के कारण अप्काय का अपर नाम हैब्रह्मस्थावरकाय । (स्था ५.१९)
(द्र इन्द्रस्थावरकाय)
ब्रह्मस्थावरकायाधिपति
वह देव, जो अप्कायसंज्ञक स्थावरकाय का अधिपति है । (स्था ५.२० वृप २७९ )
(द्र इन्द्रस्थावरकायाधिपति )
भङ्ग
वह व्यवस्था, जिसके द्वारा किसी वस्तु में होने वाले संभावित विकल्पों का न्यास किया जाता है।
(अनु ११७)
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