________________ 330 जैन पारिभाषिक शब्दकोश स्वाध्याय आभ्यन्तर तप (निर्जरा) का एक प्रकार। श्रुतग्रंथों का अध्ययनअध्यापन। श्रुतस्याध्ययनं स्वाध्यायः। (जैसिदी 6.40) हडो णाम वणस्सइविसेसो, सो दहतलागादिसु छिन्नमूलो भवति तथा वातेण य आइद्धो इओ इओ य निज्जाइ। (द 2.9 जिचू पृ८९) हरितसूक्ष्म वह अंकुर, जो पृथ्वी के समान वर्ण वाला और दुर्जेय होता सुहुमं। स्वाध्याय मण्डली मण्डली का एक विभाग। इस व्यवस्था के अनुसार श्रमण गुरु के साथ विधिपूर्वक सामूहिक स्वाध्याय करते हैं। (द्र मण्डली) स्वानुदयबन्धिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध अपने अनुदय-काल में ही होता है, जैसे-देवायु, तीर्थंकर नामकर्म आदि। स्वस्यानुदय एव बन्धो यासां ताः स्वानुदयबन्धिन्यः / (कप्र पृ 40) स्वार्थानुमान हेतु के ग्रहण और व्याप्ति के स्मरण से होने वाला साध्य का विज्ञान। तत्र हेतुग्रहणसंबंधस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम्। (प्रनत 3.10) (द्र परार्थानुमान) स्वोदयबन्धिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध अपने उदय-काल में ही होता है, जैसे-मतिज्ञानावरण, मिथ्यात्वमोहनीय आदि। स्वोदय एव बन्धो यासां ताः स्वोदयबन्धिन्यः। (कप्र पृ४०) जो अहुणुट्ठियं पुढविसमाणवण्णं दुविभावणिज्जं तं हरिय (द 8.15 जिचू पृ 278) हरिवर्ष जम्बूद्वीप द्वीप का वह क्षेत्र, जो निषध वर्षधरपर्वत के दक्षिण में, महाहिमवान् वर्षधरपर्वत के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में स्थित है। इस क्षेत्र के निवासी मनुष्य सिंह के वर्णवाले होते हैं। णिसहस्सवासहरपब्वयस्स दक्खिणेणं, महाहिमवंतस्सवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते। (जं 4.81) हरिः सिंहस्तस्य शुक्लरूपपरिणामित्वात् तद्वर्णमनुष्याधुषितत्वाद्धरिवर्ष इत्याख्यायते। (तवा 3.10.8) हस्तिरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न। अत्यन्त वेग और महान् पराक्रम से युक्त हाथी। (आवचू 1 पृ 184) (द्र अश्वरत्न) हाकार प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार। 'हा! तूने यह क्या किया?' ऐसा कहना। 'ह' इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हक्कारः। (स्था 7.66 वृ प 378) hoo हक्कार प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार। (स्था 7.66 वृ प 378) (द्र हाकार) हाडहडा आरोपणा प्रायश्चित्त का एक प्रकार। प्राप्त प्रायश्चित्त को शीघ्र देना। पविता ठविता या कसिणाकसिणा तहेव हाडहडा। आरोवणा पंचविहा॥ (व्यभा 599) (द्र आरोपणा प्रायश्चित्त) वह मूलरहित वनस्पति, जो द्रह, तालाब आदि में होती है तथा वायु के द्वारा प्रेरित होकर इधर-उधर हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org